दुष्यंत कुमार का जीवन परिचय

दुष्यंत कुमार का जीवन परिचय

दुष्यंत कुमार हिन्दी साहित्य के जाने माने कवि, ग़ज़लकार, और रचनाकार के रूप में प्रसिद्ध है । वे प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के धनी थे। उन्होंने उपन्यासकार आजादी के बाद भारतवासियों के टूटे सपने, समग्र देश में फैला भ्रष्टाचार और सामान्य जन-जीवन को छू लेनेवाली समस्याओं को अपनी कविताओं के माध्यम से उजागर करनेवाले कवियों में एक विशिष्ट नाम दुष्यंत कुमार का है। 

हिन्दी ग़ज़लों की दुनिया में दुष्यंत कुमार एक 'मील का पत्थर' साबित हुए है। उन्हीं ने हिन्दी ग़ज़ल को एक नयी पहचान दी। इनसे पहले भी हिन्दी में निराला शमशेर, त्रिलोचन आदि साहित्यकारों ने ग़ज़ल विधा पर अपनी कलम चलायी थी, परन्तु उस समय ग़ज़ल अपना स्वतंत्र स्थान नहीं बना पायी थी । ग़ज़ल फारसी से उर्दू और उर्दू से भारत की अन्य भाषाओं में आयी है । उर्दू में जो ग़ज़ल लिखी जाती थी उसमें अधिकांश ग़ज़ले इश्क, मुहब्बत, प्यार, आशिको माशुक, वस्ल, तगाफुल, विरह वेदना आदि विषयों को लेकर लिखी जाती थी । ग़ज़ल का - अपना स्वतंत्र व्याकरण है, जिसके दायरे में रहकर इसकी रचना की जाती थी। दुष्यंत कुमार ने ग़ज़ल का अपनी रचनाओं में उपयोग करते समय ग़ज़ल के बंधारण को हल्की सी क्षती पहुँचाई है, उनको अपनी ग़ज़लो को लेकर आलोचकों की नकारात्मक बातों का भी सामना करना पड़ा, किन्तु उन्हें कहाँ परवाह थी, वह तो सामान्य जनता की भाषा में अपनी बात पहुँचाना चाहते थे । अपनी ग़ज़लों में उन्होंने साहित्यिक शब्दों का उपयोग करने के बजाये रोज बरोज में बोली जानेवाली भाषा का उपयोग किया है। उनकी रचनाओं में आम आदमी की पीड़ा, दुःख, दर्द, आक्रोश, गुस्सा देखा जा सकता है । 

दुष्यंत कुमार का जीवन परिचय

दुष्यंत कुमार का जन्म २७ सितंबर १९३१ में हुआ था, किन्तु स्कूल में प्रवेश कराते समय उनकी जन्मतिथि १ सितंबर १९३३ लिखाई गई थी । इस प्रकार उनकी जन्मतिथि में दो साल का अंतर पाया जाता है । यदि हम प्रमाणिकता के रूप में देखे तो उनकी जन्मतिथि वही मानी जानी चाहिए जो उनकी जन्मपत्री में दर्शायी गई है यानी २७ सितम्बर १९३१ किन्तु दुष्यंत कुमार ने अपनी कृतियों पर १ सितंबर १९३३ तिथि दर्ज करायी है, जिसके कारण १ सितंबर १९३३ को ही उनकी जन्मतिथि माना गया है । 

दुष्यंत कुमार की धर्मपत्नी श्रीमती राजेश्वरी त्यागी इस बात का उल्लेख करते हुए कहती है कि - "२७ सितंबर वाली तिथि को कवि दुष्यंत १ सितंबर करने के पक्ष में कैसा रोचक तर्क दिया करते थे । कहते कि महीने की २७वीं तारीख तक तो जेब खाली हो जाती है । इसलिए जन्मदिन की खुशियाँ तो पहली तारीख को मिले हुए वेतन पर ही मनाई जा सकती है ।'

दुष्यंत कुमार की असली जन्मतिथि को आपने अपने पास सँभालकर रखा था और उसके आधार पर जन्मपत्रिका भी बनवायी थी । उसमें दुष्यंत कुमार की जन्मतिथि २७ सितंबर १९३१ अंकित की है ।

