हिन्दू धर्म के मूल सिद्धांत

हिन्दू धर्म भारत का सबसे प्राचीनतम धर्म है। प्रारम्भ में इसे आर्य धर्म भी कहा जाता था। वेदों की रचना के साथ इसे वैदिक धर्म और पुराणों एवं स्मृतियों की रचना के बाद इसे पौराणिक धर्म कहा गया। जब भारत को हिन्दुस्तान कहा जाने लगा तो यहां के निवासीयों द्वारा इस धर्म को हिन्दू धर्म की संज्ञा दे दी गई। हिन्दुत्व को प्राचीनकाल में सनातन धर्म भी कहा जाता था। हिन्दुत्व सनातन धर्म के रूप में सभी धर्मों का मूलाधार है क्योकिं सभी धर्म-सिद्धान्तों के सार्वभौमिक आध्यात्मिक सत्य के विभिन्न पहलुओं का इसमें पहले से ही समावेश कर लिया गया था। मूल अर्थ में हिन्दुत्व को वेदों, उपनिषदों तथा भगवतगीता आदि ग्रन्थों से लिया गया है। तत्पश्चात् ऐसा समय भी आया जब कुछ ब्राह्मणों ने धार्मिक साहित्य की पुनः व्याख्या की और कुछ प्रथाओं एवं विश्वासों को महत्त्वपूर्ण एवं निर्णायक बताया। इनमें से कुछ प्रथाएं व विश्वास थे; सत्ती प्रथा, नर बलि, देवदासी प्रथा, बाल विवाह, पशु बलि के द्वारा ग्राम देवी की पूजा, शक्ति उपासना में विश्वास आदि। तत्पश्चात् विशेष कर मुगल काल के बाद, कुछ शिक्षित हिन्दुओं ने इन विश्वासों और प्रथाओं का अशिष्ट, धृष्ट व बर्बर बताया तथा हिन्दुत्व की इन विशेषताओं के आलोचक हो गए। उन्होंने सुधार की बात कहकर सुधार आन्दोलन को प्रारम्भ किये, जैसे ब्रह्म समाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज, रामकृष्ण मिशन, इत्यादि। 

भारत भूमि में अनेक ऋषि सन्त और द्रष्टा उत्पन्न हुए हैं। उनके द्वारा प्रकट किए गए विचार जीवन के सभी पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं। कभी उनके विचार एक दूसरे के पूरक होते हैं और कभी परस्पर विरोधी। हिन्दूत्व एक उ‌द्विकासीय व्यवस्था है, जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता रही है। इसे समझने के लिए हम किसी एक ऋषि या द्रष्टा अथवा किसी एक पुस्तक पर निर्भर नहीं रह सकते। यहां विचारों, दृष्टिकोणों और मार्गों में विविधता है किन्तु इसमें निरन्तरता भी है। हिन्दुत्व का लक्ष्य आनन्द और मोक्ष प्राप्ति है।

हिन्दू धर्म के मूल तत्वों में सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा और दान शामिल है। अपने मन, वचन और कर्म से हिंसा से दूर रहने वाले मनुष्य को हिन्दू कहा गया है। यह एक जीवन पद्धति है, जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को परम लक्ष्य मानकर व्यक्ति या समाज को उन्नति के अवसर प्रदान करती है। हिन्दुत्व एक दर्शन है जो मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं के अतिरिक्त उसकी मानसिक, नैतिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक आवश्यकताओं की भी पूर्ति करता है। हिन्दू समाज किसी एक भगवान की पूजा नहीं करता, किसी एक मत का अनुयायी नहीं है, किसी एक व्यक्ति द्वारा प्रतिपादित या किसी एक पुस्तक में संकलित विचारों या मान्यताओं से बंधा हुआ नहीं है। वह किसी एक दार्शनिक विचारधारा को नहीं मानता, किसी एक प्रकार की पूजा पद्धति या रिति-रिवाज को नहीं मानता। वह किसी धर्म या सम्प्रदाय की परम्पराओं को सन्तुष्ट नहीं करता है |

प्रत्येक धर्म के अन्तर्गत कुछ नियम एवं कर्तव्य आते हैं, जो उस धर्म के विशिष्ट लक्षण होते हैं। हिन्दू धर्म के तीन स्वरूप है- 1. सामान्य धर्म, 2. विशिष्ट धर्म तथा 3. आपद्धर्म ।

