मुद्रा बाजार का अर्थ, भारतीय मुद्रा बाजार की विशेषताएं

मुद्रा बाजार का अर्थ

प्रत्येक देश की बैंकिंग प्रणाली का स्वरूप आज केन्द्रीय बैंक के नियंत्रण में अत्यन्त सुसंगठित एवं केन्द्रित होता जा रहा है किन्तु बैंकिंग प्रणाली के संगठन में कुछ ऐसी संस्थाओं का भी महत्वपूर्ण स्थान है जो बैंक के आस-पास में रहकर मुद्रा के लेन-देन का कार्य करती हैं । इसी प्रकार की संस्थाओं को सम्मिलित रूप से मुद्रा बाजार कहते हैं । मुद्रा बाजार अथवा साख नियंत्रण के लेन-दने का आज प्रत्येक देश की आर्थिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान है । मुद्रा अथवा साख का लेन-देन दो प्रकार का होता है- अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन । उस बाजार में जहाँ। मुद्रा अथवा साख का अल्पकालीन लेन-देन होता है उसे मुद्रा बाजार कहते हैं तथा जहाँ पर दीर्घकालीन लेन-देन होता है उसे पूँजी बाजार या शेयर बाजार कहते हैं । विश्व के अधिकांश देशों में व्यावसायिक बैंकों का सम्बन्ध मुख्यतः मुद्रा बाजार से ही रहता है क्योंकि ये बहुधा अपने साधनों को मुद्रा बाजार की विभिन्न संस्थाओं को अल्पकाल के लिए प्रदान करते हैं । मुद्रा बाजार के दो पक्ष होते हैं- क- विक्रेता और ख-केता । इन दोनों पक्षों में विश्व के भिन्न-भिन्न बाजारों में भिन्न-भिन्न श्रेणियों के लोग तथा संस्थाएं रहती हैं ।

मुद्रा अथवा साख के विक्रेता का आशय उन ऋणदाताओं तथा ऋणदाता संस्थाओं से है, जो मुद्रा उधार देती है तथा मुद्रा के केता का अभिप्राय उन ऋणियों, व्यापारियों एवं उद्योगपतियों से है जो रूपया उधार लेते हैं । काउथर के अनुसार उन फर्मों या संस्थाओं को सामूहिक रूप से मुद्रा बाजार कहते हैं जो कि भिन्न-भिन्न प्रकार के मुद्रा तुल्य पत्रों का व्यापार करती हैं ।

भारतीय मुद्रा बाजार के अंग

प्रारंभ से ही भारतीय मुद्रा बाजार को दो पृथक भागों में विभाजित किया गया है - 1- भारतीय 2- यूरोपीय । भारतीय भाग में विभाजित पूँजी वाले बैंक, स्वदेशी बैंकर्स तथा सहकारी बैंक को सम्मिलित किया जाता है तथा यूरोपियन भाग के अन्तर्गत रिजर्व बैंक, इम्पीरियल बैंक ऑफ इण्डिया तथा विदेशी विनिमय बैंकों को सम्मिलित किया जाता है । मुद्रा बाजार के इन दोनों अंगों में किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रहता था और दोनों का कार्य क्षेत्र भी प्रायः भिन्न होता था । यूरोपियन भाग को सदैव ही सरकारी संरक्षण तथा नियंत्रण का लाभ रहा है । इसके विपरीत मुद्रा बाजार का भारतीय भाग अनियंत्रित एवं अनियमित रहा है। सन् 1935 में रिजर्व बैंक की स्थापना के पश्चात् भारतीय मुद्रा बाजार के प्रकृति तथा उसके संगठन में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए ।' इनके कारण मुद्रा बाजार का वर्गीकरण अनावश्यक हो गया है । रिजर्व बैंक ने इन दोनों भागों में निकट सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयत्न किया है तथा मुद्रा बाजार के भारतीय भाग को भी धीरे-धीरे नियंत्रित किया जा रहा है । रिजर्व बैंक के राष्ट्रीयकरण के फलस्वरूप भारतीय बैंकिंग व्यवस्था पर अधिक प्रभावशाली सरकारी नियंत्रण करना संभव हो सका है । इम्पीरियल बैंक ऑफ इण्डिया का राष्ट्रीयकरण करके इसके स्थान इन सब परिवर्तनों के द्वारा भारतीय मुद्रा को अधिक संगठित करने का प्रयत्न किया गया । परन्तु अब भी हमारे देश में यूरोप के देशों की भांति एक सुसंगठित मुद्रा बाजार नहीं है । भारतीय मुद्रा बाजार छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटा हुआ है । वर्तमान भारतीय मुद्रा बाजार का वर्गीकरण एक नवीन प्रकार से किया जाने लगा है जो इस प्रकार से है :-

