प्रतिनिधित्व का अर्थ, परिभाषा, प्रकार एवं सिद्धान्त

कोई भी समूह या गुट आज आवश्यक निर्णय लेने तथा आवश्य बातचीत के लिए अपने बड़े आकार के कारण प्रत्येक अवसर पर अपने सभी सदस्यों को एकत्रित नहीं कर सकते। इसके लिए वे अपने कुछ प्रतिनिधि सदस्यों का चुनाव कर लेते हैं, जो भविष्य में प्रत्येक निर्णय में भागीदार बनते हैं और समूह या गुट का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस दृष्टि से प्रतिनिधियों द्वारा समूह के लिए अधिकृत शक्ति के तहत कार्य करना प्रतिनिधित्व कहलाता है। 

एनसाईकलोपीडिया ऑफ ब्रिटेनिका में प्रतिनिधित्व की परिभाषा इस प्रकार दी गइै है-”प्रतिनिधित्व वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से सारे नागरिकों या उनके किसी अंश की अभिवृतियां, अधिमान्यताएं, दृष्टिकोण और इच्छाओं को, उनकी ऐच्छिक कार्य का रूप प्रदान करता है और जिनके प्रतिनिधि होते हैं उन्हीं पर बाध्यकारी प्रभाव होता है।” इसी तरह राबर्ट वॉन मोहल के अनुसार-”प्रतिनिधित्व वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से समस्त नागरिक या उनका कोई अंश सरकारी कार्य पर जो प्रभाव डालता है, वह उनकी सुव्यक्त इच्छा के अनुसार होता है, उन्हीं में से थोड़े से लोगों द्वारा उनकी ओर से किया जाता है और यह उनके लिए मानना आवश्यक होता है जिसका वे प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।”

प्रतिनिधित्व का अर्थ समझने के बाद राजनीतिक प्रतिनिधित्व का अर्थ समझना भी आवश्यक है। राजनीतिक प्रतिनिधित्व जनता द्वारा निर्वाचित व्यक्ति की तरफ संकेत करता प्रतीत होता है। राजनीतिक प्रतिनिधि ही निर्वाचित व्यक्ति होता है जो समूह का प्रतिनिक्तिात्व करता है। राजनीतिक प्रतिनिधि एक ऐसा व्यक्ति होता है हो किसी राजनीतिक समाज में शासन की प्रक्रिया को प्रभावित करने तथा प्रत्यक्ष रूप में भाग लेने का वैधिक अधिकार रखता है। ए0एच0 विर्च ने इसको परिभाषित करते हुए कहा है-”राजनीतिक प्रतिनिधि एक ऐसा व्यक्ति होता है जो परम्परागत या कानून द्वारा एक राजनीतिक व्यवस्था में प्रतिनिधि का स्तर रखता है और प्रतिनिधि की भूमिका निभाता है।” इस दृष्टि से राजनीतिक प्रतिनिधित्व राजनीतिक प्रतिनिधि द्वारा राजनीतिक व्यवस्था की अदा की गई भूमिका का सूचक है।

प्रतिनिधिक प्रणाली का विकास 

प्रतिनिधित्व प्रणाली की उत्पत्ति को लेकर राजनीतिक विद्वान एकमत नहीं हैं। मॉण्टेस्क्यू तथा रूसो इसे आधुनिक युग की उपज मानते हैं, उनका कहना है कि प्राचीन काल में राजा ही शक्ति का एकमात्र अधिकारी था और शासन के सभी निर्णय उसी के द्वारा लिये जाते थे। जब राजा की निरंकुशता बढ़ने लगी तो जनता की आवाज को दबाए रखने के लिए अपने कुछ सलाहकारों को जन-प्रतिनिधि के रूप में उभरने लगी। जब राजा को धन की जरूरत पड़ती थी तो वह कुछ जन-प्रतिनिधियों को अपने पास बुलाने लगा और धीरे धीरे ये प्रतिनिधि समाज का महत्वपूर्ण अंग बन गए। राजा और जनता को जोड़ने में इन्हीं प्रतिनिधियों ने भूमिका अदा करनी शुरु कर दी और तेहरवीं सदी के अन्त में तथा चौदहवीं सदी के प्रारम्भ में इंग्लैंड में संसद, फ्रांस में ईस्टेट्स जनरल (Estates General), स्पेन में कोर्टेस (Cortes), जर्मनी और जापान में डायट (Diet) के रूप में प्रतिनिधि संस्थाओं का उदय हुआ। इन संस्थाओं और राजाओं में लम्बे समय तक संघर्ष चलता रहा और अन्त में प्रतिनिधि संस्थाओं की ही विजय हुई। 

