संविधानवाद का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं एवं तत्व विकास

संविधानवाद का इतिहास भी उतना ही पुराना है, जितना राजनीतिक संस्थाओं का इतिहास। राजनीतिक संस्थाओं और राजनीतिक शक्ति के प्रादुर्भाव ने मानव को इनकी निरंकुशता के बारे में सोचने को बाध्य किया है। शक्ति मनुष्य को भ्रष्ट करती है और जब इसका सम्बन्ध राजनीतिक संस्थाओं या राजनीति से जुड़ जाता है तो इसके पथभ्रष्ट व दुरुपयोग की संभावना बहुत ज्यादा हो जाती है। इसलिए एक चिन्तनशील व सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य ने प्रारम्भ से ही इस राजनीतिक शक्ति के दुरुपयोग को रोकने के लिए सामाजिक रूप में कुछ नियन्त्रण व बाध्यताएं राजनीतिक शक्ति के ऊपर लगाई हैं। ये बाध्यताएं परम्पराओं, कानूनों, नियमों, नैतिक मूल्यों के रूप में भी हो सकते हैं और संगठित संवैधानिक शक्ति के रूप में भी। संविधान ही एकमात्र ऐसा प्रभावशाली नियन्त्रण का साधन होता है, जो राजनीतिक शक्ति को व्यवहार में नियन्त्रित रखता है और जन-उत्पीड़न को रोकता है। यदि राजनीतिक शक्ति या संस्थाओं पर संविधानिक नियन्त्रण न हो तो वह अत्याचार करने से कभी नहीं चूकती। इस अत्याचार और अराजकता की स्थिति से बचने के लिए शासक और शासन को बाध्यकारी बनाया जाता है। यही बाध्यता व्यक्ति की स्वतन्त्रता और अधिकारों की रक्षक है। यद्यपि व्यवहार में कई बार शासक वर्ग राजनीतिक शक्ति का दुरुपयोग भी कर देता है, लेकिन ऐसा तभी सम्भव है, जब शासित वर्ग जागरुक ना हो या वह शासक वर्ग में अन्धाधुन्ध विश्वास रखने वाला हो। इसी कारण से राजनीतिक शक्ति को नियन्त्रित रखने ओर उसे जन-कल्याण का साधन बनाने के लिए उसमें उत्पीड़न या बाध्यता (Coecive) का समावेश कराया जाता है। इस उत्पीड़न या बाध्यता की शक्ति को संविधान तथा सभी शासकों को नियन्त्रित अधिकार क्षेत्र में रखने की संवैधानिक व्यवस्था को संविधानवाद कहा जाता है।

संविधानवाद का अर्थ

संविधानवाद एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था है जिसका संचालन उन विधियों और नियमों द्वारा होता है जो संविधान में वर्णित होते हैं। इसमें निरंकुशता के लिए कोई जगह नहीं होती है और शासन संचालन लोकतांत्रिक तरीके से किया जाता है। संविधान और संवैधानिक सरकार संविधानवाद के आधार-स्तम्भ हैं। संविधानवाद उसी राजनीतिक व्यवस्था में सम्भव है, जहां संविधान हो और शासन संविधान के नियमों के अनुसार ही होता हो। इसलिए संविधान और संवैधानिक सरकार के बारे में भी जानना जरूरी है। संविधान उन कानूनों या नियमों का संग्रह होता है जो सरकार के संगठन, कार्यों, उद्देश्यों, सरकार के विभिन्न अंगों की शक्तियों, नागरिकों के पारस्परिक सम्बन्धों, नागरिकों के सरकार के साथ सम्बन्धों की व्याख्या करता है। हरमन फाईनर ने इसे परिभाषित करते हुए कहा है-”संविधान आधारभूत राजनीतिक संस्थाओं की व्यवस्था है।” आस्टिन के अनुसार-”संविधान वह है जो सर्वोच्च सरकार के संगठन को निश्चित करता है।” डायसी के अनुसार-”वे सब नियम जिनके द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में राजसत्ता का वितरण तथा प्रयोग किया जाता है, राज्य का संविधान कहलाते हैं।” फ्रेडरिक के अनुसार-”संविधान जहां एक तरफ सरकार पर नियमित नियन्त्रण रखने का साधन है, वहीं दूसरी तरफ समाज में एकता लाने वाली शक्ति का प्रतीक भी है।” सी0एफ0 स्ट्रांग के अनुसार-”संविधान उन सिद्धान्तों का समूह है जिनके अनुसार राज्य के अधिकारों, नागरिकों के अधिकारों और दोनों के सम्बन्धों में सामंजस्य स्थापित किया जाता है।” लोवेन्स्टीन ने कहा है-”यह शक्ति प्रक्रिया पर नियन्त्रण के लिए आधारभूत साधन है और इसका प्रयोजन राजनीतिक शक्ति पर सीमा लगाने व नियन्त्रण करने के तरीकों का उच्चारण है।” ब्राईस के अनुसार-”किसी राज्य अथवा राष्ट्र के संविधान में वे कानून या नियम शामिल होते हैं जो सरकार के स्वरूप को निर्धारित करते हैं तथा उसके नागरिकों के प्रति कर्तव्यों और अधिकारों को बतलाते हैं।”

इस प्रकार कहा जा सकता है कि संविधान शासक व शासितों के सम्बन्धों को निर्धारित करने वाला महत्वपूर्ण कानून है। यद्यपि व्यवहार में इसका रूप अलग भी हो सकता है। संविधान लिखित तथा अलिखित दोनों प्रकार के हो सकते हैं। यद्यपि सिद्धान्त में तो संविधान शासक वर्ग पर नियन्त्रण की व्यवस्था करता है, लेकिन कई बार व्यवहार में संविधान का शासक वर्ग पर कम नियन्त्रण पाया जाता है। इसका कारण उस राज्य में संवैधानिक सरकार का न होना है। प्रथम विश्वयुद्ध के जर्मनी में संविधान तो था, लेकिन वहां संवैधानिक सरकार नहीं थी। सारी शासन-व्यवस्था पर हिटलर का निरंकुश नियन्त्रण था। इसलिए संविधानवाद के लिए संविध् ाान के साथ साथ संवैधानिक सरकार का होना भी जरूरी है।

संवैधानिक सरकार वह होती है जो संविधान की व्यवस्थाओं के अनुसार संगठित, सीमित और नियन्त्रित हो तथा व्यक्ति विशेष की इच्छाओं के स्थान पर केवल विधि के अनुसार ही कार्य करती हो। प्रथम विश्व युद्ध के बाद जर्मनी, इटली, रूस आदि देशों में संविध् ाान होते हुए भी संवैधानिक सरकारों का अभाव था, क्योंकि वहां के तानाशाही शासकों के लिए संविधान एक रद्दी कागज की तरह था। इसलिए वहां पर संविधानवाद नहीं था। संविधानवाद के लिए संविधान के साथ-साथ संवैधानिक सरकार का होना भी अत्यन्त आवश्यक होता है। संवैधानिक सरकार ही संविधान को व्यावहारिक बनाती हैं। संविधान के व्यवहारिक प्रयोग के बिना संविधानवाद की कल्पना नहीं की जा सकती।

संविधान और संवैधानिक सरकार का अर्थ-स्पष्ट हो जाने पर संविधानवाद को आसानी से समझा जा सकता है। संविधानवाद आधुनिक युग की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। यह उन विचारों व सिद्धान्तों की तरफ संकेत करता है, जो उस संविधान का विवरण व समर्थन करते हैं, जिनके माध्यम से राजनीतिक शक्ति पर प्रभावशाली नियन्त्रण स्थापित किया जा सके। संविधानवाद निरंकुश शासन के विपरीत नियमों के अनुसार शासन है जिसमें मनुष्य की आधारभूत मान्यताएं व आस्थाएं शामिल हैं। संविधानवाद शासन की वह पद्धति है जिसमें जनता की आस्थाओं, मूल्यों, आदर्शों को परिलक्षित करने वाले संविधान के नियमों व सिद्धान्तों के आधार पर ही शासन किया जाता है और संविधान के द्वारा ही शासक वर्ग को प्रतिबंधित या नियन्त्रित किया जाता है ताकि व्यवहार में शासक वर्ग निरंकुश न बनकर जन-इच्छा के अनुसार ही शासन करता रहे। इस प्रकार संविधानवाद एक सीमित शासन भी है क्योंकि इसमें प्रतिबन्धों की व्यवस्था होती है। संविधानवाद को परिभाषित करते हुए अनेक विद्वानों ने कहा है :-
  1. पिनाक और स्मिथ के अनुसार-”संविधानवाद केवल प्रक्रिया एवं तथ्यों का ही मामला नहीं है बल्कि राजनैतिक शक्तियों के संगठनों का प्रभावशाली नियन्त्रण भी है, एवं प्रतिनिधित्व, प्राचीन परम्पराओं तथा भविष्य की आशाओं का भी प्रतीक है।”
  2. सी0 एफ0 स्ट्रांग के अनुसार-”संवैधानिक राज्य वह है जिसमें शासन की शक्तियों, शासितों के अधिकारों और इन दोनों के बीच सम्बन्धों का समायोजन किया जाता है।”
  3. कोरी तथा अब्राहम के अनुसार-”स्थापित संविधान के निर्देशों के अनुरूप शासन को संविधानवाद कहा जाता है।”
  4. जे0 एस0 राऊसैक के शब्दों में-”धारणा के रूप में संविधानवाद का अभिप्राय है कि यह अनिवार्य रूप से सीमित सरकार तथा शासन के रूप में नियन्त्रण की एक व्यवस्था है।”
  5. कार्टन एवं हर्ज के अनुसार-”मौलिक अधिकार तथा स्वतन्त्र न्यायपालिका प्रत्येक संविधानवाद की अनिवार्य और सामान्य विशेषता है।” 
  6. के0 सी0 व्हीयर के अनुसार-”संवैधानिक शासन का अर्थ किसी संविधान के नियमों के अनुसार शासन चलाने से कुछ अधिक है। इसका अर्थ है कि निरंकुश शासन के विपरीत नियमानुकूल शासन। ऐसा तभी संभव है जब किसी देश का शासन संविधान के नियमों के अनुसार ही चलता हो। इसके पीछे मौलिक उद्देश्य यही है कि शासन की सीमाएं बांधी जा सकें और शासन चलाने वालों के ऊपर कानूनों व नियमों का बन्धन रहे।”
इस प्रकार कहा जा सकता है कि संविधानवाद का अर्थ है-उत्तरदायी व सीमित सरकार (Responsible and Limited Government)। इसके आधार हैं संविधान और संविधानिक सरकार। यद्यपि इनकी निश्चित परिभाषा देना कठिन है। उपरोक्त सभी परिभाषाएं पूर्ण नहीं हैं। समय और परिस्थितियों के अनुसार संविधानवाद का अर्थ बदल जाता है। लेकिन यह बात तो सत्य है कि संविधान (लिखित या अलिखित) तथा संवैधानिक सरकार के बिना इसकी कल्पना नहीं की जा सकती।

संविधान और संविधानवाद में अन्तर

संविधान ही संविधानवाद का आधार होता है। कुछ राजनीतिक विद्वान इन दोनों को पर्यायवाची मानते हैं, लेकिन व्यवहार में स्थिति भिन्न हो सकती है। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी और इटली में संविधान तो थे, लेकिन संविधानवाद नहीं था। इसलिए संविधान और संविधानवाद में परिस्थितियों के अनुसार अन्तर होता है। इस अन्तर के प्रमुख आधार हैं :-

परिभाषा की दृष्टि से अन्तर

यदि परिभाषा के आधार पर देखा जाए तो संविधान एक संगठन का प्रतीक होता है तथा संविधानवाद एक विचारधारा का प्रतीक है, जिसमें राष्ट्र के मूल्य, विश्वास तथा राजनीतिक आदर्श शामिल होते हैं। संविधान एक ऐसा संगठन है जिसमें सरकार और शासितों के सम्बन्धों को निर्धारित किया जाता है। संविधान राजनीतिक व्यवस्था के शक्ति सम्बन्धों की आत्मकथा है। संविधानवाद उन विचारों का द्योतक है जो संविधान का वर्णन और समर्थन करते हैं तथा जिसके माध्यम से राजनीतिक शक्ति पर प्रभावकारी नियन्त्रण कायम रखना संभव होता है। सी0एफ0 स्ट्रांग ने संविधान को परिभाषित करते हुए कहा है-”संविधान उन सिद्धान्तों का समूह है जिनके अनुसार राज्य के अधिकारों, नागरिकों के अधिकारों और दोनों के सम्बन्धों में सामंजस्य स्थापित किया जाता है।” संविधानवाद को परिभाषित करते हुए कोरी तथा अब्राहम ने लिखा है-”स्थापित संविधान के निर्देशों के अनुरूप शासन को संविधानवाद माना जाता है।” इस प्रकार परिभाषा की दृष्टि से संविधान एक संगठन का तथा संविधानवाद एक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है।

प्रकृति की दृष्टि से अन्तर

प्रकृति की दृष्टि से संविधान एक साधन प्रधान धारणा है और संविधानवाद एक साध्य प्रधान धारणा है। संविधानवाद राजनीतिक समाज के लक्ष्यों और उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए सुव्यवस्था है। यह हर समाज के गन्तत्यों को प्राप्त करने की संविधान रूपी साधन द्वारा चेष्टा करता है। इस तरह संविधान वह साधन है जो राजनीतिक समाज के लक्ष्यों व उद्देश्यों को प्राप्त करके संविधानवाद की स्थापना करता है या संविधानवाद रूपी साध्य को प्राप्त करता है।

उत्पत्ति की दृष्टि से अन्तर

संविधान का निर्माण किया जाता है, जबकि संविधानवाद विकास की लम्बी प्रक्रिया का परिणाम होता है। यद्यपि ब्रिटेन का संविधान परम्पराओं पर आधारित व अलिखित होने के कारण इसका अपवाद है। संविधान का निर्माण सर्वोच्च अधिकार प्राप्त किसी संस्था द्वारा किया जाता है। उदाहरण के लिए भारत का संविधान एक संविधान सभा द्वारा लगभग 3 वर्ष में तैयार किया गया था। संविधानवाद किसी भी देश के राजनीतिक समाज के मूल्यों, विश्वासों तथा आदर्शों के विकास का परिणाम होता है। संविधान जनता की आवश्यकताओं के अनुरूप सदैव परिवर्तित व संशोधित होते रहे हैं, लेकिन संविधानवाद की स्थापना के बाद उसे बदलना या समाप्त करना निरंकुशता व अराजकता को जन्म देता है।

क्षेत्र की दृष्टि से अन्तर

क्षेत्र की दृष्टि से संविधान एक अपवर्जक (exclusive) तथा संविधानवाद एक अन्तभूर्तकारी (Inclusive) धारणा है। संविधानवाद तो कई देशों में यदि उनकी संस्कृति समान है तो एक पाया जा सकता है, लेकिन संविधान हर देश का अलग-अलग होता है, क्योंकि इसमें वर्णित अधिकार व कर्तव्य, शासक व शासितों के सम्बन्ध प्रत्येक देश के राजनीतिक समाज में अलग-अलग ढंग के होते हैं। य़द्यपि कई देशों के संविधानों में भी समानता का लक्षण दिखाई देता है, लेकिन यह लक्षण मात्रात्मक होता है, गुणात्मक नहीं। उदाहरण के लिए लोकतन्त्रीय देशों में संविधान में प्राय: कई प्रकार के समान लक्षण होते हैं। उसी तरह साम्यवादी देशों के संविधानों में भी अलग प्रकार की समानता देखने को मिलती है। इस तरह संविधान एक सीमित अवधारणा है, जबकि संविधानवाद एक विस्तृत धारणा है। इसे देशकाल की सीमाएं बांध नहीं सकती।

