पुराणों की उत्पत्ति, पुराणों के नाम एवं श्लोक संख्या

पुराण शब्द का अर्थ है 'पुराना' अर्थात जो स्वयं पुराना हो या प्राचीन हो उसे पुराण कहा गया है, पुराण की उत्पत्ति के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि समाज के इतिहास को सुरक्षित रखने की प्रक्रिया तथा इन्हीं परम्परागत बातों के आधार पर पुराण की उत्पत्ति हुई। पुराण शब्द का अर्थ यास्क के निरूक्त के अनुसार पुराण की उत्पत्ति है, पुरानवं भवति।"

पुराण की उत्पत्ति परम्परा से ही पद्म पुराण में मानी गयी है। जो प्राचीन और परम्परा की कामना करता है उसे पुराण नाम से जाना जाता है। वायु पुराण के अनुसार 'पुरा अनति' अर्थात् प्राचीन काल में जो शास्त्र जीवित था उसे पुराण की संज्ञा दी जाती थी। ब्रह्माण्ड पुराण में उल्लेख मिलता है कि - पुराउतत् अभूत् अर्थात् प्राचीन काल में ऐसा हुआ। वह पुराण कहलाता है। मत्स्य पुराण में तो पुराण को वेदों से पूर्व ही उत्पन्न माना गया है।

मार्कण्डेय पुराण लिखता है कि ब्रह्मा के मुख से पुराण और वेद, दोनों ही निकले जिसमें से सप्तऋषियों ने वेदों को और मुनियों ने पुराणों को ग्रहण कर लिया।

श्रीमद्भागवत महापुराण का कथन है कि मत्स्य पुराण के अनुसार पुराणों को वेदों से पूर्व मानना उचित नहीं है। भागवत पुराण का वेदों से अधिक्य सिद्ध होता है, परन्तु उत्पत्ति को पाश्चात्य कालीन ही माना है। आख्यान, उपाख्यान गाथा तथा कल्प शुद्धि को पुराण संहिता के रूप में माना जाता है। विष्णु पुराण ने इस बात को इस प्रकार प्रतिपादित किया है-

आख्यानैश्चाप्युपाख्यानैः गाथामिः कल्प शुद्धिभिः।
पुराणसंहितांचन्क्रद पुराणार्थ विशारदाः ।।

इस प्रकार पुराणों की उत्पत्ति अनेक प्रकार के उपकराणों से हुई है। ये सभी उपकरण एकत्र होकर कृष्णद्वैपायन व्यास एवं अनेक मनीषियों द्वारा नाना पुराणों के स्वरूप में सुव्यवस्थित किये गये।

उपरोक्त के आलावा पुराणों की उत्पत्ति एवं उसके क्रमिक विकास को डा० हरिवंशनारायण दूबे ने पुराण समीक्षा में इस प्रकार लिखा है। प्रारम्भ में आर्यों को भारत में अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए यहाँ के मूल निवासियों (जनजातियों) से युद्ध करना पड़ा था। स्थिति सामान्य होने पर विभिन्न राजा विभिन्न स्थानों को केन्द्र मानकर राज्य करने लगे, जबकि अनेक विद्वानों, ऋषियों तथा मुनियों ने जंगल में तपस्या प्रारम्भ कर दी, अन्य ने शिक्षा केन्द्रों तथा आश्रमों के माध्यम वेदाध्ययन तथा अध्यापन की परम्परा प्रतिष्ठित की। आचार्य अथवा गुरू के उपरान्त शिष्य उस परम्परा को सतत जीवन्त रखा था। गुरू या आचार्य शिष्यों को तो वेदविज्ञ बनाते ही थे साथ ही साधारण जनता को भी धर्म का उपदेश दिया करते थें ।

अतः पुराण कालीन राज्य के राजाओं की अनेक वंशावलियाँ परिवर्तित हुई, इन विजयी राजाओं की वंशावली, शौर्यपूर्ण कार्य, विजय गाथा, पराक्रम की कथा तथा इनके पूर्वजों की वीरता की कहानी, का गुणगान चारण या वंदी जन करते रहे होंगे। इन राजाओं की राजनैतिक प्रभुता की स्थापना के साथ ही धार्मिक प्रभुता की भी वृद्धि हुई। शस्त्र द्वारा रक्षित राष्ट्र में शास्त्र की चिन्ता प्रवर्तित हुई और राजाओं की उदार छत्र-छाया में ऋषियों तथा मुनियों ने धार्मिक सिद्धान्तों तथा विधि-विधानों का प्रचार किया। इस प्रकार प्रसिद्ध ऋषियों तथा गुरूओं की परम्परा प्रतिष्ठित हुई।

