हिन्दी कहानी : विकास के चरण

कहानी का आरंभ कब हुआ होगा यह कहना बड़ा कठिन है। संभवतः मनुष्य ने जब से भावनाओं को अभिव्यक्त करने की कला को सीखा होगा या उसने जब कभी बोलना सीखा होगा तभी से कहानी की शुरुवात हुई होगी। क्योंकि बोलना या अभिव्यक्त करना मनुष्य का सहज स्वभाव है। मनुष्य जब कभी कुछ नया देखता है, सुनता है या अनुभूत करता है तो उसे अन्यों के सन्मुख व्यक्त करने की लालसा उसमें होती है। संभवतः इसी व्यक्त या अभिव्यक्त करने की लालसा के कारण ही कहानी का जन्म हुआ होगा । सृष्टि के आरंभ में जब कभी किसी वक्ता को श्रोता मिला होगा तभी से कहानी का आरंभ हुआ होगा। धीरे-धीरे जैसे समाज बनता गया और मनुष्य सामाजिक प्राणी होता गया वैसे-वैसे मनुष्य में कहानी कहने या सुनने की प्रवृत्ति बढती गई होगी । मनुष्य ने इस प्रवृत्ति को अपने विकास के साथ-साथ विकसित किया। इसी के कारण व्यक्ति-व्यक्ति के सम्बन्ध अधिक व्यापक होते गए और मनुष्य में अपनी भावनाओं और अपने संवेगो को सप्रेक्षित करने की क्षमता आ गई और तभी से मनुष्य कहानियाँ कहता और सुनता आ रहा है। मानव समाज में कहानी कहने और सुनने की प्रवृत्ति आदिम काल से चली आ रही है इसलिए हम कह सकते है कि कहानी का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना मनुष्य जाति का इतिहास है । प्राचीन साहित्य में इसकी परंपरा भी सुरक्षित है। इस दृष्टि से वैदिक साहित्य महत्त्वपूर्ण है । 

भारतीय साहित्य में संस्कृत भाषा के वैदिक साहित्य की प्राचीन परंपरा दिखाई देती है। लौकिक संस्कृत साहित्य में 'पंचतंत्र', 'कथा सरित् सागर' तथा 'दशकुमार चरित' की कहानियाँ प्रसिद्ध ही है, उसी प्रकार से अनेक पौराणिक कहानियाँ भी जनमानस में प्रचलित रही । रामायण और महाभारत की कहानियाँ भी जनसामान्य में लोकप्रिय रही बुद्ध की जातक कथाएँ भी कहानी के प्रारंभिक रुप का ही परिचय देती है। इसी प्रकार से भारतीय परिवारों में बाल्यावस्था में दादी और नानी की कहानियाँ भी प्रसिद्ध रही है । देवताओं और राक्षसों तथा परियों की कहानियाँ भी सर्व सामान्य जनता में लोकप्रिय रही है, किन्तु इन कहानियों का रचना विधान आधुनिक कहानी जैसा नहीं है। आज जिसे कहानी कहा जाता है वह कहानी उपर उल्लेखीत कहानियों से बिलकुल भिन्न है ।

वर्तमान युग में जिसे कहानी कहा जाता है उसका आरंभ आधुनिक काल से ही माना जाता है, जिसपर पाश्चात्य कहानी साहित्य का गहरा प्रभाव है। आज 'कहानी' शब्द एक विशिष्ट प्रकार की रचना के लिए रुढ हो गया है, जिसके मुख्य अंग है - कथावस्तु, चरित्र चित्रण, वातावरण, उद्देश और गद्यशैली । इन विशिष्ठ अंगो में भी एकोन्मुखता, लघुविस्तार, प्रभावान्विति इ. कहानी की विशेषताएँ है। आज कहानी का अर्थ गद्य में रचित कहानी ही है।

1) भारतेन्दु तथा द्विवेदी युग

हिन्दी कहानी साहित्य का इतिहास लगभग देड़ सौ वर्ष का है। वैसे हिन्दी कहानी का विकास भारतेन्दु काल से माना जाता है किन्तु भारतेन्दु युग के पूर्व भी हिन्दी कहानी की पृष्ठभूमि के रुप में कुछ ग्रंथों का उल्लेख किया जाता है जिनमें लाला लल्लुलाल का 'प्रेमसागर' (1803) मुंशी सदा सुखलाल 'नियाज' का 'सुखसागर', सदल मिश्र का 'नासिकेतोपाख्यान' (1803) और इंशा अल्लाखाँ की 'रानी केतकी की कहानी (1808) प्रमुख है। इन ग्रंथों में आधुनिक कहानी का स्वरूप तो नहीं है पर कहानी के विकास की पृष्ठभूमि इन्ही रचनाओं के कारण तैयार हुई है। हिन्दी कहानी के विकास में पत्र- पत्रिकाओं का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। भारतेन्दु युग के साथ ही हिन्दी कहानी में पत्र पत्रिकाओं द्वारा, कहानी लेखन की एक ऐसी परंपरा का आरंभ हुआ, जिसने हिन्दी कहानी को अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनाया है। इस युग में जिन पत्र पत्रिकाओं ने हिन्दी कहानी को प्राण शक्ती दी उनमें कविवचन सुधा (1867) हरिश्चंद्र मैगजीन (1873), हिन्दी प्रदीप (1877), ब्राम्हण (1880), भारत-मित्र (1887), और सरस्वती (1900) उल्लेखनीय है। सरस्वती का प्रकाशन और हिन्दी कहानी का आरंभ दोनों घटनाएँ एक दूसरे से बहुत घुली मिली है ।

इन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कहानियों का रुप बहुत कुछ अँग्रेजी और संस्कृत के नाटकों एवं कहानियों का रुपांतर मात्र ही था। इन कहानियों में लोकरंजन का तत्त्व ही प्रमुख था । इनमें प्रकाशित होनेवाली अधिकतर कहानियों में अँग्रेजी और संस्कृत साहित्य के प्रेम प्रसंगों और दैविक घटनाओं को चित्रित किया गया था। धीरे - धीरे हिन्दी में मौलिक कहानियों का सृजन होने लगा और अस्वाभाविक एवं अतिमानवीय प्रसंगों से भरी कहानियों का स्थान जीवन में घटीत होनेवाली साधारण घटनाओं को लेकर चलनेवाली कहानियों ने ले लिया। यहीं से आधुनिक युग की हिन्दी की साहित्यिक कहानियों का प्रारंभ माना जा सकता है। हिन्दी की प्रारंभिक काहनियों पर संस्कृत की पौराणिक, पारसी की किस्सागोई, अंग्रेजी की रोमांटिक तथा संस्कृत की नाट्यशैली का गहरा प्रभाव दिखाई देता है, इसलिए इस युग में लिखी गई कहानियों में आधुनिक कथा का अभाव है। इसके अतिरिक्त इसी समय बंगला से अनुदित कहानियाँ भी लिखी गई है, जिसमें सुकुमार कल्पनाओं का प्राधान्य था । बंगला से अनुवाद करनेवाले दो प्रमुख लेखक बाबू गिरीजाकुमार घोष, अर्थात लाला पार्वतीनंदन और बंग महिला है । बंग महिला ने कुछ मौलिक कहानियाँ भी लिखी है।

हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी कौन सी है ? इस प्रश्न पर विद्वानों में काफी मतभेद है । सन 1900 में सरस्वती का प्रकाशन आरंभ हुआ और इसी वर्ष पंडित किशोरीलाल गोस्वामी की 'इंदुमती' यह कहानी सरस्वती में प्रकाशित हुई । अनेक विद्वानो ने इसे हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी माना है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मतानुसार "यदि इंदुमती किसी बंगला कहानी की छाया नहीं है, तो हिन्दी की यही पहली मौलिक कहानी है।" इंदुमती कहानी पर शेक्सपीयर के टेम्पेस्ट का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है इसलिए विद्वानों ने इसे पहली मौलिक कहानी नहीं माना। डॉ बच्चन सिंह के अनुसार किशोरीलाल गोस्वामी की ही 'प्रणयिनी परिणय' (1878 ई) को हिन्दी की पहली कहानी माना है पर बाद में उन्होने ही इसे उपन्यास कहा है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल और श्रीकृष्णलाल के अनुसार बंग महिला द्वारा रचित 'दुलाईवाली' कहानी हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी है जो सन 1907 में 'सरस्वती' में प्रकाशित हुई थी। डॉ. कृष्णलाल और सुधारक पांडे ने भी 'दुलाईवाली' को यथार्थ चित्रण करनेवाली हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी माना है। डॉ. देवीप्रसाद शर्मा के अनुसार सन 1901 में 'छत्तीसगढ़ मित्र' में प्रकाशित माधवप्रसाद सप्रे की एक टोकरी भर मिट्टी' हिन्दी की पहली कहानी है। डॉ. धनजय वर्मा भी इस बात का समर्थन करते है। अनेक विद्वानों ने जयशंकर प्रसाद की 'ग्राम' कहानी को प्रथम मौलिक कहानी माना है जो 1911 में प्रकाशित हुई थी। कुछ विद्वानों ने आचार्य शुक्ल की कहानी 'ग्यारह वर्ष का समय' को प्रथम मौलिक कहानी माना है, जो सन 1903 में प्रकाशित हुई थी । हिंन्दी के प्रसिद्ध कथा लेखक राजेंद्र यादव का मत इन सबसे अलग है। वे हिन्दी की प्रथम मौलिक और कलापूर्ण कहानी 'उसने कहा था' को मानते है, जिसे पंडित चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' ने सन 1993 में लिखा था। इसी कहानी से वे आधुनिक हिंन्दी कहानी का आरंभ निर्धारित करते है। इसी समय कई मौलिक कहानियाँ लिखी गई जिनमें राजा राधिका रमण प्रसादसिंह की कहानी 'कानों में कंगना' (1913) तथा विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की कहानी 'रक्षा बंधन' (1913) में प्रकाशित हुई । राजा शिवप्रसाद सितारें 'हिन्द' की कहानी 'राजा भोज का सपना' तथा बालमुकुंद गुप्त की 'मेले का उँट' भी इसी युग में प्रकाशित प्रमुख कहानियों में है। इस प्रकार हम यह देखते है कि हिन्दी की मौलिक कहानियों में निम्नलिखीत कहानियों का उल्लेख प्रमुख रुप से किया जाता है।

1) प्रणयिनी परिणय किशोरीलाल गोस्वामी (1887)
2) सुभाषित रत्न - माधवराव सप्रे (1900)
3) इंदुमती - किशोरीलाल गोस्वामी (1900)
४) ग्यारह वर्ष का समय आचार्य रामचंद्र शुक्ल - (1903)
5) प्लेग की चूड़ेल मास्टर भगवानदास (1903)
6) पंडित और पंडितानी गिरजादत्त व्यास (1903)
7) दुलाईवाली - बंग महिला (1907)
8) ग्राम जय शंकर प्रसाद (1911)
9) कानो में कंगना राजा राधिकारमण प्रसादसिंह (1913)
10) रक्षाबंधन - विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' (1913)

इस सभी कहानियों में अधिकतर विद्वानों ने बंग महिला की कहानी 'दुलाईवाली' को ही कथानक और शैली की दृष्टि से हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी माना है । उपर्युक्त इन कहानीकारों के अतिरिक्त इस युग में और भी अनेक कहानीकार हुए है, जिन्होने अनेक कहानियाँ लिखी है। इस युग में लिखी गई अधिकतर कहानियों में स्थूल वर्णनों की अधिकता है और कहीं कहीं चमत्कार पूर्ण घटनाओं का प्रार्दुभाव है । इसमें संदेह नहीं कि 'दुलाईवाली', 'ग्राम', 'कानो में कंगना' और 'रक्षा बंधन' जैसी अत्यंत मौलिक और जीवन के यथार्थ से जुड़ी भारतेन्दु तथा द्विवेदी युग में बहुत कम कहानियाँ ऐसी थी, जिनको आधुनिक कहानी कहा जा सकता है। इस युग में कहानियों के नाम पर ऐसे अनेक ग्रंथ प्रकाशित हुए है, जिनमें लोकप्रचलित उपदेशात्मक या नीतिप्रधान या हास्यप्रधान कहानियाँ हुआ करती थी। इस प्रकार के कहानी संग्रह में कई ग्रंथ तो संपादित ही हुआ करते थे जैसे मुन्शीनवल किशोर के संपादन से निकला 'मनोहर कहानी' कहानी विशेषांक जो 1880 में प्रकाशित हुआ था । लगभग इसी समय शिवप्रसाद सितारे 'हिंन्द' कृत 'वामामनोरंजन' 1886, चंण्डीप्रसादसिंह कृत 'हास्यरतन' 1886 अबिंकादत्त व्यास कृत 'कथा कुसुम कलिका' 1888 आदि संग्रह प्रकाशित हुए । यह सभी ग्रंथ या तो लेखकों ने लिखे या लिखवाकर और उसे संपादित करके प्रकाशित करवाए । स्वयं भारतेन्दु हरिश्चंद्र और बालकृष्ण भट्ट ने भी स्वप्न कथाएँ लिखी है जिसे कहानी और निबंध के बीच की रचना के रुप में स्वीकार किया गया है । इस युग में काल्पनिक कथाएँ ही अधिक लिखी गई है। साथ ही साथ मध्यकालीन प्रेम कथाओं के गद्यात्मक रुपांतर भी इसी युग में लोकप्रिय हुए। 'बेताल पचिसी' और 'सिंहासन बत्तीसी' की रसात्मक कहानियाँ पाठकों को एक प्रकार की मानसिक तृष्टि दिया करती थी। इस विषय में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कथन बड़ा सटिक लगता है । "अंग्रेजी की मासिक पत्रिकाओं में जैसी छोटी-छोटी आध्यपिकाएँ यहाँ कहानियाँ निकाला करती है वैसी कहानियों की रचना 'गल्फ' के नाम से बंगभाषा में चल पडी थी। यह कहानियाँ जीवन के बड़े मार्मिक और भाव व्यंजक खंड़ चित्रों के रुप में होती थी । द्वितीय उत्थान की सारी प्रवृतियों का आभास लेकर प्रगट होनेवाली 'सरस्वती' पत्रिका में इस प्रकार की छोटी कहानियों के दर्शन होने लगे। आचार्य शुक्लजी के इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि आधुनिक हिन्दी कहानी के विकास में 'सरस्वती' पत्रिका का योगदान महत्त्वपूर्ण और ऐतिहासिक था। यह हमें स्वीकार करना पडेगा कि सरस्वती के प्रकाशन के पूर्व आधुनिक कलात्मक हिन्दी कहानियों का अस्थित्व नहीं के जैसा ही था ।

