भारत के बाहर भी चार देशों में भारतीय आर्य भाषाओं का व्यवहार होता है। पाकिस्तान में इस शाखा की तीन प्रमुख भाषाएँ-पंजाबी, सिंधी और लहंदा-बोली जाती है। बंगाल देश की भाषा बांगला है, जो इस शाखा की एक प्रमुख भाषा है। नेपाल में नेपाली भाषा है, जो भारतीय आर्य भाषा शाखा की भाषा है। श्रीलंका में एक भाषा सिंहली है (दूसरी भाषा तमिल द्रविड़ परिवार की है) जो एक भारतीय आर्य भाषा है। फ़ीजी, सरीनाम, त्रिनिदाद मौरिशस जैसे देशों में भारतीय आर्य भाषाएँ बोलने वालों की संख्या कुल आबादी की लगभग 16 प्रतिशत है।
भारतीय आर्य भाषा का विभाजन
भारतीय आर्य भाषा की पूरी श्रृंखला को 3 भागों में विभाजित किया जाता है-- प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएं 1500 ई0 पँ0 से 500 ई0 पू0 तक।
- मध्य कालीन भारतीय आर्य भाषाएं 500 ई0 से 1000 ई0 पू0 तक।
- आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएं 1000 ई0 सन् से अब तक।
1. प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएँ -
इनका समय 1500 ई0 पू0 तक माना जाता है। वस्तुत: यह विवादास्पद विषय है। इस वर्ग में भाषा के दो रूप अपलब्ध होते है-- वैदिक या वैदिक संस्कृत,
- संस्कृत या लौकिक संस्कृत।
2. संस्कृत या लौकिक संस्कृत - प्राचीन भारतीय आर्यभाषा का दूसरा ‘संस्कृत’ है। इसी को ‘लौकिक संस्कृत’ या ‘क्लासिकल संस्कृत’ भी कहा जाता है। यूरोप में जो स्थान ‘लैटिन’ भाषा का है, वही स्थान भारत में संस्कृत का है। गुप्तकाल में संस्कृत की सर्वाधिक उन्नति हुई थी। इसका साहित्य विश्व के समृद्धतम साहित्यों में से एक है। ‘वाल्मीकि’, ‘व्यास’, ‘कालीदास’, आदि इसकी महान् विभूतियाँ हैं। विश्व-विख्यात महाकवि कालीदास का ‘अभिज्ञान-शाकुन्तलम्’ नाटक संस्कृत भाषा श्रृंगार है। विश्व की अनेक भाषाओं में संस्कृत के अनेक ग्रन्थों का अनुवाद हुआ है।
3. राजस्थानी भाषा -यह राजस्थान क्षेत्र या प्रदेश की भाषा है। इसके अंतर्गत चार प्रमुख बोलियाँ आती हैं- मेवाती, जयपुरी, मारवाड़ी और मालवी।
9. पूर्वी-हिन्दी भाषापश्चिमी हिन्दी क्षेत्र के पूर्व में होने से इसी पूर्वी हिन्दी का नाम दिया गया है। इसकी कुछ विशेषताएं पश्चिमी हिन्दी से मिलती है, तो कुछ बिहारी वर्ग की भाषाओं से। इसे तीन बोलियों-अवधी, बघेली, और छत्तीसगढ़ में विभक्त करते हैं।
11. पंजाबी भाषा - पंजाब क्षेत्र की भाषा के कारण इसका नाम पंजाबी हुआ है। यह सिक्ख-साहित्य की मुख्य भाषा है। इस पर दरद का प्रभाव है। इस भाषा का केन्द्र अमृतसर है। पंजाबी भाषा की विभिन्न बोलियों में अधिक अन्तर नहीं है।
1. प्रथम वर्गीकरण - उन्होंने इस वर्गीकरण में समस्त भाषाओं को मुख्यत: तीन वर्गों में विभक्त किया है।
मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाएँ
प्राकृत भाषा का विकास-काल ईपू. 500 से 1000 ई. माना जाता है। मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाओं के तीन रूप स्पष्ट दिखाई देते हैं-- पाली भाषा- यह प्राकृत का प्रारम्भिक रूप है जिसका समय 500 ई0 पू0 के प्रथम शताब्दी के प्रारम्भ तक माना गया है। इसकी उत्पत्ति के विषय में विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ विद्वानों का कहना है कि संस्कृत की उत्पत्ति प्राकृत से हुई है।
- प्राकृत भाषा- इसे द्वितीय प्राकृत और साहित्यिक प्राकृत भी कहते हैं। इसका काल प्रथम शताब्दी से 5वीं शताब्दी तक है। विभिन्न क्षेत्रों में इसके भिन्न-भिन्न रूप विकसित हो गये थे।
