सुभद्रा कुमारी चौहान का जीवन परिचय

सुभद्रा कुमारी चौहान का जीवन परिचय

सुभद्रा का जन्म प्रयाग (इलाहाबाद), उत्तरप्रदेश के निहालपुर गाँव में श्रावण शुक्ल पंचमी, नागपंचमी, संवत् 1961 अर्थात् सन् 1904 विक्रमी को हुआ था । उनके पितामह ठाकुर महिपाल सिंह मानिकपुर के पास लोहदा गांव के जमींदार थे। उनके पिता ठाकुर रामनाथ सिंह भगवद्भक्त और काव्य-रसिक थे । माता का नाम धिराज कुंवर था। सुभद्रा पांच बहनें और तीन भाई थे, किन्तु दुर्भाग्यवश एक भाई और एक बहन की मृत्यु से वे कुल चार बहनें व दो भाई बचे । सुभद्रा अपने माता-पिता की छठीं संतान थीं । उन्हें अपने जीवन- -काल में तीन बहनों और एक भाई का स्नेह-सद्भाव निरन्तर प्राप्त होता रहा । 'उनके बड़े भाई रामप्रसाद सिंह, जिन्होने असहयोग आंदोलन के समय सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया था, सुभद्रा जी के जीवनकाल में ही दिवंगत हुए। उनके दूसरे भाई ठाकुर राजबहादुर सिंह, जो वय में उनसे बड़े थे, बांदा में वकालत करते थे । उनकी तीनों बहनें सुन्दर, रानी और छोटी बहिन कमला क्रमश: कानपुर, बांदा और बनारस में ब्याही गई थीं।

सुभद्रा का विवाह सन् 1919 ई. में खण्डवा निवासी ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान के साथ सम्पन्न हुआ। लक्ष्मण सिंह सुभद्रा के भाई राजबहादुर सिंह के सहपाठी थे। 

सुभद्रा की पढ़ाई क्रास्थवेट गवर्नमेंट स्कूल, प्रयाग में हाई स्कूल की आरंभिक कक्षाओं तक हुई थी । सुभद्रा के बौद्धिक विकास का श्रेय उनके भाइयों को जाता है। उस युग में, जबकि स्त्रियाँ घर से बाहर नहीं निकलती थीं, रज्जू भैया अपनी बहनों को सुबह क्रास्थवेट तक छोड़ने जाते थे और शाम को स्कूल बंद होने के समय फाटक पर खड़े रहते थे कि फिर बहनों के साथ-साथ घर तक आयें। 

पढ़ाई के अलावा सुभद्रा कुशल वक्ता भी थीं। वाद-विवाद प्रतियोगिता में अक्सर अपने स्कूल का प्रतिनिधित्व करती थीं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सिनेट हॉल में आयोजित दीक्षांत समारोह में स्कूल की ओर से जिन दो लोगों का भाषण हुआ, उनमें एक स्कूल की प्रिंसिपल मिस मानकर और दूसरा सुभद्रा का था। 

विवाहोपरान्त सुभद्रा वाराणसी के थियोसॉफिकल स्कूल में पढ़ने गयीं, पर तभी असहयोग आंदोलन छिड़ गया और उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी। इस प्रकार सुभद्रा की शिक्षा का क्रम थोड़े ही समय तक चल पाया। पर सबसे बड़ी शिक्षा तो मन के संस्कारों की हुई जिसमें दया, करुणा, उदारता और बंधुत्व की भावना विकसित हुई। यह शिक्षण अक्षर-ज्ञान के बिना भी संभव हुआ क्योंकि जीवन के विद्यालय में अनेक संघर्षों और तरह-तरह के अनुभवों से अनजाने ही उनका सामना आजीवन होता रहा। इस दृष्टि सुभद्रा का जीवन रक्तार र रही थी, और इस गिरफ्तार बहुत सम्पन्न रहा ।

