स्फीति लेखा विधि क्या है स्फीति लेखा-विधि का प्रमुख उद्देश्य

American Institute of Certified Public Accountants के अनुसार ‘‘स्फीति लेखाविधि लेखांकन की एक पद्धति है जिसके अन्तर्गत सभी आर्थिक घटनाओं को उनकी चालू लागत पर रिकार्ड किया जाता है।’’ स्फीति लेखा- विधि में चालू लागत का आशय ‘रिपोर्ट देने की तिथि पर प्रचलित लागत’ से होता है।

स्फीति लेखाविधि के उद्देश्य

स्फीति लेखा-विधि का प्रमुख उद्देश्य मूल्य-स्तर में परिवर्तनों के कारण वित्तीय विवरणों द्वारा दर्शाये गये परिणामों की विकृति को रोकना होता है जिससे लाभ का सही निर्धारण हो सके तथा संस्था की विनियोजित पूंजी को सही अर्थों में अक्षुण्ण बनाये रखा जा सके। ये दोनों समस्यायें एक दूसरे से सम्बन्धित हैं। संस्था की विनियोजित पूँजी को अक्षुण्ण रखने के लिये यह आवश्यक है कि क्रय-शक्ति के रूप में सम्पत्तियों के मूल्य समान बने रहें। ऐसा होने पर सही ह्रास ज्ञात किया जा सकता है और लाभ का सही अंक ज्ञात किया जा सकता है। 

स्फीति में वृद्धि की स्थिति में यदि ह्रास की गणना सम्पत्ति की मूल लागत पर की जाती है तो लाभ-हानि खाते पर ह्रास का प्रभार कम होने के कारण शुद्ध लाभ की राशि बढ़ जायेगी और यदि इसे लाभांश के रूप में वितरित कर दिया जाता है तो यह वितरण पूँजी में से होगा। अत: स्पष्ट है कि मूल लागत पर ह्रास की गणना से न तो लाभ की सही गणना ही की जा सकती है और न ही विनियोजित पूँजी को अक्षुण्ण बनाये रखा जा सकता है। स्फीति लेखा-विधि का उद्धेश्य लेखा-विधि की इस कमी को दूर करना है।

स्फीति लेखाविधि के लाभ

  1. आर्थिक चिट्ठे में स्थायी सम्पत्तियों व दायित्वों को उनके चालू मूल्य पर प्रदर्शित करने से व्यवसाय का आर्थिक चिट्ठा संस्था की वित्तीय स्थिति का सही एवं सच्चा चित्र प्रस्तुत करता है। इस तरह स्थायी सम्पत्तियों के चालू मूल्यों पर ळ्रा्रस की गणना व उपभुक्त स्कन्ध को उसकी चालू लागत पर चार्ज करने के कारण इसके लाभ-हानि खाता वर्ष भर संचालन के उचित व वास्तविक लाभ को प्रदर्शित करता है जो कि ‘आर्थिक लाभ’ के समान होता है। लेखा-लाभ के आर्थिक लाभ के समान रहने पर ही व्यवसाय की पूंजी को अक्षुण बनाये रखा जा सकता है। 
  2. यह प्रणाली भिन्न तिथियों पर स्थापित दो संयत्रों की लाभप्रदता की सही तुलना में सहायक होती है क्योंकि इसमें यह तुलना दोनों संयत्रों के चालू मूल्यों के आधार पर की जायेगी। 
  3. सम्पत्तियों के पुनर्मूल्यन से व्यवसाय में विनियोग का सही मूल्य ज्ञात हो जाता है तथा इसके आधार पर ‘प्रयुक्त पूँजी पर प्रत्याय’ की गणना अधिक सही व शुद्ध होती है। व्यवसाय स्वामियों, लेनदारों व प्रबन्ध सभी के लिए यह प्रत्याय ही अधिक उपयोगी होती है।
  4. स्फीति में वृद्धि के काल में लेखाकरण की इस विधि के अन्तर्गत ज्ञात की गई लाभ की मात्रा उस लाभ से कम होने की प्रवृत्ति रखती है जो कि ऐतिहासिक लागत पर ळ्रा्रस काटने से निकाला गया होता है। इस प्रकार इस विधि के प्रयोग से श्रम संघ, कर्मचारी, अंशधारी व सामान्य जनता व्यवसाय के लाभों के सम्बन्ध में गुमराह नहीं होते। इससे उनके अपने-अपने दावों के निबटारे में अधिक परेशानी नहीं आती। साथ इी इससे आय-कर का भार कम हो जाता है। 
  5. बहुत पहले ही क्रय की गई सम्पत्तियों की मूल लागत के आधार पर ळ्रा्रस की गणना करना तथा व्यय और आगमों की अन्य मदों को चालू मूल्य पर दिखलाना लेखा-विधि की अनुरूपता की अवधारणा के विरूद्ध होगा।
  6. प्रतिस्थापन लागत के आधार पर ळ्रा्रस की गणना किये जाने से इस विधि के अन्तर्गत स्थायी सम्पत्तियों के प्रयोग-योग्य न रहने पर उनका सरलतापूर्वक प्रतिस्थापन किया जा सकता है। 
  7. इस विधि के अन्तर्गत प्रकाशित खातों में स्थायी सम्पत्तियों के चालू मूल्य दिखलाने से संस्था में ‘स्वामियों की समता’ का उचित मूल्य निर्धारित किया जा सकता है। इससे व्यावसायिक निर्णय में शुद्धता लायी जा सकती है। इसके अतिरिक्त चालू मूल्यों पर तैयार किये गये वित्तीय विवरणों के ज्ञात किये गये अनुपात प्रबन्ध को अधिक विश्वसनीय और अर्थपूर्ण सूचना प्रदान करते हैं।
  8. इस विधि के प्रयोग से संचालन को प्रभावित करने वाले वास्तविक कारकों का खातों में समावेश हो जाता है। इससे व्यावसायिक लेखे प्रावैगिक रहते हैं और उनमें मूल्य-स्तर के परिवर्तनों को समायोजित किया जा सकता है। 

