भवभूति की रचनाएँ | महावीरचरित । मालतीमाधव । उत्तररामचरित

भवभूति का जन्म विदर्भ प्रान्त के अन्तर्गत पद्मपुर में हुआ था। भवभूति कालिदास के परवर्ती थे क्योंकि उन पर कालिदास का प्रभाव अनेक स्थलों पर परिलक्षित होता है। 'ओजः सभासभूयस्त्वमेतद्गद्यस्य जीवितम्' का प्रतिपादन करने वाले दण्डी भी भवभूति के पूर्ववर्ती हैं, क्योंकि भवभूति ने इसी सिद्धान्त के अनुसार अपनी भाषा को ढालने का सफल प्रयास किया है। दण्डी का समय छठीं शताब्दी का उतरार्द्ध माना जाता है। बाण भी भवभूति से पहले हो चुके थे, क्योंकि भवभूति ने कहीं-कहीं बाण की भाषा को आदर्श मानकर उनका अनुकरण किया है। मालती - माधव के नवम और दशम अड्ड में कादम्बरी का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । 

महिमभट्ट ने व्यक्तिविवेक में उत्तररामचरित के दो पद्य उद्धृत किये हैं । क्षेमेन्द्र ने भी अपनी रचनाओं में भवभूति के अनेक पद्यों को उद्धृत किया है । इन दोनों का समय ग्यारहवीं शताब्दी है ।

इस प्रकार अष्टम शताब्दी के उतरार्द्ध से ग्यारहवीं शताब्दी तक तथा उसके पश्चात भी अनेक कवियों और लेखको ने भवभूति का उल्लेख किया है। सप्तम शताब्दी के पूर्व तक उनकी कही चर्चा नहीं हुई है, अतः भवभूति का स्थितिकाल सप्तम शताब्दी के अन्तिम चरण से अष्टम शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक निश्चित किया जा सकता है ।

पाश्चात्य विद्वानों- वेबर, श्रूडर, मैक्स मूलर, मेक्डानल, विन्सेण्टस्मिथ आदि ने भी भवभूति का यही समय निश्चित किया है ।

भवभूति की रचनाएं

महाकवि भवभूति एक अद्वितीय नाटककार होने के साथ ही सिद्धहस्त कवि भी हैं। अपनी कला को अभिव्यक्त करने के लिए उन्होने नाटकों का आश्रय लिया है। उनकी अब तक केवल तीन ही नाटक रचनाएं प्राप्त होती हैं -

  1. महावीरचरित ।
  2. मालतीमाधव ।
  3. उत्तररामचरित ।

इन तीनो नाटकों का सामान्य अध्ययन इस प्रकार है

1. महावीरचरित :- यह नाटक रामकथा से सम्बद्ध है जोकि भवभूति की प्रथम कृति है । इसकी कथावस्तु का आधार वाल्मीकि रामायण है । परन्तु संक्षिप्त कथानक को नाटक के योग्य बनाने के लिए महाकवि ने उसमें अनेक परिवर्तन कर दिये हैं। इसमें राम विवाह के पूर्व से राम के राज्याभिषेक तक लगभग चौदह वर्ष की घटनाओं का वर्णन किया गया है । इस लम्बी अवधि में राम के जीवन में अनेक घटनायें घटित हुई थीं, जिनको एक ही नाटक का विषय बनाना अत्यन्त दुष्कर कार्य था, किन्तु कुशल कलाकार भवभूति ने कवि स्वातंत्रय् का उपयोग कर राम के जीवन की विभिन्न घटनाओं के देश काल आदि में आवश्यक परिवर्तन करते हुए उन्हे एक सूत्र में निबद्ध कर दिया है।

2. मालती - माधव :- दश अङ्को में निबद्ध यह एक विशाल प्रकरण ग्रन्थ है । इसकी कथा काल्पनिक है जिसमें मालती व माधव के प्रेमप्रसङ्ग को अत्यंत सुन्दर ढंग से चित्रित किया गया है । इसकी कथा इस प्रकार है -