दुष्यंत कुमार का जन्म भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के बिजनौर जिले के नजीबाबाद तहसील के समीप राजपुर - नवादा नामक गाँव में हुआ था । उनकी जन्मभूमि राजपुर-नवादा कृषि के उत्पादन में गन्ने और बाजरे जैसी फसलों के लिए प्रसिद्ध है । दुष्यंत कुमार के पिता श्री भगवत सहाय जमींदार थे। समाज में इनकी बहुत इज्ज़त थी । लोग भगवत सहाय जी को 'चौधरी जी' कहकर पुकारते थे । परंपरा में चौधरी जी भूमिधर ब्राह्मण के अंतर्गत आते थे । इन्होंने अपने जीवन में दो विवाह किए थे । पहली पत्नी का नाम विष्णुदेई था । पहली पत्नी विष्णुदेई से भगवत सहाय जी की तीन संताने हुई, जिनमें सबसे बड़े बेटे का नाम प्रकाशनारायण था । प्रसूत रोग के कारण विष्णुदेई का निधन हो गया । विष्णुदेई के पिता चौधरी रामप्रसाद मुरादाबार जिले के फौजदारी मामलों के मशहूर वकील थे। उनकी संतानों में सिर्फ दो बेटियाँ ही थी । पहली बेटी जिन्हें लोग 'भेनाजी' के नाम से बुलाते थे । 'भेनाजी' का विवाह तो हुआ था, लेकिन एक बार ससुराल जाकर मायके लौटी तो फिर कभी ससुराल नहीं गई । दूसरी बेटी विष्णुदेई की अचानक मौत के कारण वे अत्यंत दुःखी थे । वकील चौधरी रामप्रसाद ने बेटे के अभाव में अपनी जायदाद का उत्तराधिकारी अपने नाती प्रकाशनारायण को बना दिया । वकील साहब ने ही अपने विधुर हो चुके दामाद को दूसरे विवाह के लिए प्रेरणा दी । 

चौधरी भगवत सहाय का दूसरा विवाह मुरादाबाद शहर के पास धौधरा गाँव के टीकाराम त्यागी की छोटी बेटी रामकिशोरी देवी से संपन्न हुआ । रामकिशोरी देवी से चौधरी भगवत सहाय जी को सात संताने हुई । इसमें दुष्यंत कुमार दूसरी संतान थे । इनके बड़े भाई महेन्द्र थे । वह व्यवहार में अत्यंत सरल स्वभाव के मृदु और दिखने में आकर्षक थे । दुष्यंत कुमार के छोटे भाई का नाम प्रेमनारायणसिंह त्यागी था, जिन्हें प्रेम से 'मुन्नू जी' कहा करते थे ।

दुष्यंत कुमार के बड़े भाई महेन्द्र स्कूल में एक होनहार छात्र थे । वाद-विवाद और भाषण प्रतियोगिताओं में वे जिला स्तर पर प्रतिनिधित्व किया करते थे । ऐसी ही एक प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार लेकर वह खुशी-खुशी सहारपुर से मुजफ्फरनगर लौट रहे थे कि अचानक रेल्वे के सिग्नल से उनका सर टकरा गया और अकाल मौत का शिकार हो गए। उस वक्त महेन्द्र जी की आयु केवल सोलह वर्ष थी । दुष्यंत कुमार पर इस दुर्घटना का बड़ा प्रभाव पड़ा। इस वज्राघात से बाहर आने के लिए वह धर्म की ओर ध्यान देने लगे और 'रामचरितमानस', 'महाभारत' जैसी धार्मिक पुस्तकें पढ़ने लगे ।

बड़े भाई महेन्द्रनारायण त्यागी की अकाल मृत्यु दुष्यंतजी की चेतना पर अपना अमिट प्रभाव छोड़ गई । इसी वास्तविक घटना पर दुष्यंत कुमार एक कहानी भी लिखी । बड़े भाई की दर्दनाक, भयावह और आकस्मिक मौत का चित्रण इस प्रकार ‘आघात' नामक कहानी के माध्यम से किया है - मुजफ्फरनगर का स्टेशन समीप आया । महेन्द्र का हृदय बाँसों उछालने लगा । उसने बाहर झाँककर देखा स्टेशन पर विद्यार्थीयों की भीड़ । उसका हृदय आनंदातिरेक से भर उठा । अचानक अकाल काल का झोंका आया । सिग्नल से माथे की टक्कर लगी और वह पृथ्वी पर गिरकर छटपटाने लगा । जंजीर खिंची किन्तु गाड़ी स्टेशन पर ही जाकर रूकी । जब तक कि विद्यार्थी वहाँ पहुँचे, उसके प्राण पखेरू उड़ चुके थे ।

दुष्यंत कुमार का नाम राजा दुष्यंत के नाम पर रखा गया था, क्योंकि चौधरी भगवत् सहाय अपने पुत्रो के नाम राजाओं के नाम पर रखते थे । राजपुर नवादा के पास मालती नदी बहती है, जिसको एक किवदंती के आधार पर कण्व ऋषि के आश्रम और शकुन्ता तथा दुष्यंत के साथ जोड़ा जाता है । इसी आधार पर उनका नामकरण हुआ ।

