'धर्म' शब्द व्याकरण की रीति से 'घृञ् धारणे' धातु के आगे 'मन्' प्रत्यय लगाने से बनता है। इसकी व्युत्पत्ति तीन प्रकार से मानी जाती है-
1. 'ध्रियते लोकः अनने इति धर्मः' जिससे लोक धारण किया जाय, वह धर्म है।
2. 'धरति धारयति वा लोकम् इति धर्मः' जो लोक को धारण करें, वह धर्म है।
3. 'ध्रियते यः स धर्मः' जो दूसरों से धारण किया जाये, वह धर्म है। महाभारत में धर्म का यह लक्षण बताया गया है-
इससे स्पष्ट होता है कि 'धर्म' शब्द बहुत व्यापक है अमरकोष के अनुसार, 'धर्म' शब्द के अनेक अर्थ यथा- सुकृत या पुण्य वैदिक विधि यागदि, यमराज, न्याय, स्वभाव, आचार, सोमरस को पीने वाला है। ऋग्वेद में 'धर्म' शब्द संज्ञा अथवा विशेषण रूप में प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ 'ऊचा उठने वाला' (उन्नायक), 'सम्पोषक' (प्राणतत्व का पालन-पोषण करने वाला) है, किन्तु ऋग्वेद के ही अन्य स्थलों पर धर्म का अभिप्राय 'सुबद्ध निश्चित सिद्धान्त' एवं 'धार्मिक क्रियाओं' के नियम से है। ऐतरेय ब्राह्मण में 'धर्म' का अर्थ धार्मिक कर्मो का सर्वागस्वरूप है। यह धार्मिक कर्म परलोक सुधारने, संसार सागर से तारने के लिए जप, व्रत, हवन यागादि है।
1. 'ध्रियते लोकः अनने इति धर्मः' जिससे लोक धारण किया जाय, वह धर्म है।
2. 'धरति धारयति वा लोकम् इति धर्मः' जो लोक को धारण करें, वह धर्म है।
3. 'ध्रियते यः स धर्मः' जो दूसरों से धारण किया जाये, वह धर्म है। महाभारत में धर्म का यह लक्षण बताया गया है-
'धारणार्द्धर्यमित्याहुर्धर्मो धारयते प्रजाः ।अर्थात् 'धारण करने से लोग इसे धर्म कहते है। धर्म प्रजा को धारण करता है। जो धारणा के साथ रहे, वही धर्म है यह निश्चय है।'
यत् स्याद्वारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्रयः।।''
इससे स्पष्ट होता है कि 'धर्म' शब्द बहुत व्यापक है अमरकोष के अनुसार, 'धर्म' शब्द के अनेक अर्थ यथा- सुकृत या पुण्य वैदिक विधि यागदि, यमराज, न्याय, स्वभाव, आचार, सोमरस को पीने वाला है। ऋग्वेद में 'धर्म' शब्द संज्ञा अथवा विशेषण रूप में प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ 'ऊचा उठने वाला' (उन्नायक), 'सम्पोषक' (प्राणतत्व का पालन-पोषण करने वाला) है, किन्तु ऋग्वेद के ही अन्य स्थलों पर धर्म का अभिप्राय 'सुबद्ध निश्चित सिद्धान्त' एवं 'धार्मिक क्रियाओं' के नियम से है। ऐतरेय ब्राह्मण में 'धर्म' का अर्थ धार्मिक कर्मो का सर्वागस्वरूप है। यह धार्मिक कर्म परलोक सुधारने, संसार सागर से तारने के लिए जप, व्रत, हवन यागादि है।
छान्दोग्यपनिषद में 'धर्म' से तात्पर्य आश्रमों के विशिष्ट कर्तव्य से है। आश्रमों से सर्वांग जीवन का संतुलित, संयमित एवं समन्वित स्वरूप निर्धारित होता है, अर्थात् 'धर्म' सम्पूर्ण जीवन के कर्तव्यों से अपना सम्बन्ध रखता है। तैतिरीयोपनिषद्, गीता, मनुस्मृति तथा अन्य स्मृतियों में 'धर्म' शब्द का अभिप्राय प्रायः समान ही है, केवल उक्ति में शब्द पार्थक्य पाया जाता है।
