काशी वाराणसी के प्रमुख मंदिर

काशी वाराणसी के प्रमुख मंदिर

वर्तमान में काशी के असि से आदिकेशव घाटों एवं समीपवर्ती क्षेत्रों में लगभग 215 मंदिरों के सुरक्षित उदाहरण देखे जा सकते हैं। इन मंदिरों का निर्माण 18वीं शती से 20वीं शती ई0 के मध्य हुआ है। छोटे-बड़े आकार तथा विभिन्न स्थापत्य शैलियों वाले घाट स्थित मंदिरों में सार्वधिक शिव को समर्पित हैं जिनकी कुल संख्या 112 है। इनके अतिरिक्त लगभग 39 मंदिर विष्णु को, 26 देवियों को, 17 गणेश को, 9 हनुमान को एवं 5 सूर्य को समर्पित हैं। दो मंदिर जैन धर्म से भी सम्बन्धित हैं जो काशी में जन्मे सुपार्श्वनाथ (वच्छराज एवं जैनधाट) को समर्पित हैं। अन्य मंदिरों में दत्तावत्रेय, गंगा, कपिलमुनि की मूर्तियाँ एवं चरण पादुका (निरंजनीघाट) प्रतिष्ठित हैं। घाटों पर बने मंदिरों में सम्पूर्ण भारत में प्रचलित मंदिर निर्माण की विविध स्थापत्य शैलियों (नागर, द्रविड़ एवं पश्चिम भारतीय ) की स्वतंत्र एवं मिश्रित परम्परा दिखलाई देती है। काशी में गुम्बदाकार, पगोड़ा एवं सपाट छत वाले मंदिर भी देखे जा सकते हैं। असिघाट स्थित जगन्नाथ एवं लक्ष्मीनारायण (पंचरत्न), मणिकणिकाघाट स्थित रानी भवानी तथा आमेठी शिव मंदिरों का निर्माण ओसिया एवं खजुराहो के पंचायतन शैली के नागर मंदिरों से प्रभावित हैं। अहिल्याबाईघाट स्थित शिव मंदिर, मणिकर्णिकाघाट स्थित आमेठी शिव मंदिर, भोंसलाघाट स्थित लक्ष्मीनारायण एवं रघुराजेश्वर मंदिर, गणेशघाट स्थित अमृतविनायक मंदिर, गायघाट, स्थित लक्ष्मीनारायण मंदिर तथा आदिकेशवघाट स्थित आदिकेशव मंदिरों में पिश्चम भारत की स्थापत्य शैली के अनुरूप मूल प्रासाद (गर्भगृह) गूढ़ मण्डप (महामण्डप), मण्डप एवं अर्द्धमण्डप का भी निर्माण किया गया है।

असिघाट स्थित लक्ष्मीनारायण एवं मयूरेश्वर, तुलसीघाट स्थित अर्कविनायक, वच्छराज एवं जैनघाट स्थित सुपार्श्वनाथ जैन (श्वेताम्बर एवं दिगम्बर), निरंजनीघाट स्थित पादुका, गौरी-शंकर एवं दुर्गा, दण्डीघाट स्थित शिव, नारदघाट स्थित नारदेश्वर एवं दत्तात्रेय राजाघाट स्थित अत्रपूर्णा एवं लक्ष्मीनारायण, चौसट्टीघाटय स्थित चौसट्टी - देवी, शीतलाघाट स्थित शिव, प्रयागघाट स्थित शूलटंकेश्वर, मणिकर्णिकाघाट स्थित तारकेश्वर, रत्नेश्वर एवं मनोकामेश्वर, अग्नीश्वरघाट स्थित अग्नीश्वर (शिव), दुर्गाघाट स्थित ब्रह्मचारिणी, शीतलाघाट (द्वितीय) स्थित शीतला, गायघाट स्थित मुखनिर्मालिका, त्रिलोचनघाट स्थित त्रिलोचन महादेव, नन्दीश्वरघाट स्थिर नन्दीश्वर मंदिर निरन्धार शैली के ऐसे उदाहरण हैं जिनमें केवल गर्भगृह तथा मण्डप या अर्द्धमण्डप ही बने है।

