महाभारत क्या है || महाभारत का संक्षिप्त परिचय

वेदव्यास रचित महाकाव्य महाभारत संस्कृत साहित्य का एक वृहत् विश्वकोश है— जिसमें वैदिक शास्त्र, उपनिषद, धर्मसंहिता, नीतिशास्त्र, वर्णादि आश्रमव्यवस्था, राजनीति, समाजनीति, गृहस्थनीति, धनुर्वेदादिविभिन्न शास्त्र, युद्ध नीति, इतिहास, भुगोल, विज्ञान, अध्यात्म दर्शन इत्यादि विभिन्न विषयों का भण्डार भरा पड़ा है। प्रथम दृष्टि में यह सत्य, अहिंसा तथा धर्म स्थापन के उद्देश्य का एक लौकिक कृती है । 

महाभारत शब्द का अर्थ-

महाभारत का अर्थ होता है भारत लोगों के युद्ध का महान् आख्यान । “प्राचीन भारतीय साहित्य” में महाभारत शब्द का अर्थ का वर्णन करते हुये कहा गया है— भारत का अर्थ होता है— ‘भरतों का युद्ध' (भारतः संग्रामः पाणिनि - IV 2,56), 'महान् भरत युद्ध' और महाभारताख्यानम् (I – 62,39) अर्थात् भरत के युद्ध के महान् आख्यान का उल्लेख है । 

ऋग्वेद में भारत लोगों को योद्धा जाति कहा गया है और ब्राह्मणग्रन्थों में दुष्यन्त और शकुन्तला के पुत्र भरत का हमें उल्लेख मिलता है जिस भरत को भारत राजवंश का पूर्व पुरुष माना गया है । भरत वंश के वंशजों में कुरु नामक राजा का स्थान विशेष महत्त्व का है। कुछ समय बाद भरत वंश का ही नाम कुरु या कौरव पड़ गया ।

कौरव राजवंश में एक पारिवारिक झगड़े के कारण घोर युद्ध हुआ— यह युद्ध उभयपक्षघाती था जिसमें कौरवों की प्राचीन जाति तथा इसके साथ भारतों का वंश प्रायः एकदम नष्ट हो गया । इसका वर्णन गीतों में हुआ था और किसी महाकवि ने, जिसका नाम आज विस्मृत हो चुका है, इन गीतों को कुरुक्षेत्र में लड़े गये महायुद्ध के वीर-काव्य के रूप में जोड़ा । इलियद और निबेलुंगेन गीत की तरह इस वीर - काव्य का भी मुख्य वर्ण्य विषय विनाशकारी भयंकर यही प्राचीन वीरकाव्य महाभारत का केन्द्रबिन्दु है । युद्ध की दुःखान्त घटना है ।

शताब्दियों के दौरान इस केन्द्रबिन्दु के चारों ओर आपस में एकदम भिन्न प्रकार की कविताओं का विशाल समूह एकत्र हो गया । महाभारत में बहुत से उपाख्यान, संवाद, गीत, इत्यादि शामिल हैं जिनकी रचना संभवतः मूल कथा के आस-पास हुई थी। इसमें हिन्दू धर्म, नीति, समाज सिद्धान्त और कथाओं का अपूर्व संग्रह सा है । महाभारत के विषय में महाभारत में ही कहा गया है- 

धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ ।
यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित् ॥

महाभारत ऐतिहासिक ग्रन्थ के रूप में तो प्रसिद्ध है ही, किन्तु इतिहास के साथ साथ जिस प्रकार धार्मिक, नैतिक और व्यावहारिक आदि विषयों का इसमें समावेश है, उसी प्रकार काव्य-दृष्टि से इसे देखा जाये तो यह अनेक महा-काव्य और नाटकों का भी उद्गम स्थान है। वर्णन शैली, ओजस्वी भाषा तथा वीर, करुण रसादि से इसकी काव्यगत उत्कर्ष भी प्रतिष्ठित है। महाभारत को स्वयं भगवान् श्री वेदव्यास और परमेष्ठि ब्रह्माजी द्वारा 'काव्य' संज्ञा दी गई है,

