पंचायती राज का इतिहास

प्राचीन भारत के आदिम समाज से ही पंचायतें शासन की रीढ रही हैं, जो काल के प्रभाव से प्रभावित हुए बिना ही अब तक की अपनी विकास यात्रा निर्वाध रूप से पूरी करते हुए अपने वर्तमान स्वरूप तक आयीं । यद्यपि प्राचीन भारत का प्रशासनिक इतिहास निर्विवाद रूप से राजतंत्रात्मक रहा है किन्तु गणतन्त्र की झांकी भी समानान्तर रूप से प्राप्त होती है। इन दोनो व्यवस्थाओं में पंचायत अवधारणा अनिवार्य रूप से विद्यमान थीं। ये पंचायतें अपने क्षेत्र में स्वायत्त होती थीं तथा केन्द्रीय शासन से स्वतन्त्र होते हुए अपने क्षेत्र में प्रशासन करती थीं ।

किसी भी राजनीतिक व्यवस्था में स्थानीय प्रशासन का अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान होता है। लोकतन्त्र की मूलभूत मान्यता है कि सर्वोच्च शक्ति का अधिक से अधिक विकेन्द्रीकरण होना चाहिए जिससे अधिकाधिक व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से शासन कार्य में हिस्सा ले सकें। इस सम्बन्ध में स्थानीय स्वशासन संस्थाओं द्वारा यह कार्य अच्छे ढंग से किया जा सकता है। विकेन्द्रीकरण का तात्पर्य है सत्ता का एक स्थान या कुछ व्यक्तियों में न रहकर जनसाधारण तक पहुंचना । वह अपने मूल में जनसहमति का विचार रखता है।

भारत में विकेन्द्रीकरण पंचायती राज से ही समझा जाना चाहिए। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं० नेहरू का भी विचार था कि पंचायती राज भारत में हर व्यक्ति को इस प्रकार जोड़ता है कि हर व्यक्ति को यह अहसास रहे कि वहीं पूरे देश का क्रियाशील प्रधानमंत्री हो । लोकतन्त्र में विकेन्द्रीकरण का महत्व समझते हुए सर्वप्रथम श्री बलवन्त राय मेहता ने लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण शब्द का प्रयोग किया था। बाद में इस शब्द को स्पष्ट करते हुए जवाहर लाल नेहरू ने इसे भारतीय भाषा के सरलतम रूप में 'पंचायत राज' कहा।

इसमें कोई संदेह नही है कि भारत में पंचायती राज संस्थाओं माध्यम से लोकतांत्रिक मूल्यों, विकास के अधिकार की अवधारणा, जन जागरूकता, पिछड़े वर्गों का उत्थान, महिला सशक्तीकरण, जनसंख्या नियंत्रण, प्रशासन में जनसहभागिता जैसे कारकों को बल मिला है। इस संदर्भ गाँधी का विचार था कि सच्चे लोकतन्त्र को केन्द्र में बैठे व्यक्ति नहीं चला सकते इसे प्रत्येक गाँव के निचले स्तर के लोगों द्वारा ही चलाया जा सकता है।

प्राचीन काल में पंचायतों या अन्य प्रकार के स्थानीय शासकों को राज्य सरकार या प्रशासन का एक अभिकरण मात्र माना जाता था । किन्तु पंचायती राज को वर्तमान भारत में लोकतन्त्र के प्रक्रिया के रूप में अपनाया जाना अत्यन्त आवश्यक सा हो गया है। पंचायत राज का अर्थ एक शासन पद्धति है यह गाँव पंचायतों का जाल सा । ऊपर से नीचे देखें तो यह पंचायत से निकल रहा एक अंग है जो बढ़कर राष्ट्रव्यापी हो रहा है। पंचायती राज निःसंकोच प्रशासन की वह परिवर्तित पद्धति होगी जिससे प्रशासनिक अधिकारों का विकेन्द्रीकरण होगा। प्रशासन अधिक उत्तरदायी बनेगा और ग्रामीण जनता को शासन में भाग लेने का अवसर मिलेगा ।'

