जकात किसे कहते हैं इस्लाम में इसका महत्व क्या है ?

जकात किसे कहते हैं ?

जकात का तात्पर्य यह कि मुसलमान अपनी सम्पत्ति को गरीबों के बीच बांट कर लोभ एवं लालच जैसी कुरीतियों से मुक्ति पाता है। जकात देना एक प्रकार का ईश्वर के प्रति भक्ति का सूचक था। यह धार्मिक अनिवार्यता इमाम के द्वारा लगाया जाता था, क्योंकि कुरान में इसके सम्बंध में चर्चा की गयी थी और वह कुरान के नियमों पर आधारित था। जकात की एक निश्चित राशि सम्पूर्ण सम्पत्ति पर लगायी जाता थी । कुरान की परम्पराओं में उसे आठ प्रकार के व्यक्तियों के बीच विभक्त किया गया है। सफाईत सिद्धान्त के अनुसार मुसलमान ही जकात दे सकते हैं। सफाईत और हनीफी सिद्धान्त के अनुसार जकात सम्पूर्ण वस्तुओं पर लगाया जाता है।" जकात सोने, चांदी, पशु अथवा व्यापार के समान के रुप में दिया जाता था बशर्ते कि ये सभी वस्तुएं एक निश्चित सीमा तक जिसे 'निसाब' कहते थे, पहुँच सकती थी । "

अरबी भाषा में जकात का अर्थ "अर्द्धशुद्धता" है । पैगम्बर ने यह प्रथा यहूदियों से सीखा था । उनका यह विश्वास था कि सांसारिक वस्तुएं भक्ति के मार्ग में बाधक है, अतः इसे दान कर देना चाहिए । इस्लाम के अनुसार इस विश्व में मनुष्य की सुख-सुविधाओं के लिए ईश्वर ने विविध प्रकार की वस्तुएं निर्मित की है। विश्व की सम्पूर्ण वस्तुएं केवल मुट्ठी भर लोगों के अधिकार में न रहें इसलिए उसने ऐसे नियम बना दिए है, जिनका पालन करते हुए प्रत्येक मनुष्य आवश्यक और जीवनोपयोगी वस्तुओं को दूसरों तक पहुँचा सके। यह विधि मनुष्यों में परस्पर प्रेम और त्याग की भावना को बल प्रदान करती है। इसके लिए इस्लाम में जकात, खुम्स, खैर-खैरात और सदके का विधान है। 1 इसके द्वारा मनुष्य का इहलोक और परलोक दोनों में उद्धार होता है। इनमें से खैर-खैरात नेकी की अलामत होते हुए भी अनिवार्य नहीं है किन्तु कुरान में धन सम्पति पर खुम्स (5वें हिस्से) और जकात (40वें हिस्से) की अनिवार्यता घोषित की गयी है।" यह ईश्वर द्वारा प्रदान की गयी वस्तुओं के प्रति कृतज्ञता की अभिव्यक्ति विभिन्न प्रकार की बुराइयों से मुक्ति एवं मन मस्तिष्क की शुद्धि का साधन है । ईश्वर का कृपा पात्र बनने के लिए जकात देना आवश्यक है । "

वर्ष में एक बार जकात देना आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न ( साहिबे शिब ) मुसलमानों के लिए "फर्ज" है। इसकी मात्रा विभिन्न प्रकार की वस्तुओं (कृषि और उपवन, पशु, बहुमूल्य वस्तुयें, व्यापार, नौकरी आदि) पर निर्धारित कर दी गई है। कृषि और उपवन से सम्बंधित जकात उत्पत्ति के उपरान्त दी जाती है । अचानक प्राप्त होने वाले लाभ पर वर्ष व्यक्ति होने की प्रतिष्ठा किये बिना तुरन्त खुम्स अर्थात् पांचवां हिस्सा देना आवश्यक है।

जकात के अन्तर्गत "सदका " भी एक धार्मिक कर है । परन्तु यह माना जाता है कि सदका वर्ग है और जकात उसकी जाति है। सफाईत और अलमावर्दी जैसे विद्वान इन दोनों में कोई भेद नहीं मानते हैं। किन्तु दूसरे लेखकों के अनुसार हर जकात सदका है लेकिन सदका जकात नहीं है । केवल वही सदका जो कर्तव्य मान कर दिया जाता है, जकात है।

हनीफी विद्वानों के अनुसार जकात एक पवित्र और पूज्य कर्म है । जकात ईश्वर और मनुष्य के बीच एक ऐसा समझौता है जिसे बलपूर्वक वसूल नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह कर्तव्य माना जाता था । इसे देना अपनी इच्छा के ऊपर निर्भर करता था एवं जबरदस्ती करने से इसका महत्व नष्ट हो जाता था । यह मुस्लिम धर्म के पांच कर्तव्यों में से एक है। दूसरी महत्वपूर्ण बात इसमें यह थी कि जकात का लेखा नहीं होता था क्योंकि यह एक धार्मिक कर था। इसके लिए सूक्ष्म रूप से नियम निश्चित किए गये हैं। पहली महत्वपूर्ण दशा यह है कि यदि कर देने वाला कर देने के महत्व को न समझता हो या उसके पास कोई निजी सम्पत्ति न हो तो उस पर जकात कर वैध नहीं होगा या उस पर जकात नहीं लगा सकते। बच्चे, बूढ़े दास, पागल, कर्जदार, दिवालिया और गैर मुस्लिम इस कर से मुक्त माने जाते थे। किसी भूमि के मालिक की मृत्यु के उपरान्त भी सदका कर लेने का विधान रखा गया किन्तु हनीफी के अनुसार उपरोक्त दशा में यह कर नहीं लगाना चाहिए।

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