वराहमिहिर का जीवन परिचय

माहर अवन्ति के सूर्यभक्त वराहमिहिर का स्थान ज्योतिषजगत् में वस्तुतः सूर्य के सदृश हैं। इनका नाम भारत में ही नहीं, विश्व में प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य एवं खगोलशास्त्री के रूप में लिया जाता है।"

वराहमिहिर का जन्मस्थान

आचार्य वराहमिहिर ने अपने जन्मस्थान के बारे में कुछ भी नहीं लिखा है । ये आर्यभट्ट के समकालीन बताये जाते हैं। बृहज्जातक के उपसंहार में 'आदित्यदासतनयः श्लोक में आवन्तिक एक विशेषण का उल्लेख किया गया है। प्रस्तुत श्लोक में वराहमिहिर को आदित्यदास का पुत्र और आवन्तिक का निवासी बताया गया है। अनेक विद्वानों ने उक्त विशेषण की व्याख्या उज्जयिनी से की है परन्तु आवन्तिक इस विशेषण मात्र से आचार्य की जन्मस्थली उज्जयिनी मान लेना न्यायसंगत प्रतीत नहीं होता । आचार्य भट्टोत्पल ने बृहत्संहिता के आरम्भ के श्लोक के अवतरणिका में आचार्य वराहमिहिर को 'अवन्तिकाचार्य मगध द्विजराज वराहमिहिरोऽर्कलब्धवरप्रसादो' ऐसा लिखा था। सुधाकर द्विवेदी ने वराह मिहिर की जन्मभूमि के विषय में अनेक मतों का उपस्थान किया है । परन्तु अधिकांश विद्वानों ने उज्जयिनी को ही इनका निवास स्थान माना है। पंडित लीलाधर शर्मा ने कहा कि तत्कालीन विद्यानगरी उज्जियिनी को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। 

विद्वानों ने ऐसा ही एक उदाहरण आर्यभट्ट के बारे में प्रस्तुत किया था। उस श्लोक में कुसुमपुर को आर्यभट्ट का जन्म स्थान माना गया है। इस प्रकार अवन्तिका नाम के आधार पर वराहमिहिर का जन्म स्थान उज्जयिनी स्वीकार कर लेना चाहिये ।

वराहमिहिर का जन्मकाल

जन्मस्थान की ही भाँति जन्मकाल के विषय में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। पंचसिद्धान्तिका में इनका जन्म 427 शक संवत् ग्रहण किया गया है- गुप्तकालीन अन्य प्रख्यात ज्योर्तिविद के रूप में वराहमिहिर का नाम ज्ञात है उनका जन्म काम्पिल्य (जिला फरुर्खाबाद) में हुआ था। उनके पिता का नाम आदित्यदास था । उनका जन्म 427 शक संवत् में हुआ। कहा जाता है कि उनकी मृत्यु 609 शक (587 ई.) में हुई। वे अपने पिता से शिक्षा प्राप्त पर उज्जयिनीनरेश के यहाँ चले गये। अनुश्रुतियों से ज्ञात होता है कि उनका उल्लेख विक्रमादित्य के नवरत्नों में पाया जाता । परन्तु प्रामाणिक रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है।
'सप्ताश्ववेदसंख्यं शककालमपास्य चैत्रशुक्लादौ ।
अर्धास्तमिते भानौ यवनपुरे सौम्य दिवसाद्ये ।
बृहत्जातक में इनका जन्म 409 शक के लगभग सिद्ध होता है । भारतीय संस्कृति कोश में इनका जन्म 505 ई. बताया गया है । Life of Varahamihira में सूर्यनारायण राव ने बताया कि वराह का जन्म चैत्र शुक्ल दशमी में हुआ है। उस समय अभिजिन्मुहूर्त विद्यमान था। उस विवरण को सही मानने पर वराह का जन्म कर्क लगन में होना सम्भव है। ये वराह के जन्म की स्थिति अनुमानत: 485 ई. मानते हैं।

वराहमिहिर के माता, पिता एवं गुरु

वराहमिहिर की माता का नाम सत्यवती था। पिता का नाम आदित्यदास बताया जाता है और वे ही इनके गुरु भी थे। जैसा कि पंचसिद्धान्तिका के प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक में इनका परिचय दिया गया है
'दिनकरवशिष्ठपूर्वान् विविधमुनीन् भावतः प्रणम्यादौ ।
गुरूंश्च शास्त्रे येनास्मिन् नः कृतो बोधः ॥