औचित्य की दृष्टि से अन्तर

संविधान का औचित्य विधि के आधार पर सिद्ध किया जाता है, जबकि संविधानवाद में आदर्शों का औचित्य विचारधारा के आधार पर सिद्ध होता है। जिस देश के संविधान में उचित कानून व नियमों की व्यवस्था होती है तथा संविधान जन-इच्छा के अनुकूल होता है तो उस संविधान को औचित्यपूर्ण माना जाता है। इसी तरह यदि किसी देश में संवैधानिक आदर्शों को संवैधानिक उपायों से ही प्राप्त करने के प्रयास किए जाते हैं तो संविधानवाद का औचित्य सिद्ध हो जाता है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि संविधान और संविधानवाद में गहरा अन्तर है। एक संगठन का प्रतीक है तो दूसरा विचारधारा का। एक साधन है तो दूसरा साध्य, एक सीमित धारणा है तो दूसरी विस्तृत, एक का निर्माण होता है तो दूसरे का विकास। इतने अन्तर के बावजूद भी दोनों में आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यदि दोनों की दिशाएं अलग-अलग होंगी तो इसके राजनीतिक समाज के लिए विनाशकारी परिणाम निकलेंगे।

संविधानवाद के आधार 

राजनीतिक समाज के लोगों में पाई जाने वाली मतैक्य की भावना ही संविधानवाद का आधार है। यह मतैक्य इतना ठोस और व्यापक होता है कि राजनीतिक शक्ति को जनता के ऊपर आजमाने के कोई आवश्यकता नहीं होती। यह मतैक्य विरोध हो सहमति के बीच में होता है। सामान्य परिस्थितियों में जनता शासक वर्ग की हर आज्ञा का पालन करना अपना धर्म समझती है और संविधान के आदर्शों को प्राप्त करने में शासक वर्ग को पूरा सहयोग देती है। यह मतैक्य जितना अधिक विरोध की बजाय सहमति के नजदीक होगा, उतनी ही अधिक संविधानवाद में ठोसता व व्यावहारिकता का गुण होगा। यही मतैक्य संविधानवाद की आवश्यक शर्त भी है और आवश्यकता भी है। विलियम जी0 एण्ड्रयूज के अनुसार यह मतैक्य चार प्रकार का हो सकता है :-

संस्थाओं के ढांचे और प्रक्रियाओं पर मतैक्य 

यदि नागरिक यह महसूस करते हैं कि सरकार उनके हितों के विरुद्ध कार्य कर रही हैं तो वे सरकार का विरोध करने में कोई देर नहीं करते। इससे विद्रोह या क्रांति की संभावना बढ़ जाती है। इसलिए ऐसी स्थिति संविधानवाद के विपरीत होती है। इसी कारण संविधानवाद के लिए जनता का सरकार व उसकी नीतियों पर पूर्ण विश्वास होना चाहिए। यह विश्वास ही संविधान और संविधानवाद के साम्य का आधार है। इसलिए संविधानवाद को बनाए रखने के लिए संस्थाओं के ढांचे और प्रक्रियाओं पर नागरिकों में मतैक्य होना जरूरी है।

सरकार के आधार के रूप में विधि-शासन की आवश्यकता पर सहमति

जनता को सदैव यह विश्वास होना चाहिए कि सरकार या शासन कानून द्वारा ही चलाया जा रहा है और शासक वर्ग विधि के शासन की उपेक्षा नहीं कर रहा है। जनता की यही आस्था या विश्वास आपातकाल में शासक वर्ग को संविधानवाद से छूट देकर लाभ पहुंचाता है। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी में हिटलर को तथा इटली में मुसोलिनी को इसी छूट का लाभ मिला था। ऐसा विशिष्ट परिस्थितियों में ही होता है। इसिलीए संविधानवाद के लिए जनता को सरकार के कार्यों को विधि के शासन के रूप में देखने पर मतैक्य की भावना रखनी चाहिए। यही सहमति संविधानवाद की रक्षा करती है।

समाज के सामान्य उद्देश्यों पर सहमति

राजनीतिक समाज के लोगों में सामान्य उद्देश्यों पर सहमति का अभाव राजनीतिक व्यवस्था में तनाव व खिंचाव उत्पन्न करता है। इससे दूसरे क्षेत्रों में मतैक्य के टूटने की संभावना बढ़ जाती है। सामान्य उद्देश्यों पर असहमति की स्थिति सम्पूर्ण संवैधानिक ढांचे को नष्ट कर सकती है। इसलिए संविधानवाद के लिए यह आवश्यक है कि नागरिक समाज के लोगों में समाज के सामान्य उद्देश्यों पर सहमति बनी रहे। यही संविधानवाद की आधारशिला है। इसके अभाव में संविधानवाद में ठोसता नहीं आ सकती।

गौण लक्ष्यों एवं विशिष्ट नीति-प्रश्नों पर सहमति 

संविधानवाद के भवन को धराशायी होने से बचाने के लिए यह आवश्यक है कि नागरिक समाज के लोगों में गौण लक्ष्यों और विशिष्ट नीति-प्रश्नों पर भी सहमति बनी रहे। विशिष्ट नीति-प्रश्नों पर असहमति सहमति के अन्य क्षेत्रों को भी प्रभावित कर सकती है और संविधानवाद रूपी भवन को गिरा सकती है। यह सहमति अधिक आवश्यक न होते हुए भी, संविधानवाद की ठोसता के लिए जरूरी है। इसके कारण संविधानवाद रूपी भवन हल्के-फुल्के झटकों से हिलने से बच जाता है। यह सहमति संविधानवाद को व्यावहारिकता का गुण प्रदान करती है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि राजनीतिक समाज के लोगों में संस्थाओं के ढांचे व प्रक्रियाओं पर, सरकार के आधार के रूप में विधि के शासन की आवश्यकता पर, समाज के सामान्य उद्देश्यों, गौण लक्ष्यों तथा विशिष्ट नीति-सम्बन्धी प्रश्नों पर आम राय का होना जरूरी है। यह राय या मतैक्य सहमति के जितने पास होता है और विरोध से जितनी दूर होता है, संविधानवाद की जड़ें उतनी ही अधिक गहरी होती हैं। राजनीतिक समाज में होने वाले छोटे-मोटे उतार-चढ़ाव संविधानवाद को इस स्थिति में कोई हानि नहीं पहुंचा सकते। यदि राजनीतिक समाज के लोगों में मतैक्य की भावना का अभाव होगा तो संविधानवाद की रक्षा करने का कोई विलक्प नहीं हो सकता। अत: विभिन्न बातों पर राजनीतिक समाज के लोगों में पाया जाने वाला मतैक्य या सहमति ही संविधानवाद का आधार है।

संविधानवाद के तत्व

संविधान के आदर्श ही संविधानवाद का आधार होते हैं। इन आदर्शों का अभाव जनक्रान्ति की पृष्ठभूमि तैयार करता है। इसलिए संविधानवाद के लिए इन आदर्शों का होना बहुत जरूरी होता है। इन आदर्शों या तत्वों के अभाव में कोई भी संविधान व्यावहारिक धरातल पर उपयोगी नहीं हो सकता। पिनॉक व स्मिथ के अनुसार ये तत्व हैं :-

संविधान आवश्यक या अपरिहार्य संस्थाओं के अभिव्यक्तक के रूप में 

कोई भी संविधान चाहे वह लिखित हो या परम्पराओं पर आधारित ब्रिटेन के संविधान की तरह अलिखित हो, अपनी अपरिहार्य संस्थाओं (कार्यपालिका, विधानपालिका तथा न्यायपालिका) की व्यवस्था अवश्य करता है। यदि संविधान में इन संस्थाओं और इनके अधिकार क्षेत्र की स्पष्ट व्याख्या नहीं होगी तो संविधानवाद की कल्पना करना असम्भव है। संविधान में इन संस्थाओं के अधिकार व शक्तियों के साथ-साथ इनके पारस्परिक सम्बन्धों की व्याख्या होना जरूरी है, यही संविधानवाद की प्रमुख मांग है। यदि इन संस्थाओं के अधिकार क्षेत्र की स्पष्ट व्याख्या न की गई हो तो सदैव शासक-वर्ग या नौकरशाही तन्त्र के निरंकुश होने के आसार बने रहते हैं। अत: संविधानवाद के लिए प्रत्येक संविधान में चाहे वह लिखित हो या अलिखित, उसमें विधायिमा, कार्यपालिका और न्यायपालिका के गठन, शक्तियों और उनके पारस्परिक सम्बन्धों की स्पष्ट व्याख्या, संविधानवाद के लिए आवश्यक है, क्योंकि ये संस्थाएं राज्य की अपरिहार्य संस्थाएं हैं।

संविधान राजनीतिक शक्ति के प्रतिबन्धक के रूप में

प्रत्येक देश की शासन-व्यवस्था को सुचारु ढंग से चलाने के लिए उस पर कुछ प्रतिबन्धों की व्यवस्था का होना भी संविधानवाद की आधारशिला है। प्रत्येक लोकतंत्रीय राजनीतिक व्यवस्था के संविधान में कुछ ऐसे उपाय किए जाते हैं कि शासन या सरकार हर समय नियंत्रित रहते हुए अपनी शक्तियों को जनहित में ही उपयोग किए हैं। इससे शासक वर्ग की स्वेच्छाचारिता का फल जनता को नहीं भोगना पड़ता। लोकतांत्रिक राज्य में ये प्रतिबन्ध, विधि का शासन (Rule of Law), मौलिक अधिकार (Fundamental Rights), शक्तियों का पृथक्करण (Separation of Powers) तथा परम्पराएं व सामाजिक बहुलवाद (Convention and Pluralism) आदि के रूप में होते हैं। जब राज्य का शासन कानून के अनुसार चलाया जाएगा और नागरिकों के अधिकारों का अतिक्रमण नहीं होगा तो संविधानवाद को हिलाने वाला कोई नहीं हो सकता। यदि संविधान में ही शासन के तीनों अंगों की शक्तियों का पृथक्करण कर दिया जाएगा तो शक्तियों का केन्द्रीयकरण नहीं होगा और शासक वर्ग निरंकुश नहीं बन सकेगा तो संविधानवाद मजबूत स्थिति में बना रह सकता है। इसी तरह सामाजिक परम्पराएं तथा बहुलवाद जब इतना मजबूत होगा कि साधारण सी राजनीतिक उथल-पुथल अराजकता पैदा करने में नाकाम रहे तो संविधानवाद को बनाए रखने में कोई परेशानी नहीं हो सकती। इस तरह संविधान में इन प्रतिबन्धों की व्यवस्था किए बिना संविधानवाद के स्थायित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। ये प्रतिबन्ध ही शासन को सीमित व उत्तरदायी बनाते हैं। अत: प्रतिबन्धों द्वारा सीमित व उत्तरदायी सरकार ही संविधानवाद का आधार है। इसलिए संविधान का राजनीतिक शक्ति पर नियन्त्रण लगाना अनिवार्य है।

संविधान विकास के निदेशक के रूप में 

संविधान में विकास का गुण भी होना चाहिए। वर्तमान में ही प्रभावी शक्ति बने रहने से वह भविष्य के प्रति उदासीन बन सकता है। इसलिए उसमें गतिशीलता तथा लोचशीलता का गुण भी होना चाहिए। समय व परिस्थितियों के अनुसार राजनीतिक समाज के मूल्यों, आदर्शों, मान्यताओं आदि में परिवर्तन होते रहते हैं। पुराने राजनीतिक मूल्यों व आदर्शों का स्थान नए मूल्य व आदर्श लेने के लिए तैयार रहते हैं, केवल उन्हें राजनीतिक समाज की अनुमति की प्रतिज्ञा होती है। इसलिए प्रत्येक देश के संविधान में नवीन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए इन परिवर्तित व सम्वृद्धित मूल्यों को ग्रहण करने की क्षमता का होना आवश्यक है। यदि कोई भी संविधान भावी विकास की योजना की उपेक्षा करता है तो वह राजनीतिक समाज की सहानुभूति खो देता है और क्रान्ति का शिकार हो सकता है। गतिहीनता को प्राप्त संविधान समाज के सामान्य व गौण उद्देश्यों को प्राप्त करने की बजाय उसमें वाचक बनकर राजनीतिक व सामाजिक विकास का मार्ग अवरुद्ध करता है। इसलिए संविधान को राजनीतिक समाज की बदलती हुई मान्यताओं या संस्कृति का सम्मान करना चाहिए ताकि संविधानवाद की व्यवहारिकता बनी रहे और संविधानवाद एक गत्यात्मक धारण बनी रहे।

संविधान राजनीतिक शक्ति के संगठक के रूप में

संविधान किसी भी शासन-व्यवस्था को वैधता या औचित्य प्रदान करता है। वह यह बात सुनिश्चित करता है कि सरकार के समस्त क्रिया-कलाप उसके अधिकार क्षेत्र के अनुसार ही हों और स्वयं सरकार भी वैधता का गुण बनाए रखे। इसलिए संविधान सरकार की सीमाओं की स्थापना के साथ-साथ सरकार की विभिन्न संस्थाओं में शक्तियों का लम्बात्मक तथा अम्बरान्तीय (Vertical and Horizntal) विभाजन व वितरण भी करता है। संविधान राजनीतिक शक्ति का संगठक उसी अवस्था में रह सकता है जबकि संविधान द्वारा यह व्यवस्था हो कि सरकार के कार्य अधिकार-युक्त रहें तथा सरकार स्वय भी वैध हो। यदि ऐसा न होगा तो सरकार विरोधी शक्तियां सरकार को गिरा सकती हैं। सरकार को संविधान के लक्ष्यों को प्राप्त करने के अलावा अपनी ऐसी कार्यशैली की स्थापना करनी होती है कि लोगों में शासन-सत्ता के प्रति निष्ठा व लगाव बना रहे। यदि निष्ठा या लगाव सरकार की वैधता का भी प्रतिबिम्ब है। यदि कोई भी सरकार वैधतापूर्ण नहीं रहेगी तो न तो संविधान राजनीतिक शक्ति का संगठक रहेगा और न ही संविधानवाद की प्राप्ति होगी। इसलिए सरकार का संविधानवाद की व्यावहारिकता के लिए वैध होना अनिवार्य है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि संविधान अपरिहार्य संस्थाओं का अभिव्यक्तक, राजनीतिक शक्ति का प्रतिबन्धक, राजनीतिक विकास का निदेशक तथा राजनीतिक शक्ति का संगठन होना चाहिए। इसके अभाव में संविधान संविधानवाद का आधार कभी नहीं बन सकता तथा वह केवल कागज का टुकड़ा मात्र होगा, जिसकी कोई व्यवहारिक उपयोगिता नहीं होगी।

संविधानवाद की विशेषताएं

यद्यपि किसी भी देश के संविधान में दूसरे देशों के संविधानों से मात्रात्मक समानता मिल सकती है, क्योंकि वह संविधान गुणात्मक रूप से दूसरे देशों के संविधान के समान नहीं होता, लेकिन संविधानावाद की दृष्टि से कई देशों के संविधानवाद में गुणात्मक समानता भी मिल जाती है। विकासशील लोकतन्त्रीय देशों में संविधानवाद की सभी विशेषताएं या गुण लगाभग समान रूप से मिल जाते हैं। ये विशेषताएं ही संविधानवाद के स्वरूप को निश्चित करती हैं। संविधानवाद की प्रमुख विशेषताएं होती हैं :-

संविधानवाद एक गत्यात्मक अवधारणा है

गतिशीलता संविधानवाद का प्रमुख गुण होता है। इसी कारण संविधानवाद विकास का सूचक होता है, विकास में बाधक नहीं। समय व परिस्थितियों के अनुसार समाज के मूल्य व आदर्शों के बदलने के कारण संविधानवाद को भी अपनी प्रकृति को बदलना पड़ता है। यही संविधानवाद की गत्यात्मकता का आधार है। संविधानवाद समाज के मूल्यों व आदर्शों की स्थापना व प्राप्त करने के साथ साथ नए मूल्यों पर समाज की भविष्य की आकांक्षाओं के प्रति भी गम्भीर होता है। यदि संविधानवाद लोकशीलता तथा परिवर्तनशीलता के गुण से ही होगा तो संविधानवाद की रक्षा करने वाला कोई नहीं होगा। ऐसे संविधानवाद के दिन जल्दी ही लद जाएंगे और वह विनष्ट हो जाएगा। अत: संविधानवाद का प्रमुख गुण गतिशीलता है और संविधानवाद एक गत्यात्मक अवधारणा है।

