विधवा का अर्थ, परिभाषा एवं प्रकार

विधवा शब्द 'वि' उपसर्ग और 'धव' से निर्मित है' । 'धव' शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। उदाहरणार्थ- हिलना-डुलना, कम्पन, मनुष्य, पति, मालिक, स्वामी, बदमाश, ठग और एक प्रकार का वृक्ष'। 'धव' शब्द से उसका स्त्रीलिंग शब्द 'धवा' बनता है । 'वि' उपसर्ग लगाने से विधवा शब्द का निर्माण होता है जिसका अर्थ होता है बिना पति के स्त्री अथवा मृत पति की स्त्री ।

निरूक्त में कहा गया है कि चर्मशिरा आचार्य ने धारयिता अर्थात् पालन-पोषण करने वाले पति की मृत्यु हो जाने पर विधवा के लिए विधातृ शब्द का प्रयोग किया गया है पति की स्त्री के लिए विधवा शब्द के प्रयोग के दो कारण बतलाए गये हैं- । 

१. पति की मृत्यु हो जाने पर वह भयभीत होकर कॉपने लगती है,
२. पति की मृत्यु हो जाने पर वह बेरोक-टोक इधर-उधर भागने लगती है ।

साहित्य और कोश में विधवा के लिए अनेक शब्दों का प्रयोग हुआ है । उदाहरणार्थ- विश्वस्ता; कात्यायनी, मृतभर्तृका, मृतपतिका, जालिका, रण्डा, यातिनी, यति, अवीर, निष्कला इत्यादि ।

'विश्वस्ता' में 'वि' और श्वस शब्द का संयोग है । श्वस् से आशय स्वांस लेने से है । इस प्रकार स्त्री के लिए पति का वही स्थान है जो शरीर धारण करने के लिए श्वांस का महत्व । इस प्रकार विश्वस्ता का अभिप्राय विधवा स्त्री से है

कात्यायनी का उल्लेख मेदिनी कोशकार ने किया है और उसे विधवा की कोटि में रक्खा है। उसके अनुसार काषाय वस्त्र धारण करने वाली अर्द्ध जरती (अधेड़ उम्र वाली ) स्त्री कात्यायनी कहलाती है"। अमरकोश के अनुसार गेरूआ वस्त्र धारण करने वाली अर्द्धवृद्धा कात्यायनी कहलाती थी । यह वेष उन विधवाओं के लिए मान्य था जो सती नहीं होती थी और ब्रह्मचर्या या सन्यासिनी का वेष बनाकर संयम नियम का पालन करती थी ।

मृत-मर्तृका और मृत-पतिका दोनों शब्द प्राय: एक दूसरे से बहुत अधिक मिलते-जुलते हैं । भृर्तृका और पतिका का आशय लगभग एक ही है- अर्थात प्रथम शब्द का आशय 'भरण' और द्वितीय शब्द का आशय है 'पालन' से है । इस तरह भरण-पोषण करने वाला या पालन करने वाला जब मृत हो गया हो।

हलायुध ने अभिधान रत्नमाला में जालिका का उल्लेख विधवा के अर्थ में किया है"। रण्डा शब्द पुंश्चली और विधवा के लिए वामन शिवराम आप्टे के शब्दकोश में मिलता है'। लोकाचार में आज भी विधवाओं को गाँवो में रॉड़ के नाम से जाना जाता है जिसका यह अपभ्रंश शब्द मानना चाहिए। इसी तरह प्रति और यतिनी शब्द का अर्थ शब्दकोश में विधवा ही मिलता (९९)

है" । साहित्य की दृष्टि से यद्यपि यति और यतिनी शब्द सन्यासी और सन्यासिनी अर्थ के बोधक है तथापि ये विधवा में पर्यायवाची इसलिए माने गये कि जिस प्रकार सन्यासी विरक्त भाव से ईश्वर का भजन करते हुए अपना जीवन विता देते हैं उसी प्रकार विधवाओं को भी निर्लिप्त और विरक्त होकर भजन-कीर्तन से अपना जीवन विता देना चाहिए ।

अवीरा शब्द का प्रयोग मनु ने अप्रत्यक्ष रूप से मनुस्मृति में किया है। उसके अनुसार पति और पुत्रवती नारी वीरा कहलाती थीं । अतः अवीरा उस स्त्री को मानना चाहिए जिसका पति न हो ( मर गया हो ) । आप्टे के अनुसार वह स्त्री जिसके न कोई पुत्र हो और न पति हो" ।