महाभारत ग्रन्थ में करीब 1 लाख श्लोक हैं। व्यास जी के ग्रन्थ जो 'जय' नाम से प्रसिद्ध था उसको वैशम्पायन ने बढ़ाया और 'भारत' नाम दिया । वैशम्पायन के ग्रन्थ को सौति ने बढ़ा कर एक लाख श्लोक कर दिया जिसका नाम "महाभारत" पड़ा। 

महाभारत मुख्यतः अष्टादश (18) पर्वों में विभक्त है—(1) आदि पर्व (2) सभा (3) वनपर्व ( 4 ) विराट (5) उद्योग ( 6 ) भीष्म (7) द्रोण (8) कर्ण (9) शल्य (10) सौप्तिक (11) स्त्रीपर्व ( 12 ) शान्ति (13) अनुशासन ( 14 ) आश्वमेधिक (15) आश्रमवासिक (16) मौसल (17) महाप्रस्थानिक ( 18 ) स्वर्गारोहण ।

महाभारत का उपनाम-

महाभारत के प्रारम्भ में ही इसके उपनामों का उल्लेख किया गया है— महाराज जनमेजय के सर्प यज्ञ में वैशम्पायन जी ने प्रथमबार श्रवण करवाया था। वह 'आदि ने महाभारत' संहिता लक्षश्लोकात्मक ही था और उसी का नाम 'जय इतिहास', 'भारत' और 'महाभारत' है । जय इतिहास - भारत और महाभारत ये तीनों ही नाम पर्यायवाची है ।

व्यास जी ने उपाख्यान भाग को छोड़कर चौबीस हजार श्लोकों की भारत -संहिता बनायी, जिसे विद्वान् पुरुष भारत कहते है । इस श्लोक के आधार पर विद्वद्जन महर्षि वेदव्यास प्रणीत संहिता को केवल चौबीस हजार श्लोक की मानते हैं और उसका नाम 'भारत' कहते हैं तथा उपाख्यान भाग को सौतिकी रचना और उपाख्यानों सहित भारत को 'महाभारत' मानते हैं । महर्षि वेदव्यास जी ने लक्षश्लोकात्मक भारत इतिहास की रचना की है जो आदि भारत के नाम से प्रसिद्ध हुआ । 'आदि भारत' का ही नाम उसकी गुरूता और भरत - वंश की महत्ता के कारण 'महाभारत' पड़ा। 

आधुनिक विद्वानों में अनेक विद्वान् महाभारत संहिता के तीन रूप और उसकी रचना करने वाले तीन आचार्य मानते हैं-प्रथम का वेदव्यास और उनकी संहिता 'जय' - मुच्यते सर्वपापेभ्यो राहुणा चन्द्रमा यथा । जयो नामेतिहासोऽयं श्रोतव्यो विजिगीषुणा || '

द्वितीय के वैशम्पायन और उनकी संहिता 'भारत', तृतीय के सौतिक और उनकी संहिता - 'महाभारत' बतलाते हैं ।

अन्ततः महर्षि वेदव्यास रचित महाभारत - संहिता रूपी महाकाव्य में समस्त ज्ञान भण्डार संग्रह किया गया है । महाभारत में विविध प्राचीन पुराणों और इतिहास ग्रन्थों के उपाख्यान संगृहीत किये गये है तथा ऋग्वेदादि के विशिष्ट विषयों का संग्रह किया गया है ।

महाभारत का वर्ण्य विषय या मूल कथानक-

प्राचीन समय में भरतों के देश में कुरुवंश के शान्तनु नामक राजा राज्य करते थे । मानवी— रूपधारिणी गङ्गादेवी से इस राजा को देवव्रत गाङ्गेय नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ और उसको राजा ने राजगद्दी का उत्तराधिकारी बनाया ।

देवदत्त योद्धाओं के सभी गुणों से विभूषित अप्रतिम वीर बन चुके थे । उसी समय शान्तनु ने मछुआरों की रूपवती कन्या सत्यवती देखा, उस पर मोहित हो गए और उसको अपनी पत्नी बनाना चाहा । परन्तु सत्यवती के पिता ने शर्त रक्खी कि उसकी कन्या से उत्पन्न पुत्र ही राजगद्दी का उत्तराधिकारी बने । शान्तनु राजी नहीं हुये और अपनी प्रेयसी को छोड़ना भी न चाहते थे । देवव्रत को शीघ्र ही सम्पूर्ण घटनाओं का पता चल गया वे स्वयं अपने पिता की ओर से मछुआरों के राजा के पास गये । ततपश्चात् देवव्रत ने प्रतिज्ञा लिया कि वह राजगद्दी का त्याग करता है। सत्यवती के पुत्र ही हमारा राजा होगा और मैं अखण्ड ब्रह्मचर्य का व्रत भी धारण करता हूँ, जिससे कि मेरा पुत्र भी राज्य पर अपना अधिकार न जता सके ।