संविधानवाद मूल्यों पर आधारित अवधारणा है 

संविधानवाद का सम्बन्ध इन आदर्शों से होता है जो किसी राष्ट्र के लिए बहुत महत्वपूर्ण होते हैं और राष्ट्रवाद का आधार होते हैं। संविधानवाद उन विश्वासों, राजनीतिक आदर्शों और मूल्यों की तरफ इशारा करता है जो प्रत्येक नागरिक को बहुत ही प्रिय होते हैं। अभिजन वर्ग के बाद समाज का बुद्धिजीवी वर्ग इसको जनता तक पहुंचाता है। सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होने पर ही मूल्य संविधान का आदर्श बनते हैं और संविधानवाद को मूल्यों से युक्त करता है। इन मूल्यों की रक्षा के लिए नागरिक हर बलिदान देने को तैयार रहते हैं। जिन मूल्यों को समाज द्वारा अस्वीकृत कर दिया जाता है, वे मूल्य संविधानवाद से दूर हट जाते हैं। सामाजिक स्वीकृति के बाद ही ये मूल्य राष्ट्र-दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित स्थान पर पहुंच जाते हैं। अत: संविधानवाद मूल्य-युक्त अवधारणा है और इसका सम्बन्ध राष्ट्र-दर्शन से है।

संविधानवाद संस्कृति सम्बद्ध अवधारणा है 

मूल्य किसी भी राजनीतिक समाज की संस्कृति का अंग होते हैं। प्रत्येक देश के मूल्य व आदर्श उस देश की संस्कृति की ही उपज होते हैं और उनका विकास भी राजनीतिक संस्कृति के विकास पर पर ही निर्भर करता है। संविधानवाद भी इन्हीं मूल्य और आदर्शों से घनिष्ट रूप से जुड़ा होता है। यद्यपि राजनीतिक समाज की संस्कृति में विविधता का गुण भी पाया जाता है, परन्तु संविधानवाद एक समन्वयकारी शक्ति के रूप में सभी विरोधों में सामंजस्य स्थापित करके उन्हें अपने देश की संस्कृति का अंग बना देता है। इस तरह प्रत्येक देश की संस्कृति से ही संविधानवाद अपना विकास करता है। अत: संविधान का राजनीतिक संस्कृति से गहरा सम्बन्ध होता है।

संविधानवाद संविधान पर आधारित अवधारणा है 

संविधान नागरिक समाज के मूल्यों व आदर्शों का प्रतिबिम्ब होता है। संविधान किसी भी देश का सर्वोच्च कानून होता है। प्रतिबन्धों की व्यवस्था के कारण जनता का संविधान में गहरा विश्वास होता है। यदि विश्वास और लगाव संविधानवाद का भी आधार है। यदि संविधान और संविधानवाद में साम्य नहीं होगा तो राजनीतिक उथल-पुथल की घटनाएं शुरु हो सकती हैं और देश में अराजकता का माहौल पैदा हो सकता है। इसलिए संविधानवाद को बचाने वाले कोई नहीं हो सकता। ऐसी संभावना असामान्य स्थिति में ही होती है, सामान्य स्थिति में नहीं, इसलिए संविधानवाद को संविधान पर ही आश्रित रहना पड़ता है। इसी से संविध् ाानवाद व्यवहारिकता का गुण प्राप्त करता है।

संविधानवाद समभागी अवधारणा है 

एक देश के मूल्य व आदर्श दूसरे देशों के संविधान का भी अंग बन सकते हैं, लेकिन से समान आदर्श मन्त्रालय आधार पर तो ठीक रहते हैं, गुणात्मक आधार पर नहीं। लेकिन संविधानवाद का आदर्श बनने पर ये मूल्य और मान्यताएं स्थायित्च का गुण प्राप्त कर लेते हैं। यद्यपि समान संविधानवाद वाले देशों में भी कुछ असमान लक्षण हो सकते हैं, लेकिन यह अन्तर मात्रात्मक ही रहता है, गुणात्मक नहीं। विकासशील प्रजातन्त्रीय देशों में संविधानवाद के आधारभूत लक्षण लगभग समान मिलते हैं। यदि कोई अन्तर दृष्टिगोचर भी होता है तो वह संविधानवाद की समन्वयकारी शक्ति में घुल जाता है। अत: संविधानवाद एक समभागी अवधारणा है। संविधान तो प्रत्येक देश का अपना अलग होता है, संविधानवाद के लक्षण समान रूप से कई देशों में एक जैसे ही मिल सकते हैं।

संविधानवाद साध्यमूलक अवधारणा है 

संविधानवाद का मुख्य उद्देश्य संविधान के लक्ष्यों को प्राप्त करना होता है। इस कार्य में वह साधन रूपी संविधान की उपेक्षा नहीं कर सकता। साध्य और साधन में गहरा सम्क्न्ध होने के कारण इन्हें एक दूसरे से अलग करने का तात्पर्य होगा। संविधानवाद की आत्मा को नष्ट करना। इसलिए साध्यों के रूप में संविधानवाद राजनीतिक समाज के मूल्यों व आदर्शों को प्राप्त करने की पूरी चेष्टा करता है। अत: संविधानवाद का सम्बन्ध साध्यों से अधिक तथा साधनों से कम होता है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि संविधानवाद संविधान पर आधारित अवधारणा है। यह संविधान के आदर्शों व मूल्यों को साध्य के रूप में प्राप्त करने का प्रयास करता है। इसका राजनीतिक समाज के मूल्यों से गहरा लगाव होने के कारण यह संस्कृति से सम्बन्धित भी होता है। इसमें अन्य देशें की संस्कृति को अंगीकार करने का गुण भी होता है और यह समय व परिस्थितियों के अनुसार विकास की तरफ भी बढ़ता रहता है। इस प्रकार यह गतिशील अवधारणा भी है। संविधानवाद की इन्हीं विशेषताओं के कारण संविधानवाद दूसरे देशों तक अपना विस्तार करता है और यह एक व्यापक अवधारणा बन जाता है।

संविधानवाद की उत्पत्ति और विकास

संविधानवाद की उत्पत्ति किसी आकस्मिक घटना का परिणाम नहीं है। इसकी उत्पत्ति और विकास एक ऐतिहासिक प्रक्रिया की उपज है। यूनानियों से लेकर वर्तमान समय तक संविधानवाद एक लम्बी ए्रतिहासिक प्रक्रिया से गुजरा है। यूनानी चिन्तकों के बाद इसे परवर्ती विचारकों ने भी विकसित होने में अपना सहयोग दिया है। एक गतिशील अवधारणा के रूप में संविधानवाद का अपना एक विशिष्ट प्रकार का इतिहास है। यूनानी नगर राज्यों के जन्म से वर्तमान अवस्था तक संविधानवाद के विकास को निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत समझा जा सकता है :-

यूनानी संविधानवाद 

संविधान की उत्पत्ति सबसे पहले यूनान के ऐथेंस नगर में हुई थी। सर्वप्रथम यूनानी दार्शनिकों ने ही राज्य के रूप, कार्यों और उद्देश्यों पर विचार करते हुए राज्य के विभिन्न रूपों में अन्तर किया। उन्होंने विवेकपूर्ण ढंग से संविधानिक शासन पर विचार किया और व्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने वाली राज्य की शक्ति पर मनन किया। प्लेटो ने संविधानिक शासन के बारे में कहा कि संविधानिक शासन शासक की इच्छा से नहीं, बल्कि नियमानुसार संचालित होता है। प्लेटो की तरह अरस्तु ने भी संविधानवाद के तत्वों - सार्वजनिक हित, सामान्य कानूनों का शासन, सहमति का आधार आदि पर अपने विचार दिए। अरस्तु की दृष्टि में अच्छी नागरिकता की कसौटी-संविधान का पालन करना था। अरस्तु ने सर्वप्रथम राज्य और सरकार में शासन के उद्देश्यों तथा संस्थात्मक आधार पर भेद व वर्गीकरण किया। यूनानी विचारकों ने संविधानों का पालन कराने के लिए शिक्षा पर बहुत जोर दिया ताकि राज्य को अराजकता से बचाया जा सके। यूनानी नगर राज्यों में संविधान का पालन अनिवार्य रूप से किया जाता था। आज भी यूनानी संविधानवाद का प्रभाव कानून की सर्वोच्चता के रूप में विद्यमान है। लेकिन यूनानी संविधानवाद का सबसे बड़ा दोष उसमें गतिशीलता व परिवर्तनशीलता का अभाव था। इसी कारण वह संविधानवाद तो समाप्त हो गया लेकिन उसका राजनीतिक आदर्श आज भी जीवित है।

रोमन संविधानवाद 

यूनानी नगर-राज्यों के पतन के बाद रोम के महान साम्राज्य की स्थापना के बाद रोम में सरकार के उपकरण के रूप में संविधान का जन्म हुआ। यह संविधान दृष्टान्तों, मानव स्मृतियों, राज्य के विशेषज्ञों के कथनों, रीति-रिवाजों पर आधारित सरकार का कानून था। रोमन संविधानवाद कानून के शासन के रूप में विख्यात है। उन्होंने सामान्य और संविधानवाद कानूनों में अन्तर किया। उनका अतिराष्ट्रीय सत्ता में भी विश्वास था। उन्होंने यह भी सिद्धान्त दिया कि कानूनी शक्ति का स्रोत जनता ही है। जब रोमन गणतन्त्र का पतन हुआ तो संविधानवाद भी विनाश की ओर चल पड़ा। प्रो0 स्ट्रांग ने लिखा है-”रोमन संविधानवाद की शुरुआत एकतन्त्रात्मक, अभिजाततंत्रात्मक और लोकतन्त्रात्मक तत्वों के सुन्दर मेल से हुई और उसका अन्त अनुत्तरदायी निरंकुशतन्त्र के रूप में हुआ।” लेकिन रोमन संविधानवाद की यह बात आज भी लोकतन्त्रीय शासन प्रणालियों में संविधान का प्रमुख आदर्श है कि सम्राट को शक्ति सौंपने वाली जनता उसकी शक्ति को वापिस भी ले सकती है। आधुनिक युग में जो अन्तर्राष्ट्रीय प्रेम, बन्धुत्व, सहिष्णुता का आदर्श अपनाया जा रहा है, वह रोमन संविधानवाद की ही देन है। कानून का सहिताकरण और उत्तरदायी सरकार का सिद्धान्त रोमन सिद्धान्तवाद की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि थी, जो आधुनिक संविधानवाद का प्रमुख आधार है।

मध्यकाल में संविधानवाद 

रोमन साम्राज्य के नष्ट होने के बाद यूरोप को सामन्तवाद का प्रादुर्भाव हुआ। इस युग में चर्च ही सर्वोच्च धार्मिक सत्ता थी। उसे ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता था। राजा केवल ईश्वर के प्रति ही उत्तरदायी था। इससे संविधानवाद का मार्ग अवरुद्ध हो गया। लेकिन आगे चलकर सामन्तवाद की बुराईयों का अन्त हुआ और दैवीय सत्ता के स्थल पर स्वेच्छाचारी राजतन्त्र तथा वैधानिक राजतन्त्र की स्थापना हुई। इंग्लैण्ड, फ्रांस, स्पेन में केन्द्रीयकरण की प्रगति ने सामन्तवाद की बुराईयों को नष्ट कर दिया और वहां पर संविधानवाद के लक्षण प्रकट होने लगे। ब्रिटेन में राजा के दैवी अधिकारों के स्थान पर संसद की सर्वोच्चता का सिद्धान्त पनपने लगा। इय युग में लोकप्रिय सम्प्रभुता के सिद्धान्त, सर्वव्यापी कानून, प्रतिनिधि लोकतन्त्रवाद की अवधारणा का उदय हुआ। पैडुआ के मार्सीलियो ने कहा कि “जनता की आवाज ईश्वर की आवाज है।” इंग्लैण्ड और फ्रांस में संविधानवाद की दो दिशाएं-राष्ट्रवाद और प्रतिनिधि लोकतन्त्रवाद का उदय हआ। फ्रांस में स्वतंत्रता, समानता तथा भ्रातृत्व की भावना के उदय ने निरंकुश राजतन्त्र पर तीव्र प्रहार करके संविधानवाद का नया अध्याय शुरु किया।

पुनर्जागरण और संविधानवाद

पुनर्जागरण काल में इटली और जर्मनी में संविध् ाानवाद का मार्ग अवरुद्ध हो गया। इटली में मैकियावेली ने 'The Prince' पुस्तक में राजनीति को नैतिक नियमों से अलग कर दिया, यूरोप में सामन्तवाद के पतन के बाद एकीकरण करने वाली शक्ति राजा ही था। इस काल में केवल इंग्लैण्ड ही ऐसा देश था, जहां संविधानवाद का विकास हुआ। 1688 की शानदार क्रान्ति के बाद इंग्लैण्ड के निरंकुश राजतन्त्र के स्थान पर सीमित राजतन्त्र की स्थापना हुई। इस युग में इंग्लैंड में मन्त्रिपरिषद तथा प्रधानमन्त्री की संस्थाओं का जन्म हुआ। 1742 में प्रधानमंत्री वालपोल ने अविश्वास मत के कारण अपना पद छोड़ दिया। इससे इस सिद्धान्त की स्थापना हो गई कि मन्त्रीपरिषद व प्रधानमन्त्री अपने पद पर उसी समय तक रह सकते हैं, जब तक उन्हें लोकसदन का विश्वास हासिल रहे। इंग्लैंड में कानून के शासन की स्थापना ने संविधानवाद का नया अध्याय शुरु किया। इस युग में ही अमेरिकी व फ्रांसीसी क्रांतियों ने लोकतन्त्रीय सिद्धान्तों को जन्म िदेया। अमेरिका के स्वतन्त्रता युद्ध का नारा था-”प्रतिनिधित्व के बिना कर नहीं।” 4 जुलाई 1776 के अमेरिका स्वतन्त्रता के घोषणा पत्र में कहा गया कि “सब व्यक्ति समान हैं और सभी को जीवन, स्वतन्त्रता तथा सुख प्राप्त करने के अधिकार हैं। इन अधिकारों की प्राप्ति के लिए ही सरकारें स्थापित की जाती हैं।” वास्तव में आधुनिक संविधानवाद का जन्म यहीं से होता है। 1789 की फ्रांसीसी क्रान्ति के घोषणा पत्र में भी इसी बात पर बल दिया गया कि मनुष्य जन्म से स्वतन्त्र और अधिकारों में समान है। कानून सामान्य इच्छा की अभिव्यक्ति है। जब 1791 में फ्रांस का संविधान बनाया गया था तो इस घोषणा को उसमें महत्वपूर्ण जगह मिली।

औद्योगिक क्रान्ति से प्रथम विश्वयुद्ध तक संविधानवाद 

औद्योगिक क्रान्ति के जनम ने संविधानवाद को विकसित किया। इस क्रान्ति के कारण पूंजीवादी वर्ग ने शासन पर कब्जा करके कानूनों का प्रयोग मनमाने तरीके से करना शुरु कर दिया। पूंजीवाद के परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता की भावना में वृद्धि हुई और राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वता की भावना भी बढ़ी। पूंजीवाद ने श्रमिक आन्दोलनों को जन्म दिया। श्रमिक संगठित होकर अपने राजनीतिक अधिकारों की मांग करने लगे। 1867 और 1885 के सुधार अधिनियम श्रमिकों के आन्दोलन के ही परिणाम थे। 1848 में माक्र्स के कम्यूनिष्ट मैनीफेस्टो (Comminist Monifesto) में श्रमिकों को एकता के लिए कहा गया। इसका संविधानवाद के विकास पर बहुत प्रभाव पड़ा। पूंजीपतियों ने निरंकुश सत्ता के स्थान पर संविधानिक सत्ता के प्रयास शुरु कर दिए। मध्यम वर्ग को मताधिकार प्राप्त हो गया और राष्ट्रवादी दलों के संगठन के कारण राष्ट्रवाद तथा संविधानिक सत्ता के प्रयास शुरु कर दिए। मध्यम वर्ग को मताधिकर प्राप्त हो गया और राष्ट्रवादी दलों के संगठन के कारण राष्ट्रवाद तथा संविधानिक सुधारों का विकास हुआ। इटली तथा जर्मनी में एकीकरण आन्दोलनों का विकास हुआ। 1859 में एकीकृत इटली का संविधान बना, डेनमार्क में 1864 में संसदीय व्यवस्था की स्थापना हुई, आस्ट्रिया और हंगरी में 1869 में नए संविधान बने और फ्रांस में 1875 में तृतीय गणतन्त्र की स्थापना हुई। इस तरह संविधानवाद का सीमित विकास हुआ। 1874 में स्विट्रलैंड में भी आधुनिक ढंग के संविधान का निर्माण हुआ, जो आज तक भी प्रचलित है। इसमें जनमत संग्रह की व्यवस्था द्वारा जनता को ही महत्वपूर्ण स्थान दिया गया। 1889 में जापान के सम्राट ने भी वैधानिक शासन की स्थापना के लक्ष्य को प्राप्त करने वाले नए संविधान पर हस्ताक्षर किए। 1875 में कनाडा में भी एक नए संविधान का निर्माण किया गया। इस तरह संविधानवाद में नई नई प्रवृत्तियों का विकास हुआ और संविधानवाद में आधुनिकता के तत्वों का समावेश होता गया।