प्राचीन भारत में पंचायती संस्थाओं का अस्तित्व एवं विकास

प्राचीन काल से ही भारत के सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में पंचायतों का अपना महत्वपूर्ण स्थान रहा है। यदि प्राचीन भारतीय राजनीतिक व्यवस्था का सिंहावलोकन किया जाये तो यह तथ्य स्पष्ट रूप से प्रकाशित हो जाता है कि जीवन के सामाजिक, सामुदायिक और आर्थिक पक्षों पर निर्णय के लिए स्थानीय स्तर पर प्रतिनिध्यात्मक निकाय किसी न किसी रूप में विद्यमान थें जो स्थानीय शासन का दायित्व संभाले रहती थीं।

हमारे देश में स्थानीय शासन की संस्थाएं पुरातन काल से ही चली आ रही है। उस समय ये पंचायतें 'लघु गणराज्य' थीं। ग्रामीण जीवन के विभिन्न क्षेत्रों पर उसका अधिकार और नियंत्रण हुआ करता था। पंचायतें लोकतन्त्र की धड़कन के रूप में सामाजिक, सामुदायिक और आर्थिक गतिविधियों का संचालन करती थीं, पंचायतें हमारे लोकतांत्रिक संस्थाओं की रीढ़ भी रही है। मानव जाति की सभी गतिविधियों का संचालन इन्हीं पंचायतों की देख-रेख में होता था । वैदिक काल से लेकर ब्रिटिश शासन के प्रारम्भ तक ये पंचायतें ही हमारे गाँवों की देख-भाल तथा उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करती थी ।

वर्तमान समय में भारत के विभिन्न राज्यों में ग्राम पंचायतों का स्वरूप लगभग समान है। अतः सम्पूर्ण देश की पंचायतों को समझना बहुत सरल है। प्राचीनकाल में ग्राम पंचायतों का तात्पर्य ग्राम के उन सम्मानित 'वृद्ध पंच' लोगों से थे जो अपने गाँव में उत्पन्न सभी समस्याओं को सुलझाते थे जिन्हें 'पंच' कहा जाता था। किसी भी 'वाद' के दोनों पक्ष पंचों का इतना सम्मान करते थे कि उनका निर्णय ईश्वर का निर्णय समझ कर स्वीकार कर लेते थें । इसी कारण से भारत में 'पंच परमेश्वर' की धारणा का उदय हुआ ।

ऐतिहासिक काल क्रम में भारतीय प्रशासन के अन्तर्गत पंचायतों की स्थिति को अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से निम्नलिखित काल-खण्डों में विभाजित करके देखा जा सकता है कि उक्त समय विशेष के प्रशासन में पंचायतों की क्या स्थिति और स्वरूप रहे हैं :

1. प्राचीन कालीन प्रशासन में पंचायतों का स्वरूप ।
2. राजपूत कालीन प्रशासन में पंचायतों का स्वरूप ।
3. सल्तनत कालीन प्रशासन में पंचायती राज व्यवस्था ।
4. मुगल कालीन प्रशासन में पंचायतों की स्थिति ।
5. ब्रिटिश कालीन प्रशासन में पंचायत ।
6. स्वातंत्रयोत्तर प्रशासन में पंचायती राज व्यवस्था ।

प्राचीन कालीन प्रशासन में पंचायतों का स्वरूप

भारत का प्राचीन इतिहास अनेक कालखण्डों में विभाजित है। क्रमबद्ध अध्ययन के लिए सबसे पहले सिन्धु घाटी सभ्यता का आंशिक अवलोकन करते हैं। सिन्धु घाटी सभ्यता मूलतः एक नगरीय सभ्यता थी, जिसका काल प्रशासन ( 2250 ई०पू० से 1750 ई०पू० तक) का केवल अनुमान लगाया जा सकता है। लिखित साक्ष्यों के अभाव में सिन्धु सभ्यता कालीन राजनीतिक एवं प्रशासनिक स्थिति का निर्धारण करना कठिन है। हीलर तथा पिगट का मत है कि मोहन जोदड़ों और हड़प्पा साम्राज्य अच्छे ढंग से शासित साम्राज्य थे। नालियों की व्यवस्था थी, जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उस समय नगरों में नगर पालिका सृदश कोई संस्था रही होगी जो नगरों की समुचित व्यवस्था करती थी, हण्टर का विचार है कि यहाँ शासन राजत्रात्मक नहीं बल्कि लोकतंत्रात्मक थी, जबकि मैके के अनुसार मोहन जोदड़ों में एक प्रतिनिधि शासक प्रशासन करता था। हीलर का विचार है कि मोहन जोदड़ो का शासन धर्म-गुरूओं और पुरोहितों के हाथ में थी जो जन प्रतिनिधियों के रूप में कार्य करते थें ।