1. संगठित क्षेत्र

संगठित क्षेत्र में रिजर्व बैंक, स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया, विदेशी विनिमय बैंक भारतीय संयुक्त स्कन्ध बैंक, बीमा कम्पनियां अर्द्ध-सरकारी संस्थाएं बड़े आकार की संयुक्त स्कन्ध कम्पनियां तथा अनुसूचित बैंक का समावेश किया जाता है । ये सब संस्थाएं मुद्रा बाजार के कार्य-कलापो में ऋणदाता के रूप में भाग लेती हैं । इसके उधार दिये गये द्रव्य को प्रायः गृह द्रव्य कहा जाता है । इन संस्थाओं के अतिरिक्त, अनेक वित्तीय मध्यस्थ भी कार्य करते हैं, जैसे पूँजी दलाल इत्यादि । इन बैंकों की कार्यविधि यूरोपियन बैंकों की भांति है । इनका बैंक भी भारतीय भाषाओं में न होकर अंग्रेजी भाषाओं में चलाया जाता है ।

2. असंगठित क्षेत्र

इस क्षेत्र के अन्तर्गत देशी बैंकरों को सम्मिलित किया जाता है । इस क्षेत्र में अल्पकालीन और दीर्घकालीन ऋणों में या ऋण के उद्देश्यों में कोई स्पष्ट भेद नहीं किया जाता है । हुण्डी भी जो कि देशी विनिमय बिल के समान है, इस बात को सूचित नहीं करती है कि उससे सम्बन्धित ऋण व्यापार के अर्थ प्रबन्धन के लिए है अथवा वित्तीय सुविधा देने के लिए । मुद्रा बाजार के इस अंग के अन्तर्गत भी बहुत सी विविधता पायी जाती है ।

3. सहकारी क्षेत्र

यह क्षेत्र संगठित एवं असंगठित क्षेत्रों के मध्य पड़ता है अर्थात् यह न तो पूर्णतः संगठित ही है और न इसे पूर्णतः असंगठित ही कहा जा सकता है ।' इसके अन्तर्गत सहकारी साख नियंत्रण संस्थाओं को सम्मिलित किया जाता है । आजकल रिजर्व बैंक इस क्षेत्र की संस्थाओं को एक प्रगतिशील स्तर पर वित्तीय सहायता प्रदान कर रहा है। सहकारी साख संस्थाओं का उद्देश्य ग्राम्य वित्त व्यवस्था में महाजनों के प्रभुत्व को समाप्त करना है, किन्तु अभी वे अपने कार्यों में अधिक सफल नहीं हुई हैं ।

संक्षेप में भारीय मुद्रा बाजार के ऋणदाताओं में रिजर्व बैंक, स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया, मिश्रित पूँजी वाले बैंक, विदेशी विनिमय बैंक, सहकारी साख संस्थाएं, विदेशी बैंकर्स, बीमा कम्पनियां और संयुक्त स्कन्ध कम्पनिया आदि को सम्मिलित किया जाता है तथा उधारकर्ताओं में केन्द्रीय, राज्यीय एवं स्थानीय सरकार, व्यापारी एवं उद्योपतियों, किसानों, एवं साधारण जनता को सम्मिलित किया जाता है । भारतीय मुद्रा बाजार की मुख्य विशेषता यह है कि इसके विभिन्न अंगों के मध्य पर्याप्त समन्वय एवं सहयोग का अभाव है।

भारतीय मुद्रा बाजार की विशेषताएं

भारतीय मुद्रा बाजार की विभिन्न विशेषताओं का संक्षिप्त विवरण बिन्दुवार अधोलिखित हैः-