दुष्यंत कुमार की प्रारंभिक शिक्षा नवादा नजीबाबाद, मुजफ्फरनगर, नटहौर तथा चंदौसी में हुई । ‘नवादा प्राथमिक विद्यालय' में प्रवेश लेकर छ वर्ष की आयु में बालक दुष्यंत की शिक्षा प्रारंभ हुई। चौथी कक्षा तक पढ़ाई गाँव में ही हुई । पाँचवी कक्षा में उन्हें नजीबाबाद पढ़ने के लिए भेज दिया गया । उनके बाद उन्हें तथा बड़े भाई महेन्द्र को मुजफ्फरनगर के स्कूल में भेजा गया । सातवीं कक्षा उन्होंने मुजफ्फर । नगर से पास की ओर आठवीं कक्षा नटहौर के माध्यमिक विद्यालय में १९४५ में पास 'की । सन् १९४८ में 'चंदौसी' (मुरादाबाद ) इण्टर कॉलेज से हायर सेकेण्ड्री द्वितीय श्रेणी में पास की।

दुष्यंत कुमार ने अपनी बेचलर डिग्री सन् १९५२ में प्रयाग विश्व विद्यालय से हिन्दी, इतिहास तथा दर्शनशास्त्र विषयों को लेकर पूर्ण की। बी. ए. करने के बाद १९५४ में एम. ए. परीक्षा उत्तीर्ण करके मास्टर डिग्री प्राप्त की । उनके गुरूओं में डॉ. रामकुमार वर्मा, डॉ. धीरेन्द्र वर्मा तथा डॉ. रसाल आदि थे ।

इलाहाबाद में आकर दुष्यंत कुमार को साहित्य का खुला आकाश मिल गया था । वह अपनी पढ़ाई के साथ-साथ कवि संमेलनों में भी जाने लगे थे और अपनी कविता सुनवाकर कुछ पैसे भी कमा लिया करते थे । दुष्यंत एम. ए. के विद्यार्थी थे, कई बार कैरियर, पैसा और आत्मा को स्वाधीनता के द्वन्द्वों और इनसे उत्पन्न हुए अंतद्वन्द्व में उलझ जाया करते थे, फिर भी अपने लक्ष्य को लेकर अटल थे ।

२९ मार्च १९५४ को आकाशवाणी द्वारा हिन्दी के नए प्रयोगशील कवियों का कविता पाठ का आयोजन किया गया था । जिसकी अध्यक्षता कवि सुमित्रानंदन पंत कर रहे थे । अजित कुमार, शमशेर, धर्मवीर भारती, जगदीश गुप्त, त्रिलोचन शास्त्री, गंगाप्रसाद पांडेय, राजनारायण बिसारिया, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और केदारनाथ सिंह के साथ साथ दुष्यंत कुमार को भी आमंत्रण मिला था । दुष्यंतजी अपने स्मरण लिखते है कि - " मैं बेसब्री से अपने नाम का इंतजार कर रहा था । सोच रहा था कि कब कविता सुनाऊँ और कब यहाँ से भागूँ । कवि सम्मेलन के बजाय मेरा सारा ध्यान अगले दिन सुबह सात बजे से होने वाली अपनी परीक्षा की ओर था ? जिसकी कोई तैयारी अब तक नहीं की जा सकी थी।

इसी समय कई ऐसी परिस्थितियाँ भी आई जिनसे अपने लक्ष्य को लेकर विचलित भी हुआ जा सकता था, वे जल्दबाज स्वभाव के थे, दुनिया को अपनी मुठ्ठी करना चाहते थे और उनकी ये आकांक्षाओं और बेताबी, परेशानियाँ भी खड़ी करती थी, किन्तु ऐसे समय दुष्यंत को संभालने के लिए कमलेश्वर और मार्कण्डेय जैसे मित्र थे ।

दुष्यंत कुमार जब छात्रालय में रहते थे तब वहाँ के नियम बहुत सख्त थे । प्रत्येक छात्र को प्रतिदिन सुबह उठकर सबसे पहले कुएँ के ठंडे पानी से स्नान करना अनिवार्य था । 

दुष्यंत कुमार दिखने में खूबसूरत थे और अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व के कारण भीड़ में भी अपना अलग स्थान बनाने का हुनर रखते थे । वह मृदुभाषी भी थे, हाजर जवाबी थे । अन्याय के विरोधी और प्रतिकारी स्वभाव के थे, जिद्दी थे । सुखी संपन्न परिवार से थे। अपनी ही मस्ती में रहते थे । अपनी बातों से सामनेवाले को प्रभावित कर देते थे और यह सब गुण किसी लड़की को प्रभावित और अपनी तरफ आकृष्ट करने के लिए पर्याप्त है ।