सिन्धु घाटी सभ्यता के अध्ययनोंपरान्त यह अनुमान लगाया जा सकता है कि सुव्यवस्थित नगर व्यवस्था के साथ-साथ ग्राम का भी अपना अस्तित्व रहा होगा जहाँ पंचायत सदृश किसी संस्था के माध्यम से प्रशासन चलाया जाता रहा हो किन्तु साक्ष्यों के अभाव में हम इसे प्रमाणित नहीं कर सकते हैं।

सिन्धु घाटी सभ्यता के बाद हम प्राचीन भारत के ऋग्वैदिक कालीन प्रशासन में पंचायतों का निरीक्षण करेगें। ऋग्वैदिक कालीन राजनीतिक व्यवस्था की सबसे छोटी इकाई 'कुटुम्ब' थी। परिवार की सबसे अधिक आयु वाला पुरूष 'कुटुम्ब' का प्रधान होता था । कुटुम्ब के सभी सदस्यों द्वारा प्रधान की आज्ञा मानना परम आवश्यक था। अनेक कुटुम्बों का समूह ग्राम होता था, जिसका एक अधिकार होता था जिसे 'ग्रामणी' कहा जाता था, जो गाँव का प्रशासन संचालित करता था। इस प्रकार ऋग्वैदिक कालीन प्रशासन में गाँव प्रशासन की आधारभूत इकाई थी जिसमें ग्रामणी का पद अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता था क्योंकि वह ग्राम का एक मात्र प्रशासनिक अधिकारी होता था । अनेक ग्रामों के समूह को 'विश' कहते थें, जिसका प्रशासक 'विशपति' कहलाता था जो प्रशासन में नीचे से दूसरी महत्वपूर्ण इकाई थी। अनेक 'विश' मिलकर 'जन' की रचना करते थे। जन के प्रधान अधिकारी को 'गोप' कहा जाता था । गोप प्रायः राजा ही हुआ करते थे । गोप तत्कालीन प्रशासनिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण पद था। इस प्रकार देखा जाय तो ऋग्वैदिक कालीन प्रशासनिक व्यवस्था में शासन के तीन स्तर थे, ग्राम, विश और जन जिसमें गाँव प्रशासन का संचालन ग्रामीण करता था और न्यायिक कार्य के लिए न्यायाधीश की नियुक्ति की गयी होती थी जिसे 'ग्राम्यवादिन' कहा जाता था । यह व्यवस्था उत्तर वैदिक काल तक चली।

वैदिक काल की तुलना में राजनीतिक व्यवस्था, महाकाव्य काल तक आते-आते अपना स्वरूप बदल चुकी थी । इस काल में छोटे-छोटे राज्यों के स्थान पर विशाल साम्राज्यों की स्थापना हो चुकी थी जिसे सम्राट द्वारा संचालित किया जा रहा था। ये साम्राज्य एक केन्द्रीय सत्ता के अधीन थे। बड़ साम्राज्यों को शासन की सुविधा के लिए विभिन्न प्रशासनिक इकाईयों में बॉट दिया गया था जिसमें शासन की मौलिक इकाई के रूप में 'ग्राम' का अस्तित्व अब भी विद्यमान था जिसका प्रशासक ग्रामिक ही होता था। 

उपर्युक्त प्रशासनिक ढाँचा मनु के बताये प्रतिमान के बहुत निकट दिखाई पड़ती है जिसकी समीक्षा करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सभ्यता के विकास के साथ-साथ राजनीतिक व्यवस्था भी विकसित और परिमार्जित होती रही है। महाकाव्य काल तक आते आते यह व्यवस्था आधुनिक लोक कल्याणकारी राज्यों को स्पर्श करने लगी थी । उपर्युक्त तालिका पर दृष्टिपात करने से पता चलता है कि महाकाव्य कालीन प्रशासन में 'विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति विकसित हो रही थी जिसमें शासन की सबसे छोटी मौलिक इकाई ग्राम

