भारतीय ग्रामीण समुदाय की विशेषताएं

ग्राम समुदाय को समुदाय की धारणा के आधार पर कुछ सीमा तक समझा जा सकता है। परन्तु ग्राम का प्रमुख आधार भौगोलिक अधिक है। सामान्यतया ग्रामीण शब्द का प्रयोग ग्रामीण पर्यावरण या गाँवों में रहने वाले व्यक्तियों से लगाया जाता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टिकोण से पिछड़े हुए लोग जिस स्थान पर रहते हैं, उन्हें ग्रामीण माना जाए। जबकि कुछ अन्य व्यक्तियों के अनुसार ग्रामीण उन्हें माना जाए जो लोग कृषि को मुख्य व्यवसाय के रूप में स्वीकार करते हैं। इसी कारण 'कृषक' और 'ग्रामीण' को एक-दूसरे का पर्याय मान लिया जाता है। एक और आधार पर 'ग्रामीण' शब्द की विवेचना की गई है। अर्थात् नगरीय विशेषताओं के विपरीत विशेषताओं वाला क्षेत्र ग्रामीण है। एक अन्य आधार जनसंख्या भी है, प्रत्येक राष्ट्र में एक निश्चित जनसंख्या वाले प्रदेश को 'ग्राम' कहा गया है। ग्रामीण शब्द की विवेचना में डॉ० के०एन० श्रीवास्तव ने अपने एक लेख में लिखा है कि "एक ग्रामीण क्षेत्र वह है जहाँ पर लोग कृषि उद्योग में लगे हो अर्थात् वस्तुओं का प्राथमिक उत्पादन प्रकृति के सहयोग से करते हो।" इस प्रकार ग्रामीण लोगों का प्रकृति से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। यह सत्य भी है कि मनुष्य अपने जीवनयापन के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में प्रकृति पर प्रत्यक्ष रूप से निर्भर रहते है। प्रकृति से प्राप्त वस्तुओं का सीधे प्रयोग करते हैं। प्रकृति पर प्रत्यक्ष निर्भरता ही समुदाय के छोटे आकार को जन्म देती है। 

ग्रामीण शब्द को परिभाषित करने में सबसे प्रमुख समस्या यह है कि इसकी कोई निश्चित सीमा रेखा नहीं है, जो ग्राम को नगर से पृथक कर सके। इस संदर्भ में मैकाइवर और पेज कहते है कि "नगर और गाँव के मध्य विभाजन की ऐसी कोई स्पष्ट सीमा रेखा नही है, जिसके आधार पर यह बताया जा सके कि कहाँ पर ग्राम समाप्त है और कहाँ से नगर का प्रारम्भ होता है।

ग्रामीण समुदाय ऐसे समुदाय हैं जो प्रकृति पर प्रत्यक्ष रूप से निर्भर है, जिनका एक निश्चित स्थान है, जिनकी आजीविका प्रकृति से प्रथम बार उत्पन्न हुई वस्तुओं से चलती है तथा जिनका आकार छोटा होता है। इन समुदायों में घनिष्ठता, निकटता, प्राथमिक सम्बन्ध, अनौपचारिकता और समानता पायी जाती है। 'ग्रामीण समुदाय प्रत्यक्ष सम्बन्धों पर आधारित ऐसा समूह है जिसके अधिसंख्य व्यक्ति अधिकांश उन सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, धार्मिक तथा अन्य सेवाओं का प्रयोग करते हैं जो उनके सामूहिक जीवन के लिए आवश्यक है। इस समूह के सदस्यों के जीवन के आधारभूत मुद्दों, मनोभावों तथा क्रियाओं के सम्बन्ध में एक प्रकार का समझौता होता है जो सामान्यतः किसी गाँव अथवा कस्बे पर केन्द्रीभूत होता है। ऐसा समूह मूलतः कृषि योग्य अनेक खेतों पर खेती करता है, मैदानी भूमि को आपस में बाँट लेता है, आस-पास की बेकार एवं बंजर भूमि पर पशुओं को चराता है तथा निकटवर्ती समुदायों की सीमाओं वह अपने अधिकारों का दावा करता है। ' 

सेण्डरसन ने ग्रामीण समुदाय को परिभाषित करते हैं- "एक ग्रामीण समुदाय में स्थानीय क्षेत्र के लोगों की सामाजिक अन्तःक्रिया और उनकी संस्थाएं सम्मिलित हैं जिसमें वह खेतों के चारों ओर बिखरी झोपड़ियों तथा पुरवा या ग्रामों में रहती है और जो उनकी सामान्य क्रियाओं का केन्द्र है।" 