ललिताघाट स्थित समराजेश्वर अथवा नेपाली मंदिर का निर्माण पूर्वी भारत तथा नेपाल में प्रचलित पगोड़ा शैली में हुआ है जो काशी में इस शैली का अकेला उदाहरण है। मंदिर के निर्माण में नेपाल की काष्ठकला की सुन्दर और कलात्मक अभिव्यक्ति मूर्तियों एवं स्थापत्य विन्यास के रूप में ध्यातव्य है । मंदिर की देव मूर्तियों में पूर्वी भारत का तांत्रिक प्रभाव भी द्रष्टव्य है। मंदिर पर उकेरी ऐन्द्रिकता तथा यौनाचार से सम्बन्धित प्रखर मूर्तियाँ तांत्रिक प्रभाव से साथ ही खजुराहो एवं भुवनेश्वर की मूर्तियों का भी स्मरण कराती है ।

मीरघाट स्थित विशालाक्षीदेवी मंदिर ( 18वीं शती ई०) तथा हरिश्चन्द्रघाट स्थित काशीकामकोटीश्वर (शिव) मंदिर (1968 ई०) के निर्माण में दक्षिण भारतीय शैली के गोपुरम् तथा द्रविड़ शैली के विमान (शिखर) की विशेषताएँ स्पष्टतः देखी जा सकती हैं। इन मंदिरों के गोपुरम् दक्षिण भारतीय शैली की मूर्तियों एवं लक्षणों से युक्त हैं

घाट स्थित कुछ मंदिरों का शिखर गुम्बदाकार भी है। मंदिरों का गुम्बदाकार शिखर हिन्दू एवं मुस्लिम वास्तुकला के समन्वय का सूचक है। ऐसे मंदिरों में अर्कविनायक मंदिर (तुलसीघाट), केदारेश्वर मंदिर (निरंजनीघाट) तथा नन्दीश्वर मंदिर (नन्दीश्वरघाट) मुख्य हैं। इन मंदिरों में शिखर के अतिरिक्त अन्य भागों का निर्माण भारतीय स्थापत्य परम्परा में ही हुआ है।

18वीं –19वीं शती ई0 के कुछ मंदिर रचना शैली की दृष्टि से सामान्य एवं शिखर विहीन हैं। शिखर विहीन मंदिरों के निर्माण का कारण सम्भवतः मुस्लिम आक्रमणकारियों की दृष्टि से इनकी रक्षा करना था। भारतीय मंदिरों के ऊँचे शिखर अलंकृत और दूर से ही आकृष्ट करने वाले होते थे जो आक्रामकों की मनोवृत्ति को उकसाने वाले सिद्ध होते थे। शिखर विहीन मंदिरों में काली मंदिर (पंचकोटघाट), सौसट्टीदेवी मंदिर (चौसट्टीघाट), शीतला मंदिर (शीतलाघाट), ललितादेवी मंदिर (ललिताघाट), संकठादेवी मंदिर (संकठाघाट), बालाजी मंदिर (बालाजीघाट), लक्ष्मीनारायण या जड़ाक मंदिर (जटारघाट), राम मंदिर ( कंगन वाली हवेली, पंचगंगाघाट), बिन्दुमाधव मंदिर (पंचगंगाघाट), बद्रीनारायण, मंदिर (बद्रीनारायणघाट) तथा नृसिंह, जगन्नाथ एवं शीतला मंदिर (प्रह्लादघाट) मुख्य हैं।

असि से आदिकेशव घाटों के मध्य स्थित मंदिरों का धार्मिक-सांस्कृतिक गतिविधियों की दृष्टि से विशेष महत्व रहा है जहाँ विभिन्न पर्वों पर धार्मिक प्रवचन अनुष्ठान, भजन-कीर्तन के साथ ही विवाह, मुण्डन, उपनयन जैसे संस्कार और नृत्य-संगीत, गायन-वादन जैसी विविध सांस्कृतिक गतिविधियाँ सम्पन्न होती रहती हैं। इस दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण मंदिरों में केदारेश्वर मंदिर, शीतला मंदिर, बालाजी मंदिर, अमृतविनायक मंदिर, लक्ष्मीनारायण एवं रघुराजेश्वर मंदिर, बिन्दुमाधव मंदिर, मुखनिर्मालिका गौरी मंदिर तथा शीलता मंदिर उल्लेखनीय हैं

