पूंजी निर्माण क्या है || भारत में पूँजी निर्माण की स्थिति

किसी समय, किसी देश में 'पूंजी निर्माण', वह धनराशि है जो वर्ष के दौरान (1) सकल स्थायी परिसम्पत्ति अर्थात् भूमि, इमारतों, संयंत्रों और ईमानदारी तथा (2) कच्चे माल तैयार माल तथा प्रक्रियाधीन काम के स्टाक में निवेशित की जाती है।

संयुक्त राष्ट्र सांख्यिकी कार्यक्रम के अनुसार देशीय पूंजी-निर्माण देश के वर्तमान उत्पादन तथा आयात का वह भाग है, जिस लेखाविधि में उपभोग या निर्यात नहीं किया जाता और जिसे पूंजीगत माल के स्टाक में वृद्धि के लिए पृथक रखा जाता है। निवल पूंजी निर्माण भावी उत्पादन के लिए उपलब्ध अचल पूंजी (इमारतों, निर्माण कार्यों, उपकरणों एवं मशीनरी) तथा कार्यशील पूंजी (उत्पादकों के स्टाक) में वृद्धि को व्यक्त करता है। पूंजी निर्माण में यह आवश्यक होता है कि समाज अपनी वर्तमान उत्पादक सक्रियता का यह एक तात्कालिक उपभोग के लिए प्रयोग में लाये तथा एक भाग वास्तविक (वस्तु रूप) पूंजीगत माल के बनाने में लगाया जाए। संक्षेप में पूंजी निर्माण भावी उपयोग के लिए आय को बचाना तथा निवेशित करना है।

पूंजी-निर्माण के स्रोत

आर्थिक विकास के लिए पूंजी तीन मुख्य स्रोतों से प्राप्त हो सकती है :-

1. विदेशी सहायता ।

2. विदेशी वाणिज्य निवेश ।

3. घरेलू बचतें और कराधान आदि।

विदेशी सहायता का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इनसे घरेलू खपत पर बिना दबाव पड़े पूंजी प्राप्त होती है। शुरू-शुरू में निम्न आय वाले अल्पविकसित देशों में जटिल मशीनरी तथा तकनीकी एंव प्रशासनिक योग्यता प्राप्त व्यक्ति देशीय स्रोतों से प्राप्त नहीं होते। इनके लिए इन देशों को विदेशी सहायता पर निर्भर होना पड़ता है। परन्तु विदेशी सहायता के परिणामस्वरूप उत्पन्न राजनीतिक तथा आर्थिक प्रतिबन्ध देश के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकते हैं। वेसै भी विदेशी सहायता की अधिकता सहायता प्राप्त देशो के लिये कोई गौरव की बात नहीं है।

विदेशी वाणिज्य निवेश भी एक प्रकार के विदेशी ऋण ही है, जिन्हें अन्ततः ब्याज समेत लौटा जाना होता है। विकास के आरम्भिक चरणों में विदेशी निवेश अधिक परिणाम में उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि उस अवस्था में उस पर प्रतिफल दर बहुत ही कम होती है। शुरू-शुरू में विदेशी वाणिज्य निवेश खनिज निष्कर्षण (मिनरल ऐक्सट्रेक्शन) तथा अन्य ऐसे उद्योगों के लिए सीमित होता है जिन्हें विदेशी ही चला सकते हैं। विनिर्माण उद्योग में विदेशी निवेश के समर्थन में बड़े परिणाम में देशीय निवेश की भी आवश्यकता होती है और किसी भी देश के आर्थिक विकास में इस तथ्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती है।

संक्षेप में, बड़े अल्प विकसित देशों में अधिकांश पूंजीगत आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था घरेलू स्रोतों से ही की जानी चाहिए।

यदि अल्प आय वाले देश सम्भावित राजनीतिक तथा आर्थिक दबावों के कारण विदेशी सहायता नहीं लेना चाहते या विदेशी निवेश को प्रोत्साहन नहीं देना चाहते तो उन्हें अपने संसाधनों पर ही आश्रित होना पड़ेगा। इन देशों में पूजी निर्माण के लिए घरेलू बचत तथा निवेश दरों को बढ़ाना आवश्यक है। दूसरे शब्दों में आर्थिक संवृद्धि के लिए बचत तथा निवेश की आवश्यकता होती है। बचत चालू आय का वह भाग है, जिसका उपभोग नहीं किया जाता, बल्कि जिसका भावी आय के स्तर का निर्माण करने के लिए निवेश किया जाता है। संक्षेप में, अधिकतम वृद्धि का अर्थ है, बचतों तथा निवेश का अधिकतमकरण ।