उनकी सबसे बड़ी पुत्री सुधा का जन्म 3 नवम्बर 1923 को हुआ। इसके बाद पुत्रों में अजय, विजय और अशोक का जन्म हुआ तथा आखिर में सबसे छोटी बेटी ममता का, जो जेल यात्रा के दौरान सुभद्रा के अक्सर साथ रहती थी। उन्होने अपने बच्चों को अत्यंत प्यार और दुलार के साथ पाला । वे जब जेल में होतीं तो नियमित रूप से पत्र-व्यवहार द्वारा बच्चों की कुशलता की सूचना लेती रहती थीं । उनके पुत्र अजय चौहान और बेटी सुधा ने अपने संस्मरणों में इस बात का उल्लेख किया है - हमारी माँ का मातृत्व औरों से कुछ अधिक विकसित तथा उदार था। हम पाँच भाई-बहिनों ने जो कुछ उनसे पाया उसके बारे में तो कहना ही नहीं है । 

सुभद्राजी ने अत्यधिक प्यार-दुलार से अपने बच्चों को असहनशील, भीरु तथा पराश्रित नहीं बनने दिया, बल्कि एक विशेष प्रकार की शिक्षा बच्चों को दी जिससे उनके अंदर सच्चाई, स्वाभिमान एवं आत्मनिर्भरता ने जन्म लिया ।

झंडा-सत्याग्रह में वे दो बार गिरफ्तार हुईं, पर सरकार ने बिना मुकदमा चलाए ही उन्हें छोड़ दिया । 1931-32 ई. के सत्याग्रह आन्दोलन में वे अपने बच्चों के बहुत छोटे होने के कारण जेल नहीं गईं, पर उनके पति ने 'कृष्ण-मंदिर' की यात्रा की। सुभद्राजी के पति इस सत्याग्रह आन्दोलन में दो बार जेल गये और सुभद्राजी को दोनों ही बार सेक्सरिया पुरस्कार मिला, पहली बार 1931 ई. में 'मुकुल' पर और दूसरी बार 1933 ई. में 'बिखरे मोती' पर। अनायास प्राप्त होने वाली ऐसी ही सहायताओं से उनकी गृहस्थी की गाड़ी लुढ़कती रही। उन्होने अपनी गृहस्थी की आवश्यकता के कारण अगस्त क्रांति में सम्मिलित होते समय ‘विवेचनात्मक गल्प विहार' शीर्षक एक कहानी-संग्रह सम्पादित किया और उसे इण्डियन प्रेस को 250 रुपए में बेच दिया । "

स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के चलते उनके घर की नीलामी कई बार हुई । उस समय स्वराज्य के दीवानों के लिए यह आम बात थी। ऐसे समय में कुछ मित्र 'घर की बोली' बोलकर नीलामी छुड़वा लेते थे और फिर घर व सामान संबंधित व्यक्ति को वापस मिल जाता था। ऐसा समय सुभद्रा जी ही नहीं, किसी भी सत्याग्रही या क्रान्तिकारी व उसके परिवार के लिए बहुत कठिन होता था। सन् 1942 में जब ठाकुर लक्ष्मण सिंह व सुभद्रा दोनों ही जेल में थे, तब इस परिवार के लिए सर्वाधिक कठिन समय आया । घर में केवल बच्चे ही रह गये। ऐसे समय में इण्डियन प्रेस के प्रतिनिधि व पारिवारिक मित्र रामानुज लाल ने बच्चों को संरक्षण दिया। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि उस समय किसी भी स्वातंत्र्य योद्धा या उसके परिवार पर इस तरह का संकट आने पर उसके सगे रिश्तेदार भी पुलिस जुल्म के भय से पास तक नहीं फटकते थे। इससे पूर्व भी लक्ष्मण सिंह अनेक बार जेल गये और घर में थे केवल चार छै आने । वे दिन सुभद्रा ने कैसे काटे, बच्चों को आटा घोल घोल कर पिलाया, कैसे उनका पालन पोषण किया इसकी कल्पना ही की जा सकती है।" 

घर-गृहस्थी के छोटे-बड़े सभी काम सुभद्रा जी स्वयं करती थीं। बच्चों की देख-रेख, हाट- बाजार, घर की सफाई, रसोई का काम, पशुओं की देखभाल, अतिथि सेवा, वे खुद ही करती थीं। वे प्राय: रात्रि के भोजन के पश्चात् घर का काम-काज निपटाकर साहित्य-रचना करती थीं। अपने अंतिम सात-आठ वर्षों में वे प्राय: किसी साहित्यिक आत्मीय के आग्रह पर ही एकाध कहानी लिख दिया करती थीं और कविताएँ तो वे यदा-कदा उपयुक्त मनःस्थित प्राप्त हो जाने पर लिख ही लेती थीं। कविता की रचना के लिए उनकी आत्म-प्रेरणा या मन का आग्रह ही पर्याप्त होता था ।

