संवेदना : अर्थ, परिभाषा, प्रकार विशेषताएं, एवं स्वरूप

संवेदना ज्ञान का सरल और सहज रूप है, सामान्यतः मनोवैज्ञानिक ऐसा मानते हैं। उद्वेग का सम्बन्ध जैसे शरीर के रूप भेद से है, ठीक वैसे ही संवेदना का सम्बन्ध भी शरीर के रूप भेद से है। मानसिक जगत् का सम्पर्क जहाँ बाह्य जगत् से होता है, वहीं संवेदना होती है। एक प्रकार से संवेदना हमारे लिए ज्ञान के स्रोत का काम करती है। संवेदना को हम न पूर्णतया भौतिक ही कह सकते हैं और न ही पूर्णतया मानसिक । वह तो दोनों की सीमा रेखा पर स्थित है। एक ओर हमें भौतिक जगत् को पहचानना है और दूसरी ओर मानसिक जगत् का भी विश्लेषण करना है। इस तरह से प्रयत्न करने पर ही संवेदना की मीमांसा की जा सकती है।

संवेदना : अर्थ एवं परिभाषा

संवेदना शब्द के अर्थ व परिभाषा के सम्बन्ध में विविध विद्वानों ने अपने मत प्रस्तुत किए हैं।

संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश में संवेदना का व्युत्पत्तिगत अर्थ है, "संवेदना शब्द की व्युत्पत्ति ‘सम्' उपसर्ग पूर्वक 'विद्' धातु में ल्युट प्रत्यय लगाने से होती है। 'संवेदनम्-ना (संवेदना) (सम्+ विद् + ल्युट) प्रत्यक्ष ज्ञान, जानकारी, तीव्र अनुभूति, भोगना आदि।' 'विद्' धातु जानना अर्थ में प्रयुक्त होती है । विद् (वि०) (विद् + क्विप्) (समास के अन्त में) जानने वाला, जानकार, वेदविद् आदि (पु० ) 1. बुधग्रह, 2. विद्वान पुरुष, बुद्धिमान मनुष्य (स्त्री.) 1. ज्ञान, 2. समझ, बुद्धि । अतः स्पष्ट है कि संवेदना ज्ञान, जानकारी व अनुभूति है, उस अनुभूति को हृदय में आत्मसात कर भोगना है।

हिन्दी शब्दसागर में संवेदना का अर्थ इस प्रकार स्पष्ट किया गया है, “ 'सम्उपसर्ग के कई अर्थ बताए गए हैं 'सम' एक अवयव जिसका व्यवहार, समानता, संगति, उत्कृष्टता, निरन्तरता, औचित्य आदि सूचित करने के शब्द में होता है ।" " कहने का अभिप्राय है कि संवेदना एक व्यवहार, समानता, उसकी संगति, उत्कृष्टता तथा औचित्य आदि पर निर्भर करती है

ज्ञान शब्द कोश के अनुसार संवेदना का अर्थ है, "ज्ञान, अनुभूति, जताना, सूचित करना तथा प्रकट करना आदि। 2 अर्थात् संवेदना किसी मूर्त रूप या वस्तु के प्रति व्यक्ति के अन्तर्जगत् में उत्पन्न भावात्मक अनुभूति है, जिसे वह अपनी विशेष कार्य प्रणालियों द्वारा अभिव्यक्त करता है।

आधुनिक हिन्दी शब्दकोश में संवेदना का अर्थ इस तरह से है, “तीव्रानुभूति, चेतना, भावना, वेदना, ज्ञानबोध, सहानुभूति, दूसरे का दुःख देखकर मन में होने वाली अनुभूति आदि। अतः स्पष्ट है कि संवेदना किसी प्राणी को कष्ट में देखकर अमुक प्राणी के प्रति मनुष्य के हृदय में उत्पन्न वेदना या सहानुभूति का नाम है।

मानक हिन्दी कोश के अनुसार संवेदना के तीन अर्थ हैं, "1. मन में होने वाला अनुभव या बोध (अनुभूति), 2. किसी के कष्ट को देखकर मन में होने वाला दुःख, किसी की वेदना को देखकर स्वयं भी बहुत कुछ उसी प्रकार की वेदना का अनुभव करना, सहानुभूति (सिम्पथी), 3. उक्त प्रकार का दुःख या सहानुभूति प्रकट करने की क्रिया का भाव (कन्डोलेंस) । 4 इसमें संवेदना शब्द को अनुभूति, सहानुभूति इत्यादि के अर्थ के संदर्भ में लिया गया है। एक ऐसी अनुभूति जो किसी दूसरे व्यक्ति को दुःखी देखकर उत्पन्न होती है।

व्यावहारिक हिन्दी-अंग्रेजी शब्दकोश में संवेदना का अर्थ, "संवेदना अंग्रेजी के सेंसिटिविटी, सेन्सेशन, सेन्सिब्लिटी, सेन्सिबल, फिलिंग का समानार्थी शब्द है | अर्थात् संवेदना मूलरूप से अनुभूति, उत्तेजना, बोध, ज्ञान व भावुकता का ही पर्याय है।

यह पूर्व विवेचित है कि संवेदना विविध पक्षीय होती है। यह सुख - दुःख दोनों से सम्बन्धित है। यद्यपि संवेदना का स्थान मूलतः हृदय या मन ही होता है, परन्तु विभिन्न स्थिति के अनुसार संवेदना का स्तर अलग-अलग भी हो सकता है। इस तथ्य की पुष्टि कालिन्स कोबिल्ड इंग्लिश डिक्शनरी से हो जाती है। इसके अनुसार, "संवेदना एक शारीरिक अनुभूति है। एक अत्यन्त आनन्ददायी अनुभूति के रूप में संचरण कर सकती है...जलने का अनुभव या सिहरन की अनुभूति को हाथों में अनुभूत किया जा सकता है।"" यहाँ पर संवेदना या अनुभूति को दो प्रकार की परिस्थितियों में स्पष्ट किया गया है। एक पक्ष आनन्ददायी क्षणों का है, तो दूसरा कष्टपूर्ण परिस्थिति का। दोनों ही परिस्थितियों में विभिन्न अनुभूति प्राप्त होती है। जहाँ एक ओर अद्भुत आनन्द का संचरण हो रहा है, तो दूसरी ओर जलने व सिहरन से पीड़ा, दुःख के भाव में अलग-अलग अनुभूत होने पर भी मनुष्य के हृदय या मन से ही बोधगत होती है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि संवेदना एक अनुभूति, सहानुभूति है। जो किसी व्यक्ति के प्रति हमारे मन में उत्पन्न होती है। यह अनुभूति मुख्य रूप से दूसरे व्यक्ति को दुःख में देखकर तीव्र गति से उभरती है। जिस अनुभूति, पीड़ा को वह व्यक्ति अपने अन्दर अनुभूत करता है, ठीक उसी प्रकार की पीड़ा का बोध हमारे मन-मस्तिष्क में होता है। संवेदना शब्द को विविध विद्वानों व समीक्षकों ने परिभाषित किया है

