गुरु नानक देव जी का जीवन परिचय

गुरु नानक देव जी जन्म से हिंदू थे । गुरु नानक देव जी जन्म रावी नदी के किनारे स्थित तलवंडी नामक गाँव में संवत् 1527 में कार्तिक पूर्णिमा के दिन एक खत्रीकुल में हुआ था । गुरु नानक देव जी के पिताजी कल्याणचंद तथा माताजी तृप्ता देवी थीं । इनकी एक बड़ी बहन भी थीं, जिनका नाम नानकी था । तलवंडी का नाम आगे चलकर ननकाना साहिब पड़ गया और देश-विभाजन के बाद यह स्थान पाकिस्तान में चला गया ।

ऐसा कहा जाता है कि नानक देव के जन्म के समय प्रसूति गृह में अलौकिक प्रकाश भर गया । शिशु के मस्तक के आसपास दिव्य आभा फैली हुई थी और चेहरे पर अद्भुत शांति थी । गाँव के पुरोहित पंडित हरदयाल को यह समझते देर नहीं लगी कि शिशु अवश्य ही ईश्वरीय अवतार है । बचपन से ही नानक की रुचि पढ़ने-लिखने में नहीं थी । परंतु, इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि वे अशिक्षित थे । वास्तव में जब नानक को पंडित हरदयाल के पास शिक्षा ग्रहण करने के लिये भेजा गया तो बालक द्वारा पूछे गए प्रश्नों से पंडित जी निरुत्तर हो गए । इसके बाद उन्हें मौलवी कुतुबुद्दीन के पास भेजा गया । मौलवी जी भी नानक की विद्वता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके । यह स्पष्ट हो गया कि नानक को स्वयं ईश्वर ने शिक्षा देकर भेजा है । स्कूली शिक्षा नानक देव को नीरस और व्यर्थ लगती थी । घुमक्कड़ साधुओं की संगति (चाहे हिंदू हो या मुसलमान) उन्हें भली लगती थी । उनका सम्पूर्ण बचपन गायें- बकरियाँ चराते हु बीता । अंतर्मुखी प्रवृत्ति और विरक्ति उनके स्वभाव के अंग बन गए । अपने परिवार के पेशे में भी नानक हाथ नही बँटाते । जो भी रुपये-पैसे उन्हें दिए जाते, वे उसे गरीबों और भूखे-नंगों की मदद में लगा देते । बड़े होने पर उनका विवाह गुरदासपुर जिले के लाखौकी नामक स्थान के रहने वाले मूला नामक व्यक्ति की कन्या सुलक्खनी के साथ कर दिया गया । उनके दो पुत्र हुए श्रीचंद और लक्ष्मीदास । लेकिन सत्य की तलाश के लिए उन्होंने अपना घर-परिवार सब छोड़ दिया और एक खानाबदोश बन गये । व्रत-उपवास, ध्यान, पूजा- प्रार्थना आदि उनकी दिनचर्या का महत्वपूर्ण अंग बन गये ।

पंजाब पर कहर ढ़ाने वाले हिंदू-मुसलमानों की लड़ाईयों के कारण नानक देव चिंतित रहते थे । वे यह जानना चाहते थे कि आखिर इन लड़ाइयों का कारण क्या है ? उन्होंने दोनों धर्मों का गहन अध्ययन किया और दोनों धर्मों में बहुत सी समान बातें पाईं । नानक देव जी ने कर्म की नैतिकता पर आधारित धर्म का प्रवर्तन किया । उन्होंने कभी भी मूर्ति-पूजा और जातिवाद को महत्व नहीं दिया । उन्होंने हमेशा सबको समान बताया । उन्होंने लंगर की प्रथा शुरु की, जहाँ सभी धर्मों, सभी जातियों और सभी वर्गों के लोग एक साथ, एक स्थान पर बैठकर खाना खाते हैं । उन्होंने तीन बातों को प्रमुखता दी -

नाम जपो – ध्यान करो ।
कीर्त करो - कर्म करो ।
वंद छको – अपने से कम सुखी लोगों की सहायता करो ।