2) प्रसाद-प्रेमचंद युग

हिन्दी कहानी को उस समय एक नया मोड़ मिला जिस समय कहानी साहित्य में दो महान कहानीकारों का अर्विभाव हुआ। यह दो महान कहानीकार है जयशंकर प्रसाद और प्रेमचंद । इन दोंनो कहानीकारों की यह विशेषता है कि इनकी कहानियाँ विषय, रुप, शिल्प और शैली की दृष्टि से एक दूसरे से बिलकुल भिन्न है। इन दोनों कहानीकारों ने कहानी साहित्य को नई परंपरा दी। कहानी साहित्य में दोनों के अपने रास्ते थे जो एक दूसरे से बिलकुल भिन्न थे। काल और समयानुसार जयशंकर प्रसाद का अर्विभाव हिन्दी कहानी साहित्य में प्रेमचंद के कुछ वर्ष पूर्व हुआ। यद्यपि दोनों एक ही काल के लेखक माने जाते है। प्रसाद ने हिन्दी कहानी को एक नितांत नवीन परंपरा दी । उन्होने भावमूलक परंपरा को लेकर कहानियाँ लिखी। उनकी कहानियों के विषय में ठीक ही कहा गया है कि "आधुनिक कहानी का वांछित विकास प्रसाद की भावोन्मेषिणी प्रतिभा को पाकर हुआ, जबकि उनकी सर्वप्रथम कहानी 'ग्राम' को लेकर 'इंन्दु' ने अपना प्रकाश विकिर्ण किया। प्रसाद ने अपने कल्पना के अतुल वैभव एवं प्रतिभा के दिव्य लोक से हिन्दी कहानी को ज्योतिषमान किया।'' इसमें संदेह नहीं कि जयशंकर प्रसाद ने अपनी कल्पना के अपूर्व वैभव और अदभूत प्रतिभा से हिन्दी कहानी साहित्य को अनोखी संपदा दी। 'ग्राम' कहानी के प्रकाशित होने के बाद वे लगातार कहानियाँ लिखते गये। उनकी समस्त कहानियाँ 'छाया', 'प्रतिध्वनि', 'आकाशदीप', 'आँधी' तथा इंद्रजाल नामक संग्रहो में प्रकाशित हुई है। उन्होने हिन्दी कहानी जगत में ऐसी भाव पूर्ण कहानियों का सुभारंभ किया जो प्रेमाख्यान काव्यों की गरीमा और रसमयता को समाहित किये हुए है। 'रसिया बालम' नामक उनकी कहानी इसका ज्वलंत उदाहरण है। उन्होंने अपनी कहानी में मानवीय जीवन के अंतरिक सौंदर्य का बड़ा ही मधुर अंकन किया है तथा मानवीय उदात्त भावानाओं के चित्रण के साथ पावन प्रेम का उज्वल रुप अंकित किया है। मानवीय भावनाओं का ऐसा उदात्त रुप अन्यत्र दुर्लभ है । वास्तव में प्रसाद की मूल आत्मा एक कवि की है और इसी कारण उनकी कविता में कोमल भावनाओं की सुमधुर झनकार सर्वत्र सुनाई देती है जिसमें प्रवृत्ति के मनोरम चित्रों के कारण वातावरण की शोभा कई गुना बढ़ है वह कदाचित ही कहीं मिले । प्रकृति उनकी कहानियों में मानवीय भावों की संचारिणी बनकर उपस्थित हुई है। उनकी पुरस्कार, आकाशदीप, ममता आदि कहानियाँ इसका प्रमाण है ।

जयशंकर प्रसाद ने अपनी कहानियों में चरित्रों के अर्न्तद्वंद्व का मनोवैज्ञानिक चित्रण बड़े कुशलता से किया है। मानवीय भावनाओं के अंतद्वंद्व का ऐसा मनोवैज्ञानिक अंकन करनेवाला कहानीकार दुर्लभ ही है। दो विरोधी भावनाओं के भंवर में प्रसाद के नारी पात्र किस प्रकार से गुजरते है यह पुरस्कार की 'मधुलिका' और आकाशदीप की 'चंपा' के चरित्र को पढ़ने से ज्ञात होता है। यह दोनों नारी पात्र एक ओर तो पवित्र प्रेम के प्रवाह में बहना चाहते है और दूसरी ओर एक को देशप्रेम और दूसरी को पिता की हत्या हिला देती है। प्रसाद की कुशल लेखनी इन दोंनो भावनाओं को अंकित करने में पुर्णतः सफल हुई है। भावनाओं के इस अतंस्थ सघर्ष में काव्य और दर्शन का अपूर्व समन्वय हुआ है। प्रसाद की कहानियों में अनेक स्थानों पर उनकी भाषा में गद्य काव्य जैसा आनंद पाठक अनुभूत करते है। शैली की यह विशेषता कभी कभार इतनी प्रभावपूर्ण हो जाती है कि कथानक की गती ही मंद हो जाती है । प्रसाद की उदात्त भावनाओं को उभारकर दिखाने वाली प्रमुख कहानियाँ है 'भीखारिन, 'वैरागी', 'चुड़ीवाला', 'बिसाती' 'देवदासी', आंधी आदि । 'गुन्ड़ाप्रसाद' एक उत्कष्ट कहानी है जो यथार्थवादी धारा को लेकर चली है। 'सालवती', 'ममता', नूरी आदि प्रसाद की प्रसिद्ध ऐतिहासिक कहानियाँ है। उनकी ममता कहानी में तो ममता की मुक करुणा पाठकों को द्रवित कर अति संवेदनशील बना देती है।