भारत में पूँजी निर्माण की स्थिति

भारतीय अर्थव्यवस्था की नियोजन प्रक्रिया में पूँजी निर्माण की गति को तेज करना एक प्रमुख लक्ष्य रहा है। आर्थिक संवृद्धि की ऊँची दर को प्राप्त करने के लिए पूँजी निर्माण की ऊँची दर को एक आवश्यक शर्त माना गया। भारत में पूँजी निर्माण की अवधारणा को विस्तृत रूप में देखा गया है, जिसमें निर्माण कार्य आवासीय एवं गैर आवासीय भवन, भूमि सुधार, फलोद्यान विकास, मशीनरी एवं यंत्र तथा स्कन्ध में वृद्धि सम्मिलित है। पूँजी निर्माण की गणना पारिवारिक क्षेत्र, निगम क्षेत्र तथा सार्वजनिक क्षेत्र में किसी निश्चित समय में होने वाले सम्पत्ति के मूल्य में परिवर्तन का योग हैं। अर्थव्यवस्था में निवेश को भी पूँजी निर्माण के समान ही माना जाता है, क्योंकि पूँजी स्टाक की वृद्धि निवेश के कारण ही होती है। निवेश का आशय वस्तुओं जैसे- मशीन, उपकरण एवं भवन इत्यादि पर होने वाले व्यय से । अतः निवेश या विनियोग पूँजी पदार्थों की मात्रा में वृद्धि करता है। इसी कारण निवेश को पूँजी निर्माण कहा जाता है। पूँजी निर्माण के सम्बन्ध में सकल पूँजी निर्माण या विनियोग या शुद्ध पूँजी निर्माण या शुद्ध विनियोग का प्रयोग किया जाता है। एक निश्चित समयावधि में तैयार होने वाली सभी पूँजी वस्तुओं की मात्रा को सकल पूँजी निर्माण का कुल विनियोग कहा जाता है। यदि इसमें से परिसम्पत्तियों में होने वाले हास को घटा दिया जाए तो शुद्ध पूँजी निर्माण या शुद्ध विनियोग मालूम हो जाता है। वास्तव में हम पूँजी निर्माण तभी मानते हैं जबकि शुद्ध पूँजी निर्माणर में वृद्धि हो रही हो।

भारत में पूँजी निर्माण के अनुमान तो नियोजन प्रक्रिया के प्रारम्भ से ही उपलब्ध है। लेकिन अधिक वैज्ञानिक एवं व्यवस्थित आँकड़े तीसरी योजना के प्रारम्भ से ही उपलब्ध होते है। दूसरे भारत में पूँजी निर्माण की दर से सम्बन्धित आँकड़े केन्द्रीय सांख्यिकीय संगठन () तथा रिजर्ब बैंक ऑफ इण्डिया द्वारा तैयार किये जाते हैं। इसके अतिरिक्त योजना आयोग एवं अन्यसंगठन भी अनुमान प्रस्तुत करते हैं, लेकिन इन स्रोतों के अलग-अलग होने के कारण अनुमानों में भी भिन्नता पायी जाती है, इसलिए कभी-कभी यह भ्रम का विषय बन जाता है। आँकड़ों का स्रोत चाहें जो भी हो, पर नियोजन काल के लिए वे लगभग एक सी प्रवृत्ति का ही संकेत करते हैं।

भारत में पूँजी निर्माण हेतु बचत के स्रोत

अर्थव्यवस्था के अन्दर पूँजी निर्माण हेतु वित्त की पूर्ति आन्तरिक या घरेलू तथा वाह्य स्रोतों से होती है। घरेलू स्रोत के अन्तर्गत पारिवारिक बचतें, सार्वजनिक एवं निगम क्षेत्रों की आय आदि को सम्मिलित किया जाता हैं। वाह्य स्त्रोतों के अन्तर्गत विदेशी सहायता, विदेशी ऋण तथा संयुक्त उपक्रम आदि आते है। देश के अन्दर उपलब्ध विनियोग संसाधनों देश की बचतें एवं अन्य देशों में किया जाने वाला पूँजी-प्रवाह सम्मिलित होता है। किसी भी अर्थव्यवस्था में आत्मनिर्भरता एवं समुचित आर्थिक विकास के लिए पूँजी निर्माण हेतु वित्त की पूर्ति सम्भव सीमा तक घरेलू बचतों से ही की जानी चाहिए, क्योंकि वाह्य स्रोत यथा विदेशी ऋण या सहयोग आदि का प्रभाव अर्थव्यवस्था में विपरीत दिशा में भी पड़ता है। आज विकासशील देश अपनी आय एवं सहायता का एक बहुत बड़ा भाग विदेशी ऋण के ब्याज को चुकाने में प्रयुक्त कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त इन विकासशील देशों को विदेशी ऋण एवं सहयोग की आड़ में शोषण किया जा सकता है। इसलिए यह आवश्यक है कि पूँजी निर्माण के घरेलू या आन्तरिक स्रोतों पर ध्यान केन्द्रित किया जाए। भारतीय अर्थव्यवस्था भी एक विकासशील अर्थव्यवस्था होने के नाते पूँजी निर्माण की इसी प्रक्रिया के अन्तर्गत देखी जानी चाहिए अतः भारत में पूँजी निर्माण के आन्तरिक स्रोतों को तीन वर्गों में देखा जा सकता है-