1213 में जॉन ने प्रत्येक काउन्टी से चार बुद्धिमान नाइटों को वृहत सभा की बैठक में बुलाया। हेनरी तृतीय ने 1254 में, एडवर्ड प्रथम ने 1295 में ऐसी ही सभाएं की। एडवर्ड प्रथम की सभा आदर्श संसद के नाम से प्रसिद्ध है, क्योंकि उसमें 400 व्यक्तियों ने भाग लिया था। इसमें सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व मिला था। इंग्लैण्ड की संसद एक मदर पार्लियामैंट के रूप में विख्यात थी, क्योंकि इसमें सभी वर्गों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतिनिधि थे। धीरे धीरे इंग्लैण्ड में प्रतिनिधित्व प्रणाली का विकास होता रहा और 1919 में सभी व्यस्क पुरुष व स्त्रियों को मतदान का अधिकार दे दिया गया। आज इंग्लैण्ड प्रतिनिधि लोकतन्त्र व राजतन्त्र का अनूठा उदाहरण है। इंग्लैण्ड की तरह ही अन्य देशों में भी प्रतिनिधिक प्रणाली का बराबर विकास होता रहा। 1871 का तीसरा फ्रांसीसी गणतन्त्र तथा 1919 का वाइमर गणतन्त्र प्रतिनिधिक प्रणाली के विकास के अनूठे उदाहरण हैं। अमेरिका क्रान्ति के समय भी ‘बिना प्रतिनिधित्व के कर नहीं’ का नारा गूंजा और अन्त में वहां पर प्रतिनिधि लोकतन्त्र की स्थापना हुई। 

यद्यपि साम्यवादी देशों में भी प्रतिनिधिक प्रणाली का ढिंढोरा पीटा जाता रहा है, लेकिन वहां वास्तविकता कुछ और ही है। भारत में भी 1857 की क्रान्ति के बाद प्रतिनिधिक प्रणाली की शुरुआत हुई और भारतीय परिषद् अधिनियम 1861 के तहत गवर्नर जनरल तथा गर्वनरों की परिषदों में भारतीयों को कुछ स्थान दि गए। 1892 तथा 1909 में इस संख्या को कुछ बढ़ा दिया गया और 1919 के मॉण्टेग्यू-चेम्स फोर्ड सुधारों के द्वारा उत्तरदायी प्रतिनिधिक शासन प्रणाली का जन्म हुआ। 1955 के भारत सरकार अधिनियम ने भारत में प्रतिनिधिक प्रणाली की जड़ें और अधिक गहरी कर दी। भारत में पहली बार प्रान्तों के लिए निर्वाचित प्रतिनिधिक सरकारें बनीं। 1946 में संविधान सभा का निर्माण भी प्रतिनिधिक व्यवस्था के तहत ही हुआ। इसमें सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व दिया गया। स्वतन्त्रता के बाद भारत व्यस्क मताधिकार के आधार पर प्रतिनिधि शासन का संचालन करने वाला सबसे बड़ा देश बन गया, जो आज भी विश्व का सबसे बड़ा प्रतिनिधि लोकतन्त्रीय देश है। आज भारत के संविधान में मताधिकार की आयु 18 वर्ष है और जनता अपना शासन प्रतिनिधियों के माध्यम से ही चला रही है।

प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त 

प्रतिनिधित्व के बारे में अनेक सिद्धान्त प्रचलित हैं। एलेन बाल ने प्रतिनिधित्व के सिद्धान्तों को दो भागों (i) उदारवादी प्रजातन्त्रीय सिद्धान्त (ii) समष्टिवादी सिद्धान्त में बांटा है। उसका कहना है कि उदारवादी प्रजातन्त्र में न केवल मताधिकार का विस्तार है, बल्कि मतदान के अधिकारों में भी समानता है। इस प्रणाली में व्यक्ति अपने मताधिकार का प्रयोग बुद्धिवाद के अनुसार ही करता है और जनता की सम्प्रभुता को सार्वभौमिक मताधिकार के रूप में ही प्रकट किया जाता है। इसमें चुनाव की आवश्यकता का आधार वह उदारवादी दर्शन है जो मनुष्य को अपने व्यक्तित्व एवं परिस्थिति की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। इसमें प्रतिनिधि जनता के प्रति उत्तरदायी होता है। प्रतिनिधित्व का उदारवादी सिद्धान्त ही राजनीतिक दलों के उदय और कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि का आधार है। इसके साथ ही समष्टिवादी सिद्धान्त भी घनिष्ठ रूप में जुड़ा हुआ है। इस सिद्धान्त की मान्यता है कि विधानमण्डल को व्यक्तियों और मतों की बजाय बहुसंख्यक वर्ग के हितों का ही प्रतिनिधित्व करना चाहिए। 

इस सिद्धान्त का मानना है कि जनता की सम्प्रभुता तथा बहुमत की इच्छा दोनों ही सर्वोपरि हैं। लेकिन सोवियत संघ का यह दावा झूठा हो गया है कि साम्यवादी देशों की समष्टिवादी प्रतिनिधिक प्रणाली पूंजवादी राज्यों के लोकतन्त्र से अधिक श्रेष्ठ है। आज चीन, कोरिया, क्यूबा में भी प्रजातन्त्र के नाम पर प्रतिनिधिक प्रणाली के साथ वही मजाक किया जा रहा है जो सोवियत संघ में किया गया था। इसलिए समष्टिवादी प्रतिनिधिक सिद्धान्त ठीक नहीं है। केवल उदारवादी प्रजातन्त्रीय सिद्धान्त ही प्रतिनिधिक प्रणाली का सही प्रतिमान हो सकता है। इस सिद्धान्त के अतिरिक्त आज दो प्रतिकूल सिद्धान्त ही अधिक मान्य हैं, जो आदिष्ट प्रतिनिधित्व तथा आदर्शहीन प्रतिनिधित्व के रूप में हैं।