- मागधी भाषा- इसका विकास मगध के निकटवर्ती क्षेत्र में हुआ। इसमें कोई साहित्यिक कृति उपलब्ध नहीं है।
- अर्ध-मागधी भाषा - यह मागधी तथा शौरसेनी के मध्य बोली जाने वाली भाषा थी। यह जैन साहित्य की भाषा थी। भगवान महावीर के उपदेश इसी में है।
- महाराष्ट्री भाषा- इसका मँल स्थान महाराष्ट है। इसमें प्रचुर साहित्य मिलता है। गाहा सत्तसई (गाथा सप्तशती), गडवहो (गौडवध:) आदि काव्य ग्रन्थ इसी भाषा में है।
- पैशाची भाषा- इसका क्षेत्र कश्मीर माना गया है। ग्रियर्सन ने इसे दरद से प्रभावित माना है। साहित्यक रचना की दृष्टि से यह भाषा शून्य है।
- शौरसेनी भाषा - यह मध्य की भाषा थी। इसका केन्द्र मथुरा था। नाटकों में स्त्री-पात्रों के संवाद इसी भाषा में होते थे। दिगम्बर जैन से सम्बधित धर्मग्रन्थ इसी में रचे गए हैं।
आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएं
आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का विकास अपभ्रंश के विभिन्न रूपों से हुआ है। इस संदर्भ में अपभ्रंश के सात रूप उल्लेखनीय हैं।- शौरसेनी - पश्चिमी हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी
- महाराष्टी - मराठी
- मागधी - बिहारी, बंगला, उड़ीया, असमी
- अर्ध मागधी - पूर्वी हिन्दी
- पैशाची - लहंदा, पंजाबी
- ब्राचड़ - सिन्धी
- खस - पहाड़ी
(i) बांंगरू : बांगरू नाम एक खेत्रा विशेष, जो ऊंची भूमि से सम्बन्धित हो उसे ‘‘बांगर’’ कहते हैं, के आधार पर हुआ है। इसे जाटँ, देसाड़ी और हरियाणवी नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। आजकल इसे प्राय: हरियाणवी ही कहते हैं। बाँगरू को मुख्य उप वर्गों में विभक्त कर सकते हैं-
- बाँगरू : यह केन्द्रीय बोली है। इसका केन्द्र रोहतक है। इस बोली का प्रयोग दिल्ली के निकट तक होता है। इसमें क्रिया ‘‘है’’ का ‘‘सै’’ के रूप में प्रयोग होता है।
- मेवाती : मेव-क्षेत्र विशेष के आधार पर इसका नाम मेवाती पड़ा है। इसका केन्द्र रेवाड़ी है। इसे ब्रज, राजस्थानी और बांगरू का मिश्रित रूप मान सकते हैं।
- ब्रज: ब्रज क्षेत्र इसके नामकरण का आधार है। पलवल इसका केन्द्र है।
- अहीरवाटी : रेवाड़ी और महेन्द्रगढ़ का मध्य क्षेत्र इसका केन्द्र स्थल है। नारनौल से कोसाली तक और दिल्ली से आस-पास तक इस बोली का प्रयोग होता है। इसे मेवाती, राजस्थानी बाँगरू और बागड़ी का मिश्रित रूप मान सकते हैं।
- बागड़ी़ : बागड़ी संस्कृति से जुड़ी इस बोली का क्षेत्र भिवानी, हिसार, सिरसा के अतिरिक्त महेन्द्रगढ़ के कुछ भाग तक फैला है।
- कौरवी : उत्तर प्रदेश के मेरठ, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर के अतिरिक्त हरियाणा के सोनीपत, पानीपत और करनाल तक इसका क्षेत्र फैला है।
- अम्बावली : इसका प्रयोग क्षेत्र अम्बाला, यमुनानगर तथा कुरूक्षेत्र तक विस्तृत है। अम्बावली और कौरवी में बहुत कुछ साम्य है।
(iii) ब्रज-भाषा : ब्रज क्षेत्र विशेष में बोली जाने वाली बोली को ब्रज-भाषा कहते हैं। ब्रज-भाषा मथुरा, आगरा, अलीगढ़, धौलपुर, मैनपुरी आदि जनपदों में बोली जाती है।
(iv) कन्नौजी : यह कन्नौज विशेष क्षेत्र की बोली है, जिसका प्रयोग इटावा, फरुखाबाद, शाहजहाँपुर, हरदोई तथा कानपुर आदि जनपदों में होता है।
(v) बुन्देली : बुन्देलखण्ड में बोली जाने के कारण इसे बुन्देली कहते हैं। इसका क्षेत्र झांसी, छतरपुर, ग्वालियर, जालौन, भोपाल, सागर आदि जनपदों तक फैला हुआ है।