अपने नटहौर के विद्यार्थी जीवन में दुष्यंत कुमार अपनी ही जाति की हेमलता त्यागी नाम की सहपाठिनी से प्रेम करने लगते हैं । उस वक्त दुष्यंत जी की आयु करीब पंद्रह वर्ष के आस-पास रही होगी । यदि कोई छात्र अपनी स्कूल के जीवन में ही प्रणय शुरू कर देता है तो वह अपने अन्य मित्रों में हीरो बन जाता है, क्योंकि सभी छात्र इस उम्र में खुलकर या छुपकर भी प्रेम करने की हिंमत नहीं जुटा पाते, उन्हें अपने माता-पिता, शिक्षक और परिवारजनों का भय रहता है, किन्तु यहाँ तो डरना तो दुष्यंत के स्वभाव में था ही नहीं, बेधड़क अपने प्रेम का इजहार करते हैं और उसकी चर्चा पूरे कस्बे में होने लगती है । जाति भी दोनों की एक ही होने के कारण ज्यादा बाधा भी नहीं आती और लड़की के माँ-बाप ने खुद सामने चलकर विवाह का प्रस्ताव रख दिया । तरूण दुष्यंत के मन में जो खुशियों का सागर उमड़ रहा होगा उसकी कल्पना ही की जा सकती है । तरूणावस्था के प्रेम में एक अलग ही बात होती है, अलग ही मजा होता है, अलग ही रोमांच होता है। डर डर कर मिलना, उसके आने का इंतेजार करना, कभी पकडे जाने से बच जाना, भेंट सोगादों की आपले करना, मित्रों का हमें उसका नाम ले ले कर चिढाना, उसके लिए किसी से भी लड़ने तैयार हो जाना, उसकी परवाह करना, रूठना-मनाना, लड़ना - झगड़ना इत्यादि होता रहता है। दुष्यंत कुमार ने भी विवाह के प्रस्ताव को मंजूर कर लिया, किन्तु विधाता को कुछ ओर ही मंजूर था । 

दुष्यंत कुमार के प्रणय संबंध में बाधा कहीं ओर से न आकर घर से ही आई । चौधरी भगवत सहाय ने बेटे दुष्यंत का विवाह दूसरी जगह तय कर दिया था और जब नहौर से घर पहुँचे तो उन्हें कह दिया गया कि शादी अन्यत्र पक्की की जा चुकी है। इधर दुष्यंत कुमार इस बात पर अड़ गए कि विवाह तो वे अपनी प्रेमिका हेमलता से ही करेंगे । घर घर ना रहकर फिल्म मुगले-आजम का सेट बन गया । एक तरफ़ बाप अपने बेटे को समझा रहा है कि, मुहब्बत हमने भी की है । इश्क हमने भी लड़ाया है, लेकिन तुम्हारी तरह दिवाने बनकर हर उस लड़की से शादी करते नहीं फिरे । इधर बेटा अपनी जिद्द पे था कि वह शादी तो अपनी प्रेमिका से ही करेगा ।

इधर माता रामकिशोरी देवी ने भी अपने बेटे के लिए एक लड़की देख रखी थी और अपनी ओर से रिश्ता भी तय - सा कर लिया था। माँ के प्रस्ताव पर दुष्यंत कुमार मना करते रहते थे, किन्तु खुल कर नहीं बता पा रहे थे, तरह-तरह के बहाने बनाते रहते पर बाद में पता चल गया कि वे किसी ओर लड़की से प्रेम करते हैं और उसी से शादी भी करना चाहते हैं ।

दुष्यंत कुमार के लिए यह अत्यंत कठिन समय था । पिता की जिद्द के आगे दुष्यंत कुमार को हारना पड़ा और अपनी प्रेमिका हेमलता से जुदा होना पड़ा ।

३० नवम्बर १९४८ को १८ वर्ष की आयु में दुष्यंत कुमार का विवाह सहारनपुर जिले के इंगेठा नामक गाँव में श्री सूरजभान त्यागी की सुपुत्री राजेश्वरी से हिन्दु परम्पराओं के अनुसार संपन्न हुआ । राजेश्वरी जी विवाह होने से पूर्व दसवीं कक्षा पास कर चुकी थी। दुष्यंत कुमार ने उन्हें आगे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया । राजेश्वरी जी ने बी. ए., बी. एड. किया और हिन्दी तथा मनोविज्ञान में एम. ए. की उपाधि प्राप्त की । अभ्यास पूरा करने के पश्चात् श्रीमती राजेश्वरी ने सन् १९६२ में बुरहानपुर के एक प्राइवेट कॉलेज में हिन्दी की प्राध्यापिका के रूप में कार्य किया । उसके बाद उन्होंने भोपाल के टी. टी. नगर में उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में हिन्दी विषय की प्राध्यापिका के रूप में कार्य किया और इसी पद पर सेवा निवृत्त हुई । राजेश्वरी जी की माँ का नाम श्रीमती सेना त्यागी था । उनके पिता सूरजभान त्यागी कानूनगो थे । राजेश्वरी जी के दो भाई एवं एक बहन है ।

