जजिया कर का अर्थ क्या है || जजिया कर का इतिहास

मूलतः "जजिया" शब्द की उत्पत्ति "जाजा" से हुई है, जिसका तार्पय होता है, "संतोष प्रदान करना । इस संतोष का तात्पर्य होता है कि मुसलमानों का यह उत्तरदायित्व होता है कि वे अल्लाह, उसके शिष्यों और उसके धर्म के प्रति गैर मुसलमानों को विश्वास दिलावें । अगर गैर मुसलमान स्वयं को राजनीतिक रुप से मुसलमानों के प्रति समर्पित कर देते हैं, किन्तु स्वयं को अल्लाह के प्रति समर्पित नहीं करते हैं तो इसके लिए उन्हें एक प्रकार का कर देना पड़ता है, जिसे "जाजा' या (जजिया) कहते हैं ।

मुस्लिम न्यायवेत्ताओं और विद्वानों ने समयानुसार "जजिया" के निम्नलिखित अर्थ बताये हैं

1. अस साराखसी कहा है कि गैर-मुसलमान जब तक अल्लाह और इस्लाम में विश्वास नहीं करते हैं तब तक उन्हें दी जाती है, अर्थात् उनसे "जजिया" वसूल किया जाता है और उन्हें यह आभास कराया जाता है कि इस्लाम में कितनी शक्ति है ?

2. कुछ विद्वानों के अनुसार "जजिया" लागू करने का अभिप्राय यह है कि यह मुस्लिम राज्य में गैर-मुसलमानों कें निवास करने के कारण उनसे (गैर - मुस्लिमों से) लिया जाने वाला कर है । 

अस - साराखसी का कहना है कि यह उम्मीद किया जा सकता है कि, गैर-मुसलमान मुस्लिम राज्य की सुरक्षा करेंगे, परन्तु गैर मुस्लिम होने के कारण उन पर पूर्णरुप से विश्वास नहीं किया जाता था । इसीलिए ऐसा सोचा जाता था कि सम्भवतः वे दुश्मनों का साथ देंगे । इसलिए सेना में उनके व्यक्तिगत सेवा के बदले उनसे कीमत लिया जाता था । 

चैतानी अपनी पुस्तक 'अनादि देल इस्लाम में कहता है कि मिस्र के शासक पापायरी के समय में (30 से 90 हिजरी ) ऐसा लगता है कि जजिया सेना की तनख्वाह देने के लिए दिया जाता था । "अत-तबारी" कहता है कि, अगर गैर-मुसलमान स्वेच्छानुसार सेना में हैं तो उन्हें जजिया नहीं देना चाहिए । खलीफा उमर के समय में एक गैर मुसलमान को सैनिक सेवा करने के कारण उसे जजिया से वंचित कर दिया गया था ।

प्रारम्भ में जजिया यहूदियों और इसाईयों से लिया जाता था। इमाम शफी ने कहा था कि, जजिया इसाईयों यहूदियों और अग्नि पुजारियों से लिया जाये न कि मूर्तिपूजा करने वालों से । वस्तुतः मूल अरब के निवासी जो मूर्तिपूजक थे वे जजिया नहीं देते थे क्योंकि पैगम्बर उन्हीं में से एक थे।" किन्तु अबू हनीफा सभी गैर मुसलमानों को एक ही श्रेणी में रखते हैं और कहते हैं कि, जो भी इस्लाम में विश्वास नहीं करते उनसे जजिया लेना चाहिए। खलीफा उमर ने कहा कि, अफ्रीका के बर्बरों को भी जजिया देना चाहिए और खलीफा अबू वालिद के अनुसार जजिया भारत के ब्राह्मणों से भी लेनी चाहिए। इन खलीफाओं के वक्तव्य से ऐसा आभास होता है कि चाहे गैर-मुस्लिम, मुस्लिम राज्य में जहां कहीं भी हों उन्हें जजिया देना पड़ता था। 