कालिका प्रसाद संवेदना शब्द को परिभाषित करते हुए लिखते हैं, "संवेदना शब्द मूलतः संस्कृत के संवेद शब्द से बना है, जिसका अर्थ होता है- सुख-दुःख का अनुभव, ज्ञान या प्रतीति । संवेदन पुल्लिंग शब्द है। इसमें 'आ' प्रत्यय लगने से उसका (स्त्रीलिंग) रूप 'संवेदना' (शब्द) बना है। संवेदन (पुल्लिंग) संवेदना (स्त्रीलिंग) ज्ञान, अनुभूति जताना, सूचित करना, प्रकट करना इत्यादि । इस प्रकार स्पष्ट है कि संवेदना एक आन्तरिक अनुभूति है, जिसे दूसरे व्यक्ति को सुख-दुःख में देखकर अनुभूत किया जाता है।

हिन्दी साहित्य कोश में संवेदना को इस प्रकार परिभाषित किया गया है, "संवेदना शब्द का प्रयोग सहानुभूति के अर्थ में होने लगा है। मूलतः वेदना या संवेदना का अर्थ ज्ञान या ज्ञानेन्द्रियों का अनुभव है। मनोविज्ञान में इसका यह अर्थ ग्रहण किया जाता है। उसके अनुसार संवेदना उत्तेजना के सम्बन्ध में देह रचना की सर्वप्रथम सचेतन प्रतिक्रिया है, जिससे हमें वातावरण की ज्ञानोपलब्धि होती है । उत्तेजना का हमारे मन-मस्तिष्क तथा नाड़ी तंतुओं द्वारा प्रभाव पड़ने पर ही हमें उसकी संवेदना होती है। संवेदना हमारे मन की चेतना की वह कूटस्थ अवस्था है, जिसमें हमें विश्व की वस्तु विशेष का बोध न होकर उसके गुणों का बोध होता है।"" कहने का अभिप्राय हैं कि संवेदना एक प्रकार की भावानुभूति है। यह अनुभूति सृष्टि के जड़-चेतन दोनों प्रकार के पदार्थों व जीवों के प्रति समान रूप से उजागर होती है। यह अमुक वस्तु विशेष का बोध न करवाकर उसके गुणों से अवगत कराती है। यह चेतन मन की कूटस्थ अवस्था हैं, जो अनुकूल अवस्था में संवेग या उत्तेजना के रूप में उजागर होती हैं।

यदुनाथ सिन्हा के अनुसार, "संवेदना इन्द्रिय बोध स्नायुओं और मस्तिष्कीय ज्ञान केन्द्रों की प्रतिक्रिया है।"2 कहने का अभिप्राय है कि संवेदना मनुष्य के शारीरिक अंग-प्रत्यंगों की प्रतिक्रिया स्वरूप प्रकट होती है।

प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डी०एस० रावत ने संवेदना को परिभाषित करते हुए कहा है, "हमारे मन का आधार संवेदना है। किसी भी उत्तेजना के कारण व्यक्ति में प्राथमिक प्रतिक्रिया होती है, उत्तेजना के प्रति व्यक्ति की प्राथमिक प्रतिक्रिया को ही संवेदना कहते हैं।"" अर्थात् किसी व्यक्ति को सुख-दुःख में देखकर हमारे मन में जो भाव उत्पन्न होता है, वही संवेदना के रूप में परिणत हो जाता है।

एस०एस० माथुर इस सम्बन्ध में कहते हैं, "मनुष्य सर्वप्रथम इन्द्रियों के सहारे ही संसार की विभिन्न प्रतिक्रियाओं को समझने की चेष्टा करता है। वह उद्दीपक द्वारा प्रथम प्रत्युत्तर प्राप्त करता है, जिसे संवेदना कहते हैं।" कहने का अभिप्राय हैं कि मनुष्य अपने सामने घटित हो रहे दृश्य को सर्वप्रथम अपनी इन्द्रियों (कर्म व ज्ञानेन्द्रियों) द्वारा आत्मसात करता है, तदुपरान्त उस दृश्य की वस्तुस्थिति से प्रभावित होकर अपने मन में एक प्रकार की अनुभूति या उत्तेजना को अनुभूत करता है, जिसे हम संवेदना कहते हैं।

हरिचरण शर्मा संवेदना के सम्बन्ध में कहते हैं, "संवेदना प्रत्यक्षीकृत अनुभवों का डिस्टिल्ड फॉर्म है। संवेदना शून्य में आकार ग्रहण करती है, युगबोध से उसका करीबी रिश्ता है।"" अर्थात् जो अनुभव मनुष्य के व्यक्तित्व में घुलकर या आत्मसात होकर अनुभूति के रूप में प्रकट होते हैं, आगे चलकर वे ही संवेदना के रूप में

जाने जाते हैं। संवेदना मनुष्य के व्यक्तित्व को प्रभावित करती है।

सुरेश सिन्हा के अनुसार, "संवेदना से अभिप्राय है वह अनुभूति प्रवणता, जो सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्रभावों को ग्रहण करने की क्षमता से पूरित होती है। स्पष्ट हैं कि संवेदना सूक्ष्मातिसूक्ष्म भावों से अनुप्राणित होती है।

साहित्य निर्माण में संवेदना का महत्त्वपूर्ण स्थान है। लेखक जब तक सामाजिक प्राणी की परिस्थितियों, दशाओं, जीवन-दर्शन को भली प्रकार से नहीं जान लेता, तब तक वह कालजयी कृति का निर्माण नहीं कर सकता। इस सन्दर्भ में रामदरश मिश्र का कहना है, "संवेदना के बिना साहित्य नहीं बनता, चाहे उसमें बुद्धिवाद का कितना ही ऊहापोह क्यों न हो, दर्शन की नयी भंगिमा क्यों न हो । बुद्धि, दर्शन, चिन्तन, ज्ञान - विज्ञान सबको पहले जीवन में आत्मसात् होना पड़ता है, आत्मसात् होकर मानव संवेदना का अंग बनना पड़ता है। अतः स्पष्ट है कि संवेदना में बुद्धि, दर्शन, चिन्तन, ज्ञान-विज्ञान आदि को भावभूमि का अंग बनना पड़ता है, तभी संवेदना का मूल भाव उद्वेलित हो पाएगा।