प्रसाद की भाव मूलक परंपरा को लेकर चलनेवाले हिन्दी में अनेक कहानीकार हुए है। इनमें प्रमुख है राधाकृष्णदास, विनोंद शंकर व्यास, हृदयेश, गोविंद वल्लभ पंत आदि । राधाकृष्णदास की कहानियों में भावों की सूक्ष्मता अधिक पायी जाती है उनके भीतर का कलाकार सर्वत्र दिखाई देता है। उन्होने अत्यंत हल्के रंगो में सूक्ष्म भावनाओं का गंभीर चित्रण किया है। हृदयेश प्रसाद की अंलकृत शैली और भावुकता को अपनाकर वातावरण के प्रभावशाली चित्रण में सफल हुए है। गोविंद वल्लभ पंत की कहानियों में कल्पना और भावनाओं का मनमोहक समन्वय हुआ है। विनोद शंकर व्यास ने प्रसाद की शैली का बहुत अनुकरण किया किन्तु प्रसाद की कहानियों सा मानवता का आदर्श उनकी कहानियों में दिखाई नहीं देता। जे. पी. श्रीवास्तव, अन्नपूर्णानंद वर्मा, गोपालप्रसाद, बेढब बनारसी आदि कहानीकार भी इसी युग में अवतिर्ण हुए । विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' लगभग इस समय अपनी प्रसिद्ध कहानी 'रक्षा बंधन' को लेकर अवतिर्ण हुए। 'ताई' उनकी बड़ी प्रसिद्ध कहानी है। लगभग इसी समय राजा राधिकारमण प्रसादसिंह की 'कानों में कंगन' जैसी भाव पूर्ण कहानी प्रकाशित हुई। इस प्रकार प्रसाद की परंपरा का निर्वाह करनेवाले अनेक कहानीकार हमें इस युग में दिखाईदेते है । इस परंपरा में परिवर्तन हुआ प्रेमचंद के आगमन से ।

हिन्दी कहानी साहित्य में प्रेमचंद का आगमन एक युगांतकारी घटना है। उन्ही के अवतरण से हिन्दी कहानी साहित्य में यथार्थवाद का आरंभ हुआ । प्रेमचंद पहले क्रांतीकारी कहानीकार है, जिन्होंने हिन्दी कहानी को कल्पना लोक से निकालकर यथार्थ की ठोस भूमिपर प्रतिष्ठित किया। उन्होंने ही सबसे पहले हिन्दी कहानी के शिल्प और शैली को नया रुप दिया और उसे सामान्य की स्तर पर प्रस्थापित किया। प्रेमचंद ही पहले कहानीकार है, जिन्होंने जन सामान्य के जीवन को कहानियों के माध्यम से प्रस्तुत किया और इस देश के किसान, मजदूर और शोषितों के जीवन को अपनी कहानियों में सशक्त अभिव्यक्ति दी । हिन्दी कहानी में सर्वप्रथम शोषित, पीड़ित, दलित और मजदूरों की समस्याओं का चित्रण प्रेमचंद ने ही किया है। जन सामान्य का जीवन, जनजीवन के चरित्र और जनसामान्य की भाषा को लेकर प्रेमचंद ने ही सर्वप्रथम हिन्दी में कहानियाँ लिखी । यही कारण है कि वे हिन्दी कहानी और उपन्यास दोनों क्षेत्रों में 'सम्राट' की उपाधि से सन्मानित किये गये ।

एक कहानीकार के रुप में प्रेमचंद की पहचान पहले उर्दू में हुई। स. न. 1907 में उनकी पाँच कहानियों का संग्रह 'सोजेवतन' के नाम से उर्दू में प्रकाशित हुआ। जहाँ वे नवाब राय के नाम से जाने जाते थे। इस कहानी संग्रह में ज्वलंत राष्ट्रभक्ति थी जिसके कारण 'सोजेवतन' कहानी संग्रह को ब्रिटिश सरकारने जब्त कर लिया था और नवाबराय के लेखन पर पांबदी लगा दी थी। वैसे प्रेमचंद का असली नाम धनपतराय है । धनपतराय या नवाबराय सन 1915 16 में 'प्रेमचंद' के नाम से अवतिर्ण हुए और उसी समय उनकी प्रथम हिन्दी कहानी 'पंचपरमेश्वर' प्रकाशित हुई । इसी कहानी से प्रेमचंद की कहानी यात्रा आरंभ होती है जो लगभग तीन सौ कहानियाँ लिखकर पूर्ण होती है । प्रेमचंद कहानी साहित्य में महान इसलिए नहीं है कि उन्होंने तीन सौ कहानियाँ लिखी बल्कि वे इसलिए महान है कि उनकी कोई भी कहानी विश्व के किसी भी महान कहानीकार के कहानियों के समक्ष प्रथम पंक्ती में रखी जा सकती है। उन्होने अपनी कहानियों में जनजीवन का वास्तविक चित्र अंकित कर अपनी अतिशूक्ष्म दृष्टि से समाज के हर वर्ग का निरीक्षण कर उसे अपनी कला से सजीवता प्रदान की है। भारतीय समाज के प्रत्येक वर्ग का इतने निकट से उन्होने अध्ययन किया कि ऐसा लगता देते है । इस परंपरा में परिवर्तन हुआ प्रेमचंद के आगमन से ।

हिन्दी कहानी साहित्य में प्रेमचंद का आगमन एक युगांतकारी घटना है। उन्ही के अवतरण से हिन्दी कहानी साहित्य में यथार्थवाद का आरंभ हुआ । प्रेमचंद पहले क्रांतीकारी कहानीकार है, जिन्होंने हिन्दी कहानी को कल्पना लोक से निकालकर यथार्थ की ठोस भूमिपर प्रतिष्ठित किया। उन्होंने ही सबसे पहले हिन्दी कहानी के शिल्प और शैली को नया रुप दिया और उसे सामान्य की स्तर पर प्रस्थापित किया। प्रेमचंद ही पहले कहानीकार है, जिन्होंने जन सामान्य के जीवन को कहानियों के माध्यम से प्रस्तुत किया और इस देश के किसान, मजदूर और शोषितों के जीवन को अपनी कहानियों में सशक्त अभिव्यक्ति दी । हिन्दी कहानी में सर्वप्रथम शोषित, पीड़ित, दलित और मजदूरों की समस्याओं का चित्रण प्रेमचंद ने ही किया है। जन सामान्य का जीवन, जनजीवन के चरित्र और जनसामान्य की भाषा को लेकर प्रेमचंद ने ही सर्वप्रथम हिन्दी में कहानियाँ लिखी । यही कारण है कि वे हिन्दी कहानी और उपन्यास दोनों क्षेत्रों में 'सम्राट' की उपाधि से सन्मानित किये गये ।