मुस्लिम सिद्धान्त के अनुसार जजिया सभी व्यक्तियों पर लागू होता था। सिर्फ बच्चे, अपंग, गुलाम, स्त्रियां आदि इस कर से मुक्त थे । परन्तु अबू यूसूफ कहते हैं कि ऐसे अन्धे और अपंग व्यक्ति जिनके पास सम्पत्ति हो, उन्हें जजिया देना चाहिए । किन्तु यदि इन लोगों के पास सम्पत्ति न हो तो इन्हें जजिया नहीं देनी चाहिए। उन साधनों को मठों और गिरजाघरों में रहते हैं, उन्हें भी जजिया नहीं देनी चाहिए । अबू हनीफ और अबू यूसूफ के अनुसार वह सन्यासी जो काम करने योग्य हों, उन्हें जजिया देना चाहिए । शफी के अनुसार वृद्ध, पुरोहित या अपंग जो पारिवारिक जीवन व्यतीत करते हों, उन्हें भी जजिया देनी चाहिए। गुलामों और उनके रखने वाले मालिकों को गुलामों के बदले जजिया नही देना पड़ता था, किन्तु अप्रत्यक्ष रुप से गुलामों के मालिकों पर ज्यादा कर लगा दिया जाता था ।

जजिया अदा करने वाले लोगों को "जिम्मी" (संरक्षित लोग ) कहकर सम्बोधित किया जाता था । " यह विवादग्रस्त प्रश्न है कि क्या हिन्दू और जिम्मी एक है तथा क्या जिम्मियों से सम्बंधित कानून भी हिन्दुओं पर लागू किया जाय ? इस्लाम के प्रारम्भिक काल में अरबों का प्रथम सम्पर्क इसाई, यहूदी और क्रमशः अग्निपूजकों से हुआ। अरबवासियों ने इन्हें "अहल-ए- किताब" की श्रेणी में रखा क्योंकि इनके पास कुरान के सदृश्य ईश्वरीय पुस्तकें थी । इनसे "मथौट" या व्यक्ति कर (पोल टैक्स) लेकर इन्हें पूर्ण धार्मिक स्वतन्त्रता भी प्रदान की गयी ।

हिन्दू मूर्तिपूजक थे और वे मुसलमानों के सर्वथा अज्ञात थे। "कुरान" और “हदीस" में "हिन्दू" शब्द का उल्लेख नहीं आया है। मुस्लिम राज्य में मूर्तिपूजा का विधान नहीं है। जब मुसलमान भारतवर्ष आये तब उन्हें यह देश कफ (अल्लाह और मुहम्मद साहब पर विश्वास न रखना) लोगों का गढ़ दिखायी दिया। इसकी विशाल आबादी को न तो मुसलमान बनाया जा सकता था और न तो उनकी हत्या ही की जा सकती थी । परिस्थितियों से बाध्य होकर हिन्दुओं को भी मुस्लिम राज्य में रहने का अधिकार दिया गया। पर वे हिन्दू "अहल-ए-जिम्मी" कहलाए। 

अलरुफी का कहना था कि, जजिया मात्र "अहल-ए-किताब " वालों से ली जाय " परन्तु अबू हनीफा ने हिन्दुओं से भी जजिया लेकर उन्हें निश्चित सामाजिक और धार्मिक स्वतंत्रता दी। उन्हें मुसलमानों के समान वस्त्र पहनने, हथियार धारण करने और मदिरों के निर्माण तथा पुनरुद्धार करने की पूर्ण मनाही थी। प्रथम बार पैगम्बर ने नजरान के इसाईयों पर "कर" लगाकर एक फरमान जारी किया, जिसमें उन्होंने विजितों के विशेषाधिकारों का उल्लेख किया था। इस परमान द्वारा पैगम्बर ने उन्हें जीवन, धर्म और उनकी सम्पत्ति की पूर्ण सुरक्षा का आश्वासन दिया । यह भी घोषणा की गयी कि किसी पुजारी या पादरी को उनके पद से नहीं हटाया जायेगा तथा वे अपनी समस्त विशेषाधिकारों को पूर्व की भांति उपयोग करते रहेंगे। खलीफा उमर ने भी गैर मुसलमानों के साथ की गयी संधि की समस्त शर्तों का अक्षरशः पालन किया गया। खलीफा मोतासिम के समय में तो मन्दिर तोडकर मस्जिद निर्माण करने वाले व्यक्तियों की हत्या भी करवा दी गयी । "