प्राचीन नृपतियों के शौर्यपूर्ण तथा पराक्रम पूर्णकायों ने अनेक प्रकार की परम्पराओं को जन्म दिया होगा। इनके विषय तथा प्रताप की गाथाओं के द्वारा अनेक परम्परायें प्रवर्तित हुई होगी। इन राजाओं के राज्य विस्तार के साथ-साथ परम्पराओं का विस्तार होता गया। इस प्रकार कालान्तर में प्रतापी राजाओं तथा ऋषियों के सम्बन्ध में बहुत सी परम्पराएँ प्रचलित हो गयी यह स्वाभाविक है, कि अनेक राजाओं की कीर्ति कथा विस्मृति के गर्त में विलीन होती गयी। इस प्रकार केवल लोक विश्रुत प्रधान नरेशों की वंशावलियाँ तथा ख्याति नामा ऋषियों की गाथाएं तथा परम्परा या मान्य प्रधान लोकप्रिय विश्वासों से एवं विधि-विधानों के श्रवण कथन-चर्चा ही अवशिष्ट बच गयी। पार्जीटर के अनुसार इन्हीं मौखिक तथा प्रचलित परम्पराओं का संकलन सर्वप्रथम पुराणों में किया गया।

पुराणों की उत्पत्ति के कारण

पुराणों की उत्पत्ति के क्या कारण थे इसके सम्बन्ध में अन्य पुराणों में प्रसंग मिलता है, मत्स्य पुराण' के अनुसार कल्पान्तर में पुराण एक ही था। यह धर्म, अर्थ, काम का साधन था। अर्थशास्त्र और कामशास्त्र की भाँति वह धर्म का भी प्रतिपादक था। इसमें 4 लाख श्लोक थे। उसका क्षेत्र बहुत ही विस्तृत था। उस समय के परिवर्तन के साथ लोगों की बुद्धि क्षीण होती जा रही थी। इतने विशाल पुराण साहित्य के गूढ़ विषयों को ग्रहण करना उनकी बुद्धि के परे था। फलतः साक्षात् विष्णु ने व्यास के रूप में जन्म ग्रहण कर विशाल पुराण साहित्य को अट्ठारह भागों में विभाजित किया।

देवी भागवत् ने पुराण के उदय का कारण लोगों की अल्प आयु और अल्प बुद्धि ही बतायी है। वैदिक काल में कर्म-काण्ड ही प्रधान था। ब्राहाण, क्षत्रिय और वैश्य के अतिरिक्त समाज के अन्य बहुसंख्यक जातियों को दिक्षित होकर जीवन की सार्थकता संपादन करने का अधिकार नहीं था। वैदिक साहित्य को हृदय गम्य करने की क्षमता समाज के कुछ लोगों में थी। दीक्षा और उपनयन संस्कार से वंचित होने के कारण समाज के निम्न स्तर के लोग असंतुष्ट थे। वे अपनी इस हीनता की पूर्ति हेतु दूसरे धर्मो की ओर अग्रसर होने लगे। समाज की इस विषम परिस्थिति और कमी को ध्यान में रख कर लोगों के कल्याणार्थ व्यास देव ने अट्ठारह पुराणों की रचना की। यही पुराणों के उदय का कारण था।

आधुनिक विद्वान ने मूल साहित्य का अवलोकन करके पुराणों की उत्पत्ति के संबंध में अपने मत व्यक्त किये है। उदाहरणार्थ वी.वी. काणे तथा पार्जीटर का मत प्रस्तुत किया जा सकता है। काणे के अनुसार, बौद्ध धर्म के मनोरम आकर्षणों में जीवन यापन करने वाले शूद्रों को वहाँ से निकाल कर वैदिक धर्म में पुनः प्रतिष्ठापित करने की विषम समस्या थी। इस समस्या का निराकरण पुराणों के नवीन संस्करण बना कर किया गया। काणे की ही तरह श्री पार्जीटर का भी मत है कि जैन और बौद्ध धर्म ने ब्राह्मणों और उनकी परम्परा को चुनौती दी थी। इस चुनौती को व्यास देव ने स्वीकार किया और इसका सामना करने के लिए उन्होंने समाज के शिक्षित अर्ध-शिक्षित और अशिक्षित, जो वेद विद्या से वंचित थे- उनके लिए रोम हर्षण और उनके पुत्र, उग्रसुवा के द्वारा पुराण विद्या का प्रचार कराया गया इस कार्य के लिए उन्होंने समाज के निम्न वर्ग को चुना और इस कार्य के लिए प्रशिक्षित किया, इसका प्रचार प्रसार आधिकाधिक मात्रा में किया।