मालती व माधव एक दूसरे की सुंदरता पर परस्पर अनुरक्त हो जाते है । पद्मावती नरेश के मंत्री अपनी पुत्री का विवाह माधव के साथ करना चाहते है तथा पद्मावती नरेश का साला मालती के अनिंद्य सौंदर्य पर मोहित हो जाता है और उससे विवाह करना चाहता है। मालती व माधव दोनो एक दूसरे से मिलने के लिए शिव मन्दिर में जाते है जहां एक पिजड़े से सिंह निकल पड़ता है, ऐसी स्थिति में मकरन्द, मदयन्तिका की रक्षा करता है । अपनी इच्छा पूर्ति के लिए माधव शमशान में तपस्या करने के लिए जाता है। एक दिन अधोर कण्ठ और उसकी शिष्या लपाक कुण्डला चामुण्डा मालती की बलि देने के लिए ज्योंहि प्रहार करने हेतु उद्यत होते हैं, माधव वहां आकर मालती को बचा लेता है । राजा की आज्ञा से उसके साले का विवाह होने लगता है परंतु कामंदकी छल से माधव का विवाह करा देती है । मालती और माधव वहाँ से भाग आते है इधर मालती पुनः लपाक कुण्डला की जकड़ में आ जाती है तथा मालती व माधव का विवाह हो जाता है । इधर मदयन्तिका भी मकरन्द से मिल जाती है । 

आधिकारिक कथावस्तु के अन्तर्गत नायक से सम्बन्धित निम्नलिखित घटनायें प्रधान हैं- मालती द्वारा मार्ग पर निकलते हुए माधव के अनेक बार दर्शन, मालती द्वारा माधव के चित्र का निर्माण, मदनोद्यान में मालती व माधव का मिलन, माधव द्वारा वकुल माला की भेंट तथा चित्रफलक पर अपने चित्र के समीप मालती तक पहुंचाया जाना । कामन्दकी द्वारा मालती को गांधर्व विवाह के लिए प्रोत्साहित किया जाना । कुसुमाकरोद्यान में मालती व माधव का मिलन, नन्दन के साथ मालती के विवाह का उपक्रम, माधव द्वारा शमशान में नरमांसविक्रय, चामुण्डा को मालती की बलि देने के लिए उद्यत अघोर घण्ट का माधव द्वारा वध तथा मालती की रक्षा, नगर देवता के मंदिर में मालती व माधव का मिलन तथा कामंदकी के निर्देशानुसार दोनो का वहां से पलायन, उपवन में मालती को अकेली छोड़कर नगर राक्षसों से युद्ध करते हुए मकरन्द की सहायता के लिए माधव का प्रस्थान, लपाक कुण्डला द्वारा माती अपहरण तथा विरहाकुल माधव का विलाप, सौदामिनी के साथ माधव का श्री पर्वत पर गमन, मालती के साथ माधव का प्रत्यागमन तथा दोनो के विवाह की राजा के द्वारा स्वीकृति । इन समस्त घटनाओं का अध्ययन आधिकारिक कथावस्तु के रूप में किया जा सकता है। इन घटनाओं के साथ-साथ कुछ अन्य मुख्य घटनायें दर्शको के समक्ष प्रासङ्गिक कथावस्तु के रूप में अवतरित होती है । जैसे - कामंदकी के निर्देशानुसार बुद्धरक्षिका द्वारा मंदयन्तिका के मन में मकरन्द के प्रति आकर्षण उत्पन्न करना, मकरंद द्वारा कुसुमोकरोद्यान में सिंह के आक्रमण से मदयन्तिका की रक्षा, क्षत-विक्षत होकर मकरन्द का अंशहीन हो जाना तथा मदयन्तिका द्वारा उसे चेतनावस्था में लाने का प्रयत्न, मालती के वेश में मकरन्द का नंदन के साथ विवाह तथा, मकरन्द की उपस्थिति में मदयन्तिका द्वारा सखियों के समक्ष अपनी विरह-वेदना का विस्तृत वर्णन, मदयन्तिका का मकरन्द के साथ पलायन, नगर- रक्षको द्वारा मार्ग में पकड़ा जाना तथा उसके साथ मकरन्द का युद्ध तथा अन्त में राजा की इच्छा और नंदन की स्वीकृति से मकरन्द और मदयन्तिका का विवाह ।

ग्रन्थ में नाटककार ने एक साथ दो प्रेम कथाओं को विकसित किया है। जिनमें मालती माधव का प्रकरण अधिकारिक तथा मकरन्द एवं मदयन्तिका प्रकरण को प्रासङ्गिक कहा जा सकता है। प्रारम्भ में ये दोनो प्रेम कथायें स्वतंत्र रूप से अवश्य विकसित होती है किन्तु आगे चलकर छठें अह्न से प्रासङ्गिक कथा को आधिकारिक कथा के साथ महाकवि ने ऐसे कौशल से सम्बद्ध कर दिया है कि उसका विकास आधिकारिक कथा - वस्तु की प्रगति में सहायक हो गया है ।

