अनुसूचित जाति का इतिहास

भारतीय सामाजिक व्यवस्था में निचली ईकाई के रूप में मान्यता प्राप्त अस्पृश्य समझी जाने वाली अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के साथ सदियों से घोर अन्याय शोषण अपमान तथा गैर सामाजिक बराबरी का बर्ताव किया जा रहा है जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि यह वर्ग राष्ट्रीय धारा से लगभग कट-सा गया था। मानसिक गुलामी से त्रस्त सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं धार्मिक अधिकारों से वंचित सामाजिक जुल्म से घायल और अपमान से पीड़ित यह वर्ग अपने ही देश एवं समाज में बेगाना-सा हो गया था, उन्हें अट्ठारहवीं शताब्दी तक अस्पृश्य, अदृश्य, अवर्ग, अन्त्यज, अतिशूद्र, नामशूद्र, पम्चम् तथा पैरिहास आदि अपमानजनक शब्दों से सम्बोधित किया गया। अंग्रेजी शासन काल में १६०१ की जनगणना में शूद्र जातियों को हिन्दुओं से अलग वर्गीकृत एवं सर्वव्यापक लक्षणों को आधार बनाकर वर्गीकृत करते हुए दर्शाया गया, इसके बाद १६११ में सामाजिक एवं धार्मिक रूप से उपेक्षित जातियों को खोजने के लिए एक समिति बनायी गयी। १६२१ की जनगणना में अंग्रेजी अधिकारियों ने इन जातियों के लिए 'डिप्रेस्ड क्लॉसेज' शब्द का प्रयोग किया गया, परन्तु उन्होंने इस शब्द का प्रयोग करने में निहित परिभाषा का उल्लेख नहीं किया।' इसके बाद साइमन कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में 'शेड्यूल्ड कास्ट' शब्द का प्रयोग किया जिसे १६८१ की जनगणना में पूर्णतः परिभाषित एवं संशोधित रूप में प्रयोग किया गया था। आर्डर इन कौंसिल के अनुसार ४३६ जातियाँ ऐसी थीं जो शूद्रों की श्रेणी में थी । १६३५ के 'भारत सरकार अधिनियम' में यह शब्द पाँचवीं अनुसूची की धारा ६ में अधिकारिक रूप से इस्तेमाल किया गया, कुछ सीमा तक यहाँ से ये शब्द संवैधानिक जामा से अलंकृत हो गया क्योंकि जब भारतीय संविधान बना तो उसमें भी इस शब्दावली की धारा २४१ ( २ ) एवं ३६६ (२४) द्वारा वैधानिकता प्रदान की गयी। शेड्यूल्ड कास्ट का हिन्दी रूपान्तरण अनुसूचित जाति है 

अनुसूचित जाति का इतिहास

सतपथ ब्राह्मण में छ: वर्णन मिलते हैं। इनमें से दो की उत्पत्ति के विषय में है- एक पत्र (IV4.2.23) में शूद्र वर्ण का उल्लेख एक बार अवश्य आया है किन्तु इसकी उत्पत्ति की व्याख्या का विवरण नहीं दिया गया है। तैत्तिरेय ब्राह्मण ( 1.26.7 ) में बताया गया है कि ब्राह्मण देवताओं से और शूद्र असुरों से पैदा हुए हैं: “तैत्तिरेय ब्राह्मण के मंत्र ( 111.2.3.9 ) के अनुसार शूद्र शून्य से उत्पन्न हुआ है।

उपरोक्त उदाहरणों में चातुर्वर्ण्य एवं शूद्र वर्ण की उत्पत्ति के सम्बन्ध में ब्राह्मणी दन्त कथाओं या परिकल्पनाओं का संकलन है। प्राचीन काल के ब्राह्मण इस तथ्य से पूर्णत: भिज्ञ थे कि चातुर्वणीय व्यवस्था अस्वाभाविक और असमान्य तो है ही, उसमें शूद्रों को दिया गया स्थान तो और भी अप्राकृतिक और कृत्रिम है। इस कुटिल व्यवस्था को तर्कसम्मत सिद्ध करने के लिए ही समुचित अलौकिक परिकल्पनामय व्याख्याओं की आवश्यकता पड़ी, अन्यथा चातुर्वर्ण्य और शूद्रों की उत्पत्ति के विषय में इतने अधिक व्याख्या आख्यानों का वर्णन मिलना असम्भव ही होता, सभी व्याख्याओं में भिन्नता है । ' चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति कोई पुरूष से बतलाता है तो कोई व्रात्य को । इतना ही नहीं, एक ही स्त्रोत के अन्तर्गत दी गयी व्याख्याएं भिन्न तथा सूक्त यजुर्वेद की दो व्याख्याएं एक तो उत्पत्ति का स्त्रोत पुरूष को मानती है, दूसरी प्रजापति को । कृष्ण यजुर्वेद में तीन वर्ण हैं जिसमें दो के द्वारा प्रजापति को सृष्टा कहा गया है। अथर्ववेद में चार आख्यान हैं- एक में पुरूष को, दूसरे में ब्राह्मण को, तीसरे में व्रात्य को उत्पत्ति का माध्यम कहा गया है। चौथी व्याख्या तो इन तीनों से ही भिन्न है। इसका मत समान होने पर भी विवरण भिन्न है । ब्राह्मण और प्रजापति के स्वरूप के माध्यम से दी गयी व्याख्याएं काल्पनिक हैं ।