आचार्य नन्द किशोर ने संवेदना के सम्बन्ध में कहा है, "साधारणतया 'संवेदना' शब्द को अंग्रेजी के सेन्सीब्लिटी के माध्यम से समझने की चेष्टा की जाती है, जबकि संवेदना शब्द का अर्थ सम्भवतः सेंसीब्लिटी से अधिक गहरा एवं व्यापक है। संस्कृत के 'विद्' से व्युत्पन्न होने के कारण इसका अर्थ अंग्रेजी शब्द सेन्सेशन या 'परसैप्सन' तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि 'नॉलेज' एवं 'अंडरस्टैंडिंग' भी इसी की सीमा में आ जाते हैं। इस प्रकार एक सीमा तक बौद्धिक चेतना भी संवेदना शब्द के अर्थ में समाहित है। अतः स्पष्ट है कि संवेदना का क्षेत्र व्यापक है। इसमें अनुभूति ही नहीं, बल्कि ज्ञान, समझ, बोध आदि भी समाहित हैं। संवेदना ज्ञान, विवेक एवं तीव्रानुभूति का सफलीभूत आयाम है।

नीरज शर्मा संवेदना के सम्बन्ध में कहते हैं, 'संवेदना' मूलतः मनोविज्ञान का शब्द है। अंग्रेजी में इसके लिए शब्द है 'सेंसेशन' । वहाँ इसका अर्थ है- ज्ञानेन्द्रियों का अनुभव। यथा किसी की क्रोध युक्त लाल आँखों को देखकर प्रतिपक्षी को जो अनुभूति होती है, वहीं सेंसेशन है। साहित्य का अनुभव न रहकर मानव मन के अतल अन्तस् में छिपी करुणा, दया एवं सहानुभूति की उदात्त वृत्तियों तक हो जाता है और ये वृत्तियां ही मूलतः मनुष्य की अनुभूति हैं। इस प्रकार व्यापक और विस्तृत अर्थ में संवेदना अनुभूति का भी व्यंजक है।"2 अतः स्पष्ट है कि संवेदना मानव मन में छिपे करुणा, दया व सहानुभूति की पवित्र अनुभूति है, जो कि सभी मनुष्यों में कम या अधिक रूप में पाई जाती है।

सोमाभाई पटेल संवेदना के सम्बन्ध में कहते हैं, "संवेदना मानव के अंतरतम की सर्वाधिक पवित्र भावना है। जीवन में सुख और दुःख की प्रधानता रहती है। इन दोनों में ज्यादातर दुःख का प्राधान्य रहा है। हमारे लौकिक जीवन में सुखात्मक एवं दुःखात्मक दो अनुभूतियाँ प्रधान हैं। इन दोनों का अनुभव मनुष्य अपने वैयक्तिक जीवन में करता है। यह अनुभव- स्थिति ज्ञानात्मक है। कहने का अभिप्राय है कि संवेदना मन की वह पवित्र भावना है, जो सुखात्मक व दुःखात्मक दोनों ही हो सकती है। इसका अनुभव व्यक्ति अपने जीवन में करता है।

अजित चव्हाण संवेदना को परिभाषित करते हुए कहते हैं, "संवेदना शब्द दो शब्दों के योग से बना है- सम्यक् + वेदना संवेदना एक प्रकार का भाव है, जिसे | देखा, सुना या स्पर्श नहीं किया जा सकता। साहित्य में संवेदना शब्द का प्रयोग प्रायः 'भाव' के अर्थ में ही किया जाता है। साहित्यकार की संवेदना उसकी चेतनता मानी जाती है। संवेदना का सम्बन्ध सर्वप्रथम मन, ज्ञान और फिर अनुभूति से होता है ।" अतः स्पष्ट है कि संवेदना एक प्रकार की भावानुभूति है, जिसे केवल दूसरे को सुख - दुःख में देखकर अनुभूत किया जा सकता है। यह मन में उत्पन्न होने वाली उत्तेजना या भाव है।

अतः निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता हैं कि संवेदना ज्ञान, विवेक, उत्तेजना एवं तीव्रानुभूति का सफलीभूत आयाम है। विभिन्न विद्वानों व समीक्षकों ने संवेदना के लिए अनेकशः शब्दों का प्रयोग कर इसके मूल को सरलतम रूप से व्यक्त किया । मूलतः संवेदना शब्द संस्कृत के संवेद शब्द का ही रूपांतरण है, जिसका अर्थ होता है- सुख - दुःख का अनुभव, ज्ञान, बोध एवं प्रतीति । इस तरह संवेदना इन्द्रियों के माध्यम से अर्जित ज्ञान का पहला रूप है, जो मनुष्य की चिंतन क्षमता से प्रभावित होता है। मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के कारण विभिन्न उद्दीपकों को इन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण करता है। ये उद्दीपक ही इन्द्रियों को जागृत करते हैं। ज्ञान और उत्तेजना संवेदना की प्रारम्भिक अवस्था है। उत्तेजना का परिपक्व रूप ही संवेदना में परिणत होता है। उत्तेजना के द्वारा ही मनुष्य की भावनाएं संवेदना में बदल जाती हैं। अतः संवेदना मन में अनुभूत होने वाली सात्विक व पवित्र अनुभूति है। जो दूसरे व्यक्ति को दुःख में देखकर कुछ उसी तरह के दुःख का अनुभव करने के द्वारा उत्पन्न होती है । यह सुखात्मक व दुःखात्मक दोनों ही प्रकार की होती है ।

संवेदना के पर्याय

संवेदना शब्द किसी एक निश्चित अर्थ को व्यंजित नहीं करता अपितु विविध सन्दर्भों में यह विविध अर्थों का बोधक है। संवेदना को हम अनेक विधियों में समझ सकते हैं किन्तु अगर इसे व्याकरणिक दृष्टि से समझा जाये तो हमारे सामने संवेदना अपेक्षाकृत अधिक मुखरित होकर सामने आयेगी। संवेदना = सम्+वेदना, संवेदना शब्द 'सम्' उपसर्ग और वेदना शब्द से बना है। भोलानाथ तिवारी के अनुसार, "संवेदना संवेदन, समवेदना, समानुभूति है। मानक अंग्रेजी - हिन्दी कोश में संवेदना का अर्थ, "सैन्सेशन, संवेदन, संवेदना, बोध, चेतना, ज्ञान, इन्द्रियबोध, उत्तेजनापूर्ण, भारी उत्तेजना, स्फुरण, संभ्रम, खलबली, हंगामा, जोश आदि है ।

