शिल्प का अर्थ, परिभाषा, स्वरूप एवं विशेषताएं

शिल्प वह माध्यम है, जिसके द्वारा रचनाकार अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति करता है। मन में उठने वाले अमूर्त भावों को मूर्त अथवा साकार रूप प्रदान करने के लिए रचनाकार जिन प्रविधियों भाषा, शैली, बिम्ब आदि का प्रयोग करता है, वास्तव में वहीं प्रविधियां शिल्प कहलाती हैं। लेखक की शिल्प-विधि विशेष के द्वारा ही कोई साहित्यिक कृति कालजयी बन पाती है। अपनी विशिष्ट भाषा व शैली के द्वारा रचनाकार मन में उठने वाले भावों को मूर्त रूप देकर ठीक उन मनोभावों जैसा प्रभाव पाठक अथवा श्रोता के मानस पटल पर भी उत्पन्न करता है ।

शिल्प का अर्थ एवं परिभाषा

शिल्प भावों की अभिव्यक्ति का साधन है, जिसके अभाव में कोई भी विचार या रचना पूर्ण नहीं हो सकती । साधारणतया शिल्प से अभिप्राय हाथ से कोई वस्तु तैयार करने, दस्तकारी, चित्रकारी तथा कारीगरी से है, परन्तु साहित्य के संदर्भ में शिल्प से अभिप्राय भावों तथा अनुभूतियों की अभिव्यक्ति से है। कोई भी रचनाकार जब अपने भावों व अनुभूतियों को अभिव्यक्त करना चाहता है, तो उसे 'शिल्प' का सहारा लेना पड़ता है, क्योंकि शिल्प ही एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा आन्तरिक भावों तथा अनुभूतियों की अभिव्यक्ति सम्भव है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि शिल्प के माध्यम से ही रचनाकार अपनी अमूर्त और निराकार अनुभूतियों को मूर्त तथा साकार रूप प्रदान करता है। चूंकि भावों की सशक्त अभिव्यक्ति का साधन 'शिल्प' है, तो इसी के माध्यम से रचनाकार अपनी विविध संवेदनाओं को शब्दों में रूपायित करता है। शिल्प के द्वारा रचनाकार की मर्यादा व दूरदर्शिता प्रदर्शित होती है। अनुभूति पक्ष पर निर्भर होने के कारण ही शिल्प को रचनाकार के अनुभवों एवं विचारों के रूपायन का माध्यम भी कहा जाता है। 'शिल्प' के अनेक कोशगत अर्थ प्रकट किए गए हैं।

'संस्कृत-हिन्दी कोश' के अनुसार, "शिल्प शब्द की व्युत्पत्ति शिल' धातु (शिलीछ) और 'पक्' प्रत्यय (शिल+पक) से हुई है।" अर्थात् शिल्प शब्द शिल धातु के साथ पक् प्रत्यय के योग से बना है- शिल्प, जिसका अभिप्राय कारीगरी अथवा हुनर से लिया जाता है।

ज्ञान शब्दकोश में शिल्प का अर्थ इस प्रकार से है, "कला आदि कर्म, हुनर, कारीगरी, स्तुवा शास्त्र- वह शास्त्र विद्या, ग्रन्थ जिसमें शिल्प सम्बन्धी निर्माण का ज्ञान, विवेचन हो, शिल्प विद्या, शिल्प विधान कहा जाता है। "2 अतः किसी वस्तु के निर्माण में प्रयुक्त कला अथवा विधि, कर्मकार का हुनर या कारीगरी को शिल्प कहा जाता है।

नालन्दा विशाल शब्द सागर में 'शिल्प' का अर्थ है, "कोई वस्तु हाथ से बनाकर तैयार करने का काम, दस्तकारी, कारीगरी, कला सम्बन्धी व्यवसाय । स्पष्ट है कि जिस कारीगरी या विशेष दक्षता के साथ शिल्पकार किसी वस्तु को अपने हाथ से तैयार करता है, शिल्प कहलाता है।

