संस्कृति एवं सभ्यता में अन्तर

संस्कृति शब्द का प्रयोग हम दिन-प्रतिदिन के जीवन में (अक्सर) निरन्तर करते रहते हैं। साथ ही संस्कृति शब्द का प्रयोग भिन्न-भिन्न अर्थों में भी करते हैं। उदाहरण के तौर पर हमारी संस्कृति में यह नहीं होता तथा पश्चिमी संस्कृति में इसकी स्वीकृति है। समाजशास्त्र विज्ञान के रूप में किसी भी अवधारणा का स्पष्ट अर्थ होता है जो कि वैज्ञानिक बोध को दर्शाता है। अत: संस्कृति का अर्थ समाजशास्त्रीय अवधारणा के रूप में “सीखा हुआ व्यवहार” होता है। अर्थात् कोई भी व्यक्ति बचपन से अब तक जो कुछ भी सीखता है, उदाहरण के तौर पर खाने का तरीका, बात करने का तरीका, भाषा का ज्ञान, लिखना-पढ़ना तथा अन्य योग्यताएँ, यह संस्कृति है।

संस्कृति एवं सभ्यता में अन्तर

संस्कृति मनुष्य की उन क्रियाओं, व्यापारों और अभिव्यक्तियों का नाम है जिन्हें वह साध्य के रूप में देखता है यह जीवन-क्रिया के उन क्षणों का नाम है जिन्हें वह स्वयं महत्वपूर्ण समझता है इसके विपरीत सभ्यता मनुष्य की कतिपय क्रियाओं से उत्पन्न होने वाली वस्तुओं का नाम है। जिसे हम सभ्य जीवन कहते है उसमें हमारा सम्बन्ध ऐसी वस्तुओं से होता है जिसको हम उपयोगी मानते है। इसलिए संस्कृति का सम्बन्ध मूल्यों से है और सभ्यता का उपयोगिता से। परन्तु यहाँ पर यह ध्यान रखना आवश्यक है कि संस्कृति और सभ्यता को बिल्कुल पृथक करना उसी प्रकार असम्भव है जिस प्रकार साध्य से साधन को अलग करना।

संस्कृति किसी व्यक्ति द्वारा सृजित नहीं होती, उसका सम्बन्ध जन-समुदाय से होता है। किन्तु सभ्यता व्यक्ति द्वारा सृजित होती है, भले उसका उदय समाज में ही होता है।

संस्कृति को मापने का कोई मापदण्ड नहीं है किन्तु सभ्यता को मापने के मापदण्ड है। जैसे-वैदिक संस्कृति को आधुनिक संस्कृति से तुलना करके उसे श्रेष्ठ अथवा निम्न कहना युगीन मूल्यों के सन्दर्भ में असंगत हे। वहीं दूसरी तरफ यातायात के साधनों के प्रयोग में सभ्यता के विकास क्रम में निरन्तर प्रगति करते हुए आज बैलगाड़ी युग से हवाई जहाज के युग में विकास हो गया है। यह सभ्यता के विकास के युग का मापदण्ड है।

संस्कृति में चक्रीय परिवर्तन होता है जबकि सभ्यता में रैखिक परिवर्तन होता है।

संस्कृति का प्रसार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में संस्कारत: होता रहता है इसके संचरण की एक निश्चित दिशा होती है जबकि सभ्यता में क्रमानुगत परिवर्तन 

संस्कृति की अपेक्षा सभ्यता में सुधार अथवा परिवर्तन सरल है। सभ्यता का सम्बन्ध भौतिक वस्तुओं से होने के कारण वस्तु जगत में होने वाले परिवर्तनों से सभ्यता के स्वरूप में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक है। उदाहरण के लिए बैलगाड़ी के स्थान पर रेल, वायुयान और राकेट का आविष्कार होने के साथ सभ्यता के स्वरूप में सुधार अथवा परिवर्तन होता आया है। इसके विपरीत संस्कृति का सम्बन्ध मनुष्य के विचारों, मनोभावों तथा आन्तरिक गुणों से होने के कारण समष्टि रूप में सरलतया परिवर्तन अथवा सुधार हो पाना बड़ा दुष्कर होता है। सभ्यता में प्रतिस्पर्धा होती है लेकिन संस्कृति में नहीं। यही कारण है कि एक संगीत को दूसरे संगीत से तुलना करते समय किसी को श्रेष्ठ या हीन नहीं कहा जा सकता है।

सभ्यता मूर्त होती है, जबकि संस्कृति अमूर्त, जिसे अनुभूति के माध्यम से ही महसूस किया जाता है।

सभ्यता का उत्थान मानव को प्रगति के पथ पर ले जाता है जबकि संस्कृति मानव को अन्तर्मुखी करके उसके सात्विक गुणों को अभिव्यक्त करती है।

सभ्यता मनुष्य को शारीरिक, भौतिक तथा ऐन्द्रिय सुखानुभूति देती है जबकि संस्कृति व्यक्ति के मन में आल्हाद एवं आध्यात्मिक आनन्द को जन्म देती है।