(क) धरेलू परिवार क्षेत्र की बचत

(ख) निजी निगम क्षेत्र की बचत

(ग) सार्वजनिक क्षेत्र की बचत 

भारत में अधिकांश बचत का भाग परिवार क्षेत्र से प्राप्त होता है। जबकि औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं में पूँजी निर्माण में वित्त पूर्ति निजी निगम क्षेत्र द्वारा अधिक होती है। भारत में अभी भी निजी निगम क्षेत्र एवं सार्वजनिक या राजकीय क्षेत्र का योगदान बहुत ही कम है। वर्ष 1950-51 में सकल घरेलू उत्पाद बचत कुल राष्ट्रीय उत्पाद का 10.4 प्रतिशत थी, जिसमें से परिवार क्षेत्र का अश 7.7 प्रतिशत एवं निजी क्षेत्र अश 0.91 प्रतिशत था और 1991-92 में सकल घरेलू बचत का प्रतिशत 24.3 एवं पारिवारिक तथा निजी निगम क्षेत्र का हिस्सा क्रमशः 19.9 एवं 2.7 हो गया। इसी प्रकार सार्वजनिक क्षेत्र का हिस्सा 1950-51 में 18 प्रतिशत एवं 1991-92 में 1.7 प्रतिशत मात्र था।

पूँजी निर्माण की निम्न दर होने के कारण

अब तक किये गये विश्लेषण से यह पूर्णतया स्पष्ट हो गया है कि भारत में पूंजी-निर्माण की दर बहुत ही मन्द है जो कि आर्थिक विकास को प्रभावित करती है, यह भी विश्लेषण किया जा चुका है कि घरेलू बचत एवं विनियोग निम्न पूंजी निर्माण को प्रभावित करता है। यह स्थिति भारत ही नहीं, बल्कि सभी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में पायी जाती है। अतः भारत एवं अन्य विकासशील या अल्पविकसित अर्थव्यवस्थाओं में पूंजी निर्माण की मन्द प्रगति के लिए निम्न कारणों को उत्तरदायी ठहराया जाता है :-

1. निर्धनता का दुष्चक्र

अल्पविकसित देशों की एक महत्वूपर्ण विशेषता निर्धनता का दुश्चक्र होता है, जिसके कारण कम उत्पादन-कम-कम विनियोग और अन्ततः कम पूंजी निर्माण होता है। इसी निध निता के दुश्चक्र के कारण प्रभावित होकर अर्थव्यवस्था के विकास में बाधक होता है। इस प्रकार पूंजी-निर्माण का निम्न स्तर होने का यह एक कारण है।

2. प्रतिव्यक्ति आय कम होना

भारत में अभी भी तुलनात्मक रूप में प्रतिव्यक्ति आय का स्तर बहुत ही नीचा है। आय का स्तर निम्न होने के कारण लोगों में बचत की सामर्थ्य कम होती है। कुछ पाश्चात्य अर्थशास्त्री विकासशील देशों में बचत के निम्नस्तर का निम्न कारण प्रतिव्यक्ति आय ही मानते है। परन्तु इस बिन्दु पर काफी मतभेद है, क्योंकि किसी अर्थव्यवस्था में बचत प्रायः सम्पन्न वर्ग ही की जाती है और भारत में भी यही स्थिति है। इसलिए दूसरे प्रतिव्यक्ति राष्ट्रीय आय के आधार पर बचत का सही आंकलन ही किया जा सकता है।

3. जनसंख्या वृद्धि

भारत जैसे विकासशील देश में जनसंख्या वृद्धि दर तुलनात्मक रूप से ऊंची है। यह जनसंख्या वृद्धि दर पूंजी निर्माण को विपरित दिशा में प्रभावित करती है। जैसे- नयी या अतिरिक्त पूजी का एक बड़ा हिस्सा अतिरिक्त जनसंख्या के रहन-सहन के स्तर को बनाये रखने पर व्यय करना पड़ता है, जिससे विनियोग के लिए कम राशि बच पाती है। दूसरे, जनसंख्या का अधिकांश भाग निर्धन, अकुशल एवं अशिक्षित तथा रोगग्रस्त होता है, जिसके कारण उत्पादकता स्तर कम हो जाता है, जो पूंजी निर्माण में बाधक होता है, जिसके कारण उत्पादकता स्तर भी कम हो जाता है, जो पूंजी निर्माण में बाधक होता है। तीसरे श्रम शक्ति की पूर्ति अधिक होने के कारण अर्थव्यवस्था में मजदूरी का स्तर नीचा होता है, जो कि आय एवं पूंजी निर्माण पर प्रभाव डालते हैं।