सामान्य धर्म को मानव धर्म भी कहा जाता है। इसके अन्तर्गत वे नैतिक नियम आते हैं, जिनके अनुसार आचरण करना प्रत्येक व्यक्ति का परम दायित्व है। इस धर्म का लक्ष्य मानव मात्र में सद्गुणों का विकास और उसकी श्रेष्ठता को जाग्रत करना है। श्रीमद् भागवत् गीता में सामान्य धर्म के तीस लक्षण इस प्रकार बतायें गए हैं- सत्य, दया, तपस्या, पवित्रता, कष्ट सहने की क्षमता, उचित-अनुचित का विचार, मन का संयम, इन्द्रियों का संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, स्वाध्याय, सरलता, संतोष, सभी के लिए समान दृष्टि, सेवा, उदासीनता, मौन, आत्मचिंतन, सभी प्राणियों में अपने आराध्य को देखना और उन्हें अन्न देना, महापुरुषों का संग, ईश्वर का गुण-गान, ईश्वर चिंतन, ईश्वर सेवा, पूजा और यज्ञों का निर्वाह, ईश्वर के प्रति दास्य भाव, ईश्वर वन्दना, ईश्वर के प्रति सखा-भाव, ईश्वर को समर्पण।

विपत्ति और परिस्थितियां प्रतिकूल होने पर शास्त्रकारों ने आपद्धर्म अपनाने का प्रावधान किया है तथा जीवन में विपत्ति और कठिनाई उत्पन्न होने पर मनुष्य को अपेक्षित ६धर्म का पालन करने के लिए निर्देश दिया है। एक वर्ण के सदस्य आपत्तिकाल में दूसरे वर्ण के धर्म को अपना सकता था। ऐसी अवस्था में व्यक्ति का मूलभूत वर्णगत कर्तव्य छूट जाता था तथा वह दूसरे वर्ण के धर्म पर अपनी आजीविका चलाता था। आपत्ति के समय में तथा अपने परिवार के अन्य सदस्यों के लिए जीविकोपार्जन एवं पोषण के निमित्त व्यक्ति अपने वर्ण-धर्म को त्यागकर सामान्य धर्म को अंगीकार लेता था। ऐसी स्थिति में विशेष धर्म को छोडकर साधारण धर्म का अनुगमन किया जाता था।, जिससे आपत्ति के समय भी व्यक्ति धर्म का पालन कर सके। 

हिन्दू धर्म के मूल सिद्धांत

व्यापक अर्थों में हिन्दू धर्म के मूल तत्त्व इस प्रकार हैं-

1. हिन्दू धर्म विभिन्न आध्यात्मिक विचारों में विश्वास रखता हैं, जैसे- पुनर्जन्म, आत्मा की अमरता, पाप-पुण्य, कर्म और मोक्ष। 'कर्म' का विचार मनुष्य को यह बताता है कि उसके पिछले जन्म के कारणों से ही उसका जन्म एक विशिष्ट परिवार या जाति में हुआ है तथा यदि वह इस जन्म में अच्छे कर्म करेगा, तो वह अगले जन्म में उच्च सामाजिक समूह में जन्म लेगा। 'मोक्ष' का विचार उसे याद दिलाता है कि उसके पाप और पुण्य उसे जन्म मरण के बन्धन से छुटकारा दिलाने में निर्णायक सिद्ध होंगे।

2. हिन्दू धर्म में अपवित्रता और पवित्रता सम्बन्धी विचार भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। पवित्रता एवं अपवित्रता का महत्त्व सहभोजी सम्बन्धों, स्पर्श अथवा शारीरिक दूरी स्थापित रखने, अन्तर्जातीय विवाह, मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन के विभिन्न अवसरों जैसे- जन्म, विवाह, मासिक धर्म, मृत्यु तथा प्रार्थना आदि में भी देखा जा सकता है। अपवित्रता का सम्बन्ध सफाई से नहीं परन्तु जन्म से है। अपवित्रता के नियम तोडने पर व्यक्ति को शुद्धिकरण सम्बन्धी विभिन्न विधियों से गुजरना पड़ता है।

