हीगल का जीवन परिचय, सिद्धान्त एवं राजनीतिक विचार

जर्मनी के प्रसिद्ध आदर्शवादी दार्शनिक हीगल का जन्म 1770 ई0 में स्टटगार्ट नामक नगर में हुआ। हीगल के पिता वुर्टमवर्ग राज्य में एक सरकारी कर्मचारी थे। वे हीगल को धार्मिक शिक्षा दिलाना चाहते थे। 18 वर्ष की आयु तक हीगल ने स्टटगार्ट के ‘ग्रामर स्कूल’ में शिक्षा ग्रहण की। 1788 ई0 में उसने ट्यूबिनजन के विश्वविद्यालय में धर्मशास्त्र पढ़ना शुरू किया और 1790 में दर्शनशास्त्र के डॉक्टर की उपाधि प्राप्त की। यहाँ पर उसने कठोर परिश्रम किया। लेकिन धार्मिक विषयों की अपेक्षा उसने यूनानी साहित्य में रुचि दिखाई। वह दर्शनशास्त्र का प्रोफेसर बनना चाहता था। 1793 में उसे ‘धर्मशास्त्र का प्रमाण-पत्र‘ प्राप्त किया। इस प्रमाण-पत्र में उसे दर्शनशास्त्र का कम ज्ञान होने की बात अंकित थी। यहाँ पर उसका परिचय कवि होल्डरलिन तथा प्रसिद्ध दार्शनिक शेलिंग से हुआ। उनके प्रभाव से उसने यूनानी दर्शन का अध्ययन किया। उसने प्लेटो के तत्त्वशास्त्र तथा यूनानी नगर राज्य की प्रशंसा करनी शुरू कर दी। उसके जर्मनी के विभाजन के कारण यूनानी नगर राज्यों पर विचार करना शुरू कर दिया। उसने यूनानी चिन्तकों द्वारा उपेक्षित स्वतन्त्रता के विचार को आगे बढ़ाया। 1796 में उसने 'The Positivity of the Christian Religion' नामक लेख में जेसस के सरल धर्म का समर्थन किया। 1799 में उसने ईसाई धर्म को यूनानी तथा काण्ट के दर्शन में समन्वय करने का प्रयास किया।

अपना अध्ययन कार्य समाप्त करने के बाद हीगल ने स्विटरज़रलैण्ड के बर्न नामक नगर में निजी शिक्षक के रूप में कार्य किया। 1797 में उसने बर्न को छोड़कर फ्रेंकफर्ट में निजी-शिक्षक के रूप में कार्य करते हुए अपनी धर्मशास्त्र में रुचि जारी रखी। उसने धर्मशास्त्र के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला कि ईश्वर का ज्ञान केवल धर्म के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। लेकिन उसने अपने इस विचार में परिवर्तन करते हुए कहा कि ईश्वर का ज्ञान धर्मशास्त्र की तुलना में दर्शनशास्त्र द्वारा सरलता से प्राप्त किया जा सकता है। 1799 में उसके पिता की मृत्यु से उसकी आजीविका की समस्या का समाधान भी निकल आया। उसकी इच्छा प्राध्यापक बनने की थी। उसने जीना विश्वविद्यालय में अपने पिता से प्राप्त 1500 डालर की आर्थिक सहायता से अध्यापक का पद प्राप्त करने का प्रयास किया। जीना उस समय जर्मनी के सांस्कृतिक पुनरुत्थान तथा पुनरुज्जीवन का केन्द्र बना हुआ था। उस समय वहाँ पर फिक्टे, शेलिंग, श्लेगल पढ़ा रहे थे। उन प्रकाण्ड विद्वानों के सम्पर्क में आने पर हीगल को भी अपनी प्रतिभा निखारने का अवसर प्राप्त हुआ। उसे जीना विश्वविद्यालय में ही 1803 ई0 में अस्थायी प्राध्यापक की नौकरी मिल गई और 1805 में उसकी सेवा स्थायी हो गई। लेकिन भाग्य ने उसका साथ नहीं दिया। 1806 ई0 में नेपोलियन की सेनाओं ने जीना नगर में प्रवेश किया। हीगल को भी अपनी जान बचाने के लिए जीना छोड़ना पड़ा, क्योंकि इस युद्ध में जर्मनी की हार तथा नेपोलियन की जीत हुई। इससे जीना में शिक्षण-कार्य अस्त-व्यस्त हो गया और हीगल को भी प्राध्यापक का पद छोड़ना पड़ा। नौकरी छूट जाने पर हीगल की आर्थिक स्थिति खराब हो गई। इस दौरान गेटे ने भी उसकी मदद की। उसने एक वर्ष तक सम्पादक के पद पर भी कार्य किया। इसी समय 1807 में उसने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'Phenomenology of Spirit' का प्रकाशन किया। उसने 1808 में न्यूरमबर्ग के एक माध्यमिक विद्यालय में प्रधानाध्यापक के पद को प्राप्त किया और 1816 ई0 तक वह इस पद पर रहा। 1811 में उसने बॉन टकर नामक महिला से विवाह कर लिया। उसे अपने परिवार से गहरा लगाव था। इसी कारण उसने आगे चलकर परिवार के महत्त्व पर लिखा। 1816 में उसने 'Logic' नामक ग्रन्थ का प्रकाशन किया। इससे हीगल की प्रसिद्धि बढ़ गई। इसके बाद उसने एरलानजन, बर्लिन तथा हीडलबर्ग विश्वविद्यालय में अध्यापक कार्य किया। 1821 ई0 में उसने 'Philosophy of Rights' नामक रचना का प्रकाशन किया। इस पुस्तक के कारण हीगल की ख्याति राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर तक फैल गई। हीगल ने तत्कालीन प्रशिया की सरकार की विचारधारा को बदल दिया। इसलिए उसे ‘सरकारी दार्शनिक’ की भी संज्ञा दी गई। 1830 में उसे बर्लिन विश्वविद्यालय का रेक्टर बना दिया गया। 1831 में बर्लिन में हैजे का प्रकोप बढ़ गया। इस दौरान हैजे की बीमारी से इस महान् दार्शनिक की जीवन लीला समाप्त हो गई।

हीगल पर प्रभाव

कोई भी चिन्तक समकालीन परिस्थितियों व पूर्ववर्ती विचारकों से अवश्य ही प्रभावित होता है। हीगल भी इसका अपवाद नहीं है। उस पर निम्न प्रभाव पड़े :-

फ्रांसीसी क्रान्ति का प्रभाव 

हीगल के समय में स्वतन्त्रता का विचार चिन्तन का प्रमुख विषय था। लेकिन नेपोलियन के युद्धों ने उसके मन को व्यापक रूप से दु:खी कर दिया। उसने इस क्रान्ति की प्रशंसा इसलिए की थी कि इससे सामन्तवादी व्यवस्था का अन्त होगा और उदारवादी संस्थाओं का विकास होगा जिससे व्यक्ति को स्वतन्त्रता में वृद्धि होगी। फ्रांसीसी क्रान्ति में श्रेणीबद्ध जर्मन-समाज के समक्ष बौद्धिक और सैद्धान्तिक चुनौतियाँ उपस्थित कीं। हीगल पर इस क्रान्ति का नकारात्मक प्रभाव भी पड़ा। उसने स्वतन्त्रता और सत्ता में समन्वय करने का प्रयास शुरू कर दिया। इस क्रान्ति के बारे में हीगल ने लिखा है कि- “फ्रांस की क्रान्ति शानदार बौद्धिक उषाकाल थी।”

सुकरात का प्रभाव 

हीगल ने द्वन्द्वात्मक पद्धति को सुकरात से ही ग्रहण किया है, क्योंकि द्वन्द्वात्मक पद्धति के जनक सुकरात ही थे। उसने सुकरात के प्रश्न पूछने के तरीके पर ही अपना चिन्तन खड़ा किया है। सुकरात की वाद, प्रतिवाद व संवाद को प्रक्रिया पर आधारित करते हुए हीगल ने भी राज्य की उत्पत्ति का सिद्धान्त पेश किया। अपने परिवार को वाद, नागरिक समाज को प्रतिवाद तथा राज्य को संवाद पर आधारित किया। उसने कहा कि मानव आत्मा इन्हीं माध्यमों या प्रक्रिया से गुजरकर अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त करती है। उसने सुकरात की ही तरह संवाद को वाद और प्रतिवाद से श्रेष्ठ माना है।

प्लेटो का प्रभाव

हीगल अपने अध्ययन के दौरान ही यूनानी दर्शन में रुचि लेने लग गए थे। प्लेटो की ही तरह हीगल का विश्वास है कि व्यक्तियों का सच्चा व्यक्तित्व राज्य के अन्तर्गत ही विकसित हो सकता है। उसका मानना है कि मूलत: व्यक्ति राज्य की सृष्टि है, राज्य के अन्दर ही उसके अधिकार हैं। उसने राज्य को ‘पृथ्वी पर भगवान का अवतरण’  कहा है। इससे प्लेटो के सर्वसत्ताधिकारवादी राज्य की कल्पना का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। उसने प्लेटो के ‘विचार’ सम्बन्धी विचार को भी ग्रहण किया है। इसलिए उसने पदार्थ की तुलना में विचार तत्त्व को ही प्रमुखता दी है। उसका मानना है कि भौतिक वस्तुओं का नाश हो सकता है, विचार का नहीं। उसके अनुसार यह संसार सर्वव्यापी विचार का प्रकटीकरण है।

अरस्तू का प्रभाव

हीगल ने अरस्तू के सोदेश्यवाद के सिद्धान्त से भी कुछ न कुछ ग्रहण किया है। अरस्तू का मानना था कि किसी वस्तु की प्रकृति ही उसका ध्येय है। इसलिए संसार की प्रत्येक वस्तु इस ध्येय को प्राप्त करने के लिए अग्रसर रहती है। इसी प्रकार हीगल ने भी स्पष्ट कहा है कि प्रकृति की प्रत्येक वस्तु का अपना इतिहास होता है। वह अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ने के कारण इस इतिहास का निर्माण करती है। हीगल ने अरस्तू की ही तरह निरपेक्ष विचार में भी विश्वास व्यक्त किया है। यह विचार अपनी वास्तविक प्रकृति या रूप को प्राप्त करने का प्रयास करता है। यह विभिन्न स्तरों से गुजरते हुए अन्त में अपने वास्तविक रूप (पूर्णता) को पा लेता है। इस प्रकार हीगल पर अरस्तू के सोद्देश्यवाद (Teleology) तथा इतिहासवाद का गहरा प्रभाव है।

मैकियावली का प्रभाव 

शक्ति के पुजारी के रूप में हीगल पर सबसे अधिक प्रभाव मैकियावली का ही पड़ा है। उसने अपनी राष्ट्रवादी धारणा मैकियावली के शक्ति-सिद्धान्त पर ही आधारित की है। हीगल ने स्वीकार किया है कि राजनीति में शक्ति का बहुत महत्त्व है।

रूसो का प्रभाव 

हीगल ने रूसो की ‘सामान्य इच्छा’ पर ही राज्य को सावयविक स्वरूप प्रदान किया है। उसने ‘आत्मा’ को प्रभुसत्तासम्पन्न बताया है। रूसो की सामान्य इच्छा की तरह हीगल ने भी ‘आत्मा’ को समुदाय की सामान्य भलाई का ध्येय लिए हुए बताया है। हीगल ने निजी हित पर सार्वजनिक हित के विचार की सर्वोच्चता को रूसो से ही ग्रहण किया है। उसने रूसो की सामान्य इच्छा की ही तरह राज्य में ही व्यक्ति का पूर्ण जीवन सम्भव बताया है।

काण्ट का प्रभाव 

हीगल ने ‘सकारात्मक भलाई’ का विचार काण्ट से ही ग्रहण किया है। उसनेकहा है कि राज्य एक सकारात्मक भलाई है। यह युक्ति पर आधारित है। व्यक्तियों को नैतिक बनाने में राज्य महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हीगल भी काण्ट की तरह ही राज्य को सर्वशक्तिसम्पन्न तथा निरपेक्ष मानता है। वह व्यक्तियों को राज्य के विरुद्ध क्रान्ति करने की इजाजत नहीं देता। हीगल ने काण्ट के सभी उपयोगी विचारों को ही अपने दर्शन में स्थान दिया है। उसने बुद्धि के अनुसार कार्य करने को ही स्वतन्त्रता कहा है। उसने काण्ट की तरह यह स्वीकार किया है कि विश्व की समस्याओं का समाधान दार्शनिक चिन्तन द्वारा ही किया जा सकता है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि हीगल के विचार दर्शन पर पूर्ववर्ती विचारकों व समकालीन परिस्थितियों का प्रभाव व्यापक है। लेकिन हीगल ने अन्धाधुन्ध अनुकरण करने की बजाय उपयोगी विचारों को ही अपने चिन्तन में ग्रहण किया है। उसने सुकरात, प्लेटो, अरस्तू, फिक्ते, रूसो, मैकियावली, काण्ट आदि विचारकों से ग्रहण किया और उन्हें अपनी आवश्यकतानुसार अपने दर्शन में प्रयोग किया।