मनु या कश्यप के माध्यम स्वरूप में की गयी व्याख्याएं अमानवीय हैं। इनमें की गयी परिकल्पनाएं उपद्रवजनक तो हैं, साथ ही इसका न तो कोई ऐतिहासिक महत्व है और न ही कोई अर्थ है ।

नैसर्गिक रूप में सभी व्यक्ति एक समान रूप से जन्म लेते हैं। संस्कृत में कहा गया है - "जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विजो भवति” अर्थात् जन्म से सभी शूद्र होते हैं किन्तु संस्कार उन्हें द्विज बनाता है। भारतीय समाज विभिन्न उच्च एवं निम्न सामाजिक खण्डों में विभाजित है। यह विभाजन हिन्दू समाज में सदियों से चला आ रहा है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था में सदियों से शोषित, तिरस्कृत, निष्कासित, वंचित, अपमानित एवं पददलित लोगों को वर्तमान समय में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के नाम से जाना जाता है। पहले इनको दलित न कहकर अन्त्यज्य, पाश्विक, अस्पृश्य एवं अछूत कहा जाता था। यह वर्ग भारतीय समाज के उस हिस्से से सम्बन्धित है जो जातिग्रस्त भारतीय समाज में सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक रूप से सबसे निचले पायदान पर स्थित रही हैं। उनकी सामाजिक स्थिति अत्यन्त बदतर होने के कारण ही डॉ० अम्बेडकर ने इनका नाम दलित रखा। सरकारी अभिलेख में पहले भी अछूतों को दलित ही कहा जाता था। इसमें अनेक दलित जातियां सम्मिलित हैं। सन् १६३१ के जनगणना के समय आसाम के जनगणना अधीक्षक ने सुझाव रखा कि ये जातियां भारतीय समाज में अत्यन्त बहिष्कृत हैं अतः इनका नाम दलित ही रखा जाय । सन् १६३२ के पूना पैक्ट के बाद गांधी जी ने इन्हे 'हरिजन' कहा। डॉ० अम्बेडकर गांधी जी के 'हरिजन' नामकरण से सहमत नहीं थे। डॉ० अम्बेडकर का विचार था कि अछूत वर्ग इस नामकरण से और कमजोर होगा । दलित वर्ग की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक स्थिति विभिन्न कालों में कभी भी ठीक नहीं रही है।

शूद्रों की उत्पत्ति के पश्चात् शूद्रों की सामाजिक व्याख्या भी ब्राह्मणी सिद्धान्त पर ही आधारित है । ब्राह्मण, विधिवेत्ताओं ने शूद्रों पर असंख्य निषेध थोपकर उन्हें यातनाएं और दण्ड देने के लिए अनेक वीभत्स ढंग निश्चित किये हैं । विभिन्न संहिताओ और ब्राह्मण नामक ग्रन्थों में तो शूद्रों के लिए निर्धारित निषेध और दण्ड हैं जैसे- कथक संहिता (XXXI.2) और मैत्रायगी संहिता (IV. 1. 3. 1. 8. 3 ) - इन ग्रन्थों में कहा गया है कि जिस गाय के दूध का उपभोग अग्निहोत्र में होता है उसे दूहने की आज्ञा शूद्रों को न दी जाय ।

सतपथ ब्राह्मण (III.1.1.10) मैत्रावणी संहिता (VII.1.16) और पंचविश ब्राह्मण (VI.1.11 ) - इन ग्रन्थों में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि यज्ञ करते समय न तो शूद्र से बात करनी चाहिए और न ही उनकी उपस्थिति में यज्ञ करना चाहिए। सतपथ ब्राह्मण (XI.V.1.31 ) और कथक संहिता (XI.110) में प्रावधान है कि शूद्र को सोमपान में शामिल नहीं किया जाना चाहिए ।'