1-पुत्र रहित स्त्री के लिए निष्कला का प्रयोग हलायुध ने अभिधान रत्न माला पति- में किया है। वैसे इसका अभिप्राय रज प्रवाह से निवृत्त होनी वाली स्त्री से भी इसका आशय लिया गया है।

विधवाओं के प्रकार

विवाह के आधार पर विधवाओं के दस प्रकार सिद्ध होते है- वाग्दत्ता, मनोदत्ता, शुल्कदत्ता, उदकस्पर्शिता, अग्निपरिगता, पाणिगृहीता, सप्तपदनीता, भुक्ता, गृहीत गर्भा और प्रसूता"।

जिस कन्या को किसी के साथ विवाह करने के लिए वचन दे दिया गया हो परन्तु विवाह के पूर्व उसकी मृत्यु हो जाय उसे वाग्दत्ता विधवा कहा जाता है । वशिष्ठ ने ऐसी कन्या को विधवा नहीं स्वीकार किया है वरन् कुमारी कन्या माना है" । मनु ने ऐसी ही कन्या के साथ देवर को विवाह करने का परामर्श दिया है और इसे नियोग के अन्तर्गत माना है" । इसमें गर्भधारण तक दोनों में पवित्रता को महत्व दिया गया है न कि कामुकता को । मनु ने वेन के राज्य में नियोग की जो निन्दा की है वह इसलिए कि उस समय लोग काम वश नियोग करते थे जब कि 'नियोग' मात्र 'विधवा' की वंश वृद्धि हेतु उपयुक्त माना गया था ।

'मनोदत्ता' का अर्थ 'मन देने वाली' अर्थात कन्या जिस पुरुष को अपना मन दे दिया हो- अर्थात जिसे मन से अपना पति मान लिया हो उसकी यदि मृत्यु हो जाय तो वह कन्या 'मनोदत्ता विधवा' कहलाती थी । महाभारत में कहा गया है कि काशिराज की अपहृत तीन पुत्रियों में 'अम्बा' भीष्म पितामह द्वारा इसलिए मुक्त कर दी गई कि वह शाल्व को अपना पति चुन चुकी थी।

इसी प्रकार शुल्क दी गई कन्या (आसुर विवाह ) से विवाह के पूर्व वर की मृत्यु जाने पर शुल्कदत्ता, हाथ में जल लेकर संकल्प के साथ दान दी जाने वाली कन्या उदक स्पर्शिता, विवाह मण्डप में बने हवन कुण्ड में प्रज्ज्वलित अग्नि की परिक्रमा पूर्ण कर ली जाने वाली कन्या अग्नि परिगता, विवाह की एक विधि के अनुसार वर के साथ पाणिग्रहण संस्कार पूर्ण कर लेने वाली कन्या पाणि गृहीता और वर के साथ सप्तपदी पूर्ण कर लेने वाली कन्या का पति मर जाय तो उसे सप्तपदा नीता के नाम से सम्बोधित किया जाता है 

इसी प्रकार विवाह पूर्ण हो जाने पर पति के घर पहुँचने पर वर के साथ उसका समागम हो गया हो परन्तु कोई सन्तान न हुआ हो उसे भुताऔर गर्भ धारण कर लेने पर पति की हो जाय तो उसे गृहीत गर्भा और सन्तान पैदा हो जाने पर पति की पति की मृत्यु जाये तो उसे प्रसूता विधवा कहा जाता था । 

धर्मशास्त्रों के अनुसार वैवाहिक क्रियाएँ पूर्ण होने पर ही कन्या, पत्नी और पति की मृत्यु हो जाने पर पत्नी विधवा होती थी । मनु स्मृति के अनुसार भी 'सप्तपदी' पूर्ण होने पर ही वैवाहिक संस्कार पूर्ण माना जाता है, इसीलिए इसके बाद दोष पैदा होने पर भी दोनों में सम्बन्ध-विच्छेद नहीं हो सकता था । यम स्मृति में कहा गया है कि वाग्दान, उदकदान आदि से कोई कन्या पत्नी का रूप धारण नहीं कर सकती है वरन् सप्तपदी के पूर्ण होने पर ही वह पत्नी बनती है । महाभारत में भी वैवाहिक क्रिया की पूर्ति सप्तपदी होने पर ही माना गया है?। इस प्रकार सप्तपदी के पूर्ण होने के पहले ही वर-कन्या में दोष होने पर वे एक दूसरे को छोड़ सकते हैं, सप्तपदी के पूर्ण होने पर नहीं । 