वृहत् हिन्दी कोश के अनुसार, "कला आदि कर्म (वात्स्यायन ने चौंसठ कलायें गिनाई हैं।) हुनर, कारीगरी, दक्षता, हस्तकर्म, रूप, आकृति, निर्माण, सृष्टि, धार्मिक कृत्य, अनुष्ठान आदि । अर्थात् कर्मकार का वह विशेष हस्तकर्म, जिससे वह किसी नई वस्तु की रचना करता है। अपने कला कौशल से वह मन में स्थित आकृति या रूप को स्थूल आकार देकर नव-निर्मिति की ओर अग्रसर होता है।

मानक अंग्रेजी-हिन्दी कोश में शिल्प का अर्थ है, "शिल्प शब्द अंग्रेजी के 'टेकनीक' शब्द का हिन्दी पर्याय हैं, जिसका अर्थ है प्रविधि, शिल्प-विधान, प्रक्रिया, शिल्प- कौशल, कला- प्रवीणता इत्यादि । "" स्पष्ट है कि शिल्प का सम्बन्ध व्यक्ति से न होकर विषय वस्तु तथा विधा- विशेष की प्रकृति के साथ होता है।

कॉलिन्स कोबिल्ड इंग्लिश डिक्शनरी के अनुसार, "तकनीक किसी क्रियाकलाप को करने की विशेष विधि है। आमतौर पर यह विधि व्यावहारिक कौशलों में शामिल रहती है। अतः कहा जा सकता है कि शिल्प एक विशेष प्रकार की रीति है, जो बहुधा व्यावहारिक अथवा प्रायोगिक हथकण्डों में पाई जाती है।

विभिन्न कोशों द्वारा दिए गए 'शिल्प के अर्थ से यह स्पष्ट होता है कि साहित्य की किसी भी विधा के सृजन में मानसिक और भौतिक तत्व शिल्प के लिए बीज रूप में प्रेरणा स्वरूप सहायक सिद्ध होते हैं। शिल्प ही साहित्यिक कृतियों के कलात्मक सौन्दर्य के निमित्त संरचना को कालजयी बनाने में समर्थ होता है। विभिन्न संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी शब्दकोशों के मंथन से शिल्प का अर्थ- रचना, क्रिया-कौशल, कला-कौशल आदि प्रक्रिया में कुशलता प्राप्त करने से है। चूंकि कोई भी कलाकृति अथवा रचना तभी विशिष्ट लगने लगती है, जब साहित्यकार अपनी कला और बुद्धि तत्व को लेकर नैसर्गिक कला के प्रदर्शन के लिए शिल्प को निर्मित करता है। 'शिल्प' को विभिन्न विद्वानों ने परिभाषित किया है।

लक्ष्मीनारायण लाल 'शिल्प' के विषय में अपना मत प्रस्तुत करते हैं, "शिल्प विधि का बोध अंग्रेजी के 'टेकनीक' शब्द से लिया जाता है। टेकनीक का अर्थ है ढंग, विधान, तरीका, जिसके माध्यम से किसी लक्ष्य की पूर्ति की गई हो। यह लक्ष्य भौतिक जीवन में किसी वस्तु अथवा मनोवांछित तत्व की प्राप्ति से सम्बन्ध रखता हो और कला के क्षेत्र में लक्ष्य से अभिप्राय है- सम्पूर्ण भावाभिव्यक्ति का प्रकार ।" अतः स्पष्ट है कि अपने किसी भाव को सुनिश्चित रूप देने के लिए रचनाकार द्वारा जो विधान प्रस्तुत किया जाता है, वही उसकी कला अथवा रीति कहलाती है। अपनी इसी विशेष रचना पद्धति से वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति करता है।

रेणु शाह के अनुसार, "किसी भी चीज़ की कल्पना लेखक पहले अपने मस्तिष्क में करता है। उसके अवचेतन में एक धुंधली छाया होती है। उसी को वह अपने मानसिक धरातल पर साकार रूप देता है और देने का ढंग ही उसका शिल्प कहलाता है ।"" स्पष्टतः कहा जा सकता है कि साहित्यकार द्वारा अपने मन के भावों को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने की कला शिल्प कहलाती