इस्लाम का प्रसार जब अन्य गैर इस्लामी राज्यों में हुआ तो विजितों के प्रति मुसलमानों ने जो सिद्धान्त कार्यान्वित किए वे स्थान तथा परिस्थिति विशेष के कारण भिन्न- भिन्न रहें । जजिया वसूल करने के तरीकों तथा इसके दरों में भी प्रायः सर्वत्र भिन्नता पायी जाती है।

पैगम्बर ने नजरान के गैर - मुस्लिम प्रजा से सालाना दो किस्त के रुप में जजिया वसूल किया था । पैगम्बर शुरु में एक व्यापारी था । अतः वे एक निश्चित मात्रा में ठेका के रुप में जजिया वसूल करते थे। उन्होंने अपने अनुयायियों से कहा था कि वह निश्चित मात्रा में समझौते द्वारा जजिया लेना चाहिए किन्तु इमाम शफी के अनुसार जजिया की मात्रा को समयानुसार परिवर्तित किया जा सकता है। 

किसी स्थान विशेष को पराजित करने बाद वहां गैर मुसलमान से जजिया बलपूर्वक लिया जा सकता था ।" उमर उस्मान और अली ने ऐसा ही किया था ।

जजिया के दरों में भी भिन्नता थी तथा इसका रूप अनिश्चित था । यह पूरे गैर-मुसलमानों के आय के अनुसार लिया जाता था। यह नकद और अन्य दोनों ही रूपों में लिया जाता था ।

खलीफा उमर ने जजिया के दरों को क्रमशः 48, 24 और 12 दिरहम निश्चित किया है। उनके अनुसार धनी वर्ग के लिए 48 दिरहम, मध्यम वर्ग के लिए 24 दिरहम और 12 दिरहम उन गरीब लोगों के लिए निश्चित किया गया, जो मजदूरी करके जीवन यापन करते हों। "तहावी" कहता है कि सम्पत्ति के अनुसार जिम्मियों का भी वर्गीकरण होता है। 7 जिन लोंगों के पास 10,000 दिरहम या उससे अधिक हो, उन्हें 'धनी वर्ग' कहा जाता है और जिनके पास 2000 से 10,000 के बीच दिरहम हो उन्हें 'मध्यम वर्ग' कहा जाता है और जो मजदूरी करके जीवन यापन करते हों एवं जिनके पास 2000 से कम दिरहम हों उन्हें गरीब या 'निर्धन वर्ग' कहा जाता है। एक और परिभाषा यह दी गयी कि जिनके पास आवश्यकता से अधिक सम्पत्ति हो, वह धनी वर्ग का है और जिनके पास अपने परिवार और स्वयं के लिए पर्याप्त मात्रा में धन हो, उन्हें मध्यम वर्ग माना गया। निर्धन वर्ग में उसे रखा गया जो रोजी-रोटी के लिए संघर्ष करता हो। 8 इमाम शफी के अनुसार सबसे कम जजिया की मात्रा एक व्यक्ति के लिए "एक दिनार " होनी चाहिए किन्तु मिनहाज कहता है कि पराजितों से अधिक से अधिक जजिया प्राप्त करनी चाहिए। अधिकतर जिया की जो दर निश्चित हो जाती थी वही चलती रहती थी । "खलील" के अनुसार किसी व्यक्ति की आय कम हो जाने पर जजिया की मात्रा कम की जा सकती है।

जिम्मियों के लिए जजिया एक ही बार अधिक मात्रा में उनके जमीन के अनुसार लिया जा सकता है, अथवा पूरे समाज का एक समूह में लिया जा सकता है। अगर कोई मर जाता था या इस्लाम में परिवर्तित हो जाता था या किसी दूसरे राज्य में चला जाता था तो जजिया कर में परिवर्तन सम्भव था । अबू हनीफा के अनुसार इस्लाम धर्म स्वीकार कर लेने के बाद वह व्यक्ति जजिया से मुक्त हो जाता है।" उन राज्यों में जहां मुद्रा स्वर्ण की थी वहां जजिया की दर धनी, मध्यम और निर्धन वर्ग के लिए क्रमशः 48, 24 और 12 दिरहम थी और जहाँ मुद्रा चाँदी की होती थी वहां इसकी 25% बढ़ा दी जाती थी। जैसा कि सीरिया और मिस्र में किया गया था। 2 वस्तु के रुप में जजिया लेना