इस प्रकार सुभद्रा जी का गृहस्थ जीवन भरा-पूरा अवश्य था, पर वे प्राय: सांसारिक सुविधाओं के अभावों से त्रस्त रहीं। उनके पति ठाकुर लक्ष्मणसिंह चौहान ने अपने एक संस्मरण में लिखा है - 'सुभद्रा का विवाह एक राजकुमार से होने की चर्चा चली थी, पर हुआ मुझ गरीब से, महलों की रानी बनने योग्य वह बनी कुटिया की रानी । ' सुभद्रा ने अपने अथक परिश्रम, सेवा, सद्भाव, एवं पतिव्रत के अनुपम अनुष्ठान से उ कुटिया को भी स्वर्ग बना दिया। वास्तव में अपने सादगीपूर्ण, सात्विक जीवन को उन्होने सहृदयता एवं सारल्य के सहारे इतना उन्नत कर लिया था कि वे बजाय एक महल की रानी बनने के करोड़ करोड़ हृदयों की - सम्राज्ञी बन गयीं ।

उनकी दोनों बेटियों सुधा और ममता का अन्तर्जातीय विवाह हुआ था । सुधा का विवाह महान कथाकार प्रेमचंद के पुत्र अमृतराय से हुआ था। वे दोनों अब स्मृति शेष हैं। छोटी बेटी ममता का विवाह डॉ. अरविंद भार्गव के साथ हुआ जो अपने पति के साथ अमेरिका में रहीं। उनके सबसे बड़े पुत्र अजय चौहान जबलपुर में पुस्तक व्यवसाय करते हुए जिज्ञासा प्रकाशन के संचालक रहे। वे जबलपुर विश्वविद्यालय में छात्र कल्याण अधिष्ठाता भी रहे। सन् 1983 में वे स्वर्गवासी हो गये। इनके बड़े पुत्र संजय आयुर्विज्ञान के प्रतिभाशाली छात्र थे, किन्तु अपने शिक्षाकाल के अंतिम वर्ष में असाध्य रोग से असमय काल कवलित हो गये। द्वितीय पुत्र अमेरिका में इंजीनियर है और एक मात्र पुत्री व्यापारी पोत के नायक से विवाहित है। मँझले से त्याग पत्र देकर उन्होंने अमेरिका में शिक्षण कार्य किया और वहीं अपना परिवार बसाया। 

पुत्र विजय चौहान हिन्दी के अच्छे कहानीकार थे। सागर विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक पद सन् 1986 में हुआ। 

संदर्भ -

1. डॉ. कमलाकान्त पाठक : सुभद्रा साहित्य और राष्ट्रीय कविता, पृ. 1
2. डॉ. सूर्यमुखी : सुभद्रा कुमारी चौहान, ईसुरी- 4, पृ. 110
3. सुधा चौहान : मिला तेज से तेज, पृ. 37
4. नीम, सुभद्रा समग्र, पृ. 10
5. डॉ. सूर्यमुखी : सुभद्रा कुमारी चौहान, ईसुरी-4, पृ. 112
6. सुधा चौहान : मिला तेज से तेज, पृ. 70
7. द्वारका प्रसाद मिश्र : मध्यप्रदेश में स्वाधीनता आंदोलन का इतिहास, पृ. 326
8. स्वागत, सुभद्रा समग्र, पृ. 100
9. डॉ. कमलाकान्त पाठक : सुभद्रा साहित्य और राष्ट्रीय कविता, पृ. 4
10. डॉ. प्रतीक मिश्र : सुभद्रा कुमारी चौहान, पृ. 17-18
11. महादेवी वर्मा : पथ के साथी, सुभद्रा कुमारी चौहान, पृ. 36 12. सुधा चौहान : मिला तेज से तेज, पृ. 233
13. डॉ. कमलाकान्त पाठक : सुभद्रा साहित्य और राष्ट्रीय कविता, पृ. 9-10
14. लक्ष्मण सिंह चौहान का संस्मरण, प्रहरी-सुभद्रा कुमारी चौहान विशेषांक
15. कांतिकुमार जैन : अब तो बात फैल गयी, सुभद्रा कुमारी चौहान, पृ. 27

Bandey

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