दुष्यंत कुमार एम. ए. की पढ़ाई पूरी करने के पश्चात् जीवन के अंतिम समय तक नौकरी करते रहे । अपने जीवन में कई नौकरियाँ भी बदली और कुछ समय तक नौकरी के बिना भी रहे, उस समय वें उपन्यास लिखते और गाँव में खेती भी करते । बैठे रहना उनके स्वभाव में नहीं था। दुष्यंत कुमार ने जीवन में नौकरी को लेकर भी काफी उतार-चढ़ाव देखे थे और क्लास वन के पद तक भी गये थे । श्रीमती राजेश्वरी जी के शब्दो में "दुष्यंत जी का पैतृक व्यवसाय तो खेती था। एम. ए. के अध्ययन करने के बाद उन्होंने नौकरी ढूँढने का प्रयास किया इसके साथ ही साथ लेखन कार्य भी चलता रहा। प्रारंभ तो उन्होंने एक इण्टर कॉलेज में लेक्चररशिप से किया, उसके बाद आकाशवाणी में पाँच वर्ष तक असिस्टन्ट प्रोड्युसर के पद पर कार्य किया । आकाशवाणी छोड़कर फिर वे मध्यप्रदेश के भाषा विभाग में असिस्टन्ट डायरेक्टर बन गये और अंत तक उसी में रहे। बीच में एक साल के लिए वे आदिम जाति कल्याण विभाग में भी रिसर्च ऑफिसर के पद पर रहे। नौकरी के दौरान उन्हें कीरतपुर दिल्ली और भोपाल में रहना पड़ा। नौकरी की इस दौड़-धूप के साथ-साथ पुस्तकों का लेखन कार्य भी चलता रहा । '

अपने चंदौसी काल में दुष्यंत कुमार ने रामकुमार राजपूत और महावीर सिंह के साथ मिलकर 'पुकार' नाम की मासिक पत्रिका का प्रकाशन कार्य किया । एक कस्बे के तीन विद्यार्थीयों का इस प्रकार पत्रिका का प्रकाशन करना सचमुच एक अद्वितीय घटना थी । यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उसका पहला अंक १९४९ के जनवरी-फरवरी मास में प्रकाशित हुआ होगा । यह एक सामाजिक तथा फिल्मी सचित्र मासिक पत्रिका थी ।

"कवि ने अपनी एक कहानी में पत्रिका के रूप-रंग और क्लेवर का चित्रण कुछ इस प्रकार किया है - "मुखपृष्ठ पर रेहाना का चित्र था । नृत्य की मुद्रा में दोनों हाथ ऊपर उठाए वह कमर टेढ़ी किए खड़ी थी। अंदर कवर पेज की पीठ पर संपादक जी का एक बड़ा-सा फोटो था, जिसके नीचे लिखा था 'पुकार' के वर्चस्वी और तपस्वी संपादक ।' "१२

'पुकार' एक प्रगतिशील पत्रिका थी । इसमें कविताएँ, रोचक कहानियाँ, समाज को जागृत करनेवाले लेख, महिला जगत, फिल्मी दुनिया के समाचार, आपके प्रश्नों के उत्तर, आपकी पसंद के गाने, विचारोत्तेजक संपादीय लेख आदि अनेक स्थायी स्तंभ थे । यह पत्रिका डेढ़ साल चली और दुष्यंत कुमार जब इलाहाबाद चले गए तो यह पत्रिका भी बंद हो गयी ।

इलाहाबाद में दुष्यंत कुमार के मार्कण्डेय और कमलेश्वर जैसे जिगरी दोस्त मिले । इन तीनों ने मिलकर 'विहान' नामक पत्रिका निकाली । विहान के पहले अंक में विद्यानिवास मिश्र जैसे बड़े निबंधकार का 'टिकोरा' नामक निबंध छपा । पत्रिका का मुखपृष्ठ और सारे रेखांकन कमलेश्वर के थे । आर्थिक कारणों से 'विहान' चली नहीं और उसका पहला अंक ही अंतिम अंक बन गया ।