4. निम्न उत्पादकता

विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में उत्पादकता का स्तर नीचा होता है जिसका कारण श्रमिकों की अशिक्षा, तकनीकी ज्ञान का अभाव, निम्न जीवन स्तर तथा आर्थिक एवं सामाजिक सुविधाओं का अभाव है। वे अपने जीवन निर्वाह को किसी प्रकार से पूरा करने के लिए उत्पादन कर पाते हैं। अतिरेक सृजन न होने के कारण पूंजी निर्माण में योगदान नहीं हो पाता। यद्यपि भारत में श्रम शक्ति के अतिरिक्त निम्न उत्पादकता के और अन्य कारण भी जिम्मेदार ठहराये जाते हैं। आज देश के तमाम औद्योगिक प्रतिष्ठानों में उत्पादकता स्तर काफी नीचा है।

5. निजी निगम क्षेत्र का योगदान

भारत में निजी निगम क्षेत्र से पूजी निर्माण की जितनी अपेक्षा की गयी थी, हम उससे बहुत दूर रह गये हैं। कुल घरेलू पूंजी निर्माण में निजी निगम क्षेत्र का योगदान वर्ष 1991-92 में (जी०डी०पी० प्रतिशत के रूप में) 14.5 प्रतिशत था। निजी क्षेत्र के विस्तार को देखते हुए इसे संतोषजनक नहीं कहा जा सकता है जबकि औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं में इस क्षेत्र का योगदान 50 प्रतिशत से अधिक है। अतः भारत में मन्द गति से पूंजी निर्माण के लिए निजी निगम क्षेत्र भी एक कारण है।

6. सार्वजनिक क्षेत्र का असंतोषजनक निष्पादन

आज देश के सार्वजनिक क्षेत्र के विकास, विस्तार एवं निवेश को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि यह क्षेत्र अपने लक्ष्य से काफी दूर हो गया है। भारत के पूंजी-निर्माण में इसका योगदान अभी भी बहुत कम है। वर्ष 1991-92 में कुल घरेलू पूंजी-निर्माण में (जी०डी०पी० प्रतिशत के रूप में) सार्वजनिक क्षेत्र का योगदान 9.5 प्रतिशत था जिसे संतोषजनक नहीं कहा जा सकता है। इस क्षेत्र के उपक्रमों से यह आशा की गयी थी कि भविष्य में इनसे आय एवं विनियोग का स्तर ऊंचा उठाया जा सकता जायेगा। परन्तु आज सार्वजनिक क्षेत्र के अधिकांश उद्यमों की स्थिति बहुत खराब हो गयी है और उनका निष्पादन बहुत ही संतोषजनक है।

7. अन्तर्राष्ट्रीय प्रदर्शन प्रभाव

आज विकसित देशों का अल्पविकसित देशों की उपभोग प्रणाली पर काफी प्रभाव पड़ा है। भारत के नगरीय क्षेत्र में पाश्चात्य उपभोग प्रणाली के स्वरूप को बड़ी तेजी से अपनाया जा रहा है। आज हम अपने उपभोग में इंग्लैण्ड आदि के उपभोग के तरीके की नकल कर रहे हैं। यही कारण है कि भारतीय शहरों का सम्पन्न वर्ग विलासिता की तमाम वस्तुओं का उपभोग कर रहा है। यह आयातित उपभोग प्रवृत्ति बचत को कम करती हैं, जिसका प्रभाव पूजी-निर्माण में कमी करना होता है। आज भारत में टेलीफोन, टेपरिकार्डर, कैमरा, रेफरीजरेटर्स तथा अन्य साज सज्जा एवं प्रसाधन सामग्री की मांग आय-विषमता एवं प्रदर्शन प्रभाव के कारण है।

उपर्युक्त कारण मुख्य से भारत में पूंजी निर्माण की मन्द गति के लिए उत्तरदायी ठहाराये जाते हैं। परन्तु इसके अतिरिक्त कुछ उप-कारकों को भी भारत में पूंजी निर्माण को प्रभावित करने वाला कारक माना जाता है। यथा-योग्य एवं साहसी व्यक्ति का अभाव, वित्तीय संस्थाओं का कम विस्तार, असंतुलित विकास, कर नीति आदि।

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