मुस्लिम विजेता उन मुसलमानी व्यापारियों के सुविधा के लिए जजिया ले सकते थे जो जिम्मियों के शहर या गाँव में आकर ठहरते थे । जिम्मियों द्वारा मुस्लिम व्यापारियों के सुख-सुविधा को देखना जरुरी था और उनके खर्च का वहन जिम्मी ही करते थे। धनी या गरीब जिम्मी को भी मुसलमानी अतिथियों के हर सुविधाओं जैसे दवा-दारु, स्नान आदि की सुविधा को देखना पड़ता था । मुस्लिम अतिथियों के आने पर जिम्मियों को उन्हें अपने घर ठहरने का जगह देना जरुरी था। इसके साथ ही वे अतिथि के आने पर अपने घर को छोड़कर भाग नहीं सकते थे। ऐसी भी व्यवस्था थी कि जिम्मियों से अधिक मात्रा मे एक ही बार जजिया लेकर मुस्लिम व्यापारियों की सुख-सुविधा का ध्यान रखा जाता था । जैसा कि पैगम्बर ने नजरान के लोगों से दो हजार वस्त्रों को, प्रति वस्त्र का दान 40 दिरहम के हिसाब से जजिया कर के रूप में लिया जाता था ।

कानस्टैटाइन के इसाईयों पर कुछ प्रतिबन्धों के साथ जजिया लागू किया गया था, जैसे वे गिरिजाघरों का निर्माण नहीं कर सकते थे तथा मुसलमानों के समक्ष क्रास का चिन्ह नहीं बना सकते थे, उन्हें अपने घरों में मुसलमानों को रखने के लिए तैयार होना पड़ता था और शहर के मध्य स्थित गिरिजाघर का पश्चिमी भाग मस्जिद के लिए देना पड़ता था । सीरिया में भी कुछ और प्रतिबन्ध थे, जैसे वे नये चर्च का निर्माण, वाद्य यंत्र नहीं बजा सकते थे । वस्त्रों में भी भिन्नता थी । अरबी इसाईयों को कमरबन्द तथा अपने वस्त्रों पर पैबन्द लगाना आवश्यक था। इसाईयों को नीला तथा यहूदियों को पीली पगड़ी पहननी पड़ती थी। मिस्री इसाईयों को अपने सामने के बाल छोटे रखने पड़ते थे। 7" अलहकीम के समय उन्हें काला लिबास पहनना अनिवार्य था। वे पावों में अरबी जूते नहीं पहन सकते थे। उन्हें एक पांव में काला और दूसरे में लाल बूट पहनने की आज्ञा थी । " 755 ई0 में मिस्र की औरतों को नीली ओढ़नी का प्रयोग करना पड़ता था । यहूदियों को पीली तथा समारिटन औरतों की ओढनी लाल होती थी।

जिया इस बात की सदा ही याद दिलाता रहता था कि इसकी अदायगी करने वाले लोग विदेशी शासकों के अधीन हैं और एक निम्न श्रेणी के नागरिक हैं। गैर-मुस्लिम लोग कुरान, पैगम्बर एवं इस्लाम की आलोचना नहीं कर सकते थे, वे मुस्लिम स्त्रियों से विवाह नहीं कर सकते थे तथा मुसलमानों को अपने धर्म में नहीं ला सकते थे। शासक गैर-मुसलमानों के लिए एक विशेष पोशाक भी निर्धारित कर सकता था और उन्हें अच्छी नस्ल के घोड़ो की सवारी करने पड़ भी रोक लगा सकता था । गैर मुसलमान अपने मुसलमान पड़ोसियों की अपेक्षा ऊँचे मकान नहीं बना सकते थे और अपने धार्मिक समारोह प्रकट रूप से नहीं बना सकते थे क्योंकि उनके यहां ऐसा करने से मुसलमानो के आँख, कान भ्रष्ट होने का डर बना रहता था । "