इस प्रकार स्पष्ट है कि संवेदना के विभिन्न समानार्थी शब्द हैं जैसे इन्द्रियानुभव, भावानुभव या भावुकता, सहानुभूति, ज्ञान, बोध, चेतना आदि । वस्तुतः ये संवेदना के विभिन्न स्तर हैं। इन सभी के घनीभूत रूप को संवेदना कहा जाता है। ये परस्पर भिन्न होते हुए भी निकट हैं, जिन्हें निम्नलिखित रूपों में देखा जा सकता है।

संवेदना और भावुकता : संवेदना मात्र भाव का पयार्य है या उसमें विचार का भी सन्निवेश होता है? किसी शब्द की अर्थ-व्याप्ति उसके प्रयोगों पर निर्भर करती है। संवेदना का प्रयोग अनेक अर्थों में प्रचलित है। अतः उसे मात्र भाव का स्थानापन्न मान लेना उपयुक्त नहीं है। वस्तुतः संवेदना का सम्बन्ध उस प्रक्रिया से है, जिसके द्वारा हम अनुभव करते हैं। अनुभव करने में वस्तु उसका दर्शन तथा बोध तीनों ही सम्मिलित होते हैं। किसी भी वस्तु के प्रति सर्वप्रथम रचनाकार के मन में भावात्मक प्रतिक्रिया होती है। चाहे वह प्रतिक्रिया सुख से सम्बन्धित हो अथवा दुःख से। कल्पना इसी प्रतिक्रिया के साथ अनेक बिम्बों का निर्माण कर डालती है और इनको नियन्त्रित करने का कार्य विचार करते हैं। इस सम्बन्ध में बटरोही कहते हैं, "विचार का सम्बन्ध एक विशिष्ट मानसिक प्रक्रिया से है। अपनी मानसिक प्रक्रिया के सम्बन्ध में केवल वही व्यक्ति जान सकता जब उसे अन्य लोगों तक प्रेषित करने की आवश्यकता अनुभव होती है, तो ऐसी स्थिति से बाहरी उपकरणों का आश्रय लेना पड़ता है। इस प्रकार जब विचार उत्पन्न होते हैं, तो रचना को रूपायित करने के लिए नई स्थिति को नहीं जोड़ते वरन् कुछ बाह्य उपकरणों जैसे नाद, लय, रेखा, शब्द के द्वारा विचार की व्याख्या करके उसका रूप परिवर्तन करते हैं। अतः स्पष्ट है कि व्यक्ति की संवेदना को उजागर होने के लिए प्रत्यक्षीभूत रूपकों की आवश्यकता होती है।

संवेदना का सम्बन्ध हृदय और बुद्धि के सन्तुलन से है। अतः इस प्रक्रिया से भाव और विचार इस भान्ति अन्वित हैं कि उन्हें अलग करना असम्भव है। अतः हम कह सकते हैं कि संवेदना अपने भीतर भाव और विचार दोनों को समाहित किये हुए है । परन्तु फिर भी संवेदना और भाव में अन्तर होता है। इस अन्तर को स्पष्ट करते हुए राजमल बोरा ने लिखा है, "भाव प्रधान रूप से सार्वजनिक होता है और संवेदनाएं प्रधान रूप से निजी होती हैं। यदि संवेदनाओं के निजी रूप सार्वजनिकता की ओर अग्रसर होते हैं, तो भाव में परिणत होते हैं और भाव यदि सार्वजनिकता से सीमित होते होते निजी कोटियों में आ जायें, तो उन्हें संवेदना के रूप में परिणत मानना चाहिए।' इससे स्पष्ट है कि संवेदनाओं के ये निजी रूप सदैव पूर्वानुभूत विचारों से सम्बद्ध रहते हैं और जब प्रत्यक्षीकरण के समय सामने आते हैं, तब नया रूप धारण किये हुए होते हैं।

अब प्रश्न यह उठता है कि क्या भावुकता ही संवेदना है? अगर इसको सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो इनमें स्पष्ट अन्तर दिखाई पड़ेगा। संवेदना को स्थाई भाव माना गया है, जो एक प्रकार का आकार धारण करती है। दूसरी ओर भावुकता को संचारी भाव माना गया है, जो हृदय से पैदा होकर क्षण भर में नष्ट हो जाता है। राजेन्द्र यादव ने भावुकता और संवेदना के अन्तर को स्पष्ट करते हुए लिखा है, "मैं यह मानता हूँ कि भावुक लेखक संवेदनशील लोगों की कहानियां नहीं लिख सकता। हाँ, संवेदनशील लेखक भावुक पात्रों को लेकर मानव-मन का सुन्दर अध्ययन दे सकता है। एक्सीडेण्ट से घायल व्यक्ति के प्रति बची दया और सहानुभूति से विचलित होकर उसके उपचार की व्यवस्था करना या शान्ति से लोगों के सामने उसके केस को रख देना- इसे मैं मानवीय संवेदनशील कहूँगा । यहाँ भावना भी है और बुद्धि भी जो एक दूसरे के प्रणेता हैं। लेकिन एक्सीडेण्ट से घायल व्यक्ति को देखकर उससे भी अधिक घबरा जाने और रोने पीटने वाले आदमी को लेकर कमजोर स्नायुओं को भावुक व्यक्ति ही कहा जायेगा। जो घायल की सहायता करने से तो रहा उल्टे अपनी इस कमज़ोरी से लोगों का ध्यान बंटा देता है ।" इस कथन की पुष्टि करते हुए कहा जा सकता है कि भावुकता का सम्बन्ध लेखक के दृष्टिकोण से होता है। अतः जिस युग में लेखक रहता है, उस युग के यथार्थ को वह अपने व्यक्तित्व एवं संवेदना के रूप में ढालकर उसे नयी कृति के रूप में प्रस्तुत करता है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भावुकता और संवेदना पूर्णतया एक दूसरे से भिन्न हैं। परन्तु भिन्न होते हुये भी उनमें एक प्रकार की निकटता और सान्निध्य भी है। वस्तुतः कोई भी संवेदन क्रिया भाव दशाओं की अनुपस्थिति में सम्भव नहीं है, फिर चाहे वह स्पर्श संवेदना हो या गन्ध संवेदना । प्रत्येक स्थिति में भावना का आवेग निश्चित रूप से विद्यमान है। राजमल बोरा संवेदना और भावुकता में स्पष्ट अन्तर बताते हुए उसका संबंध बुद्धि से जोड़ते हैं। इस सम्बन्ध में उनका मत है, “स्पर्श संवेदना में तीव्र भावानुकूलता की गुंजाइश सबसे अधिक है। लेकिन संवेदना भावुकता का पर्याय नहीं । संवेदना के साथ बुद्धि का तत्व प्रायः जुड़ा हुआ है। संवेदना का अनुभव चेतना से होता है।"" भावुकता का आवेग है जो घृणा, प्रेम, लगाव और अलगाव से ग्रसित है। विशिष्ट भाव ही दशाओं के अनुरूप संवेदनाओं में बदल जाते हैं। जिन संवेदनाओं के लिए हमारी मानसिक तैयारी पहले से रहती है, उनमें भावुकता का अंश कम है। लेकिन जो संवेदना अनुमान के विपरीत होगी, जिनके लिए हमारी मानसिक तैयारी पहले से नहीं रही है, ऐसी स्थिति में जो संवेदना होगी वह नई होगी। चाहे उसका अनुभव जड़ वस्तु के भौतिक या रासायनिक गुणों के अनुसार हुआ हो। परन्तु वह अनुभव ज्ञान की दृष्टि से अचम्भे में डालने वाला होगा। कई स्थितियों में चिन्तन की क्रिया भावना के अधीन कार्य करती हैं। जो व्यक्ति संवेदनशील होगा, वह ऐसे क्षण में एक भावना की तरह तरंगायित होता है।