एक कहानीकार के रुप में प्रेमचंद की पहचान पहले उर्दू में हुई। स. न. 1907 में उनकी पाँच कहानियों का संग्रह 'सोजेवतन' के नाम से उर्दू में प्रकाशित हुआ। जहाँ वे नवाब राय के नाम से जाने जाते थे। इस कहानी संग्रह में ज्वलंत राष्ट्रभक्ति थी जिसके कारण 'सोजेवतन' कहानी संग्रह को ब्रिटिश सरकारने जब्त कर लिया था और नवाबराय के लेखन पर पांबदी लगा दी थी। वैसे प्रेमचंद का असली नाम धनपतराय है । धनपतराय या नवाबराय सन 1915 में 'प्रेमचंद' के नाम से अवतिर्ण हुए और उसी समय उनकी प्रथम हिन्दी कहानी 'पंचपरमेश्वर' प्रकाशित हुई । इसी कहानी से प्रेमचंद की कहानी यात्रा आरंभ होती है जो लगभग तीन सौ कहानियाँ लिखकर पूर्ण होती है । प्रेमचंद कहानी साहित्य में महान इसलिए नहीं है कि उन्होंने तीन सौ कहानियाँ लिखी बल्कि वे इसलिए महान है कि उनकी कोई भी कहानी विश्व के किसी भी महान कहानीकार के कहानियों के समक्ष प्रथम पंक्ती में रखी जा सकती है। उन्होने अपनी कहानियों में जनजीवन का वास्तविक चित्र अंकित कर अपनी अतिशूक्ष्म दृष्टि से समाज के हर वर्ग का निरीक्षण कर उसे अपनी कला से सजीवता प्रदान की है। भारतीय समाज के प्रत्येक वर्ग का इतने निकट से उन्होने अध्ययन किया कि ऐसा लगतादेते है । इस परंपरा में परिवर्तन हुआ प्रेमचंद के आगमन से ।

हिन्दी कहानी साहित्य में प्रेमचंद का आगमन एक युगांतकारी घटना है। उन्ही के अवतरण से हिन्दी कहानी साहित्य में यथार्थवाद का आरंभ हुआ । प्रेमचंद पहले क्रांतीकारी कहानीकार है, जिन्होंने हिन्दी कहानी को कल्पना लोक से निकालकर यथार्थ की ठोस भूमिपर प्रतिष्ठित किया। उन्होंने ही सबसे पहले हिन्दी कहानी के शिल्प और शैली को नया रुप दिया और उसे सामान्य की स्तर पर प्रस्थापित किया। प्रेमचंद ही पहले कहानीकार है, जिन्होंने जन सामान्य के जीवन को कहानियों के माध्यम से प्रस्तुत किया और इस देश के किसान, मजदूर और शोषितों के जीवन को अपनी कहानियों में सशक्त अभिव्यक्ति दी । हिन्दी कहानी में सर्वप्रथम शोषित, पीड़ित, दलित और मजदूरों की समस्याओं का चित्रण प्रेमचंद ने ही किया है। जन सामान्य का जीवन, जनजीवन के चरित्र और जनसामान्य की भाषा को लेकर प्रेमचंद ने ही सर्वप्रथम हिन्दी में कहानियाँ लिखी । यही कारण है कि वे हिन्दी कहानी और उपन्यास दोनों क्षेत्रों में 'सम्राट' की उपाधि से सन्मानित किये गये ।

एक कहानीकार के रुप में प्रेमचंद की पहचान पहले उर्दू में हुई। स. न. 1907 में उनकी पाँच कहानियों का संग्रह 'सोजेवतन' के नाम से उर्दू में प्रकाशित हुआ। जहाँ वे नवाब राय के नाम से जाने जाते थे। इस कहानी संग्रह में ज्वलंत राष्ट्रभक्ति थी जिसके कारण 'सोजेवतन' कहानी संग्रह को ब्रिटिश सरकारने जब्त कर लिया था और नवाबराय के लेखन पर पांबदी लगा दी थी। वैसे प्रेमचंद का असली नाम धनपतराय है । धनपतराय या नवाबराय सन 1915 में 'प्रेमचंद' के नाम से अवतिर्ण हुए और उसी समय उनकी प्रथम हिन्दी कहानी 'पंचपरमेश्वर' प्रकाशित हुई । इसी कहानी से प्रेमचंद की कहानी यात्रा आरंभ होती है जो लगभग तीन सौ कहानियाँ लिखकर पूर्ण होती है । प्रेमचंद कहानी साहित्य में महान इसलिए नहीं है कि उन्होंने तीन सौ कहानियाँ लिखी बल्कि वे इसलिए महान है कि उनकी कोई भी कहानी विश्व के किसी भी महान कहानीकार के कहानियों के समक्ष प्रथम पंक्ती में रखी जा सकती है। उन्होने अपनी कहानियों में जनजीवन का वास्तविक चित्र अंकित कर अपनी अतिशूक्ष्म दृष्टि से समाज के हर वर्ग का निरीक्षण कर उसे अपनी कला से सजीवता प्रदान की है। भारतीय समाज के प्रत्येक वर्ग का इतने निकट से उन्होने अध्ययन किया कि ऐसा लगता है कि वह स्वयं उस वर्ग के प्रतिनिधी है। कृषक मजदूर, अध्यापक छात्र, पूंजीपति-भीखारी, बालक-वृद्ध, विद्वान-मूर्ख सभी को उन्होने अपनी कला में समाहित कर स्वभाविक रुप में चित्रित किया है। यही कारण है कि उनकी कहानियों में वेदना के आँसू और हास्य की मुखरता है, तो क्रांति की धारा और आनंद की खिलखिलाहट भी है। उनकी कहानियों का कैनवास अत्यंत व्यापक है, जिसमें घटना प्रधान, चरित्र प्रधान, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक आदि सभी प्रकार की कहानियों के लिए स्थान है ।

प्रेमचंद को शोषित पीड़ित और दिनहिन जनता के प्रति हार्दिक सहानुभूति रही है , इस कारण उन्होने अपनी कहानियों में दुःखी और पीड़ित मानवता को वाणी प्रदान की है । समाज की वर्तमान व्यवस्था के प्रति असंतोष व्यक्त करते हुए उन्होने आदर्शवादी यथार्थ दृष्टिकोण को अपनाया। अनुभव की परिपक्वता के साथ-साथ उनके विचारों मे बदलाव आया । उनके ही आँखो के सामने उनके आदर्श की कल्पना और सुधारवादी स्वप्न ध्वस्त हो गये । पूंजीवादी समाज और उसकी संस्कृति का एकांगी रुप समझकर उन्होने उसके विरुद्ध अपना आक्रोश व्यक्त किया। यहीं पर उन्होंने वर्ग संघर्ष अनिवार्य समझा और आदर्शोमुखी यथार्थवाद से पूर्णतः यथार्थवादी हो गये। 'पूस की रात' और 'कफन' जैसी कहानियाँ इसी समय लिखी। उनके जीवन के उत्तरार्ध में लिखी गई सभी कहानियाँ यथार्थ जीवन का वास्तविक चित्र प्रस्तुत करती है। उन्होंने अपनी कहानियों में भारतीय जीवन का समग्रता से चित्रण किया है। उन्होने अपनी कहानियों में पहली बार समाज के तथाकथित धर्म के ठेकेदारों की कलुसित मनोवृत्ति का भंड़ा फोड किया । उन्होने सामंतीय संस्कृति के पोषक जमीदारों, शोषण की नीति को चलानेवाले पूंजीपतियों की कटु आलोचना करते हुए पीड़ित जनता को क्रांति का संदेश दिया । उनकी 'पंचपरमेश्वर' कहानी सत्य और न्याय का उज्वल आदर्श प्रस्तुत करती है, तो 'बड़े घर की बेटी' में कुलीन नारीत्त्व की हृदय स्पर्शी व्याख्या की गई है। इसी प्रकार से उनकी अन्य कहानियों में गृह-दाह, दो सखियाँ, अग्निसमाधि, सुजान भगत, मुक्ति का मर्म आदी में समाज के विभिन्न रुपों को आदर्श की पृष्ठभूमि में प्रस्तुत किया गया है ।