ही बने रहें । गुप्तकालीन ग्राम प्रशासन में अनेक नये आयाम जुड़ गये। मौर्य काल में 'गोप' नामक राज्यकर्मी गॉव की व्यवस्था की देखरेख बड़ी सजगता से करता था अब राज्य की ओर से ऐसा कुछ नहीं किया जाता था । गुप्त अभिलेखों से यह भी स्पष्ट होता है कि गाँव या बीर्थ कहे जाने वाले कस्बों के प्रशासन में स्थानीय लोगों का भी हाथ रहता था। उनकी अनुमति के बिना जमीन का कोई सौदा नहीं किया जा सकता था। इस प्रकार मौर्य काल में जहाँ गाँव की व्यवस्था पर उपर से किया जाता था वहां गुप्त काल में नीचे से की जाती थी । यदि मौर्य काल की तुलना गुप्त काल के प्रशासन से की जाय तो स्पष्ट हो जाता है कि गुप्त काल के प्रशासन में गॉव और स्थानीय संस्थाएं अधिक स्वशासी है। गुप्त काल के गाँव में तो सम्प्रतीक आधुनिक गॉवों की झलक दिखाइ देती है जो पंचायती राज व्यवस्था की पृष्ठिभूमि कही जा सकती है।

ग्रामसभा का विकास गॉव के निवासियों की एक नियत स्थान पर एकत्रित होकर सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक तथा अन्य विविध समसामयिक विषयों पर बातचीत और उस वार्तालाप में उठे वाद-विवाद, हॅसी-मजाक, गप्प और मनोरंजन करने की प्रथा से हुआ। इन नियमित चर्चाओं के फलस्वरूप कुछ नियम और विधान शनैः-शनैः बने और आपसी बैठक ने संस्था का रूप ग्रहण कर लिया जो चौपाल कही गयी। जिसमें गाँव के सम्मानित वृद्धजन और विशिष्ट व्यक्ति रहते थे जिनमें ग्रामवासियों की आस्था और विश्वास निहित होती थी तथा ये उनके निर्णय को सर माथे पर रखते थे। यही चौपाल संभवतः आगे चलकर पंचायत के रूप में विकसित हुई तथा इन पंचायतों की कार्यकारिणी के लिए 'पंच' चुने जाने की परंपरा का विकास हुआ जिनका निर्णय परमेश्वर के निर्णय की भाँति सिरोधार्य था। इन पंचों के निर्णय सामान्यतः न्याय के व्यावहारिक सिद्धांतों पर आधारित होते थे। अतः 'पंच परमेश्वर की अवधारणा का उदय हुआ। प्राचीन काल में ग्रामसभा का अधिवेशन (बैठक) कभी सभागार में, कभी देवालय के मण्डल में, कभी इमली - बरगद की छाया में होता था जिसमें ग्रामवासी सब सद्गृहस्थों को सम्मिलित होने का अधिकार था।

प्राचीन कालीन पंचायतों के कार्य 

प्राचीन कालीन प्रशासन में ग्राम प्रबंध का पूरा दायित्व ग्रामसभा या ग्राम पंचायत पर ही था जो ग्राम के रक्षक के रूप में कार्य करती थी। मुखिया का प्रमुख कर्त्तव्य ग्राम की रक्षा करना था जिसका निर्वहन वह ग्रामवासियों की सहायता से करता था। वह ग्राम के स्वंय सेवक दल का नायक / सेनापति था। आलोच्य काल में आवागमन के साधनों के अभाव के कारण लुटेरों के अचानक आक्रमण के समय राज्य से तत्काल सहायता मिलने का कोई प्रश्न ही नहीं था। ऐसी स्थिति में ग्रामवासियों को अपनी सुरक्षा स्वंय करनी पड़ती थी ।

कौटिल्य और बृहस्पति के अनुसार खतरों से सुरक्षा करना ग्राम संगठन का प्रमुख उद्देश्य था। ग्राम के रक्षा में 'ग्रामणी' और रक्षक दल के सदस्यों को कभी-कभी प्राण तक देने पड़ते थें। जिसके बहुत से उदाहारण मिलते है।

ग्राम पंचायत का सबसे महत्वपूर्ण कार्य ग्रामवासियों के आपसी विवाद और झगड़ों को निपटाना था। पहले तो घर और बिरादरी के बड़े-बूढे ही झगड़ा निपटाने का प्रयास करते थें, पर उनके सफल न होने पर मामला पंचायत में जाता था। गंभीर अपराध पंचायतों की अधिकार सीमा के बाहर थे। संयोगवश किसी के द्वारा किसी की मृत्यु हो जाने की घटनाओं से सम्बन्धित मामलों में चोल काल में बहुधा पंचायत ही निर्णय करती थी ऐसा प्रमाण मिलता है। न्याय के क्षेत्र में जो निर्णय ग्राम पंचायत द्वारा दिया जाता था उसमें केन्द्रीय शासन सामान्यतः हस्तक्षेप नही करता था।