दुष्यंत कुमार का प्रथम काव्यसंग्रह 'सूर्य का स्वागत' आया उसके बाद उन्हें दिल्ली आकाशवाणी में हिन्दी वार्ता विभाग में स्क्रिप्ट राइटर की नौकरी मिल गई ।

यह समय १९५७ का था। दुष्यंत जी डॉ. हरदेव बाहरी के निर्देशन में हिन्दी विभाग में काम करने लगे, पर इसी बीच उनका अपने गाँव आना-जाना लगा रहता था, इसी '. कारण डॉ. हरदेव बाहरी के साथ उन्हें खास जमा नहीं, इसी दौरान उन्हें नजीबाबाद के पास ही किरतपुर में एक निजी कॉलेज में नौकरी मिल गई । 'छोटे-छोटे सवाल' उपन्यास इन्हीं अनुभवों पर आधारित है ।

किरतपुर जैसे पिछड़े कस्बे में अपने आधुनिक विचारों को लेकर दुष्यंत कुमार अपने रहन-सहन, खानेपीने के सलीकेदार तरीकों से छात्रों के लिए आकर्षण का केन्द्र बन चुके थे । इनका यह व्यवहार अन्य प्रोफेसरों तथा प्रबंध समिति के सदस्यों को खटकने लगा ।

एक तरफ पुराने रीत-रिवाजों को आदर्श माननेवाला समाज दूसरी ओर बूढ़े हो चुके रूढ़ और निष्प्राण जीवन को विचारों की नई साँसों और ताजी निगाह से पुनर्नवित करने की मुहिम के बीच समन्वय की किसी भी प्रकार की शक्यता न देख किरतपुर की यह नौकरी भी छोड़कर वापस इलाहाबाद आ कर रहने लगे । नौकरी की समस्या ज्यों की त्यों थी, इसी बीच उन्होंने मुरादाबाद के कोरोनेशन हिन्दु कॉलेज में बी. टी. में दाखिला लिया, जिससे उनकी अध्यापक की नौकरी तो निश्चित हो सके । १९५८ में बी. टी. पुरा करने के बाद भी आजीविका की समस्या हल नहीं हुई। दुष्यंत कुमार मुरादाबाद से फिर इलाहाबाद चले आए। वे कभी पंत जी तो कभी बच्चन जी से इस अपेक्षा के साथ मिला करते कि उनकी सहायता से कहीं नौकरी का जुगाड़ हो जाए । बच्चन जी से दुष्यंत कुमार को अकृत्रिम स्नेह मिला था ।

हिन्दी साहित्य में महत्त्वपूर्ण योगदान देनेवाले दुष्यंत कुमार की मृत्यु २९ दिसम्बर १९७५ को भोपाल में करीब रात में ढाई बजे हो गई ।

दुष्यंत कुमार की रचनाएँ

१. दुष्यंत कुमार का पद्य साहित्य :

(१) 'सूर्य का स्वागत' : 'सूर्य का स्वागत' दुष्यंत कुमार का प्रथम प्रकाशित काव्य संग्रह है । इसवी सन् १९५७ में इसका प्रकाशन हुआ था। इसके प्रकाशन का खर्च स्वयं कवि ने उठाया था । इसके प्रकाशित होने के साथ ही दुष्यंत कुमार को एक कवि के रूप में मान्यता प्राप्त हो गई । इसकी रचनाओं में कवि के युवा हृदय का प्रतिबिंब पड़ता है । इसमें एक ओर कवि के हृदय की बेचेनी भी है और दूसरी ओर हृदय की आस्था एवम् श्रद्धा के भी दर्शन होते है । इस काव्य संग्रह में ४८ रचनाएँ संग्रहित है ।

(२) 'आवाजों के घेरे' : 'आवाजों के घेरे' दुष्यंत कुमार का दूसरा काव्यसंग्रह है । यह सन् १९६३ में प्रकाशित हुआ था । इसमें ५१ कविताएँ संकलित है । इसमें भी विविध विषयों को लेकर कविताएँ लिखी गई है। साथ ही कवि ने जो विषय कविता में अछूते रह जाते है, उनको भी स्पर्श करने का प्रयत्न किया है। दुष्यंत कुमार ने पीड़ितों, शोषितों, घायलों की वेदना को व्यक्त करने का सफल प्रयास किया है । 

(३) 'जलते हुए वन का वसंत': 'जलते हुए वन का वसंत' दुष्यंत कुमार का तीसरा काव्य संग्रह है । इसमें ४५ कविताएँ संग्रहित है । यह १९७३ में प्रकाशित हुआ था ।