महावीरचरित की अपेक्षा मालतीमाधव में काव्य-सौन्दर्य का अधिक दर्शन होता है । पात्रो की चरित्र-योजना तथा रस परिपाक अतीव सुन्दर है, भाषा शैली की सुन्दरता भी द्रष्टव्य है । भवभूति ने मालती व माधव के प्रेमप्रसङ्ग का उदात्त चित्रण किया है। पूरे नाटक में प्रेम के उदात्त की कल्पना अद्भुत है किन्तु धर्म विरूद्ध प्रेम को समाज के लिए हानिकारक समझकर कवि ने सर्वत्र उसकी उपेक्षा की है ।

3. उत्तररामचरितम् :- महाकवि भवभूति की अनूठी कृति उत्तररामचरितम् का आधार वाल्मीकि रामायण ही है। विचार पूर्वक देखने से प्रतीत होता है उत्तररामचरितम् की कथा-वस्तु अत्यन्त संक्षिप्त है । वाल्मीकि रामायण के उत्तर काण्ड में एक स्थान पर यह प्रसंग आया है कि एक निराधार लोकापवाद को सुनकर राम ने सीता का परित्याग किया था। इसी कथा को लेकर भवभूति ने अपने उत्तररामचरित की रचना की है, किन्तु रामायण के उपाख्यान की अपेक्षा भवभूति के उत्तररामचरित में कई नवीनतायें भी है जो कि उनकी मौलिकता का परिचायक है । उत्तररामचरित भावनाप्रधान नाटक है अतः उसकी कथावस्तु में घटनाओं का बाहुल्य नहीं है । सात अङ्को में निबद्ध उत्तररामचरित की प्रधान घटनायें निम्नलिखित हैं-

प्रथम अड्ड में राम इष्टजन प्रवास से उदास सीता को आश्वासन देते है, अष्टावक्र उन्हे गुरूजनों को संदेश सुनाते हैं, चित्र दर्शनों से परिश्रान्त होकर सीता राम की भुजा का आश्रय लेकर सो जाती हैं । दुर्मुख के मुख से अपवाद की बात सुनकर राम सीता त्याग का निर्णय ले लेते है। राक्षस त्रास का समाचार पाते ही लवणासुर का वध करने के लिए वे शत्रुध्न को आदेश देते हैं तथा अड्ड के अंत में सीता को साथ लेकर लक्ष्मण भागीरथी की ओर प्रस्थान करते हैं । द्वितीय अङ्क में राम शम्बुक का वध कर उसे शाप मुक्त करते हैं और अगस्त्य ऋषि के आमंत्रण पर उनके आश्रम की ओर प्रस्थान करते हैं । तृतीय अङ्क में वे पञ्चवटी के पूर्व

परिचित दृश्यों को देखकर सीता के विरह में अत्यंत व्यथित होते हैं तथा बार-बार मूर्च्छित होते हैं । अदृश्या सीता के स्पर्श द्वारा उन्हे चेतना प्राप्त होती है और सीता अपने पति के प्रेम की गम्भीरता तथा उनकी विरह वेदना का प्रत्यक्ष अनुभव करती है। चतुर्थ अङ्क में जनक, अरूंधती और कौशल्या की वाल्मीकि आश्रम में लव से भेंट होती है तथा उसे पहचान न सकने पर भी उनके मन में उसके प्रति स्वाभाविक आकर्षण होता है। राम द्वारा किये जा रहे अश्वमेध यज्ञ के घोड़े के आगमन की सूचना इसी समय मिलती है तथा सैनिकों की घोषणा सुनकर लव उत्तेजित हो जाता है । पञ्चम अह्न में लव और चंद्रकेतु के बीच वीरोचित वार्तालाप होता है और युद्ध के लिए सन्नद्ध होकर दोनो उचित भूमि की ओर प्रस्थान करते हैं । षष्ठ अम में राम के आगमन से युद्ध बन्द हो जाता है और चंद्रकेतु उनसे अपने मित्र लव का परिचय कराता है, इसी समय कुश का आगमन होता है । कुश और लव की आकृति में अपनी तथा सीता की कुछ समानताएं देखकर राम विस्मित होते हैं । बालको के युद्ध को रोकने के लिए वाल्मीकि आदि गुरूजनों के आगमन की सूचना पाकर उनसे मिलने के लिए कुश और लव के साथ राम प्रस्थान करते हैं । सप्तम अङ्क में वे वाल्मीकि द्वारा लिखित तथा अप्सराओं द्वारा अभिनीत नाटक का अवलोकन करते हैं । जिसमे सीता निवासनोत्तर घटनाओं का अभिनय किया जा रहा है । इस अभिनय की समाप्ति पर वाल्मीकि कुश और लव का परिचय कराते हैं तथा राम और सीता का मिलन होता है । लवणासुर का वध कर शत्रुध्न भी उसी समय लौटते हैं और आनन्दमय वातावरण में नाटक समाप्त होता है ।

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