मैरिल और एलरिज के अनुसार "ग्रामीण समुदाय के अन्तर्गत संस्थाओं और ऐसे व्यक्तियों का संकलन होता है जो छोटे से केन्द्र के चारों ओर संगठित होते हैं तथा सामान्य प्राकृतिक हितों में भाग लेते हैं।" 

भारतीय ग्रामीण समुदाय की विशेषताएं 

ग्रामीण समाज की विशेषताएं ऐसी है जो भारतीय गाँवों की विशिष्टता और मौलिकता को प्रस्तुत करते हैं। इस सम्बन्ध में 1832 में चार्ल्स मैटकाफ ने भारतीय ग्रामीण समुदायों के बारे में विचार प्रस्तुत किये। "ग्रामीण समुदाय छोटे गणराज्य हैं, प्रायः जितनी वस्तुओं की उन्हें आवश्यकता होती है वे सब उनके पास रहती है और वे बाह्य सम्बन्धों से अधिकांशतः स्वतन्त्र रहते हैं। जहाँ और कोई चीज स्थायी नहीं, ऐसा प्रतीत होता है, वे स्थायी रहे हैं। एक राजवंश के बाद दूसरा राजवंश लुढ़कता गया, एक क्रान्ति के बाद दूसरी क्रान्ति हुई, किन्तु ग्रामीण समुदाय अपरिवर्तित रहा। ग्रामीण समुदाय के इस संघ ने जिसमें प्रत्येक गाँव स्वयं एक अलग छोटा-सा राज्य था, मेरे विचार में किसी अन्य कारण की अपेक्षा भारतीय जनता की अनेक क्रांतियों एवं परिवर्तन के बीच रक्षा की है और उनके सुख और स्वतन्त्रता की बहुत वृद्धि की है।" भारतीय ग्रामीण समुदाय की विशेषताएं निम्न है-

1. संयुक्त परिवार - गाँवों की सर्वप्रमुख विशेषता में संयुक्त परिवारों की प्रधानता है। यहाँ पति-पत्नी व बच्चों के परिवार की तुलना में ऐसे परिवार अधिक पाये जाते रहे हैं जिनमें तीन या अधिक पीढ़ियों के सदस्य एक स्थान पर रहते हैं। परिवारों का संचालन परिवार के वयोवृद्ध व्यक्ति द्वारा होता है। वही परिवार के आन्तरिक और बाह्य कार्यों के लिए निर्णय लेता है। परिवार के सभी सदस्य उसकी आज्ञा का पालन करते हैं। संयुक्त परिवार प्रणाली भारत में अति प्राचीन हैं।

2. जाति प्रथा-जाति प्रथा भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषताएं हैं जाति के आधार पर गाँवों में सामाजिक संस्तरण पाया जाता है। जाति एक सामाजिक संस्था और समिति दोनों ही है। जाति की सदस्यता जन्म से निर्धारित होती है। प्रत्येक जाति का एक परम्परागत व्यवसाय होता है। जाति के सदस्य अपनी ही जाति में विवाह करते हैं, जाति की एक पंचायत होती है जो अपने सदस्यों के जीवन को नियन्त्रित करती है। जाति के नियमों का उल्लंघन करने पर सदस्यों को जाति से बहिष्कार, दण्ड, अथवा जुर्माना आदि की सजा भुगतनी होती है। जातियों के बीच परस्पर भेदभाव और छुआछूत की भावना पायी जाती है।

3. कृषि (मुख्य व्यवसाय) - ग्रामों में निवास करने वाले लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि है। 70 से 75 प्रतिशत तक लोग प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से कृषि द्वारा ही अपना जीवन यापन करते हैं इसका यह तात्पर्य नहीं है कि गाँवों में अन्य व्यवसाय नहीं है।

4. जजमानी प्रथा-प्रत्येक जाति निश्चित परम्परागत व्यवसाय करती है। इस प्रकार जाति प्रथा ग्रामीण समाज में श्रम विभाजन का अच्छा

उदाहरण पेश करती है। सभी जातियाँ परस्पर एक-दूसरे की सेवा करती है। ब्राह्मण विवाह, उत्सव एवं त्यौहार के समय दूसरी जातियों के यहाँ अनुष्ठान करवाते हैं तो नाई बाल काटने धोबी कपड़े धोने, जुलाहा कपड़े बनाने इत्यादि का कार्य करते हैं। जजमानी प्रथा के अन्तर्गत एक जाति दूसरी जाति की सेवा करती है और उसके बदले में सेवा प्राप्त करने वाली जाति भी उसकी सेवा करती है अथवा वस्तुओं के रूप में भुगतान प्राप्त करती है।