हिन्दी कहानी कला का चरम उत्कर्ष प्रेमचंद में पाया जाता है । चरित्रप्रधान कहानीकारों में सर्व श्रेष्ठ कहानीकार प्रेमचंद ही है। उनकी अनेक चरित्र प्रधान कहानियाँ बड़ी चर्चीत रही है । 'आत्माराम' मे महादेव सुनार, 'बड़े घर की बेटी' में आनंदी, 'बुढी काकी' में काकी, 'शंखनाद' में गुमान, 'सुजान भगत' में सुजान भगत आदि का चरित्र जिस कौशल्य के साथ चित्रित किया गया है वह सर्वथा प्रशंसनीय है। उनकी कहानियों में घटना, वातावरण और पात्र पाठकों के हृदय पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाते है । उनकी क्रांतीकारी कहानियों को पढ़कर कोई भी उन्हे 'रुसो' या वाल्टेयर से कम नहीं कह सकता । कहानी के विषय में "प्रेमचंद" का मानना यह था कि आदमी के पास यथार्थ और आदर्श दोनों की संवेदनाए होनी चाहीए । यथार्थ के बगैर हम समाज की समस्याएँ नही पहचान सकते और आदर्श के बिना अपने समुचित विकास की कल्पना नहीं कर सकते । आदर्श को पाने के लिए ही लेखक सपने देखता है। प्रेमचंद का यथार्थ और आदर्श के लिए संघर्ष हिन्दी में नई शुरुवात है।" प्रेमचंद की कहानी यात्रा रुमानियत से आदर्शवाद और आदर्शवाद से यथार्थ की ओर बढती है । उनकी कहानियों में पीड़ित मूक मानवता को वाणी प्राप्त हुई है। शोषित, पीड़ित और संतृप्त जन सामान्य के प्रति उनके मन में गहरी सहानुभूति थी। एक सजग साहित्यकार की भांती उन्होने जीवन के विविध रुपों, समाज की विभिन्न परंपराओं और मनुष्य मात्र के भिन्न भिन्न वर्गों का अध्ययन कर उसका यथार्थ और वास्तव वादी चित्रण किया है । उनके अनुभवों ने उनके आदर्श के संसार को उद्धवस्त कर दिया, इसलिए उन्होंने पूंजीवादी समाज की एकांगी संस्कृतिक को अर्थहीन समझकर वर्ग संघर्ष का निरुपन अपनी कहानियों में किया है, इसी कारण वे आदर्शवाद से यथार्थवादी हुए । 'दप्तरी' का दिनता से पूर्ण विवश जीवन और 'पूस की रात' की निर्धनता उनके यथार्थवादी होने का प्रत्यक्ष प्रमाण है ।

प्रेमचंद अद्भूत प्रतिभासंपन्न कहानीकार थे । उन्होने भिन्न-भिन्न शैलियों की और सभी प्रकार की कहानियाँ लिखी । पत्र, संवाद, आत्मचरित्र, डायरी, वर्णन आदि सभी शैलियों में उन्होने कहानियाँ लिखी। भाषा की दृष्टि से उनकी देन सबसे महत्त्वपूर्ण है। उन्होने वह भावानुकूल, सरल एवं प्रवाहमयी भाषा दी, जो परवर्ति रचनाकारों के लिए आदर्श रही । उनकी भाषा में सरलता और सहजता के साथ-साथ विभिन्न भावों की अभिव्यंजना करने की अपार क्षमता है। कहानी कला की दृष्टि से उनकी सभी कहानी सफल और श्रेष्ठ सिद्ध हुई है। उनकी समस्त कहानियाँ 'मानसरोवर' नाम से छ भागों में सग्रहीत की गई है।

प्रेमचंद की परंपरा को लेकर चलनेवाले अनेक कहानीकार हुए है। इनमें सबसे पहले सुदर्शन आते है। उनकी प्रथम कहानी 'हार की जीत' सन 1920 मे प्रकाशित हुई थी, जो हिन्दी की वातावरण प्रधान कहानियों में श्रेष्ठ थी। इस कहानी में बाबा भारती और उनका एक वाक्य बहुत प्रसिद्ध हुआ वह वाक्य था "लोगों को यदि इस घटना का पता लग गया, तो वे किसी गरीब पर विश्वास नहीं करेंगे।" डाकू खडगसिंह के हृदय को यह वाक्य मत दालता है और उसके चरित्र को परिवर्तित कर देता है । 'सुदर्शन' वातावरण प्रधान कहानी के सफल कहानीकार है। 'कमल की बेटी' और 'कवि की पत्नी' उनकी उत्कृष्ट कहानियाँ है। इन कहानियों में बड़े ही कलात्मक ढंग से कवित्त्वपूर्ण भाषा का प्रयोग किया गया है। सुदर्शन के समान प्रेमचंद की परंपरा में ज्वालादत्त शर्मा आते है उनकी कहानियों में कथानकों का विकास सयोंगो पर आश्रित होता है । उनकी 'विधवा' तथा 'तष्कर' कहानियों में संयोग और घटनाओं का सुंदर समन्वय हुआ है । चतुरसेन शास्त्री भी इस परंपरा के कहानीकार है। उनकी 'दे खुदा की राह पर', 'ककड़ी की किंमत' आदि प्रसिद्ध सामाजिक यथार्थवादी कहानियाँ है। इसी समय 'उग्र' के रुप में एक सशक्त कहानीकार हिन्दी को प्राप्त हुआ । उग्रजी ने अपनी ओजमयी भाषा और उग्र शैली में क्रांतीकारी भावनाओं को तथा राजनैतिक चेतना को जगाया । 'उसकी माँ' और 'अवतार' जैसी कहानियाँ इसका उदाहरण है । किन्तु आगे चलकर उनपर फ्रायड़ीन विचारधारा का गहरा प्रभाव दिखाई देने लगा। जिसके परिणाम स्वरुप वे फायड़ीन विचारधारा के कहानीकार कहलाये । भगवती प्रसाद वाजपेई भी प्रेमचंद की पंरपरा को लेकर चलनेवाले कहानीकार थे।