प्रथम विश्वयुद्ध से द्वितीय विश्वयुद्ध तक संविधानवाद

प्रथम विश्वयुद्ध के बाद संविधानवाद का विकास नए ढंग से हुआ। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद संविधानवाद यूरोपीय सीमाओं को लाँघकर सार्वभौमिकता की तरफ बढ़ने लगा। युद्ध के बाद सभी देशों ने लोकतन्त्रीय संविधानों का निर्माण शुरु किया। राष्ट्र संघ की स्थापना ने संविधानवाद के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस दौरान इटली में फासीवाद तथा जर्मनी में नाजीवाद के उदय ने संविधानवाद को गहरी क्षति भी पहुंचाई। इसी तरह रूस में भी साम्यवाद के प्रादुर्भाव ने संविधानवाद के लोकतन्त्रीय सिद्धान्तों का त्याग कर दिया। लेकिन इसके बावजूद भी नए लिखित संविधानों में वैयक्तिक स्वतन्त्रता, लोकसत्ता और राष्ट्रीयता को महत्वपूर्ण स्थान मिला। लेकिन यह व्यवस्था आडम्बरपूर्ण थी। 1922 में मुसोलिनी ने इटली में तथा 1933 में हिटलर ने जर्मनी में संविधान के आदर्शों के विपरीत अपनी निरंकुश सत्ता स्थापित करके संवैधानिक शासन की धज्जियां उड़ा दी। ऐसे वातावरण में 1936 में स्पेन में जनरल फ्रांको ने भी प्रचलित गणतन्त्रात्मक संविधान का उल्लंघन कर दिया। इस स्थिति में बेल्जियम, नीदरलैंड, डेनमार्क और चकोस्लोवाकिया आदि राज्यों ने अपनी संसदीय व्यवस्था की बड़ी मुस्किल से रक्षा की।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद संविधानवाद 

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद धुरी शक्तियों का नामोनिशान मिट गया और संविधानवाद का मार्ग अवरुद्ध करने की उनमें कोई शक्ति नहीं रही। लेकिन इसके बाद संविधानवाद का साम्यवादी प्रतिमान उभरने लगा। अनेक देशों में सोवियत संघ के मार्गदर्शन में साम्यवादी सरकारों की स्थापना ने लम्बे समय तक संविधानवाद साम्यवादी तरीके से विकास किया। उधर अमेरिका के झण्डे तले पाश्चात्य संविधानवाद का पाश्चात्य प्रतिमान ही लागू करने के प्रयास जारी रहे। नवोदित तृतीय विश्व के राष्ट्रों ने संविधानवाद का नया प्रतिमान विकसित किया। इस तरह संविधानवाद के नए-नए प्रतिमान उभरे। उपनिवेशवाद तथा साम्राज्यवाद की पकड़ ढीली होने से स्वतंत्र राष्ट्रों ने अपने अपने संविधान बनाने आरम्भ कर दिए। जापान ने 1946 में संविधान का नया प्रारूप स्वीकार किया जो प्रजातांत्रिक तथा शांतिवादी सिद्धान्तों पर आधारित था। वह प्रारूप जापान में आज भी विद्यमान है। 1947 में भारत ने ब्रिटेन से औपनिवेषिक स्वतन्त्रता प्राप्त करके 1950 में अपना तथा प्रजातन्त्रीय संविधान लागू किया। 1949 में चीनी क्रान्ति के बाद माओ के नेतृत्व में चीन में जनवादी गणतन्त्र की स्थापना हुई। चीन में 1954 में समाजवादी संविधान बनाया गया, लेकिन उसके बाद 1975ए 1978 तथा 1982 में चौथी बार संविधान का निर्माण हुआ। अन्तिम संविधान चीनी जनकांग्रेस ने व्यापक विचार-विमर्श के बाद ही तैयार किया है और उसका रूप आज भी वही है। इसके बाद बर्मा, इण्डोनेशिया, श्रीलंका आदि राष्ट्रों ने भी अपने नए संविधान बनाए। 1958 में फ्रांस के पांचवे गणतन्त्रीय संविधान का निर्माण हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना ने संविधानवाद की रक्षा करने के प्रयास किए हैं। अनेक राष्ट्रों की संस्था के रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ का चार्टर सभी राष्ट्रों के लिए लोकतन्त्रीय सिद्धान्तों के आदर्श के रूप में कार्यरत हैं।

यद्यपि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ईराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान आदि राष्ट्रों में सैनिक शासन व निरंकुशतावादी ताकतों के प्रादुर्भाव से संविधानवाद को गहरा आघात भी पहुंचा है। अमेरिका ने अफगानिस्तान और इराक की फासीवादी ताकतों को समाप्त करके वहां अपना कठपुतली अस्थायी शासन तो स्थापित कर लिया है, लेकिन वहां संवैधानिक सरकार जैसी कोई वस्तु नहीं है। वहां पर अराजकता की स्थिति में संविधानवाद की कल्पना करना असम्भव है। इसी तरह पाकिस्तान में सैनिक शासन के कारण आज संविधानिक सरकार के अभाव में संविधानवाद नहीं है। लेकिन आज जनता की आवाज संविधानवाद के लिए नया मार्ग तलाश करने को तैयार है। पाकिस्तान, ईराक व अफगानिस्तान में भी वहां की जनता का रुझान प्रजातन्त्रीय सिद्धान्तों के प्रति अधिक है। आज विश्व में संविधानवाद का रास्ता रोकने वाली ताकत अधिक मजबूत नहीं हैं। संविधानवाद का रास्ता रोकने वाली ताकतों का जो हर्ष ईराक व अफगानिस्तान में हुआ है, वही अन्य देशों में भी हो सकता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि आज संविधानवाद विकास के मार्ग पर अग्रसर है।

संविधानवाद की अवधारणाएं

संविधानवाद संविधान पर आधारित अवधारणा है। संविधान जनता का सर्वोच्च कानून होता है। प्रत्येक देश के संविधान के अपने राजनीतिक आदर्श व मूल्य होते हैं। प्रत्येक देश की संस्कृति के अपने गुण अन्य देशों से भी साम्य रखने के कारण कई देशों मेंं सांझे संविधानवाद का विकास हो जाता है। यद्यपि यह तो सत्य है कि समस्त विश्व में एक संविधानवाद नहीं हो सकता, क्योंकि विश्व के देशों की संस्कृति में काफी अन्तर है। इसी आधार पर संविधान भी अलग अलग होते हैं और संविधानवाद भी। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व में तीन तरह का संविधानवाद विकसित हुआ है। इस आधार पर संविधानवाद की तीन अवधारणाएं हैं :-
  1. संविधानवाद की पाश्चात्य अवधारणा (Western Concept of Constitutionalism)।
  2. संविधानवाद की साम्यवादी अवधारणा (Marxist or Communist Concept of Constitutionalism)।
  3. संविधानवाद की विकासशील देशों की अवधारणा (Concept of Consitutionalism of Developing Countries)।

संविधानवाद की पाश्चात्य अवधारणा

इस अवधारणा को उदारवादी लोकतन्त्र की अवधारणा भी कहा जाता है। यह अवधारणा मूल्य मुक्त तथा मूल्य अभिभूत दोनों व्याख्याओं पर आधारित हैं। मूल्य मुक्त अवधारणा के रूप में इसमें केवल संविधानिक संस्थाओं का वर्णन किया जाता है, संविधानवाद के आदर्शों व मूल्यों का नहीं। जब राजनीतिक समाज के आदर्शों और मूल्यों के दृष्टिगत संविधानवाद की व्याख्या की जाती है तो वह मूल्य-अभिभूत व्याख्या कहलाती है। मूल्य अभिभूत व्याख्या ही आधुनिक लोकतन्त्र की मांग है। संविधानवाद की पाश्चात्य अवधारणा उदारवाद का दर्शन है। यह संविधानवाद साध्य और साध्य दोनों है। इसमें राजनीतिक संस्थाओं के ढांचे के साथ-साथ राजनीतिक समाज के मूल्यों, आदर्शों (स्वतंत्रता, समानता, न्याय) को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है। यह संविधानवाद प्रतिबन्धों की व्यवस्था द्वारा सीमित सरकार की व्यवस्था करता है और कुछ संविधानिक उपबन्धों द्वारा राजनीतिक उत्तरदायित्व के सिद्धान्त का भी प्रतिपादन करता है। इससे व्यक्ति की स्वतंत्रता व अधिकारों का बचाव होता है और विधि के शासन द्वारा समाज में सुव्वस्था बनी रहती है। पश्चिमी संविधानवाद में संविधान का महत्व सरकार से अधिक होता है क्योंकि सरकार का निर्माण संविधान के बाद में होता है। इस संविधानवाद में संवैधानिक सरकार संविधान के आदर्शों को मानने के लिए बाध्य प्रतीत होती है। संवैधानिक उपबन्ध तथा उत्तरदायित्व का सिद्धान्त उसे संविधानात्मक बनाए रखने में मदद करते हैं। इस तरह पाश्चात्य संविधानवाद लोकतन्त्रीय भावना पर आधारित होता है।

पाश्चात्य संविधान के आधार

पाश्चात्य संविधानवाद के आधार - संस्थागत व दार्शनिक हैं। दार्शनिक आधार साध्यों के संकेतक हैं और संस्थागत आधार इन साध्यों को व्यवहार में प्राप्त करने के साधनों की व्यवस्था है। इन्हीं आधारों पर पाश्चात्य संविधानवाद आधारित हैं। ये आधार इन ढंग से समझे जा सकते हैं :-

दार्शनिक आधार

प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था के कुछ मूलभूत लक्ष्य होते हैं। इन्हीं लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए वह व्यवस्था गतिशील रहती हैं। यह जरूरी नहीं है कि सभी पाश्चात्य देशों में राजनीतिक व्यवस्थाओं के लक्ष्य समान हों इसलिए पाश्चात्य संविधानवाद के चार दार्शनिक आधार हैं :-
  1. व्यक्ति की स्वतन्त्रता :- यह पाश्चात्य संविधानवाद का प्रमुख साध्य है। समस्त संविधानवाद पाश्चात्य राजनीतिक व्यवस्थाओं में इसी साध्य के आसपास घूमता है। इस साध्य में राजनीतिक संस्थाएं व्यक्ति की मदद करती हैं। व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए व्यक्ति की स्वतंत्रता को पाश्चात्य राजनीतिक व्यवस्थाओं में साध्य का दर्जा दिया गया है। यदि व्यक्ति को असीमित स्वतंत्रता प्रदान की गई तो वह निरंकुशतावादी बन जाएगा और समाज में अराजकता की स्थिति पैदा हो जाएगी, इसलिए व्यक्ति को सीमित स्वतन्त्रता ही दी गई है।
  2. राजनीतिक समानता :- पाश्चात्य संविधानवाद राजनीतिक शक्ति की सर्वोच्चता को प्रतिबन्धित करते हुए उसे विभिन्न वर्गों में बांटता है। यदि राजनीतिक शक्ति का असमान वितरण किया गया तो सदैव राजनीतिक शक्ति के दुरुपयोग की संभावना बढ़ जाएगी। इसलिए राजनीतिक शक्ति को समान सहभागिता का रूप दिया जाना जरूरी है। पाश्चात्य संविधानवाद का प्रमुख लक्ष्य व्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ-साथ राजनीतिक समानता का लक्ष्य भी अपनाया गया है। राजनीतिक समानता द्वारा इसमें राजनीतिक शक्ति को निरंकुश बनने से रोकने की उचित व्यवस्था है।
  3. सामाजिक और आर्थिक न्याय :- यदि राजनीतिक सत्ता समाज के समसत वर्गों तथा व्यक्तियों के लिए सामाजिक व आर्थिक न्याय की स्थापना नहीं करेगी तो समाज में आर्थिक और सामाजिक विषमताएं चरम सीमा पर पहुंच कर संविधानिक व्यवस्था को ही चुनौती देने लगेंगी। इससे व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अन्त के साथ-साथ सामाजिक विघटन की स्थिति पैदा हो जाएगी। इसलिए पाश्चात्य या उदार लोकतन्त्रात्मक संविधानवाद में सामाजिक तथा आर्थिक न्याय को महत्वपूर्ण साध्य माना जाता है ताकि व्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ साथ सामाजिक व आर्थिक न्याय की व्यवस्था बनी रहे।
  4. लोक-कल्याण की भावना :- पाश्चात्य संविधानवाद का प्रमुख लक्ष्य जनकल्याण है। खुली प्रतिस्पर्धा और आर्थिक साधनों के अभाव में आर्थिक व सामाजिक विषमता के शिकार लोगों को ऊपर उठाने के लिए पाश्चात्य संविधानवाद में विशेष गुण पाए जाते हैं। पाश्चात्य देशों में समाज के पिछड़े वर्गों के लिए सरकार विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं को अपनी संविधानिक व्यवस्था में ही स्थान देती है। उदारवादी लोकतन्त्रीय देशों में शासन-व्यवस्था का प्रमुख लक्ष्य जन-कल्याण को बढ़ावा देना है ताकि अधिकतम व्यक्तियों के लिए अधिकतम सुख के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके। इसी साध्य से अन्य साध्यों को गति प्राप्त होती है।

संस्थागत आधार 

पाश्चात्य संविधानवाद के संस्थागत आधार दार्शनिक आधारों को अमली जामा पहनाते हैं। इसके लिए राजनीतिक शक्ति को विभिन्न राजनीतिक संस्थाओं में वितरित किया जाता है। इससे सरकार को सीमित व उत्तरदायी बनाया जाता है। इसके लिए पाश्चात्य संविधानवाद में राजनीतिक व्यवस्थाओं की शक्ति को निम्नलिखित तरीकों से नियन्त्रित रखा जाता है:-
  1. लोकतन्त्रीय सरकार का गठन :- लोकतन्त्रीय सरकार जनता की प्रतिनिधि होती है। जनता ही राजनीतिक शक्ति का अन्तिम स्रोत मानी जाती है। जिस सरकार का गठन जनता द्वारा किया जाता हो और वह जनता के प्रति ही उत्तरदायी हो, वह कभी निरंकुश नहीं बन सकती। उदारवादी लोकतन्त्रों में ऐसी ही सरकारों को प्राथमिकता दी जाती है।
  2. प्रतिनिधि सरकार :- जब लोकतन्त्रीय सरकार प्रतिनिधि सरकार होगी तो वह सीमित रहेगी। राजनीतिक समाज के प्रत्येक वर्ग को न केवल चुनावों में प्रतिनिधित्व प्राप्त हो बल्कि सरकार के गठन में प्रतिनिधित्व प्राप्त हो। सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व न मिलने से प्रतिनिधित्व से हीन वर्ग राजनीतिक सत्ता के विरुद्ध विद्रोह कर सकता है। इसलिए उचित प्रतिनिधित्व की व्यवस्था के अभाव में सरकार सही अर्थों में संस्थागत व्यवस्थाओं से सीमित व प्रतिबंधित नहीं बन सकती।
  3. सामाजिक बहुलवाद :- राजनीतिक समाज में अनेक वर्गों व संघों का पाया जाना स्वाभाविक है। बहुल समाज में सभी वर्गों के हितों में तालमेल बैठाना सरकार का उत्तरदायित्व बनता है। यदि सरकार वर्ग विशेष के हितों की रक्षा करने वाली होगी तो सामाजिक बहुलवाद को धक्का लगेगा और समाज की विघटनकारी ताकतें सुविधाहीन वर्ग के साथ मिलकर सरकार की वैधता को ही चुनौती देने लगेंगे। अत: सरकार को सीमित रखने में सामाजिक बहुलवाद की व्यवस्था महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकती है। 
  4. खुला समाज अथवा सामाजिक गतिशीलता :- खुला समाज, वास्तव में व्यक्ति के लिए सामाजिक गतिशीलता की व्यवस्था ही है। ऐसा समाज सभी परम्परागत, कानूनी तथा अन्य रूढ़िवादी बन्धनों से मुक्त होता है। ऐसा समाज अन्त:करण, अभिव्यक्ति और भाषण की स्वतंत्रता पर आधारित होता है और समाज के हर व्यक्ति और वर्ग को वैध संघ या संस्था बनाने की छूट होती है। ऐसे समाज में ही राजनीतिक व्यवस्था उन्मुक्त बन सकती हैें और लोकतन्त्रीय रूप ग्रहण कर सकती है। ऐसा समाज किसी विशेष दर्शन से मुक्त रहता है क्योंकि विशेष दर्शन से युक्त समाज में संस्थागत सरकारों पर नियंत्रण करना असम्भव होता है। संस्थागत सरकारों पर स्वयं के दर्शन से रहित खुले समाज में ही सम्भव है।