हीगल की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ

हीगल एक महान दार्शनिक होने के साथ-साथ एक विद्वान लेखक भी था। उसने दर्शन, राजनीति, अध्यात्म, कला व इतिहास आदि क्षेत्रें में अपना लेखन कार्य किया। जिस समय वह अपनी प्रथम पुस्तक 'Phenomenology of Spirit' लिख रहा था, उस समय जीना पर नेपोलियन ने आक्रमण कर दिया। इससे उसका लेखन कार्य बाधित हुआ। उसने जीना से बाहर जाकर भी अपना लेखन कार्य किया। उसकी रचनाओं का प्रकाशन 1807 ई0 में शुरू हुआ। उसकी प्रमुख रचनाएँ हैं :-
  1. फिनोमिनोलॉॅजी ऑॅफ स्पिरिट : यह पुस्तक हीगल के दार्शनिक विचारों का निचोड़ है। इसमें हीगल ने एक सार्वभौमिक सत्य (Universal Truth) की खोज करने का प्रयास किया है। इस पुस्तक में उसने विश्वात्मा (Geist) का विचार प्रस्तुत किया है।
  2. साइंस ऑॅफ लॉजिक : इस पुस्तक में हीगल ने द्वन्द्ववाद का क्रमबद्ध विश्लेषण किया है। इस पुस्तक में दुर्बोधता और जटिलता का गुण होने के कारण हीगल को ख्याति बहुत बढ़ गई।
  3. एनसाइक्लोपीडिया ऑॅफ दि फिलोसीफिकल साइंस : इस पुस्तक में हीगल के व्याख्यानों का सार है। इसमें हीगल ने अधिकारों और स्वतनत्रता की विस्तृत विवेचना प्रस्तुत की है।
  4. फिलोसॉफी ऑॅफ राइट : इस पुस्तक में हीगल ने अपने राजनीतिक सिद्धान्तों का व्यवस्थित रूप में निरूपण किया है। इसमें हीगल ने स्वतन्त्रता की अवधारणा पर विस्तृत रूप से चर्चा की है। इस पुस्तक के कारण हीगल की ख्याति राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत बढ़ गई।
  5. फिलोसॉफी ऑॅफ हिस्ट्री : इसका प्रकाशन हीगल की मृत्यु के बाद हुआ। यह पुस्तक उन व्याख्यानों का संग्रह है जो उसने बर्लिन विश्वविद्यालय में अध्यापक के रूप में दिए थे। इन व्याख्यानों में अधिकांश धर्म दर्शन तथा सौन्दर्यशास्त्र पर हैं। इस पुस्तक में हीगल ने इतिहास की द्वन्द्वात्मक व्याख्या प्रस् की है।
  6. कान्स्टीट्यूशन ऑॅफ जर्मनी : इस पुस्तक का प्रकाशन भी हीगल की मृत्यु के पश्चात् हुआ। इस पुस्तक में टुकड़ों-टुकड़ों में विभाजित जर्मनी की हालत पर प्रकाश डालते हुए हीगल ने एक नीति, एक शासन और एक विधान से युक्त केन्द्रीकृत जर्मन राज्य को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता को प्रमाणित किया है। इस प्रकार यह पुस्तक जर्मनी के एकीकरण के उपायों पर गहरा प्रकाश डालती है।
इन रचनाओं में 'Science of Logic' तथा 'Phenomenology of Spirit' हीगल की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं।

हीगल के राजनीतिक विचारों के दार्शनिक आधार

हीगल के राजनीतिक चिन्तन का दार्शनिक आधार उसके ‘विश्वात्मा के विचार’ में मिलता है। विश्वात्मा की अवधारणा एक आध्यात्मिक विचारा है। हीगल ने इतिहास को विश्वात्मा की अभिव्यक्ति माना है। हीगल इस संसार में दिखाई देने वाली सभी वस्तुओं का उद्भव विश्वात्मा के रूप में देखता है। हीगल का दार्शनिक सूत्र है- “जो कुछ वास्तविक है, वह विवेकमय है और जो कुछ विवेकमय है वह वास्तविक है।” (The real is rational and rational is real)।

उसने आत्मा को वास्तविक सत्य मानकर इसे शाश्वत तथा सर्वव्यापी व अपने में ही पूर्ण सम्पूर्ण माना है। हीगल का विश्वास है कि इस संसार में कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है। इस संसार में हर एक वस्तु गतिशील है। वह आत्मा को प्रज्ञा या निरपेक्ष भाव (Reason or Absoute Idea) की संज्ञा देता है। उसके अनुसार परिवर्तन नित्य विश्व प्रक्रिया का अंग है। निरपेक्ष इसके अधीन है। प्रज्ञा या आत्मा को अपनी सर्वोच्च अवस्था तक पहुँचने के लिए अनेक सोपानों को पार करना पड़ता है। यह दृश्यमान भौतिक जगत् आत्मा का साकार रूप है। इसके महान् रचनात्मक शक्ति होती है जो विकास के लिए मचलती है और इस प्रकार नए रूप को ग्रहण कर लेती है। हीगल के अनुसार विश्वात्मा के विकास का प्रारम्भिक रूप भौतिक अथवा जड़ जगत् है। मानव इसका उच्चतम रूप है। इस विकास-क्रम में मानव की स्थिति सर्वोपरि है क्योंकि इसमें चेतना आत्मा रहती है। हीगल का यह मानना है कि विश्वात्मा का विकास अवरुद्ध नहीं होता क्योंकि सम्पूर्ण विश्व अर्थात् प्रकृति की प्रत्येक वस्तु विकास-क्रम से बँधी हुई है तथा वह विश्वात्मा की ओर अग्रसर है। विश्वात्मा का बाह्य विकास विभिन्न संस्थाओं के रूप में होता है, जिनमें राज्य का सर्वोच्च स्थान है क्योंकि यह अन्य सभी संस्थाओं का नियामक व रक्षक है। इसलिए राज्य पृथ्वी पर विश्वात्मा का प्रकटीकरण है। नैतिकता तथा विधि निर्माण सब कुछ राज्य के अन्तर्गत ही निहित है। राज्य का अपना व्यक्तित्व है और राज्य सबसे ऊपर है।

हीगल के अनुसार विश्वात्मा का विकास द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया के द्वारा होता रहता है। यह विकास सीधी रेखाओं में न होकर टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं में होता है। इस प्रक्रिया का सूख त्रिमुखी है। इसमें पहले वाद, फिर प्रतिवाद तथा अन्त में संवाद आता है जो प्रथम व दूसरे से श्रेष्ठ होता है। इन तीनों में परस्पर स्थानान्तरण होता रहता है। वाद में वास्तविकता का प्रकटीकरण होता है। प्रतिवाद में उसका विपरीत रूप होता है। संवाद में इन दोनों का संश्लेषण हो जाता है। कालान्तर में संवाद वाद बन जाता है और अपने प्रतिवाद को जन्म देता है। इन दोनों का विरोध या दोष संवाद में समाप्त हो जाते हैं। इस प्रक्रिया में परिवारवाद होता है। इसमें समाज को प्रतिवाद के रूप में बदलने के बीज निहित रहते हैं। जहाँ परिवार की विशेषता परस्पर प्रेम होती है, वहीं समाज की विशेषता सार्वभौमिक प्रतिस्पर्धा होती है। मनुष्य की आवश्यकताओं को पूरा करने में परिवार के असफल रहने पर ही समाज का जन्म होता है और समाज के सर्वसत्ताधिकारवाद के कारण राज्य का जन्म होता है। राज्य संवाद के रूप में परिवार व समाज दोनों से श्रेष्ठ होता है। इस प्रकार द्वन्द्वात्मक विकास का अन्तिम चरण राज्य ही है। इस द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया के अनुसार हीगल ने विश्वात्मा के विकास को तीन चरणों में विभाजित किया है। वह पहली स्थिति पूर्वी देशों की; दूसरी यूनानी तथा रोमन राज्यों की तथा तीसरी जर्मन राज्य के उत्थान की मानता है। वह घोषणा करता है कि जर्मनी शीघ्र ही एक विकसित राष्ट्र के रूप में उभरकर समूचे यूरोप महाद्वीप का प्रतिनिधित्व करेगा।

हीगल का कहना है कि संसार के विकास का मार्ग पूर्व निर्धारित है। इस विकास मार्ग को निर्धारित करने वाली शक्ति बुद्धि है। संसार की कोई भी वस्तु बुद्धि से परे नहीं है। इस विकास का अन्तिम लक्ष्य आत्मा द्वारा पूर्ण आत्मचेतना की प्राप्ति है। अपने अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आत्मा अनेक रूप धारण करती है। जब मनुष्य द्वारा आत्मचेतना की प्राप्ति कर ली जाती है तो विकास की इस प्रक्रिया का अन्त हो जाता है। विश्वात्मा ने जितने भी रूप धारण किए हैं और जितने भविष्य में धारण करेगी, उन सबमें मनुष्य ही सर्वोच्च है।

हीगल की विश्वात्मा की विशेषताएँ

  1. यह बहुनामी विचार है। इसे आत्मा, विवेक, दैवीय मानस आदि नामों से पुकारा जाता है।
  2. इसके अनुसार मानव तथा जगत् दोनों ही विश्वात्मा के प्रकटीकरण हैं।
  3. यह सब वस्तुओं को अपने में समेटने का गुण रखती है। सब वस्तुओं के उद्भव का स्रोत है।
  4. इसमें परिवर्तनशीलता का गुण होता है। यह अपने अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सदैव गतिशील रहती है।
  5. इसका विकास द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया के माध्यम से होता है। यह विकास-क्रम सीधा न होकर टेढ़ा-मेढ़ा होता है।
  6. विश्वात्मा के विकास की अन्तिम परिणति राज्य के रूप में होती है। इसलिए राज्य पृथ्वी पर ईश्वर का अवतरण (March of God) है।

द्वन्द्वात्मक पद्धति

हीगल का द्वन्द्ववाद का विचार उसके सभी महत्त्वपूर्ण विचारों में से एक महत्त्वपूर्ण विचार है। यह विश्व इतिहास की सही व्याख्या करने का सबसे अधिक सही उपकरण है। हीगल ने इस उपकरण की सहायता से अपने दार्शनिक चिन्तन को एक नया रूप दिया है। इसी विचार के कारण हीगल को राजनीतिक चिन्तन में एक महत्त्वपूर्ण जगह मिली है। हीगल का द्वन्द्ववाद प्राथमिक महत्त्व का है। हीगल की प्रसिद्ध पुस्तक 'Science of Logic' में इसका विवरण मिलता है।

हीगल के अनुसर अन्तिम सत्य बुद्धि या विवेक है। इसलिए इसके विकास की प्रक्रिया को द्वन्द्ववाद का नाम दिया है। हीगल ने इस शब्द को यूनानी भाषा के ‘डायलैक्टिक’ जो कि ‘डायलेगो’ (Dialego) से निकला है, से इसका अर्थ लिया है। डायलेगो का अर्थ वाद-विवाद या तर्क-वितर्क करना होता है। इसका सर्वप्रथम प्रयोग सुकरात ने किया था। सुकरात इस पद्धति का परम भक्त था। इस पद्धति का प्रयोग करके वह अपने विरोधियों द्वारा दिए गए तर्कों का विरोध करके तथा उनका समाधान करके अन्तिम सत्य तक पहुँचने का प्रयास करता था। उस समय सत्य की खोज वाद-विवाद द्वारा ही की जाती थी। भारतीय दर्शन व यूनानी दर्शन में भी इस विधि का प्रयोग मिलता है। प्राचीन यूनानी विचारकों प्लेटो तथा अरस्तू के दर्शन में भी इस पद्धति का व्यापक प्रयोग मिलता है। हीगल तक यह पद्धति प्लेटो के माध्यम से पहुँची है। हीगल अपने द्वन्द्ववादी विचार के लिए प्लेटो के बहुत ऋणी हैं। उसने यूनानी दर्शन की त्रिमुखी प्रक्रिया को अपने दर्शन में प्रयोग किया है। यूनानी दार्शनिकों ने इस प्रक्रिया राजनीति में ही किया है। यूनानी विचारकों के अनुसार राजतन्त्र अपने प्रतिवाद के रूप में निरंकुश शासन में बदल जाता है। जब निरंकुशवाद अपने चरम शिखर पर पहुँच जाता है तो इस प्रतिवाद का नाश होकर लोकतन्त्र की स्थापना होती है। यूनानी विचारक द्वन्द्ववाद को तिहरी प्रक्रिया मानते थे। उनके अनुसार राजतन्त्र पहले कुलीनतन्त्र में और बाद में लोकतन्त्र में परिवर्तित हो जाता है। लोकतन्त्र पहले अधिनायकतन्त्र में तथा बाद में यह राजतन्त्र में बदल जाता है। यह प्रक्रिया अनवरत रूप से चलती रहती है।