देवव्रत के भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही उसका नाम " भीष्म" पड़ा। इसके बाद शान्तनु ने सत्यवती से विवाह कर लिया और उनसे चित्रांगद एवं विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए । इसके बाद शान्तनु के मृत्यु हो जाने पर युद्ध में एक गन्धर्व के हाथ युवक चित्रांगद मारा गया । भीष्म ने विचित्रवीर्य को राजा बनाया । विचित्रवीर्य की छोटी अवस्था में निःसन्तान मृत्यु हो गयी उसकी दो पत्नियाँ (अम्बिका, अम्बालिका) थी ।

सम्पूर्ण राजवंश को चलाने के लिये उत्तराधिकारी की आवश्यकता थी अतः सत्यवती ने भीष्म से विचित्रवीर्य की दो पत्नियों से नियोग प्रथा के अनुसार सन्तान उत्पन्न करने की प्रार्थना की जिससे वंश-परम्परा नष्ट न हो । परन्तु अपनी ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा को याद कर भीष्म ने अस्वीकार कर दिया

कौरवों और पाण्डवों की उत्पत्ति-

सत्यवती को अपने कानीन पुत्र व्यास का स्मरण हुआ और भीष्म की अनुमति से उन्होंने व्यास को बुलाकर वंश परम्परा को आगे बढ़ाने को कहा । - महर्षि वेद व्यास युवावस्था में अत्यन्त कुरूप थे । उनके शरीर का रङ्ग काला था, माथे में कपिल वर्ण की जटा थी, चेहरे में चिन्ह था । व्यास जब अम्बिका रानी के पास गये तो वह उन्हें देख भी न सकी और अपनी आँखे मूँद ली । इसका परिणाम यह हुआ कि इससे जो पुत्र उत्पन्न हुआ वह जन्मान्ध निकला । दूसरी रानी अम्बालिका के पास व्यास गए तो वह उनको देखते ही पीली पड़ गई । इस कारण उससे जो पुत्र हुआ वह पीले रंग का हुआ । माता सत्यवती के कहने पर एक बार पुनः द्वैपायन रानी अम्बिका के पास गये परन्तु रानी ने अपनी जगह अपनी दासी को ऋषि के पास भेज दिया । निष्ठावान हुआ । दासी का जो पुत्र उससे उत्पन्न हुआ वह विद्वान्, धैर्यवान, सत्यवान, यही तीनों धृतराष्ट्र जन्मान्ध, पाण्डु पिले रङ्ग के, एवं धृतराष्ट्र व पाण्डु के शुभेच्छु और चतुरमित्र विदुर हुये ।

चूँकि धृतराष्ट्र जन्मान्ध थे इसलिये पाण्डु राजा बने । धृतराष्ट्र ने गान्धार की राजकुमारी गान्धारी से विवाह किया और उससे उनको सौ पुत्र उत्पन्न हुए ।

पाण्डु की दो पत्नियाँ थी— पृथा या कुन्ती यादवों के राजा की पुत्री थी और माद्री शल्य की बहन मद्रराज कन्या थी । पाण्डु अभिशप्त होने के कारण सन्यासी के रूप में रहता था किन्तु वंशधर की कामना से कुन्ती ने दुर्वाशा मुनि से प्राप्त वरदान से पुत्र उत्पादन कराने के लिये देवताओं का स्मरण किया, जिसके फलस्वरूप धर्मराज से युधिष्ठिर, वायु से भीम, देवराज इन्द्र से अर्जुन उत्पन्न हुए ।

पाण्डु के अनुरोध से कुन्ती ने माद्री के लिये अश्विनी कुमारों से प्रार्थना की जिसके फलस्वरूप माद्री को नकुल और सहदेव जुड़वे पुत्र प्राप्त हुये ।

