धर्म की उत्पत्ति के सम्बंध में दो मुख्य सिद्धान्त-आत्मावाद तथा प्रकृतिवाद का उल्लेख

विभिन्न मानवशास्त्रियों तथा समाजशास्त्रीयों ने धर्म की उत्पत्ति से संबंधित अपनी-अपनी मान्यताएं प्रस्तुत की हैं। 19 वीं शताब्दी में धर्म का समाजशास्त्र दो प्रमुख प्रश्नों पर केन्द्रित रहा। धर्म किस प्रकार शुरू हुआ तथा धर्म का विकास कैसे हुआ? धर्म की उत्पत्ति के सम्बंध में दो मुख्य सिद्धान्त-आत्मावाद तथा प्रकृतिवाद का उल्लेख किया जा सकता है। 

आत्मावाद का प्रतिपादन एडवर्ड टाइलर द्वारा किया गया। इस सिद्धान्त के अनुसार धर्म की उत्पत्ति का मूल स्रोत पूर्वजों की आत्माओं में विश्वास करना है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि कोई ऐसी चेतन शक्ति है जो अशरीर (अमूर्त) होते हुए भी शक्ति सम्पन्न है और उस शक्ति की सभी अच्छे-बुरे कार्यों पर दृष्टि रहती है। जनजातियों ने इसी आकृति रहित शक्ति को आत्मा का संज्ञा दी है। आत्मावाद के अनुसार प्रकृति की सारी वस्तुओं में एक आत्मा का निवास होता है। आत्मा के बिना कहीं भी गति या घटना नहीं हो सकती है। आत्मा के स्वरूप की व्याख्या करते हुए टाइलर ने कहा है कि यह एक प्रकार की छाया है। जिस प्रकार मानव के शरीर में आत्मा निवास करती है उसी प्रकार विश्व की सारी वस्तुओं में आत्मा का निवास पाया जाता है। मानव अपने अनुरूप ही विश्व की प्रत्येक वस्तु में आत्मा का दर्शन करता है विश्व की वस्तुएं मानव के हृदय में जिज्ञासा, आश्चर्य तथा भय की भावना का संचार करती हैं। 

आत्मावाद के सिद्धान्त के अनुसार आत्माएं दो प्रकार की होती हैं- (i) शरीर आत्मा तथा (ii) स्वतन्त्र आत्मा । शरीर आत्मा स्वतन्त्र नही होती। टाइलर के अनुसार स्वतन्त्र आत्मा शरीर से बार-बार निकलती है और पुनः शरीर में प्रवेश करती है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि स्वतन्त्र आत्मा स्वप्न के रूप में दिखाई देती है। शरीर आत्मा स्वतन्त्र नही होती। शरीर से एक बार निकल जाने पर शरीर आत्मा पुनः प्रवेश नही करती है, जिससे व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। जनजातियों का विश्वास है कि व्यक्ति की मृत्यु के उपरान्त भी आत्मा का अभितत्व समाप्त नही होता है। ये आत्माएं किसी विशेष स्थान अथवा पदार्थ में प्रवेश होकर मानवीय क्रियाओं को नियन्त्रित करती रहती है और व्यक्ति की सफलता /असफलता को प्रभावित करती है। इस प्रकार इन आत्माओं को प्रसन्न करने के लिए धर्म की उत्पत्ति हुई।