पाश्चात्य संविधानवाद के तत्व 

पाश्चात्य देशों में संविधान के दो तत्व - सीमित सरकार की परम्परा तथा राजनीतिक उत्तरदायित्व का सिद्धान्त हैं।

सीमित सरकार 

पाश्चात्य राजनीतिक समाजों में सीमित सरकार की परम्परा का विकास लोकतन्त्र के विकास के साथ ही हुआ है। राजनीतिक शक्ति को नियन्त्रित व उत्तरदायी बनाने के लिए पाश्चात्य समाजों में अनेकों संस्थागत व्यवस्थाएं की गई हैं। पश्चिमी देशों में जैसे लोकतन्त्रीय सिद्धान्तों का विकास होता गया वैसे-वैसे सरकार को नियन्त्रित करने की विधियां भी विकसित होती गई। पाश्चात्य देशों में सरकार को सीमित रखने के लिए निम्नलिखित संस्थागत तरीके अपनाए जाते हैं :-
  1. विधि का शासन - यह शासन इंग्लैण्ड के संविधानवाद की देन है। यह शासन व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करने तथा किसी शासक की तानाशाही रोकने का सबसे अच्छा व प्रभावी उपाय है। जब किसी देश में किसी व्यक्ति का शाासन न होकर कानून का शासन होता है तो वहां व्यक्ति की स्वतन्त्रता को कोई हानि नहीं पहुंच सकती। कानून के सामने सभी व्यक्ति समान होते हैं और समस्त राजकीय व प्रशासनिक गतिविधियां कानून द्वारा नियन्त्रित रहती हैं। यह सच्चे संविधानवाद का आधारभूत तत्व होता है। पिनाक एवं स्मिथ ने पाश्चात्य देशों के संविधानवाद में कानून के शासन की व्यवस्था के बारे में कहा है-”विधि का शासन का सिद्धान्त पश्चिमी संविधानवाद की सबसे शक्तिशाली और गहरी परम्परा है। इसी तरह चाल्र्स मैकलवेन ने लिखा है-”कानून का शासन पश्चिमी जगत में सरकार पर एक आधारभूत प्रतिबन्ध है और यही संविधानवाद का अति प्राचीन और क्रमिक आधार है।” इस तरह कानून के शासन द्वारा शासक-वर्ग पर नियन्त्रण रखकर सीमित सरकार की परम्परा को विकसित किया जाता है।
  2. मौलिक अधिकारों व स्वतन्त्रताओं की व्यवस्था - मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रताओं की व्यवस्था पाश्चातय संविधानवाद का आधारभूत स्तम्भ है। संविधान में अधिकारों व स्वतंत्रताओं की व्यवस्था करके सरकार के कार्यों को मर्यादित किया जाता है। इससे सरकार का कार्यक्षेत्र निश्चित होता है और सरकार की निरंकुशता पर रोक भी लगती है। अधिकारों की स्वीकृति ही सामाजिक गतिशीलता को जन्म देती है और सामाजिक विभिन्नताओं को एकता के सूत्र में बांधने का सबसे अच्छा उपाय भी सााबित होती है। इनके द्वारा सामाजिक न्याय की प्राप्ति भी सम्भव हो जाती है। प्राय: पाश्चात्य संविधानों में चार प्रकार की स्वतंत्रताएं प्रदान की जाती हैं - (i) व्यक्ति की स्वतंत्रता (ii) अन्त:करण अथवा आत्मा व मस्तिष्क की स्वतंत्रता (iii) समान लाभ व अवसरों की स्वतंत्रता (iv) राजनीतिक गतिविधियों की स्वतन्त्रता। इन स्वतंत्रताओं में राजनीतिक स्वतंत्रता अन्य स्वतन्त्रताओं के लिए आधार-स्तम्भ के रूप में कार्य करती है। कोई भी व्यक्ति या संस्था इन अधिकारों व स्वतन्त्रताओं का उल्लंघन नहीं कर सकता। बहुमत पर आधारित शासन में अल्पसंख्यकों पर अत्याचार व अन्याय रोकने का भी ये सबसे प्रभावशाली प्रावधान है। इस तरह मौलिक अधिकार और स्वतंत्रताएं पश्चिमी संविधानवाद की महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
  3. राजनीतिक शक्ति का विभाजन, पृथक्करण, विकेन्द्रीकरण व नियन्त्रण - पाश्चात्य संविधानवाद में शक्ति विभाजन का महत्वपूर्ण स्थान है। राजनीतिक शक्ति का केन्द्रीय स्तर से स्थानीय स्तर तक विकेन्द्रीकरण करके राजनीतिक शक्ति के केन्द्रीयकरण को रोका जाता है और इसके दुरुपयोग की सम्भावना कम की जाती है। राजनीतिक शक्ति का विभाजन होने से सभी शक्तियां अपने अपने अधिकार क्षेत्र में ही रहकर कार्य करने को विवश होती है और दूसरे के क्षेत्राधिकार में प्रवेश नहीं करती। राजनीतिक शक्ति का विभाजन के साथ-साथ कार्यपालिका, व्यवस्थापिका तथा न्यायपालिका को अलग अलग शक्तियां सौंप दी जाती हैं। यदि राजनीतिक शक्ति तीनों के पास रहेगी तो उनके अपने अपने स्वतंत्र अधिकार क्षेत्र होने के कारण वे एक दूसरे के नियन्त्रक भी बने रहेंगे। पिनॉक तथा स्मिथ ने लिखा है-”पाश्चात्य संविधानवाद का सार शक्तियों के पृथक्करण में निहित है।” राजनीतिक शक्ति के विकेन्द्रीकरण के रूप में संसद के दोनों सदनों के पास अलग-अलग शक्तियां होती हैं और एक सदन दूसरे सदन की निरंकुशता पर रोक लगाने का प्रभावी साधन बनता है। इस तरह शक्तियों का विकेन्दीकरण भी सरकार को सीमित रखने का महत्वपूर्ण साधन है। इस तरह पाश्चात्य संविधानवाद में एक शक्ति को दूसरी शक्ति का नियन्त्रण बनाने के लिए राजनीतिक शक्ति का विभाजन किया जाता है, राजनीतिक शक्ति को केन्द्रीय, क्षेत्रीय और स्थानीय सरकारों में विभाजित करके संघात्मक व्यवस्था द्वारा राजनीतिक शक्ति पर नियंत्रण रखा जाता है। सरकार के तीनों अंगों को अलग-अलग शक्तियां सौंपकर उनके अधिकार क्षेत्र की व्याख्या कर दी जाती है ताकि वे एक दूसरे पर नियन्त्रण रखें। राजनीतिक संस्थाओं की शक्ति का विकेन्द्रीकरण करके शक्तियों के सदुपयोग को सुनिश्चित किया जाता है क्योंकि इसमें कार्यपालिका की शक्तियां केन्द्रीय स्तर से स्थानीय स्तर तक विकेन्द्रित कर दी जाती हैं। राजनीतिक शक्तियों के विभाजन, पृथक्करण व विकेन्द्रीकरण द्वारा राजनीतिक शक्ति का दुरुपयोग रूक जाता है और संसद के दो सदनों की व्यवस्था करके, दोनों को एक दूसरे पर आश्रित करके, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका का इन पर अंकुश लगाकर राजनीतिक सत्ता पर नियन्त्रण स्थापित किया जाता है। इस प्रकार शक्तियों के विभाजन, पृथक्करण तथा विकेन्द्रीकरण द्वारा सरकार को सीमित रखा जाता है।
  4. स्वतन्त्र व निष्पक्ष न्यायपालिका ;- पाश्चात्य देशों की शासन-व्यवस्था में न्यायपालिका को कार्यपालिका तथा विधानपालिका के हस्तक्षेप से मुक्त रखा जाता है। स्वतन्त्र व निष्पक्ष न्यायपालिका ही संवैधानिक प्रतिबन्धों को अमली जामा पहनाती है, यह सरकार को संवैधानिक बनाती है और राजनीतिक शक्तियों का दुरुपयोग रोकती है। न्यायपालिका ही कानून के शासन की स्थापना करती है और सरकार की शक्तियों को सीमित रखती है। निर्णायक शक्ति के कारण न्यायपालिका, कार्यपालिका तथा विशायिका की निरंकुशता पर रोक लगाती है और कानून का शासन कायम रखती है। निष्पक्ष न्यायपालिका ही पाश्चात्य संविधानवाद की प्रमुख विशेषता है। पीटर एच0 मार्क के अनुसार-”स्वतन्त्र व निष्पक्ष न्यायपालिका आधुनिक संवैधानिक सरकार को सबसे अधिक महत्वपूर्ण लक्ष्यों में से एक है।” अत: स्वतन्त्र व निष्पक्ष न्यायपालिका आधुनिक शासन-व्यवस्था की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है।

राजनीतिक उत्तरदायित्व 

पश्चिमी संविधानवाद की महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि उसने शासन के प्रत्येक अंग को जनता के प्रति उत्तरदायी बनाने की व्यवस्था की है। नागरिकों के प्रति सरकार का उत्तरदायित्व पाश्चात्य संविधानवाद का आधारभूत लक्षण है। पाश्चात्य संविधानवाद में राजनीतिक उत्तरदायित्व प्रजातन्त्र का मेरुदण्ड है। पाश्चात्य संविधानवाद में राजनीतिक शक्ति को जनता के प्रति जवाबदेह बनाने के लिए संस्थागत उपाय किए गए हैं :-
  1. निश्चित समय के बाद चुनाव - पाश्चात्य देशों की राजनीतिक व्यवस्थाओं में निश्चित अवधि के बाद चुनावों को बहुत महत्वपूर्ण तरीके से सम्पन्न कराया जाता है। चुनावों के द्वारा ही सरकार के औचित्यपूर्ण कार्यों की समीक्षा की जाती है। चुनाव जनता के हाथ में महत्वपूर्ण शस्त्र होता है जिसका प्रयोग जनता जन-विरोधी सरकार को बदलने के लिए प्रयोग करती है। चुनाव की तलवार सदैव शासक-वर्ग को जनहित के प्रति जागरुक बनाए रखती है। कई बार मध्यावधि चुनाव भी सरकार की वैधता की परीक्षा करते हैं। शासन की बागडोर अपने हाथ में लेने के लिए शासक वर्ग सदैव जनता के कल्याण पर ही ध्यान देने के प्रयास करता रहता है। चुनाव ही संविधानवाद को अमली जामा पहनाता है। चुनावों की व्यवस्था सरकार को उत्तरदायी बनाने का महत्वपूर्ण साधन है।
  2. राजनीतिक दलों की व्यवस्था - राजनीतिक दल जन इच्छा की अभिव्यक्ति का महत्वपूर्ण साधन है। राजनीतिक दलों के बिना राजनीतिक उत्तरदायित्व की स्थापना नहीं हो सकती। दलों के माध्यम से ही नागरिक अपनी विशिष्ट नीतियां प्रकाश में लाते हैं। राजनीतिक दल लोगों को जागरूक बनाते हैं और सरकार व समाज के बीच कड़ी का काम भी करते हैं। राजनीतिक दल जनता की भावना को सरकार तक पहुंचाकर उसे सचेत करते रहते हैं। पाश्चात्य संविधानवाद में एक से अधिक दलों को महत्व देकर उनके द्वारा राजनीतिक व्यवस्था को गतिशील बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने की व्यवस्था है। पश्चिमी संविधानवाद की मान्यता है कि एक दल राजनीतिक उत्तरदायित्व के स्थान पर राजनीतिक निरंकुशता को जन्म देता है। ऐसी व्यवस्था तो साम्यवादी संविधानवाद में पाई जाती है। पश्चिमी देशों में बहुदलीय पद्धति विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधित्व के माध्यम से लोकतन्त्र को मजबूत बनाने का महत्वपूर्ण तरीका है। इसमें विरोधी दल की भूमिका के कारण सत्तारूढ़ दल सरकार की भूमिका का निर्वहन करते समय जनता की आवाज को पहचानने में कभी चूक नहीं करता। इस प्रकार राजनीतिक दलों की भूमिका सरकार को उत्तरदायी बनाये रखती है।
  3. प्रैस की स्वतन्त्रता - पाश्चात्य देशों में प्रैस को सबसे अधिक स्वतन्त्रता प्रदान की गई है। समाचार पत्र जनमत को व्यक्त करने वाले प्रभावशाली साधन हैं। समाचार पत्र जनता की आवाज सरकार तक पहुंचाकर सरकार को जन-कल्याण के प्रति सचेत करते रहते हैं और उसे अपने जन-उत्तरदायित्व का निर्वहन करने को बाध्य भी करते हैं। इसलिए प्रैस की स्वतन्त्रता राजनीतिक उत्तरदायित्व का महत्वपूर्ण साधन है।
  4. लोकमत का महत्व - जनमत प्रजातन्त्र का प्राण है। समाचारपत्र, रेडियो, दूरदर्शन आदि जनमत को अभिव्यक्त करने वाले प्रमुख साधन हैं। लोकमत एक ऐसा प्रभावशाली अस्त्र है जो सरकार को बनाने या गिराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसकी स्पष्ट अभिव्यक्ति चुनावों के समय होती है। इसको प्रत्येक देश में महत्व दिया जाता है। लोकमत के आगे निरंकुश सरकार भी झुकने को विवश हो जाती है। अत: लोकमत सरकार को उत्तरदायी बनाने का महत्वपूर्ण साधन है।
  5. परम्पराएं और सामाजिक बहुलवाद - प्रत्येक राजनीतिक समाज में गैर-राजनीतिक समूहों व संस्थाओं का सरकार पर दबाव बनाने के लिए विशेष महत्व होता है। ये समूह इतने शक्तिशाली होते हैं कि कई बार ये अप्रत्यक्ष रूप में सरकार को बनाने और गिराने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। ये सरकार पर अपने अपने हितों को प्राप्त करने के लिए अनुचित दबाव भी डाल देते हैं। लेकिन प्रतिरोधी समूह या संघ सरकार को ऐसा करने से रोकते हैं। इस तरह सरकार की शक्तियां मर्यादित बनी रहती हैं। जिस देश में लोकतन्त्रीय परम्पराएं बहुत मजबूत होती हैं, वहां सरकार इन परम्पराओं और उनके सजग प्रहरी गैर राजनीतिक समुदायों की उपेक्षा नहीं कर सकती। उसे सामाजिक बहुलवाद का सम्मान हर अवस्था में करना ही पड़ता है। सुस्थापित परम्पराओं और सामाजिक समूहों की उपेक्षा करने का अर्थ होगा राजनीतिक अराजकता को बुलावा देना।
इस प्रकार पाश्चात्य देशों में सीमित सरकार और राजनीतिक उत्तरदायित्व के सिद्धान्त को महत्व दिया गया है। इन देशों में सरकार को सीमित रखने के लिए विशेष संस्थागत प्रावधान किए गए हैं। कानून के शासन व निष्पक्ष न्यायपालिका द्वारा सरकार की निरंकुशता पर रोक लगाकर उसे जनता के प्रति उत्तरदायी बनाने के लिए भी विशेष प्रावधान किए गए हैं। इन प्रावधानों के होते सरकार अपने क्षेत्राधिकार का अतिक्रमण करने में संकोच करती है। समय पर चुनावों, राजनीतिक दलों व प्रैस की स्वतन्त्रता के द्वारा पाश्चात्य देशों में शासन-व्यवस्था को जनता के प्रति उत्तरदायी बनाने के विशेष उपाय किए गए हैं। पाश्चात्य संविधानवाद की यही सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इसमें सरकार मर्यादित व उत्तरदायी बनी रहकर जन-कल्याण के कार्य करती है।