जनक- एक अन्य आख्यान के आधार पर इनका विवाह मय की पुत्री छाया के साथ हुआ था। एक अन्य वक्तव्य के आधार पर बंगाल में प्रसिद्ध ज्योतिष के ज्ञाता खना या खन्ना से इनका विवाह हुआ था। वराह के पुत्र पृथुयशा भी ज्योतिषशास्त्र के अच्छे विद्वान् थे। इनके अन्य पुत्रों के विषय में कोई जानकारी नहीं है। व्यक्ति की आकृति, चेष्टा, रूप, गुण, शील आदि मनुष्य की रचनाओं से कथञ्चित् अनुमानित हो सकता है, गृहसज्जा को देखकर गृहणी के व्यक्तित्व, पसन्द, नापसन्द, रुचि का पूर्वानुमान कर लिया जाता है, छोट बच्चों की वेशभूषा देखकर घर के बड़ों की सुघड़ता का अनुमान लगाया जा सकता है; इसी प्रकार वराह के कृतित्व से उनके व्यक्तित्व का अनुमान लगाया जा सकता है।

वराहमिहिर को प्रसिद्ध ज्योतिषियों के कुल में पैदा होने का स्पष्ट अहसास था । ज्योतिषी को कुलीन होना चाहिए इसे वे पहला गुण मानते थे। वराह का बाहरी व्यक्तित्व प्रभावशाली, सुन्दर व आकर्षक था। गौरव झलकते हुए चेहरे पर सौम्य भाव था। इनका कद औसत से ऊँचा था। ये वस्त्रों के विषय में अधिक सचेष्ट थे। सुगन्ध इन्हें बहुत प्रिय थी । यथोचित आभूषण पहनना, औपचारिक वेशभूषा रखना, कपड़ों से उच्छृंखलता न झलके, इसके प्रति सचेष्ट थे। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि शरीर के उत्तम आकार व स्वरूप में ही उत्तम गुण रहते हैं। जिस प्रकार उत्तम धनी व्यक्ति घटिया स्थान पर नहीं रहता या रहना प्रसन्द नहीं करता, उसी प्रकार उच्च गुणों को भी निवास के लिए उत्तम लक्षणयुक्त आवास चाहिए । ये प्रतिभाशाली, स्वाभिमानी, प्रच्छन्न, गर्वीली आँखें व कान सदा खुले रखने वाले सचेष्ट, अतिरिक्त सावधान, लोक-निन्दा से बचने वाले स्पष्टवादी, सभाचतुर, कुशलता से उत्तर देने वाले, अपने साथियों में विशिष्ट पहचान रखने वाले महामति आचार्य थे। चारित्रिक उच्चता, शालीनता, पेशे के प्रति भरपूर ईमानदारी, सदा सीखने के लिए तत्पर, कुछ नया व मर्यादा से हटकर कुछ कर गुजरने की तमन्ना, आचरण की शुद्धि, विचारशुद्धि व शरीर की शुद्धि को उच्च प्राथमिकता वराह के व्यकित्व में कूट-कूटकर भरी थी। ये अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप साधारण जनों की ज्योतिषीय सेवा बिना नगद दक्षिणा के कर दिया करते होंगे।

विक्रम के सभासद

वराहमिहिर को विक्रमादित्य जैसे पराक्रमी राजा का राजसभा (दरबार) का रत्न कहा जाता है। बृहज्जातक में वर्णित है कि वराहमिहिर महाराज विक्रम के नवरत्रों में से एक थे । 
'धन्वन्तरि क्षपणकामर सिंह शंकु वेतालभट्ट घटकर्पर कालिदासाः ।
ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य ॥ "
भारतीय संस्कृति कोश में वर्णित है- वराहमिहिर विक्रमादित्य के नवरलों में से एक थे पर बहुमत इसे नहीं मानता।

वराहमिहिर ने अपनी रचनाओं में अपने आश्रयदाता का कहीं भी उल्लेख नहीं किया। अपने आश्रयदाता का नाम तो कालिदास ने भी छिपे तौर पर अपनी रचनाओं में लिखा है। ऐसा माना जाता है कि इस दृष्टि से वराहमिहिर की स्थिति कालिदास से भी एक कदम आगे सिद्ध होती है। इससे भी अनुमान होता है कि वराहमिहिर अपने युग में अपने विषय के प्रसिद्ध चक्रवर्ती विद्वान् रहे होंगे; क्योंकि राजा आश्रयदाता होते हुए भी इन्हें ऋषितुल्य सम्मान देता होगा। सांसारिक सुख भोग व योग क्षेम की अपेक्षा शास्त्र निष्ठा को अधिक वरीयता देते होगें। इनकी बृहत्संहिता को देखकर इनके व्यक्तित्व के सभी आयाम एवं विस्तार स्पष्ट होते हैं। अपने पूर्व ग्रन्थकारों, आचार्यों एवं ऋषियों के प्रति सम्मानपूर्ण दृष्टि, वर्तमान युग के प्रति तीक्ष्ण दृष्टि, अध्ययनशीलता, कुलीनता, शालीनता, आस्तिक बुद्धि, ईश्वर में सम्पूर्ण विश्वास होते हुए भी पुरुषार्थ अवश्य करना, दूध का दूध व पानी का पानी करने की मजबूती, विषय पर गहरी पकड़, मानवीय दृष्टिकोण प्रकृति प्रेम आदि गुण उनके व्यक्तित्व में प्रभूत मात्रा में विद्यमान थे।