इस प्रकार हम देखते है कि हिन्दी कहानी को प्रसाद और प्रेमचंद ने न केवल एक नया मोड़ दिया। अपितु दोनों ने भिन्न भिन्न कथाधाराओं को लेकर कहानियाँ लिखी और वे उसके प्रवर्तक के रुप में प्रसिद्ध हुए । प्रसाद और उनकी परंपरा को लेकर चलनेवाले कहानीकारों ने भाव मूलक कहानियाँ लिखी जिसके प्रेम की महता स्थापित करते हुए त्याग और बलिदान को महत्त्वपूर्ण माना गया है। दूसरी ओर प्रेमचंद की परंपरा को लेकर चलनेवाले कहानीकारों में सामाजिक संदर्भों से जुड़े हुए विषयों को सफल और श्रेष्ठ सिद्ध हुई है। उनकी समस्त कहानियाँ 'मानसरोवर' नाम से छ भागों में सग्रहीत की गई है।

प्रेमचंद की परंपरा को लेकर चलनेवाले अनेक कहानीकार हुए है। इनमें सबसे पहले सुदर्शन आते है। उनकी प्रथम कहानी 'हार की जीत' सन 1920 मे प्रकाशित हुई थी, जो हिन्दी की वातावरण प्रधान कहानियों में श्रेष्ठ थी। इस कहानी में बाबा भारती और उनका एक वाक्य बहुत प्रसिद्ध हुआ वह वाक्य था "लोगों को यदि इस घटना का पता लग गया, तो वे किसी गरीब पर विश्वास नहीं करेंगे।" डाकू खडगसिंह के हृदय को यह वाक्य मत दालता है और उसके चरित्र को परिवर्तित कर देता है । 'सुदर्शन' वातावरण प्रधान कहानी के सफल कहानीकार है। 'कमल की बेटी' और 'कवि की पत्नी' उनकी उत्कृष्ट कहानियाँ है। इन कहानियों में बड़े ही कलात्मक ढंग से कवित्त्वपूर्ण भाषा का प्रयोग किया गया है। सुदर्शन के समान प्रेमचंद की परंपरा में ज्वालादत्त शर्मा आते है उनकी कहानियों में कथानकों का विकास सयोंगो पर आश्रित होता है । उनकी 'विधवा' तथा 'तष्कर' कहानियों में संयोग और घटनाओं का सुंदर समन्वय हुआ है । चतुरसेन शास्त्री भी इस परंपरा के कहानीकार है। उनकी 'दे खुदा की राह पर', 'ककड़ी की किंमत' आदि प्रसिद्ध सामाजिक यथार्थवादी कहानियाँ है। इसी समय 'उग्र' के रुप में एक सशक्त कहानीकार हिन्दी को प्राप्त हुआ । उग्रजी ने अपनी ओजमयी भाषा और उग्र शैली में क्रांतीकारी भावनाओं को तथा राजनैतिक चेतना को जगाया । 'उसकी माँ' और 'अवतार' जैसी कहानियाँ इसका उदाहरण है । किन्तु आगे चलकर उनपर फ्रायड़ीन विचारधारा का गहरा प्रभाव दिखाई देने लगा। जिसके परिणाम स्वरुप वे फायड़ीन विचारधारा के कहानीकार कहलाये । भगवती प्रसाद वाजपेई भी प्रेमचंद की पंरपरा को लेकर चलनेवाले कहानीकार थे।

इस प्रकार हम देखते है कि हिन्दी कहानी को प्रसाद और प्रेमचंद ने न केवल एक नया मोड़ दिया। अपितु दोनों ने भिन्न भिन्न कथाधाराओं को लेकर कहानियाँ लिखी और वे उसके प्रवर्तक के रुप में प्रसिद्ध हुए । प्रसाद और उनकी परंपरा को लेकर चलनेवाले कहानीकारों ने भाव मूलक कहानियाँ लिखी जिसके प्रेम की महता स्थापित करते हुए त्याग और बलिदान को महत्त्वपूर्ण माना गया है। दूसरी ओर प्रेमचंद की परंपरा को लेकर चलनेवाले कहानीकारों में सामाजिक संदर्भों से जुड़े हुए विषयों को लेकर यथार्थ परख कहानियाँ लिखी। प्रसाद और उनकी परंपरा के कहानीकारों ने समाज निरपेक्ष मूल्यों को स्वीकार करते हुए उनके व्यापक मानवीय आधार प्रस्तुत किये है । प्रेमचंद और उनकी परंपराओं में आनेवाले कहानीकारों मे गांधीवादी मूल्य सत्य अहिंसा, करुणा को मुखरित किया तो प्रसाद की परंपरा को लेकर चलनेवाले कहानीकारों ने मूल्यों को लेकर उठनेवाले द्वंद को बड़ी गंभीरता और सूक्ष्मता से चित्रित किया है। समग्रतः हम यह कह सकते है कि इस युग मे एक ओर प्रेम, बलिदान, त्याग, आदि उदात्त भावानाओं को लेकर चनलेवाले अनेक कहानीकार हुए तो दूसरी ओर जीवन के कटु यथार्थ, वर्ग संघर्ष और वास्तविताओं का चित्रण करनेवाले अनेक कहानीकार हुए । इस युग की कहानियाँ धीरे-धीरे यथार्थवाद की ओर उन्मुक्त होते रही । समाज में प्रचलित अंधविश्वास, जड़ता और जर्जर परपंराओं को तोडकर स्वस्थ परंपराओं का निर्वाह करने में इस युग के कहानीकारों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।

3) प्रेमचंदोत्तर युग 1950 तक हिन्दी कहानी साहित्य में विषय की विविधता और रचना प्रक्रिया की दृष्टि से प्रेमचंदोतर युग सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस युग में हिन्दी कहानी को न केवल नवीन आयाम प्राप्त हुए अपितु उसे एक नई दिशा मिली। इस युग की कहानी की रचना प्रक्रिया के निर्माण में समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, राजनिती, दर्शन, तत्त्वज्ञान आदि का महत्त्वपूर्ण योग रहा है। इस युग के कहानीकारों ने मानव मन की आंतरीक अवस्थाओं का बड़ा ही सूक्ष्म चित्रण किया है। इस युग के कहानीकारों ने मनोवैज्ञानिक स्थितियों और संदर्भों का बड़ा ही सूक्ष्म प्रयोग अपनी कहानियों में किया है । इस युग के कहानीकारों पर कालमार्क्स के समाजवादी विचार और फ्रायड़ तथा युग के मनोविश्लेषणवादी विचार का गहरा प्रभाव रहा है। इसमें संदेह नहीं कि प्रेमचंदोतर युग में अनेक महान क्रांतीकारी कहानीकार हुए है, जिन्होंने हिन्दी कहानी का कथ्य, शैली और शिल्प की दृष्टि से सुंदर विकास किया है ।