इसके बाद जल्दी ही पाण्डु का देहावसान हो गया और धृतराष्ट्र ने राज्य सम्भाली । माद्री पाण्डु के साथ सती हो गई थी । पाण्डु के पाँचों पुत्र अपनी माँ कुन्ती के साथ हस्तिनापुर चले आये । पाण्डव और कौरव धृतराष्ट्र के दरबार में-

हस्तिनापुर में पाण्डव अपने ज्येष्ठ तात के लड़कों के साथ शिक्षा-दीक्षा लेने लगे । जब राजकुमारों ने अपनी शिक्षा पूरी कर ली तो आचार्य द्रोण ने एक प्रदर्शन का आयोजन किया जिसमें उनके शिष्य अपनी-अपनी कुशलता दिखाने वाले थे । सभी पाण्डवों तथा कौरवों ने अपनी-अपनी युद्ध कला का प्रदर्शन किया । उसी समय मंच पर कर्ण भी आया और वे सारे कौशल कर दिखाया जो अर्जुन ने दिखाया था । इससे अर्जुन को बड़ा क्रोध आया परन्तु दुर्योधन ने कर्ण को आनन्द से गले लगाया और उसे राज्य देकर अमर मित्रता का वचन दिया । कर्ण ने अर्जुन को द्वन्द्व युद्ध के लिए ललकारा परन्तु पाण्डवों ने "सूत पुत्र' कहकर हँसी उड़ायी । कर्ण के शरीर में स्थित कवच कुण्डल को देखकर कुन्ती को स्मरण हुआ कि यह उसका पुत्र है । उसकी कुमारी अवस्था में पिता के गृह में दुर्वाशा मुनि ने उसकी सेवा से प्रसन्न होकर वरदान दिया था । " मन्त्र द्वारा जिस देवता का आवाहन करेगी उन्हीं से पुत्र प्राप्त होगा ।” कुन्ती ने क्रीड़ावश सूर्यदेव की आवाहन की और पुत्र प्राप्त हुआ । परन्तु कानीन पुत्र होने से कुन्ती ने उसे त्याग दिया । धृतराष्ट्र के मित्र सूतजाति के अधिरथ व उसकी पत्नी ने कर्ण का लालन-पालन किया ।

युधिष्ठिर राज्य का उत्तराधिकारी, लाक्षागृह, भीम - हिडिम्बा विवाह-

एक साल बीत जाने के बाद धृतराष्ट्र ने कुरु वंश के सबसे बड़े पुत्र युधिष्ठिर को राज्य का उत्तराधिकारी नियुक्त किया । इस कारण दुर्योधन, दुःशासन, कर्ण व शकुनि ने मिलकर पाण्डवों के विरुद्ध षडयन्त्र रचा ।

धृतराष्ट्र ने पाण्डवों को वारणावत भेज दिया । विदूर ने छलपूर्ण योजना युधिष्ठिर को म्लेच्छ भाषा में बता दिया । पाण्डवों ने योजना का अनुगमन करने का नाटक रचा और लाख के घर में डेरा डाला । पहले से खोदे गए सुरंग के रास्ते वे जंगल में भाग गए, मकान में आग लगा दी गयी । 

उस मकान में एक शूद्र स्त्री व उसके पाँच पुत्र जलकर मर गये। सबको विश्वास हो गया कि माता कुन्ती के साथ पाण्डव जलकर मर गये । जब धृतराष्ट्र के दरबार में उनकी और्ध्वदेहिक क्रिया सम्पन्न हो रही थी उस समय पाण्डव और कुन्ती गङ्गा के दूसरे पार जङ्गल में भटक रहे थे— 

उसी वन में हिडिम्बासुर के साथ भीम का युद्ध हुआ और उसकी बहन हिडिम्बा के साथ भीम का विवाह हुआ । उनके संयोग से एक पुत्र उत्पन्न हुआ जो आगे चलकर "घटोत्कच" नाम से प्रसिद्ध हुआ । यह कर्ण के समान शक्तिशाली था । इसने महाभारत के युद्ध में पाण्डवों की सहायता की ।

वकासुर वध, द्रौपदी स्वयंवर, अर्जुन का वनवास-

पाण्डव तपस्वियों का वेष बनाकर जंगल में घूमते रहे अन्त में वे एकचक्रा नगर में पहुँचे । वहाँ वे एक ब्राह्मण परिवार के साथ रहने लगे । उस गाँव में एक नरभक्षी राक्षस था । कुन्ती के आदेशानुसार भीम ने वकासुर नामक राक्षस के साथ भयंकर युद्ध किया और मार डाला -