हीगल ने इस त्रिमुखी प्रक्रिया में परिवर्तन करते हुए इसे राजनीतिक क्षेत्र की बजाय जीवन के सभी क्षेत्रें में लागू किया। उसने इस प्रक्रिया के तीन तत्त्व - वाद (Thesis), प्रतिवाद (Antithesis) और संवाद (Synthesis) बताए। उसका कहना था कि प्रत्येक विचार और घटना परस्पर दो विरोधी नीतियों - वाद और प्रतिवाद के संघर्ष से उत्पन्न होती है। इन दोनों के सत्य तत्त्वों को ग्रहण करके एक नया रूप जन्म लेता है, जिसे संवाद कहा जाता है। यह वाद और प्रतिवाद दोनों से श्रेष्ठ होता है, क्योंकि इसमें दोनों के गुण अन्तर्निहित होते हैं। कालान्तर में यह वाद बन जाता है। वही त्रिमुखी प्रक्रिया फिर से दोहराई जाती है। इस प्रकार वाद, प्रतिवाद और संवाद की प्रक्रिया अनवरत रूप से चलती रहती है। हीगल का कहना है कि यह निरन्तर आगे बढ़ने वाली प्रक्रिया है। यह सदैव विकास के उच्चतर स्तर की ओर बढ़ने वाली होती है। इस प्रकार हीगल ने द्वन्द्ववाद के यूनानी राजनीतिक सिद्धान्त को सार्वभौमिक रूप प्रदान कर दिया है। हीगल के अनुसार यह प्रक्रिया जीवन के सभी क्षेत्रें में चलती रहती है। हीगल के अनुसार वाद किसी वस्तु का होना (Being) या अस्तित्व को स्पष्ट करता है। प्रतिवाद जो वह नहीं है (Non-being) को सिद्ध करता है। इस प्रकार वाद में ही प्रतिवाद के बीज निहित होते हैं। जब होना या अस्तित्व तथा न होना (Non-being) परस्पर मिलते हैं तो संवाद का जन्म होता है। इस तरह की प्रणाली संसार की सभी वस्तुओं व क्षेत्रें में मिलती है। इसी प्रणाली पर संसार का निरन्तर विकास हो रहा है।

हीगल का मानना है कि संसार के जड़ व चेतन सभी पदार्थों, सभी सामाजिक सस्थाओं, विचार के क्षेत्र में तथा अन्य सभी क्षेत्रें में इस प्रक्रिया को देखा जा सकता है। हीगल ने गेहूँ के दाने का उदाहरण देते हुए कहा कि दाना एक वाद है। उसको खेत में बोने से उसका अंकुरित होना प्रतिवाद है। पौधे के रूप में विकसित होने की तीसरी दशा संवाद है। यह प्रथम दोनों से उत्कृष्ट है। गेहूँ का एक दाना वाद है और संवाद में बीसियों दाने उत्पन्न हो गए। इसी तरह अण्डे में वीर्याणु वाद है। उसमें पाया जाने वाला रजकण प्रतिवाद है। वीर्य तथा रज के संयोग से जीव का जन्म होता है। यह अण्डे के भीतर भोजन प्राप्त करके पुष्ट होकर चूजे के रूप में अण्डे से बाहर आता है, यही संवाद है। इस प्रकार वीर्य (वाद) तथा रजकण (प्रतिवाद) दोनों ने मिलकर अधिक उत्कृष्ट रूप को जन्म दिया। यही बात मानव शिशु के बारे में भी कही जा सकती है। इसी प्रकार हीगल ने तर्क, प्रकृति और आत्मा के क्षेत्र में भी इस प्रक्रिया को लागू किया है। तर्क के क्षेत्र में जब हम इसको लागू करते हैं तो सर्वप्रथम वस्तुओं की सत्ता (Being) का ही बोध होता है; किन्तु आगे बढ़ने पर वस्तुओं के सार (Essence) का आभास हो जाता है। इसके बाद और आगे बढ़ने पर इसके बारे में और अधिक विचार (Notion) मिलते हैं। इसी प्रकार आत्मा के विकास की भी तीन दशाएँ - अन्तरात्मा (Subjective Spirit), ब्रह्मात्मा (Objective Spirit) तथा निरपेक्षात्मा (Absolute Spirit) हैं। जब प्रथम दशा से आत्मा दूसरे रूप में बाह्य जगत् के नियमों और संस्थाओं के रूप में व्यक्त होती है तो यह आत्मा का प्रतिवादी रूप है। अन्तरात्मा वाद का अध्ययन मानवशास्त्र तथा मनोविज्ञान द्वारा किया जाता है। ब्रह्मात्मा (प्रतिवाद) का आचारशास्त्र, राजनीतिशास्त्र या विधि-शास्त्र द्वारा किया जाता है। आत्मा का तीसरा रूप (संवाद) का अध्ययन कला, धर्म और दर्शन द्वारा किया जाता है। राज्य ब्रह्मात्मा के विकास की अन्तिम कड़ी है। इसमें आत्मा अपने मानसिक जगत् से निकलकर बाह्य जगत के विभिन्न नियमों तथा संस्थाओं के रूप में प्रकट होती हुई अन्त में राज्य के रूप में विकसित होती है। हीगल ने परिवार को एक वाद मानते हुए उसे समाज के रूप में विकसित करके राज्य के रूप में सर्वोच्च शिखर पर पहुँचा दिया है। हीगल के मतानुसार परिवार का आधार पारस्परिक प्रेम है। परिवार एक वाद के रूप में मनुष्य की सारी आवश्यकताएँ पूरी नहीं कर सकता। इसलिए प्रतिवाद के रूप में समाज की उत्पत्ति होती है। समाज प्रतिस्पर्धा तथा जीवन संघर्ष पर आधारित होता है। जीवन को अच्छा व सुखमय बनाने के लिए संवाद के रूप में राज्य का जन्म होता है। इसमें परिवार तथा समाज दोनों के गुण पाए जाते हैं। इसमें प्रेम तथा स्पर्धा दोनों के लिए उचित स्थान है। इस आधार पर हीगल जर्मन राष्ट्रवाद के पूर्णत्व को प्रमाणित करते हुए कहता है कि यूनानी राज्य वाद थे; धर्मराज्य उसके प्रतिवाद तथा राष्ट्रीय राज्य उनका संवाद होगा। इस प्रकार जर्मनी राष्ट्र को उसने विश्वात्मा का साकार रूप कहा है।

द्वन्द्ववाद की विशेषताएँ

  1. स्वत: प्रेरित : द्वन्द्ववाद की प्रमुख विशेषता इसका स्वत: प्रेरित (Self propelling) होते हुए निरन्तर अग्रसर रहना है। इसे आगे बढ़ने के लिए किसी दूसरी शक्ति से प्रेरणा ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं है। यह विश्वात्मा में स्वयंमेव ही निहित है और इससे प्रेरणा लेती हुई आगे बढ़ती है। हीगल का कहना है कि आत्मा अपने आदर्शों को प्राप्त करने के लिए जब आगे बढ़ती है तो प्रतिवाद के रूप में उसे संघर्ष का सामना करना पड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप संवाद की दशा पैदा होती है। इस प्रकार वाद में ही प्रतिवाद पैदा करने की शक्ति निहित होती है और इसी कारण से यह संघर्ष शाश्वत रूप से चलता रहता है। यह संघर्ष एक ऐतिहासिक आवश्यकता है, जिसके परिणामस्वरूप जर्मनी एक राष्ट्रवादी राज्य के रूप में उभरेगा।
  2. संघर्ष ही विकास का निर्धारक है : हीगल का मानना है कि प्रगति या विकास दो परस्पर विरोधी वस्तुओं के संघर्ष या द्वन्द्व का परिणाम है। यह विकास टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं के माध्यम से होता है। हीगल ने कहा है- “मानव सभ्यता का विकास एक सीधी रेखा के रूप में न होकर टेढ़ी-मेढ़ी रेखा के रूप में होता है।”
  3. मानव का इतिहास प्रगति का इतिहास है : हीगल का कहना है कि मानव की प्रगति संयोगवश या अचानक नहीं होती। इन प्रक्रिया को निश्चित करने वाला तत्त्व विश्वात्मा का विवेक है। यह विश्वात्मा अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अनेक रूप धारण करती है। इसका लक्ष्य आत्म-प्रकाशना (Self-realization) है। यह उसे मनुष्य के रूप में प्राप्त होती है। इसके बाद कोई अन्य उच्चतम विकास नहीं होता।
  4. सत्य की खोज का तरीका : हीगल का कहना है कि किसी वस्तु के वास्तविक स्वरूप का पता उसकी दूसरी वस्तु के साथ तुलना करके ही लगाया जा सकता है। इसलिए वास्तविक स्वरूप (सत्य) की खोज द्वन्द्ववाद द्वारा ही की जा सकती है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि इस ब्रह्माण्ड में एक सार्वभौमिक आत्मा का अस्तित्व है और यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उसी का साकार रूप है। इस संसार में जो वास्तविक है, वह विवेकमय है और जो विवेकमय है वही वास्तविक है। प्रत्येक विचार में उसका सार निहित रहता है जो संसार की प्रत्येक वस्तु को गतिशील बनाए रखता है। इसी से मानव आत्मा अपने चरम लक्ष्य तक पहुँच जाती है।