प्रकृतिवाद से तात्पर्य प्रकृति के अलौकिक शक्ति पर विश्वास से है। मैक्स मूलर ने प्रकृतिवाद के सिद्धान्त को प्रस्तुत करते हुए कहा है कि प्रत्येक जड व चेतन पदार्थ में जीवित सत्ता पाई जाती है। आदिकालीन मानव का सम्पूर्ण जीवन प्रकृति के बीच व्यतीत होता था और इसी प्रकृति के बीच उसे सब प्रकार के अच्छे व बुरे अनुभव प्राप्त होते थे। जहां एक ओर सूर्य व वर्षा मानव को लाभ पहुंचातें हैं वहीं कुछ प्राकृतिक शक्तियां ऐसी हैं जो विनाश का कारण बनती हैं। ये विनाशकारी शक्तियां उसके सम्पूर्ण भ्रम को समाप्त कर देती है जिसके कारण आदिम मानव के भीतर इन प्राकृतिक विनाशकारी शक्तियों के प्रति भय तथा श्रद्धा की भावनाएं एक साथ उत्पन्न हुई। इन लोगों ने यह अनुभव किया कि कोई ऐसी अदृश्य शक्ति अवश्य है जो मनुष्य से अधिक शक्तिशाली है और जो मानव को अप्रत्यक्ष रूप से सदैव प्रभावित करती है। इसी को आधार मानकर मैक्समूलर ने कहा कि आदिमानव ने विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों जैसे-सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, जल तथा कुछ विशेष प्रकार के पेड़ पौधों के प्रति पूजा व
आराधना द्वारा अपनी श्रद्धा को प्रदर्शित करना आरम्भ किया, जिससे वे प्रकृति के दुष्परिणामों से अपने को बचाकर इन शक्तियों का लाभ उठा सकें। उदाहरण के लिए मिस्र में सबसे बड़ा देवता 'रा' अर्थात् सूर्य को माना जाता है। आदिम व्यक्तियों ने इन प्राकृतिक पदार्थों को सजीव तथा क्रियाशील मान लिया। सूर्य का उदय होना तथा आंधी का आना। ये दोनों क्रियाएं पृथ्वी को उस स्थिति पर पहुंचने पर प्रभावित करती हैं अर्थात् सूर्य कभी उदय नहीं होता या कहें नहीं चलता, बल्कि पृथ्वी उसी स्थिति पर अपनी परिक्रमा के दौरान पहुचती है। जिससे पृथ्वी पर सूर्य का उदय होना जैसे प्रभाव देते हैं। इसलिए इन प्राकृतिक शक्तियों के प्रति श्रद्धा तथा भय मिश्रित भावनाओं से ही धर्म की उत्पत्ति हुई है ।

19वीं शताब्दी के समाजशास्त्रीयों ने धर्म की उत्पत्ति के क्रमिक विकास की ओर ध्यान दिया, जिसके परिणाम स्वरूप विभिन्न सिद्धान्त प्रचलन में आये। आगस्त काम्ट के धर्म के त्रिस्तरीय नियम के अनुसार समाज का विकास तीन चरणों में हुआ है- (i) धार्मिक स्तर, जिसमें पुजारी की महत्त्वपूर्ण भूमिका होगा तथा जिसका शासन सैनिकों द्वारा होगा (ii) तात्विक स्तर; जिसमें पादरीयों और वकीलों का महत्त्व होगा तथा (iii) प्रत्यक्षवादी स्तर; जो औद्योगिक प्रशासकों, वैज्ञानिको और नैतिक शिक्षाविद के द्वारा प्रभावित होगा।

हरबर्ट स्पेन्सर के अनुसार समाज का विकास चार चरणों में हुआ है- (i) पूर्वज की उपासना, (ii) बहुदेववाद, (iii) अद्वैतवाद तथा (iv) अज्ञेयवाद या नास्तिकवाद ।

इसी प्रकार फ्रेजर ने विकास के तीन चरणों का उल्लेख किया है- (i) जादू (ii) धर्म तथा (iii) विज्ञान। फ्रेजर का कहना था कि धर्म की उत्पत्ति जादू-टोना से हुई अर्थात् धर्म की प्रारम्भिक अवस्था जादू-टोना है। आदिम मनुष्यों ने पहले-पहल जादू, मंत्र इत्यादि द्वारा प्राकृतिक वस्तुओं को अपने वश में करने का प्रयास किया, परन्तु असफल हो जाने की स्थिति में आत्मसमर्पण कर उनकी अधीनता को स्वीकारते हुए उनकी पूजा, आराधना तथा प्रार्थना के द्वारा प्रसन्न करने का प्रयास किया।