कुछ समय बाद पाण्डवों ने पाञ्चाल राज्य में प्रवेश किया । वहाँ उन्हें ज्ञात हुआ पाञ्चाल राजकुमारी की स्वयंवर होने वाली है । पाण्डव वहाँ एक कुम्हार के घर में रहने लगे और पाञ्चाल राज द्रुपद के उत्सव में सम्मिलित हुये। सभी देशों के राजकुमारों ने भी उस उत्सव में भाग लिया, कौरव भी थे और पाण्डव ब्राह्मण के वेश में थे । अर्जुन ने लक्ष्यविंधकर द्रुपद कुमारी द्रौपदी का वरण किया ।

द्रौपदी को साथ लेकर पाण्डव कुम्हार के घर में आये और कुन्ती से कहा कि वे “भीक्षा" आये । कुन्ती ने बिना देखे कहा "सब मिलकर बाँट लो" । इस प्रकार द्रौपदी पाँच माँग कर पाण्डवों की पत्नी हुई ।

पाण्डव जीवित है और अर्जुन ने ही स्वयंवर में द्रौपदी को जीता, यह सबको ज्ञात हो जाने से, हस्तिनापुर में पाण्डवों का स्वागत हुआ । विदुर और द्रोण के अनुमोदन के साथ भीष्म ने धृतराष्ट्र को सलाह दी कि राज्य का विभाजन करके एक भाग पाण्डवों को दे दिया जाय। इस प्रस्ताव को धृतराष्ट्र ने मान लिया और पाण्डवों को "खाण्डवप्रस्थ" दे दिये । वहाँ उन्होंने “इन्द्रप्रस्थ” नगर व एक किले का निर्माण किया—

पाण्डव इन्द्रप्रस्थ में आनन्द और संतोष के साथ रहने लगे। उनमें एक समझौता था कि जब कोई भाई द्रौपदी के साथ होगा वहाँ कोई अन्य नहीं जायेगा, जो जायेगा उसे 12 वर्ष का वनवास होगा । किन्तु एक ब्राह्मण की सुरक्षा के लिये अर्जुन को इस नियम का उल्लंघन करना पड़ा । अतः युधिष्ठिर के मना करने पर भी अर्जुन ने वनवास ग्रहण किया । उन्हीं वर्षों में अर्जुन ने नागराज की कन्या उलूपी, चित्रवाहन की पुत्री चित्राङ्गदा, श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा से विवाह किया ।

द्रौपदी को युधिष्ठिर से “प्रतिविन्ध्य" नामक पुत्र प्राप्त हुआ, भीम से "सुतसोम", अर्जुन से 'श्रुतकर्मा' (पाठान्तर, 'श्रुतकीर्ति') नकुल से "शतानीक" और सहदेव से "श्रुतसेन" । सुभद्रा से अर्जुन को "अभिमन्यु” नामक पुत्र प्राप्त हुआ ।

सम्राट युधिष्ठिर, द्यूतक्रीड़ा, पाण्डवों का वनवास-

पाण्डवों ने चारों दिशाओं में दिग्विजय किया । जिसके बल पर युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ सम्पन्न करके सम्राट बन गया । इसमें सभी बड़े राजाओं को बुलाया गया । दुर्योधन उस उत्कृष्ट महल में भ्रमवश कई बार अपमानित हुये । दुर्योधन इन वैभव और अपने अपमान से क्रुद्ध होकर अपने मामा शकुनि के परामर्श से पाण्डवों के पराजय के लिये जुए की खेल का योजना बनाया ।

धृतराष्ट्र अपने पुत्र मोह में आकर युधिष्ठिरादि को जुए के खेल के लिए आमन्त्रित किया । पाण्डव और कौरव द्यूत सभा में एकत्र हुये । शकुनि ने युधिष्ठिर को खेलने के लिये आह्वान किया । युधिष्ठिर खेलते-खेलते अपने सम्पूर्ण सम्पत्ति, सभी भाई, स्वयं को एवं अन्ततः द्रोपदी को भी हार गया-

