लघु एवं कुटीर उद्योगों का अर्थव्यवस्था में महत्व

सामान्यतः उद्योग तीन प्रकार के होते हैं -लघु, मध्यम और वृहत । परन्तु कुटीर एवं सूक्ष्म उद्योगों को भी समय-समय पर सरकार द्वारा परिभाषित किया जाता है जिनको शामिल करके उद्योग पाँच प्रकार के हो जाते हैं-

कुटीर उद्योग - प्रायः मोटे तौर पर लघु एवं कुटीर उद्योगों को एक ही समझा जाता है जबकि इन दोनों में आधारभूत अन्तर है। कुटीर उद्योग किसी एक परिवार के सदस्यों द्वारा पूर्ण या अंशकालिक तौर पर चलाया जाता है, इसमें पूँजी निवेश नाममात्र का होता है। उत्पादन भी प्रायः हाथ द्वारा किया जाता है जबकि परम्परागत ढंग से चलने वाली उत्पादन प्रक्रिया में वेतनभोगी श्रमिक होते । लघु उद्योगों में आधुनिक ढंग से उत्पादन कार्य होता है। सवेतन श्रमिकों की प्रधानता रहती है तथा पूंजी निवेश भी होता है । कतिपय कुटीर उद्योग ऐसे भी हैं जो उत्कृष्ट कलात्मकता के कारण निर्यात भी करते हैं और विश्वविख्यात हो जाते हैं।

सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग - उद्योगों में अन्तर स्पष्ट करने के लिए विभिन्न मापदण्डों का प्रयोग किया जाता रहा है जिसमें विनियोजित पूंजी, नियोजित श्रमिकों की संख्या एवं कल व यंत्रों में शक्ति के प्रयोग के आधार पर इनका वर्गीकरण किया जाता रहा है। सरकार द्वारा सन् 1967 से श्रमिकों की संख्या एवं शक्ति प्रयोग के मापदण्ड को हटा लिया गया है तथा केवल कल व यंत्रों (प्लांट एवं मशीनों) में किये गये पूंजी विनियोग को अन्तर का आधार माना है जो निम्नलिखित है-

(क) निर्माण उद्योग

1. एक सूक्ष्म उद्योग, जहाँ प्लांट एवं मशीनरी में निवेश 25 लाख रूपये से अधिक नहीं होता है।

2. एक लघु उद्योग, जहाँ प्लांट एवं मशीनरी में निवेश 25 लाख रूपये से से अधिक लेकिन 5 करोड़ रूपये से कम होता हो, एवं

3. एक मध्यम उद्योग, जहाँ प्लांट एवं मशीनरी में निवेश 5 करोड़ रूप से अधिक लेकिन 10 करोड़ रूप से कम होता है।

(ख) सेवा उद्योग

1. एक सूक्ष्म उद्योग जहाँ उपकरणों में निवेश 10 लाख रूपये से आगे नहीं बढ़ता है।

2. एक लघु उद्योग जहाँ उपकरणों में निवेश 10 लाख रूपये से अधिक, लेकिन 2 करोड़ रूपये से अधिक नहीं है ।

3. एक मध्यम उद्योग जहाँ उपकरणों में निवेश 2 करोड़ रूपये से अधिक लेकिन 5 करोड़ रूपये से कम हो । मध्यम उद्योग होता है ।

वृहत उद्योग-उपरोक्त मध्यम उद्योगों की अधिकतम राशि से ज्यादा विनियोग वाले उद्योग वृहत उद्योग की श्रेणी में आते हैं अथवा जो उद्योग बड़ी-बड़ी मशीनों से चलाये जाते हैं एवं जिनमें मध्यम उद्योगों की अपेक्षा कई गुना अधिक उत्पादन कार्य किया जाता है। वे वृहद उद्योग की श्रेणी में आते हैं।