काशी वाराणसी के प्रमुख मंदिर

जगन्नाथ मंदिर

असिघाट के दक्षिणी भाग में घाट से लगभग 50 मीटर की दूरी पर जगन्नाथ मंदिर है। 18वीं शती ई0 के उत्तरार्द्ध में इस मंदिर का निर्माण जगन्नाथपुरी (उड़ीसा) के महन्त ने कराया था। जगन्नाथ मंदिर के क्षेत्र को काशी का पुरी क्षेत्र भी कहा गया है । ' उत्तराभिमुख मंदिर एक विशाल परकोटे के मध्य स्थित है जिसका निर्माण स्तम्भयुक्त जालीदार पत्थरों से हुआ है। इसमें प्रवेश के लिए द्वार तोरण-द्वार के रूप में बना है। परकोटे के बाहर प्रवेश-द्वार के सामने तीन फीट ऊँचे अधिष्ठान पर गरुड की नर-विग्रह मूर्ति बनी है। मंदिर के परकोटे के भीतरी भाग में चारों कोनों पर सपाट छत वाले चार -छोटे-छोटे मंदिर हैं जिनमें वैष्णव धर्म से सम्बन्धित राम पंचायतन, लक्ष्मीनारायण, कृष्ण एवं कालीय मर्दन स्वरूपों की प्रस्तर मूर्तियाँ स्थापित हैं। परकोटे में भीतरी दीवार से लगा और स्तम्भों पर आधारित दालान एवं कमरा निर्मित है जिसमें मंदिर के पुजारी रहते हैं ।

लक्ष्मीनारायण (पंचरत्न मंदिर)

लक्ष्मीनारायण मंदिर का निर्माण सुरसण्ड स्टेट (बिहार) की महारानी दुलारी राधाकुँवर ने कराया था। यह मंदिर घाट की ऊपरी सीढ़ी के सतह से लगभग 12 फिर ऊँची जगती पर निर्मित है। पंचायतन मंदिरों की परम्परा में जगती के मध्य मुख्य मंदिर तथा चारों कोणों पर चार अन्य देवालय हैं। मुख्य मंदिर पंचरथ प्रकार का है जिसमें तथा चारों कोणों पर चार अन्य देवालय हैं। 

स्तम्भों से अलंकृत मंदिर का महामण्डप चारों ओर से खुला है। सपाट छत के ऊपरी भाग में चारों ओर मुडेरी और नुकीले कंगूरे हैं जिनका निर्माण नक्काशीदार शिलापट्टों से हुआ है। मंदिर का गर्भगृह वर्गाकार है जिसमें तीन ओर (पूर्व, उत्तर एवं दक्षिण) प्रवेश-द्वार हैं। मूल प्रवेश-द्वार पूर्वाभिमुख है जिसके ललाट में गणेश की मूर्ति है। मंदिर के गर्भगृह में ऊँचे सिंहासन पर अष्टधातु में निर्मित लक्ष्मीनारायण की मूर्ति (ल0 1 फुट ऊँची) प्रतिष्ठित है जबकि चारों कोणों के मंदिरों में शिव, राधा-कृष्ण एवं राम-सीता और लक्ष्मण की (दो मंदिरों में ) मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हैं। 

संगमेश्वर (असिसंगमेश्वर) मंदिर

संगमेश्वर मंदिर (बी0 1 / 167) जिसका उल्लेख काशीखण्ड में भी हुआ है। धार्मिक दृष्टि से घाट के प्रमुख मंदिरों में एक है। काशी की पंचक्रोशी यात्रा करने वाले यात्री मणिकर्णिकाघाट से यात्रा प्रारम्भ करने के पश्चात् असिघाट पर गंगा स्नान तथा संगमेश्वर (शिव) का दर्शन करने के बाद ही आगे की यात्रा प्रारम्भ करते हैं। ऐसे ही पंचतीर्थी यात्री भी इस घाट पर अपना प्रथा स्नान एवं संगमेश्वर मंदिर में दर्शन करते हैं।