संविधानवाद की साम्यवादी अवधारणा 

साम्यवादी देशों में संविधानवाद की अवधारणा पाश्चात्य संविधानवाद से सिद्धान्त में साम्य रखते हुए भी व्यवहारिक दृष्टिकोण से काफी भिन्न हैं। इस अवधारणा की दृष्टि में संविधान का उद्देश्य सबके लिए स्वतन्त्रता, समानता, न्याय और अधिकार निश्चित करना न होकर, बल्कि समाजवाद की स्थापना करना है। यह संविधानवाद माक्र्स व लेनिन के वैज्ञानिक समाजवादी विचारों पर आधारित है। समस्त साम्यवादी संविधानवाद सोवियत संविधान के इर्द-गिर्द ही घूमता है और सोवियत संविधान का निर्माण समाजवादी तत्वों से हुआ है। साम्यवादी देशों में सरकार व शक्ति का अर्थ पाश्चात्य देशों के दृष्टिकोण से बिल्कुल विपरीत है। इसी आधार पर संविध् ाानवाद में भी भिन्नता आ जाती है। साम्यवादी सरकार को पूंजीपति वर्ग के हाथ की कठपुतली मानते हैं, जो धनिक वर्ग के हितों की ही पोषक होती है। उनके अनुसार राजनीतिक शक्ति का आधार आर्थिक शक्ति है। उत्पादन शक्ति के धारक होने के कारण पूंजीपति राजनीतिक सत्ता के भी स्वामी होते हैं। इसलिए राजनीतिक शक्ति और मौलिक अधिकारों का प्रयोग जनसाधारण की बजाय अमीर लोग ही करते हैं। इसलिए पाश्चात्य जगत में मौलिक अधिकारों की व्यवस्था राजनीतिक शक्ति प्राप्त लोगों के लिए ही रहती है। राजनीतिक शक्ति पर किसी प्रकार के नियन्त्रण की बात करना मूर्खता है, क्योंकि आर्थिक व राजनीतिक शक्ति से सम्पन्न सरकार पर कोई भी नियन्त्रण प्रभावी नहीं हो सकता। इसलिए राजनीतिक शक्ति पर नियन्त्रण केवल तभी सम्भव है, जब आर्थिक शक्ति पर नियन्त्रण लगाया जाए।

साम्यवादी संविधानवाद आर्थिक शक्ति पर नियन्त्रण करने के लिए ऐसी समाजवादी व्यवस्था की स्थापना पर जोर देते हैं जो आर्थिक साधनों का बंटवारा समाज की सभी व्यक्तियों या वर्गों में कर दे। उनका मानना है कि आर्थिक शक्ति के विकेन्द्रीकरण से राजनीतिक शक्ति भी समस्त समाज के हाथ में आ जाएगी और सरकार की नीतियों का लाभ सभी व्यक्तियों को मिलने लगेगा। साम्यवादी विचारकों का मानना है कि आर्थिक शक्ति पर नियन्त्रण राजनीतिक शक्ति पर भी स्वयं नियन्त्रण रखने लग जाएगा।

संविधानवाद की साम्यवादी अवधारण की मान्यताएं

साम्यवादी संविधानवाद की अवधारणा इन मान्यताओं पर आधारित है :-
  1. शक्ति के आर्थिक पक्ष की सर्वोच्चता :- साम्यवादियों का मानना है कि सामाजिक जीवन में आर्थिक शक्ति की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। जिस व्यक्ति के पास आर्थिक शक्ति होती है, वह सम्पूर्ण समाज पर अपना प्रभुत्व कायम करने व रखने में सफल होता है। इसी व्यवस्था के कारण वर्ग-संघर्ष का जन्म होता है और शोषण व अन्याय की शुरुआत होती है। इसलिए वर्ग-संघर्ष व शोषण को रोकने के लिए आर्थिक शक्ति का बंटवारा समाज के समस्त व्यक्तियों के हाथ में होना चाहिए।
  2. समाज में आर्थिक शक्ति से सम्पन्न वर्ग का प्रभुत्व :- आर्थिक शक्ति की सर्वोच्चता एक आर्थिक शक्ति सम्पन्न वर्ग को जन्म देती है। व्यवहार में इसी शक्ति से सम्पन्न वर्ग का राजनीतिक शक्ति पर भी नियन्त्रण रहता है। समस्त समाज आर्थिक शक्ति सम्पन्न वर्ग के निर्देशानुसार ही संचालित होता है।
  3. राजनीतिक शक्ति का आर्थिक शक्ति के अधीन होना :- आर्थिक शक्ति से सम्पन्न वर्ग राजनीतिक शक्ति को भी आर्थिक शक्ति के अधीन कर देता है। समाज की सभी संस्थाएं आर्थिक शक्ति के आगे झुकने को मजबूर हो जाती हैं। इसलिए नियन्त्रण राजनीतिक शक्ति की बजाय आर्थिक शक्ति पर ही लगाए जाने चाहिए। 
इससे स्पष्ट होता है कि साम्यवादी देशों में राजनीतिक शक्ति की बजाय आर्थिक शक्ति पर नियन्त्रण रखने हेतु संवैधानिक प्रावधान किए जाते हैं। साम्यवादी धारणा के अनुसार नियन्त्रणों की संस्थागत व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य आर्थिक शक्ति को सार्वजनिक सत्ता के अधीन करना है। यद्यपि सामाजिक मूल्यों, राजनीतिक आदर्शों और संस्थाओं की प्राप्ति के लिए साम्यवादी देशों में भी पाश्चात्य देशों के समान ही संस्थागत व्यवस्थाएं की गई हैं। साम्यवादी देशों में भी पाश्चात्य संविधानवाद की तरह लिखित व सर्वोच्च संविधान, शक्तियों का विभाजन व पृथक्करण, नागरिकों के मौलिक अधिकार, सरकार का उत्तरदायित्व, कानून का शासन आदि की सैद्धान्तिक रूप में संस्थागत व्यवस्थाएं की गई हैं, लेकिन व्यवहार में इन व्यवस्थाओं का कोई महत्व नहीं है। साम्यवादी देशों में साम्यवादी समाज की आर्थिक शक्ति पर नियन्त्रण रखने हेतु व्यवहार में निम्नलिखित तरीके प्रयोग में लाए जाए जाते हैं :-
  1. उत्पादन व वितरण के साधनों पर सार्वजनिक स्वामित्व :- साम्यवादियों का मानना है कि आर्थिक साधनों पर निजी स्वामित्व आर्थिक शक्ति को कुछ पूंजीपतियों तक ही सीमित कर देता है। इससे वर्ग-संघर्ष का जन्म होता है। आर्थिक शक्ति से सम्पन्न वर्ग राजनीतिक सत्ता प्राप्त करके समाज के बहुसंख्यक श्रमिक वर्ग का शोषण करना शुरु कर देता है। समाज का बहुसंख्यक वर्ग पूंजीपतियों के आदर्शों व मूल्यों को मानने पर मजबूर हो जाता है। ऐसी स्थिति में संविधान प्रावधानों - मौलिक अधिकारों व स्वतन्त्रताओं का कोई महत्व नहीं रह जाता। इसलिए संविधानवाद को व्यवहारिक बनाने के लिए उसके मार्ग की बाधाएं दूर करना आवश्यक हो जाता है। ऐसा तभी सम्भव हो सकता है, जब उत्पादन व वितरण के साधनों पर सार्वजनिक स्वामित्व की व्यवस्था हो। इससे राजनीतिक शक्ति व सत्ता का दुरुपयोग होने की संभावना कम हो जाएगी और संविधानवाद को व्यवहारिक गति मिलेगी।
  2. सम्पत्ति का समान वितरण :- उत्पादन व वितरण के साधनों पर सार्वजनिक नियन्त्रण हो जाने पर सम्पत्ति के समान बंटवारे में कोई परेशानी नहीं आएगी। इससे समाज में सम्पत्ति के कारण न तो संघर्ष होगा और न असमानता जन्म लेगी। इसलिए साम्यवादी आर्थिक समानता की स्थापना द्वारा संविधानवाद का लक्ष्य प्राप्त करना चाहते हैं। वे समाज को उन सभी बन्धनों से मुक्ति दिलाना चाहते हैं जो संविधानवाद के रास्ते में बाधा बनते हों।
  3. साम्यवादी दल का शासन :- साम्यवादी देशों में आर्थिक समानता के कारण वर्ग-विहीन समाज में राजनीतिक दलों की आवश्यकता नहीं रहती। साम्यवादी बहुदलीय प्रणाली को साम्यवाद के लक्ष्यों को प्राप्त करने के मार्ग में बाधक मानते हैं। परन्तु साम्यवादी लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए समाज को नेतृत्व देने व निर्देश के लिए एक राजनीतिक दल को तो आवश्यमक मानते हैं। साम्यवादियों की दृष्टि में ऐसा दल साम्यवादी दल ही हो सकता है। यह दल ही समाज का सच्चा प्रतिनिधि हो सकता है। यह दल शोषण व दमन का अन्त कर सकता है और सार्वजनिक हित में वृद्धि कर सकता है।
उपरोक्त व्याख्या के आधार पर कहा जा सकता है कि संविधानवाद की साम्यवादी अवधारणा सिद्धान्त में तो पाश्चात्य अवधारणा के पास हो सकती है, लेकिन व्यवहार में वह उससे काफी दूर ही रहती है। साम्यवादियों का मानना है कि संविधानवाद को व्यवहारिक बनाने के लिए नियन्त्रण की पाश्चात्य व्यवस्थाएं प्रभावी नहीं हो सकती। इसलिए वे आर्थिक साधनों के वितरण की मौलिक व्यवस्थाओं द्वारा राजनीतिक शक्ति पर नियन्त्रण स्थापित करके संविधानवाद के आदर्शों को सभी नागरिकों के लिए उपलब्ध कराते हैं। सिद्धान्त तौर पर साम्यवादी देशों में नियन्त्रण की जो औपचारिक व्यवस्थाएं की जाती हैं, व्यवहार में उनका कोई महत्व नहीं है। साम्यवादी देशों में शक्तियों के पृथक्करण, मौलिक अधिकार, कानून का शासन आदि संवैधानिक व्यवस्थाएं संविधानवाद की स्थापना में अपना कोई योगदान नहीं देती। साम्यवादी दल की तानाशाही के आगे ये व्यवस्थाएं निरर्थक व औपचारिकता मात्र रह जाती है। सोवियत संघ में 1917 में लेनिन की सरकार स्थापित होने के बाद वहां साम्यवादी दल की तानाशाही रही। लेनिन की दृष्टि में संवैधानिक उपबन्धों की कोई अहमियत नहीं थी। उसके बाद स्टालिन ने भी अपनी तानाशाही सरकार द्वारा संविधानवाद की धज्जियां उड़ा दी। इसी तरह पौलैण्ड, हंगरी, रुमानिया, चेकोस्लावाकिया, उत्तरी कोरिया, वियतनाम, क्यूबा आदि देशों में साम्यवाद की स्थापना होने के बाद से उसके पतन तक संविधान के आदर्शों की बजाय साम्यवादी दल या साम्यवादियों के आदर्शों का ही बोलबाला रहा। 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद तथा अन्य साम्यवादी देशों द्वारा लोकतन्त्र को अपनाए जाने तक संविधानवाद के आदर्शों को व्यावहारिक तौर पर दबाया गया। आज चीन, वियतनाम व क्यूबा आदि साम्यवादी देशों में संविधानवाद का व्यावहारिक स्वरूप कुछ और ही है। इन देशों में साम्यवादी दलों या साम्यवादी नेतृत्व के आगे संवैधानिक उपबन्धों का कोई महत्व नहीं है। इन देशों में अधिकारों की अपेक्षा कर्त्तव्यों पर अधिक जोर दिया जाता है। इन देशों के संविधानों में ऐसी धाराएं हैं जो साम्यवादी दल की तानाशाही की आड़ में संविधानात्मक की ही धज्जियां उड़ा देती हैं। संविधान के पास सरकार को नियन्त्रित व उत्तरदायी बनाने के लिए साम्यवादी दल के होते हुए कोई उपाय शेष नहीं रह जाता। इसलिए कुछ आलोचक साम्यवादी देशों में संविधानवाद के अस्तित्व से ही इंकार करते हैं क्योंकि वहां पर समस्त गतिविधियों का निर्णायक यही है। इन देशों में संविधानिक उपबन्ध जनता के साथ धोखा है और स्वयं संविधान भी साम्यवादी दल के हाथ में एक कठपुतली है। अत: साम्यवादी देशों में संविधानवाद की बात करना भी मूर्खता है।

संविधानवाद की विकासशील देशों की अवधारणा

राजनीतिक स्थावित्व के अभाव में विकासशील देशों में संविधानवाद का विकास उतना नहीं हुआ है, जितना पश्चिमी देशों में हुआ है। भारत को छोड़कर सभी विकासशील देशों की राजनीतिक व्यवस्थाएं अभी संक्रमणकाल के दौर से गुजर रही हैं। भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जो राजनीतिक स्थायित्व के साथ-साथ संविधानवाद में भी पाश्चात्य देशों से पीछे नहीं है। भारत में संविध् ाानवाद अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच चुका है। भारत ने पाश्चात्य संविधानवाद के समस्त आदर्श प्राप्त कर लिए हैं और वह बराबर संविधानवाद का विकास कर रहा है। विकासशील देशों की अपनी कूछ समस्याएं हैं जो संविधानवाद के मार्ग में बाधा बनकर खड़ी हैं। फिर भी विकासशील देश कम या अधिक मात्रा में पश्चिमी देशों की तरह संविधानवाद का पोषण कर रहे हैं। विकासशील देशों के संविधानवाद को समझने के लिए इन देशों की समस्याओं को समझना बहुत आवश्यक है।