धर्म का प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य

धर्म की व्याख्या करने के लिए तार्किक या वैज्ञानिक आधार पर प्रस्तुत व्याख्या उतनी खरी नहीं उतरती है, जितनी इसकी प्रकार्यवादी व्याख्या। समाजशास्त्रीय प्रकार्य की अवधारणा सामाजिक संगठन एवं व्यवस्था से सम्बन्धित है। इस अवधारणा को प्रस्तुत करने का उद्देश्य समाज या सामाजिक जीवन में होने वाले निरन्तर परिवर्तन व समाज व्यवस्था को कतिपय प्राणीशास्त्रीय सत्यताओं के आधार पर परिभाषित करना था। संरचनातमक प्रर्कावाद के अनुसार समाज समग्र रूप में एक ऐसी व्यवस्था है जो इसके विभिन्न भागों की सुव्यवस्था पर आश्रित है, परन्तु समाज अपने विभिन्न अंगों की अपेक्षा थोड़ा अलग है और इसे पूर्णरूप से व्यक्तिवादी या उपयोगितावादी अर्थों में नही समझा जा सकता है साथ ही समाज के विभिन्न अंगों को सम्पूर्ण समाज से अलग रखकर भी हम नहीं समझ सकते हैं अर्थात, सामाजिक व्यवस्था इसके विभिन्न अंग और इसके विभिन्न अंगों को समाज के सन्दर्भ में ही समझा जा सकता है।

प्रत्येक समाज के अस्तित्व के लिए कुछ पूर्व मौलिक आवश्यकताएं तथा आवश्यक परिस्थितियां होती है। समाज के अस्तित्व के लिए यह आवश्यक है कि अपने सदस्यों का एक अस्तित्व संगठन या व्यवस्था तैयार करे, जो इन आवश्यक स्थितियों से निपट सके। समाज के अस्तित्व के लिए यह भी आवश्यक है कि उसके सदस्यों के मस्तिष्क में एक निश्चित भावनात्मक व्यवस्था हो जो व्यक्ति विशेष के व्यवहार को सम्पूर्ण समाज के संदर्भ में प्रकार्यात्मक बनाता है और समाज की एकरूपता को बनाए रखता है। धर्म का एक महत्त्वपूर्ण कार्य उन भावनाओं को तार्किक और न्यायसंगत करार देना है जो समाज की एकता को बनाए रखते हैं। 

धर्म समाज का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। यह समूह के लिए सामान्य है तथा धार्मिक विश्वास और कमकाण्डों का पालन प्रत्येक व्यक्ति समूह का सदस्य होने के कारण करता है। ईश्वर की आराधना एक महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक विषय है, जिससे समुदाय का समर्थन प्राप्त होता है तथा इसे साम्प्रदायिक उद्देश्यों के पूर्ति के लिए सम्पन्न किया जाता है। सामूहिक रीति-रिवाजों के माध्यम से सामान्य विश्वासों की अभिव्यक्ति एक व्यक्ति की समूह के प्रति समर्पण की भावना को स्पष्ट करता है। यह उसके सामूहिक मानक अथवा प्रतिमानों के प्रति समर्पण के भाव को और पुष्ट करता है तथा उसे अपने व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठने के लिए प्रेरित करता हैं। धर्म एक समूह के सदस्यों को और दृढ़ बनाता है और उसे अन्य जनजातियों समुदायों या राष्ट्रों से अलग करता है। इस प्रकार संक्रियावादी दृष्टिकोण ने धर्म को समाज के आधारभूत आवश्यकता के रूप में विश्लेषण किया है। इस विचारधारा के अनुसार समाज का एक स्वस्थ एवं सुव्यवस्थित ढाँचा है जिसमें मूल्यगत अनुकूलता एवं अनुरूपता तथा समाजिक अंगों (सदस्यों) में परस्पर समबद्धता की अपेक्षा की जाती है। धर्म का कार्य सामाजिक संगठन की पूर्वाकांक्षाओं की प्रतिपूर्ति में योगदान है ।

दुर्खीम ने सामाजिक जीवन में धर्म की महत्त्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार किया है। इन्होंने आत्महत्या से सम्बन्धित अपने सिद्धान्त में धर्म द्वारा सामाजिक एकता को बनाये रखने के लिए निभायी जाने वाली महत्त्वपूर्ण भूमिका का वर्णन किया है। दुर्खीम ने यह भी कहा कि धर्म भोगविलास के प्रति विरक्ति का भाव पैदा करके आदर्शहीनता से बचाता है।