इन मंदिर का जीर्णोद्धार स्वर्गीय महावीर प्रसाद झुनझुनवाला की स्मृति में उनके परिवार वालों ने नवम्बर 1987 ई0 में कराया है।

लोलार्केश्वर शिव मंदिर

लोलार्केश्वर मन्दिर लोलार्ककुण्ड के समीप स्थित, 18वीं शती ई. का मंदिर है। मंदिर के नामकरण के सम्बन्ध में मान्यता है कि मंदिर में शिवलिंग की स्थापना स्वयं लोलार्क (सूर्य) ने की थी इसी कारण इसे लोलर्केश्वर कहा जाता है। वर्तमान में दक्षिण का प्रवेश-द्वार बन्द कर दिया गया है। लगभग छ: फीट के वर्गाकार गर्भगृह में दो फीट ऊँचा शिवलिंग प्रतिष्ठित है। मंदिर के ललाट पर गणेश की मूर्ति उकेरी है।

धार्मिक– सांस्कृतिक दृष्टि से यह मंदिर महत्वपूर्ण है। लोलार्ककुण्ड में स्नान करने वाला व्यक्ति आवश्यक रूप से इनका दर्शन-पूजन करता है तभी उसकी मनोकामनाएँ पूर्ण होती है। लोलार्ककुण्ड में स्नान कर लोलार्कश्वर का दर्शन करने वालों में पुत्र प्राप्ति की कामना तथा कुष्ठ रोगों से मुक्ति पाने वालों की संख्या सर्वाधिक होती है। फलतः पुत्र प्राप्ति के पश्चात् यहाँ बच्चों के मुण्डन की परम्परा है। प्रत्येक रविवार को लोलार्कश्वर के दर्शन-पूजन के विशेष महात्म्य के कारण इस दिन यहाँ दर्शनार्थियों की संख्या अधिक होती है।

महिषमर्दिनी (स्वप्नेश्वर) मंदिर

लोलार्ककुण्ड के समीप स्थित मंदिर रचना शैली में सामान्य होते हुए भी धार्मिक–सांस्कृतिक दृष्टि से उल्लेखनीय है। मंदिर लगभग 12 फीट लम्बे तथा 6 फीट चौड़े आयताकार गर्भगृह वाला है। मंदिर में उत्तरभिमुख दो प्रवेश-द्वार हैं। तलच्छंद योजना में मंदिर के गर्भगृह का तल विन्यास सामान्य भूमि से लगभग एक फुट नीचा है। प्रवेश-द्वार का ललाट बिम्ब सादा है जिसके ऊपर छज्जा निकला है। सपाट छत वाले मंदिर के गर्भगृह में महिषमर्दिनी की मूर्ति है। इस मंदिर के धार्मिक माहात्म्य का उल्लेख काशीखण्ड में भी मिलता है। प्रतिदिन दर्शन-पूजन करने वालों में स्थानीय लोगों की संख्या सर्वाधिक है। चैत्र (मार्च / अप्रैल) एवं आश्विन् ( सितम्बर/अक्टूबर) माह के नवरात्र में यहाँ दर्शनार्थियों की संख्या सर्वाधिक होती है। देवी को सर्वमनोकामना पूर्ण करने वाली माना जाता है। समीपवर्ती क्षेत्र में विवाह के पश्चात् गंगा-पूजन और फिर वर-वधू को यहाँ दर्शन-पूजन के लिए आने की परम्परा है। बच्चों के मुण्डन एवं मनोकामना पूर्ण होने के पश्चात् धार्मिक अनुष्ठान की भी परम्परा है।

अर्कविनायक मंदिर

18वीं शती इ. का अर्कविनायक मंदिर तुलसीघाट के उत्तरी भाग में स्थित है। यह मंदिर काशीखण्ड में वर्णित 56 विनायक मंदिरों में एक है।