आदिष्ट प्रतिनिधित्व 

इस सिद्धान्त के अनुसार प्रतिनिधि निर्वाचकों या मतदाताओं के ही अधीन है, क्योंकि वे उनकी इच्छा का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। किसी भी तरह का संशोधन प्रतिनिधि केवल निर्वाचकों की अनुमति से ही कर सकता है। विदेशों में जाने वाले राजदूत या राजनयिक प्रतिनिधि अपनी स्वामी की आज्ञा का ही पालन करते हैं। लेकिन वर्तमान समय में अदिष्ट प्रतिनिधित्व पर चलना असम्भव है। आज विधि-निर्माण के कार्य इतने जटिल हो गए हैं कि प्रतिनिधि को निर्वाचकों के प्रति वचनबद्ध रहना असम्भव है। संचार साधनों के विकास से राजनीतिक घटनाओं के बारे में प्रतिनिधियों को तीव्र निर्णय लेने व देने पड़ते हैं। किसी सम्मेलन के दौरान प्रतिनिधि द्वारा लिया जाने वाला निर्णय निर्वाचकों की इच्छा जानने की प्रतीक्षा नहीं कर सकता। आज दलों को वोट मिलते हैं, प्रतिनिधियों को नहीं। प्रतिनिधि को कठोर दलीय अनुशासन में ही रहना पड़ता है। विजयी दल भी अपनी नीतियों का ही क्रियान्वयन करता है, निर्वाचकों की नहीं। आज प्रतिनिधि को मतदाताओं की इच्छा के साथ बांधना असम्भव है। इसी कारण लास्की ने इस सिद्धान्त को गलत तथा लीवर ने अन्यायपूर्ण, असंगत तथा अवैधानिक कहा है। सत्य तो यह है कि आधुनिक समय में इस सिद्धान्त की कोई प्रासंगिकता नहीं है।

आदेशहीन प्रतिनिधित्व 

इस सिद्धान्त की मान्यता है कि प्रतिनिधिगण निर्वाचकों के अभिकर्ता नहीं हैं। प्रतिनिधियों को निर्वाचित करना तो जनता का अधिकार है, लेकिन अपने वश में रखना उनके सामथ्र्य से बाहर की बात है। इसी कारण यह अपेक्षा करना भी बेकार है कि प्रतिनिधि निर्वाचकों के अभिकर्ता के रूप में कार्य करेंगे। आज की बदलती परिस्थितियों में किसी सम्मेलन या समारोह में प्रतिनिधियों को देश-विदेश में त्वरित निर्णय लेने पड़ते हैं। आज प्रतिनिधि दल की इच्छा का संचालन करते हैं और स्वविवेक के निर्णय लेते हैं। यही निर्वाचक और प्रतिनिधि के सम्बन्धों की सच्चाई है। प्रतिनिधि निर्वाचकों के अभिकर्ता होने की बजाय उनके हितों के ही संरक्षक होते हैं, जिन्हें वे दलीय अनुशासन में रहकर ही पूरा करते हैं। इसलिए प्रतिनिधियों का यह कर्तव्य बनता है कि वे अपने निर्वाचकों के हितों के अनुरूप ही स्वैच्छिक नीतियों का निर्धारण करे और देश हित को प्राथमिकता दें। इसी कारण आज प्रतिनिधियों से निर्वाचकों के अधीन न रहकर स्वतन्त्र ढंग से कार्य करने की आशा की जाती है। आधुनिक युग में प्रतिनिधि निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधि न होकर सम्पूर्ण देश का प्रतिनिधि माना जाता है। इसलिए आज आदेशहीन प्रतिनिधित्व का सिद्धान्त ही अधिक मान्य व प्रासांगिक है।

प्रतिनिधित्व के प्रकार

प्रतिनिधित्व विभिन्न आधारों पर अनेक प्रकार का हो सकता है। आज प्रतिनिधित्व के निम्नलिखित रूप प्रचलित हैं:-
  1. प्रादेशिक प्रतिनिधित्व (Territorial Representation)
  2. व्यावसायिक प्रतिनिधित्व (Professional Representation)
  3. आनुपातिक प्रतिनिधित्व (Proportional Representation)
  4. अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व (Minority Representation)

प्रादेशिक प्रतिनिधित्व

इस प्रतिनिधित्व के अन्तर्गत किसी क्षेत्र को निर्वाचन कराने के लिए कई भागों में बांटा जाता है। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से एक ही सदस्य का चुनाव किया जाता है। इसे भौगोलिक या क्षेत्रीय प्रतिनिच्छिात्व भी कहा जाता है। सुविधा की दृष्टि से निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या कम करके एक निर्वाचन क्षेत्र से कई सदस्ज्ञयों का भी चुनाव किया जा सकता है। जिस चुनाव क्षेत्र से केवल एक ही सदस्य चुना जाता है, उसे एक सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र तथा जिस क्षेत्र से एक साथ कई सदस्य चुने जाते हैं, उसे बहुदसदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र कहा जाता है। एक सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र अपेक्षाकृत भौगोलिक दृष्टि से छोटे और कम जनसंख्या वाले क्षेत्र होते हैं और कई बार राजनीतिक विभाजन के अनुरूप ही होते हैं। भारत तथा फ्रांस में ऐसे ही निर्वाचन क्षेत्र हैं। इस प्रणाली में सामान्य तौर पर मतों के बहुमत के आधार पर ही परिणाम घोषित किया जाता है। इसका प्रमुख गुण इसकी सरलता है। इसमें दलों की संख्या भी सीमित रहती है। लेकिन अनेक विद्वानों ने इस प्रणाली की भी आलोचना की है। इस प्रणाली के आधार पर चुना हुआ व्यक्ति केवल एक ही हित का प्रतिनिधित्व करता है, क्षेत्र के बाकी हित बिना प्रतिनिक्तिात्व के रह जाते हैं।
 