ग्रामसभा द्वारा ग्राम का उत्पादन बढ़ाने के लिए जंगली एवं ऊसर प्रदेशों को कृषि योग्य बनाया जाता था जिससे आर्थिक क्षेत्र में गाँव आत्म निर्भर बन सके। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि ग्राम पंचायतें ग्राम की रक्षा का प्रबंध करती थी, राज्य कर एकत्र करती थी और अपने 'कर' भी लगाती थी, गॉव वासियों के आपसी झगड़ों तथा विवादों का फैसला भी करती, सार्वजनिक हित की योजनाएं हाथ में लेती थीं, साहूकार या विश्वस्त का कार्य करती थी, सार्वजनिक ऋण आदि से लेकर अकाल एवं अन्य संकटों के निवारण का उपाय करती थी, पाठशालाएँ, शिक्षालय, अनाथालय, आदि खोलती थीं। इसके अतिरिक्त देवालयों द्वारा विविध सांस्कृतिक तथा धार्मिक कार्यो की व्यवस्था करती थी, इसमें कोई संदेह नहीं कि आधुनिक काल में 'हिन्दूस्तान' या 'योरप' 'अमेरिका' में ग्राम संस्थाओं को जितने अधिकार प्राप्त है उनसे कहीं अधिक इन प्राचीन कालीन ग्राम संस्थाओं को प्राप्त थें और इनकी रक्षा करने में वे सदैव सावधान रहती थी। ग्रामवासियों के अभ्युदय और उनकी सर्वागीणः भौतिक, नैतिक और धार्मिक उन्नति के साधन में इनकी भूमिका प्रशंसनीय और महत्वपूर्ण है।

ब्रिटिश काल के प्रशासन में पंचायतों की स्थिति

भारत में पंचायतों की ऐतिहासिक सिंहावलोकन करने के उपरान्त यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन एवं मध्य काल में स्थानीय स्वशासन का अस्तित्व था। ब्रिटिश शासकों द्वारा भारत में पूर्व से चली आ रही स्थानीय स्वशासन पद्धति को नष्ट कर दिया गया था और उसके स्थान पर अपने प्रदेश में प्रचलित स्थानीय स्वशासन पद्धति के समान स्थानीय स्वशासन व्यवस्था लागू की गई थी। फलतः भारत वर्ष में प्राचीन काल से चली आ रही पंचायतों की मौलिकता लुप्त हो गयी। ग्राम पंचायतों का महत्व कम हो गया, ग्रामीणों के अधिकार छीन गये, ग्राम असंगठित हो गये तथा उनका स्थान निर्वाचित स्थानीय स्वशासन प्रणाली ने ले लिया ।

भारत में ब्रिटिश शासन आने के बाद धीरे-धीरे पंचायतों की परंपरा धूमिल पड़ने लगी । अंग्रेजो ने अपना प्रभुत्व स्थापित करने के बाद से ही भारत के गाँवों का पतन करना प्रारम्भ कर दिया। उन्होनें ब्रिटिश शासन की स्थापना के साथ ही साथ स्थानीय स्वशासन को पूर्णतः नष्ट-भ्रष्ट करके गॉवों की आत्मनिर्भरता को समाप्त कर दिया। गाँवों के कुटीर तथा लघु उद्योगों के बंद हो जाने से आर्थिक स्थिति चरमरा गयी और सम्पूर्ण भारत अंग्रेजों के माल के खपत का एक बड़ा बाजार बन गया जिससे देश आर्थिक रूप से दरिद्र होता गया।

पंचायतों के संदर्भ में अंग्रेजों की यह मान्यता थी कि ये दीर्घ सूत्री अलाभकारी और विधि से परे है। ब्रिटिश काल में केन्द्रीय शासन की संस्थाओं द्वारा ग्राम्य- प्रशासन, दीवानी और फौजदारी के न्यायालयों की स्थापना और उनके अधिकार क्षेत्र में वृद्धि, शिक्षा में प्रगति, नये कानूनों और राजस्व व्यवस्था, पुलिस के संगठन, योग्य व्यक्तियों का गांवों से नगरों की ओर पलायन, संचार और यातायात के साधनों में वृद्धि, व्यक्तित्वाद की भावना का उदय आदि कारणों से पंचायतों की परंपरा तेजी से टूटने- विखरने लगी ।