* भारतीय मुद्रा बाजार की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता इसकी द्विशासिता है । इसका अर्थ यह है कि इसके दो स्पष्ट भिन्न अंग हैं । एक अंग संगठित है तथा दूसरा अंग असंगठित है।

* संगठित भाग में रिजर्व बैंक, स्टेट बैंक, विदेशी बैंक तथा अन्य भारतीय बैंक हैं । अर्द्ध-सरकारी तथा अन्य सम्मिलित पूँजीवाली कम्पनियां भी संगठित मुद्रा बाजार में ऋण सम्बन्धी लेन-देन की कियाओं में भाग लेती हैं। प्रतिभूतियों अथवा कोषागार विपत्रों का कय-विक्रय दलालों के माध्यम से होता है ।

* असंगठित बाजार में साहूकारों अथवा देशी बैंकरों का प्रभुत्व है । इनकी हुण्डियों से जानना कठिन होता है कि वे व्यापारिक हैं अथवा केवल आर्थिक सहायता देने हेतु लिखी गयी हैं । इसलिए बहुत कम बैंक इन हुण्डियों में लेन-देन करते हैं । इसमें भुलतानी हुण्डियां अपवाद हैं क्योंकि प्रायः सभी बैंक इन हुण्डियों में व्यवसाय करते हैं ।

* देश में पर्याप्त संख्या में व्यापारिक बिल न लिखे जाने के कारण लन्दन अथवा न्यूयार्क की भांति कटौती गृहों तथा स्वीकृत गृहों की स्थापना नहीं हुई है । इतना होने पर भी भारतीय मुद्रा बाजार सर्वथा अव्यवस्थित नहीं है, क्योंकि सुप्रसिद्ध देशी बैंकरों को स्टेट बैंक से कटौती की सुविधाएं मिल जाती हैं । इन सुविधाओं की आवश्यकता मुख्यतः व्यस्तकाल में होती हैं। स्टेट बैंक के अतिरिक्त कुछ अन्य बड़े बैंक भी देशी बैंकरों को कटौती सुविधाएं प्रदान करते हैं । यह बैंक अपने आवश्यकता की पूर्ति के लिए रिजर्व बैंक से ऋण लेते हैं ।

* देशी बैंकों तथा व्यापारिक बैंकों के बीच की कड़ी के रूप में सहकारी बैंकों का वर्ग है जो ग्रामीण जनता को कृषि तथा लघु उद्योगों के लिए ऋण देता है। सहकारी बैंकों को गत वर्षों से रिजर्व बैंक से भरपूर आर्थिक सहायता मिलने लगी है । यह सहायता प्रायः बिलों के माध्यम से दी जाती है ।

भारतीय मुद्रा बाजार की कमियां

भारत की अर्थव्यवस्था की भांति भारतीय मुद्रा बाजार भी अविकसित है । देश का बैंकिंग व्यवसाय और परम्पराएं इतनी स्वस्थ नहीं है कि सब वर्गों के. व्यक्तियों एवं व्यवसायों की आवश्यकता की पूर्ति कर सके । देश की औद्योगिक एवं व्यावसायिक प्रगति के साथ-साथ वित्तीय मांग में भी अनेक परिवर्तन आ गये हैं परन्तु भारतीय मुद्रा बाजार के ढाँचे में कोई मौलिक परिवर्तन दृष्टिगोचर नहीं होता । भारतीय मुद्रा बाजार की कुछ महत्वपूर्ण कमियां निम्नलिखित हैं :-

1 - मुद्रा बाजार में देशी बैंकरों और महाजनों का बाहुल्य

भारतीय मुद्रा बाजार की असंगठित व्यवस्था का मुख्य कारण साहूकार तथा देशी बैंकर हैं जो कि न तो रिजर्व बैंक के नियंत्रण में हैं और न ही बाजार की दरों से प्रभावित होते हैं। साहूकार तथा देशी बैंकर का ग्रामीण वित्त में इतना महत्वपूर्ण स्थान रहा है कि सहकारी बैंक या व्यापारिक बैंक अपनी इच्छानुसार साख की मात्रा में परिवर्तन नहीं कर सकता । फलतः रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति को वांछित सहायता प्राप्त नहीं होती ।