उत्तराभिमुख मंदिर का मण्डप डोरिक शैली के दो स्तम्भों पर आधारित है। उर्ध्वच्छंद योजना में मण्डप के वरण्ड भाग में छज्जा निकला है जिसके बाद मुडेरी एवं सपाट छत है। गर्भगृह की वाहा भित्ति सादी व सपाट है जिसके वरण्ड भाग में मण्डप के ऊपर आमलक, कलश तथा बीजपूरक हैं। गर्भगृह के भीतर चार फीट ऊँची गणेश की मूर्ति है। गर्भगृह में मुख्य मूर्ति के अतिरिक्त दो अन्य छोटी मूर्तियाँ भी द्रष्टव्य है। स्थानीय लोग प्रतिदिन यहाँ दर्शन-पूजन करते हैं। पंचक्रोशी यात्रियों के लिए इनके दर्शन-पूजन के बाद आगे की यात्रा करने का विधान है।

रामेश्वर मंदिर

18वीं शती ई. का यह मंदिर नागा साधुओं के जूना अखाड़ा में स्थित है। अखाड़े के परकोटे में रामेश्वर के अतिरिक्त सीतेश्वर, विष्णु तथा हनुमान मंदिर भी स्थित हैं । परकोटे के मंदिरों में रामेश्वर मंदिर का सर्वाधिक धार्मिक महत्व है जिसके शिवलिंग की गणना काशी के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में की जाती है। इस सन्दर्भ में ऐसी मान्यता है कि इसकी स्थापना स्वयं भगवान् राम ने की थी । काशी में यह मंदिर दक्षिण भारत के रामेश्वर मंदिर का प्रतीक रूप हें स्थापत्य की दृष्टि से मंदिर में गर्भगृह तथा अर्द्धमण्डप है। तीन फीट ऊँची जगती पर निर्मित मंदिर के गर्भगृह की भीतरी दीवार की रथिकाओं में सूर्य (आदित्य रूप), विष्णु, शक्ति एवं गणेश की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं । अर्द्धमण्डप एवं मण्डप डोरिक शैली के स्तम्भों पर आधारित सपाट छत वाला है। जिसके वरण्ड भाग में छज्जा निकला है। गर्भगृह के ऊपर नागर शैली का शिखर है जिसमें आमलक, कलश तथा त्रिशूल द्रष्टव्य हैं।

विष्णु मंदिर

18वीं शती ई. का विष्णु मंदिर तलच्छेद योजना में गर्भगृह, मण्डप एवं अर्द्धमण्डप से युक्त है। गर्भगृह में 12वीं - 13वीं शती ई. की काले पत्थर की चतुर्भुज विष्णु की मूर्ति स्थापित है। गर्भगृह का प्रवेश-द्वार उत्तराभिमुखी है। मंदिर का अर्द्धमण्डप डोरिक शैली के तीन स्तम्भों पर आधारित है । आयताकार अर्द्धमण्डप के बाद चार स्तम्भों पर खड़ा मण्डप का भाग है । अर्द्धमण्डप के वरण्ड भाग पर छज्जा है। मंदिर में प्रतिष्ठित महत्वपूर्ण मूर्ति के बाद भी इस मंदिर का धार्मिक-सांस्कृतिक दृष्टि से विशेष महत्व नहीं हैं।

हनुमान मंदिर

हनुमान मंदिर के नाम पर ही घाट का नाम हनुमानघाट हुआ है। मंदिर 18वीं शती ई. का है किन्तु मान्यता है कि 18वीं शती ई. के पूर्व भी यहाँ मंदिर था जिसका निर्माण शिवाजी के गुरू समर्थ रामदास ने करवाया था। कुछ लोगों की मान्यता है कि हनुमान मंदिर की स्थापना तुलसीदास ने किया था । किन्तु ऐसा कोई साक्ष्य नहीं दिखलायी देता है जिससे इसे तुलसीदास द्वारा स्थापित माना जा सके। यद्यपि मंदिर से सम्बन्धित एक लेख में गुरू समर्थ रामदास का उल्लेख है। किन्तु उनके द्वारा मंदिर निर्माण का कोई संकेत नहीं दिया गया है।