दुर्खीम ने धर्म के अध्ययन के लिए आस्ट्रेलिया की अरूण्टा जनजातीय समूह को चुना। धार्मिक जीवन के प्रारम्भिक स्वरूप में दुर्खीम ने आदिम समाजों के अध्ययन के आधार पर एक सिद्धान्त को विकसित किया है। उनका मानना है कि धर्म को समाज ही बनाता है अर्थात् 'जैसा समाज होगा, वैसे ही उसके देवी-देवता भी होंगें। 

दुर्खीम ने धर्म की व्याख्या करते हुए दो अवधारणाओं को रखा है- पवित्र और प्रोफेन (पार्थिव)। इसमें पवित्रता को दुर्खीम धर्म से जोड़कर देखते हैं। वे दुनियाँ की वस्तुओं को दो भागों में रखते हैं पहली वस्तुएं वे हैं जो मूर्त हैं, किन्तु यह आवश्यक नही है कि इस भाग की सभी वस्तुएं भौतिक ही हों। दूसरे भाग में वे वस्तुएं है जो पवित्र नहीं हैं, इन्हें दुर्खीम प्रार्थिव (प्रोफेन) कहते हैं। इस विभाजन में संसार की सम्पूर्ण वस्तुओं को इस तरह द्विभागी रूप में रखते हैं तो इस तरह के विभाजन के पीछे वस्तुओं में कोई अन्तर्निहित तत्व पर ध्यान नही दिया जाता है।

नारियल को पवित्र मानने के पिछे उसकी अन्तर्निहित विशेषताएं सम्मिलित नही हैं बल्कि नारियल को पवित्र बनाने वाले तत्व समाज के सदस्यों का नारियल के प्रति सम्मानजनक दृष्टिकोण है (Doshi and others 2002: 278)। धर्म का उद्देश्य पवित्र और अपवित्र को अलग-अलग रखने की शिक्षा देना है। केवल पवित्र को अपनाना ही धर्म है तथा पवित्र एवं अपवित्र को मिला देना पाप है। पाप युक्त कार्य से मुक्त होने के लिए शुद्धिकरण की क्रियाएं भी धर्म के अन्तर्गत आ जाती है। पवित्र और अपवित्र को पृथक करने की क्रियाएं सामूहिक जीवन में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है, जैसे पूजा का स्थान अलग होना, धार्मिक स्थान का अन्य कार्यों के लिए उपयोग न होना, धार्मिक क्रियाओं के लिए पृथक समय निश्चित होना, पवित्रता को अक्षुण रखने के लिए धार्मिक अवसरों पर अन्य अपवित्र माने जाने वाली क्रियाओं या वस्तुओं का बहिष्कार करना अििद बातें इसकी पुष्टि करती हैं कि धर्म पवित्र और अपवित्र को पृथक करने वाली सामाजिक क्रिया है।

धर्म का दूसरा महत्त्वपूर्ण तत्व सामूहिकता की भावना है। दुर्खीम ने धर्म की उत्पत्ति का कारण सामूहिकता में ही ढुढा और निष्कर्ष निकाला कि धर्म एक सामूहिक आदर्श है, जिसकी उत्पत्ति सामूहिक उत्तेजना में होती है। दुर्खीम के अनुसार टोटम प्रारम्भिक धार्मिक समूह है। टोटम एक नाम भी है और यह एक प्रतीक या चिन्ह भी है। नाम के रूप में टोटम किसी गोत्र समूह से सम्बन्धित वस्तु है। अतः समूह ही ईश्वर है। दुर्खीम के अनुसार धर्म का स्रोत स्वयं समाज है। धार्मिक पवित्र और ईश्वर केवल समाज की विशेषताओं के अतिरिक्त और कुछ नहीं। पवित्र अथवा ईश्वर केवल समाज का मानवीकरण है और धर्म का सामाजिक एकता की उत्पत्ति वृद्धि और स्थिरता में है।