2 -सदस्यों में सहयोग का अभाव

भारतीय मुद्रा बाजार के संगठित अंग (रिजर्व बैंक, मिश्रित पूँजी, सहकारी बैंक, महाजन आदि) तथा असंगठित अंग (साहूकार, महाजन आदि) के बीच किसी भी प्रकार का समर्पण और सहयोग नहीं हैं । कभी-कभी तो इनके बीच अपव्ययपूर्ण प्रतियोगिता भी होती है । उदाहरणार्थ- स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया और व्यापारिक बैंक एक-दूसरे को प्रतियोगी समझते हैं। इस विषम प्रतियोगिता के फलस्वरूप बैंकिंग व्यवस्था को हानि पहुँचती है। जब से भारत में बैंकिंग विधान बना है, प्रतियोगिता कम अवश्य हुई है, परन्तु समाप्त नहीं हुई ।

3 - अखिल भारतीय मुद्रा बाजार का अभाव

इस समय देश में अखिल भारतीय मुद्रा बाजार नहीं है । वास्तव में भारतीय मुद्रा बाजार छोटे-छोटे एवं स्थानीय क्षेत्रों में बंटा है और इनमें आपसी सम्पर्क का अभाव है। उदाहरण के लिए मुम्बई, कोलकाता और चेन्नई के मुद्रा बाजारों का छोटे-छोटे नगरों के मुद्रा बाजारों से कोई सम्बन्ध नहीं है ।

4 - मुद्रा का मौसमी अभाव और ब्याज दरों में परिवर्तन

भारतीय मुद्रा बाजार में प्रायः नवम्बर से अप्रैल मी तक व्यस्त काल रहता है । क्योंकि इस बीच में चावल तथा अन्य फसलों की कटाई होकर यह बिकने के लिए प्रस्तुत की जाती है और थोक व्यापारी उन्हें खरीद कर गोदामों में भरते हैं। इस कार्य के लिए उन्हें जो रकम चाहिए उसकी व्यापारिक बैंकों से मांग की जाती है। इस प्रकार इस काल में मुद्रा की मांग बहुत बढ़ती है, किन्तु उसकी पूर्ति उसी अनुपात में नहीं बढ़ती, जिससे इस अवधि में ब्याज दरें बढ़ जाती हैं। मुद्रा की सामान्य कमी के कारण व्यापारी वर्ग बहुत परेशान हो जाता है । इसके विपरीत, अप्रैल-मई तक फसलों का अधिकांश भाग बिक जाता है और नयी फसल आने की आशा में व्यापारी पुराने भण्डार जल्दी-जल्दी बेचने लगते हैं । परिणामतः माल बिकने पर जो रूपया प्राप्त होता है वह किसी बैंक को लौटा दिया जाता है । इस प्रकार मुद्रा की मांग काफी कम हो जाने से ब्याज दरों में भी कमी हो जाती है । यद्यपि रिजर्व बैंक प्राप्त व्यापारिक आवश्यकताओं के अनुसार विभिन्न अवधियों में मुद्रा की पूर्ति में परिवर्तन करता रहता है, तथापि मुद्रा की मौसमी कमी और ब्याज दरों के उच्चावचनों को पूर्णतया समाप्त नहीं किया जा सका है । रिजर्व बैंक द्वारा कृषि बिलों की अवधि 15 मास तक बढ़ा देने के पश्चात् मुद्रा के इस मौसमी अभाव की समस्या कुछ कम हो गयी परन्तु सर्वथा नहीं सुलझ पायी है ।

5 - बैंकिंग सुविधाओं की अपर्याप्तता

जिस देश में बैंकिंग विकास अधिक हो जाता है अर्थात् नगरों, कस्बों तथा ग्रामों तक बैंकों की शाखाएं स्थापित कर दी जाती हैं वहाँ साख तथा पूँजी की कमी का अनुभव नहीं होता क्योंकि बैंक आवश्यकतानुसार अपने-अपने क्षेत्र में साख प्रसारित कर देते हैं । इसके अतिरिक्त बैंक जनता की बचतों को प्रोत्साहित करते हैं। यद्यपि पिछले वर्षो में बैंकों की शाखाओं की संख्या 7005 थी जो जून 1989 में देश के सभी सरकारी क्षेत्र के व्यापारिक बैंकों की शाखाओं की संख्या बढ़कर 52,269 हो गयी । इस दृष्टि से बैंक सुविधाएं बढ़ी हैं, किन्तु इस अनुपात में देश में मुद्रा बाजार विकसित नहीं हुआ है क्योंकि लोगों में बैंकिंग की आदत का विकास नहीं हुआ है ।