द्वन्द्ववाद की आलोचना

सत्य के अन्वेषण की प्रमुख पद्धति होने के बावजूद भी हीगल के द्वन्द्ववाद की अनेक आधारों पर आलोचना हुई है। उसकी आलोचना के प्रमुख आधार हैं :-
  1. अस्पष्टता : हीगल ने अपने द्वन्द्ववाद में विचार, निरपेक्ष भाव, नागरिक समाज, पृथ्वी पर ईश्वर का आगमन आदि शब्दों का बड़ी अस्पष्टता के साथ प्रयोग किया है। हीगल ने धर्म, दर्शन, अर्थशास्त्र आदि में परिवर्तन का कारण ‘विचार’ में प्रगति को माना है। विज्ञान और दर्शन में जो भी नए-नए परिवर्तन होते हैं, उनका कारण विचारों में विरोध ही नहीं हो सकता, अन्य कारण भी होते हैं। हीगल ने जिन अवधारणाओं को द्वन्द्ववाद में प्रयोग किया है, वे बड़ी अस्पष्ट हैं। उनके अनेक अर्थ निकलते हैं। उसका प्रत्येक वस्तु के मूल में छिपा अन्तर्विरोध का विचार भी स्पष्ट नहीं है। इसलिए कहा जा सकता है कि हीगल के द्वन्द्ववाद में अस्पष्टता का पुट है।
  2. वैज्ञानिकता का अभाव : हीगल ने अपने द्वन्द्ववाद में किसी वस्तु को मनमाने ढंग से वाद और प्रतिवाद माना है। उसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। उसने कहा है कि कोई वस्तु एक ही समय में सत्य भी हो सकती है और असत्य भी। यह पद्धति वस्तुनिष्ठ न होकर आत्मनिष्ठ है क्योंकि इसमें इतिहास के तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर वाद, प्रतिवाद और संवाद के रूप में पेश किया गया है। यदि द्वन्द्ववाद वैज्ञानिकता पर आधारित होता तो हीगल के तर्कां के अलग अलग अर्थ नहीं निकलो होते। हीगल ने जहाँ राज्य को ‘पृथ्वी पर ईश्वर का आगमन’ कहा है, वहीं माक्र्स ने राज्य को शैतान की संज्ञा दी है। इसकी आधारभूत मान्यता भी गलत सिद्धान्त पर टिकी हुई है कि एक बात एक समय पर सत्य और असत्य दोनों हो सकती है। अत: हीगल के द्वन्द्ववाद में वैज्ञानिक परिशुद्धता का अभाव है।
  3. व्यक्ति की इच्छा की उपेक्षा : हीगल ने कहा है कि ऐतिहासिक विकास की गति पूर्व निश्चित है। प्रो0 लेकेस्टर ने कहा है- “हीगल के द्वन्द्ववादी सिद्धान्त में व्यक्तिगत इच्छाओं और वरीयताओं को महज एक सनक ;ब्ंचतपबमद्ध मान लिया गया है।” हीगल के अनुसार- “मानव इतिहास के अभिनेता मनुष्य नहीं, बल्कि विशाल अवैयक्तिक शक्तियाँ (विचार) हैं।” यदि निष्पक्ष व तटस्थ दृष्टि से देखा जाए तो हीगल का यह सिद्धान्त इतिहास की पूर्ण व्याख्या प्रस् नहीं करता। व्यक्ति की इच्छाएँ, अभिलाषाएँ व प्रयास इतिहास की गति बदलने की क्षमता रखते हैं। वैयक्तिक मूल्यों की उपेक्षा करके हीगल ने अपने आप को आलोचना का पात्र बना लिया है।
  4. मौलिकता का अभाव : हीगल ने द्वन्द्ववादी सिद्धान्त को सुकरात तथा अन्य यूनानी चिन्तकों के दर्शन से ग्रहण किया है। उसने उसमें आमूल परिवर्तन करके नया रूप अवश्य देने का प्रयास किया है, लेकिन यह उसका मौलिक विचार नहीं कहा जा सकता।
  5. अतार्किकता : हीगल ने भविष्यवाणी की थी कि वाद, प्रतिवाद और संवाद की प्रक्रिया द्वारा जर्मनी एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में पूर्णता को प्राप्त कर लेगा। तत्पश्चात् ऐतिहासिक विकास का मार्ग रुक जाएगा। लेकिन न्ण्छण्व्ण् (संयुक्त राष्ट्र संघ) की स्थापना हीगल के तर्क को झूठा साबित कर देती है। सभी राष्ट्रों की आर्थिक निर्भरता में भी पहले की तुलना में अधिक वृद्धि हुई है। अत: उसकी भविष्यवाणी तार्किक दृष्टि से गलत है।
  6. अनुभव तत्त्व की उपेक्षा : हीगल ने तर्क को सबसे ज्यादा महत्त्व दिया है। उसके अनुसार संसार के समस्त कार्यकलापों का आधार तर्क ही है। व्यक्तियों और राज्य के अतीत के अनुभव भी मानव इतिहास के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। इसलिए हीगल ने अनुभव तत्त्व की उपेक्षा करने की भारी भूल की है। जस्टिस होमज़ ने कहा है- “मनुष्य के सभी कार्यकलापों में अनुभव तर्क से अधिक महत्त्वपूर्ण है।”
  7. वस्तुिनष्ठता का अभाव : हीगल का द्वन्द्ववाद ऐतिहासिक अन्तर्दृष्टि, यथार्थवाद, नैतिक अपील, धामिर्क रहस्यवाद आदि का विचित्र मिश्रण है। व्यवहार में उसने वास्तविक, आवश्यक, आकस्मिक, स्थायी और अस्थायी आदि शब्दों का मनमाने ढंग से प्रयोग किया है। इसी कारण से उसका द्वन्द्ववाद वस्तुनिष्ठ नहीं है।
  8. अत्यधिक एकीकरण पर बल : हीगल ने नैतिक निर्णय और ऐतिहासिक विकास के आकस्मिक नियमों को मिला दिया है। उसने बुद्धि और इच्छा को भी मिला दिया है। उसने कहा कि जर्मनी को राज्य अवश्य बनना चाहिए। इसका अभिप्राय यह है कि जर्मनी को ऐसा करना चाहिए क्योंकि उसके पीछे कारणात्मक शक्तियाँ काम कर रही है। इसलिए इस अनावश्यक व अत्यधिक एकीकरण के कारण उसका द्वन्द्ववाद तर्क की अपेक्षा नैतिक अपील पर ज्यादा जोर देता है। 9ण् विश्वनाथ वर्मा ने हीगल के द्वन्द्ववाद को रोमांसवादी कल्पना कहा है।
  9. हीगल ने आकस्मिक और महत्त्वहीन में अन्तर नहीं किया है।
  10. हीगल का द्वन्द्ववाद सफलता की आराधना करता है, विफलता की नहीं। इसलए नीत्शे ने हीगल के द्वन्द्ववाद को ‘सफलताओं की श्रृंखला का गौरवगान’ कहा है।
उपर्युक्त आलोचनाओं के बाद यह नहीं कहा जा सकता कि हीगल का द्वन्द्ववाद पूर्णतया महत्त्वहीन है। हीगल के द्वन्द्ववाद का अपना विशेष महत्त्व है। इससे वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप को समझने में मदद मिलती है। इससे मानव सभ्यता के विकास के बारे में पता चलता है। हीगल का ऐतिहासिक विकास में उतार-चढ़ाव की बात करना अधिक तर्कसंगत है। इस सिद्धान्त से मानव की बौद्धिक क्रियाओं के मनोविज्ञान को समझा जा सकता है। उसके द्वन्द्ववाद में सार्वभौतिकता का गुण होने के कारण इसे प्रत्येक क्षेत्र में लागू किया जा सकता है। हीगल ने दर्शन और विज्ञान की दूरी पाटने का प्रयास करके ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में एकीकरण का प्रयास किया है। हीगल के द्वन्द्ववादी सिद्धान्त को माक्र्स ने उलटा करके अपना साम्यवादी दर्शन खड़ा किया है जिससे हीगल को अमरत्व प्राप्त हो गया है। इसलिए यही कहा जा सकता है कि अनेक गम्भीर त्रुटियों के बावजूद भी हीगल का द्वन्द्ववाद राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण और अमूल्य देन है।

राज्य का सिद्धान्त

हीगल के राज्य सम्बन्धी विचार सम्पूर्ण राजनीतिक चिन्तन में एक महत्त्वपूर्ण एवं मौलिक विचार हैं। उसके प्रमुख राज्य सम्बन्धी विचार ‘फिनोमिनोलॉजी ऑफ स्पिरिट’ तथा ‘फिलोसॉफी ऑफ राइट’ नामक ग्रन्थों में वर्णित हैं। हीगल ने जर्मनी की तत्कालीन राजनीतिक दुर्दशा को देखकर अपने चिन्तन को खड़ा किया था ताकि जर्मनी का एकीकरण हो सके और जर्मनी एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभर सके। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर उसने राज्य को बहुत महत्त्व प्रदान किया है।

हीगल के अनुसार इस संसार में जो चीज वास्तविक है, विवेकमय है, जो विवेकमय है, वास्तविक है। इसका तात्पर्य यह है कि जो वस्तु अस्तित्व में है वह तर्क के अनुकूल है और जो तर्क के अनुकूल है वह अस्तित्व में है। हीगल का मानना है कि पूर्ण विचार या तर्क का ज्ञान धीरे-धीरे तर्कसंगत शैली से ही हो सकता है। हीगल के अनुसार राज्य में पूर्ण विचार या दैवी आत्मा पूर्ण रूप से स्वत: सिद्ध अनुभूति को प्राप्त होता है। अर्थात् राज्य तर्क पर आधारित है। किसी वस्तु की सत्य प्रकृति का ज्ञान राज्य में ही सम्भव है। हीगल ने अरस्तू के आदर्श राज्य की वास्तविकता का खण्डन करते हुए कहा है कि सभी राज्य तर्कसंगत होते हैं, क्योंकि उनका विकास ऐतिहासिक क्रम में होता है। अर्थात् संसार की समस्त घटनाएँ एक पूर्व निश्चित योजना के अनुसार घटित होती है। इसके पीछे दैवी आत्मा या विश्वात्मा का हाथ होता है। इसलिए राज्य जैसी संस्था भी ‘पृथ्वी पर भगवान का अवतरण’ (March of God on Earth) है।

हीगल ने अपने लेख 'The German Constitution' में राज्य को परिभाषित करते हुए कहा है कि- “राज्य मानवों का एक ऐसा समुदाय है जो सामूहिक रूपसे सम्पत्ति की रक्षा के लिए संगठित होता है। इसलिए सार्वजनिक सेना और सत्ता का निर्माण कर ही राज्य की स्थापना की जा सकती है।” यद्यपि हीगल ने शक्ति को राज्य का अनिवार्य तत्त्व माना है लेकिन राज्य अपने क्षेत्र में कानून के अनुसार कार्य करता है, शक्ति के द्वारा नहीं। उसके अनुसार राज्य किसी समझौते का परिणाम न होकर ऐतिहासिक विकास, सामुदायिक जीवन एवं परिवर्तित परिस्थितियों का परिणाम है। हीगल ने ग्रीक दर्शन से प्रभावित होकर अपनी पुस्तक 'Philosophy of Rights' में राज्य का व्यापक अर्थ में प्रयोग करते हुए राज्य को एक सर्वोच्च नैतिक समुदाय कहा है। उसके अनुसार- “राज्य मानव जीवन की सम्पूर्णता का प्रतीक है जिसमें परिवार, नागरिक समाज तथा राजनीतक राज्य क्षणिक हैं। इसमें नैतिक शक्तियाँ ही व्यक्तियों के जीवन को अनुशासित रखती हैं।”

राज्य की उत्पत्ति

हीगल के अनुसार राज्य किसी समझौते की उपज न होकर विश्वात्मा का द्वन्द्वात्मक पद्धति से होने वाले विकास का परिणाम है तथा इसका अपना व्यक्तित्व है। हीगल का कहना है कि संसार में सभी जड़ व चेतन पदार्थ विश्वात्मा से ही जन्म लेते हैं और उसी में ही विलीन हो जाते हैं। यह विश्वात्मा (आत्मतत्त्व) आत्मज्ञान के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए विश्व में अनेक रूप धारण करती है। वह निर्जीव वस्तुओं, वनस्पतियों और पशुओं के माध्यम से गुजरती हुई मानव का रूप धारण करती है। मानव विश्वात्मा का श्रेष्ठ रूप है। इसके बाद इसका परिवार तथा समाज के रूप में प्रकटीकरण होता है जो राज्य पर जाकर रुक जाता है क्योंकि राज्य विश्वात्मा का पृथ्वी पर साक्षात् अवतरण होता है।

राज्य का विकास

हीगल का मानना है कि विश्वात्मा का द्वन्द्वात्मक रूप से चरम लक्ष्य की ओर विकास होता है। विश्वात्मा बाह्य जगत् में विकास के अनेक स्तरों को पार करती हुई सामाजिक संस्थाओं के रूप में प्रकट होती हैं। ये संस्थाएँ परिवार, समाज व राज्य हैं। परिवार का उद्भव व्यक्ति की भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए होता है। परिवार का आधार पारस्परिक प्रेम व सहिष्णुता है। परिवार राज्य की उत्पत्ति की प्रथम सीढ़ी है। परिवार व्यक्ति की सभी आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकता। ज्यों-ज्यों परिवार में सदस्यों की संख्या बढ़ती है तो परिवार व्यक्ति की सभी आवश्यकताओं का भार सहन नहीं कर पाता है। अपनी बढ़ी हुई आवश्यकताओं को पूरा करने के उद्देश्य से व्यक्ति समाज की ओर अग्रसर होते हैं। इसे हीगल ने बुर्जुआ समाज या नागरिक समाज का नाम दिया है। समाज में पारस्परिक निर्भरता प्रतिस्पर्धा और स्वार्थ पर आधारित होती है। इसके कारण संघर्ष की स्थिति पैदा हो जाती है और पुलिस की शक्ति भी अस्तित्व में आ जाती है। इस संघर्ष की स्थिति पर नियन्त्रण करने तथा पारस्परिक प्रेम व सहयोग की भावना पैदा करने के लिए राज्य का जन्म होता है जो परिवार तथा नागरिक समाज दोनों का सम्मिलित रूप है। इस प्रकार हीगल ने परिवार को वाद, नागरिक समाज को प्रतिवाद मानकर संवाद रूप में राज्य की उत्पत्ति की बात स्वीकार की है। संवाद के रूप में राज्य परिवार और नागरिक समाज दोनों से उत्कृष्ट होता है। यह समाज में एकता व सामंजस्य की स्थापना करता है और उसे सामाजिक हितों के अनुकूल कार्य करने के लिए प्रेरित करता है।

राज्य और नागरिक समाज में अन्तर

हीगल ने परिवार और राज्य में अन्तर स्वीकार किया है। उसके अन्तर के प्रमुख आधार हैं :
  1. परिवार पारस्पारिक स्नेह और प्रेम भावना पर आधारित होता है, नागरिक समाज समझौते और स्वार्थ के बँधनों से बँधा हुआ एक समूह है।
  2. परिवार के सदस्यों में एकता की भावना होती है, नागरिक समाज के सदस्यों में घोर प्रतिस्पर्धा होती है।
  3. परिवार कृषि-प्रधान आर्थिक व्यवस्था पर आधारित होता है, नागरिक समाज उद्योग-प्रधान आर्थिक व्यवस्था पर आधारित होता है।
  4. परिवार एक आंगिक (Organic) व्यवस्था है, नागरिक समाज कृत्रिम और यान्त्रिक व्यवस्था है।
  5. परिवार में विवादों का निपटारा करने के लिए किसी कानून की आवश्यकता नहीं पड़ती, नागरिक समाज में झगड़ों का निपटारा करने के लिए कानून की व्यवस्था करनी पड़ती है।
  6. नागरिक समाज में किए गए कार्यों के बदले पारिश्रमिक मिलता है, परिवार में नहीं।
  7. परिवार में धैर्य व सहिष्णुता की भावना पाई जाती है, नागरिक समाज में इसका अभाव होता है।