धर्म का तीसरा महत्त्वपूर्ण तत्व धार्मिक संस्कार और अनुष्ठान है। धर्म न केवल विश्वासों की एक व्यवस्था है, बल्कि यह धार्मिक क्रियाओं का एक पुंज है जो संस्कारों के रूप में दिखलाई पड़ता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि धर्म के दो स्वरूप हैं। एक ज्ञानात्मक तथा दूसरा क्रियात्मक। कोई भी धार्मिक विश्वास तब तक स्थिर नहीं रह सकता जब तक कि उसे निरन्तर संस्कारों के माध्यम से वैधता और ताकत नही मिलती है। प्रथम कुछ नकारात्मक संस्कार होते हैं जो कुछ निश्चित प्रकार के निषेधों को थोपते हैं। यह संस्कार अपवित्रता को पवित्रता से पृथक करने का प्रयास या इस क्रिया में मदद करते हैं। दूसरे कुछ सकारात्मक संस्कार होते हैं जिसे क्रियान्वित करने की अनुमति समाज व्यक्ति को देता है। यह संस्कार पवित्र समझे जाते हैं और इनके माध्यम से व्यक्ति अपने देवता अर्थात् अपने समाज के साथ अपनी एकता को प्रकट करता हैं। धार्मिक संस्कार स्वयं विश्वासों को शक्ति प्रदान करते हैं, क्योंकि वे उस वास्तविकता को बार-बार प्रकट करते हैं, जिस पर यह विश्वास टिके हुये हैं। धार्मिक क्रियाओं का वास्तविक उद्देश्य यह परोक्ष प्रकार्य है कि वे व्यक्ति को समाज के साथ एकीकरण करने का अवसर प्रदान करते हैं।

धर्म का चौथा महत्त्वपूर्ण तत्व नैतिकता है। नैतिकता के आधार पर व्यक्ति का विशेष और निश्चित प्रकार का व्यवहार परिभाषित होता है। दुर्खीम के अनुसार नैतिक अनुशासन और आत्म नियंत्रण, जो धर्म प्रदान करता है, के बिना कोई जीवित नही रह सकता। दुर्खीम के अनुसार सर्वस्वीकृत मूल्य और नैतिक विश्वास; जो कि सामूहिक चेतना का निर्माण करते हैं, के बिना सामाजिक जीवन सम्भव नही है। इसके अभाव में सामाजिक नियंत्रण और सामाजिक एकता संभव नही है और यदि ये तत्व एक समाज में नही पाये जाते तो समाज का अस्तित्व भी सम्भव नही है।
दुर्खीम के समान मैलीनॉस्की ने भी धर्म के सम्बन्ध में अपने शोध को विकसित करने के लिए छोटे पैमाने के अशिक्षित समाजों से ऑकड़ा एकत्र किये। दुर्खीम के समान मैलीनॉस्की भी धर्म को सामाजिक मानकों और मूल्यों को बढ़ाकर सामाजिक एकता को बढ़ाने वाले कारक के रूप में देखते हैं। मैलीनॉस्की यह नही मानते कि धर्म समग्र समाज को प्रभावित करता है और ना ही वे धार्मिक रीति-रिवाजों को स्वयं समाज की उपासना के रूप में देखते हैं। मैलीनॉस्की सामाजिक जीवन के उन विशेष क्षेत्रों की पहचान करते हैं जिनसे धर्म विशेष तौर से जुड़ा हुआ है और जिन्हें मार्ग दिखाता है। यह भावनात्मक तनाव की परिस्थितियाँ हैं, जो सामाजिक एकता के लिए नुकसान देह है।

व्यग्रता और चिन्ता सामाजिक जीवन को अव्यवस्थित कर देती है। वह परिस्थितियाँ जो ऐसे संवेगो को उत्पन्न करती है, वे अपने साथ जीवन की शुभ-अशुभ बेला को भी शामिल करती है जैसे कि- जन्म, युवावस्था, विवाह और मृत्यु। मैलीनॉस्की ने यह महसूस किया कि जीवन के यह सभी शुभाशुभ अवसर धार्मिक रीति-रिवाजों से घिरे हुए हैं। मैलीनॉस्की इन तमाम घटनाओं में मृत्यु को सर्वाधिक विघटनकारी घटना मानते है और कहते हैं कि मजबूत व्यक्तिगत लगाव और मृत्यु का सत्य जो मानव के ऑकलन के हिसाब से सभी मानवीय घटनाओं में सर्वाधिक अशांत और विघटित करने वाली घटना है। यह घटना धार्मिक विश्वासों की मूल स्रोत है।
धर्म के समाजशास्त्र को मैलीनॉस्की की महत्वपूर्ण देन उनका यह विचार था कि भावनात्मक तनाव की परिस्थितियों जो समाज के स्थायित्व के लिए खतरा होती है, धर्म उनके साथ सामंजस्य बिठाकर सामाजिक एकता को पुष्ट करता है और उसे स्थायितव प्रदान करता है।