याज्ञवल्क्य का कथन है कि पहले से अधिक गुणवान वर के मिलने पर ही प्रथम वर को छोड़ा जाय। इस पर टीका करते हुए विज्ञानेश्वर ने कहा कि सप्तपदी के पूर्ण होने पर ही ये नियम लागू होते है। काश्यप, शातातप और कात्यायन आदि ने भी सपदी के पूर्व ही अन्य श्रेष्ठ वर के प्राप्त होने पर प्रथम को छोड़ने का परामर्श दिया है२३। यही नहीं यदि इस बीच किसी वर की मृत्यु हो जाती थी तो कन्या का विवाह किसी अन्य योग्य वर से किया जा सकता था । वशिष्ठ ने तो उसे कुमारी कन्या मान कर पितृ संरक्षण में विवाह करने का परामर्श दिया है । 

कात्यायन ने कहा है कि ऐसे वाग्दान वाले वर की मृत्यु हो जाने पर कन्या को तीन ऋतुकाल तक प्रतीक्षा करनी चाहिए, तदुपरान्त वह दूसरे वर से विवाह कर ले“ । नारद ने ऐसे वर के विदेश चले जाने पर उक्त नियम पालन करने के लिए कहा है२६। अन्यत्र नारद ने पाँच आपात स्थिति में सप्तपदी के पूर्व पुनर्विवाह सम्पन्न करने की राय दी है वे पाँच स्थितियाँ है- विनष्ट, मृत्यु, प्रवास, क्लैव्यता और पतित २७

मनु के अनुसार शुल्क दे देने पर यदि शुल्क देने वाला मर जाता था तो यदि कन्या चाहे तो उसके छोटे भाई से अपना विवाह कर सकती थी । अथवा एक वर्ष की प्रतीक्षा के बाद वह किसी भी अन्य वर के साथ अपना विवाह कर सकती थी ।

उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि सप्तपदी पूर्ण होने पर ही विवाह की प्रक्रिया पूर्ण होती थी । यदि सप्तपदी के पूर्व वर की मृत्यु हो जाती थी तो कन्या को विधवा नहीं माना जाता था।

विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार विधवाओं के कई प्रकार थे। उदाहारणार्थ- पति के साथ जिसका सम्बन्ध शारीरिक दृष्टि से न हुआ हो उसे अक्षत योनि विधवा कहा जाता था । वशिष्ठ का कथन है कि यदि मंत्रों द्वारा विवाह हो गया हो, परन्तु पति-पत्नी का परस्पर समागम होने पूर्व ही पति की मृत्यु जाय तो ऐसी अक्षत् कन्या का पुनः विवाह संस्कार सम्पन्न हो जाता था। इसे अक्षता पुनर्भू भी कहा जाता था। पति द्वारा संसर्ग प्राप्त स्त्री बाद में विधवा हो जाती थी तो उसे ‘क्षतयोनि विधवा' कहा जाता था । गौरी दशा में अर्थात आठ वर्ष में विधवा होने पर तापिता, नौ वर्ष में होने वाली विधवा रोहिणी विधवा, दस वर्ष में होने वाली अबीरा, ग्यारहवे वर्ष में दुर्भगा, बारहवे वर्ष में कुटिला, तेरहवे वर्ष में काष्ठा, चौदहवे वर्ष में चरमा, पन्द्रहवें वर्ष चटुला सोलहवे वर्ष में वशा सत्रहवें वर्ष में वीररण्डा अठारहवें वर्ष में कुण्डरण्डा, उन्नीसवे वर्ष में वाधारण्डा और बीसवें वर्ष में पति की मृत्यु हो जाने पर स्त्री को परारण्डा कहा जाता था  ।

इसके अतिरिक्त साध्वी और असाध्वी विधवा का वर्णन भी धर्मशास्त्रों में उपलब्ध होता है। पति की मृत्यु हो जाने पर जो स्त्री संसार की सम्पूर्ण वस्तुओं को नश्वर, दुःखदायी, अज्ञान स्वरूप मानती हुई संसार को नश्वर समझती है और शास्त्रचिन्तन करती है उसे साध्वी विधवा कहते हैं। स्मृतिकार ऐसी विधवा को अविधवा के समान ही शुभ मानते हैं । साध्वी विधवा के विपरीत आचरण वाली स्त्री असाध्वी विधवा कहलाती थी ।

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