लघु उद्योगों का स्वरूप एवं संगठन

संगठन की दृष्टि से लघु उद्योगों एवं बड़े उद्योगों में विशेष अन्तर नहीं किया जा सकता। यदि कोई अन्तर है भी तो केवल स्तर का है जैसा कि इनके नाम से ही जाना जाता है। लघु उद्योग व्यवसायिक संगठन का कोई भी स्वरूप अपना सकते हैं। जिसमें एकाकी स्वामित्व, साझेदारी फर्म अथवा सहकारी समितियों के रूप में हो सकते हैं तथा प्राइवेट लिमिटेड कम्पनियों के रूप में एवं पब्लिक लिमिटेड कम्पनियों की भाँति भी इनका संगठन किया जा सकता है।

लघु एवं कुटीर उद्योगों का अर्थव्यवस्था में महत्व

भारत में प्राचीन काल से ही लघु एवं कुटीर उद्योगों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है किन्तु ब्रिटिश उपनिवेशवाद के दौरान यहाँ का परम्परागत हस्तशिल्प उद्योग पूरी तरह नष्ट हो गया। इसके बाद भारतीय अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ती गई। स्वतंत्रता के बाद लघु और कुटीर उद्योगों को विशेष महत्व दिया गया है क्योंकि ये उद्योग भारतीय अर्थव्यवस्था की विभिन्न समस्याओं को हल करने तथा उसके भावी विकास का आधार बन सकते हैं। महात्मा गाँधी ने लघु एवं कुटीर उद्योगों के महत्व को ध्यान में रखकर ही कहा था कि "भारत का मोक्ष लघु और कुटीर उद्योगों में निहित है।"

वर्तमान में लघु उद्योग क्षेत्र को तकनीकी अर्थ में सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योगों के रूप में जाना जाता है। यह अनुमान किया जाता है कि मूल्य के अर्थ में, यह क्षेत्र निर्माण की दृष्टि से 39 प्रतिशत एवं देश के कुल निर्यात के 33 प्रतिशत हिस्से के लिए जिम्मेदार है। हाल के वर्षों में यह क्षेत्र सम्पूर्ण औद्योगिक क्षेत्र की तुलना में उच्च विकास दर दर्ज करा रहा है। क्षेत्र का वृहद् लाभ यह है कि इसकी रोजगार क्षमता न्यूनतम पूँजी लागत पर है। वर्तमान में यह क्षेत्र 12.86 मिलियन माइक्रो और लघु उपक्रमों के जरिये अनुमानतः 31.4 मिलियन व्यक्तियों को रोजगार देता है और इस क्षेत्र में मजदूरों की तीव्रता वृहद् उद्योगों की तुलना में 4 गुना ज्यादा अनुमानित की गयी है। कुल मिलाकर लघु एवं कुटीर उद्योग भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं- योजना आयोग के अनुसार लघु उद्योग हमारी अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण अंग है जिनकी कभी भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है।

→ औद्योगिक नीति 1956 के अनुसार "लघु उद्योग बड़े पैमाने पर तत्काल रोजगार प्रदान करते हैं। राष्ट्रीय आय के अपेक्षाकृत अधिक न्यायपूर्ण वितरण का आश्वासन देते हैं और पूँजी तथा कुशलता के साधनों की प्रमाणिक ढंग से गति देते हैं।

लघु एवं कुटीर उद्योग के अर्थव्यवस्था में महत्व को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत संक्षेप में इस प्रकार समझा जा सकता है-

1. रोजगार में वृद्धि - कृषि के बाद रोजगार और आय प्रदान करने वाला दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र लघु और कुटीर उद्योगों का है। लघु क्षेत्र में अर्द्ध- बेरोजगार व्यक्ति को भी रोजगार के अवसर प्राप्त होते हैं इसमें मौसमी बेरोजगार किसान को भी रोजगार प्राप्त होता है। ये उद्योग कम पूँजी में अधिक व्यक्तियों को रोजगार देने में समर्थ होते हैं। इस क्षेत्र में रोजगार सृजन की अपार संभावनाएँ भी होती हैं।

