दान क्या है और उसके प्रकार?

शब्द शास्त्र की दृष्टि से 'दान' शब्द का अर्थ किसी वस्तु से अपना सत्व (अर्थात् अधिकार) निवृत्ति करके दूसरे का अधिकार स्थापित कर देना है। दान देना धर्म का एक श्रेष्ठ अंग कहा जाता है। 

शास्त्रों के अनुसार, दान से बढ़कर कोई धर्म नही है- 'दानधर्मात् परोधर्मो भूतानां नेह विद्यते' । जब कोई व्यक्ति अपनी न्यायोपार्जित सम्पदा शास्त्र द्वारा उचित बताये गये किसी दूसरे व्यक्ति को श्रद्धापूर्वक शास्त्रोक्त विधि से अर्पित कर उसकी मानस, वाचिक अथवा कायिक स्वीकृति प्राप्त करता है, तब इस क्रिया को दान कहते है।

स्कन्द पुराण में मही-सागर-संगम की कथा में दान के दो हेतु, छः अधिष्ठान, छः अंग, छः फल, चार प्रकार और तीन नाशक बताये गये है। श्रद्धा भक्ति ये दो हेतु, धर्म, अर्थ, काम, घ्रीड़ा, भय और हर्ष-छः अधिष्ठान, दाता, ग्रहीता, देयवस्तु, देश, काल और श्रद्धा को षड्ग बताया गया है। दुष्फल, निष्फल, हीन, तुल्य, विपुल और अक्षय दान के छः परिणाम बताये गये है। प्रियवचन एवं श्रद्धासहित दान को दुर्लभ माना जाता है।

दान के प्रकार

पद्रम, कूर्म, स्कन्द, गरूड़, वामन और नारद पुराणों में दान के चार प्रकार बताये गये है-

(क) नित्य दान,
(ख) नैमित्तिक दान,
(ग) काम्य दान और
(घ) विमल दान।

(क) नित्य दानः जिसका अपने ऊपर कोई उपकार न हो, ऐसे ब्राह्मण को फल की इच्छा न रखकर प्रतिदिन जो कुछ दिया जाता है, उसे नित्य दान कहते है।

(ख) नैमित्तिक दान :- जो पापों की शान्ति के लिए विद्वानों के हाथ में दिया जाता है, उसे नैमित्तिक दान कहते है। यह उत्तम दान है।

(ग) काम्य दानः- संतान, विजय, ऐश्वर्य और विविध सांसारिक सुखों के लिए जो दान दिया जाता है, उसे काम्य दान कहते है।

(घ) विमल दान :- ईश्वर की प्रसन्नता के लिए धर्मयुक्त चित्त से ब्रह्मवेत्ता पुरुषों को जो अर्पण किया जाता है, उसे विमलदान कहते है।'

सुयोग्य पात्र के मिलने पर अपनी शक्ति के अनुसार दान अवश्य देना चाहिये। मनुष्य को अपने कुटुम्ब को भोजन और वस्त्र देने के बाद जो बच जाये उसी का दान करना चाहिये। कुटुम्ब के भरण-पोषण के बिना जो दान दिया जाता है, वह दान फल देने वाला नहीं होता। पद्म पुराण के अनुसार, वेदपाठी, कुलीन, विनीत, तपस्वी, व्रतपरायण एवं दरिद्र को भक्तिपूर्वक दान देना चाहिये।' पद्रम पुराण में दान के पात्र का लक्षण यह बताया गया है - धूत, काण, अतिकृष्ण वर्ण, कपिल वर्ण, दूषित दन्त, हीनागं, कुष्ठी, कुनखी, खल्वार, दुराचारिणी पत्नी वाले, स्त्रीजित्, शोकार्त व्याधिग्रस्त, चोर और सदाचारविहीन लोगों को दान देने का निषेध बताया गया है।

दानकाल

दान के लिए उचित काल का भी वर्णन पुराणों में मिलता है। पद्म पुराण में दान का उचित काल सूर्योदय कहा गया है। इस काल में दिया गया जल भी अत्यधिक पुण्यवर्धक हो जाता है।

मनुष्य को सूर्योदय के समय देवताओं और पितरों का पूजन करने के पश्चात् श्रद्धा से दुग्ध, अन्न, फल, ताम्बूल, आभूषण, वस्त्र आदि दैनिक उपयोग की वस्तुओं का दान करना चाहिये। मध्यांह और अपरांह के समय में किया गया दान भी पुण्यमय होता है। यदि सामर्रय होने पर भी मनुष्य किसी विशेष पक्ष अथवा माह में दान नही करता है, तो उसे अनेक यातनायें भोगनी पड़ती है।

ऐसी मान्यता है कि जो मनुष्य भक्तिपूर्वक दान करता है, वह उस परमधाम को प्राप्त होता है, जहाँ जीव को कभी शोक नहीं होता। जो दरिद्र को दान देता है, वह अपने समस्त पापों से छूट जाता है क्योंकि भूमिदान से बढ़कर इस संसार में कोई भी दान नहीं है। अन्नदान भूमिदान की समानता करता है और विद्यादान इन दोनों दानो से भी श्रेष्ठ होता है। जो मनुष्य विधिपूर्वक विद्या का दान करता है, वह ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित हो जाता है। भारतीय इतिहास में दान धर्म के आदर्श हर्षवर्धन थे, जो प्रयाग में लगने वाले कुम्भ या अर्धकुम्भी पर्व पर अपना सर्वस्य दान कर देते थे।

हमारे पौराणिक ग्रंथों में दान के ऐसे अनेक आख्यान यथा-राजा बलि का दान (वामन पुराण), धर्मभूर्ति की कथा (पद्रम पुराण), महर्षि दधिची का दान (मार्कण्डेय पुराण), हरिश्चन्द्र का विश्वामित्र को राजपाठ का दान (मार्कण्डेय पुराण) और कर्ण का दान (श्रीम‌द्भागवत गीता) मिलते है।

Bandey

I am full time blogger and social worker from Chitrakoot India.

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