इमाम अबू हनीफा के अनुसार जजिया वर्ष के प्रारम्भ में या वर्ष के अन्त होते समय रमजान के समय लेना चाहिए। अबू यूसूफ के अनुसार जजिया दो किस्तों में प्रत्येक दो माह लेना चाहिए, जिससे कि जिम्मियों को एक बार में अधिक भार न महसूस हो और मुसलमानों को हर समय इसकी सुविधा और जजिया से मिलने वाला लाभ प्राप्त होता रहे । परन्तु इमाम शफी और मलिक के अनुसार जजिया वर्ष में एक ही बार लेना चाहिए । जब जिया वसूल किया जा तो जिम्मी एक कतार में खड़े रहे और वसूली करने वाला बैठा रहे । जिम्मी को एक निश्चित तरीके का वस्त्र जजिया देते समय पहनना चाहिए, जिससे कि वह मुसलमानों से भिन्न दिखाई पड़े। अबू हनीफा के मतानुसार "जिम्मी" स्वयं जाकर अपना "कर" जजिया वसूल करने वाले अधिकारी को आदरपूर्वक दे, किन्तु अबू हनीफा के शिष्य अबू यूसूफ और मुहम्मद इसका समर्थन नहीं करते हैं और कहते हैं कि जजिया एकत्र करने वाले अधिकारी को स्वयं "जिम्मी" के पास जाकर "कर" लेना चाहिए । अबू यूसूफ और इमाम गिजाली का कहना है कि "जजिया" एकत्र करते समय जोर-जबरदस्ती नहीं करना चाहिए एवं शारीरिक दण्ड नहीं देना चाहिए । इमाम नूरी ने भी इमाम गिजाली के मत का समर्थन किया है। गिजाली का कहना है कि यातना देकर एकत्र किया हुआ जजिया गैर-कानूनी और अन्याययुक्त (हराम) है ।

अगनाइड्स के अनुसार, जजिया लगाने का मुख्य उद्देश्य काफिरों ( अल्लाह की एकता और सत्ता में अविश्वास करने वाला) को अपमानजनक स्थिति में रखना था। जजिया की वसूली के समय में जिम्मियों का गला पकड़ कर जोरों से हिलाया और झकझोरा जाता था, जिससे जिम्मी को अपनी निम्न स्थिति का ज्ञान हो सके। साथ ही जिम्मी को जलील करते हुए कहा जाता था - "ए जिम्मी" "ए खुदा के दुश्मन", जजिया दो ।

कालान्तर में अरब प्रशासन में सहिष्णुता आयी । गैर - मुस्लिम प्रजा से जजिया वसूल कर उन्हें समस्त राजनैतिक अधिकार दिये गये। जजिया वसूल करने का कार्य - भार ब्राह्मणों को दिया गया और इस सेवा के बदले उन्हें जिया से मुक्त रखा गया। के० ए० निजामी के अनुसार इस कर की वसूली प्रत्येक गांव के आधार पर की जाती थी। गांव के लोग मिलकर अपने गांव के निर्धारित कर को अदा करते थे । यदि धर्म परिवर्तन, गांव छोड़ने या बीमारी आदि कारणों से जनसंख्या में कमी हो जाती थी, तो उस समय भी गांव के लिए निर्धारित कर में कोई कमी नहीं की जाती थी ।

मनौवैज्ञानिक, धार्मिक एवं वित्तीय कारणों से हर पराजित गैर-मुस्लिम राज्य द्वारा प्राप्त जजिया मुसलमानी राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग बन गया था । मनोवैज्ञानिक रुप से यह मुसलमानों के गौरव का सूचक था। जजिया मुसलमानों के विजय का संकेत करता था। परम्पराओं द्वारा पैगम्बर एवं शांति प्रिय खलीफा भी जजिया लिया करते थे । आर्थिक रुप से एक नए साम्राज्य में प्रवेश करने के लिए गैर - मुस्लिम जनता से यह कर लेना जरुरी था। क्योंकि इस समय मुसलमान केवल जकात ही देते थे, जिससे गरीब व्यक्तियों की सुरक्षा होती थी । खिराज बाद के मुसलमानी काल में लिया जाता था।

Bandey

I am full time blogger and social worker from Chitrakoot India.

Post a Comment

Previous Post Next Post