इसकी आलोचना करते हुए जी0डी0एच0 कोल ने लिखा है-”वास्तविक लोकतन्त्र केवल एक सर्वशक्तिमान प्रतिनिधि सभा में नहीं, बल्कि व्यवसायिक प्रतिनिधि निकायों के एक संयुक्त संगठन में पाया जाता है।” प्रादेशिक प्रतिनिधित्व के दोषों को देखते हुए कुछ विद्वान व्यवसायिक आधार पर प्रतिनिधित्व का समर्थन करते हैं। इसी कारण डुग्विट ने कहा है-”व्यवसाय, सम्पत्ति, वाणिज्य, उद्योग-धन्धे यहां तक कि विज्ञान और धर्म आदि राष्ट्रीय जीवन की समस्त शक्तियों को प्रतिनिधित्व प्राप्त होना चाहिए। आज इस पद्धति के दोषों को दूर करने के लिए फ्रांस तथा आयलैण्ड में एकल हस्तांतरणीय मत प्रणाली को ही अपनाया जा रहा है। यह आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का ही एक रूप है।

व्यावसायिक प्रतिनिधित्व 

इस प्रतिनिधित्व को प्रकार्यात्मक प्रतिनिधित्व भी कहा जाता है। इसमें प्रतिनिधियों के चयन का आधार समाज को व्यावसायिक संगठन होता है। यह प्रादेशिक, आनुपातिक तथा अल्पंसंख्यक प्रतिनिधित्व तीनों के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया है। इस प्रतिनिधित्व का आधार यह है कि सामाजिक, आर्थिक तथा व्यावसायिक समूहों राष्ट्रीय विधान सभा में स्थान प्रदान किया जाना चाहिए। जी0 डी0 एच0 कोल ने इसे सच्चा तथा लोकतान्त्रिक प्रतिनिधित्व कहा है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद रूप तथा इटली में इस प्रणाली को अपनाया गया था। 1919 के वायमर संविधान के अधीन इटली में एक राष्ट्रीय परिषद् की स्थापना की गई जिसमें श्रमिकों, पूंजीपतियों और उपभोक्ताओं के हितों को विशेष प्रतिनिधित्व दिया गया। आधुनिक समय में यह इन्डोनेशिया में पाया जाता है। लेकिन इस प्रतिनिधित्व के दोष भी बहुत हैं। इसमें विधायिका के ‘अल्पसंख्यक वर्ग अपनी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधि भेजने में असफल रहता है। इसमें व्यवसायों को उचित वर्गीकरण न तो सम्भव है और न ही उचित। इससे संकीर्ण हितों को बढ़ावा मिलता है और मतदाताओं की स्वतन्त्रता भी सीमित हो जाती है। इससे विधायिका परस्पर विरोधी गुटों का अखाड़ा बन जाती है। इसमें न तो जनसंख्या का ही सही विभाजन किया जा सकता है और न ही समूहों का। इसके दोषों के कारण ही यह प्रणाली आज बहुत ही कम देशों में है। यदि यह कह दिया जाए कि यह मृतप्राय: है तो कोई अतिश्योक्ति की बात नहीं है।

आनुपातिक प्रतिनिधित्व

यह पद्धति इस सिद्धान्त पर आधारित है कि मतों की गणना की बजाय उनको तोला जाना चाहिए। इस पद्धति का प्रयोग बहु-सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्रों में ही होता है। यह अल्पसंख्यकों को भी प्रतिनिधित्व प्रदान करने में सक्षम है। इस पद्धति की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें उम्मीदवार को बहुमत प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं है। इस पद्धति का सर्वप्रथम प्रयोग 1793 मं फ्रांस में हुआ था, लेकिन आज अनेक देशों में हो रहा है। इस पद्धति की व्याख्या सबसे पहले टॉमस हेयर ने अपनी रचना 'Election of Representation' में की थी। इस प्रणाजली के दो रूप हैं - (i) एकल संक्रमणीय मत प्रणाली (ii) सूची प्रणाली। यद्यपि आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के नाम से ही अधिक जाना जाने लगा है। इस प्रणाली के दोनों रूप हैं :-