5. ग्राम पंचायत-प्रत्येक गाँव में एक गाँव पंचायत होती है। इसका मुखिया गाँव का मुखिया होता है। यह व्यवस्था अति प्राचीन काल से विद्यमान रही है। ग्राम पंचायत का कार्य गाँव की भूमि का परिवारों में वितरण, सफाई, विकास कार्य और ग्रामीण विवादों को निपटाना है।

6. सरल एवं सादा जीवन-भारत के ग्रामवासी सादा जीवन व्यतीत करते हैं। उनमें ठगी, चतुरता और धोखेबाजी के स्थान पर सच्चाई, ईमानदारी और अपनत्व की भावना विद्यमान होती है। उनके भोले पन का सेठ-साहूकार लाभ उठाकर उनका शोषण करते रहे हैं।

7. सामाजिक समरूपता - भारतीय ग्रामों में सामाजिक और सांस्कृतिक समरूपता देखने को मिलती है। उनके जीवन स्तर में नगरों की भाँति जमीन आसमान का अन्तर नहीं पाया जाता। सभी लोग एक जैसे भाषा, त्यौहार उत्सव, प्रथाओं और जीवन विधि का प्रयोग करते हैं। उनमें सामाजिक, आर्थिक सांस्कृतिक और राजनैतिक जीवन में ज्यादा अन्तर नहीं पाये जाते। उनके जीवन से समानता और एकरूपता की धारा निरन्तर बहती है।

8. प्रथाओं और धर्म का महत्व- ग्रामवासी प्रथाओं एवं रूढ़ियों का अंधाधुन अनुसरण करते हैं। वे परिवर्तन और क्रान्ति में विश्वास नहीं करते।

इसलिए वे कष्ट उठाकर भी अनेक बुरी प्रथाओं का बोझढ़ो रहे होते हैं। बाल विवाह छुआछूत, दहेज, विधवा-विवाह निषेध आदि की प्रथाएं अब भी बनी हुई हैं अन्तर्जातीय विवाह, विधवा विवाह और जाति की समाप्ति को वे लोग स्वीकार करते। धर्म उनके जीवन का प्राण है। प्रत्येक नये कार्य का शुभारम्भ और समाप्ति किसी धार्मिक क्रिया से होती है।

9. स्त्रियों की निम्न स्थिति-ग्रामीण समुदाओं में नारी की स्थिति अभी भी निम्न है। कन्या वध, बाल विवाह, पर्दा प्रथा, विधवा पुनर्विवाह का आभाव, आर्थिक दृष्ट से पुरुषों पर निर्भरता, पारिवारिक सम्पत्ति में अधिकार न होना, शिक्षा का आभाव आदि। ऐसे अनेक कारण हैं जो स्त्रियों की स्थिति को निम्न बनाये रखने में योगदान देते हैं।

10. आत्मनिर्भरता-भारतीय गाँवों को आत्मनिर्भर ईकाई के रूप में परिभाषित किया गया है। यह आत्मनिर्भरता केवल आर्थिक क्षेत्र में नहीं बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक क्षेत्र में भी थी। जजमानी प्रथा द्वारा जातियाँ परस्पर एक दूसरे के आर्थिक हितों की पूर्ति करती थी। राजनैतिक दृष्टि से ग्राम पंचायत और ग्राम का मुखिया सभी विवादों को निपटाता था। प्रत्येक गाँव की अपनी संस्कृति और कुछ विशिष्टताएं पायी जाती थी। जिन्हें स्वयं ग्रामवासी और दूसरे ग्राम के लोग जानते थे। परन्तु वर्तमान में यातायात के साधनों के विकास, केन्द्रीय शासन की स्थापना, औद्योगीकरण आदि के कारण गाँवों की आत्मनिर्भरता समाप्त हुई है। अब ये राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और राजनैतिक व्यवस्था के अंग बन गये हैं।

अतः भारतीय ग्रामीण समुदाय एक सामुदायिक एकता के रूप में विद्यमान रहे हैं। किसी भी संकट के समय सभी मिलकर उसका मुकाबला करते हैं। परन्तु गाँवों में सामाजिक गतिशीलता का अभाव रहा है। गाँव में सामाजिक जीवन ग्रामीण पर्यावरण में उसी प्रकार प्रवाहित तथा विकसित होता है जैसा कि नगरीय क्षेत्रों में सामाजिक जीवन नगरीय पर्यावरण में प्रवाहित तथा विकसित होता है। ग्रामीण तथा नगरीय समाज के मध्य भेद कुछ मानक निर्धारित किये हैं जैसे- जन समूह की सामाजिक रचना, सांस्कृतिक विरासत, भौतिक सम्पत्ति की विशालता, जन समूह का सामाजिक स्तरीकरण, सामाजिक संरचना तथा सामाजिक जीवन की जटिलता की मात्रा, सामाजिक सम्पर्क की गहनता एवं विविधता आदि ।

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