वराहमिहिर के ग्रन्थ

1. पञ्चसिद्धान्तिका - इसमें ब्रह्म सिद्धान्त, कूर्म सिद्धान्त, फलित सिद्धान्त रोमक व वशिष्ठ सिद्धान्तों का संग्रह सोदाहरण किया गया है। यह वराह की प्रथम कृति मानी जाती है। इनकी रचना का काल 505 ई. के आस-पास समझा जाता है। इसे 19वीं शदी के अन्त में पं. सुधारकर द्विवेदी जी ने प्रकाशित कराया था।

2. बृहदयोगयात्रा- अध्यायात्मक यह ग्रन्थ वराहकृत है। इसका उल्लेख विषयसूची सहित वराह ने अपने बृहज्जातक के अन्त में किया है। इसकी रचना बृहज्जातक से पहले हो चुकी थी । यह ग्रन्थ आज अनुपलब्ध है।

3. बृहज्जातक- वराह का यह ग्रन्थ अनेक स्थानों से प्रकाशित हो चुका है। यह 25 अध्यायों में विभक्त है। यह भारतीय ज्योतिष का प्रथम मानवीय ग्रन्थ है जो सम्प्रति उपलब्ध होता है। अमेरिकन एफेमेरीज में इसकी रचना 540 ई. में मानी गयी है।

4. विवाहपटल- इसकी रचना बृहत्संहिता से पूर्व हो चुकी थी। इसका उल्लेख स्वयं वराह ने बृहत्संहिता में किया है। लेकिन यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है।

5. लघुजातक- यह बृहज्जातक का लग रूप है। 177 श्लोकों में बृहज्जातक का सारांश रखा गया है।

6. बृहत्संहिता- विस्तृत एवं सम्पूर्ण उपलब्ध संहिता ग्रंथ है। इसका विवरण इसी अध्याय में पीछे दिया जा चुका है।

7. समाससंहिता- भट्टोत्पल ने इसका उल्लेख किया है तथा उद्धरण भी दिए हैं, किन्तु यह ग्रन्थ अद्यावधि उपलब्ध नहीं है।

वराह के नाम से प्रसिद्ध ग्रन्थ

ये ग्रंथ वराहमिहिर कृत कहे जाते हैं। किन्तु इनके वराहकृत होने के संदेह हैं-

लग्न वाराही- अति संक्षिप्त 49 श्लोकों की यह पुस्तिका प्रकाशित है। विषय, भाषा, शैली व प्रस्तुति के आधार पर यह वराहकृत नहीं लगती ।

दैवज्ञवल्लभा- यह ग्रन्थ भी प्रकाशित है। इसे वराहकृत नहीं समझा जाता, अपितु वराह के किसी अज्ञात ग्रन्थ से सारांश लेकर उसका पल्लवन किसी अल्पशब्द कवि ने कर दिया है।

जातकार्णव- नेपाल काठमाण्डू के वीर पुस्तकालय में इसकी प्रति है। यह करण ग्रन्थ है। पंच सिद्धान्तिका के होते हुए पृथक्करण ग्रंथ लिख कर शब्दप्रयोग में कृपण वराहमिहिर शब्दों का अपव्यय करेंगे, यह विश्वसनीय नहीं लगता।

ढिकनिक यात्रा- विचित्र नाम वाली मुहूर्त विषयक यह पुस्तक भी काठमाण्डू के पुस्तकालय में है। बहुत विचार करने पर भी ढिकनिक शब्द का अर्थ मुझ अल्पज्ञ को नहीं सूझ रहा है। यह किसी अन्य वराह नामधारी व्यक्ति की ही रचना प्रतीत होती है।

पंचपक्षी- नेपाल में काठमाण्डू के वीर पुस्तकालय में यह ग्रन्थ सुरक्षित है। इसके अतिरिक्त वाराणसी के सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्व विद्यालय में भी उपलब्ध है। यह पुस्तक 11वीं शक शताब्दी की रचना है। इसके अन्तिम श्लोक में शतानन्द के भास्वतीकरण की प्रशंसा है।

ग्रहण मण्डलफल- यह पुस्तक बनारस में है। इसके अन्त में वराहमिहिरकृत लिखा है। इसकी भाषा इतनी शिथिल व बचकानी है कि इसे आचार्यकृत मानना ही असंगत प्रतीत होता है ।

दिक्किनी यात्रा- यात्राविषयक यह ग्रन्थ भी नेपाल में काठमाण्डू पुस्तकालय में है। इसमें भाषा सम्बन्धी कई अशुद्धियाँ हैं। यह पुस्तक बाद में किन्हीं अन्य वराहमिहिर नामधारी व्यक्ति ने लिखी होगी। इसे वराहमिहिरकृत मानने का कोई आधार नहीं मिलता ।

बृहज्जातक एवं बृहत्संहिता - ये दो ग्रन्थ सर्वत्र उपलब्ध है और आचार्यत्वकी योग्यता को प्रमाणित करने वाले हैं।

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