एकल संक्रमणीय मत प्रणाली  

इस प्रणाली को 1851 में टॉमस हेयर ने विकसित किया था। इस प्रणाली के अनुसार देश को बहुसदस्यीय निर्वाचन क्षेत्रों में बांट दिया जाता है और प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से कम से कम तीन तथा अधिक से अधिक बीस सदस्यों को चुना जाता है। इस पद्धति में मतदाता को एक पर्चा दिया जाता है जिसकी कई तरफ सभी उम्मीदवारों के नाम और प्रतीक दिए होते हैं और दाई ओर खाली खाने होते हैं। इस खाली जगह पर मतदाता 1, 2, 3, 4, आदि संख्या लिखकर अपनी प्राथमिकताएं प्रकट करता है। यह मतदाता की इच्छा होती है कि वह किसी खाने को भरे या किसी को खाली छोड़ दें मतों की गणना करने से पहले इसमें सभी अवैध मतों को रद्द कर दिया जाता है। फिर गिनती के बाद जिस उम्मीदवार को कोटे में निश्चित मत प्राप्त हो जाते हैं तो वह विजयी घोषित कर दिया जाता है। इस कोटे या मतों की संख्या को निकालने के दो तरीके हैं :-

कुल मतों की संख्या
(क) --------------- = कोटा
कुल स्थानों की संख्या

कुल मतों की संख्या
(ख) ------------------ +1 = कोटा
कुल स्थानों की संख्या +1

उदाहरण स्वरूप किसी निर्वाचन क्षेत्र से 180000 मतदाताओं ने मतदान किया है और निर्वाचित होने वाले प्रतिनिधियों की संख्या 10 हो तो किसी प्रतिनिधि को निर्वाचित होने के लिए कम से कम मत संख्या प्राप्त करनी होगी :-

180000
------ +1 = 18001 मत।
10 × 1

यह हेयर सूत्र है। आज यही अधिक प्रचलित है। क सूत्र को कम ही अपनाया जाता है। हेयर सूत्र में मतों की गणना करते समय एक विशेष विधि का प्रयोग होता है। इसका आधार वरीयता के अनुसार मतों का प्रतिनिधि से दूसरे प्रतिनिधि को संक्रमण (Transfer) है। पहले तो प्रथम वरीयता वाले मतों की गिनती होती है। यदि कोई उम्मीदवार कम-से-कम मत-संख्या प्राप्त कर लेता है तो उसे निर्वाचित कर लिया जाता है। शेष मत जो प्रथम पसंद के रूप में उसे प्राप्त थे, उसका परिणाम घोषित होते ही ये दूसरी पसंद के उम्मीदवार को संक्रमणित (Transfer) कर दिये जाते हैं और उसको निश्चित मत-संख्या पर ले जाकर निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है। यह प्रक्रिया उस समय तक चलती रहती है, जब तक आवश्यक प्रतिनिधियों को निर्वाचित न कर लिया जाए। भारत में राष्ट्रपति तथा राज्य सभा के सदस्यों का निर्वाचन इसी आधार पर होता है। 1969 में राष्ट्रपति वी0वी0 गिरी द्वितीय वरीयता क्रम में बहुमत प्राप्त करके ही राष्ट्रपति बने थे।

सूची-प्रणाली 

 इस प्रणाली के अन्तर्गत बहुसदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र की व्यवस्था होती है। इसमें एक ही क्षेत्र से कई प्रतिनिधियों का चुनाव किया जाता है। इसमें निर्वाचन का आधार व्यक्तिगत न होकर दलीय होता है। उम्मीदवार को जो वोट मिलते हैं, वे दल के ही वोट होते हैं। इसमें मतदाताओं को विशेष सूची दिए गए उम्मीदवारों को अपनी पसन्द के अनुसार वोट देने को कहा जाता है। इसमें भी निर्वाचन अंक की गणना उपरोक्त विधि से ही की जाती है। उदाहरण के लिए चुनाव में खड़े तीन दलों - A, B, C को कुल मत 100000 प्राप्त हुए और निर्वाचन क्षेत्रों के प्रतिनिधियों की संख्या 10 रखी गई थी। इसमें से । को 60000 तथा B व C को 20-20 हजार वोट प्राप्त हुए। इस दृष्टि से सूची में A को 6 सदस्य तथा B व C को दो-दो सदस्य चुनने का अधिकार प्राप्त होगा। यद्यपि यह प्रणाली सरल व सस्ती है, लेकिन बड़े देशों के लिए अव्यवहारिक भी है। इसमें दलीय प्रणाली के दोष उजागर होने लगते हैं और उम्मीदवार के ऊपर कठोर दलीय अनुशासन लागू रहने से उसकी स्वतन्त्रता का हास होने लगता है। लेकिन फिर भी वे बेल्जियम, स्विट्जरलैण्ड, नार्वे, स्वीडन, डेनमार्क में इसे ही अपनाया गया है।

आनुपातिक प्रतिनिधित्व के गुण

  1. इसमें जनता के सभी वर्गों विशेष तौर पर अल्पसंख्यक वर्ग को भी प्रतिनिधित्व मिल जाता है।
  2. यह प्रणाली जनता को राजनीतिक शिक्षा प्रदान करती है।
  3. यह प्रणाली लोकतत का सही प्रतिनिधित्व करती है। इसमें सभी दलों को मतों के अनुरूप ही विधानमण्डल में स्थान प्राप्त हो जाते हैं।
  4.  इसमें मतदाताओं को अधिक स्वतन्त्रता मिलती है।
  5. यह प्रजातन्त्रीय व्यवस्था की सूचक है। इसमें दल विशेष का अधिपत्य स्थापित नहीं हो सकता।
  6. इसमें व्यवस्थापिका जनता के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करती है।
  7. इसमें कोई मत बेकार नहीं जाता।
  8. इसमें निर्वाचन सम्बन्धी भ्रष्टाचार पर अंकुश लग जाता है।
  9. यह प्रणाली अधिक खर्चीली नहीं है।

आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अवगुण

यद्यपि यह प्रणाली वर्ग, दल, गुट व जाति के लिए कुछ न कुछ प्रतिनिधित्व अवश्य सुनिश्चित करती है, लेकिन फिर भी इसमें कुछ दोष हैं :-
  1. यह प्रणाली दलों को अधिक महत्व देती है।
  2. यह प्रणाली जटिल तथा भ्रांतिपूर्ण है।
  3. यह मतदाताओं तथा प्रतिनिधियों के बीच खाई पैदा करती है।
  4. इससे साम्प्रदायिकता तथा अल्पसंख्यक विचार-सारणी का जन्म होता है।
  5. यह व्यवस्थापिका को दलीय संघर्ष का अखाड़ा बना देती है।
  6.  इसमें सार्वजनिक लाभ की आशा करना बेकार है।
  7. यह जनमत के शासन की बजाय गुटबन्ददी का शासन है।
  8. इसमें उप-चुनावों की व्यवस्था का अभाव है।
  9. इससे दलीय तानाशाही का जन्म होता है।
यद्यपि इस प्रणाली में अनेक दोष हैं, लेकिन फिर भी यह सर्वथा महत्वहीन नहीं है। आज विश्व के अनेक देशों में इसका प्रचलित होना ही इसके महत्व को प्रतिपादित करता है। इसके बारे में यह बात अवश्य सत्य है कि इसका प्रयोग अधिक जागरूक और प्रबुद्ध मतदाता ही ठीक तरह से कर सकते हैं। इसलिए हमें इसका प्रयोग करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि यह प्रणाली कोई अचूक या रामबाण औषधि नहीं है। इसकी सफलता राजनीतिक चेतना व प्रबुद्ध नागरिकों पर ही निर्भर है। अन्य सभी प्रणालियों से यह प्रणाली ही अधिक महत्व रखती है।

अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व

आधुनिक समय में अल्पसंख्यक वर्गों को प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था प्रत्येक राजनीतिक समाज के लिए एक चुनौती है। जे0एस0मिल ने सरकार को बहुसंख्यक वर्ग के हाथों में देना अलोकतन्त्रीय माना है। उसका कहना है कि किसी भी देश में किसी वर्ग का प्रतिनिधितव अनुपाती न होकर समानुपाति होना चाहिए। लेकी ने भी अल्पसंख्यक वर्ग के प्रतिनिधित्व को उचित माना है। उसका कहना है कि बहुसंख्यक वर्ग के साथ-साथ सरकान में अल्पसंख्यक वर्ग का भी प्रतिनिधित्व बहुत आवश्यक है। इसलिए अल्पसंख्यक वर्ग को प्रतिनिधित्व देने से पहले अल्पसंख्यक वर्ग की समुचित जानकारी होना भी जरूरी हो जाता है। कुछ विद्वानों ने अल्पसंख्यक वर्ग को परिभाषित करने का भी प्रयास किया है। एनसाईकलोपेडिया ऑफ ब्रिटेनिका में लिखा है-”अल्पसंख्यक वर्ग वह है जो अन्य वर्गों या गुटों से कम सदस्य संख्या रखता है।” संयुक्त राष्ट्र संघ की मानव-अधिकार रिपोर्ट में 1950 में कहा गया है कि “अल्पसंख्यक शब्द में जनता के वे ही अप्रभुत्वशील वर्ग शामिल हो सकते है जो स्थायी जातिय, धार्मिक या भाषायी परम्पराओं या विशेषताओं वाले होते हैं और जिन्हें वे बनाए रखना भी चाहते हैं ओर इस कारण वे शेष जनसंख्या से भिन्न होते हैं।” आज राजनीतिक विद्वानों का कहना है कि इस प्रकार अल्पसंख्यक वर्ग बहुसंख्यक वर्ग से अलग होने के कारण अलग प्रतिनिधित्व का हकदार हो जाता है। अल्पसंख्यकों को उचित प्रतिनिधित्व देने के लिए अनेक देशों में अलग-अलग विधियां प्रयुक्त की जाती हैं। भारत में राष्ट्रपति या राज्य सभा के सदस्यों का चुनाव करते समय आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली ही अपनाई जाती है जिसका आधार ‘एकल संक्रमणीय मत प्रणाली है। आज विश्व के सभी लोकतन्त्रीय देशों में अल्पसंख्यक वर्ग को उचित प्रतिनिधित्व देकर न्याय प्रणाली को भी संगत बनाया जाता है। अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने के प्रमुख तरीके हैं :-