काशी कामकोटीश्वर मंदिर

यह मंदिर दक्षिण भारतीय स्थापत्य शैली का नवीन किन्तु महत्वपूर्ण मंदिर है जो स्थापत्य एवं मूर्तिकला दोनों ही दृष्टियों से काशी में दक्षिण भारतीय स्थापत्य और मूर्तिकला का प्रतिनिधित्व करता है। इस (सड़क) मंदिर का निर्माण 1968 ई. में हुआ। गोपुरम् से युक्त मंदिर एक विशाल परकोटे के मध्य बना है जिसमें गोपुरम् के अतिरिक्त अन्तराल, महामण्डप, मण्डप तथा गर्भगृह है। मंदिर के दक्षिणी भाग में रंग मण्डप भी निर्मित है।

मंदिर पंचायत परम्परा में बना है जिसमें परकोटे के मध्य मुख्य मंदिर तथा चारों कोनों पर चार अन्य मंदिर हैं जो अपेक्षाकृत छोटे हैं। मुख्य मंदिर में कामकोटीश्वर शिवलिंग स्थापित है जबकि अन्य मंदिरों में कामकोटीश्वरीदेवी, माधव (विष्णु), सूर्य तथा गणेश की मूर्तियाँ है। 

केदारेश्वर मंदिर

1898 ई. में पुनर्निमित केदारेश्वर मंदिर केदारघाट के मंदिरों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। 16वीं शती ई. के अन्तिम चरण में कुमारस्वामी द्वारा निर्मित " केदारेश्वर मंदिर सम्भवतः 11 औरंगजेब के काल में नष्ट किया गया था। मंदिर के पुनर्निर्माण के सन्दर्भ में विद्वानों ने अलग–अलग मत व्यक्त किये हैं । कुछ विद्वान इसे काशी नरेश चेतसिंह द्वारा मानते हैं और कुछ मंदिर परकोटे के भीतरी भाग में उत्कीर्ण लेख (संवत् 1955 या 1898 ई.) के आधार पर विजयानगरम् महाराजा द्वारा पुनर्निर्मित मानते हैं। मंदिर में प्रतिष्ठित शिवलिंग के माहात्म्य का उल्लेख मत्स्यपुराण, काशीखण्ड, काशीरहस्य तथा काशीकेदारमाहात्म्य में मिलता है। ऐसी मान्यता है कि ब्रह्मा ने भी काशी में इनका दर्शन-पूजन किया था । स्थानीय लोगों में इनकी काशी विश्वनाथ के अग्रज के रूप में मान्यता है ।

चौसट्टीदेवी मंदिर

चौसट्टीघाट पर प्राचीन किन्तु व्यक्तिगत भवन के निचले भाग में चौसट्टीदेवी का मंदिर है। मंदिर के नाम पर ही घाट का भी नामकरण हुआ है। घाट का यही एकमात्र मंदिर है जो स्थापत्य की दृष्टि से सामान्य होते हुए भी धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। मंदिर का नाम चौसठयोगिनी का अपभ्रंश रूप है जिनके सामूहिक पूजन एवं मंदिर निर्माण की परम्परा मध्य भारत और उड़ीसा के तांत्रिक प्रभाव वाले क्षेत्रों में प्राचीन काल (ल.7वीं शती ई.) से ही लोकप्रिय थी । उल्लेखनीय है कि वर्तमान चौसट्टीदेवी मंदिर के पूर्व राणामहल में भी चौसठयोगिनी मंदिर था जिसका निर्माण खजुराहो एवं जबलपुर की चौसठयोगिनी मंदिरों के समान हुआ था । कालान्तर में प्राचीन मंदिर के क्षतिग्रस्त होने के बाद प्राचीन मंदिर के प्रतीक रूप में नवीन मंदिर का निर्माण हुआ । सम्प्रति मंदिर में मात्र महिषमर्दिनी की ही मूर्ति है जिनके दर्शन-पूजन से वही पुण्य मिलता है जो चौसठयोगिनीयों के दर्शन-पूजन से प्राप्त होता था। मंदिर के भवन में लगे शिलालेख से ज्ञात होता है कि मंदिर का निर्माण 19वीं शती ई. के मध्य हुआ था। 