हीगल के राज्य की विशेषताएँ

हीगल के राज्य सम्बन्धी उपर्युक्त विचारों का व्यापक अध्ययन करने के पश्चात् उसके राज्य की निम्नलिखित विशेषताएँ उभरकर आती हैं :
  1. राज्य दैवी संस्था है : हीगल ने राज्य को विश्वात्मा का साकार रूप माना है। उसके अनुसार राज्य ‘भगवान का पृथ्वी पर अवतरण’ है। अनन्त युगों से असीम रूपों में विकसित होने वाली विश्वात्मा - भगवान का चरम रूप होने के कारण यह स्वत:सिद्ध और स्पष्ट है। ईश्वर ने अपनी दैवी इच्छा को प्रकट करने के लिए राज्य को अपना साधन बनाया है। इसलिए यह पृथ्वी पर विद्यमान एक दैवीय विचार है।
  2. राज्य एक साध्य तथा एक समष्टि है : हीगल का राज्य अपना उद्देश्य स्वयं ही है। राज्य का अस्तित्व व्यक्तियों के लिए नहीं है। व्यक्ति का अस्तित्व राज्य के लिए है। राज्य से परे नैतिक विकास असम्भव है क्योंकि राज्य से परे विश्वात्मा का आध्यात्मिक विकास उसी प्रकार सम्भव नहीं है, जिस प्रकार मनुष्य से आगे भौतिक विकास सम्भव नहीं है। राज्य पृथ्वी पर विश्वात्मा का अन्तिम रूप के कारण अपने आप में एक साध्य है। अपने आप में साध्य होने के कारण राज्य एक समष्टि है। हीगल ने अपने ग्रन्थ 'Philosophy of History' में कहा है कि “मनुष्य का सारा मूल्य और महत्त्व उसकी समूची आध्यात्मिक सत्ता केवल राज्य में ही सम्भव है।” इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति राज्य का अंग होने के कारण ही नैतिक महत्त्व रखता है। राज्य के आदेशों का पालन करने में ही व्यक्ति की भलाई है। इस प्रकार हीगल ने कहा है कि व्यक्ति का अस्तित्व राज्य में ही है, बाहर नहीं। उसने कहा है- “राज्य अपने आप में ही निरपेक्ष और निश्चित साध्य है।”
  3. सर्वोच्च नैतिकता का प्रतिनिधि : राज्य सब प्रकार के नैतिक बन्धनों से मुक्त है। सर्वोच्च संस्था होने के नाते राज्य को नैतिकता का पाठ पढ़ाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। यह स्वयं ही नैतिकता के सिद्धान्तों का सृजन करता है। यह अपने नागरिकों के लिए काूनन का निर्माण करते समय उनके द्वारा पालन की जाने वाली नैतिकता के मानदण्डाकें का भी निर्धारण करता है। कोई भी व्यक्ति अन्तरात्मा या नैतिक कानून के आधार पर राज्य की आज्ञा का विरोध नहीं कर सकता। राज्य उन सभी परम्पराओं और प्रथाओं का सर्वोत्तम व्याख्याकार है जिनके आधार पर व्यक्ति की अन्तरात्मा उसे विवेकपूर्ण ढंग से कार्य करने के लिए प्रेरित करती है। राज्य ही यह बता सकता है कि उचित व अनुचित क्या है। इसलिए राज्य जो भी कार्य करता है, सही होता है। इसी आधार पर राज्य नैतिकता का सर्वोच्च मानदण्ड है।
  4. अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों में राष्ट्र राज्य की सर्वोच्चता :हीगल का राज्य अन्तरराष्ट्रीय नैतिकता व कानून से ऊपर है। हीगल का कहना है कि अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों में स्वार्थ-सिद्धि का उद्देश्य राज्य का प्रमुख उद्देश्य होता है। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए राज्य सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त है। वह आत्मरक्षा के लिए अन्य राज्यों के साथ कैसा व्यवहार कर सकता है। राज्य अपने हितों को पूरा करने के लिए सन्धियों व समझौतों का भी उल्लंघन कर सकता है। हीगल का कहना है कि राज्य अन्तरराष्ट्रीय कानून व सन्धियों का पालन उसी सीमा तक करते हैं जहाँ तक उनके हितों का पोषण होता है। अन्त में यही कहा जा सकता है कि हीगल का राज्य प्रभुसत्ता सम्पन्न है।
  5. व्यक्ति की स्वतन्त्रता में वृद्धि का साधन है : हीगल का कहना है कि राज्य मनुष्य की स्वतन्त्रता को विकसित करने और बढ़ाने का साधन है। व्यक्ति केवल राज्य में रहकर ही पूर्ण स्वतन्त्रता का उपभोग कर सकता है। व्यक्ति राज्य में ही अपने बाहरी अहम् को अपने आन्तरिक अहम् के स्तर तक उन्नत कर सकता है। हीगल का कहना है कि सच्ची स्वतन्त्रता राज्य के कानूनों का पालन करने में है। इसके द्वारा व्यक्ति समाज के हितों के साथ सामंजस्य स्थापित करके अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सकता है। हीगल का कहना है कि राज्य व्यक्ति की वास्तविक स्वतन्त्रता को प्राप्त करने का प्रमुख साधन है। व्यक्ति की सच्ची स्वतन्त्रता राज्य के आदेशों का पालन करने में है, विरोध करने में नहीं।
  6. राज्य और व्यक्ति में विरोध्े नहीं : हीगल के अनुसार राज्य और व्यक्ति के हित एक हैं। राज्य व्यक्ति की सच्ची, निष्पक्ष एवं नि:स्वार्थ इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए राज्य और व्यक्ति के हितों में विरोध नहीं है।
  7. राज्य पूर्ण विवेक की अभिव्यक्ति है : हीगल के अनुसार राज्य आत्म-चेतना की शाश्वत व आवश्यक सत्ता है। राज्य वर्तमान चेतना के रूप में एक दैवी इच्छा है जो संगठित संसार के रूप में अपना उद्घाटन करती है। राज्य रक्त सम्बन्ध या भौतिक स्वार्थ पर आधारित संस्था न होकर विवेक पर आधारित एक संस्था है।
  8. पैतृक एवं संवैधानिक राजतन्त्र का समर्थन : हीगल के अनुसार राज्य की सम्प्रभुता राजा में निहित है, जनता में नहीं। लेकिन सम्प्रभु कानून के दायरे में काम करने वाला होना चाहिए। इसके लिए प्रत्येक राज्य का अपना संविधान होना चाहिए। हीगल का मानना है कि राजा समुदाय की इच्छा का सामूहिक प्रतिनिधि होता है। यह राज्य की एकता का प्रतीक होता है। उसे विधायिका और कार्यपालिका के विषयों में निर्णय देने का अधिकार होता है। राजा ही संविधान और राज्य के व्यक्तित्व को साकार रूप प्रदान करता है। हीगल ने कहा है कि राजा को कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं हो सकता। उसकी जो भी स्थिति है, वह वैधानिक स्थिति के कारण ही हो सकती है। इस प्रकार हीगल ने वैधानिक राजतन्त्र का समर्थन करके राजा की निरंकुशता को अस्वीकार किया है। वह केवल संवैधानिक राजतन्त्र का ही समर्थन करता है।
  9. युद्ध का पक्षधर : हीगल का मानना है कि युद्ध मानव के सर्वोत्तम गुणों को प्रकट करते हैं। इनके व्यक्तियों में एकता की भावना पैदा होती है और उनका नैतिक विकास होता है। युद्ध विश्व इतिहास का निर्माण करते हैं। ये गृह-युद्ध को रोकते हैं और आन्तरिक शक्ति में वृद्धि करते हैं। इससे नागरिकों में देश-प्रेम की भावना का संचार होता है। हीगल का मानना है कि स्थायी शांति का विचार जनता को पथभ्रष्ट करता है। हीगल का यह भी मानना है कि आत्मा अपने उद्देश्य की पूर्ति राष्ट्रों में युद्ध के द्वारा ही करती है। इसलिए उसने कहा है कि- “विश्व-इतिहास, विश्व का न्यायालय है।” युद्ध में ही विश्वात्मा का सच्चा रूप प्रकट होता है।
  10. राज्य परम्पराओं व प्रथाओं का अन्तिम व्याख्याकार है।
  11. राज्य का आदेश व कार्य कभी गलत नहीं होता।
  12. राज्य का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व होता है।
इस प्रकार कहा जा सकता है। कि हीगल ने यूनानी दार्शनिकों की तरह राजय को सर्वश्रेष्ठ संस्था माना है, जिसका अपना व्यक्तित्व है। हीगल का राज्य साध्य है, साधन नहीं। सभी व्यक्ति राज्य रूपी समष्टि के अंग हैं। उनका अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। उनके अधिकार व स्वतन्त्रताएँ राज्य में ही निहित हैं। राज्य विश्वात्मा की सर्वोत्तम इच्छा का प्रकटीकरण होने के कारण सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक निकाय है। इसलिए हीगल ने राज्य को पृथ्वी पर ईश्वर का अवतरण कहकर नास्तिकवाद पर करारा प्रहार किया है। वह निरंकुश शासकों के लिए एक नए मार्ग को प्रशस्त करता है।

आलोचनाएँ

यद्यपि हीगल ने राज्य के सम्बन्ध में अपने कुछ महत्त्वपूर्ण विचार प्रस् किए हैं, लेकिन फिर भी उसके राज्य सम्बन्धी विचारों की आलोचना हुई है। उसकी आलोचना के प्रमुख आधार हैं :-
  1. आलोचकों का मानना है कि राज्य की उत्पत्ति परिवार और नागरिक समाज के मध्य संघर्ष से होना उचित नहीं है। परिवार और नागरिक समाज में संघर्ष या तनाव जैसी कोई स्थिति नहीं होती। प्लामेनाज ने हीगल के इस सिद्धान्त को गलत ठहराया है। उसका कहना है कि परिवार और नागरिक समाज में ऐसा कोई संघर्ष नहीं होता जिसके निराकरण के लिए राज्य की आवश्यकता पड़े।
  2. हीगल की सम्भ्प्रभुता की धारणा अस्पष्ट है। हीगल इस बात को स्पष्ट नहीं करता कि सम्प्रभु के क्या अधिकार हैं ? एक तथ्य तो यह कहता है कि राजा का कार्य नीति निर्धारण करना है, परन्तु दूसरी तरफ वह यह भी कहता है कि राजा किसी कानून पर केवल अपनी सहमति ही प्रकट करता है, कानून का निर्माण नहीं करता। अत: यह धारणा अस्पष्ट है।
  3. हीगल का राज्य को व्यक्तित्व प्रदान करने का सिद्धान्त गलत है। मैकाइवर ने कहा है कि- “जिस तरह एक वृक्षों का समूह एक वृक्ष नहीं माना जा सकता, उसी प्रकार व्यक्तियों के समूह को एक व्यक्ति नहीं माना जा सकता।”
  4. हीगल का राज्य का सिद्धान्त अराजकता को बढ़ावा देने वाला है। उसने राज्य को सभी नैतिक बन्धनों से मुक्त कर दिया है। उसने राज्य को अन्तर्राष्ट्रीय कानून व सन्धियों का उल्लंघन करने का अधिकार देकर विश्व शान्ति के लिए खतरा पैदा कर दिया है।
  5. स्वतन्त्रता को कानून के साथ मिलाना न्यायसंगत नहीं है।
  6. यह अन्तरराष्ट्रीयवाद का विरोधी है। यह केवल राष्ट्र-राज्य की धारणा का ही पोषक है।
  7. हीगल सर्वसत्ताधिकारवादी राज्य का समर्थन करता है। उसने जन-सम्प्रभुसत्ता को अस्वीकार करके जनमत की उपेक्षा की है। उसने जातीयता, राष्ट्रवाद, शक्ति और युद्ध का समर्थन करके राज्य की वेदी पर व्यक्ति का बलिदान कर दिया है।
इस प्रकार हीगल के राज्य सम्बन्धी विचारों की अनेक आलोचनाएँ हुई हैं, लेकिन उसके सिद्धान्त का महत्त्व कम नहीं आंका जाना चाहिए। उसका प्रगति का विचार एक महत्त्वपूर्ण विचार है। उसने राज्य को व्यक्ति के विकास का महत्त्वपूर्ण उपकरण मान लिया है। उसने राजनीति और नैतिकता में मधुर सम्बन्ध स्थापित किया है। उसने संविधानवाद का समर्थन किया है। उसका यह सिद्धान्त शासन की निरंकुशता का पूरा विरोध करता है। इसलिए उसने संवैधानिक राजतन्त्र का ही समर्थन किया है। अन्त में यही कहा जा सकता है कि उसके राज्य सम्बन्धी विचार राजनीतिक चिन्तन को एक महत्त्वपूर्ण व अमूल्य देन हैं।