राष्ट्रीय आय के समान वितरण में सहायक- लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास से राष्ट्रीय आय का अधिक बेहतर और न्यायोचित वितरण हो सकता है क्योंकि बड़े उद्योगों का विकास आय के वितरण में असमानता को बढ़ाता है, देश की राष्ट्रीय आय का बड़ भाग मुट्ठीभर पूँजीपतियों की जेबों में चला जाता है। इनके विपरीत लघु उद्योग का स्वामित्व लाखों व्यक्तियों व परिवारों के हाथों में होता है। फलस्वरूप आर्थिक शक्ति का केन्द्रीयकरण नहीं हो पाता तथा आय के समान वितरण में सहायता मिलती
है ।

देश की अर्थव्यवस्था के अनुकूल लघु एवं कुटीर उद्योग स्थानीय आवश्यकताओं, संसाधनों और कौशल के प्रयोग की दृष्टि से अधिक उपयुक्त हैं क्योंकि लघु उद्योग हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था के अनुकूल है। हमारे देश में पूँजी का अभाव है तथा श्रम का बाहुल्य है। अधिकांश लोग कृषि व्यवसाय में संलग्न है, जो वर्ष में कई महीने खाली रहते हैं । अतः वे अपने खाली समय का सदुपयोग लघु उद्योगों में काम करके कर सकते हैं तथा अपनी आय बढ़ा सकते हैं। दूसरे, कम पूँजी विनियोग से अधिक लोगों को रोजगार देने में ये उद्योग महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।

2. निर्यात में सहायक तथा आयात पर कम निर्भरता - लघु एवं कुटीर उद्योग भुगतान शेष के संदर्भ में अनुकूल है क्योंकि निर्यात आय में इनका योगदान अधिक होता है तथा आयात पर कम निर्भर होते हैं जबकि बड़े उद्योगों के लिए मशीनें एवं तकनीकी का आयात विदेशों से किया जाता है परन्तु लघु उद्योगों में न तो मशीने आयात करनी पड़ती है और न तकनीकी, अतः आयात पर लघु एवं कुटीर उद्योगों की निर्भरता कम होती है।

3. देश के संतुलित विकास में सहायक- बड़े पैमाने के उद्योग मुख्यतः शहरी क्षेत्रों में स्थापित किये जाते हैं। अतः देश के कुछ भागों का ही विकास हो पाता है। अन्य क्षेत्रों में पिछड़े रह जाते हैं। अतः पिछड़े हुए भागों के औद्योगिक विकास के लिए लघु उद्योगों का विकास करना आवश्यक है।

इस प्रकार ये उद्योग देश के संतुलित विकास में सहायक होते हैं और देश के चौमुखी विकास के लिए सहायक होते हैं।

न्यून औद्योगिक विवाद व समस्यायें प्रायः लघु एवं कुटीर उद्योग क्षेत्र, बड़े उद्योग क्षेत्र की तुलना में अधिक कार्य कुशल और लाभप्रद है तथा यहाँ औद्योगिक विवाद भी न के बराबर है जबकि बड़े उद्योगों में श्रमिकों की हड़तालें, श्रमिकों की छंटनी, मालिकों द्वारा तालाबंदी की समस्यायें होती हैं।
कम तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता- लघु उद्योगों में पूँजी तो कम लगती ही है, साथ ही साथ तकनीकी ज्ञान की भी कम आवश्यकता होती है। अतः श्रमिकों को विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं पड़ती और उत्पादन कार्य प्रारम्भ हो जाता है।

4. उत्पादन की उत्तम किस्म - लघु उद्योगों द्वारा निर्मित वस्तुएं उत्तम गुणवत्ता तथा कलात्मक होती हैं। इनमें कारीगरों को अपने हुनर व कला का प्रदर्शन करने का अवसर मिलता है तथा इनके द्वारा उपभोक्ताओं को अधिक संतुष्ट किया जा सकता है।

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