किसी एक वस्तु को लेकर भावुक हो जाना भावुकता है और यही भावुकता कुछ समय बाद स्थिर होकर संवेदना में परिवर्तित हो जाती है। भावुकता का स्थिर रूप ही संवेदना है। संवेदना भाव एवं भावुकता से अधिक व्यापक है। संवेदना का अनुभव सभी प्राणी करते हैं, परन्तु भावुकता को मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणी अनुभव नहीं कर पाते ।

संवेदना और चेतना : सबसे पहले यह जान लेना आवश्यक है कि चेतना की उत्पत्ति कैसे हुई? तथा संवेदना चेतना के साथ जुड़ी हुई है? चेतना शब्द की उत्पत्ति 'चित्त' शब्द से हुई है। इसका अभिप्राय 'चित्त' या मन होता है । अतः चेतना का शाब्दिक अर्थ चित्त या मन के विशेष भाव या उसकी अनुभूति से है। वृहत् हिन्दी कोश में चेतना का अर्थ “चैतन्य, ज्ञान, होश, याद, बुद्धि, चेत, जीवनी-शक्ति, जीवन, बुद्धि, विवेक से काम लेना, सोचना, विचारना आदि दिया गया है। अतः चेतना में नाना भान्ति की मानसिक क्रियाएं शामिल हैं, जैसे संवेदना, प्रत्यक्षीकरण, अवधारणा, चिन्तन, अनुभूति और संकल्प । इस प्रकार यह मन, बुद्धि और अहंकार का संश्लेष है। चेतना एक चिन्तनात्मक अभिवृत्ति का द्योतक है, जो व्यक्ति को स्वयं के प्रति तथा विभिन्न कोटि की स्पष्टता तथा जटिलता वाले पर्यावरण के प्रति जागरूक करती है। धीरेन्द्र वर्मा ने चेतना की अन्य प्रक्रियाओं को स्पष्ट करते हुये लिखा है, "मानस का यह भाग हमारी जागृत अवस्था में क्रियाशील रहता है। यह यथार्थ से संचालित होता है, विचारशील है। विवेक तर्क, ध्यान, संवेदना तथा प्रत्यक्ष इसकी प्रतिक्रियाएं हैं। अतः इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि चेतना शब्द से अभिप्राय मन की विशिष्ट दशा, भाव या अनुभूति होता है।

चेतना सदा चित्त में अन्तःस्थापित रहती है। इसी से मानव को बाह्य पदार्थों का ज्ञान होता है और इसी चेतना के उद्भूत होने से आन्तरिक अनुभूतियाँ होती हैं। पुष्पा ठक्कर इस सम्बन्ध में कहती हैं, "मनोविज्ञान के अनुसार चेतना मन की एक स्थिति है जिसके अन्तर्गत बाह्य जगत् के प्रति संवेदनशीलता, तीव्र अनुभूति का आवेग, चयन या निर्माण की शक्ति इस सबके चिन्तन प्रवर्तमान रहता है। ये सब बातें मिलकर किसी व्यक्ति की 'पूर्ण चैतन्य अवस्था' का निर्माण करती हैं। वास्तव में चेतना मनुष्य का अनिवार्य अंग है। अतः इसी चेतना से मनुष्य सृजन की ओर उन्मुख होता है। अगर यह कहें कि सृजनशीलता मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है, तो गलत नहीं होगा। परन्तु सृजनशीलता सभी की एक जैसी नहीं होती है। हमारी चेतना में जिससे सम्बन्धित विचार होंगे उसी क्षेत्र में हम सृजन कर सकेंगे। इसी चेतना के द्वारा ही मनुष्य स्वयं को बाहरी जगत् से संपृक्त भी करता है।

इस तथ्य को पहले भी स्वीकार किया जा चुका है कि संवेदना का सम्बन्ध मनुष्य के संवेदनों द्वारा ग्राह्य अनुभूति से है, जबकि चेतना को मस्तिष्क के अर्थ के रूप में स्वीकार किया गया । संवेदना में संवेगों की प्रधानता है तो चेतना में बुद्धि तत्व प्रधान है। संवेदना किसी वस्तु को एकदम छू लेने का भाव है, तो चेतना में भाव और ज्ञान दो प्रकार की वृत्तियाँ हैं । रसेल के अनुसार, "दोनों ही प्रकार की वृत्तियों में संवेदनाओं के रूप रहते हैं । भावमय वृत्ति की स्थिति में वे उजागर नहीं रहते जबकि ज्ञानमय वृत्ति की स्थिति में वे उजागर रहते हैं। अतः कहा जा सकता है कि चेतना मानव मस्तिष्क का वह गुण है, जिसके द्वारा मानव को सभी प्रकार की अनुभूतियाँ और ज्ञान प्राप्त होते हैं। चेतना के बिना मानव कोई भी कार्य नहीं कर सकता। इसीलिए संवेदना और चेतना के बीच अधिक दूरी नहीं है। बुद्धि, दर्शन, ज्ञान, विज्ञान, चिन्तन-मनन आदि को पहले जीवन में आत्मसात होना पड़ता है। उसके बाद मानवीय संवेदना, मानवीय चेतना का अंग बन सकती है और शक्तिशाली साहित्य की सृष्टि होती है। साहित्य में जो भाव - बोध, मूल्य-बोध, चिन्तन, चेतना प्रस्तुत होते हैं, वह सभी भी मानव चेतना का ही परिणाम हैं। संवेदना जब जागृत हो जाती है, तब चेतना अस्तित्व में आती है और नये मूल्यों की खोज करती है। यही मानव चेतना प्राचीन एवं आधुनिक सम्बन्धों की कड़ी बन साहित्य को संवेदना के माध्यम से चेतना से परिपूर्ण करती है ।