प्रेमचंदोतर युग में सबसे पहले एक महान चिंतनशील प्रतिभा के रुप में जैनेद्र जैसा कहानीकार प्राप्त हुआ। उन्होने हिन्दी कहानी को एक बौद्धिक स्तर दिया और साथ ही साथ उसे गहनता प्रदान की। उनकी कहानियों में बौद्धिकता के साथ दार्शनिक गांभीर्य सूक्ष्म अर्न्तदृष्टि और मर्मस्पर्शीणी संवेदनशीलता का समन्वय हुआ है। जैनेंद्र ने लेकर यथार्थ परख कहानियाँ लिखी। प्रसाद और उनकी परंपरा के कहानीकारों ने समाज निरपेक्ष मूल्यों को स्वीकार करते हुए उनके व्यापक मानवीय आधार प्रस्तुत किये है । प्रेमचंद और उनकी परंपराओं में आनेवाले कहानीकारों मे गांधीवादी मूल्य सत्य अहिंसा, करुणा को मुखरित किया तो प्रसाद की परंपरा को लेकर चलनेवाले कहानीकारों ने मूल्यों को लेकर उठनेवाले द्वंद को बड़ी गंभीरता और सूक्ष्मता से चित्रित किया है। समग्रतः हम यह कह सकते है कि इस युग मे एक ओर प्रेम, बलिदान, त्याग, आदि उदात्त भावानाओं को लेकर चनलेवाले अनेक कहानीकार हुए तो दूसरी ओर जीवन के कटु यथार्थ, वर्ग संघर्ष और वास्तविताओं का चित्रण करनेवाले अनेक कहानीकार हुए । इस युग की कहानियाँ धीरे-धीरे यथार्थवाद की ओर उन्मुक्त होते रही । समाज में प्रचलित अंधविश्वास, जड़ता और जर्जर परपंराओं को तोडकर स्वस्थ परंपराओं का निर्वाह करने में इस युग के कहानीकारों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।

3) प्रेमचंदोत्तर युग 1950 तक 

हिन्दी कहानी साहित्य में विषय की विविधता और रचना प्रक्रिया की दृष्टि से प्रेमचंदोतर युग सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस युग में हिन्दी कहानी को न केवल नवीन आयाम प्राप्त हुए अपितु उसे एक नई दिशा मिली। इस युग की कहानी की रचना प्रक्रिया के निर्माण में समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, राजनिती, दर्शन, तत्त्वज्ञान आदि का महत्त्वपूर्ण योग रहा है। इस युग के कहानीकारों ने मानव मन की आंतरीक अवस्थाओं का बड़ा ही सूक्ष्म चित्रण किया है। इस युग के कहानीकारों ने मनोवैज्ञानिक स्थितियों और संदर्भों का बड़ा ही सूक्ष्म प्रयोग अपनी कहानियों में किया है । इस युग के कहानीकारों पर कालमार्क्स के समाजवादी विचार और फ्रायड़ तथा युग के मनोविश्लेषणवादी विचार का गहरा प्रभाव रहा है। इसमें संदेह नहीं कि प्रेमचंदोतर युग में अनेक महान क्रांतीकारी कहानीकार हुए है, जिन्होंने हिन्दी कहानी का कथ्य, शैली और शिल्प की दृष्टि से सुंदर विकास किया है ।

प्रेमचंदोतर युग में सबसे पहले एक महान चिंतनशील प्रतिभा के रुप में जैनेद्र जैसा कहानीकार प्राप्त हुआ। उन्होने हिन्दी कहानी को एक बौद्धिक स्तर दिया और साथ ही साथ उसे गहनता प्रदान की। उनकी कहानियों में बौद्धिकता के साथ दार्शनिक गांभीर्य सूक्ष्म अर्न्तदृष्टि और मर्मस्पर्शीणी संवेदनशीलता का समन्वय हुआ है। जैनेंद्र ने लेकर यथार्थ परख कहानियाँ लिखी। प्रसाद और उनकी परंपरा के कहानीकारों ने समाज निरपेक्ष मूल्यों को स्वीकार करते हुए उनके व्यापक मानवीय आधार प्रस्तुत किये है । प्रेमचंद और उनकी परंपराओं में आनेवाले कहानीकारों मे गांधीवादी मूल्य सत्य अहिंसा, करुणा को मुखरित किया तो प्रसाद की परंपरा को लेकर चलनेवाले कहानीकारों ने मूल्यों को लेकर उठनेवाले द्वंद को बड़ी गंभीरता और सूक्ष्मता से चित्रित किया है। समग्रतः हम यह कह सकते है कि इस युग मे एक ओर प्रेम, बलिदान, त्याग, आदि उदात्त भावानाओं को लेकर चनलेवाले अनेक कहानीकार हुए तो दूसरी ओर जीवन के कटु यथार्थ, वर्ग संघर्ष और वास्तविताओं का चित्रण करनेवाले अनेक कहानीकार हुए । इस युग की कहानियाँ धीरे-धीरे यथार्थवाद की ओर उन्मुक्त होते रही । समाज में प्रचलित अंधविश्वास, जड़ता और जर्जर परपंराओं को तोडकर स्वस्थ परंपराओं का निर्वाह करने में इस युग के कहानीकारों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।

3) प्रेमचंदोत्तर युग 1950 तक 

हिन्दी कहानी साहित्य में विषय की विविधता और रचना प्रक्रिया की दृष्टि से प्रेमचंदोतर युग सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस युग में हिन्दी कहानी को न केवल नवीन आयाम प्राप्त हुए अपितु उसे एक नई दिशा मिली। इस युग की कहानी की रचना प्रक्रिया के निर्माण में समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, राजनिती, दर्शन, तत्त्वज्ञान आदि का महत्त्वपूर्ण योग रहा है। इस युग के कहानीकारों ने मानव मन की आंतरीक अवस्थाओं का बड़ा ही सूक्ष्म चित्रण किया है। इस युग के कहानीकारों ने मनोवैज्ञानिक स्थितियों और संदर्भों का बड़ा ही सूक्ष्म प्रयोग अपनी कहानियों में किया है । इस युग के कहानीकारों पर कालमार्क्स के समाजवादी विचार और फ्रायड़ तथा युग के मनोविश्लेषणवादी विचार का गहरा प्रभाव रहा है। इसमें संदेह नहीं कि प्रेमचंदोतर युग में अनेक महान क्रांतीकारी कहानीकार हुए है, जिन्होंने हिन्दी कहानी का कथ्य, शैली और शिल्प की दृष्टि से सुंदर विकास किया है ।

प्रेमचंदोतर युग में सबसे पहले एक महान चिंतनशील प्रतिभा के रुप में जैनेद्र जैसा कहानीकार प्राप्त हुआ। उन्होने हिन्दी कहानी को एक बौद्धिक स्तर दिया और साथ ही साथ उसे गहनता प्रदान की। उनकी कहानियों में बौद्धिकता के साथ दार्शनिक गांभीर्य सूक्ष्म अर्न्तदृष्टि और मर्मस्पर्शीणी संवेदनशीलता का समन्वय हुआ है। 

Post a Comment

Previous Post Next Post