सम्प्रभुता और शासन पर विचार

अपनी शासन पद्धति में हीगल ने राजा को विशेष स्थान प्रदान किया है। उसके अनुसार राज्य की व्यवस्थापिका और कार्यपालिका शक्तियाँ राजा के माध्यम से ही सामंजस्यपूर्ण तरीके से एक हो जाती हैं। राजा ही राज्य की एकता और सर्वोच्च सत्ता का प्रतीक होता है। इसलिए राज्य की सम्प्रभुता जनता में न होकर राजा में होती है। वही राज्य की इच्छा का निर्धारण करता है। हीगल के अनुसार राज्य की आन्तरिक सम्प्रभुता का सार समग्र की प्रधानता में और विभिन्न सत्ताओं की राज्य की एकता पर निर्भरता और अधीनता में ही निहित है। उसका कहना है कि राजा के अभाव में एकता की स्थापना करना असम्भव है। राजा राज्य की एकता का मूर्तिमान रूप होता है। लेकिन राजा को भी संविधान के नियमों का पालन करना पड़ता है। इसलिए हीगल का शासक निरंकुश न होकर संविधान द्वारा मर्यादित है। हीगल का विश्वास है कि- “सम्प्रभुता वैधानिक व्यक्तित्व में ही निवास करती है, न कि जनता या नागरिकों के समूह में। इस वैधानिक व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति एक व्यक्ति के रूप में होनी चाहिए और वह व्यक्ति राजा ही हो सकता है।” इससे स्पष्ट होता है कि हीगल वैधानिक राजा को ही सम्प्रभु मानता है।

हीगल ने शासन व्यवस्था पर विचार करते हुए राज्य के लिए संविधान का होना अति आवश्यक मानकर उसके अन्तर्गत तीन सत्ताओं - विधायिका, कार्यपालिका और राजा का वर्णन किया है। इन तीनों सत्ताओं के पृथक्करण के आधार पर ही हीगल ने संवैधानिक राजा की सम्प्रभुता का औचित्य सिद्ध किया है। उसके अनुसार विधायिका का कार्य सार्वजनिक इच्छा का निर्धारण करना है। कार्यपालिका का कार्य सार्वजनिक इच्छा के अनुकूल विशेष समस्याओं का समाधान करना है और सम्राट में अन्तिम रूप से निर्णय लेने की शक्ति होती है। उसके अनुसार विधायिका के दो सदन होते हैं। उच्च सदन (अभिजात सदन) निम्न सदन। अभिजात सदन की सदस्यता वंशानुगत और ज्येष्ठता के सिद्धान्त पर आधारित होती है। प्रतिनिधि या निम्न सदन नागरिक समाज के शेष नागरिकों से बनता है जो प्रतिनिधि निगमों, गिल्डो, समुदायों आदि द्वारा अपने लिए निर्धारित संख्या के हिसाब से चुने जाते हैं। इस तरह उच्च सदन जमींदारों का तथा निम्न सदन कृषक वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। हीगल के अनुसार विधायिका का प्रमुख कार्य केवल मंत्रियों को सलाह देना और सामान्य नियमों का निर्माण करना है, कानून का निर्माण करना नहीं। उसका विश्वास है कि इसके पास कानून की रचना करने की योग्यता नहीं होती।

कार्यपालक सत्ता को हीगल ने विशेष क्षेत्रें और अलग-अलग मामलों को एक सामान्य सूत्र में बाँधने वाली शक्ति माना है। इसके अन्तर्गत उच्च प्रशासनिक पदाधिकारी, अधीनस्थ अधिकारी और न्यायिक पदाधिकारी आते हैं। इसका कार्य नीति-निर्माण करना न होकर नीति को लागू करना होता है। नीति-निर्माण करना तो राजा का कार्य है। हीगल के अनुसार कार्यपालिका का कार्य सम्राट के निर्णयों को क्रियान्वित करना, प्रचलित कानूनों पर अमल करवाना और विद्यमान संस्थाओं को बनाए रखना है। कार्यपालक सत्ता राजकर्मचारियों का ऐसा समुदाय होती है जो राज्य का मुख्य अवलम्ब होती है। इसके महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए हीगल ने कहा है- “राज्य के संगठन और आवश्यकताओं को समझने के लिए उच्चतम सरकारी कर्मचारियों में अधिक गम्भीर और व्यापक दृष्टि होती है।” यह कर्मचारी वर्ग (कार्यपालिका) विधानपालिका की सहायता के बिना भी सर्वोत्तम शासन कर सकता है। इसी आधार पर हीगल ने इसे शासन का सर्वश्रेष्ठ अंग माना है। उसके कार्य में विधानपालिका महत्त्वपूर्ण योगदान देती है। यदि कार्यपालिका की दृष्टि से समाज की कोई इच्छा चूक जाती है तो विधानपालिका उसे कार्यपालिका के सामने लाती है। यह शासन प्रबन्ध की आलोचना से भी कार्यपालिका को अवगत कराती है। इस तरह कार्यपालिका को महत्त्वपूर्ण संस्था बनाने में विधानपालिका का ही हाथ होता है।

शासन की तीसरी सत्ता राजा होता है। शासन का कार्य सामान्य रूप से तो विधानपालिका तथा कार्यपालिका ही करती है, लेकिन संकट के विभिन्न अवसरों पर राजा ही महत्त्वपूर्ण निर्णय करता है। राजा ही कार्यपालिका और विधानपालिकाओं में तालमेल स्थापित करता है। राजा को संविधान की मर्यादाओं का पालन करना पड़ता है। इसलिए वह निरंकुश न होकर जनभावनाओं के अनुरूप ही कार्य करता है। राजा शक्ति का प्रतीक है, प्रयोगकर्ता नहीं। मंत्रिमण्डल उसके प्रति उत्तरदायी तो है, लेकिन राजा को कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं है। सेबाइन का कहना है- “हीगल का राजा कोई विशेष शक्ति प्राप्त व्यक्ति नहीं है। उसे राज्य के अध्यक्ष की अपनी शक्ति वैधानिक स्थिति के कारण ही प्राप्त है।” हीगल ने वंशानुगत राजतन्त्र का ही समर्थन किया है क्योंकि वह उसे प्राकृतिक मानता है। इस तरह राजा शासन की महत्त्वपूर्ण शक्ति का परिचायक है।

शासन के प्रकार

हीगल ने शासन के तीन प्रकार माने हैं :-
  1. निरंकुश शासन (Despotism)
  2. लोकतन्त्र तथा कुलीनतन्त्र (Democracy and Aristocracy)
  3. राजतन्त्र (Monarchy)
हीगल ने अपने द्वन्द्ववादी विकास के सिद्धान्त के आधार पर भारत चीन, मिò आदि देशों की शासन व्यवस्थाओं को निरंकुश कहा है। यूनानी नगर राज्यों को उसने लोकतन्त्र तथा कुलीनतन्त्र के अन्तर्गत रखा है। उसने जर्मनी की शासन व्यवस्था (राजतन्त्र) को तीसरी अवस्था मानकर इसे सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली कहा है। उसने निरंकुशतन्त्र को वाद, लोकतन्त्र और कुलीनतन्त्र को उसका प्रतिवाद मानकर ऐतिहासिक विकास-क्रम में वैधानिक राजतन्त्र को शासन की सर्वश्रेष्ठ प्रणाली कहा है क्योंकि इसमें विश्वात्मा के चरम लक्ष्य के दर्शन होते हैं। इस प्रकार हीगल ने शासन प्रणालियों के वर्गीकरण को द्वन्द्ववादी आधार प्रदान करके संवैधानिक राजतन्त्र को शासन का उत्कृष्ट रूप कहा है।

इस प्रकार हीगल के सम्प्रभुता तथा शासन सम्बन्धी विचारों के निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि हीगल सर्वसाधारण की शासन करने की क्षमता में विश्वास नहीं करता। वह इसी आधार पर वयस्क मताधिकार का विरोध करता है। वह विधानमण्डल में बहसों की गोपनीयता, प्रेस की स्वतन्त्रता और सूचना स्वतन्त्रता का समर्थन करके संविधानवाद में अपना विश्वास व्यक्त करता है। वह राजा को विधामण्डल तथा कार्यपालिका के मध्य समन्वय स्थापित करने वाली कड़ी मानता है। वह निरंकुश राजतन्त्र के स्थान पर संवैधानिक राजतन्त्र का सिद्धान्त प्रतिष्ठित करता है।

इतिहास का सिद्धान्त

हीगल ने इतिहास की दार्शनिक व्याख्या करते हुए उसे बिखरी हुई असम्बद्ध घटनाओं का विकास न मानकर उसे सप्राण विकास माना है। उसका मानना है कि इतिहास की सभी महत्त्वपूर्ण घटनाएँ या कारण निर्वैयक्तिक होते हैं और सामान्य शक्तियों के रूप में होते हैं। ये सामान्य शक्तियाँ विश्वात्मा के उद्देश्यों के अनुकूल ही कार्य करती हैं। उसके अनुसार विश्व इतिहास के विकास की सम्पूर्ण गति पूर्व निश्चित है। उसका मानना है कि विश्वात्मा (पूर्ण विचार, धीमी िवाकसशील प्रक्रिया से आगे बढ़ती है। विश्वात्मा की विकासशील प्रक्रिया में संयोग या आकस्मिक घटनाओं का कोई स्थान नहीं होता। सम्पूर्ण ऐतिहासिक विकास एक युक्तिपूर्ण योजना के अनुसार ही होता है। जब विश्वात्मा अपने पूर्व निश्चित ध्येय को प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ती है तो उसे अनेक अन्तर्विरोधों का सामना करना पड़ता है। इसलिए विश्वात्मा (पूर्ण विचार) को अनेक रूप धारण करने पड़ते हैं। वह अपने मूल रूप को त्यागकर प्रतिदिन नए रूप ग्रहण करती रहती है। उसका प्रत्येक रूप ऐतिहासिक विकास की एक यात्रा के समान होता है। उसे अपने अन्तिम रूप तक पहुँचने के लिए अनेक यात्राएँ करनी पड़ती हैं।

विश्वात्मा के विकास की प्रथम अवस्था भौतिक अथवा निर्जीव संसार है। हम इसे अपने ज्ञानेन्द्रिय ज्ञान से ही जान सकते है।। इसके बाद सजीव संसार का स्थान है। यह अवस्था अधिक जटिल होती है। तीसरी अवस्था पृथ्वी पर मनुष्य का विकास है। यह प्रथम व द्वितीय अवस्थाओं से अधिक जटिल है क्योंकि इसमें युक्ति तत्त्व का समावेश हो जाता है। अगली अवस्था में परिवार का विकास होता है। इसके बाद नागरिक समाज की अवस्था है। विकास की अन्तिम अवस्था राज्य के विकास की है। इस मंजिल पर पहुँचकर ही विश्वात्मा या पूर्ण विचार का आत्म-साक्षात्मकार होता है। इस तरह पूर्ण ऐतिहासिक विकास का आरम्भ और अन्त राज्य में ही होता है। आत्म-साक्षात्कार की इस अवस्था में ही विश्वात्मा अपने चरम लक्ष्य तक पहुँच जाती है। हीगल ने अपनी पुस्तक 'Philosophy of History' में विश्वात्मा के विकास की स्थितियों पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि प्रथम स्थिति पूर्वी देशों - चीन, भारत, ईरान, मिò आदि देशों की है। इन देशों में विश्वात्मा शैशवरूप में थी। उसका कहना है कि चीन में समूचा मानव जीवन एक ही व्यक्ति द्वारा नियन्त्रित होता था और वहाँ स्वतन्त्रता का अभाव था। इसके बाद विश्वात्मा भारत की ओर उन्मुख होकर आगे बढ़ी। इसके बाद विश्वात्मा ने यूनान और रोम में प्रवेश किया। यूनान की कला, धर्म, दर्शन तथा रोम के कानून में इसकी अभिव्यक्ति हुई। इस अवस्था में जनता ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए राजाओं से संघर्ष किया परन्तु उन्हें पूर्ण सफलता नहीं मिल सकी। हीगल का विश्वास है कि विश्वात्मा के रूप में मानव जाति का पूर्ण विकास जर्मनी में होगा। यह विश्वात्मा के विकास की चरम अवस्था होगी। जर्मनी का राष्ट्र-राज्य के रूप में विकास सार्वदेशिक विश्वात्मा का प्रतिनिधित्व करेगा।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि हीगल का इतिहास का सिद्धान्त उसके विश्वात्मा के दार्शनिक सिद्धान्त पर आधारित है। उसका इतिहास का सिद्धान्त विश्वात्मा के कार्यकलापों के आलेख के सिवाय कुछ नहीं है जो संसार के भिन्न-भिन्न राष्ट्रों या जातियों से होकर राष्ट्र-राज्य के रूप में प्रकट होती है। उसका राष्ट्र-राज्य ही कला, कानून, नैतिकता तथा धर्म का सच्चा स्रष्टा है। मानव सभ्यता का इतिहास राष्ट्रीय संस्कृतियों का एक अनुक्रम है जिसमें प्रत्येक राष्ट्र सम्पूर्ण मानव उपलब्धियों के लिए अपना विशेष योगदान देता है।