'धर्म' के सम्बन्ध में पुराण का प्रतिपादन है कि धर्माधर्मजन्य सुखों-दुःखों को भोगने के लिए ही जीव देहादि धारण करता है। समस्त कार्यों में धर्म और अधर्म ही मुख्य कारण है और कर्मफल के उपभोग के लिए ही एक देह को दूसरे देह में जाना पड़ता है।' 'धर्म' के महत्व के प्रदर्शन में पौराणिक कथन है कि जो पुरूष वर्णाश्रम धर्म का पालन करता है, वही परमपुरूष विष्णु की आराधना कर सकता है। उस विष्णु को संतुष्ट करने का और कोई मार्ग नही
है।
मनुस्मृति के अनुसार, श्रुति और स्मृति में प्रतिपादित 'धर्म' का आचरणकर्ता मनुष्य इस लोक में यश और परलोक में उत्तम सुख अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करता है।' गीता में 'धर्म' की उपादेयता में कहा गया है कि जब-जब धर्म का ह्रास और अधर्म का उत्थान होता है, तब-तब भगवान को धरातल पर अवतीर्ण होना पड़ता है। तीन कर्मों-साधुओं की रक्षा, दुष्टों का नाश और धर्म की पुनः स्थापना के लिए प्रत्येक युग में भगवान को प्रकट होना पड़ता है। महात्मा गाँधी, रविन्द्रनाथ टैगोर ने 'धर्म' की विलक्षणता को स्वीकार करते हुए इसको उच्च श्रेणी का माना है। 'धर्म' ही जीवन की गति है, इसके बिना जीवन निष्प्राण और निरर्थक होता है। जीवन सम्बन्धी जितने भी गुण सांसारिक स्वरूपों से सम्बन्ध रखते है, धर्म के दिब्य सूत्र में संयुक्त है। जो मानव जीवन की इहलोक तथा परलोक में उन्नति एवं हित साधना करें। जिससे मनुष्य मृत्युपरान्त अभय, अदीनता एवं आत्मशान्ति का अनुभव करें, जिससे सच्चा संतोष, सुव्यवस्था, सम्पन्नता तथा चेतनता लाये, इसे हम 'धर्म' की संज्ञा दे सकते है। जीवन के पग-पग में जो संसार से अपना अभिन्न सम्बन्ध स्थापित किये हुए है, वह 'धर्म' ही है। जिसको दो पक्षों वैयक्तिक और सामाजिक में ले सकते है। यह दोनों आपस में एक दूसरे से सम्बन्धित है, दोनो का क्षेत्र व्यापक है, चाहे स्वधर्म हो या परधर्म दोनों के पालन से ही जीवन की पूर्णत सम्भव है।
लोक धर्म का वास्तविक अर्थ मानव-धर्म है। मनुष्य में मनुष्यत्य की प्रतिष्ठा मानव धर्म से ही होती है। धर्म ही लोक का आश्रय है। महाभारत के अनुसार
धर्मः सतां हितः पुंसां धर्मश्चैवाश्रयः सताम्।धर्माल्लोकास्त्रयस्तात प्रवृत्ताः सचराचराः ।।'
अर्थात् 'धर्म ही सत्पुरूषों का हित है, धर्म ही सत्पुरूषों का आश्रय है और चराचर तीनो लोक धर्म से ही चलते है।' धर्म ही लोक का आधार है। धर्म ही लोक-जीवन है, धर्म से ही लोक संग्रह होता है। धर्म का लक्षण मनु ने अपने ग्रंथ मनु-स्मृति में इस प्रकार बताया है-
'धृतिः क्षमा दमोडस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।धीविद्या सत्यमक्रोधो दशंक धर्मलक्षणम् ।।'
धृति, क्षमा, मन का निग्रह, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध यह धर्म के दस लक्षण है। यह दस ऐसे धर्म है, जिससे किसी भी जाति देश या सम्प्रदाय को आपत्ति नही होती, इसलिये इसे लोक धर्म कहते है क्योकि यह मानव का स्वाभाविक धर्म है। मानव में मानवता का प्रकाश, विकास, संरक्षण और संवर्धन इन्हीं धर्मो के पालन से होता है। जिस समय मनुष्य इन धर्मों का पालन करना छोड़ देता है, उसी वक्त वह पत्रित हो जाता है। इन धर्मो के पालन से ही जीवन में पवित्रता, आचरण में उदारता और कर्म में लोकोपकारिता स्वंयमेव आ जाती है।
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