मनुस्मृति के अनुसार- ब्राह्मण न तो शूद्र की राजधानी में रहे और न ऐसे स्थान पर रहे जहां दुष्ट लोग रहते हैं। वह नीच और निम्न जातीय लोगों के नगर में भी निवास न करे । ब्राह्मण शूद्र के साथ श्राद्ध और भोजन पर आमंत्रित न किया जाये, क्योंकि इससे श्राद्ध कर्म द्वारा उपार्जित पुण्य का क्षय होता है । शूद्र का शव नगर के दक्षिणी द्वार स े ले जाया जाय। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के शव क्रमशः पश्चिमी, उत्तरी और पूर्वी द्वार से ले जाने चाहिए।

विष्णु स्मृति के अनुसार - "धार्मिक अनुष्ठान या देव यज्ञ में शूद्र को बुलाने या सम्मान करने का दण्ड एक सौ पग है ।

गौतम धर्म के अनुसार - "क्षत्रीय द्वारा ब्राह्मण को गाली देना दण्ड देना एक सौ काषार्पण है। यदि आक्रमण करे ( मारपीट करे ) तो दण्ड दूना अर्थात् दो सौ काषार्पण होगा। यदि वैश्य ब्राह्मण को गाली दे तो उसे क्षत्रीय से डेढ़ गुना दण्ड देना पड़ेगा । किन्तु ब्राह्मण क्षत्रिय को गाली दे तो पचास काषार्पण और वैश्य को गाली दे तो पच्चीस काषार्पण दण्ड देगा । शूद्रों का गाली देने पर कोई दण्ड नहीं है।'

अथर्ववेद के अनुसार - "आर्यों के देवता इन्द्र को दासों के विजेता के रूप में चित्रित किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि ये दास मनुष्य ही रहे होगें। वेदों में कहा गया है कि इन्द्र ने अधम दास वर्ण को गुफाओं में रहने को बाध्य कर दिया था ।

आर्यों और अनार्यों के पराजित और बेदखल कर दिये गये वर्ण को शूद्र बना दिया और विजेता से अपनी सामूहिक सम्पत्ति मानने लगे। चूंकि अधिकांश शूद्र मूलतः आर्य समुदाय के ही अंग थे इसलिए परवर्ती वैदिक समाज में भी उनके अनेक जनजातीय अधिकार खासकर धार्मिक अधिकार बने रहे। किन्तु जब प्राक्मौर्य काल में वर्णाश्रित समाज पूर्णतया स्थापित हो गया तक उन्हें इन अधिकारों से वंचित कर दिया गया और तमाम राजनीतिक एवं कानूनी और सामाजिक तथा धार्मिक अशक्तताएं उन पर लाद दी गयीं । शूद्र को दास समझा जाने लगा, हालांकि कानूनन शूद्रों का केवल एक वर्ग ही दास बना रहा होगा ।' शूद्र को दास का पर्याय मानना गलत है। इसी प्रकार शूद्र को कृषि दास कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि कृषि दास वह है जो भूमि के साथ बंधा रहकर सेवा करता हो । मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि बहुत दिनों तक शूद्र शब्द का प्रयोग उन बहुविध मजदूर वर्गों के लिए सामूहिक रूप में किया जाता रहा जो तीन उच्च वर्गों की ताबेदारी करते हैं ।

शूद्र की चाकरी कई प्रकार की थी। वे घरेलू नौकरों और दासों, कृषि दासों, भाड़े के मजदूरों और शिल्पी के रूप में काम करते थे ।

बाहूमण विधिवेत्ताओं ने शूद्रों के लिए अनेक ऐसे कानून बनाये हैं जिनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है:

शूद्रों को समाज व्यवस्था में चौथा और अन्तिम स्थान है।

• शूद्र अपात्र है, उनकी उपस्थिति में उसके सुनने तक की सीमा में कोई भी धार्मिक अनुष्ठान या कृत्य नहीं किया जा सकता।

• शूद्र तीन वर्णों - ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की भांति सम्मानित नहीं है ।

• शूद्र के जीवन का कोई मूल्य नहीं है, कोई भी उसकी हत्या कर सकता है। उसके हत्या का कोई दण्ड या प्रायश्चित नहीं है। यदि दण्ड भरना ही पड़े तो वह नगण्य है ।

• शूद्र ज्ञान अर्जित नहीं कर सकता, उसको शिक्षा देना पाप और अन्याय है।

• शूद्र को सम्पत्ति संचय का अधिकार नहीं है और यदि वह ऐसा करता है तो ब्राह्मण को उसकी सम्पत्ति हरण करने का पूरा है ।