6 - विशेष वित्तीय संस्थाओं का अभाव

इंग्लैण्ड, अमेरिका तथा अन्य देशों में विक्रय वित्त कम्पनियाँ, क्रय-विक्रय कम्पनियाँ, साख संघ आदि संस्थाएं उपभोक्ताओं के लिए साख की व्यवस्था करती रहती हैं और इस प्रकार साख की आवश्यकता पूरी होती हैं क्योंकि व्यापारिक तथा औद्योगिक वित्त संस्थाएं व्यापार तथा उद्योग की आवश्यकता पर विशेष ध्यान दे सकती हैं। इसके अतिरिक्त स्वीकृत गृह व्यापारिक बिलों की स्वीकृति पर बैंकों का कार्य हल्का और सरल कर देते हैं । इन दोनों प्रकार के संस्थानों के कारण अधिकांश अल्पकालीन व्यापारिक ऋण बिलों के माध्यम से दिये जाते हैं। भारत में इन सभी प्रकार की संस्थाओं का अभाव है जिससे न तो व्यापार के लिए उचित मात्रा में रकम मिल पाती है और न ही बिलों का प्रचार बढ़ पाता है ।

7 -मुद्रा बाजार में पूंजी का अभाव होना

भारतीय मुद्रा बाजार में पूंजी की कमी देखी जाती है, जिससे व्यापार एवं उद्योग धन्धों की धन सम्बन्धी आवश्यकताएं पूरी नहीं हो पाती । पूँजी का अभाव रहने के निम्नलिखित कारण है :-

• देश की राष्ट्रीय आय कम है। इससे प्रति व्यक्ति आय भी कम है । आय कम होने के कारण देशवासियों की बचत शक्ति कम रहती है ।

• अभी भी सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों और छोटे-छोटे कस्बों में बैंकिंग सुविधाओं का अभाव है, जिससे सारी ग्रामीण बचतों को एकत्र करना सम्भव नहीं हुआ है ।

• जनता (विशेषतः ग्रामीण जनता) अब भी धन का अपने पास संचय करना उचित समझती है । प्रायः वह अपनी बचत को भूमि में गाड़ देती है या आभूषणों में लगा देती है । किन्तु 1980 के दशक में भारतीय मुद्रा बाजार में पूँजी की तेजी से वृद्धि हुई है । अतएव अब यह विशेषता कि भारतीय मुद्रा बाजार में पूँजी का अभाव है, पूर्णरूप सही नहीं है ।

8-बिल बाजार की कमी

व्यापारिक बिल एक ऐसा साख पत्र है जो स्वयं भुगतानशील कहलाता है क्योंकि बिकेता जब माल बेचता है तो वह ग्राहक से 91 दिन का एक बिल स्वीकृत करवा लेता है । ग्राहक इस प्रकार बिलों के माध्यम से व्यापार केलिए वित्त व्यवस्था करने पर विक्रेता को धन तुरन्त मिल जाता है क्योंकि वह ग्राहक के स्वीकृत बिल की अपनी बैंक से कटौती कटवा कर रकम प्राप्त कर लेता है । दुकानदार को तीन मास के लिए माल उधार मिल जाता है और बैंक को बिना जोखिम वाले व्यवसाय में अल्पकालीन पूँजी लगाने का अवसर मिल जाता है । व्यापारिक बिलों का एक लाभ यह है कि बिल अत्यन्त तरल सम्पत्ति है और भुगतान तिथि से पहले नकद राशि की आवश्यकता होने पर बैंक अच्छे बिलों की केन्द्रीय बैंक से पुनर्कटौती करवा सकता है । इस प्रकार बिलों के माध्यम से धन की व्यवस्था करने में केता - विक्रेता तथा बैंक तीनों को लाभ होता है ।

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