संस्कृति की विशेषताएँ

अब हम कुछ सामान्य विशेषताओं का विवेचन करेंगे जो संपूर्ण संसार की विभिन्न संस्कृतियों में समान हैं -
  1.  संस्कृति सीखी जाती है और प्राप्त की जाती है, अर्थात् मानव के द्वारा संस्कृति को प्राप्त किया जाता है इस अर्थ में कि कुछ निश्चित व्यवहार हैं जो जन्म से या आनुवंशिकता से प्राप्त होते हैं, व्यक्ति कुछ गुण अपने माता-पिता से प्राप्त करता है लेकिन सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवहारों को पूर्वजों से प्राप्त नहीं करता हैं। वे पारिवारिक सदस्यों से सीखे जाते हैं, इन्हें वे समूह से और समाज से जिसमें वे रहते हैं उनसे सीखते हैं। यह स्पष्ट है कि मानव की संस्कृति शारीरिक और सामाजिक वातावरण से प्रभावित होती है। जिनके माध्यम से वे कार्य करते हैं।
  2. संस्कृति लोगों के समूह द्वारा बाँटी जाती है- एक सोच या विचार या कार्य को संस्कृति कहा जाता है यदि यह लोगों के समूह के द्वारा बाटा और माना जाता या अभ्यास में लाया जाता है।
  3. संस्कृति संचयी होती है- संस्कृति में शामिल विभिन्न ज्ञान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तान्तरित किया जा सकता है। जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, ज्यादा से ज्यादा ज्ञान उस विशिष्ट संस्कृति में जुड़ता चला जाता है, जो जीवन में परेशानियों के समान के रूप में कार्य करता है, पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता रहता है। यह चव् बदलते समय के साथ एक विशिष्ट संस्कृति के रूप में बना रहता है।
  4. संस्कृति परिवर्तनशील होती है- ज्ञान, विचार और परम्परायें नयी संस्कृति के साथ अद्यतन होकर जुड़ते जाते हैं। समय के बीतने के साथ ही किसी विशिष्ट संस्कृति में सांस्कृतिक परिवर्तन संभव होते जाते हैं।
  5. संस्कृति गतिशील होती है- कोई भी संस्कृति स्थिर दशा में या स्थायी नहीं होती है। जैसे समय बीतता है संस्कृति निरंतर बदलती है और उसमें नये विचार और नये कौशल जुड़ते चले जाते हैं और पुराने तरीकों में परिवर्तन होता जाता है। यह संस्कृति की विशेषता है जो संस्कृति की संचयी प्रवृत्ति से उत्पन्न होती है।
  6. संस्कृति हमें अनेक प्रकार के स्वीकृति व्यवहारों के तरीके प्रदान करती है- यह बताती है कि कैसे एक कार्य को संपादित किया जाना चाहिये, कैसे एक व्यक्ति को समुचित व्यवहार करना चाहिए।
  7. संस्कृति भिन्न होती है- यह ऐसी व्यवस्था है जिसमें विभिन्न पारस्परिक भाग एक-दूसरे पर आश्रित हैं। यद्यपि ये भाग अलग होते हैं, वे संस्कृति को पूर्ण रूप प्रदान करने में एक दूसरे पर आश्रित होते हैं।
  8. संस्कृति अक्सर वैचारिक होती है- एक व्यक्ति से उन विचारों का पालन करने की आशा की जाती है जिससे प्राय: यह एक आदर्श तरीका प्रस्तुत करती है जिससे उसी संस्कृति के अन्य लोगों से सामाजिक स्वीकृति प्राप्त की जा सके।

मानव जीवन में संस्कृति का महत्व

संस्कृति जीवन वेफ निकट से जुड़ी है। यह कोई बाह्य वस्तु नहीं है और न ही कोई आभूषण है जिसे मनुष्य प्रयोग कर सकें। यह केवल रंगों का स्पर्श मात्रा भी नहीं है। यह वह गुण है जो हमें मनुष्य बनाता है। संस्कृति के बिना मनुष्य ही नहीं रहेंगे। संस्कृति परम्पराओं से, विश्वासों से, जीवन की शैली से, आध्यात्मिक पक्ष से, भौतिक पक्ष से निरन्तर जुड़ी है। यह हमें जीवन का अर्थ, जीवन जीने का तरीका सिखाती है। मानव ही संस्कृति का निर्माता है और साथ ही संस्कृति मानव को मानव बनाती है।

संस्कृति का एक मौलिक तत्व है धार्मिक विश्वास और उसकी प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति। हमें धार्मिक पहचान का सम्मान करना चाहिए, साथ ही सामयिक प्रयत्नों से भी परिचित होना चाहिए जिनसे अन्त: धार्मिक विश्वासों की बातचीत हो सके, जिन्हें प्राय: अन्त: सांस्कृतिक वार्तालाप कहा जाता है। विश्व जैसे-जैसे जुड़ता चला जा रहा है, हम अधिक से अधिक वैश्विक हो रहे हैं और अधिक व्यापक वैश्विक स्तर पर जी रहे हैं। हम यह नहीं सोच सकते कि जीने का एक ही तरीका होता है और वही सत्य मार्ग है। सह-अस्तित्व की आवश्यकता ने विभिन्न संस्कृतियों और विश्वासों के सह-अस्तित्व को भी आवश्यक बना दिया है। इसलिए इससे पहले कि हम इस प्रकार की कोई गलती करें, अच्छा होगा कि हम अन्य संस्कृतियों को भी जानें और साथ ही अपनी संस्कृति को भी भली प्रकार समझें। हम दूसरी संस्कृतियों के विषय में कैसे चर्चा कर सकते हैं जब तक हम अपनी संस्कृति के मूल्यों को भी भली प्रकार न समझ लें।

सत्य, शिव और सुन्दर ये तीन शाश्वत मूल्य हैं जो संस्कृति से निकट से जुड़े हैं। यह संस्कृति ही है जो हमें दर्शन और धर्म के माध्यम से सत्य के निकट लाती है। यह हमारे जीवन में कलाओं के माध्यम से सौन्दर्य प्रदान करती है और सौन्दर्यनुभूतिपरक मानव बनाती है यह संस्कृति ही है जो हमें नैतिक मानव बनाती है और दूसरे मानवों के निकट सम्पर्क में लाती है और इसी के साथ हमें प्रेम, सहिष्णुता और शान्ति का पाठ पढ़ाती है।

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