शीतला मंदिर

शीतला मंदिर घाट की सीढ़ियों के ऊपर अधिष्ठान पर बना है । मंदिर में दैनिक दर्शनार्थियों की संख्या अधिक होती है किन्तु चैत्र एवं आश्विन् माह के नवरात्र में दर्शनार्थियों की संख्या सर्वाधिक होती है। इस मंदिर में मुण्डन, उपनयन, विवाह तथा विवाह पूर्व एवं पश्चात् के पारम्परिक क्रिया-कलाप (वररक्षा, तिलक तथा गंगापुजैया) होते हैं। मंदिर के समीपवर्ती क्षेत्र में बंगाली विधवाओं का आश्रम है। ये विधवाएँ प्रतिदिन यहाँ भजन-कीर्तन करती हैं। धार्मिक प्रवचन एवं संगीत का आयोजन भी होता है। मंदिर की ओर से सायंकाल गंगा की आरती होती है जो श्रद्धालुओं को बरबस आकर्षित करती है।

शिव मंदिर

शीतलाघाट के ऊपरी भाग में महारानी अहिल्याबाई होल्कर के विशाल भवन के समीप शिव मंदिर है। महारानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा बनवाया यह शिव मंदिर 18वीं शती ई. के उत्तरार्द्ध का है जो एक परकोटे के मध्य स्थित है। मंदिर में हनुमान की मूर्ति भी प्रतिष्ठित है जिसके कारण कुछ लोग इसे हनुमान मंदिर के नाम से भी सम्बोधित करते हैं।

प्रयागेश्वर मंदिर

मंदिर का निर्माण पोटिया (बंगला) की महारानी एच. के. देवी ने कराया था। 

समराजेश्वर मंदिर

निर्माण नेपाल के महाराजा 19 राजेन्द्र विक्रम शाह एवं उनके पुत्र ने 1843 ई. में कराया था। इसी कारण इसे नेपाली मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। उल्लेख मिलता है कि नेपाल की महारानी राजलक्ष्मीदेवी ने मृत्यु के समय (1841 ई.) इस मंदिर के निर्माण का आदेश दिया था । अलरिच वायसनर ने मंदिर को 19वीं शती ई. के पूर्वार्द्ध का माना है। काशी में इस मंदिर का निर्माण नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर के रूप में किया गया है। मंदिर के निर्माण में ईंट और पत्थरों के साथ ही काष्ठ का प्रयोग भी किया गया है। मंदिर निर्माण के सन्दर्भ में उल्लेख मिलता है कि शिल्पी तथा लकड़ियाँ नेपाल से लायी गयी थी। मंदिर के निर्माण में काष्ठ की प्रधानता तथा काष्ठ में सूक्ष्म उकेरण के कारण इसे काष्ठ मंदिर भी कहा जाता है।

रानीभवानी मंदिर

मणिकर्णिकाघाट के मंदिरों में रानी भवानी (बंगाल) द्वारा निर्मित पंचायतन शिव मंदिर (18वीं शती ई.) रानी भवानी मंदिर नाम से जाना जाता है। 

तारकेश्वर मंदिर

इसका निर्माण 1795 ई. में इन्दौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर के कराया था। इस मंदिर के सन्दर्भ में ऐसी मान्यता है कि यहीं शिव मृतकों के कान में तारकमंत्र का उच्चारण करते हैं। घाट पर स्नान करने वाले दैनिक तथा पंचक्रोशी एवं पंचतीर्थी यात्री तारकेश्वर शिव का दर्शन-पूजन करने के बाद ही आगे की यात्रा करते हैं।

आमेठी शिव मंदिर

इस मंदिर का निर्माण आमेठी के राजा लालमाधव सिंह ने कराया था।

रत्नेश्वर मंदिर

ग्वालियर की महारानी बैजाबाई द्वारा 19वीं शती ई. के पूर्वार्द्ध में निर्मित रत्नेश्वर मंदिर गुजराती स्थापत्य शैली का सुन्दर उदाहरण है।