3. हिन्दू धर्म में संस्तरण भी विद्यमान है। यह संस्तरण तीन रूपों में दिखलाई पड़ता है- (i) वर्ण एवं जाति में, (ii) व्यक्ति के करिश्माई लक्षणों में तथा (iii) जीवन लक्ष्य के मूल्यों में। वर्ण की अवधारणा में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र को संस्तरण में क्रमशः उच्च से निम्न स्थान पर रखा जाता है। इसी प्रकार जाति के भी संस्तरण बने हुए हैं, हालांकि ड्यूमा इस संस्तरण को पवित्रता और अपवित्रता को ही आधार मानते हैं। व्यक्ति के जो करिश्माई लक्षण या गुण के आधार पर संस्तरण पाये जाते हैं उनमें सर्वोपरि सत्व गुण अर्थात् वह तेज या साधुता जो सन्यासीयों एवं ब्रह्मणों में होती है, उसके बाद आता है 'रजो गुण' अथवा कर्म और सत्ता के प्रति प्रतिवद्धता जो राजाओं और क्षत्रियों में पाई जाती है, और उसके बाद आता है 'तम गुण' जो संस्तरण में निम्नतम है और जो दुष्कर्मों के प्रति रुझान एवं आलस्य से सम्बन्धित है। तीसरा जीवन लक्ष्य के मूल्यों में अर्थात् धर्म, अर्थ काम और मोक्ष में। अर्थ अर्थात् धन की प्राप्ति, 'काम' अर्थात् यौनवृत्ति और शारीरिक रूप से आनन्द प्राप्त करने वाले भौतिक लक्ष्यों का स्वरूप 'धर्म' अर्थात् सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में नैतिक कर्तव्य और 'मोक्ष' अर्थात् जन्म और पुनर्जन्म से छुटकारा पाने का प्रयास।

4. हिन्दू धर्म में मूर्ति पूजा पाया जाता है। मूर्तियों में समरूपता नहीं पाई जाती है। यह सम्प्रदाय के अनुसार अलग-अलग है। प्रत्येक सम्प्रदाय का अपना ईष्ट देव होता हैं, जैसे- कृष्ण, राम, शिव, गणेश, हनुमान, आदि। ये मूर्तियां अलग-अलग मन्दिरों में रखा जाता है और जिसकी विशेष अवसरों पर पूजा की जाती है।

5. हिन्दू धर्म के प्रमुख विशेषता यह है कि यह एक ईश्वर में विश्वास करने वाला धर्म नहीं हैं।

6. हिन्दू धर्म की एक अन्य विशेषता यह भी है कि यह सामाजिक सम्बन्धों में और पूजा तथा धार्मिक विश्वासों में सामाजिक समुदायों की पृथकता का समर्थन करता है। पृथकता की प्रकृति वर्ण/जाति की पद स्थिति पर निर्भर करती है, जो ब्रह्म पुरुष के शरीर से पैदा हुए हैं, (जैसे: ब्राह्मण उनके मुख से, क्षत्रिय भुजाओं से, वैश्य जंघाओं से और शुद्र पैरों से)।

7. हिन्दू धर्म अहिंसा में विश्वास करता है या नहीं? इस विषय पर एक मत है कि हिन्दू अहिंसावादी है जबकि दूसरा मत है कि धार्मिक हिंसा हिन्दू धर्म में पाई जाती है। गीता का उपदेश भी अहिंसा का द्योतक नहीं है। 'बलि' देने का विचार भी अहिंसा के आदर्श पर आधारित नहीं है। लेकिन बाद में सत्रहवी शताब्दी तक उपमहाद्वीप में चलने वाला भक्ति पंथ निश्चय ही हिंसा प्रयोग के विरूद्ध था। यह कहा जा सकता है कि हिन्दू धर्म में अहिंसा का उदय भक्ति, उपासना और सांस्कारिक पक्ष के उदय होने के उपरान्त ही हुआ या बैष्णव और शैव भक्ति सम्प्रदायों के उदय होने के उपरान्त लगभग बारहवीं शताब्दी के बाद हुआ या फिर उदारवादी भक्त परम्परात्मक सम्प्रदायों एवं विभिन्न संतों । भक्तों के उदय के बाद हुआ जो कि ईसा की 15वीं या 16वीं शताब्दी के पश्चात् अस्तित्व में आये । 

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