इससे स्पष्ट है कि किसी भी रचनाकार की संवेदना अपने युग की चेतना से प्रभावित होती है। युग चेतना के निर्माण में किसी भी युग के समस्त सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक कारणों का योग रहता है। संवेदना के द्वारा रचनाकार अपनी युग चेतना के प्रतिनिधित्व में एक विशेष भूमिका निभाता है। अतः उसे केवल माध्यम समझ लेना काफी नहीं, बल्कि वह तो युग चेतना के निर्माण में सक्रिय भूमिका भी अदा करती है।

संवेदना का स्वरूप

संवेदना समाज की वह आधारशिला है, जिस पर सभ्यता और संस्कृति की नींव टिकी हुई है। समाज में संवेदना सदैव बनती - बिगड़ती व मिटती रहती है। संवेदना ने ही समाज निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। समाज का सम्बन्ध मानव जगत् से है, अतः संवेदना का सम्बन्ध भी मानव जगत् से ही है। सभी प्रकार की संवेदनाओं का सम्बन्ध मानव के विवेक से ही होता है। विवेक से ही संवेदना का निर्माण होता है। दूसरी बात यह है कि सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक भावों आदि के प्रति संवेदना कैसी भी हो, वह केवल अनुभव के बल पर ही बनती और पनपती है। अतः अनुभवों का संवेदना के निर्माण और उसके विस्तार में बहुत बड़ा योगदान होता है। इस प्रकार कथा - साहित्य के माध्यम से साहित्यकार की संवेदना समाज में सम्प्रेषित होती है।

समाज के परिवर्तन के साथ ही लेखक या कृतिकार की संवेदना में भी युग से युग तक परिवर्तन होता है। संवेदना और युगबोध में सदैव मैत्री रहती है। यही मैत्री जिस कृति में गहरा रंग पकड़ती है, वह कृति समय की शिला पर अपने चिह्न अंकित करने में कामयाब होती है। संवेदना में रचनाकार की व्यक्तिगत अनुभूति के साथ समाजानुभूति का रसायन भी घुला होता है । संवेदना वस्तुतः जीवनानुभूति का ही उदात्त रूप है। वस्तुतः अनुभव बुद्धि का विषय है, तो अनुभूति चेतना का बोध ही संवेदना का मूल स्वरूप है। कथा - साहित्य में संवेदना लेखक की सचेतनता और सजगता का परिचायक है।

मनुष्य न केवल एक जीव है, बल्कि मन, बुद्धि सम्पन्न प्राणी भी है । इसलिए उसकी संवेदना जैविक धरातल पर ही न रहकर मन, बुद्धि की भूमि पर सक्रिय होती है। जिससे उसका स्वरूप जैविक संवेदना से अधिक विशिष्ट हो जाता है । मनुष्य की संवेदना इस धरातल पर पहुंचकर मात्र प्रतिक्रियात्मक न होकर चिंतन से भी जुड़ती है। इस सम्बन्ध में मुकुन्द द्विवेदी लिखते हैं, "साहित्यकार जिस युग में रहता है, उस युग के यथार्थ को अपनी संवेदना एवं व्यक्तित्व के अनुरूप ढालकर उसे नयी कृति के रूप में प्रस्तुत करता है। लेखक इस विशाल जीवन से मात्र अपनी व्यक्तिगत संवेदना और रुचि के अनुसार ही खण्ड - चित्रों को चुनता है । समूचा साहित्य विश्व के किसी भी साहित्य में एक स्थान नहीं पा सकता है।"" इस प्रकार स्पष्ट है कि लेखक अपने युग विशेष की संवेदना से जुड़कर साहित्य सृजन करता है।

प्रायः संवेदना का प्रयोग मानसिक अनुभव या अनुभूति के रूप में किया जाता है लेकिन संवेदना अनुभूति का पर्याय नहीं है । संवेदना मानसिक अनुभव मात्र भी नहीं है। राजमल बोरा के अनुसार, "संवेदना का एक भाग निश्चय ही अनुभूति से सादृश्य रखता है। स्पर्श और रस संवेदना को अनुभूति के अन्तर्गत लिया जा सकता है, लेकिन ऐसे संवेदनों से संवेदना का शुद्ध मानसिक होना पुष्ट नहीं होता।” अतः स्पष्ट है कि संवेदना के सूक्ष्म व स्थूल दोनों ही रूप हो सकते हैं। यह व्यक्ति विशेष के व्यवहार में झलकती है

संवेदना एक विकासमान तत्व है। ये काल के अनुसार बदलती रहती है। अपने युग का प्रतिनिधित्व करती हुई संवेदना का जन्म होता है और फिर यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। पुराने समाज की संवेदना जातीय, क्षेत्रीय तथा आध्यात्मिक थी । परन्तु 20वीं शताब्दी के साहित्य में मनुष्य का रूप कुछ बदला है। उसके जीवन के विभिन्न पक्षों का साहित्य में आना शुरू हुआ है। अनेक सभ्यताओं के मेल-मिलाप से संवेदना का क्षेत्र विस्तृत और व्यापक हुआ है।

संवेदना के प्रकार

संवेदना के कई प्रकार हैं। मानव संवेदनाएं कई प्रकार की होती हैं। मनोवैज्ञानिकों ने संवदेनाओं का वर्गीकरण इस प्रकार किया है-

(1) दृष्टि संवेदना, (2) ध्वनि संवेदना, (3) प्राण संवेदना, (4) स्पर्श संवेदना, (5) स्वाद संवेदना (6) मांसपेशीय संवेदना, ( 7 ) आतंरिक संवेदना, ( 8 ) सन्तुलन संवेदना । ये सभी एन्द्रिय संवेदनाएं हैं। यही एन्द्रिय संवेदनाएं बाद में वैचारिक संवेदनाओं में परिवर्तित होती हैं। किसी वस्तु को देखने, उसे खाने या महसूस करने की स्थिति में प्रतिक्रिया के तौर पर हमारे मन में उसके पक्ष और विपक्ष में कई तरह के विचार उत्पन्न हो जाते हैं। समाज में रहते हुए इसका प्रभाव फिर हमारे समाज पर भी पड़ता है। इसी तरह फिर समाज में भी परिवर्तन होता है। इस प्रभाव के फलस्वरूप संवेदना भी बदल जाती है। साहित्य में संवेदना का प्रयोग स्नायविक संवेदनाओं की अपेक्षा मनोगत संवेदनाओं के लिए अधिक हुआ करता है। इस दृष्टि से अनुभूति एवं भावप्रवण व्यक्ति की संवदेनाएं अधिक जागृत संवेदनाएं होती हैं। वे अधिक संवेदनशील होती हैं।