पुराणों के नाम एवं श्लोक संख्या

पुराणों की संख्या के सम्बन्ध में प्रायः सभी पुराण एकमत हैं और उनमें जो वर्णन मिलता है उसमें पुराणों की संख्या प्राचीन काल से 18 मानी गयी है। अट्ठारह पुराणों का नाम प्रायः प्रत्येक पुराण में उपलब्ध होता है। उनके क्रम में अन्तर तो मिलता है किन्तु उनकी संख्या में कोई अन्तर नहीं मिलता। देवी भागवत पुराण 56 में इन 18 पुराणों को पांच क्रम में बांटा गया है और इन्हीं पाँचों कोटि में अट्ठारहों पुराणों को रखा गया है जो निम्न हैं-

1. मकारादि मत्स्यपुराण, मार्कण्डेय पुराण।
2. भकारादि भागवत पुराण, भविष्य पुराण।
3. ब्रत्रयम् ब्रह्म पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण।
4. वचतुष्टयम् वामन पुराण, विष्णु पुराण, वायु पुराण, वाराह पुराण।
5. अनापतलिंगकूस्क अग्नि पुराण, नारद पुराण, पदम् पुराण, लिंग पुराण, गरूड़ पुराण, कूर्म पुराण तथा स्कन्द पुराण।

भागवत पुराण ने सभीः पुराणों की सूची एवं श्लोक संख्या इस प्रकार दी 

ब्रह्मां दशसहस्त्राणि पाद्मं पंचानेषष्टि च।
श्री वैष्णवं त्रयोविशच्चतुविंशति रौवकम ।। 
दशाष्टो श्रीभागवतं नारदं पंचविंशतिः । 
मार्कण्डं नवं वाहनं च दशपच्च चतुःशतम् ।। 
चतुदर्श भविष्यं स्यात्तया पंचशतानिच । 
दशाष्टी ब्रहावैवर्त लिंग मेकादशैव तु ।। 
चतुविंशति वाराहमे काशीतिसहस्त्रकम् । 
स्कान्दंशतं ब्रथा चैकं वामनं दशकीर्तितम् ।। 
कौर्म सप्तदशाख्यातं मात्स्यं तक्षु चतुर्दश । 
एकोनविंशत्सौपर्ण ब्रह्माण्डं द्वादशैव तु ।।
एवं पुराणसंदोहश्चतुलक्ष उदाहृतः।

इन पुराणों के अन्य प्रकार से भी लिखा मिलता है।

पुराणों के नाम एवं श्लोक संख्या

मत्स्य पुराण' में पुराणों की संख्या का काफी मात्रा में विवरण मिलता है तथा इसमें इसकी संख्या 18 ही बतायी गयी है । पंदम् पुराण ने सात्त्विक तथा तामस इन तीन प्रकार के वर्णों में सभी पुराणों को विभाजन किया है। उनके अनुसार विष्णु, नारद, भागवत, गरूड़, पद्म तथा वाराह ये सात्विक पुराण हैं। राजस पुराण के वर्ग में ये - पुराण रखे गये हैं- ब्रह्माण्ड, ब्रह्मवैवर्त, मार्कण्डेय, भविष्य, वामन और ब्रह्मा पुराण । तीसरा वर्ण तामस पुराणों का है जिसमें मत्स्य, कूर्म, लिंग, शिव, स्कन्द तथा अग्नि पुराण को रखा गया है। मत्स्य पुराण में सात्विक पुराणों में विष्णु का माहात्म्य पाया गया है। सरस्वती तथा पितरों के माहात्म्य वाले पुराण संकीर्ण कहलाते हैं। 

संस्कृत साहित्य में 18 संख्या बड़ी पवित्र, व्यापक और गौरवशाली मानी जाती है महाभारत के पर्वो की संख्या 18 है। श्रीमद् भागावत गीता के अध्यायों की संख्या 18 है तथा भागवत पुराण के श्लोकों की संख्या भी 18 हजार है। इस प्रकार पुराणों की संख्या भी सर्वसम्मति से 18 ही है। यही नही शतपथ ब्राह्मण के अष्टमकाण्ड में सृष्टि नामक इष्टियों के उपाधान का जो विधान है वहाँ 17 इष्टिकाओं के रखने का कारण बतलाया गया है। कारण यही है कि तत्सम्बद्ध सृष्टि भी 17 प्रकार की है तथा उसका उदय प्रजापति से होता है जिससे दोनो को एक साथ मिलाने पर सृष्टि के सम्बन्ध में 18 के संख्या की निष्पत्ति होती है। इस प्रकार सृष्टि के अष्टादश संख्या को पवित्र मानते हुए 18 पुराणों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया गया है।

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