स्वतन्त्रता का सिद्धान्त

हीगल का स्वतन्त्रता सम्बन्धी सिद्धान्त राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में उसका एक महत्त्वपूर्ण योगदान है। हीगल से पहले भी अनेक विचारकों ने स्वतन्त्रता पर अपने विचार प्रकट किए। लेकिन उन सभी का दृष्टिकोण आत्मपरक (व्यक्तिवादी) ही रहा। हीगल ने इसे व्यापक आधार प्रदान किया है। हीगल के अनुसार- “स्वतन्त्रता व्यक्ति का एक विशेष गुण है। इसको छोड़नेका अर्थ है मानवता का परित्याग करना। अत: स्वतन्त्र न होना मनुष्य द्वारा अपने मानवीय अधिकारों और कर्त्तव्यों का परित्याग करना है।” उसने फ्रेंच क्रान्ति द्वारा प्रतिपादित किए गए स्वतन्त्रता सम्बन्धी मिथ्या व भ्रान्त धारणाओं का खण्डन किया है। स्वतन्त्रता के व्यक्तिवादी विचारकों के अनुसार स्वतन्त्रता घूमने-फिरने, विचार प्रकट करने तथा अपने धर्म का पालन करने, इच्छानुसार जीवन व्यतीत करते में है। लेकिन हीगल ने स्वतन्त्रता अपनी इच्छानुसार कार्य में न होकर राज्य की इच्छानुसार पालन करने में बताई है। हीगल का विचार है कि निरंकुश होकर व्यक्ति की स्वतन्त्रता को तो कुचल सकता है लेकिन व्यक्ति राज्य की इच्छा को कुचल नहीं सकता। इसलिए सच्ची स्वतन्त्रता राज्य के आदेशों का आँख बन्द करके पालन करने में है।

स्वतन्त्रता का विकास

हीगल का मानना है कि विश्वात्मा के क्रमिक विकास की तरह स्वतन्त्रता का भी विकास हुआ है। विश्वात्मा के प्राच्य युग में केवल निरंकुश व्यक्ति ही स्वतन्त्र था। यूनान और रोम में कुछ ही व्यक्ति स्वतन्त्र थे क्योंकि वहाँ दास-प्रथा थी। हीगल के अनुसार नवोदित राष्ट्र जर्मनी में मानव-स्वतन्त्रता का उदय हुआ है जहाँ सभी व्यक्ति व्यक्ति होने के नाते स्वतन्त्र हैं। लेकिन जर्मनी में भी पूर्ण स्वतन्त्रता नहीं है, क्योंकि वहाँ विश्वात्मा का पूर्ण विकास नहीं हुआ है। जब जर्मन राष्ट्र राज्य के रूप में विश्व मानचित्र पर उभरेगा तो वह पूर्ण स्वतन्त्रता की स्थिति होगी। मानव का अन्तिम लक्ष्य सुख की प्राप्ति न होकर स्वतन्त्रता की प्राप्ति करना है। हीगल का कहना है कि- “विश्व का इतिहास स्वतन्त्रता की चेतना की प्रगति के सिवाय और कुछ नहीं है।” आज तक विश्व में जितने भी युद्ध हुए हैं, उनके पीछे स्वतन्त्रता का विचार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में अवश्य छिपा हुआ है।

दार्शनिक आधार

हीगल ने अपने स्वतन्त्रता सम्बन्धी विचारों को दार्शनिक आधार पर औचित्यपूर्ण माना है। उसके अनुसार स्वतन्त्रता आत्मा का सार है। उसका मानना है कि स्वतन्त्रता का अर्थ अपने आप में पूर्ण होना, दूसरे पर किसी प्रकार से निर्भर न रहना है। यह विशेषता आत्मा में है, जड़ पदार्थों में नहीं। जड़ पदार्थों में आत्मनिष्ठा का गुण नहीं पाया जाता है। संसार की सभी जड़ वस्तुएँ गुरुत्वाकर्षण के नियम के अनुसार शासित होती हैं। उनकी प्रवृत्ति सदा अपने स्वरूप से बाहर अवस्थित गुरुत्वाकर्षण केन्द्र की ओर जाने की होती है। अत: वे स्वतन्त्र नहीं हो सकती। दूसरी तरफ आत्मा अपने स्वरूप से बाहर नहीं जाती। इसलिए आत्मा का विकास स्वतन्त्रता का विकास है और मानव जाति के विकास का इतिहास स्वतन्त्रता के विकास का सूचक है। मानव इतिहास का उच्चतम विकास राज्य के रूप में होता है। इसमें विश्वात्मा अपना अन्तिम साकार रूप ग्रहण करती है। अत: ऐसा राज्य ही पूर्ण स्वतन्त्र राज्य है। विश्वात्मा के चरम रूप के कारण राज्य व्यक्तियों की स्वार्थमयी व संकीर्ण भावनाओं से ऊपर उठा हुआ होता है। हीगल का कहना है कि स्वतन्त्रता का अभिप्राय वैयक्तिक इच्छा के अनुसार कार्य करना न होकर राज्य की इच्छा के अनुसार कार्य करना है। इससे व्यक्ति अपनी वासनाओं और इच्छाओं की दासता से मुक्ति पाता है और सच्ची स्वतन्त्रता का उपभोग करता है।

कानून और स्वतन्त्रता में विरोध नहीं है

हीगल का मानना है कि कानून स्वतन्त्रता का ही मूर्त रूप है। राज्य का कोई भी कानून व्यक्ति अपनी ही इच्छा का परिणाम है क्योंकि व्यक्ति भी विश्वात्मा का साकार रूप है, यद्यपि उसमें उतनी पूर्णता नहीं है, जितनी राज्य में पाई जाती है। फिर भी वह राज्य का अभिन्न अंग है। लेकिन वह स्वार्थमयी प्रवृत्ति के कारण सामाजिक हित के विपरीत कार्य कर सकता है। उस समय उसका कार्य विश्वात्मा के प्रतिकूल होता है, इसलिए उस पर कानून का अंकुश लगाना आवश्यक होता है। कानून उसकी भलाई ही करता है। वह उसे सच्ची स्वतन्त्रता की ओर उन्मुख करता है। यदि वह कानून का पालन दण्ड के भय से करता है तो उसे स्वतन्त्र नहीं कहा जा सकता। यदि वह अपनी इच्छा से कानून का पालन करता है तो वह विश्वात्मा की इच्छा के अनुसार कार्य करके सच्ची स्वतन्त्रता को प्राप्त कर रहा होता है। अत: कानून और स्वतन्त्रता में विरोध नहीं हो सकता। उसके अनुसार तो कानून का पालन करना ही स्वतन्त्रता है।

हीगल और काण्ट की स्वतन्त्रता सम्बन्धी धारणाओं में अन्तर

काण्ट के अनुसार स्वतन्त्रता ‘बन्धनों का अभाव’ है। काण्ट स्वतन्त्रता का नकारात्मक तथा आत्मपरक दृष्टिकोण प्रस् करता है। उसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को सदैव अपने व्यक्तित्व की रक्षा करनी चाहिए और राज्य पर अधिक निर्भर नहीं रहना चाहिए। उसके अनुसार स्वतन्त्रता अन्त:करण के अनुसार आचरण करने में है। हीगल के अनुसार स्वतन्त्रता एक सामाजिक व्यापार है। व्यक्ति की स्वतन्त्रता इस व्यापार को बढ़ावा देने में है, व्यक्तिगत स्वार्थों को पूरा करने में नहीं। उसने काण्ट की स्वतन्त्रता सम्बन्धी को नकारात्मक तथा आत्मपरक कहा है। इसलिए उसने काण्ट की स्वतन्त्रता की आलोचना करते हुए कहा है कि व्यक्ति की स्वतन्त्रता समाज के कानूनों और परम्पराओं को मानने तथा उसके नैतिक जीवन में भाग लेने में है, अन्त:करण के अनुसार आचरण करने में नहीं। उसके अनुसार स्वतन्त्रता इच्छा और कामनाओं की स्वच्छन्द प्राप्ति का नाम नहीं है, यह तो सामाजिक हित में स्व-निर्णय की शक्ति है।

इस प्रकार हीगल ने स्वतन्त्रता को नकारात्मक न मानकर सकारात्मक माना है। उसके अनुसार स्वतन्त्रता बन्धनों का अभाव नहीं है। यह तो राज्य के आदेशों का पालन करने में है। उसने स्वतन्त्रता को आत्मगत (Subjective) न मानकर वस्तुगत (Objective) माना है। हीगल का कहना है कि व्यक्ति को स्वतन्त्रता का अर्थ सामाजिक व्यापार के रूप में समझना चाहिए। उसे अपने सुख के साथ-साथ दूसरों के सुखों पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। यदि उसका कोई कार्य सामाजिक हित के विपरीत हो तो उसे स्वतन्त्रता नहीं कहा जा सकता। उसने काण्ट के व्यक्तिवादी विचार के स्थान पर सामाजिक व्यापार शब्द का प्रयोग किया है। उसने काण्ट के सीमित स्वतन्त्रता के विचार की आलोचना की है। उसका विचार काण्ट की तुलना में कम व्यक्तिवादी है। उसके अनुसार व्यक्ति की निजी स्वतन्त्रता का कोई महत्त्व नहीं है। उसने व्यक्ति की इच्छा को राज्य की इच्छा में विलीन कर दिया है। उसके अनुसार व्यक्ति अपने जीवन का पूर्ण विकास राज्य की इच्छा में ही अपनी इच्छा को विलीन करके ही कर सकता है। इस तरह हीगल ने काण्ट की नकारात्मक, सीमित तथा आत्मगत स्वतन्त्रता के स्थान पर सकारात्मक, असीमित और वस्तुनिष्ठ स्वतन्त्रता का समर्थन किया है।

हीगल की स्वतन्त्रता सम्बन्धी धारणा की विशेषताएँ

  1. हीगल के अनुसार सच्ची स्वतन्त्रता अन्त:करण के अनुसार कार्य करने में न होकर विशुद्ध विवेक द्वारा प्रेरित होकर कार्यकरने में निहित है।
  2. स्वतन्त्रता स्वार्थ में नहीं, परमार्थ में निहित है। व्यक्ति को समाज हित की दृष्टि से स्वतन्त्रता का उपभोग करना चाहिए।
  3. हीगल की स्वतन्त्रता सम्बन्धी धारणा में अधिकारों की अपेक्षा कर्त्तव्यों पर अधिक जोर दिया गया है। हीगल का कहना है कि- “व्यक्ति की मुक्ति कर्त्तव्यपालन में है।”
  4. स्वतन्त्रता एक सामाजिक व्यापार है क्योंकि समाज से अलग व्यक्ति स्वतन्त्रता की कल्पना नहीं कर सकता। उसके अनुसार स्वतन्त्रता सामाजिक प्रथा, परम्परा और नैतिकता के अनुरूप ढालने में है, अपनी व्यक्तिगत इच्छा को स्वतन्त्र आधार प्रदान करने में नहीं। हीगल का कहना है कि “स्वतन्त्रता के किसी दावे का नैतिक समर्थन उस समय तक नहीं किया जा सकता, जब तक वह सामाजिक हित और सामान्य इच्छा द्वारा समर्थित न हो।”
  5. हीगल के अनुसार स्वतन्त्र राज्य की अधीनता को स्वेच्छा से स्वीकार करने में है क्योंकि राज्य विश्वात्मा का साकार रूप है। राज्य विश्वात्मा के चरम विकास की अवस्था है। जो नागरिक राज्य की आज्ञा का पालन करता है, वही पूर्ण स्वतन्त्रता का उपभोग करता है। राज्य विवेक का वास्तविक रूप होता है। अत: उसके अनुसार आचरण करने में स्वतन्त्रता निहित है क्योंकि विवेक सदैव दोषमुक्त होता है।
  6. सच्ची स्वतन्त्रता राज्य के कानूनों का पालन करने में है, उनके विरोध में नहीं, कानून व्यक्ति की इच्छा का ही परिणाम होते हैं। हीगल ने कहा है- “जब व्यक्ति की आत्मनिष्ठ इच्छा कानूनों के समक्ष आत्मसमर्पण करती है तो स्वतन्त्रता और आवश्यकता का अन्तर्विरोध मिट जाता है।”
हीगल के स्वतन्त्रता सम्बन्धी उपर्युक्त विचारों के आधार पर कहा जा सकता है कि हीगल ने स्वतन्त्रता को नकारात्मक व आत्मगत तत्त्वों की परिधि से निकालकर सकारात्मक तथा वस्तुनिष्ठ आधार पर प्रतिष्ठित किया है।