मनोकामेश्वर मंदिर

मनोकामेश्वर शिव मंदिर का निर्माण रास्थान के अलवर स्टेट के महाराजा मंगलसिंह ने 1895 ई. में अपने आवासीय महल के छत पर कराया था । मंदिर तक पहुँचने के लिए भवन के मध्य से सीढ़ियाँ हैं । आवासीय भवन के मध्य से रास्ता होने के कारण जनसामान्य मंदिर तक नहीं पहुँच पाते । 

लक्ष्मीनारायण एवं रघुराजेश्वर मंदिर

इन मंदिरों का निर्माण क्रमशः पूना की इन्दिराबाई तथा गंगाधर राव द्वारा हुआ है। लक्ष्मीनारायण मंदिर का निर्माण 1795 ई. में हुआ जबकि रघुराजेश्वर मंदिर इसके कुछ बाद का है। खजुराहो मंदिरों की भाँति इन मंदिरों के जंघ एवं शिखर भागों में विविध विषयों वाली देव एवं मानव मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। 

बालाजी मंदिर

बालाजीघाट स्थित पत्थर एवं ईंटों से निर्मित विशाल भवन का निर्माण 18वीं शती ई. के उत्तरार्द्ध में पेशवा राघोवा ने कराया था। 1864 ई. में अंग्रेजो ने भवन को अपने अधिकार में लेकर नीलाम कर दिया जिसे ग्वालियर के महाराजा जियाजी राब सिन्धिया ने खरीदा और भवन के एक भाग को बालाजी मंदिर में परिवर्तित किया । बालाजी मंदिर भवन के एक विशाल हाल में निर्मित है जिसे घेरकर गर्भगृह एवं मण्डप की रचना की गयी है। वर्तमान मंदिर का प्रवेश-द्वार गंगातट की ओर से है। 

बिन्दुमाधव मंदिर

बिन्दूमाधव का उल्लेख साहित्य में 5वीं शती ई. से ही मिलता है किन्तु मंदिर निर्माण के स्पष्ट प्रमाण 16वीं शती ई. के अन्तिम चरण के हैं। जिसके अनुसार मंदिर का निर्माण आमेर (राजस्थान) के राजा मानसिंह द्वारा हुआ था । 16वीं शती ई. का मूल बिन्दूमाधव मंदिर वर्तमान में आलमगीर या धरहरा मस्जिद के रूप में देखा जा सकता है।” वर्तमान बिन्दुमाधव मंदिर (के. 22 / 33 ) औध स्टेट (सतारा-महाराष्ट्र) के महाराजा द्वारा 19वीं शती ई. में बनवाया गया। 

त्रिलोचन महादेव मंदिर

त्रिलोचन का प्रारम्भिक उल्लेख गहड़वाल दान-पत्रों में हुआ है।यह मंदिर शिव के तीसरे नेत्र को समर्पित है। वर्तमान मंदिर 18वीं शती ई. में पूना के नाथूबाला द्वारा निर्मित है जिसका पुनर्निर्माण 1965 ई. में रामादेवी द्वारा किया गया। 

आदिकेशव मंदिर

मंदिर का निर्माण 1806 ई. में ग्वालियर के महाराजा सिन्धिया के दीवन मालो जी ने करवाया था। मंदिर के शिखर का निर्माण 1812 ई. में किया गया। 

ज्ञानकेशव मंदिर

आदिकेशव मंदिर समूह में दूसरा प्रमुख मंदिर ज्ञानकेशव का है। निर्माण की दृष्टि से यह मंदिर आदिकेशव मंदिर के कुछ बाद का है। 

संगमेश्वर मंदिर

आदिकेशव मंदिर समूह का तीसरा मंदिर संगमेश्वर मंदिर है। गंगा–वरूणा नदियों के संगम स्थल से सम्बन्धित होने से इसे समंगेश्वर मंदिर कहा जाता है। 

चिन्ताहरण गणेश मंदिर

आदिकेशव समूह का चौथा मंदिर चिनताहरण गणेश मंदिर (19वीं शती ई.) है। 

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