अहिंसा किसे कहते हैं?

अहिंसा का शब्दानुसार अर्थ 'हिंसा न करना' है। 'न+हिंसा' इन दो शब्दो से अहिंसा बना है। इसका परिभाषिक शब्द निषेधात्मक और विध्यात्मक दोनों है। रागद्वेषात्मक प्रवृत्ति न करना, प्राण वध न करना या प्रवृत्तिमात्र का निरोध करना निषेधात्मक अहिंसा है। सत-प्रवृत्ति करना, स्वाध्याय, अध्यात्मसेवा, उपदेश, ज्ञान-चर्चा आदि आत्महितकारी क्रिया करना विध्यात्मक अहिंसा है।

महर्षि वेदव्यास के अनुसार, 'सर्वकाल में सर्वप्रकार से सब प्राणियों का चित्त में भी द्रोह न करना अहिंसा है।' 

हिंसा तीन प्रकार की होती है-

(क) शारीरिक,
(ख) मानसिक, और
(ग) आध्यात्मिक ।

(क) शारीरिक हिंसा :- किसी प्राणी का प्राण-हरण करना अथवा अन्य प्रकार से शारीरिक पीड़ा पहुंचाना शारीरिक हिंसा है। 

(ख) मानसिक हिंसा :- मन को क्लेश देना या मन से किसी का अहित, बुरा चाहना मानसिक हिंसा है।

(ग) आध्यात्मिक हिंसा :- अन्तः करण को मलिन करना आध्यात्मिक हिंसा है।

इन तीनो प्रकार की हिंसा में सबसे बड़ी हिंसा आध्यात्मिक हिंसा है।

हिंसक मनुष्य को इहलोक और परलोक में कभी शांति नही मिलती है। इसके विपरीत जो मनुष्य प्राणीमात्र को 'आत्मवत् सर्वभुतेषु' की भावना से देखता है और कभी भी किसी को तन, मन और वचन से दुःख नही पहुँचाता है, वही मनुष्य सुखी रहता हैं। 

मनुस्मृति के अनुसार, 'जो मनुष्य होकर भी अहिंसक अर्थात् निरपराधी प्राणियों को अपने सुख के लिए दुःख देता है, उसकी हिंसा करता है वह मनुष्य न तो इस जन्म में सुखी रहता है और न मरने के बाद स्वर्गसुख की प्राप्ति करता है।''

अहिंसा एक ऐसा पावन गुण या पवित्र कर्तव्य है, जो सृष्टि पर एक ऐसी व्यवस्था करता है। जिससे मानव सुख शान्ति से जीवित रहता है और सर्वत्र समत्वबुद्धि का प्रकाश फैलता है। हमारे सम्पूर्ण धार्मिक ग्रंथ ही नहीं अपितु विश्व के समस्त ग्रंथ मनुष्य को अहिंसामय जीवन व्यतीत करने को कहते है।

इसाई धर्म भी अहिंसा को स्वीकार करता है। ईसामसीह कहते है कि 'तू किसी को मत मार। बौद्ध धर्म भी अहिंसा को अपना सर्वोत्तम धर्म स्वीकार करता है, इसका गूल सिद्धान्त अहिंसा पर ही आधारित है। 

अठारह पुराणों में महर्षि व्यास ने दो ही बात कही है दूसरों का उपकार करना पुण्य और पीड़ा देना पाप है।' केवल व्यास ही नही अपितु वेद, उपनिषद, श्रुति, स्मृति सभी ने अहिंसा को परमधर्म बतलाया है। भगवान महावीर, भगवान बुद्ध, ईसामसीह, महात्मा गाँधी ने अहिंसा को परमधर्म बतलाया है।

इस प्रकार स्पष्ट होता है कि यथार्थ में अहिंसा धर्म मानव जीवन का सबसे बड़ा पुरूषार्थ है। मानव को इससे सर्वोत्तम कर्तव्य मानकर मन, वचन और कर्म से पालन करना चाहिये। अहिंसा का पालन करके मानव अपनी मुक्ति का द्वार स्वतः खोल देता है और मनुष्य तत्वयोगी, कर्मयोगी और सम्यक्दर्शी हो जाता है। अहिंसा धर्म के आदर्श- दया, क्षमा, करूणा, समदृष्टि, सहनशीलता, अक्रोध और ब्रह्मचर्य है।

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