विकासशील देशों की समस्याएं

विकासशील देशों की समस्याएं विकासशील देशों के संविधानवाद की सच्ची प्रकृति को स्पष्ट करती हैं। इनके कारण ही विकासशील देशों के संविधानवाद व पाश्चात्य देशों के संविधानवाद में अन्तर दिखाई देता है। ये समस्याएं हैं :-
  1. राजनीतिक स्थायित्व की समस्या :- अधिकतर विकासशील देश लम्बे समय तक साम्राज्यवादी शोषण का शिकार रहे हैं। इन देशों को राजनीतिक सत्ता काफी संघर्षों के बाद मिली है। कुछ देशों में तो राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने के लिए कत्लेआम हुआ और भारत जैसे देशों को लम्बे राष्ट्रीय आन्दोलन के बाद ही सत्ता मिल गई थी। लेकिन सत्ता प्राप्ति से आज तक अप्तिाकांश विकासशील देश राजनीतिक अस्थिरता का शिकार रहे हैं। राजनीतिक दलों की अनेकता और राष्ट्रवाद के अभाव ने राजनीतिक अस्थिरता को पनपने में भरपूर मदद की है। इसलिए इन देशों में संविधानवाद की संस्थापक व्यवस्थाओं पर कभी भी मतैक्य नहीं हो सका है और संविधानवाद के चिरस्थायी मूल्य जन्म नहीं ले सके हैं। पाश्चात्य देशों में इस प्रकार की राजनीतिक अस्थिरता का सर्वथा अभाव होने के कारण वहां से विधानवाद का पूर्ण विकास हुआ है। ;
  2. आर्थिक विकास की समस्या :- लम्बे साम्राज्यवादी शोषण का शिकार रह चुके विकासशील देशों को राजनीतिक अस्थिरता के साथ साथ आर्थिक पिछड़ापन भी गुलामी से विरासत में मिला है। साम्राज्यवादी देशों द्वारा इनका आर्थिक दोहन करने के कारण इनकी आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर है कि ये देश आज भी साम्राज्यवादी देशों पर निर्भर हैं और नव-साग्राज्वाद या डालर साम्राज्यवाद का शिकार हैं। देश की आर्थिक समस्याएं बार-बार संविधानवाद को चुनौती देती रहती हैं। तकनीकी ज्ञान के अभाव में उपलब्ध आर्थिक साधनों का भी समुचित उपयोग न हो पाने के कारण आर्थिक विकास की समस्या दिन-प्रतिदिन और अधिक गहरी होती जा रही है। आर्थिक समस्याओं के कारण इन देशों को बार-बार राजनीतिक अस्थिरता का सामना करना पड़ रहा है। जगह-जगह संविधानवाद को कुचलने वाली गतिविधियां जन्म ले रही हैं।
  3. राजनीतिक सत्ता की वैधता की समस्या :- विकासशील देशों में शासक वर्ग को सदैव अपनी सत्ता की वैधता की परीक्षा देनी पड़ती है। इसलिए वे चुनावों में अनुचित साधनों को महत्व देते हैं और समाज में अनैतिक मूल्यों को जन्म देकर संविधानवाद को पनपने से रोकते है। 
  4. आधुनिकीकरण की समस्या :- नवोदित विकासशील देशों के सामने आधुनिकीकरण की समस्या एक विकट समस्या है। इन देशों में प्राचीन और नवीन मूल्यों में संघष्र व्याप्त रहता है। इसलिए शासक व शासित वर्ग में मतैक्य के अभाव के कारण इन देशों में संविधानवाद पिछड़ रहा है। इन देशों में आज तक भी सभी परम्परावादी लोगों और आधुनिकीकरण के प्रतिनिधियों के रूप में अभिजन वर्ग के बीच में वैचारिक संघर्ष है। यही संघर्ष और मतैक्य का अभाव संविधानवाद के लिए सबसे बड़ा खतरा है। 
  5. राजनीतिक संरचना विकल्पों की समस्या :- इन देशों के सामने सबसे बड़ी समस्या उपयुक्त राजनीतिक व्यवस्था के चुनाव की है। वे इस अनिश्चय की स्थिति में हैं कि वे पूंजीवाद को अपनाएं या साम्यवाद को, लोकतन्त्र को अपनाएं या निरंकुशवाद को। यदि वे एक को स्वीकार करते हैं तो फिर परिस्थितियां दूसरी को अपनाने को बाध्य कर देती हैं। भारत को छोड़कर शेष सभी विकासशील देश आज तक अपनी राजनीतिक व्यवस्था का स्वरूप निश्चित नहीं कर पाए हैं। इसके अभाव में संविधानवाद के पाश्चात्य या साम्यवादी मॉडल को स्वीकार करना सम्भव नहीं है। इसलिए राजनीतिक विकास के संस्थात्मक मार्गों का अनिश्चय विकासशील देशों में संविधानवाद की स्थिति को अस्पष्ट बना देता है। 
  6. अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा की समस्या :- अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा और पहचान बनाने के लिए विकासशील देशों के सामने समस्या आती है कि वे किस गुट में शामिल हों या किस में नहीं। आज उन देशों के सामने गुट-राजनीति में शामिल होना मजबूरी है। इससे वे समाज के निश्चित मूल्यों की बलि चढ़ाकर अपनी अन्तराष्ट्रीय पहचान कायम करने का प्रयास करते हैं और संविधानवाद को खो देते हैं।
  7. सुरक्षा की खोज की समस्या :- विकासशील देशों के समाज बहुलवादी समाज हैं। परस्पर विरोधी हितों के कारण समाज का बार-बार राजनीतिक व्यवस्था पर दबाव पड़ता रहता है। इससे सरकार को आन्तरिक सुरक्षा की चिन्ता हो जाती है और बाहरी आक्रमणों द्वारा भी जनता को एकता के सूत्र में बांधने तक के भी प्रयास करने पड़ते हैं। विकासशील देशों में सरकारों के सामने सदा आन्तरिक सुरक्षा के साथ-साथ बाहरी सुरक्षा या राष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा की भी चिन्ता लगी रहती है। इससे समाज के सामान्य लक्ष्यों को प्राप्त करने से उनका ध्यान हट जाता है। इसके फलस्वरूप संस्थात्मक व्यवस्थाओं को मजबूत बनाने के लिए समाज व सरकार में मतैक्य नहीं बन पाता है और संविधानवाद से वे काफी दूर हट जाते हैं।
  8. सामाजिक-सांस्कृतिक समता का उद्देश्य :- राजनीतिक शक्ति को प्राप्त करने के लिए विकासशील देशों के बहुलवादी समाज का प्रत्येक वर्ग पूरी कोशिश करता है और अन्य समूहों को विकसित होने से रोकने के लिए राजनीतिक शक्ति का भी प्रयोग करता है। इससे समाज में संषर्ष की प्रवृत्ति जन्म लेती है। ऐसी स्थिति में समाज के मूल्यों व आदर्शों के विकास की कल्पना करना बेकार है। इसलिए राष्ट्रीय एकीकरण के अभाव में उचित व परिपक्व संविधानवाद विकसित नहीं हो सकता। 
  9. संविधानों की परिवर्तनशील प्रवृत्ति :- विकसित देशों के संविधानों की तुलना में विकासशील देशों के संविधानों को बार-बार संशोधनों या परिवर्तनों का सामना करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में स्चव्छ संवैधानिक परम्पराएं विकसित नहीं हो पाती हैं और संविधानवाद का विकास भी रूक जाता है। 

विकासशील देशों के संविधानवाद के लक्षण 

विकासशील देशों की समस्याएं इन देशों में संविधानवाद को उस स्तर तक विकसित नहीं होने देती जैसा वह पाश्चात्य देशों में है। बहुलवादी समाज व शासक वर्ग में मतैक्य का अभाव विकासशील देशों के संविधानवाद को विकसित होने से रोकता है। लेकिन भारत जैसे विकासशील राष्ट्र में जो संविधानवाद विकसित हुआ है, वह पाश्चात्य संविधानवाद से कम नहीं है। विकासशील देशों के संविधानवाद की प्रमुख विशेषताएं हैं :- 
  1. विकासशील देशों में संविधानवाद संक्रमणकालीन दौर में है :- विकासशील देशों में संविधानवाद अभी निर्माण की अवस्था में है। इन देशों में सामान्य उद्देश्यों पर समाज व सरकारों में मतैक्य का अभाव है। आज तक यह निश्चित नहीं हो पाया है कि राजनीतिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं का स्वरूप क्या हो ? कभी विकासशील देशों में उदारवादी लोकतन्त्र के आदर्शों को अपनाने पर जोर दिया जाता है तो कभी वे साम्यवादी विचारों की ओर अग्रसर होते हैं। इस संक्रमणकालीन दौर में संविधानवाद का विकसित रूप उभरना असंभव है। भारत को को छोड़कर अन्य किसी भी विकासशील देश ने निश्चित राजनीतिक व्यवस्था को नहीं अपनाया है।
  2. विकासशील देशों का संविधानवाद मिश्रित प्रकृति का है :- विकासशील देश पाश्चात्य तथा साम्यवादी संविधानवाद को एक बिन्दु पर लाने का प्रयास कर रहे हैं। वे पाश्चात्य उदारवादी लोकतन्त्र के स्वतन्त्रता, न्याय, समानता के साथ साथ सोवियत समाजवादी को भी अपने देश में संविधानों में स्थान देते हैं। भारत में लोकतन्त्र के सिद्धान्तों - समानता व स्वतन्त्रता के साथ-साथ समाजवाद के सिद्धान्त आर्थिक समानता के लिए सम्पत्ति पर सार्वजनिक नियन्त्रण की बात को बराबर महत्व दिया जाता है। भारत की अर्थव्यवस्था को मिश्रित प्रकृति विकासशील देशों के संविधानवाद क लिए प्रमुख आदर्श है। इसी तरह मौलिक अधिकार और उन पर नियन्त्रण की व्यवस्था भी भारत के संविधानवाद की मिश्रित को इंगित करता है।
  3. विकासशील देशों में संविधानवाद प्रवाह के दौर में है :- विकासशील देशों में संविधानवाद स्थिरता प्राप्त नहीं कर सका है। यद्यपि राजनीतिक विकास का भ्रम संविधानवाद को विकसित समझने का भ्रम उत्पन्न करता है, लेकिन राजनीतिक व्यवस्था में अराजकता उत्पन्न करने वाली तथा उसे पिछड़ेपन के मार्ग पर धकेलने वाली परिस्थितियां उत्पन्न होकर उसे प्रवाह के दौर में छोड़ देती हैं। ;
  4. विकासशील देशों में संविधानवाद दिशा रहित चरण में है :- विकासशील देश इस अनिश्चय की स्थिति में हैं कि वे पाश्चात्य लोकतन्त्र का आदर्श लेकर आगे बढ़ें या साम्यवादी विचारों का आदर्श। आज तक विकासशील देश संविधानवाद के निश्चित आधारों व लक्ष्यों की स्थापना करने में असफल रहे हैं। अत: विकासशील देशों का संविधावाद आधारों के अभाव व मूल्यों की अनिश्चितता के कारण दिशाहीन चरण में हैं।

भारत में संविधानवाद

भारत एक विकासशील देश है। भारत में संविधानवाद पाश्चातय व साम्यवादी संविधानवाद का मिश्रित रूप है। भारत ने संसदीय प्रजातन्त्र को विरासत के रूप में अपनाया है। भारत में यह व्यवस्था अन्य विकासशील देशों की तुलना में अधिक सफल रही है। भारत के संविधानवाद में कानून का शासन, मौलिक अधिकारों, स्वतन्त्रता व समानता का आदर्श, स्वतन्त्र व निष्पक्ष न्यायपालिका, राजनीतिक शक्ति का पृथक्करण, निश्चित अवधि के बाद चुनाव, राजनीतिक दलों की व्यवस्था, प्रैस की स्वतन्त्रता, सामाजिक बहुलवाद आदि द्वारा सीमित सरकार व उत्तरदायी सरकार की परम्परा का निर्वाह किया गया है। इस दृष्टि से भारत में संविधानवाद उदारवादी पाश्चात्य लोकतन्त्र के काफी निकट है। इसी तरह भारत में साम्यवादी संविधानवाद के समाजवादी तथ्यों को भी अपनाया गया है। भारत में जनकल्याण को बढ़ावा देने के लिए उत्पादन व वितरण के साधनों पर सार्वजनिक स्वामित्व की व्यवस्था की गई है। अत: भारत का संविधानवाद मिश्रित प्रकृति का है और विकसित अवस्था में है। इस प्रकार विकासशील देशों में भारत को छोड़कर संविधानवाद अभी निर्माण के दौर में है। धीरे धीरे कई विकासशील देशों में स्वच्छ संवैधानिक परम्पराएं विकसित हो रही हैं। होवार्ड रीगिन्स का कथन सत्य है कि “राज्य नए हैं और राजनीतिक खेल के नियम प्रवाह में हैं इसलिए संविधानवाद अभी सुस्थिर नहीं हो सका है।” आज विकासशील देश संविधानवाद की वास्तविकताओं से काफी दूर है। भारत की तरह आज बर्मा, इण्डोनेशिया, नाईजीरिया, श्रीलंका आदि विकासशील देशों में संविधानवाद की लोकतन्त्रीय परम्पराएं विकसित हो रही हैं।

संविधानवाद की समस्याएं व सीमाएं

संविधानवाद आधुनिक लोकतन्त्र का मूल मन्त्र है। संविधानवाद के बिना लोकतन्त्रीय आदर्शों व सिद्धान्तों का न तो विकास सम्भव है और न ही उनकी रक्षा। राष्ट्र संघ की स्थापना के बाद संविधानवाद को साम्यवादी क्रान्ति ने उदारवादी प्रजातन्त्रीय सिद्धान्तों को चोट पहुंचाई और इटली में फासीवाद, जर्मनी में नाजीवाद तथा स्पेन, पोलैण्ड, यूनान, रूमानिया आदि राष्ट्रों में अधिनायकवादी शासकों के उत्कर्ष ने संविधानवाद की गहरी जड़ें भी हिलाकर रख दी। लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध ने धुरी राष्ट्रों तथा अन्य अधिनायकवादी राष्ट्रों को भारी नुकसान पहुंचाया और संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के बाद विश्व में संविधानवाद फिर से अपना आधार खड़ा करने के प्रयास में सफल हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इटली, जर्मनी, फ्रांस, स्वीडन, स्विट्जरलैंड आदि राज्यों में अधिनायकवादी तत्व समाप्त हो गए और इन देशों में संविधानवाद का विकास करने वाले प्रजातन्त्रीय तत्वों के विकास की परम्परा शुरु हो गई। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद संविधानवाद के विकास के जो लक्षण दिखाई देते थे, वे आज धूमिल होते नजर आ रहे हैं। आज ईराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान आदि देशों में सैनिकवाद और निरंकुशतावाद का जो बोलबाला है, चारों ओर अराजकता का जो माहौल है, उसके परिणामस्वरूप संविधानवाद का विकास नहीं किया जा सकता। यद्यपि गिने चुने देशों में संविधानवाद विरोधी तत्वों के होने से संविधानवाद के विकास का रास्ता नहीं बदला जा सकता, लेकिन फिर भी संविधानवाद को चुनौती देने वाली समस्याएं संविधानवाद के मार्ग में बाधक हैं। उनके निराकरण के बिना संविधानवाद का पूर्ण विकास सम्भव नहीं है। संविधानवाद के मार्ग में बाधक समस्याएं हैं :-

युद्ध

संविधानवाद की प्रमुख सीमा यह है कि इसे शांति काल में ही लागू किया जा सकता है और विकास किया जा सकता है। युद्ध चाहे गृहयुद्ध के रूप में हो या दो देशों व अनेक देशों के मध्य में हो, इसे कायम रखना असम्भव व कठिन दोनों होता है। युद्ध के वातावरण में संविधानिक अधिकारों व आदर्शों का महत्व शून्य हो जाता है। इसमें नागरिकों के मौलिक अधिकार स्थाई या अस्थाई तौर पर स्थगित हो जाते हैं और संविधानिक सरकार भी संविधान के विपरित कार्य करने को बाध्य हो जाती है, इसलिए संविधानवाद जैसी वस्तु का अस्तित्व नष्ट होने लगता है। युद्ध में संविधान और संवैधानिक सरकार दोनों का आदर्श समाप्त होने से संविधानवाद स्वत: ही नष्ट हो जाता है। यद्य़पि यह जरूरी नहीं है कि युद्धकाल में संविधानवाद पूरी तरह नष्ट हो जाए। यदि जनता स्वयं सरकार को अपने अधिकारों और सुविधाओं को कम करने की अनुमति दे दे या सरकार के युद्धकालीन कार्यों का समर्थन कर दे तो संविधानवाद को बचाने में मदद मिल सकती है। ऐसी स्थिति में संविधानवाद पर युद्ध का कम प्रभाव पड़ता है और युद्ध के बाद संविधानवाद को फिर से खड़ा करने में आसानी रहती है। लेकिन कई बान तानाशाही शासक इस छूट का अनुचित लाभ उठाकर उस देश में संविधानवाद की गहरी जड़ों को भी हिलाकर रख देते हैं। अत: युद्ध संविधानवाद की प्रमुख सीमा या उसके मार्ग में बाधा है।