नानक देव ने १ ॐ (एक ओंकार) अर्थात एक ईश्वर की पूजा को विशेष महत्व दिया। सिख संप्रदाय के बढते प्रभाव को मुस्लिम शासकों ने एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया । इब्राहिम लोदी ने तो छह महीने तक नानक देव को बंदी बनाकर रखा । नानक ने पूरे भारत का भ्रमण किया । सभी दिशाओं में भ्रमण करते हुए उनकी मुलाकात विभिन्न धर्मों के लोगों से होती रही । डॉ. नगेंद्र के अनुसार, “फलस्वरूप समाज और धर्म के संबंध में उनकी विचारधारा अनुभूति तथा समन्वय पर आधारित है ।"" अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने अहंकारियों को זיין अहंकार के जाल से मुक्त किया, वेश्याओं का अंतःकरण शुद्ध कर उनका उद्धार किया, दुर्जनों को मानवता का पाठ पढ़ाया और बाह्याडम्बरों में फँसे लोगों को रागात्मक भक्ति की राह पर अग्रसर किया । भारत के अतिरिक्त नानक जी ने भूटान, नेपाल, तिब्बत, ईरान, बगदाद, मक्का-मदीना, अफगानिस्तान आदि देशों का भी भ्रमण किया । अपने जीवन के अंतिम दिनों तक वे उपदेश देते रहे और भजन- न-कीर्तन करते रहे । नानक देव सभी धर्मों से ऊपर थे । उन्होंने स्वयं को कभी किसी धर्म से नहीं जोड़ा । स्वयं को उन्होंने कभी न हिंदू माना, न मुसलमान और न ही कभी स्वयं को सिख कहा । वे तो मानवतावादी थे । अपने उपदेशों से उन्होंने जात- पात, छुआछूत आदि का विरोध तो किया ही, साथ ही हिंदू और मुसलमानों के बीच एकता स्थापित करने का भी प्रयास किया । उनके अनुयायियों ने उन्हें सिख धर्म का प्रवर्तक घोषित किया ।

मध्यकालीन संत कवियों में नानक देव जी का विशिष्ट स्थान है । नानक द्वारा रचित 974 पद ‘गुरुग्रंथ साहिब’ में संकलित हैं । नानक दर्शन का सार तत्व ‘जपुजी' में समाविष्ट है। प्रातःकालीन प्रार्थना के लिए रचित ' जपुजी' में सिख सिद्धांतों का सार है । इसके बारे में डॉ. हरमहेंद्र सिंह बेदी एवं डॉ. कुलविंदर कौर लिखते हैं, “वस्तुतः यह वाणी आदि ग्रंथ का सार तत्व है अथवा आदि ग्रंथ इसकी व्याख्या मात्र है । सम्पूर्ण सिख धर्म का सैद्धांतिक आधार यही है ।”” “सिद्धगोष्ठि” नामक अपनी दार्शनिक कविता में नानक जी ने जीवन से पलायन करने की वृत्ति का खण्डन किया है और संघर्षों तथा मुसीबतों का सामना करने पर बल दिया है । “बारहमाह” गुरु नानक के अंतिम दिनों की रचना मानी जाती है । उन दिनों वे करतारपुर में निवास करते थे । डॉ. हरमहेंद्र सिंह बेदी और डॉ. कुलविंदर कौर के शब्दों में, “इस रचना में न ‘जपु’ वाणी वाली बौद्धिकता है और न ही ‘सिद्धगोष्ठि' वाली सहज योग साधना । प्रस्तुत रचना में परमात्मा ज्ञान का विषय न रहकर माधुर्य भाव का प्रिय रूप बन गया है, जिसके वियोग में तड़प-तड़प कर नायिका अपना जीवन-यापन कर रही है । ‘असा दी वार’, ‘रहिरास’, ‘सोहिला’, नानकवाणी' आदि नानक की अन्य प्रसिद्ध रचनाएँ हैं । गुरु नानक के काव्य की विशष्टताओं को अपने शब्दों में पिरोते हुए डॉ. नगेंद्र ने लिखा है - “उनके काव्य में निर्गुण ब्रह्म के प्रति उच्च कोटि की भक्ति भावना विद्यमान है, किंतु इसके साथ ही अन्य धार्मिक विचारधाराओं के लिए भी इनके मन में श्रद्धा थी । सत्य के प्रति आस्था के फलस्वरूप उनकी वाणी में स्पष्टता और उद्बोधन की प्रखरता मिलती है ।”*

संवत् 1597 में, नानक देव जी के स्वर्गवास के बाद उनके नौ उत्तराधिकारियों ने उनके उन अनुयायियों को, जिनकी विचारधारा हिंदुत्व और इस्लाम दोनों से अलग थी, एक ऐसे समुदाय में ढ़ाला जिसकी अपनी विशिष्ट धार्मिक आस्थाएँ और परम्पराएँ रहीं ।

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