'अन्धविश्वास' शब्द दो शब्दों के मेल से बना है- 'अन्ध' और 'विश्वास' । 'अन्ध' से अभिप्राय अन्धकार या अँधेरे से है तथा 'विश्वास' का अर्थ आस्था से है । अर्थात् किसी वस्तु का प्रमाणिक आधार न होने के बाद भी उस पर विश्वास कर लेना ही अन्धविश्वास कहलाता है ।
अन्धविश्वास प्रायः समाज में प्रचलित रूढ़ियों, जड़वत मान्यताओं इत्यादि के आधार पर पनपता है। समाज में चाहे वह ग्रामीण परिवेश का हो या शहरी हो में अन्धविश्वास का इतना अधिक प्रचलन है कि व्यक्ति बिना विचार किए ही इसकी गिरफ्त में आ जाता है। हमारी प्राचीन मान्यताएँ या धारणाएँ अन्धविश्वास को प्रश्रय देती हैं और जो समाज अन्धविश्वास में जकड़ा हो, वह कभी उन्नति के शिखर पर नहीं पहुँच सकता। अन्धविश्वास मानवीय व्यवहार की स्वतंत्रता को सीमित कर देता है। स्वार्थी लोग अपने हित के लिए अन्धविश्वासों को बनाए रखते हैं। यह आज भी दुःखपूर्ण विषय है कि आधुनिक शिक्षित समाज में भी अन्धविश्वास अपनी जड़ें जमाये हुए है।
शताब्दियों की दासता के कारण ही हमारे देश की साधारण जनता में प्राचीन मान्यताएँ एव अन्धविश्वास अभी भी प्रश्रय लिए हुए हैं। धूर्त और स्वार्थी किस्म के लोग प्रायः अशिक्षित लोगों, विशेष रूप से स्त्रियों को अपने जाल में फंसाते हैं। सरला अपने पैर के दर्द से परेशान रहती थी। उसने अपने पड़ोस की मिसेज़ कपूर से किसी चमत्कारी संत के बारे में सुन रखा था, जो लोगों की बीमारी अपने ऊपर लेकर उसे कहीं दूर छोड़ आते थे। सरला अपने पति से संतजी के किस्से सुनाने लगती है, "मिसेज़ कपूर कह रही थीं, बड़े ही गुणवान हैं ये संतजी । आजकल तो उनके चारों ओर हज़ारों लोगों का जमघट लगा रहता है और सबको फायदा हो रहा है। एक लड़के को डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था। उन्होंने देखते-देखते उसे ठीक कर दिया। लोग उनके पास रोते हुए जाते हैं और हँसते हुए वापस आते हैं।... मिसेज़ कपूर कहती हैं, वे सबके रोग खुद ले लेते हैं और उन्हें किसी जंगल वंगल में जाकर छोड़ आते हैं। इस प्रकार सरला अपनी पड़ोसन मिसेज़ कपूर की बातों से पूरी तरह से प्रभावित होती है और संतजी के किस्से अपने पति को सुनाती है। वह एक और किस्सा बड़े उत्साह से सुनाती हुई कहती है, "लोगों ने अपनी आँखों से देखा है। एक मरीज़ को एक सौ पाँच डिग्री बुखार था, संतजी ने उसका बुखार अपने ऊपर ले लिया। देखते-देखते उन्हें एक सौ पाँच डिग्री बुखार चढ़ आया। फिर वे धीरे से उठकर मकान के पीछे की तरफ गए और वहाँ अपना बुखार छोड़ आए। स्पष्ट है कि संतजी के चमत्कारपूर्ण किस्से सुनने के बाद सरला के मन पर इसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था ।
ऐसे संतों के प्रति लोगों की अंधश्रद्धा इतनी अधिक होती है कि उस संत के पास सिर्फ जाकर ही वापस आने से भी अपनी बीमारी कम हुई महसूस करते हैं। सरला के पैर में भी दर्द है, जिसे वह संत को देना चाहती थी परन्तु जिस दिन वह संतजी के पास जाती है, उस दिन उसे संत जी नहीं मिलते। वह घर आकर अपने पैर का दर्द हल्का महसूस करती है। वह अपने पति से इस संदर्भ में कहती है, "आप मानिए या न मानिए, मुझे तो उन पर विश्वास हो गया है। आज मैं कितना चली फिरी थी। थोड़ा-सा भी चलने फिरने से मुझे कितना दर्द होता है, पर आज मुझे बड़ा आराम महसूस हो रहा है। इस प्रकार सरला के मन में संतजी के प्रति अंधश्रद्धा उत्पन्न हो जाती है। महानगरीय वेतनभोगी वर्ग जो कि शिक्षित होने पर भी इन संत- बाबाओं द्वारा ठगाया जा रहा है। इन अंधश्रद्धालुओं में अधिकतर स्त्रियाँ हैं, जिनका अपने संतजी महाराज पर पक्का विश्वास है आश्चर्यजनक नहीं है कि इतनी शिक्षा, वैज्ञानिक प्रगति, वैज्ञानिक सोच और लम्बी धार्मिक / सामाजिक जागरूकता के बावजूद इस देश का अनपढ़ जनसमुदाय ही नहीं, अपने-आपको प्रबुद्ध मानने वाला शिक्षित वर्ग भी बुरी तरह इन बाबाओं की कथित अलौकिक शक्तियों के मोहपाश में बुरी तरह जकड़ा हुआ है। किसी की भभूति, किसी की मिठाई, किसी का गंडा - तावीज़ किसी का प्रसाद ऐसी चमत्कारिक बातों से गुंथे हैं कि लोग आँखें बंद करके उनकी ओर दौड़ते हैं। अतः स्पष्ट है कि अन्धविश्वास के कुचक्र में शिक्षित-अशिक्षित दोनों प्रकार के लोग फंसे हुए हैं। इन संतों व बाबाओं द्वारा व्यक्त अपनी अलौकिक शक्तियों का जाल बड़ी चतुराई के साथ फेंका जाता है, जिसके मोहपाश में आम व्यक्ति फंस जाता है । अन्धविश्वास भारतीय समाज के लिए एक अभिशाप है। यह व्यक्ति के विकास में बाधा उत्पन्न करता है। मध्यवर्गीय परिवार चाहे वह शिक्षित-अशिक्षित हो, सभी में यह प्रवृत्ति दिखाई देती है । अन्धविश्वास में पड़ा व्यक्ति चमत्कार, भविष्य, कुण्डली, मंत्र-तंत्र आदि में अपनी गूढ़ आस्था रखता है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि धर्म मनुष्य के संवेगों को नियमित, नियंत्रित करने और दिशा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ईश्वर और परलोक का अस्तित्व ही मनुष्य को नियंत्रित करने, भय में रखने, अनदेखे -अनजाने भविष्य के प्रति संचित रखने के लिए हुआ । ईश्वर और परलोक का अस्तित्व होने की आस्था के कारण ही व्यक्ति रूढ़ियों व अन्धविश्वासों में फंस जाता है । व्यक्ति चाहे ग्रामीण परिवेश का हो अथवा नगर - महानगर का शिक्षित-अशिक्षित कोई भी इन धार्मिक रूढ़ियों, आडम्बरों व अन्धविश्वासों का शिकार हो ही जाता है। रूढ़ परम्पराएँ अथवा रीतियाँ भारतीय समाज की प्राचीन समय से ही अभिन्न अंग रही हैं। वैज्ञानिक युग में पहुंचकर भी आज भारत का शिक्षित-अशिक्षित वर्ग इनसे अछूता नहीं रह पाया है ।