• शूद्र का कर्तव्य और मुक्ति उच्च जातियों की सेवा में है ।

• शूद्र किसी राज प्रतिष्ठा के पद को प्राप्त नहीं कर सकता ।

शूद्र का जन्म दासता के लिए होता है अतः उसे आजीवन दास बनाये रखा जा सकता है।

उपरोक्त कानूनों को देखकर लगता है कि शूद्रों की स्थिति बद से बदतर थी उन्हें समाज में चौथे वर्ण से भी निम्न स्तर प्राप्त था । वह चाहकर भी स्थिर स्थान नहीं प्राप्त कर सकता था क्योंकि उसकी स्थिति ऐसे ग्रन्थों में लिपिबद्ध हो गयी थी जिन्हें कभी चाहकर भी मिटाया नहीं जा सकता था।

आदि काल में जो शूद्र कहलाते थे वे धीरे-धीरे उन्नीसवीं शताब्दी तक दलित के नाम से जाने जाने लगे। दलित से पहले उसे अछूत, अस्पृश्य और शोषित कहा जाता था । 'दलित' शब्द अंग्रेजी शब्द Depressed का रूपान्तर माना जाता है । उन्नीसवी शताब्दी के उत्तरकालीन ब्रिटिश दस्तावेजों में अछूतों के लिए Depressed Classes शब्दावली का प्रयोग व्यापक पैमाने पर होता था । स्पष्ट है कि Depressed का अर्थ मात्र शोषित या उत्पीड़ित ही नहीं था। शोषित, उत्पीड़ित, दलित आदि शब्दों के लिए "Oppressed, Exploited, Depressed ” जैसी शब्दावली उपलब्ध थी । अतः Depressed शब्द उस परिस्थिति को परिभाषित करता है जहां शोषण, उत्पीड़न और दमन असामान्य रूप से शुद्धता और अशुद्धता की मूल्य पद्धति से अविभाज्य रूप से जुड़ा है। अर्थ यह है कि Depressed class का सदस्य न केवल आर्थिक रूप से कमजोर है बल्कि वह समाज की मुख्य धारा से बहिष्कृत भी है ।'

मराठी साहित्य में अछूत लेखकों ने प्रमुखता से इस शब्दावली का उपयोग करना शुरू किया। अछूत लेखकों ने जब अपने लिए इस शब्दावली को चुना तो इसमें निहित था उसका स्वार्थ । अन्य लेखकों द्वारा लादे गये विशेषणों जैसे- अछूत, अस्पृश्य और हरिजन आदि का निषेध | महाराष्ट्र में उपजे “दलित पैंथर आन्दोलन” जो अमेरिका के "ब्लैक पैंथर मूवमेण्ट " से प्रेरित था दलित विशेषण को दलित समाज के विद्रोही देवर को निरूपित करने हेतु शुरू कर दिया । दलित लेखक सामाजिक कार्यकर्ता तथा राजनीतिज्ञ आदि “दलित” शब्द के दायरे में आदिवासी समाज को भी समेट लिया तथा आदिवासी समाज को 'दलित' शब्द के दायरे में लाकर इसके अर्थ को और अधिक तार्किक और व्यापक बना दिया । 'दलित' शब्द अछूत समाज की तमाम उपश्रेणियों को एक समान पहचान प्रदान करता है।

संवैधानिक सुरक्षा तथा संरक्षणात्मक उपाय

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारतीय संविधान में अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों को संरक्षण प्रदान करने, उनके प्रति किये जा रहे अन्याय एवं शोषण को समाप्त करने तथा उनकी सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक प्रस्थिति में सुधार करने के लिए अनेक धाराएं समाहित की गयी हैं। हमारे संविधान निर्माताओं ने यह अनुभव किया कि सामाजिक- आर्थिक व्यवस्था में व्याप्त न्याय विरोधी तत्वों और राजनीतिक संगठनों ने समाज में असन्तुलन पैदा किया और कतिपय लोगों, विशेषकर अनुसूचित जाति के लोगों को प्रतिकूल स्थिति में रख दिया। भारत के संविधान द्वारा सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय और प्रतिष्ठा तथा अवसर की समानता दी गयी है। राज्य के नीति निदेशक सिद्धान्तों के अन्तर्गत अनुच्छेद ४६ में यह व्यवस्था की गयी है कि "राज्य, जनता के दुर्बल वर्गों के, विशेष रूप में, अनुसूचित जातियों के शिक्षा और अर्थ सम्बन्धी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा और सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से उनकी रक्षा करेगा।" इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए संविधान में उपेक्षित, कमजोर व असुरक्षित वर्गों का सम्पूर्ण विकास सुनिश्चित करने हेतु सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक,  सांस्कृतिक, राजनीतिक और सेवा सम्बन्धी संरक्षणों तथा संरक्षणात्मक उपायों की व्यवस्था की गयी है ताकि उन्हें राष्ट्र की मुख्य धारा में समाज के अन्य वर्गों के बराबर लाया जा सके।

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