शिवपाल सिंह 'शिल्प' को परिभाषित करते हुए कहते हैं, "कलाकार अप मन में छिपी हुई भावनाओं को साकार और मूर्त रूप प्रदान करने हेतु जो विधियाँ, जो तरीके, जो ढंग अपनाता या स्वीकार करता है, उन्हें शिल्प विधान के अन्तर्गत रखा जा सकता है। 2 अर्थात् जिस प्रविधि द्वारा रचनाकार अपनी अनुभूति एवं विचारों का अपनी रचना में बिम्ब उभारता है, वास्तव में वह प्रविधि ही शिल्प कहलाती है। इस प्रविधि के द्वारा रचनाकार अपनी मानसिक संवेदना को लिखित रूप में सहृदय पाठक के समक्ष मूर्त रूप में प्रस्तुत करता है ।

बैजनाथ सिंहल 'शिल्प के सम्बन्ध में कहते हैं, " अनुभूति के कलात्मक प्रकाशन में प्रयुक्त सुनियोजित शब्द समूह ही शिल्प है।" स्पष्ट है कि रचनाकार अपने रचनाकौशल एवं शिल्प विधि द्वारा रचना का रूप या ढांचा खड़ा करने के लिए जिन-जिन घटकों (भाषा, शैली, बिम्ब) का प्रयोग करता है, वास्तव में उन्हीं घटकों के समन्वित रूप का नाम शिल्प है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि शिल्प उन तमाम उपादानों, साधनों व तत्वों का समाहार है, जिसके माध्यम से किसी कृति अथवा वस्तु का सौन्दर्य उजागर होता है। साहित्य के परिप्रेक्ष्य में रचनाकार की संवेदना जिन उपादानों के माध्यम से पाठकों के सम्मुख अभिव्यक्त होती है, उन्हें शिल्प की संज्ञा से विभूषित किया जाता है। शिल्प रचनाकार की शब्द योजना, वाक्यों की बनावट और ध्वनि का मिश्रण होता है अर्थात् रचना रचने के तरीकों, रीतियों और विधियों का समन्वित रूप ही शिल्प कहलाता है। एक सफल कृतिकार अपने शिल्प कौशल से प्रभावी रचना का निर्माण करके प्रबुद्ध पाठक जन की बौद्धिक क्षमता का विकास करने के साथ-साथ समाज कल्याण का कार्य भी सफलता के साथ करता है।

शिल्प का स्वरूप

मनुष्य एक संवेदनशील प्राणी है और संवेदनाओं को अभिव्यक्त करना उसकी जन्मजात प्रवृत्ति है । परन्तु यह भी सर्वविदित है कि प्रत्येक व्यक्ति की संवेदनाओं की अभिव्यक्ति एक जैसी नहीं होती । रचना के समय रचनाकार के समक्ष उनके आस-पास केन्द्रित परिवेश तथा समाज से अर्जित भोगे हुए अनुभवों को एक निश्चित स्वरूप में ढालने के लिए ही शिल्प का प्रश्रय लिया जाता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि शिल्प विचारों की अभिव्यक्ति का वह सशक्त माध्यम है, जिसे रचनाकार अपनी चेतन क्षमताओं, संवेगों, भावनाओं, चिंतनानुभूतियों की सार्थक अभिव्यक्ति के लिए अपनाता है। अतः स्पष्ट है कि शिल्प को माध्यम बनाकर रचनाकार शिल्प की रचना की अन्तर्वस्तु के रूप में गढ़ कर ही रचना के कलेवर को सजाता-संवारता है। शिल्प ही वह तत्व है, जो किसी भी मूल्य पर बाहर से आरोपित नहीं किया जा सकता। यही शिल्प की सबसे बड़ी विशेषता है। रचनाकार कृति का निर्माण करते समय पूर्व-विवेचित उपकरणों या तत्वों का गहन अनुशीलन कर रचना करने में लीन रहता है, जो कि रचना को एक विशेष रूप प्रदान करने में विशेष भूमिका निभाते है।

