गुरु अंगद देव जी का जीवन परिचय

गुरु नानक देव के बाद गुरु अंगद देव ने उनकी जगह ली । गुरु अंगद देव जी का जन्म 1561 विक्रमी संवत् में एक क्षत्रिय कुल में हुआ था । उनका पहला नाम लहना था । इनका विवाह खीवी नामक कन्या से हुआ था । इनके दो पुत्र दातू और दासू तथा दो पुत्रियाँ अमर कौर और अनोखी बाई थीं । गुरु नानक देव जी ने अपनी मृत्यु के पूर्व भाई लहना का तिलक कराया और उन्हें अंगद देव के नाम से द्वितीय नानक के रूप में प्रतिष्ठित किया । गुरु नानक के पुत्रों के होते हुए गुरु अंगद देव को उनका उत्तराधिकरी बनाए जाने के संबंध में डॉ. मनमोहन सहगल लिखते हैं कि नानक गद्दी के उत्तराधिकरी बनने के लिए भाई लहना गुरु नानक द्वारा ली गई सभी परीक्षाओं में सफल हुए । गुरु नानक के पुत्र श्रीचंद और लक्ष्मीचंद सफल नहीं हो सके और वे गुरु नानक को ही पथभ्रष्ट मानने लगे । जबकि भाई लहना स्थिर बने रहे और गुरु नानक के विश्वासपात्र बने । अपने समय में उन्होंने मुगल सम्राट हुमायूँ के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किए थे । गुरु नानक द्वारा स्थापित लंगर प्रथा को उन्होंने और भी सुदृढ़ प्रथा के कारण गुरु घर के श्रद्धालुओं में भ्रातृत्व और सहयोग की भावना बढ़ती गई । किया । इस

गुरु अंगद देव जी ने शारदा एवं देवनागरी लिपि का समन्वय करके गुरुमुखी लिपि का आविष्कार किया । इस लिपि के कारण लोक भाषा तथा साहित्य भाषा में अंतर पैदा हो गया । उन्होंने गुरुवाणी का संकलन, ‘संचिकाएँ' के रूप में किया । इन्हीं संचिकाओं के आधार पर भाई गुरुदास ने गुरु अर्जुन देव की आज्ञा से ‘गुरु ग्रंथ साहिब' का संकलन किया । भाई बाला से गुरु नानक की जन्म साखी लिखवाई, जो 1600 संवत की पहली गद्य रचना है । 'आदि ग्रंथ' में गुरु अंगद देव के मात्र 62 श्लोक हैं, जिनमें प्रेम और गुरु-भक्ति प्रधान है । उन्होंने अपने श्लोकों में जीवन के कई सिद्धांतों, संकल्पों, पक्षों, वस्तुओं, भावनाओं और विचारों संबंधी अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है । इनकी वाणी में इनके व्यक्तित्व की झलक मिलती है परंतु उसपर गुरु नानक देव जी के विचारों और शैली की भी स्पष्ट छाप परिलक्षित होती है । गुरु अंगद देव के काव्य सौष्ठव के संबंध में डॉ. हरमहेंद्र सिंह बेदी और डॉ. कुलविंदर कौर का कहना है - “आपने अधिक कविता नहीं लिखी तथापि आपकी वाणी अंतःकरण के पावन भावों की निष्कपट अभिव्यक्ति है । आपकी वाणी सेवा-भावना, प्रभु भक्ति, नाम-स्मरण इत्यादि विषयों को छूती है ।"" यद्यपि गुरु अंगद देव ने स्वयं बहुत अधिक नहीं लिखा और आदि ग्रंथ' में भी उनके कुछ ही श्लोक हैं जिनमें उनकी गुरु-भक्ति, ईश्वर-प्रेम, सदाचरण आदि भावनाएँ परिलक्षित होती हैं ।

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