द्वितीय मतदान पद्धति

इस पद्धति के अधीन यह अपेक्षा की जाती है कि उम्मीदवार को जीतने के लिए 50 प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त होने चाहिए। यदि कोई उम्मीदवार निर्धारित मत नहीं लेता है तो उसका निर्वाचन रद्द कर दिया जाता है और शेष उम्मीदवारों के बीच में ही फिर मतदान द्वारा मुकाबला चलता है। उदाहरण के लिए जब एक सीट के लिए केवल तीन उम्मीदवार मैदान में हों। उस निर्वाचन क्षेत्र में कुल 40000 मत चुनाव में उम्मीदवारों को प्राप्त हुए हों, जिनमें से । को 19000, B को 14000, C को 7000 वोट प्राप्त हुए हों, तो उस अवस्था में A को 50 प्रतिशत बहुमत मिलने के लिए तीसरे उम्मीदवार को चुनाव मैदान से हटाना जरूरी हो जाता है। दोबारा चुनाव मैदान में A और B ही रह जाते हैं। दोबारा मतदान में A या B में से कोई भी बहुमत हासिल करके विजयी बन सकता है। इस तरीके से भी अल्पसंख्यकों की स्थिति काफी सुधर सकती है, क्योंकि दोबारा होने वाले मतदान में वे किसी विशेष उम्मीदवार या राजनीतिक दल के साथ सौदेबाजी करके अपने हितों को सुरक्षित कर सकते हैं।

वैकल्पिक मत प्रणाली

इस प्रणाली के अन्तर्गत मतदाता अपना वोट देते समय अपनी कई पसंद व्यक्त कर सकता है। यदि पहली ही गिनती में उम्मीदवार जीत जाता है तो ठीक है, अन्यथा सबसे कम वोटों वाले उम्मीदवार को सूची से हटाकर उसके स्थान वाली वोटों में पसंद के अनुसार शेष उम्मीदवारों में बांट दिया जाता है। इसी तरह पूर्ण बहुमत तक यही प्रक्रिया दोहराई जाती है और अन्त में आवश्यक संख्या पर पहुंचते ही चुनाव परिणाम घोषित कर दिया जाता है। इस प्रणाली में भी अल्पसंख्यक किसी भी राजनीतिक दल के साथ सौदेबाजी करने की अपेक्षा स्वयं ही अपने हितो को सिद्ध करने के निकट पहुंच जाते हैं।

सीमित मत प्रणाली

इस प्रणाली में यह अपेक्षा की जाती है कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में कम से कम तीन सदस्यों को अवश्य निर्वाचित किया जाए। इसलिए प्रत्येक मतदाता निर्धारित सीटों की अपेक्षा कम मत डालता है। इसमें कोई भी प्रत्याशी एक मतदाता द्वारा एक ही मत प्राप्त करता है। इसमें मतदाता को यह हिदायत होती है कि वह एक उम्मीदवार को एक ही वोट दे। उदाहरण के लिए किसी निर्वाचन क्षेत्र से 10 उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हों और उनमें से केवल 4 को ही चुना जाना हो तो प्रत्येक मतदाता को उसे अधिक मत डालने का अधिकार नहीं होगा। यह प्रणाली अल्पसंख्यकों की स्थिति में कुछ न कुछ सुधार अवश्य लाती है और यदि उनकी संख्या अधिक है तो वे एकाध स्थान तो प्राप्त कर ही लेते हैं, जो साधारण बहुमत प्रणाली में सम्भव नहीं होता। यह प्रणाली इंग्लैण्ड, जापान और इटली में प्रचलित थी, लेकिन अब नहीं है।

पृथक-निर्वाचन प्रणाली

इस प्रणाली को साम्प्रदायिक चुनाव प्रणाली भी कहा जाता है। इसका प्रयोग भारत में अंग्रेजों ने किया था। 1909 में मार्ले-मिण्टो सुधारो मे तहत इसमें पृथक-निर्वाचन प्रणाली की व्यवस्था की गई थी जो हिन्दू और मुस्लिम समाज को धर्म के आधार पर दो भागों में बांटने वाली थी। 1919 के अधिनियम तथा 1935 के अधिनियम के तहत यह व्यवस्था और अधिक मजबूत की गई और भारतीय समाज में फूट डालने का यह अनोखा तरीका था। दोनों सम्प्रदायों को अपने-अपने क्षेत्रों से अपने-अपने प्रतिनिधि चुनने की छूट थी। लेकिन इसका प्रमुख दोष यह था कि यह राष्ट्रीय एकता को भंग करने वाली थी और सामाजिक व आर्थिक विकास के मार्ग में बाधक थी। स्वतन्त्रता के बाद भारत ने इस प्रणाली को समाप्त कर दिया।

संचयी मत-प्रणाली

इस प्रणाली के अधीन प्रत्येक मतदाताओं को स्थानों की संख्या के बराबर मत प्रदान किए जाते हैं और उसे यह अनुमति होती है कि वह अपने सभी मत अलग-अलग व्यक्तियों की अपेक्षा एक ही व्यक्ति को दे सकता है और चाहे तो कम या अधिक मात्रा में वोटों का बंटवारा कर सकता है। इससे जाहिर है कि अल्पसंख्यक मतदाता अपना वोट अल्पसंख्यक उम्मीदवार को ही देंगे। इससे उनका एक उम्मीदवार तो अवश्य प्रतिनिधित्व प्राप्त कर सकेगा। लेकिन इसके लिए अल्पसंख्याकों का संगठित व एकमत रहना जरूरी है। इस प्रणाली को एकल मतदान प्रणाली भी कहा जाता है।