स्फीति लेखाविधि के दोष

  1. लेखापालों का मत है कि ळ्रा्रस स्थायी सम्पत्तियों की लागत में स्वाभाविक कमी को दर्शाता है, अत: ळ्रा्रस प्रभार मूल लागत की पुनपर््राप्ति का प्रतीक होता है। इसलिए सम्पत्ति की मूल लागत पर ळ्रा्रस की गणना करना ही तर्कयुक्त है। यद्यपि आलोचकों का यह तर्क काफी वजनदार है किन्तु सम्पत्ति की प्रतिस्थापन की समस्या को भुला देना उचित प्रतीत नहीं होता।
  2. आलोचकों का तर्क है कि सम्पत्ति के प्रतिस्थापन के समय उसी प्रकार की सम्पत्ति नहीं संस्थापित की जा सकती है। वस्तुत: तकनीकी विकास, उत्पादन में परिवर्तन, संस्था के आकार में परिवर्तन आदि के कारण बहुधा भिन्न संयंत्रों व अन्य सम्पत्तियों की आवश्यकता होती है। इस स्थिति में सम्पत्ति के पुनर्मूल्यन का कोई महत्व नहीं रह जाता है। यह तर्क कुछ सीमा तक नहीं है किन्तु पुनर्मूल्यन का उद्देश्य तो संस्था की पूँजी को अक्षुण्ण बनाये रखना होता है। पूँजी को अक्षुण रखने का आशय व्यवसाय की समस्त सम्पत्ति की कुल क्रय-शक्ति से होता है, न कि किसी एक सम्पत्ति की क्रय शक्ति से। अत: किसी एक सम्पत्ति की क्रय-शक्ति में परिवर्तन आ जाने का समस्त सम्पत्तियों की कुल क्रय-शक्ति का प्रभाव बहुत नगण्य हो जाता है। 
  3. सम्पत्ति की प्रतिस्थापन लागत का अर्थ बहुत ही अस्पष्ट है तथा इसका सही अनुमान सम्भव नहीं। लेखापालों में तो इस बात पर भी मतभेद है कि चालू वर्ष को आधार माना जाय अथवा प्रतिस्थापन के वर्ष को। दूसरे विकल्प में अनिश्चितता की मात्रा बढ़ जाती है तथा पहले विकल्प में आयोजित ळ्रा्रस की राशि सम्पत्ति के प्रतिस्थापन की वास्तविक लागत से कम या अधिक हो सकती है। 
  4. इसके आधार पर ज्ञात किया गया लाभ, ळ्रा्रस , प्रभाव व सम्पत्तियों का मूल्य आय-कर अधिकारियों को स्वीकार नहीं होता। अत: यह गणना व्यर्थ है किन्तु यह तर्क ठीक नहीं क्योंकि खातों के निर्माण का प्रमुख उद्देश्य प्रबन्ध को व्यवसाय की स्थिति व लाभप्रदता के सम्बन्ध में सही जानकारी देना होता है। आय-कर के लिए आय का निर्धारण तो एक सहायता उद्देश्य ही होता है। 
  5. इस विधि के प्रयोग से मूल्य वृद्धि के काल में संस्था के लाभ की मात्रा कम हो जाती है, कम आय-कर दिया जाता है तथा इससे मुद्रास्फीति की प्रवृत्ति और भी तेज हो जाती है। यद्यपि आलोचकों का यह तर्क सही है किन्तु न्यायोचित यही होगा कि संस्था वास्तविक रूप से कमाये गये लाभों पर ही कर दे। ऐतिहासिक लागत पर आकलित लाभ पर कर देने का अर्थ होगा कि संस्था पूँजीगत सम्पत्तियों पर भी आय-कर देने को बाध्य हो रही है। वस्तुत: पूँजीगत आय पर ‘पूँजी-कर’ लगना चाहिए, न कि ‘आय-कर’। 
  6. यह विधि अधिक खर्चीली व श्रम साध्य है। इसके प्रयोग से लेखा-कार्य में अत्यधिक जटिलतायें आ जाती है। अत: यह विधि वांछनीय नहीं। यह तक सही तो है किन्तु लेखा-विधि में मशीनों के प्रयोग से यह कार्य सरलतापूर्वक निष्पादित किया जाता है। 
  7. कुछ लोगों का विचार है कि इसके अन्तर्गत पूरक विवरणों को तैयार करने से जनता में भ्रम फैलेगा और सामान्य स्वीकृत सिद्धान्तों से तैयार किये गये लेखों के प्रति जनता का विश्वास उठ जायेगा। 
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि इस विधि के प्रयोग में अनेक समस्यायें व कठिनाईयाँ है किन्तु प्रबन्ध लेखापाल का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह स्फीति में परिवर्तनों का लाभ व विनियोजित पूँजी पर पड़ने वाले प्रभावों को खातों में अवश्य दर्शाये अन्यथा संस्था की क्रियाओं में हित रखने वाले विभिन्न पक्ष उसकी स्थिति व लाभप्रदता के सम्बन्ध में भ्रामक निष्कर्ष निकालेंगे।

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