'शिल्प' को यदि स्वाभाविक प्रस्फुटन मान लिया जाए, तो शिल्पित करने का अर्थ ही नहीं रह जाता। अर्थात् शिल्प सहज प्रस्फुटन नहीं बल्कि रचनाकार द्वारा किया जाने वाला प्रयास है, जो प्रतिभा और कुशलता के संयोग से पूर्ण होता है। रचनाकार अपने चारों ओर के जीवन से प्रभावित रहता है तथा प्रेरणा भी लेता है। वह अपने भावों और अनुभूतियों को भाषा और शैली की सूक्ष्मता तथा कुशलता के साथ अपनी रचना में अभिव्यक्त करता है। साहित्य में कुल मिलाकर यही सब कुछ 'शिल्प' के स्वरूप का निर्धारण करता है। सत्यपाल चुघ ने 'शिल्प' में सजग प्रयत्न को स्वीकारते हुए लिखा है, "किसी न किसी पूर्व योजना को हमें स्वीकार करना पड़ता है। किसी न किसी प्रकार के पूर्व चिन्तन, परिकल्पना या मनः रचना के बिना उपन्यासकार कृतकार्य नहीं हो सकता। अतः किसी रचना का निर्माण करने से पूर्व रचनाकार को ठोस चिन्तन व कल्पना से गुजरना पड़ता है, तभी वह कृति के कुशल निर्माण में सफल हो पाता है।

'शिल्प' के बाह्य स्वरूप का सम्बन्ध कला पक्ष से है। इसके द्वारा रचनाकार मानसिक अनुभूतियों को प्रकट, मूर्त तथा साकार रूप में परिवर्तित करता है। रचनाकार भाषा, शैली, शब्द-योजना तथा अन्य कई विधियों व तरीकों के माध्यम से अनुभूतियों को अभिव्यक्त करता है। श्रीमती ओम शुक्ल के अनुसार, "शिल्प विधि जब भाषा का परिधान धारण कर और लिपिबद्ध होकर हमारे सामने आती है, तब यह अमूल्य या अलक्ष्य न रहकर सर्वथा मूर्त एवं साकार हो उठती है।" इस प्रकार अमूर्त से मूर्त रूप में आने पर शिल्प का बाह्य स्वरूप या दृश्य स्थापित हो जाता है। मूर्त रूप में स्थापित होने से शिल्प प्रकट व ठोस बन जाता है। साहित्यकार को अपने आस-पास के परिवेश से आन्तरिक अनुभूतियाँ तो प्राप्त हो जाती हैं परन्तु उन्हें ठोस एवं मूर्त रूप प्रदान करने के लिए उसे अभ्यास की आवश्यकता पड़ती है। कहने का अभिप्राय है कि शिल्प का बाह्य स्वरूप अभ्यास साध्य है। रचनाकार के मस्तिष्क में यदि भावों और अनुभूतियों का प्रस्फुटन हो रहा हो, तो वह अध्ययन, शिक्षा और अभ्यास द्वारा शिल्प के बाह्य स्वरूप को सार्थक बना सकता है।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि शिल्प वह माध्यम है, जिससे रचनाकार की अव्यक्त अन्तः व बाह्य प्रेरणाएँ अभिव्यक्त हो पाती हैं। शिल्प के अभाव में भाव जगत् अनाभिव्यक्त रह जाता है। शिल्प रचनाकार के लिए साधन है, साध्य कदापि नहीं। साहित्य जगत् में बाह्य कलेवर में रचनाकार को अपने अनुभव पाठकों के समक्ष संवेदन स्वरूप अभिव्यक्त करने होते हैं। ऐसी स्थिति में शिल्प साहित्य विधा में रचना प्रक्रिया द्वारा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। रचनाकार द्वारा साहित्य सृजन के लिए प्रयुक्त विविध विधियाँ, रीतियाँ व तरीकों आदि को समझते हुए रचना कर्म की ओर प्रवृत्त होना पड़ता है। इसके लिए उसे अनिवार्य रूप में शिल्प विधि का समुचित ज्ञान होना भी आवश्यक है। वास्तव में शिल्प वस्तु विषय अथवा अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए उस प्रक्रिया का वैशिष्टय है, जो कलाकृति को सम्पूर्ण सार्थकता तथा सौन्दर्य के लिए किए गए सभी विधान, व्यवस्थाएं, विधियाँ, रूप-गठन आदि विविध योजनाओं को शिल्प प्रक्रिया में लेकर पाठकों के सामने मुखरित करने में सक्षम होता है। मूलतः रचनाकार साहित्य सृजन के लिए अपने अतीत में भोगे हुए खट्टे-मीठे अनुभवों को पैनी दृष्टि से अभिव्यक्त करने में जुट जाता है। वह जीवन की संवेदनशील मार्मिक घटनाओं को चुनता है और शिल्प स्वरूप (आन्तरिक, बाह्य) का प्रश्रय लेकर रचना के ताने-बाने को बुनता है। रचना प्रक्रिया के लिए जो भी उपकरण उसे बाह्य या भीतरी साक्ष्य के आधार पर कृति के लिए जुटाने होते हैं, उनमें शिल्प का स्वरूप महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