संवेदना समाज की वह आधारशिला है, जिस पर सभ्यता और संस्कृति का निर्माण होता है। समाज में संवेदना मिटती और बदलती रहती हैं। प्रत्येक साहित्यकार अपने अनुभवों के प्रतिबद्ध होता है। उसकी कला उसकी उन अनुभूतियों को समर्पित हो जाती है। धर्म, देश, जाति और संस्कृति की शक्तियाँ इस समर्पण के लिए उत्तरदायी मानी जाती है। अतः संवेदना एक आन्तरिक अनुभूति है, जो मनुष्य के स्नायु तंत्रों द्वारा ग्रहीत की जाती हैं |

यह सत्य है कि जीवन जगत् में परिवर्तन आने से लेखक के कृतकार्य की संवेदना में भी परिवर्तन आ जाता है। साहित्य संवेदना में परिवर्तन के पीछे जीवन जगत् संवेदना का बदलाव होता हैं। उदाहरण स्वरूप पिछले कई वर्षों से जो मोहभंग का सिलसिला शुरू हुआ, उसमें एक ओर असमर्थता तथा असहायता थी, तो दूसरी ओर दबा हुआ असन्तोष था, जो बाद में आक्रोश तथा विद्रोह के रूप में फूटा । एक वर्ग की निरन्तर सम्पन्नता दूसरे वर्ग की बढ़ती जा रही विपन्नता का पर्दाफाश करने के लिए विवश हो उठती है । इसी तरह के परिवर्तन जीवन संवेदना और इसके परिणामस्वरूप साहित्य संवेदना में परिवर्तन के लिए उत्तरदायी होते हैं ।

जैसे-जैसे मनुष्य की संवेदना का विस्तार होता है, वैसे-वैसे ही उसका विवेक विकसित होता जाता है। मूलतः बोध का अर्थ ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त अनुभव है। परन्तु संवेदना वस्तुपरक होते हुए भी व्यक्ति सापेक्ष है और साहित्य में इसका प्रयोग मनोगत संवेदनाओं के लिए अधिक होता है। इस दृष्टि से अनुभूति युक्त व्यक्ति अधिक संवेदनशील होता है। एक साधारण सी घटना, जिसकी ओर एक सामान्य व्यक्ति का ध्यान भी आकृष्ट नहीं होता, संवेदनशील व्यक्ति के मन में भावनाओं का तूफान जगा देती है । साधारणतः संवेदना मन की प्रतिक्रिया की शक्ति है, जिसके द्वारा व्यक्ति के सुख - दुःख को समझकर उससे अपना तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस प्रकार जीवन का व्यापक अनुभव, ज्ञान या प्रतीति ही संवेदना है।

संवेदना की विशेषताएं

खोज एवं गवेषणा मुनष्य की सहज प्रवृत्ति है। मनुष्य अपने विवेक कौशल के माध्यम से सामाजिक आयामों को विवेचित एवं विश्लेषित कर उन्हें नए रूपों के अन्तर्गत प्रतिस्थापित करता है। विवेकशील प्रवृत्ति होने के कारण जब वह किसी घटना या दृश्य को देखता है, तो उस दृश्य अथवा घटनात्मक परिवर्तन के अनुरूप उसके मन में जो अनुभूति उत्पन्न होती है, उसे संवेदना कहते हैं।

संवेदनाएं शारीरिक और मानसिक दो प्रकार की होती हैं। भूख प्यास, थकान आदि शारीरिक संवेदनाएं हैं, ये मनुष्य के शरीर की आन्तरिक दशाओं के परिवर्तित होने पर अनुभूत होती हैं। संवेदनाएं गुणों का अंकन होने पर ही ज्ञात होती हैं। जब तक अर्थज्ञान नहीं होता है, तब तक संवेदना का ज्ञान नहीं हो पाता। अर्थज्ञान होने पर संवेदना का प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाता है। इसी प्रकार एक प्रत्यक्ष नवजात शिशु की संवेदनाएं विशुद्ध होती हैं, किन्तु प्रौढ़ों की, शरीर के पूर्ण विकास के समय की संवेदनाएं विशुद्ध न होकर संश्लिष्ट बन जाती हैं। इसका कारण यह है कि प्रौढ़ों के अनुभव इतने समृद्ध होते हैं कि जैसे ही उन्हें कोई संवेदना होती है, वे उस संवेदना का अर्थ अपने अनुभवों के कारण शीघ्र ही समझ जाते हैं। जबकि नवजात शिशु के लिये संवेदनाओं का अर्थ जानना असम्भव होता है। दूसरी प्रकार की मानसिक संवेदना (मानव मन में संवेदना) अधिकतर दुःखित अवस्था में ही अनुभूत होती हैं। इस जीवन में सुख और दुःख दो प्रकार की अनुभूतियों को मनुष्य अनुभव करता है। और इनमें भी दुःख प्रधान रहा है। रसेल ने सुख और दुःख के विषय में कहा भी है, "सुख संवेदना का लक्षण या अन्य मानसिक घटना है जिसमें किसी घटना के प्रेरित या संकल्पित परिवर्तन के कारण उक्त घटना के घटित होने को प्रवर्द्धित किया जाता है और 'दुःख' संवेदना का लक्षण या मानसिक घटना है, जिसमें किसी घटना के बावत प्रेरित या संकल्पित परिवर्तन के कारण कम या अधिक परिवर्तन उक्त घटना के अवसान में होता है।" रसेल की इस परिभाषा से स्पष्ट है कि सुख और दुःख मानसिक घटनाएं हैं, जिन्हें मानव मन अपने व्यक्तिगत जीवन में अनुभव करता है। जैसे भूख से व्याकुल बच्चे का रूदन सुन कर द्रवित हो उठना या अबला नारी की स्थिति को देखकर आंखों में आंसू आ जाना। इसके विपरीत मनोहारी संगीत सुनते ही रोमांचित हो उठना । यह एक सामान्य व्यक्ति की संवेदना है, जो घटना को देखता है और तद्नुरूप हो जाता है। उसके अन्दर घटना के प्रति स्पंदन तो उत्पन्न होता हैं परन्तु वह उसके रचनात्मक पहलू तक न पहुंच कर अपनी सीमा में रह जाता है।