कौरवों ने द्रोपदी को अपमानित किया । अन्ततः धृतराष्ट्र ने दुर्योधन की भर्त्सना की और द्रौपदी को सान्त्वना देकर द्रौपदी को तीन वरदान दिया । युधिष्ठिर को उनका राज्य वापस कर दिया और सम्पूर्ण घटना के लिये क्षमा-याचना की । अन्ततः पाण्डव इन्द्रप्रस्थ लौट गये ।

दुर्योधनादि ने पुनः षडयन्त्र रचकर दूबारा द्यूतक्रीड़ा के लिये पाण्डवों को आमन्त्रण किया एवं यह शर्त था कि इस बार द्यूत क्रीड़ा में जो हारेगा वह 12 वर्ष का वनवास और 1 वर्ष का अज्ञातवास करेगा ।

गान्धारी ने दुर्योधन एवं धृतराष्ट्र को बहुत समझाया पर धृतराष्ट्र नहीं माने और क्रीड़ा के लिये आज्ञा दे दियें । युधिष्ठिर पुनः अपना सर्वस्व हार गये और 12 वर्ष का वनवास एवं एक वर्ष का अज्ञातवास स्वीकार किया ।

राजा विराट के दरबार में पाण्डव, शान्ति की वार्त्ता, और युद्ध की तैयारी-

एक वर्ष का अज्ञातवास के समय पाण्डवों ने मत्स्यराज विराट के दरबार में अपने-अपने नाम व वेष बदल कर रहने का निश्चय किया । इस प्रकार युधिष्ठिर कंक नामक चौसर खेलने वाला ब्राह्मण के रूप में, भीमसेन बल्लभ नामक रसोईए बनकर, द्रौपदी रनिवास में रानी सुदेष्णा के सहचरी के रूप में सैरन्ध्री बनकर रहने लगे। सहदेव गौ सेवक के रूप में अपना नाम अरिष्टनेमी बताया । अप्सरा के शापवश वृहन्नला नर्त्तकी रूप में अर्जुन राजा की पुत्री उत्तरा को नृत्य सिखाने लगे । ग्रंथिक नाम से नकुल अश्वशाला का देख-भाल करने लगा ।

इस प्रकार तेरहवाँ वर्ष बीत जाने पर पाण्डवों एवं द्रौपदी ने अपने वास्तविक परिचय दिया । राजा विराट पहले अत्यन्त लज्जित हुए फिर प्रसन्न होकर उनका आदर सत्कार किया । विराट की पुत्री उत्तरा के साथ अभिमन्यु का विवाह सम्पन्न हुआ ।

शान्ति वार्त्ता, अट्ठारह दिनों का महायुद्ध, भीष्म एवं द्रोण का वीरगति-

पाण्डव लोगों ने कृष्ण को शान्ति दूत के रूप में कौरवों के पास भेजा । परन्तु धृतराष्ट्र, कृष्ण, भीष्म, द्रोण, विदुर सभी दुर्योधन को समझाने में असफल रहे ।

अट्ठारह दिनों का महायुद्ध प्रारम्भ हुआ। युद्ध के दसवें दिन पाण्डवों ने शिखण्डी को आगे किया और कौरव लोग भीष्म के नेतृत्व में आगे बढ़े। शिखण्डी राजा द्रुपद की पूर्ण कन्या नहीं थी अतः वह पुरुष रूप धारण करती थी। भीष्म प्रतिज्ञा करते हैं कि उससे युद्ध नहीं करेंगे-

अर्जुन शिखण्डी के पीछे से छिप कर भीष्म पर बाणों की वर्षा करने लगा । भीष्म अपने को बचाने का प्रयत्न भी नहीं किये और मुस्कुराते हुये शिखण्डी पीछे से अर्जुन का बाण सहते गये । अन्त में वाणों का प्रहार सहने में असमर्थ होकर भीष्म रथ से गिर पड़े ।

भीष्म के पश्चात् आचार्य द्रोण को सेनापति बनाया गया । ग्यारहवें दिन से पन्द्रहवें दिन तक उनके संचालन में युद्ध चलता रहा । युद्ध के तेरहवें दिन सप्तरथीवेष्टित अभिमन्यु वीरगति को प्राप्त हुआ । द्रोण के मृत्यु के पश्चात् कर्ण को सेनापति चुना गया ।

