गुरु अर्जुन देव जी का इतिहास

पाँचवें गुरु के रूप में प्रतिष्ठित गुरु अर्जुन देव जी का जन्म अमृतसर में सन् 1563 को हुआ था । अपनी योग्यता, आध्यात्मिक विवेक और गुरु में अखण्ड विश्वास के कारण अठारह वर्ष की आयु में, उन्हें गुरु-गद्दी का उत्तराधिकारी बनाया गया । गुरु अर्जुन देव जी का, गुरुओं की परम्परा में, एक विशिष्ट तथा महत्वपूर्ण स्थान है । उन्होंने लोगों को सामाजिक कल्याण तथा सत्यमार्ग की ओर अग्रसर किया । यही नहीं, उन्होंने संत वाणी का अद्वितीय संग्रह ‘गुरुग्रंथ साहिब’ के रूप में करके भारतीय संस्कृति को समृद्ध किया । दरबार साहिब की नींव

रखकर एक सरोवर के आधार पर अमृतसर नगर का निर्माण करवाया । माझा क्षेत्र में तरन तारन नगर बसाया और करतारपुर नगर बसाने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है । सन् 1604 ई. में उन्होंने गुरुग्रंथ का सम्पादन कार्य पूरा किया । ‘गुरुग्रंथ साहिब' पंजाब की सबसे पहली रचना है । इस महाग्रंथ में आत्मविरोध का कोई निशान नहीं है और आरंभ से अंत तक शब्दों के स्वरूप की समानता को बनाए रखा गया है । ‘गुरुग्रंथ' में सबसे अधिक वाणी गुरु अर्जुन देव की है । इसमें उनके द्वारा रचित 2218 पद संकलित हैं । इनकी प्रत्येक रचना दर्शनिक है जिनमें परमात्मा, आत्मा और प्रकृति का यथार्थ ज्ञान दिया गया है । इनकी वाणी मनुष्य के उदास मन को प्रोत्साहन और स्थिरता प्रदान करती है । गुरु अर्जुन देव की प्रमुख बानियाँ हैं ‘बाराहमाह’, ‘बावन अक्खरी’, ‘सुखमनी साहिब’, ‘गाथा’ आदि । -

गुरु अर्जुन के अनुयायियों की संख्या दिन-ब-दिन बढती जा रही थी । उनके अनुयायी अधिकांशतः खेतिहर और व्यवसायी हिंदू थे । अबतक अकबर का पुत्र जहाँगीर गद्दी पर बैठ चुका । गुरु अर्जुन देव के बढ़ते प्रभाव से मुगल बादशाह जहाँगीर के मन में गुरु अर्जुन देव था के प्रति संदेह पनपने लगा । इस संदेह को भड़काने में अर्जुन देव के बड़े भाई पृथ्वीचंद ने कोई कसर नहीं छोड़ी । गुरु अर्जुन देव को बंदी बना लिया गया और उन्हें मुस्लिम धर्म को अपनाने के लिए कहा गया । परंतु धर्म-रक्षक गुरु अर्जुन देव जी ने अपना धर्म छोड़ने की अपेक्षा शरीर त्यागना उचित माना । जहाँगीर की आज्ञा से उनपर भयंकर अत्याचार किए गए और सन् 1606 में प्राणदंड दे दिया गया । इस घटना से सिखों की भावना को बहुत बड़ा आघात लगा । अब तक जो संप्रदाय शांतिप्रिय था, वह एक लड़ाकू संप्रदाय में परिवर्तित होने लगा । आरंभ से ही सिखों में आपस में झगड़े और मतभेद होते रहे । कई गुरुपुत्रों को पिता की गद्दी न मिलने । से, वे विद्रोह करने लगे और मुगलों से जा मिले ।

Post a Comment

Previous Post Next Post