(४) 'साये में धूप' : यह दुष्यंत कुमार की अति चर्चित रचना है । सन् १९७५ में यह प्रकाशित हुई थी, इस में ५२ ग़ज़ले है । यह दुष्यंत कुमार की अंतिम रचना है । इसी रचना के माध्यम से दुष्यंत कुमार को सबसे ज्यादा प्रसिद्धि मिली । 

२. दुष्यंत कुमार का नाट्य काव्य :

(१) 'एक कण्ठ विषपायी' : ‘एक कण्ठ विषपायी' दुष्यंत कुमार का बहुचर्चित काव्य नाटक है । उसमें कवि ने पौराणिक कथा का आधार लेकर वर्तमान समस्या को उजागर किया है । इस कृति में सामाजिक परंपराओं तथा रूढ़ियों का वर्णन किया गया है । इस कृति से दुष्यंत कुमार को बहुप्रतिभाशाली कवि के रूप में पहचान मिली। इसका प्रकाशन सन् १९६३ हुआ था।

३. दुष्यंत कुमार के उपन्यास :

(१) 'छोटे-छोटे सवाल' : यह दुष्यंत कुमार का प्रथम उपन्यास है । यह सन् १९६४ में प्रकाशित हुआ था । उपन्यास की संपूर्ण कथा २६ अंकों में फैली हुई है । यह अंकों के शीर्षक क्रमशः 'इण्टरव्यू से पहले', 'सलेक्शन कमेटी', 'गूँगे की दुकान', 'कोठरी', 'कृषि योजना', 'लौटते हुए', 'प्रिंसिपाल की कुरसी', 'हास्टल', 'विमर्श और परामर्श', 'समझौता', 'बजती हुई साँकले', 'जाले', 'संरक्षक', 'टूटी हुई छत', 'तूफान', 'गोड़', 'अधिकार', 'धीरज का बाँध', 'तालाब का पक्षी', 'दो सेक्रेटरी', 'मुख्य द्वार', ‘हड़ताल’, ‘इज्जत का सवाल', 'बुझी हुई लालटेन', 'निर्णय और प्रश्नाहत जिंदगी' है । इसका कथानक तीन सौ ग्यारह पृष्ठों में फैला हुआ है । इसकी शीर्षक योजना दुष्यंत कुमार के मित्र और प्रख्यात उपन्यासकार राजेन्द्र यादव ने तैयार की है ।

(२) 'आँगन में एक वृक्ष' : यह दुष्यंत कुमार का दूसरा उपन्यास है । जिसका प्रकाशन सन् १९६८ में हुआ था । यह आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया उपन्यास है । यह उपन्यास सवा पुष्ठों में फैला हुआ है, इसमें चार खंड है । इस उपन्यास में जमींदारी प्रथा का दर्शन होता है ।

४. दुष्यंत कुमार की कहानियाँ :

(3) 'आघात' : यह कहानी दुष्यंत कुमार के वास्तविक जीवन से जुड़ी हुई है । चौधरी भगवत सहाय अपने इलाके के रइसों में से एक थे । 

(२) 'कलियुग' : 'कलियुग' एक गरीब ब्राह्मणी की कथा है । अपने पति की मृत्यु के पश्चात्पाँ च सौ रूपए उसके पास होते है, वह उन रूपयों को शाहुकार के पास जमा करा देती है और कहती है कि जब उसका पुत्र बड़ा हो जाएगा, तब आगे की पढ़ाई के लिए पैसों की आवश्यकता होगी, उस वक्त ले लेगी ।

(३) 'मिस पीटर' : 'मिस पीटर' कहानी में एक काल्पनिक पात्र मिस पीटर के नाम का उपयोग करके लेखक को उनके मित्रों द्वारा किस प्रकार मूर्ख बनाया जाता है, उसका वर्णन है । लेखक का एक मित्र गुप्ता उन्हें टेलिफोन पर लड़की के आवाज में बात करके बेवकूफ बनाता है, वह अपना नाम मिस पीटर बताती है, लेखक उसके साथ बात करते-करते उसके प्रेम में पड़ जाते है और उससे मिलने के लिए बावले हो जाते है । दोनों के बीच पत्र व्यवहार होता है, लेकिन जब उनके मित्रों को लगता है कि यदि यह ड्रामा आगे बढ़ाया गया तो लेखक की पढ़ाई पर इसका असर हो सकता है तो वह सारी सच्चाई बता देते हैं ।