सुरक्षित स्थानयुक्त संयुक्त निर्वाचन प्रणाली

इस पद्धति को आरक्षण पद्धति कहा जाता है। इसके अन्तर्गत चुनावों के दौरान कुछ स्थान आरक्षित कर दिए जाते हैं। उस स्थान से केवल वही उम्मीदवार चुनाव लड़ सकता है, जिस जाति, धर्म, वर्ग या प्रजाति के लिए सीट सुरक्षित है। भारत में यह प्रणाली है। संविधानिक प्रावधानों के अन्तर्गत ही प्रत्येक चुनाव में अल्पसंख्यकों के लिए कुछ स्थान आरक्षित किए जाते हैं। इससे अल्पसंख्यक वर्ग को अवश्य प्रतिनिधित्व मिल जाता है। इसका प्रमुख गुण यह है कि इसमें साम्प्रदायिकता के स्थान पर सामाजिक एकता का विकास होता है, क्योंकि चुनावों में सभी जातियों या वर्गों के मतदाता व्यक्ति विशेष को ही अपना मत देने के लिए बाध्य होते हैं।

व्यवसायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली

इस व्यवस्था के अन्तर्गत उम्मीदवार अलग-अलग पेशों से होते हैं। इसमें मतदाताओं को अपने अपने व्यवसायों से ही प्रतिनिधि चुनने का अिध्ऋाकार होता है। इस प्रणाली की व्यवस्था पेशेगत है। चुनाव क्षेत्र भी पेशेगत आधार पर ही बंटे होते हैं। लेकिन इस प्रणाली का दोष यह है कि इसके आधार पर चुने हुए उम्मीदवार पेशे विशेष के हितों का ध्यान रखते हैं, सम्पूर्ण समाज का नहीं। लेकिन फिर भी इसमें अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व अवश्य सुरक्षित हो जाता है।

प्रवासी मतदान प्रणाली

इस प्रणाली के अन्तर्गत एक मतदाता एक बहुसदस्यीय-निर्वाचन क्षेत्र में एक उम्मीदवार के लिए अपना मत दे सकता है। कम से कम मतों की संख्या निर्धारित होती है और जो उम्मीदवार उतने मत प्राप्त कर लेता है, उसे निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है। इसमें यह भी व्यवस्था की जाती है कि जो व्यक्ति अपना मत ऐसे व्यक्ति को देते हैं, जो असफल हो जाता है, तो वे मतदाता फिर से मतदान करके रिक्त पदों को भर सकते हैं। इसके लिए गुप्त मतदान प्रणाली अपनाई जाती है। इसमें भी अल्पसंख्यकों को कुछ न कुछ प्रतिनिधित्व तो मिलने की संभावना अवश्य रहती है।

 मतभार प्रणाली

इस प्रणाली के अन्तर्गत अल्पसंख्यकों को अधिक वोट देने का अधिकार प्रदान किया जाता है। उन्हें बहुसंख्यक वर्ग की संख्या से अधिक मत देने का अधिकार प्राप्त होता है। भारत में स्वतन्त्रता से पहले मुसलमानों और सिखों को हिन्दुओं से अधिक मत देने का अधिकार प्राप्त था। इसमें भी अल्पसंख्यक वर्गों को प्रतिनिधित्व मिलने की प्रबल संभावना होती है। लेकिन आज भारत में यह प्रणाली नहीं है।

आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली

आज अल्पसंख्यक वर्ग को उचित प्रतिनिक्तिात्व देने के लिए इस प्रणाली को सर्वोत्तम माना जाता है। इसमें अल्पसंख्यक वर्ग को उसकी संख्या के अनुपात में प्रतिनिक्तिात्व प्रदान किया जाता है। जे0एस0 मिल ने इसी प्रणाली को लोकतन्त्र का आधार माना है। इस प्रणाली को एकल संक्रमणीय मत-प्रणाली तथा सूची प्रणाली की उपव्यवस्था के तहत संचालित किया जाता है। इस प्रणाली के बारे में इसी अध्याय के ‘आनुपातिक प्रतिनिधित्व’ नामक शीर्षक के अन्तर्गत विस्तार से समझाया गया है।

उपरोक्त विवेचन के बाद कहा जा सकता है कि अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने के लिए अनेक प्रणालियां प्रचलित हैं। अल्पसंख्यक हमारे समाज का अभिन्न अंग हैं। यदि उनके हितों की उपेक्षा की जाती है तो वे समाज की आम धारा से कट सकते हैं और राष्ट्रीय एकता को खतरा उत्पन्न हो सकता है। लेकिन प्रतिनिधितव की व्यवस्था करते समय यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि अल्पसंख्यक को अपने विशेषाधिकारों का दुरुपयोग करके बहुसंख्यक के कोप का भाजन राजनीतिक व्यवस्था को न बना दे। विशेष व्यवस्थाओं के तहत अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक दोनों वर्गों को ही उचित प्रतिनिधित्व मिलने से ही समाज व देश का भला हो सकता है। सत्ता प्रतिनिधित्व की उचित व्यवस्था को ही लागू किया जाना चाहिए।

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