कर्ण और दुर्योधन से युद्ध, रात्रि में पाण्डवों के शिविर में हत्याएँ, स्त्रियों का विलाप-

कर्ण केवल दो दिनों तक सेना का संचालन कर सका । कर्ण के रथ का एक पहिया जमीन में धँस गया । युद्ध के नियमों के अनुसार कर्ण अर्जुन को रोक कर रथ को उभारने का प्रयत्न करने लगा, परन्तु कृष्ण ने अर्जुन को विवश किया और अर्जुन ने कर्ण को धोखे से मार डाला । कर्ण के पश्चात् 18वें दिन का सेनापति शल्य हुआ । युधिष्ठिर ने शल्य को मारा । सहदेव के हाथों शकुनि मारा गया । अन्ततः दुर्योधन और भीम के बीच द्वन्द्व युद्ध प्रारम्भ हुआ और छल से भीम ने दुर्योधन का जाँघ तोड़ दी और दुर्योधन वीर गति को प्राप्त हुआ ।

बलदेव इस युद्ध की निन्दा करते हुये भीम से बोले कि वह नियम के विरुद्ध छलपूर्वक युद्ध जीता है इसलिये संसार में भीम को सर्वदा बेईमान और दुर्योधन को ईमानदार योद्धा कहा जायेगा । 

कौरवों के योद्धाओं में अश्वत्थामा ने सोते हुये धृष्टद्युम्न, शिखण्डी और द्रौपदी के पाँच पुत्रों को मार दिया ।

मृत लोगों के लिये विलाप करती हुयी गान्धारी तथा कुरुवंश की अन्य स्त्रियाँ युद्ध — भूमि में पहुँची । सभी मृत स्वजनों के लिये शोक करने के बाद गान्धारी ने कृष्ण को अभिशाप दिया कि छत्तीसवें वर्ष में वे स्वयं अपनी जाति का विनाश देखेंगे ।

इसके बाद सभी मृतकों के श्राद्ध के समय युधिष्ठिर को कुन्ती ने कहा कर्ण उसका ज्येष्ठ भ्राता है अतः उसका भी श्राद्ध करे । कुन्ती द्वारा सत्य को छुपाने के कारण युधिष्ठिर बहुत दुःखी हुये और कुन्ती को अभिशाप दिया- 

अश्वमेघ यज्ञ, धृतराष्ट्र की मृत्यु, यदुवंश का विनाश, पाण्डवों की महायात्रा-

वेदव्यास के आदेशानुसार युधिष्ठिर अश्वमेघ यज्ञ करके राज्य सम्भालने लगते हैं । धृतराष्ट्र और गान्धारी पाण्डवों के साथ पन्द्रह वर्षों तक रहते हैं । अन्ततः धृतराष्ट्र गान्धारी, कुन्ती, संजय, विदुर सभी वन चले जाते हैं । दो वर्षों बाद पाण्डवों को समाचार प्राप्त होता है कि धृतराष्ट्र गान्धारी और कुन्ती वन में लगी दावाग्नि में जल कर प्राण त्याग दिये । संजय हिमालय चले गये ।

कुरुक्षेत्र की लड़ाई के छत्तीसवें वर्ष में पाण्डवों को ज्ञात होता है कि गान्धारी का शाप सत्य हुआ । सम्पूर्ण यदुवंश का नाश हो गया और श्रीकृष्ण भी इहलोक छोड़ गये । कृष्ण की मृत्यु से पाण्डव अशान्त हो गए और इसके बाद वे महायात्रा पर निकल पड़े। युधिष्ठिर ने अभिमन्यु-पुत्र परीक्षित को राजा बना दिया और अपनी प्रजा से विदा ले ली । स्वर्ग के रास्ते में पहले द्रौपदी, फिर क्रमशः सहदेव, नकुल, अर्जुन अन्त में भीम भी मर गये । युधिष्ठिर के लिये स्वर्ग से दिव्य रथ आया । पाण्डव एवं द्रौपदी पहले ही स्वर्ग पहुँच गये ।

इस प्रकार उस महाभारत नामक महायुद्ध में जो-जो वीर, वीरगति को प्राप्त हुए थे, वे सभी भी स्वर्गलोक में ही थे ।