(४) 'छिमिया' : ‘छिमिया' एक स्वाभिमानी स्त्री की कहानी है । उसका मूल नाम शीला है । के अपनी ससुर की मृत्यु के पश्चात् छिमिया का परिवार बीखर गया और वह अपने पति के साथ किसी दूसरी जगह आकर रहने लगी। आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण शीला उर्फ छिमिया ने अपने पति को आर्थिक रूप से मदद करने के इरादे से एक स्कूल में सामान्य सी नौकरी करना शुरू कर दी और अपना नाम शीला से छिमिया रख दिया, किन्तु स्कूल में काम करते हुए उसे अनुभव हुआ कि जहाँ अपना कोई सम्मान न हो, वहाँ काम नहीं किया जा सकता । खुद को स्कूल के नौकरी में योग्य सम्मान न मिलने के कारण उसने वह नौकरी छोड़ दी और नारी कल्याण संस्था में 'चपरासी की नौकरी करने लगी ।

(५) 'मड़वा उर्फ माड़े' : 'मड़वा उर्फ माड़े' एक परोपकारी व्यक्ति के जीवन से जुड़ी कहानी है । वह मनुष्य से लेकर जंगल के जानवरों का तक ख्याल रखता था । वह गरमी के मौसम में पंखियों और जानवरों के पीने के पानी की व्यवस्था करता । वह आटा लोगों से इकट्ठा कर चीटियों और मछलियों को भी खिलाता । बरसात में लोगों को नदी के इस छोर से उस छोर तक पहुँचाना, खाली समय में रास्तों की मरम्मत करना इस तरह के परोपकार के कार्य वह करता रहता था । कुछ लोग उसे सनकी कहते, कोई उसे गाली दे फिर भी वह शिकायत नहीं करता । इलाके के सारे लोग साधु से लेकर चोर तक सारे उससे परिचित थे ।

एक बार उस इलाके के प्रसिद्ध सुलताना डाकु ने गाँव पर हमला बोल दिया । सारे लोग गाँव छोड़कर भाग गए, लेकिन मांडे नहीं भागा । उसने कुछ लोगों को समझाया के इन डकैतों का मुकाबला किया जाए, किन्तु कोई भी मर्द तैयार नहीं हुआ । सबको अपनी जान प्यारी थी । मांडे अकेला ही गाँव में रूका रहा, एक दरख्त पर चढ़कर गाँव को लूटते हुए देखता रहा । ऊँचे

पुलिस जब डकैती की जाँच के लिए आई तो सबकी पूछताछ हुई, मांडे को भी बुलाया गया । सिर्फ शक की बुनियाद पर पुलिस ने मांडे को गिरफ्तार कर लिया और डकैतों से मिला होने के झूठे आरोप में उसे छ साल की सजा सुनाई गई । इस घटना से मांडे का दिल तूट गया । जब वह जेल से छूटकर आया तो सब कुछ बदल चूका था, उसने गाँव जंगल और पशु-पक्षियों की लावारिस हालत देखी तो उसे गहरा सदमा हुआ । उसके लगाए हुए अनेक पेड़ो में से केवल पाँच आम के पेड़ बचे थे, इन्हीं पेड़ों के नीचे दुःख में घुलते हुए माड़े ने एक दोपहर प्राण त्याग दिए ।

(यह कहानी 'कल्पना' पत्रिका हैदराबाद में अगस्त १९५७ को प्रकाशित हुई थी । )

(६) 'हाथी का प्रतिशोध' : इस कहानी में हाथी को परेशान करने पर वह किस प्रकार उसका बदला लेता है, उसका वर्णन है । लेखक अपने पिताजी और उनके सहयोगियों के साथ जंगल में घूमने गए। वहाँ लेखक एक तीतर का शिकार करते हैं, बंदूक की फायरिंग की आवाज सुनकर हाथियों का झुंड भड़क जाता है। रात को एक हाथी लेखक और उनके साथियों के ठीकाने पर आता है, हाथी के आने से पहले ही लेखक और उनके साथी उस जगा को जल्दी से खाली कर देते है और दूर पेड़ पर चढ़कर बैठ जाते है । हाथी आता है और सब कुछ तहस नहस करके चला जाता है, लेकिन लेखक को यह बात समझ में नहीं आती कि हाथी किस बात पर नाराज हुआ था ।

(7) 'वह मुसाफिर' : ट्रेन में एक मुसाफिर अन्य यात्रियों के साथ सफर कर रहा होता है । उसके डिब्बे में एक चाची और उसके साथ कुछ बच्चे भी थे । बच्चे बहुत धमाल मस्ती करते है । चाची उनको चुप करने के लिए एक कहानी सुनाती है, किन्तु उस कहानी में बच्चों को मजा नहीं आता । वह मुसाफिर उन बच्चों को कहानी सुनाना चाहता है, लेकिन बच्चे भी उसकी कहानी का प्रारंभ सुनकर ही उगताने लगते हैं ।

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