शिल्प की विशेषताएं

किसी भी कलात्मक या साहित्यिक कृति की रचना-प्रक्रिया ही शिल्प विधि मानी जाती है। रचनाकार अपने मनोभावों को व्यक्त करने के लिए जिस ढंग का प्रयोग करता है, उसे शिल्प विधि के रूप में जाना जाता है। रचनाकार के मन में पहले से ही कोई निश्चित रूप रेखा या तथ्यगत आधार नहीं होते। उसके मन-मस्तिष्क में केवल भाव और अनुभूति की घनीभूत प्रेरणा होती है। शिल्प विधि के माध्यम से वह अपनी अनुभूति को अभिव्यक्ति के द्वार तक ले जाता है, जहाँ उसकी रचना अलग-अलग रूप धारण कर पाठकों तक सम्प्रेषित होती है।

शिल्प का सम्बन्ध अभिव्यक्ति और अभिव्यंजना से है। किसी लेखक के शिल्प में हम उसके द्वारा प्रयुक्त विविध विधियों-प्रविधियों, क्रियाओं-प्रक्रियाओं, रचना- कौशल तथा उसकी अभिव्यक्ति का अध्ययन करते हैं। सृजन क्रिया को विकासक्रम में रखा जाए, तो सर्वप्रथम रचनाकार अपने परिवेश, स्थितियों - परिस्थितियों से संवेदनाओं को ग्रहण करता है। सभी संवेदनाएं अनुभूतियाँ नहीं बनती। उनमें से अनुकूल संवेदनाओं का अनुभूति में विकास होता है। रचनाकार आत्म-साक्षात्कार और तथ्यात्मक स्थिति से अपनी भावात्मक स्थिति का विकास करता है। तब कल्पना की सहायता से बिम्ब- गठन कर उन्हें उसी क्रम और सच्चाई से व्यक्त करता है। इसके लिए कलाकार किसी न किसी माध्यम का आश्रय लेता है क्योंकि "भौतिक उपादानों के माध्यम से व्यक्त हुए बिना अमूर्त अनुभूतियों का अस्तित्व कुछ अर्थ नहीं रखता।"" अर्थात् रचनाकार की भावात्मक संवेदना लिखित रूप में अभिव्यक्त होकर मूर्त रूप प्राप्त करती है। यह सम्पूर्ण मूर्त और सफल अभिव्यक्ति शिल्प के माध्यम से पूर्ण हो पाती है।

शिल्प की प्रकृति संश्लेषणात्मक है, विश्लेषणात्मक नहीं । विश्लेषण से शिल्प का अस्तित्व खण्डित हो जाता है, तत्व अलग-अलग होकर शिल्प रूप नहीं रहते हैं। इसीलिए शिल्प के तत्वों की खोज मात्र विश्लेषण और आलोचना हेतु नहीं की जाती । शिल्प आवश्यकतानुसार परम्परा के प्रतिकूल तत्वों को नकारता हुआ रूढ़ि का विरोध करता है। इस प्रकार शिल्प की विकासशील प्रकृति स्पष्ट होती है । साहित्य का विषय जीवन है और जीवन जीवन्त और गतिशील होता है। अतः ऐसी विधाओं का शिल्प जिनका वर्ण्य विषय मानव और उसके जीवन की गतिशीलता है, स्वयं गतिशील और विकासशील होता है ।