टेलकॉट पार्सन्स के अनुसार, मानवीय क्रियाएं सामाजिक व्यवस्था द्वारा प्रदान किए गये मानकों के अनुसार निर्देशित और नियंत्रित होती है। सांस्कृतिक व्यवस्था जो विश्वासों, मूल्यों और अर्थ की व्यवस्था के रूप में मानव की क्रियाओं को सामान्य निर्देश देती है, वह व्यवहार की एकमात्र आधार नही होती बल्कि वह सांस्कृतिक व्यवस्था द्वारा प्रदान किये जाने वाले मूल्यों और विश्वासों से जुडी हुयी होती है। उदाहरणार्थ, पश्चिमी समाज के बहुत से मानक भैतिकवादी मूल्यों की अभिव्यक्ति है। धर्म सांस्कृतिक व्यवस्था का एक हिस्सा है। अतः धार्मिक विश्वास मानव क्रियाओं के लिए निर्देशन प्रदान करते हैं और उसके मानक तय करते हैं, जिसके आधार पर मानव की क्रियाओं का मूल्यांकन किया जा सके। ईसाई समाज में दस धर्मादेश इसी रूप में कार्य करते हैं। सामाजिक व्यवस्था के बहुत से मानक इन्हीं धार्मिक विश्वासों के द्वारा एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और इस प्रकार से सामाजिक व्यवस्था को जोड़ कर रखते हैं। 

कार्यात्मक परिप्रेक्ष्य धर्म के प्रति सकारात्मक सहयोग पर अधिक बल देता है और दुष्प्रकार्यात्मक पक्ष की अवहेलना करता है। धर्म के विभिन्न गुण जैसे अनुरूपता उत्पन्न करना, शान्ति, एकता और परस्पर निर्भरता या सहानुभूति के आगे प्रकार्यवाद ऐसी तमाम घटनाओं की अवहेलना कर देता है, जहाँ धर्म को एक विघटनकारी शक्ति के रूप में देखा जा सकता है। कई बार धर्म अपने सिद्धान्तों और पूजा अर्चना के प्रश्न पर एक समुदाय में आन्तरिक विभाजन का कारण बनता है, ऐसा विभाजन जो खुले संघर्ष को बढ़ावा दे सकता है। धर्म एक ही समाज में विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच विरोध को थोड़ा बहुत वैचारिक महत्त्व को बढावा देता है। जैसा कि नार्दन आयरलैण्ड में कैथोलिक और प्रोटेस्टेण्ट धर्म के बीच स्थिति है। ऐसी स्थिति में धर्म व्यवस्था के लिए प्रत्यक्ष रूप से हानिकारक है।
कार्ल मार्क्स धर्म के दुष्प्रकार्यात्मक पक्ष को उजागर करते हैं मार्क्स के अनुसार धर्म एक ऐसी वस्तु है, जो व्यक्ति को कमजोर और दिग्भ्रमित करती है तथा उसकी कर्मठता को प्रभावित करती है। इस प्रकार मार्क्स के अनुसार धर्म समाज को कमजोर करता है।

मार्क्स के शब्दों में धर्म सताये हुए प्राणी का विलाप है। दम्यहीन बुद्धि की भावना है और निष्प्राण या उत्साहहीन परिस्थितियों की आत्मा है। यह लोगों के लिए 'अफिम' है। धर्म उत्पीड़न के द्वारा उत्पन्न होने वाली पीड़ा को कम करने के लिए पीड़ाहारी औषधि के रूप में क्रिया करता है। यह समस्या का समाधान करने के लिए कुछ नही करता बल्कि यह सामान्यतः जीवन को अधिक सहने योग्य बनाने का एक दिशाभ्रमित प्रयास है। धर्म वस्तुतः
अपने अनुयायियों को वास्तविक प्रसन्नता और समृद्ध करने की बजाय केवल उन्हें सम्मोहित करता है । 