संवेदना काल्पनिक एवं अनुभवात्मक मानसिक प्रक्रिया है । यह त्वचा से आने वाले स्नायु प्रवाहों द्वारा पैदा होती है। यह ज्ञान शक्ति एवं तर्क शक्ति का सफल पुंज है। एक संवेदनशील मनुष्य सृजन क्षमता के विभिन्न आयामों को प्रतिस्थापित करता है। डी०एस० रावत का मानना है, "हमारे ज्ञान का आधार संवेदना है। किसी भी उत्तेजना के कारण व्यक्ति में प्राथमिक प्रतिक्रिया होती है । उत्तेजना के प्रति व्यक्ति की प्राथमिक प्रतिक्रिया को ही संवेदना कहते हैं। स्पष्ट हैं संवेदना मस्तिष्क की एक सामान्य व सरलतम शक्ति होती है। यह वैचारिक क्षमता पर आधारित होती है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जो रचना को जन्म देने से लेकर रचना बनने तक ही सीमित नहीं रहती, वरन् अपनी विशालता एवं व्यापकता के द्वारा पाठकीय संवेदना को भी प्रभावित करती है। यह काल्पनिक नहीं वरन् वास्तविक व प्रत्यक्ष सत्ता है। मनुष्य के मस्तिष्क में अनेक संवेदनाएं जन्म लेती रहती हैं, यही संवेदनाएं उसके दैनिक व्यवहार में भी परिवर्तन करती रहती हैं।

संवेदना का सम्बन्ध मानसिक घटना एवं भौतिक घटना से है। यह समाज एवं व्यक्ति विशेष की सुख-दुःख की अनुभूति कराती है। किसी कृतिकार की संवेदना को समझने के लिए उस युग की भौतिक घटनाओं एवं मर्यादाओं को समझना अभिप्रेत है। तभी कृतिकार की भावसम्पदा को समझा जा सकता है। भावों की उत्पत्ति सामाजिक गतिविधियों के कारण होती है, इसलिए संवेदना वैचारिक क्षमता का प्रतिरूप हैं। एस०एस० माथुर का मानना हैं, “संवेदना मस्तिष्क की एक सामान्य तथा सरलतम प्रतिक्रिया है। 2 अर्थात् मन ही संवेदना का मूल स्थान है, जहाँ से संवेदना उद्भूत होती है।

संवेदना दो रूपों में प्रकट होती है- शारीरिक और मानसिक शारीरिक संवेदनाएं, शरीर की थकान, भूख प्यास से उत्पन्न होती हैं। एक किसान को सारे दिन कड़ी मेहनत करने से थकान एवं शरीर की शिथिलता की संवेदना का आभास होता है। मानसिक संवेदना मन एवं अन्तश्चेतना की परिवर्तनशीलता की परिचायक होती है। मनुष्य के मन में जब किसी घटना विशेष को देखकर सुख दुःख का आभास होता है। मनुष्य का यही अन्तर्द्वन्द्व मानसिक संवेदना एवं समझ को प्रभावित करता है। यही आन्तरिक हलचल मनुष्य की अन्तश्चेतना का प्रतिरूप ही है, जिसके माध्यम से संवेदना नया रूप एवं आकार ग्रहण करती रहती है।

आचार्य नन्द किशोर संवेदना को स्पष्ट करते हुए कहते हैं, "संवेदना वह यन्त्र है जिसके सहारे जीवयष्टि अपने से इतर सब कुछ के साथ सम्बन्ध जोड़ती है। वह सम्बन्ध एक साथ ही एकता का भी है और भिन्नता का भी, क्योंकि उसके सहारे जहाँ जीव यष्टि अपने से इतर जगत् को पहचानती है, वहाँ उससे अपने को अलग भी करती है। इस प्रकार से स्पष्ट है कि संवेदना के बिना साहित्यिक विधाओं का किंचित मात्र भी अस्तित्व नहीं होता है क्योंकि यह साहित्यकार की आन्तरिक शक्ति को सफल आयाम प्रदान करती है।

सृजनकर्ता के मस्तिष्क में अनेक भावों का संग्रह होता है। उन सभी भावों को वह अपनी कृति में शब्दबद्ध नहीं करता, वह उन्हें तर्क की कसौटी पर कसकर एवं परिष्कृत तथा परिमार्जित कर नये रूप एवं आकार में अभिव्यंजित करता है। इसके लिए वह अपनी संवेदना शक्ति का सहारा लेता है। संवेदना की श्रेष्ठता एवं प्रभविष्णुता के बिना कृति का अपना कोई महत्त्व नहीं होता है।

इस तरह संवेदना होश, समझ, ज्ञान एवं विवेक का ही प्रतिरूप है। यह पूर्वज्ञान एवं काल्पनिक ज्ञान पर आधारित होती है। अतः संवेदना मन से उत्पन्न होने वाली ऐसी प्रक्रिया है, जो रूप आकार एवं गति द्वारा उत्पन्न होती है। इसका सम्बन्ध सुख-दुःख देखकर मन में होने वाली अनुभूति से लगाया जा सकता है क्योंकि यह शारीरिक और मानसिक घटना का ही योगफल होती है।

संवेदना व्यक्ति के मन की गतिशीलता एवं विकासशीलता का पर्याय मात्र है। यह अनुभवों एवं अनुभूतियों का प्रत्यक्ष रूप है। यह मनुष्य की वैचारिक शक्ति के विकास के साथ-साथ अपना रूप आकार ग्रहण करती है, इसलिए यह मनुष्य की नाना जीवनानुभूतियों का ही परिष्कृत रूप है। यह मनुष्य के ज्ञान, विवेक एवं कौशल का बोध कराती है, इसलिए इसका सम्बन्ध मानव विवेक से ही है।

संवेदना समाज एवं व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करती है क्योंकि समाज में रहकर ही मनुष्य की भाव सम्पदा का पुनः निर्माण होता रहता है। यही भाव उत्तेजना की सीमा को लांघकर संवेदना के रूप में प्रकट होते हैं। इस प्रकार साहित्यकार समाज और परिवेश की घटनाओं और प्रघटनाओं को देखकर जो प्रतिक्रिया अभिव्यक्त करता है, यही उसकी संवेदना कहलाती है। 

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि संवेदना मनुष्य की चिन्तन क्षमता एवं विभिन्न अनुभूतियों का सफल परिणाम है। यह मनुष्य के ज्ञानालोक का ही प्रतिरूप है। मानव सामाजिक प्राणी होने के कारण विभिन्न अनुभवों को आत्मसात करता है। यही अनुभव अनुभूति का रूप धारण कर संवेदना के रूप में प्रकट होते हैं ।

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