महाभारत में आख्यान और कथाएँ-

महाभारत के अट्ठारह पर्वों के बाकी भाग में अंशतः वर्णनात्मक तथा अंशतः नीत्यात्मक कविताएँ हैं जिनका कौरवों और पाण्डवों के युद्ध से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है । इसके प्रथम पर्व में पूरा का पूरा एक अवान्तर पर्व है जिसका शीर्षक ही है संभव पर्व या उत्पत्ति का पर्व । जिसमें वीरों की वंशावली उनके पूर्व पुरुषों से आरम्भ करके बतायी गयी है । ये पूर्व पुरुष देवताओं की सन्तानें थीं । प्राचीन युग के राजाओं के सम्बन्ध में कई रोचक कथाएँ इसमें वर्णित हैं ।

भारत की सबसे पुरानी पशु-कथाएँ तो इसी महाभारत में मिलती हैं और वे नीति और धर्म के नियमों की शिक्षा देने के लिये उपयोगी हैं। अधिकतर उपाख्यान, पशु-कथाएँ, उदाहरण-कथाएँ और नीति-संवाद, नीति के अध्यायों में और बारहवें तथा तेरहवें पर्वों में मिलते हैं । इनमें से बहुत सी कथाएँ बौद्धों के तथा बाद के कहानी संग्रहों में भी मिलती हैं और कुछ तो यूरोप के कथा-साहित्य में भी पहुँच गई हैं ।

महाभारत की नीति - कथाओं में केवल मुनि के आचार का ही वर्णन नहीं है । उनमें से कई हमारे ऊपर प्रभाव डालती हैं। वे पति और पत्नी, माता-पिता और बच्चों सम्बन्धी दैनिक आचार के बारे में भी शिक्षा देती हैं । सत्य और अहिंसा तथा धर्म के अन्य तत्त्वों का सहेतुक विवेचन और अध्यात्म का निरुपण कृष्ण-अर्जुन संवाद, जनक- सुलभा याज्ञवल्क्य जनक, ब्राह्मण-व्याध एवं अन्य संवादों में विविध प्रकार से हुआ ही है, सर्वोपरि महाभारत के शिरोभूषण गीता में समस्त उपनिषदों का अध्यात्म ज्ञान अमृत स्वरूप है और ज्ञान, कर्म और भक्ति का समुच्चय तथा समन्वय पर्याय से महाभारत की अद्वितीय मौलिकता है । महाभारत की उपाख्यान एवं कथाएं इस प्रकार हैं-

महाभारत में उपाख्यान-

1. शाकुन्तलोपाख्यान ।
2. नहुष का आख्यान ।
3. नलोपाख्यान ।
4. रामोपाख्यान ।
5. विदुलोपाख्यान ।
6. रुद्र का आख्यान ।
7. मत्स्योपाख्यान ।
8. सावित्रीउपाख्यान |
9. शिविरोपाख्यान ।
10. चिरकारीउपाख्यान ।
11. पिङ्गलाख्यान ।

महाभारत में कथाएँ-

1. ययाति की कथा ।
2. जनमेजय नाग यज्ञ कथा ।
3. गीदड़ की कथा ।
4. धूर्त गीध की कथा ।
5. धोखेबाज बिल्ली की कथा ।
6. सोने के अण्डे देने वाली पक्षी की कथा ।
7. जाल को लेकर उड़ने वाली पक्षी की कथा ।
8. नदी समुद्र संवाद की कथा ।
9. कुएँ में गिरे ब्राह्मण की कथा ।
10. बहेलिए और कबुतर की कथा ।
11. मुनि मुद्गल की कथा ।
12. साँप, मृत्यु, भाग्य और कर्म की कथा ।
13. सियार और मृत बालक की कथा ।
इस प्रकार के छोटे और बड़े उपाख्यान एवं कहानियाँ महाभारत के प्रायः हर पर्व में हैं । अतः इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि महाभारत में संगृहीत मुनि - कविता की उदात्त कहानियों, संवादों और सूक्तियों में अनेक ऐसे विचार प्राप्त होते हैं जो मुख्यतः तीन बातों का विवेचन करते हैं जैसे-
1. भारतीय नीति (सांसारिक ज्ञान, विशेषतः राजाओं के लिए, अतः राजनीति ) ।
2. धर्म (व्यवस्थित विधान और सामान्य आचार)
3. मोक्ष (सारे दर्शन का चरम लक्ष्य मुक्ति ) कहते हैं ।

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