आलोचनाएँ

एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त होने के बावजूद भी हीगल के स्वतन्त्रता सम्बन्धी सिद्धान्त को आलोचना का पात्र बनना पड़ा है। उसकी आलोचना के प्रमुख आधारहैं :-
  1. हीगल ने राज्य को असीमित और अमर्यादित शक्तियाँ प्रदान करके व्यक्ति का महत्त्व क्षीण कर दिया है। उसने व्यक्ति को राज्य का दास बना दिया है। उसने व्यक्ति की इच्छा को राज्य की इच्छा के साथ मिला दिया है।
  2. हीगल ने अधिकारों की अपेक्षा कर्त्तव्यों पर अधिक जोर दिया है। राज्य की वेदी पर व्यक्ति के अधिकारों का बलिदान करने का मतलब व्यक्ति के व्यक्तित्व को कुचलना है। उसने व्यक्ति को राज्य रूपी दैत्य के मुँह में धकेल दिया है। आधुनिक राष्ट्र राज्यों में कर्त्तव्यों के साथ-साथ अधिकारों को भी बराबर का महत्त्व दिया जाता है क्योंकि अधिकार और कर्त्तव्य एक सिक्के के दो पहलू होते हैं।
  3. हीगल की स्वतन्त्रता की धारणा प्रजातन्त्रीय विचारों के विपरीत है। उसने राज्य की अधीनता को ही स्वतन्त्रता का नाम दिया है जबकि आधुनिक प्रजातन्त्रीय राज्यों की दृष्टि में व्यक्ति के व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास स्वतन्त्र सामाजिक वातावरण में ही सम्भव है। हीगल व्यक्ति के ऊपर इतने बन्धन लगा देता है कि उससे प्रजातन्त्रीय सिद्धान्तों का उल्लंघन होने लगता है।कानून और स्वतन्त्रता एक साथ नहीं चल सकते। कानून व्यक्ति पर कुछ बन्धन लगाता है जबकि स्वतन्त्रता बन्धनों से मुक्ति का ही नाम है। अत: दोनों एक-दूसरे से अलग हैं।
  4. हीगल ने यह भी नहीं बताया कि व्यक्ति की समस्त इच्छाओं का केन्द्र राज्य कैसे बन सकता है। उसका यह विचार बड़ा अस्पष्ट व भ्रमपूर्ण है।
  5. हीगल ने नागरिक और राजनीतिक स्वतन्त्रता की उपेक्षा की है। उसने अपने दर्शन में कहीं भी इसका जिक्र नहीं किया है। इस दृष्टि से उसकी स्वतन्त्रता की धारणा अधूरी है। सेबाइन ने कहा है कि- “हीगल के स्वतन्त्रता-सिद्धान्त में कहीं भी किसी प्रकार की नागरिक अथवा राजनीतिक स्वतन्त्रता का भाव नहीं है।”
  6. हीगल ने व्यक्ति को साधन तथा राज्य को साध्य मानने की भारी भूल की है। हीगल ने व्यक्ति को साधन तथा राज्य को साध्य मानने की भारी भूल की है। हीगल की इस धारणा के अनुसार व्यक्ति का कोई महत्त्व नहीं है। जबकि इस चेतन व अचेतन जगत् में मानव-बुद्धि की कोई बराबरी नहीं कर सकता।
  7. हीगल की इस धारणा में फासीवाद व नाजीवाद के बीज मिलते हैं। हीगल ने फासीवादी व नाजीवादियों की तरह जातीय श्रेष्ठता व कर्त्तव्यों पर बल दिया है।
उपर्युक्त आलोचनाओं के बावजूद इस बात को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि हीगल ने स्वतन्त्रता को सामाजिक तथ्य मानकर उसमें सार्वजनिक कल्याण की भावना पर आधारित किया है। उसने काण्ट की नकारात्मक व आत्मपरक धारणा के स्थान पर सकारात्मक तथा वस्तुनिष्ठता का गुण पैदा किया है। इससे स्वतन्त्रता की धारणा को नई दिशा मिली है। यह सिद्धान्त व्यक्तिगत इच्छा के स्थान पर सामाजिक हित को प्राथमिकता देता है। इससे समाज में परमार्थ की भावना का उदय होता है, अन्त में कहा जा सकता है कि अपने अनेक दोषों के बावजूद भी यह भी हीगल की सम्पूर्ण राजनीतिक चिन्तन को एक महत्त्वपूर्ण एवं अमूल्य देन है। स्वतन्त्रता-सिद्धान्त को नई दिशा देने में हीगल द्वारा किए गए प्रयास शाश्वत महत्त्व के हैं।

हीगल का योगदान

हीगल का राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसे विश्व का महानतम दार्शनिक माना जाता है। सेबाइन ने हीगल के द्वन्द्ववाद तथा राष्ट्रीय-राज्य की अवधारणा को बहुत महत्त्व दिया है। उसने राजनीतिक चिन्तन को नई दिशा देने का प्रयास करके अपने आप को राजनीतिक दार्शनिकों की पंक्ति में आगे खड़ा किया है। उसकी समस्त रचनाएँ उसकी विलक्षण प्रतिभा का प्रतिबिम्ब हैं। उसके दर्शन ने परवर्ती विचारकों पर जो प्रभाव डाला है उससे उसके बहुमूल्य योगदान का पता चलता है। उसके इतिहास के दर्शन ने राजनीतिक सिद्धान्त के विकास पर बहुत अधिक प्रभाव डाला है। उसके महत्त्वपूर्ण राजनीतिक विचारों के कारण ही उसे राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में एक महानतम दार्शनिक माना जाता है। उसकी महत्त्वपूर्ण देन है :-

द्वन्द्ववादी पद्धति 

हीगल की द्वन्द्ववादी पद्धति ने समस्त यूरोपियन दर्शन के क्षेत्र में एक क्रान्ति पैदा कर दी। उसने विज्ञान और धर्म के विरोध को समाप्त करके विकासवाद पर जोर दिया। उसने इस बात पर जोर दिया कि इस सृष्टि का निर्माण आकस्मिक घटना न होकर विश्वात्मा की विकासमान प्रकृति का परिणाम है। उसने बताया कि विश्व निरन्तर प्रगति की ओर गतिवान है। इस प्रकार उसने द्वन्द्वात्मक पद्धति के रूप में विश्व में होने वाले महान् परिवर्तनों को समझने के लिए एक नवीन दार्शनिक साधन प्रस् किया। आगे चलकर कार्ल माक्र्स ने द्वन्द्ववादी तर्क को ही अपने दर्शन का आधार बनाया। इस प्रकार हीगल की द्वन्द्ववादी पद्धति उसकी राजनीतिक चिन्तन को महत्त्वपूर्ण देन है।

राष्ट्रीय राज्य की अवधारणा का जनक 

अनेक विचारकों ने हीगल को राष्ट्रीय-राज्य की अवधारणा का जनक, राष्ट्रीयता का अग्रदूत, व्याख्याता और प्रबल प्रचारक कहा है। उसने अपनी रचनाएँ उस समय लिखीं जब जर्मनी विभिन्न टुकड़ों में बँटकर राष्ट्रवाद से विहीन होता जा रहा था। उसने पराजित जर्मनी को उसके गौरवमयी इतिहास की याद दिलाकर उसमें नई चेतना पैदा की। उसके राष्ट्रवादी विचारों से जर्मनी के साथ-साथ अन्य देशों में राष्ट्रवाद की भावना प्रबल हुई। उसने राष्ट्रवाद को धर्म की तरह एक विश्वास का रूप देने का प्रयास किया। उसकी भावना से प्रभावित होकर ही समार्क ने जर्मनी में राष्ट्रीय एकता की स्थापना की। मैक्सी ने कहा है कि- “वर्तमान युग में पाए जाने वाले राष्ट्रीयता के अतीव उत्कृष्ट विचारों का पोषण हीगल से हुआ है। उस समय उसका प्रयोजन जर्मनी के राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करना था, किन्तु उसके विचारों ने ऐसे सिद्धान्तों के रूप में अपना स्थान बनाया जिनसे न केवल जर्मनी में, बल्कि अन्य सभी देशों में भी राष्ट्रीयता को धर्म का रूप दिया गया।” अत: यह निर्विवाद सत्य है कि हीगल आधुनिक राष्ट्र-राज्यों के जनक हैं।

प्रगति का विचार 

हीगल ने प्रगति का विचार देकर मानव सभ्यता के इतिहास के विकास को नई दिशा प्रदान की। उसका मानना है कि संसार की सभी वस्तुओं का निरन्तर विकास हो रहा है। उसके अनुसार मानव सभ्यता का इतिहास भी निरन्तर होने वाले विकास की प्रक्रिया का परिणाम है। उसने बताया कि राज्य भी इसी विकासात्मक प्रकृति का परिणाम है।

राज्य के सावयवी सिद्धान्त का प्रतिपादक 

हीगल ने कहा कि व्यक्ति आरै राज्य में काइेर् विराध्े ा नही है। यूनानी विचारकों की तरह उसनेभी कहा कि राज्य के बिना व्यक्ति की कल्पना नहीं की जा सकती। व्यक्ति का विकास राज्य में ही सम्भव है। हीगल के अनुसार विश्वात्मा का साकार रूप है। यह विश्वात्मा का चरम लक्ष्य है। व्यक्ति भी इसका अविभाज्य अंग है। उसे राज्य का सदस्य होने के नाते अपनी स्वतन्त्रता राज्य की आज्ञा का पालन करने में ही स्वीकार करनी चाहिए। इसी में उसकी भलाई है। इस तरह हीगल ने राज्य को एक साध्य और व्यक्ति को एक साधन मानकर अपने आंगिक सिद्धान्त (Organic Theory) के विचार का पोषण किया है।

राजनीति और नैतिकता का समन्वय 

हीगल ने कहा है कि राज्य ‘ईश्वर का पृथ्वी पर अवतरण’ (March of God on earth) है। वह विश्वात्मा का चरम लक्ष्य है। उसने राज्य को विश्वात्मा जिससे नैतिकता घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई का सर्वोच्च रूप माना है। उससे पहले राज्य का नैतिकता के साथ कोई सम्बन्ध नहीं था। इस दृष्टि से उसने आधुनिक चिन्तन का प्रतिपादन किया। आधुनिक युग में प्रमुख समस्या धर्म को राजनीति के साथ मिलाने की है ताकि शासक वर्ग जनता के हितों पर ध्यान दे और अपनी स्वार्थमयी प्रवृत्ति का दमन करे।

फासीवाद व नाजीवाद का प्रेरणा-स्रोत 

हीगल की जातीय श्रेष्ठता पर आधारित राष्ट्रवादी तत्त्वों के परिणामस्वरूप मुसोलिनी के फासीवाद को एक महत्त्वपूर्ण आधार मिल गया। उसके द्वारा राज्य को साध्य मानना, अधिकारों की अपेक्षा कर्त्तव्यों पर जोर देना फासीवाद के आधारभूत सिद्धान्त बन गए। हीगल ने राज्य को अलग व्यक्तित्व से विभूषित करके फासीवाद का ही पोषण किया। सेबाइन का कहना है कि- “इटली में फासीवाद ने अपने आरम्भिक चरणों में हीगल के दर्शन से ही आधार ग्रहण किया। तथापि, फासीवाद ने अपने उद्देश्यों की सिद्धि के लिए हीगल के कुछ सिद्धान्तों को अपने अनुरूप ढाल लिया था।” इसी तरह नाजीवाद ने भी हीगल से प्रेरणा ग्रहण की है। अत: फासीवाद तथा नाजीवाद पर हीगल का प्रभाव स्पष्ट है।

सामाजिक समझौता सिद्धान्त का अन्त 

हीगल ने कहा कि राज्य एक कृत्रिम सामाजिक समझौते का परिणाम नहीं है। सामाजिक समझौता राज्य का आधार नहीं हो सकता। राज्य का मूलाधार मानवता की सहज व स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ होती हैं। हीगल के विचारों के कारण सामाजिक समझौता सिद्धान्त का प्रभुत्व समाप्त हो गया।
    इस प्रकार कहा जा सकता है कि हीगल के दर्शन ने परवर्ती चिन्तन को बहुत प्रभावित किया। उसका सर्वाधिक प्रभाव बिस्मार्क पर पड़ा। बिस्मार्क ने हीगल को राष्ट्रीयता की विचारधारा के आधार पर ही जर्मनी को संगठित किया। माक्र्स ने भी हीगल की द्वन्द्ववादी प्रणाली को अपने चिन्तन का आधार बनाया। हीगल ने नैतिकता को राजनीति से जोड़ने का जो प्रयास किया, उससे राजनीतिक सिद्धान्तों को नई दिशा मिली। हीगल ने धर्म और विज्ञान की खाई को भी पाटने का प्रयास किया। उसने राष्ट्रीय हितों को व्यक्ति के हितों से प्राथमिकता देकर राष्ट्रवाद का प्रसार किया। उसके राष्ट्रवादी विचारों से फासीवाद व नाजीवाद ने भी व्यापक सामग्री प्राप्त की। उसने नग्न व्यक्तिवाद की आलोचना करके उसके दोषों की ओर चिन्तकों का ध्यान आकृष्ट किया। उसके विचारों का प्रभाव जर्मनी के साथ-साथ अन्य देशों पर भी पड़ा। इसलिए उसे सर्वोत्तम दर्शन का सर्वोत्तम प्रतिनिधि कहा जा सकता है।

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