शिल्प अर्जित होता है, यह लेखक की प्रतिभा व कुशलता पर निर्भर करता है। इसमें कल्पना का बहुतायत महत्त्व रहता है क्योंकि समृद्ध कल्पनाशील व्यक्ति ही साहित्यिक शिल्प प्राप्त कर सकता है। शिल्प विधान में लेखक की सृजनात्मकता का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है । परन्तु कुछ विद्वान जहाँ शिल्पकारिता है वहीं कला को स्वीकारते हैं। हालांकि दोनों में पर्याप्त अन्तर है। मौलिकता, नवीनता और उत्कृष्टता कला का अनिवार्य गुण है। कला संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसके कोमल, मधुर, सुन्दर आदि अर्थ होते हैं। इस दृष्टि से कला मानव के आनन्द प्राप्ति का एक वैशिष्टय है, वह स्वतः स्फुरित होती है। वह सदैव साहित्य को नवीन स्वरूप प्रदान करने की क्षमता रखती है। उसका सम्बन्ध कौशल से है, जिसके माध्यम से रचनाकार अपने भाव या विचार व्यक्त करता है। शिल्प किसी कृति की रचना-प्रक्रिया होता है। वह जन्मजात न होकर अभ्यास से आता है।

शिल्प एक रचनात्मक मूल्य भी है। विद्वानों ने 'शिल्प शब्द को रचना के कौशल के रूप में स्वीकार किया है। किसी भी कला में उसके शिल्प का विषय से अत्यन्त करीबी सम्बन्ध होता है। संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी या अन्यान्य साहित्य में देखा जाए, तो शिल्प शब्द कहीं न कहीं रचना तथा रचना में कुशलता अर्थात् कौशलपूर्ण रचना से जुड़ा लगता है। शिल्प के द्वारा रचनाकार अपने कथा साहित्य को सरस, लोकप्रिय बनाता है। प्रत्येक साहित्यिक विधा का शिल्प स्वतंत्र होता है। अपनी अनुभूतियों के सम्प्रेषण के लिए रचनाकार शिल्प का ही सहारा लेता है। इस प्रकार शिल्प और साहित्य रचना एक-दूसरे से सम्बद्ध होने के कारण दोनों को अलग-अलग रूपों में नहीं देखा जा सकता ।

अतः निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि शिल्प किसी भी साहित्यिक रचना का शरीर होता है। शिल्प का सम्बन्ध अनुभूति या संवेदना की अभिव्यक्ति से है। शिल्प से रचनाकार अपने दृष्टिकोण, उद्देश्य आदि की अभिव्यक्ति करता है। अतः साहित्य में शिल्प की अनिवार्यता स्पष्ट है। शिल्प के कारण ही साहित्य की अनेक विधाएँ भिन्न-भिन्न रूप धारण करती हैं। रचनाकार अपने अमूर्त और सूक्ष्म भावों, अनुभूतियों को शिल्प के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। रचनाकार समाज की घटनाओं तथा परिस्थितियों से प्रभावित होकर अपने शैल्पिक कौशल तथा प्रतिभा के माध्यम से रचना में प्राण फूंक देता है। वह अपनी अमूर्त संवेदनाओं को शिल्प के आधार पर मूर्त रूप देने में प्रयासरत रहता है। शिल्प के द्वारा ही रचनाकार पाठकों की मार्मिकता और संवेदनशीलता से तादात्म्य स्थापित कर सकता है। शिल्प और रचना का संतुलन भी आवश्यक है क्योंकि शिल्प के अति प्रयोग के कारण रचनाकार को असफलता भी प्राप्त हो सकती है। रचनाकार और पाठक के मध्य अनुभूति का सम्बन्ध स्थापित करने वाला शिल्प रचना को विशिष्ट रूप देता है । शिल्प को रचनाकार की प्रतिभा माना जाता है, जिसके आधार पर वह रचना को रोचक, सार्थक और सफल बनाता है। रचनाकार अपने भावों, अनुभूतियों और संवेदनाओं को शिल्प में ढालकर पाठकों तक पहुँचाता है । साहित्य के सम्बन्ध में शिल्प का सरल अर्थ यह लिया जा सकता है कि शिल्प जिसके माध्यम से रचनाकार साहित्य रचना में कलात्मक सौन्दर्य की निर्मिति करता है। किसी कृति के समापन तक जो कुछ भी सर्जन की प्रक्रिया चल रही होती है, वही उसका शिल्प विधान माना जाता है।

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