भाषा प्रतीकों की व्यवस्था है, जिसके अंगों - उपांगों में नियमबद्ध संबंध है । यदि लेखक को भाषा के नियमों का पूर्ण ज्ञान है, लेकिन वह किसी विशेष कारण से नियमों का उल्लंघन कर अपनी बात इस प्रकार कहता है कि, श्रोता कहीं गई बात से अधिक अर्थ प्राप्त करता है, तो इस अतिरिक्त को 'सर्जना' कहा जाता है । इस प्रकार लेखक द्वारा नियमों का अनायास उल्लंघन और अपने संदेश में अतिरिक्त अर्थ की संभावना का उद्घाटन ‘सर्जनात्मकता’ है। इसके लिए उपलब्ध शब्द से हटकर नए शब्दों का निर्माण, शब्दों में नया अर्थ भरना, शब्दों का नया प्रयोग और नए ढ़ंग से प्रस्तुत करना आदि सम्मिलित है।
भाषा का सर्जनात्मक प्रयोग कई रूपों में होता है । सर्जनात्मक भाषा को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है - गद्यात्मक एवं पद्यात्मक भाषा । गद्य के अंतर्गत कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवनी, संस्मरण निबंध, समीक्षा आदि विधाएँ आती हैं । पद्यात्मक भाषा के अंतर्गत महाकाव्य, खंडकाव्य, प्रगीत आदि आते हैं । इन सभी विधाओं की भाषा में विधागत विशेषताएँ होती हैं । प्रत्येक लेखक और कवि अपने अपने ढ़ंग से रचना का सर्जन करता रहता है । अत: ऐसा कोई निश्चित नियम नहीं बनाया जा सकता कि प्रत्येक कविता या नाटक का संपूर्ण अर्थ अपने आप समझ में आ जाए।