ग्राम शासन 19वीं शताब्दी तक सुरक्षित रही लेकिन अंग्रेजी शासन के विस्तार के साथ वह नष्ट हो गया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अपने शासन काल में ग्रामीण संस्थाओं को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया लेकिन वह प्रयास सफल न रहा। अंग्रेजी शासन काल में स्वायत्त शासन संस्थाओं का नये सिरे से नया ढांचा तैयार हुआ। अंग्रेजो ने पाश्चात्य ढंग पर स्थानीय शासन का गठन किया। यही व्यवस्था आज भी स्वशासन का आधार है। मद्रास नगर निगम पहली स्थानीय संस्था थी जिसकी स्थापना सन् 1687ई0 में हुई थी । इस प्रकार के स्थानीय संस्थाओं का निर्माण प्रेसीडेन्सी शहरों में सन् 172650 में किया गया जिनका मुख्य कार्य शहर में सफाई तथा स्वास्थ्य की देख-रेख करना था । वस्तुतः इन संस्थाओं की स्थापना का उद्देश्य प्रशासनिक, न कि स्थानीय संस्थाओं का विकास था । 10

अंग्रेजों ने कालान्तर में पंचायतों के महत्व को अनुभव किया और उन्होने किसी न किसी रूप में उनके उद्धार का प्रयास किया। लार्ड मेयों के शासन काल के अन्तर्गत सन् 1870 में इस दिशा में प्रयास किया गया। लेकिन स्थानीय शासन का विकास स्पष्ट और संगठित रूप से लार्ड रिपन के शासन काल में हुआ जो कि एक उदारवादी शासक था। उसने स्थानीय शासन के निम्नलिखित उद्देश्यों पर जोर दिया, "स्वायत्त शासन का उद्देश्य राजनीतिक तथा सार्वजनिक शिक्षा की प्रगति और विस्तार है। इसका दूसरा उद्देश्य बुद्धिमान लोगों के अपने स्थानीय शासन के प्रबंध में भाग लेने के लिये प्रोत्साहित करना है।" इसी उद्देश्य से उसने स्वायत्त शासन की स्थापना की। रिपन के प्रस्ताव में यह स्पष्ट कर दिया गया था कि स्वायत्त शासन की स्थापना का उद्देश्य मूलतः शासन में सुधार लाना नहीं बल्कि नागरिकों को राजनीतिक शिक्षा देना है जिससे भारत में स्वशासन की नींव रखी जा सके। इसी उद्देश्य से उसने घोषणा किया कि स्थानीय स्वशासन के प्रश्न को और अधिक नहीं भूलना चाहिए तथा कुछ प्रशासनिक कार्यो को प्रान्तीय सरकार के नियंत्रण से हटाकर स्थानीय संस्थाओं के नियंत्रण में किया जाना चाहिए और उन स्थानीय संस्थाओं की निर्वाचन पद्धति पर भी विचार किया जाना चाहिए। उसकी इस योजना के अनुसार विभिन्न प्रान्तों में स्थानीय शासन की संस्थाओं से सम्बन्धित कानून पास किये गये तथा नगरों की नगर पालिकाओं में वृद्धि की गयी और उनके सदस्य जनता द्वारा चुने जाने लगे । जिले और तहसीलों में बोर्ड स्थापित किये जाने लगे। सरकारी नियंत्रण के सम्बन्ध में यह निश्चित किया गया कि आन्तरिक नियंत्रण की अपेक्षा बाह्य नियंत्रण होना चाहिए। रिपन द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव में कुछ विशेष सिद्धांतों को स्पष्ट किया गया। ये सिद्धांत ही स्वायत्त शासन संस्थाओं के भावी विकास के आधार बने है।

भारत शासन अधिनियम, 1909 और भारतीय शासन अधिनियम, 1919 में पंचायतों की स्थापना पर विशेष बल दिया गया, जिसके आधार पर सन् 1920 में उत्तर प्रदेश में 'यू०पी० विलेज पंचायत एक्ट पास किया गया, फिर भी पंचायतों की स्थापना की गति इतनी धीमी थी कि उससे प्रदेश के ग्राम वासियों को कोई ठोस लाभ नहीं मिल सका ।

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