मैक्सवेबर धर्म की व्याख्या दुर्खीम से भिन्न रूप में करते हैं और धर्म को आर्थिक पक्ष से जोड़कर उसके प्रकार्यात्मक स्वरूप की व्याख्या करते हैं। वेबर अपनी महत्त्वपूर्ण कृति 'द प्रोटेस्टेन्ट एथिक एण्ड द स्प्रिट आफॅ कैपटिलिज्म' में प्रोटेस्टेण्ट धर्म के निश्चित प्रकायों और पश्चिमी औद्योगिक पूंजीवाद के उत्थान के बीच सम्बन्धों की परीक्षा करते नजर आते हैं। वह कहते हैं कि पूँजीवाद का मूल तत्व लाभ को प्रोत्साहित करना और सदैव इस लाभ का नवीनीकरण करना है। पूँजीवाद उद्यम तार्किक नौकरशाही व्यवस्था पर आधारित और संगठित होता है। व्यावसायिक प्रबन्ध व्यवस्थित और तार्किक तरीके से सम्पादित किए जाते हैं जिसमें मूल्य और निर्धारित लाभ का सावधानीपूर्वक निरीक्षक होता है। 

वेबर के अनुसार पूँजीवाद की आत्मा न केवल धन कमाने का एक सामान्य तरीका है, बल्कि यह जीवन शैली भी है जिसमें नीति विषयक तत्व कर्तव्य और प्रतिज्ञा है (Haralambos 1980: 465)। वेबर मूलतः यह जानना चाहते थे कि धार्मिक शक्तियों या दवाब ने किस हद तक पूँजीवाद की आत्मा से सम्बन्धित विचारों की उत्पत्ति और उनके विस्तार को पुरे विश्व में प्रभावित किया है। अपने विचारों की पुष्टि के लिए वेबर सन्यासवादी प्रोटेस्टेण्ट धर्म के उदय के परीक्षण की ओर मुड़ते हैं जो उनके अनुसार पश्चिमी पूँजीवाद के विकास से जुड़ा हुआ है। वह प्रोटेस्टेण्ट धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों की ओर देखते हैं, विशेष कर "कल्विनिज्म" जो सत्रहवी शताब्दी में पश्चिमी यूरोप में विकसित हुआ। वेबर सन्यासवादी प्रोटेस्टेनिज्म में विभिन्न क्रियाओं को करने के लिए दिए गये मार्गदर्शन और नियमों पर ध्यान देते हैं, जो इस प्रकार है -

प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में अनिवार्य रूप से एक जीविका तथा एक सुपरिभाषित जीवन वृत्त होनी चाहिए, जिसका अनुपालन वह सुनिश्चित रूप में एकचित होकर करे। ईश्वर ने मानव को अपनी गरिमा के लिए काम करने का आदेश दिया है। एक व्यक्ति यदि अपने जीविका का अपुनालन सुनिश्चित रूप में एकचित होकर करता है तो इसका अर्थ है कि उसने ईश्वर के प्रति अपने विश्वास और उसकी गरिमा को नकारा नहीं है। प्रोटेस्टेण्ट धर्म में उस व्यक्ति की सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता है और वही व्यक्ति ईश्वर के सबसे करीब माना जाता है जो ज्यादा से ज्यादा अर्थोपार्जन करता है, परन्तु इस अर्थ का प्रयोग ईश्वर के गरिमा में खर्च करना चाहिए।

वेबर के अनुसार सन्यासवादी प्रोटेस्टेण्ट धर्म ने पश्चिमी पूँजीवाद को बढ़ावा दिया। उनके अनुसार प्रोटेस्टेण्ट नीतिशास्त्र के अन्तर्गत संसार के प्रति एक धार्मिक और नैतिक पूर्वाभिमुखीकरण पाया जाता है। यह तत्व पूँजीवाद की आत्मा ने पूँजीवाद के अभ्यास को निर्देशित किया। वेबर यह दावा नही करते कि सन्यासवादी प्रोटेस्टेण्ट धर्म ने पूँजीवाद को उत्पन्न किया। वे कहते है कि इसमें अनेक कारक भी जुड़े हुए हैं और इसके विकास में उनका भी योगदान है यद्यपि इन तमाम कारकों में सन्यासवादी प्रोटेस्टेण्ट धर्म एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कारक है और पश्चिमी यूरोप में पूँजीवाद के उत्पति और विकास में इसका अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है।

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