निरंकुशतावाद 

संविधानवाद और निरंकुशतावाद में विपरित सम्बन्ध है। यदि एक आगे बढ़ता है तो दूसरा पीछे हटता है और यदि दूसरा आगे बढ़ता है तो पहला पीछे हटता है। निरंकुशतावाद का रूप चाहे फासीवाद हो, नाजीवाद हो, सर्वहारा वर्ग या साम्यवादी दल की तानाशाही हो, सैनिकवादी शासन हो, किसी को भी संविधानवाद का मित्र नहीं कहा जा सकता। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद इटली में फासीवादी और जर्मनी में नाजीवादी ताकतों ने संविधानवाद को जो क्षति पहुंचाई थी, उससे निरंकुशतावाद को किसी भी रूप में संविधानवाद के लिए अनुकूल नहीं माना जा सकता। निरंकुश या सर्वसत्ताधिकारी शासक शासन का संचालन संविधान के नियमों के अनुसार न करके अपनी इच्छा के अनुसार स्वार्थ सिद्धि के लिए ही करता है। इसमें जनभावना की बजाय शासक भावना की कदर की जाती है। इसलिए निरंकुशतावाद संविधानवाद की प्रमुख सीमा है। संविधानवाद को तानाशाही व सैनिक शासन में न तो लागू किया जा सकता है और न इसे लागू रखा जा सकता है। पाकिस्तान में सैनिक शासकों के कारण वहां पर लम्बे समय से न तो संविधान के आदर्शों का पालन हो रहा है और न ही वहां पर संविधानिक सरकार है। इसी तरह ईराक व अफगानिस्तान में भी लम्बे समय तक ऐसी ही स्थिति का रहना संविधानवाद के मार्ग में निरंकुशतावाद को बाधक बनाता है। अत: निरंकुशतावाद संविधानवाद के मार्ग में प्रमुख बाधा है। के0सी0 व्हीयर ने लिखा है-”जैसे जैसे निरंकुशतावाद बढ़ता है, वैसे वैसे संविधानवाद पीछे हटता है।”

संसदीय संस्थाओं के पास कार्यभार की अधिकता 

यदि संसदीय संस्थाओं के पास कार्यभार अधिक होगा तो वे अपने संविधानिक उत्तरदायित्वों का निर्वहन सरलता से नहीं कर सकती। आधुनिक युग प्रजातन्त्र का युग है। इसमें राज्य को कल्याणकारी राज्य का दर्जा दिया गया है। आज इन संस्थाओं के पास राजनीतिक कार्यों के साथ आर्थिक कार्यों का बोझ भी है। ऐसी स्थिति में ये संस्थाएं अपने संविधानिक उत्तरदायित्व को उचित रूप से निभाने में असमर्थ हैं। इससे संविधानवाद का विरोध होता है। इसलिए संसदीय संस्थाओं का अधिक कार्य संविधानवाद की सीमा भी है और इसके मार्ग में प्रमुख बाधा भी है।

राजनीतिक समानता का सिद्धान्त  

“प्रत्येक नागरिक को एक माना जाएगा, एक से अधिक नहीं” - यह लोकतन्त्र का प्रमुख सिद्धान्त है। यह सूत्र कम या अधिक विकसित देशों में तो ठीक हो सकता है, पिछड़े हुए या विकासशील देशों में नहीं, इन देशों में यह श्रमिकों को खुश करने की बजाय उन्हें नाराज ही करता है। सी0एस0 स्ट्रांग का कहना है-”यह सूत्र भारी उलझन पैदा करता है, क्योंकि जहां समाज के कम उन्नत अंगों के आर्थिक हित के लिए यह आवश्यक है कि राज्य के केन्द्रीय अवयवों को और अधिक कर्त्तव्य सौंपे जाएं, हालांकि उनके पास पहले ही इतने अधिक कर्त्तव्य हैं कि वे उनका उचित रूप से निष्पादन कठिनाई से ही कर सकते हैं, वहां मतदान की आधुनिक प्रणाली के अन्तर्गत गठित संसद में उन्हें बहुमत प्राप्त करने में परेशानी पैदा होती है और ऐसी परिस्थिति में यह सम्भव है कि वे हताश होकर कुछ उच्छृंखल असंविधानिक मार्गों का अनुचित मांगों के लिए चुनाव कर लें। ऐसी स्थिति में संविधानिक राज्य को इस कठिनाई का अनुभव करना पड़ेगा क्योंकि श्रमिकों के बहुमत में न होने के कारण भी उनका संगठित अल्मपत मांगों की पूर्ति के लिए जो असंवैधानिक कृत्य करेगा, वह समाज को पंगु बना सकता है और राज्य में फूट डाल सकता है।” इस प्रकार लोकतन्त्र का राजनीतिक समानता का सिद्धान्त की संविधानवाद के मार्ग में बाधा उत्पन्न कर सकता है।

संविधान और संविधानिक सरकार द्वारा प्रदान की गई अधिक छूटें व स्वतन्त्रताएं

जिन देशों में लोगों को आवश्यकता से अधिक स्वतन्त्रताएं और दूसरी सुविधाएं प्रदान की जाती हैं, वहां पर नागरिक कई बार उनका अनुचित फायदा उठाने का प्रयास करते हैं। उदाहरण के लिए जिन देशों में प्रैस को अधिक स्वतन्त्रता दी गई है, वहां पर प्रैस कई बार अपनी स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करके सरकार विरोधी वक्तव्य जारी करती रहती है। इससे सरकार के खिलाफ एक ऐसा जनमत तैयार हो जाता है कि सरकार के सामने दो ही विकल्प शेष रह जाते हैं कि या तो वह अपना पद छोड़ दे या सरकार विरोधी तत्वों को सख्ती से कुचल दे। इससे सरकार के सामने संविधानिक संकट व निरंकुशतावाद दोनों की समस्या पैदा होती है। लेकिन लोगों के आन्दोलन को सख्ती से दबाना संविधानवाद के हित में हो, यह आवश्यक नहीं है। दमन से संविधान और संविधानवाद दोनों को नुकसान पहुंचता है। इसलिए संविधानवाद शासन द्वारा जनता को आवश्यकता से अधिक छुट देने से सरकार विरोधी तत्व संविधान के आदर्शों को नुकसान पहुंचाने की चेष्टा करते हैं। इससे संविधानवाद को हानि पहुंचती है।

संवैधानिक शासन का स्थगन

कई बार आपात स्थिति में युद्ध या किसी अन्य संकट के समय अस्थायी रूप से संविधानिक शासन को स्थगित कर दिया जाता है। जैसे राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा के समय देश के शासक या सरकार द्वारा नागरिकों को दी जाने वाली सुविधाओं और अधिकारों को कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया जाता है और युद्ध समाप्त होने या आपातस्थिति के टल जाने पर उन्हें फिर से उसी स्थिति में लौटा दिया जाता है। लेकिन यह आवश्यक नहीं कि आपातकाल में प्राप्त अधिकारों को शासक वर्ग फिर से विकेन्द्रित कर दे। जर्मनी और इटली में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद हिटलर और मुसोलिनी ने राष्ट्रीय आपातकाल के नाम पर जो सुविधाएं जनता से ली थी, उन्हें वापिस नहीं की। लम्बे समय तक इन देशों ने अपने अपने देश की शासन की बागडोर निरंकुश शासकों के रूप में संभाली। इससे उन देशों में संविधानवाद को गहरा आघात पहुंचा। इसी तरह पाकिस्तान में जरनल मुशर्रफ ने भी शासन की बागड़ोर अपने हाथ में लेकर अब तक भी जनता को संवैधानिक शासन की स्थापना के अधिकार नहीं दिए हैं। अत: संवैधानिक शासन का स्थगन संविधानवाद के मार्ग में कई बार बहुत बड़ी बाधा बन जाता है।

गृह-युद्ध

जब किसी देश में किसी कारणवश गृह युद्ध की शुरुआत होती है तो ऐसी स्थिति में संविधान विरोधी ताकतें सक्रिय हो जाती हैं और वे संविधानवाद के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा बन जाती हैं। संविधानिक सरकार को इन तत्वों को कुचलने के लिए ताकत का प्रयोग करना पड़ता है। कई बार गृह-युद्ध को समाप्त करना सरकार के काबू से बाहर हो जाता है। गृह-युद्ध में प्राय: सरकार विरोधी निरंकुश ताकतें ही अपने उद्देश्यों में कामयाब रहती हैं। ऐसी स्थिति में देश का शासन न तो संविधान के अनुसार ही चलाया जा सकता है और न ही सरकार का रूप संविधानिक रहता है। अत: गृह-युद्ध संविधानवाद के लिए बहुत बड़ी बाधा है।

संविधानवाद की समस्याओं या बाधाओं का निराकरण

यदि हमें संविधानवाद का लक्ष्य प्राप्त करना है तो इसके मार्ग में आने वाली प्रमुख बाधाओं का निराकरण करना आवश्यक हो जाता है। संविधानवाद की प्रमुख समस्याओं के समाधान के तरीके हैं :-
  1. सरकार को हर अवस्था में संविधान के आदर्शों व मूल्यों की रक्षा के लिए तैयार रहना चाहिए। उसे कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए, जिससे संविधानिक आदर्शों को हानि पहुंचती हो।
  2. राज्य व सरकार को अराजकता की स्थिति से निपटने में सक्षम होना चाहिए। यदि सरकार अराजकता से निपटने में असक्षम रहती है तो वह कभी भी संविधानवाद की रक्षा नहीं कर सकती। उसे अराजकता की स्थिति से निपटने के लिए प्रभुसत्तात्मक शक्तियां अपने पास सुरक्षित रखनी चाहिए ताकि अराजकता उत्पन्न करने वाली ताकतों का सफाया किया जा सके। लेकिन इस कार्य को करते समय सरकार को बड़ा सोच-समस्कर ही कदम उठाना चाहिए। जो सरकार अराजकता को समाप्त करने में असमर्थ रहती है, वह स्वयं भी अराजकता की पोषक बन जाती है और उसे किसी भी अवस्था में संवैधानिक नहीं माना जा सकता।
  3. राजनीतिक दलों को लोगों को राजनैतिक शिक्षा देने का अपना उत्तरदायित्व पूरा करनाा चाहिए ताकि लोगों में जागृति आए और वे न तो कोई असंवैधानिक कार्य करें और न दूसरे को करने की अनुमति दें। संविधानवाद के लिए शिक्षित व राजनीतिक रूप से जागरूक जनता से बढ़कर कोई दूसरा अस्त्र नहीं है। 
  4. सरकार व राज्य को ऐसे कार्य करने चाहिए कि जनता को यह विश्वास हो जाए कि शासक-वर्ग उनकी भलाई के लिए ही कार्य कर रहा है और वे अपने भाग्य के स्यवं निर्माता हैं। सरकार को संवैधानिक सत्ता का प्रयोग इस प्रकार करना चाहिए कि व्यक्तिगत अधिकारों का कोई नुकसान न हो। बहुमत को सदैव अल्पमत के हितों का ख्याल रखते हुए ही राज्य के अवयवों का गठन और विकास करना चाहिए। इससे संगठित अल्पमत के मन में शासन-सत्ता के प्रति विश्वास कायम होगा और वे असंवैधानिक मार्ग द्वारा अपनी मांगों के लिए आन्दोलन नहीं करेंगे। इसलिए राज्य व सरकार को प्रभुसत्ता की जटिल समस्याओं को ध्यान में रखकर ही कार्य करना चाहिए।
  5. संसदीय संस्थाओं के कार्यभार को कम करके संसदीय व्यवस्था को संविधानवाद के मार्ग में मित्र के रूप में खड़ा किया जा सकता है। जब तक संसदीय संस्थाओं के पास कार्य की अधिकता रहेगी, तब तक वे जनता के प्रति उदासीन ही बनी रहेंगी और उनका जनता से सम्पर्क टूटता जाएगा और असंवैधानिक मार्गों का द्वार खुल जाएगा। इसलिए स्ट्रांग ने कहा है-”एकात्मक राज्य भी अपने विधानमण्डलों के कार्यभार को इस तरह ईकाइयों में विभाजित कर दें कि उनके पास केन्द्रीय परियोजनाओं के लिए ही वे आवश्श्यक शक्तियां रह जाएं जो सामान्य हित के लिए आवश्यक है।” इसका अर्थ है-एकात्मक राज्य में संघीय राज्य का सृजन करना। इसका सीधा सम्बन्ध विकेन्द्रीकरण से है। राष्ट्रीय महत्व के विषयों को छोड़कर केन्द्रीय सरकार को समस्त शक्तियां स्थानीय निकायों के पास विकेन्द्रित कर देनी चाहिए। इससे जनता व जन-प्रतिनिधियों में निरन्तर सम्पर्क बना रहेगा और केन्द्रीय विधानमण्डलों का बोझ भी कम हो जाएगा। इससे प्रभुसत्ता का अर्थपूर्ण विकेन्द्रीयकरण हो सकेगा। यह सारी प्रक्रिया निश्चित योजना के अनुसार ही अमल में लाने में संविधानवाद की रक्षा की जा सकती है, अन्यथा नहीं। स्ट्रांग ने लिखा है-”विकेन्द्रीकरण से केन्द्रीय विधानमण्डलों का अनावश्यक व असहनीय बोझ कम होगा, नौकरशाही के दोष दूर होंगे तथा जनता व प्रतिनिधियों में प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित हो जाएगा।” इसमें स्थानीय स्वशासन की संस्थाएं केवल मात्र स्थानीय संस्थाएं ही नहीं होंगी बल्कि वे संसद के साथ प्रभुसत्ता में भी हाथ बांटने वाली होंगी।
  6. अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का विकास करके भी संविधानवाद का विकास किया जा सकता है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों ने निरंकुशतावादी ताकतों पर जो दबाव बनाया है, वह संविधानवाद के रक्षक के रूप में कार्यरत है और इसने कई प्रकार से संविधानवाद की रक्षा की है। स्ट्रांग ने लिखा है-”अन्तर्राष्ट्रीय संगठन राजनीतिक संविधानवाद की सुरक्षा की आवश्यक शर्त है।” इसलिए तृतीय विश्वयुद्ध को टालने क लिए हमें अन्तर्राष्ट्रीयता को ही बढ़ावा देना चाहिए। संकीर्ण राष्ट्रीयता की भावना संविधानवाद के लिए बहुत बड़ा खतरा बन सकती है जैसा जर्मनी और इटली में हुआ था। अत: विश्व संघ या अन्तर्राष्ट्रीय संघों के विकास द्वारा ही संविधानवाद की रक्षा की जा सकती है।
इस प्रकार कहा जा सकता हैं कि सरकार को जनवादी होना चाहिए ताकि संविधानिक शासन की स्थापना की जा सके। सरकार को हमेशा जन कल्याण के रास्ते पर ही चलना चाहिए ताकि जनता के मन में सरकार के प्रति विश्वास बना रहे और जनता की तरफ से उसे कोई खतरा उत्पन्न न हो सके। आज का युग लोकतन्त्रीय संविधानवाद का युग है। इसकी रक्षा जनता द्वारा ही की जा सकती है। जनता को सदैव यह विश्वास होना चाहिए कि सरकार व प्रशासन उनकी भलाई में ही कार्यरत है और उनकी सुख-सुविधाओं का पूरा ध्यान रखने में भी सक्षम है। जिस देश में यह राजनीतिक विश्वास शासक वर्ग के प्रति पाया जाता हो, वहां संविधानवाद को हिलाने वाली कोई शक्ति जन्म नहीं ले सकती। जिस देश में राजनीतिक परम्पराएं सुविकसित हो जाएं वहां संविधानवाद की जड़ें गहरी ही होती जाती हैं। वाटरगेट काण्ड को लेकर अमेरिका के राष्ट्रपति द्वारा त्यागपत्र दिया जाना पाश्चात्य या लोकतन्त्रीय संविधानवाद की दृढ़ता का प्रतीक है। आज संविधानवाद की रक्षा के लिए ऐसी ही राजनीतिक परम्पराओं की आवश्यकता है। इससे सरकार को संविधान ओर जनता के प्रति उत्तरदायी बनाकर संविधानवाद की रक्षा की जा सकती है। आज सीमित सरकार व मानव अधिकारों का सम्मान करके ही संविधानवाद का विकास किया जा सकता है। आज संविधानवाद के विकास व उसकी रक्षा के लिए आवश्यकता इस बात की है कि निरंकुशतावादी या अराजकतावादी तत्वों का सफाया करने में सरकार को सक्षम होना चाहिए और उसका स्वरूप जनवादी होना चाहिए। इसके अभाव में न तो संविधानवाद का विकास हो सकता है और न ही सरकार का स्वरूप संवैधानिक रह सकता है।

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