3. राजस्थानी भाषा -यह राजस्थान क्षेत्र या प्रदेश की भाषा है। इसके अंतर्गत चार प्रमुख बोलियाँ आती हैं- मेवाती, जयपुरी, मारवाड़ी और मालवी।
- मेवाती : मेव जाति के क्षेत्र मेवाती के नाम पर यह बोली मेवाती कहलाई है। यह अलवर के अतिरिक्त हरियाणा के गुड़गाँव जनपद के कुछ अंश में बोली जाती है। ब्रज-क्षेत्र से लगे होने के कारण इस पर ब्रजभाषा का प्रभाव है।
- जयपुरी : यह राजस्थान के पूर्वी भाग जयपुर, कोटा तथा बूंदी आदि क्षेत्रों में बोली जाती है। इस क्षेत्र को ढँढाण कहने के आधार पर इसे ढुँढणी की भी संज्ञा दी जाती है।
- मारवाड़ी़ : यह पश्चिमी राजस्थान के जोधपुर, अजमेर, जैसलमेर तथा बीकानेर आदि जनपदों में बोली जाती है। पुरानी मारवाड़ी को डिंगल कहते हैं।
- मालवी : राजस्थान के दक्षिणी पर्व में स्थित मालवा क्षेत्र के नाम पर इसे मालवी कहते हैं। इन्दौर, उज्जैन तथा रतलाम आदि जनपद इसके क्षेत्र में आते हैं।
5. बिहारी भाषा -बिहारी क्षेत्र या प्रदेश में विकाशित होने के कारण इसका नाम बिहारी रखा गया है। यह हिन्दी भाषा का ही रूप है। इसके अन्तर्गत भोजपँरी, मैथिली, मगही तीन प्रमुख बोलियाँ आती हैं।
- भोजपूरी : यह बिहार तथा उत्तर-प्रदेश के सीमावर्ती जिलों भोजपुर, राँची, सारन, चम्पार, मिर्जापुर, जौनपुर, बलिय, गोरखपुर, बस्ती आदि में बोली जाती हैं।
- मैथिली : जनपदीय क्षेत्र की भाषा होने के आधार पर इसे मैथिली नाम दिया गया है। इसके क्षेत्र में दरभंगा, सहर और मुजफ्फरपुर तथा भागलपुर जनपद आते हैं।
- मगही: ‘‘मागधी’’ से विकसित होकर मगही शब्द बना है। ‘‘मगाध’’ क्षेत्र की भाषा होने के आधार पर इसे मागधी या मगाही नाम दिया गया है। गया जनपद के अतिरिक्त पटना, भागलपुर, हजारीबाग तथा मुंगेर आदि जनपदांशों में भी यही बोली जाती है।
7. उड़िया भाषा - उडी़सा को ‘‘उत्काल’ नाम से संबोधित किया जाता था, इसलिए इसे ‘‘उत्कली’’ भी कहते हैं। उड़िया का शुद्ध रूप ओड़िया है इसलिए इसे ‘‘ओड़ी’’ भी कहते है। बंगला तथा उड़िया भाषा में पर्याप्त समानता है। इस भाषा पर मराठी तथा तेलुगू का काफी प्रभाव है, क्योंकि यह क्षेत्र एक लम्बे समय तक ऐसे भाषा-भाषी राज्याओं के शासन में रहा है। इसमें परम्परागत तत्सम शब्द पर्याप्त रूप से कृष्ण भक्तिपरक रचनाएँ मिलती हैं। इसकी लिपि उड़िया है, पुरानी नागरी से विकसित हुई है।
8. असमी भाषा -मागधी अपभ्रंश से विकसित भाषाओं में असमी एक भाषा है। असमी, आसामी, असमीया, असामी आदि नामों से जानी जाने वाली यह भाषा आसाम या असम प्रान्त की भाषा है। इसमें तथा बंगला में बहुत कुछ साम्य है। यह साहित्य सम्पन्न भाषा है।
9. पूर्वी-हिन्दी भाषापश्चिमी हिन्दी क्षेत्र के पूर्व में होने से इसी पूर्वी हिन्दी का नाम दिया गया है। इसकी कुछ विशेषताएं पश्चिमी हिन्दी से मिलती है, तो कुछ बिहारी वर्ग की भाषाओं से। इसे तीन बोलियों-अवधी, बघेली, और छत्तीसगढ़ में विभक्त करते हैं।
- अवधी : यह पूर्वी हिन्दी की प्रमुख बोली है। अवध (अयोध्या) क्षेत्र की भाषा होने के कारण इसे अवधी कहते हैं। प्राचीन काल में अवध को ‘‘कोशल’’ भी कहा जाता था, इसलिए इसे कोसली भी कहते हैं। विस्तृत क्षेत्र में प्रयुक्त होने के कारण इसे तीन उपवर्गों में विभक्त करते हैं।
- बघेली : बघेल खण्ड में बोली जाने के कारण इसे बघेली नाम दिया गया है। इसे बघेलखण्डी भी कहते हैं। इसका केन्द्र रीवाँ है।
- छत्तीसगढ़ी़ : छत्तीसगढ़ी के नाम पर इसे छत्तीसगढ़ी कहते हैं। रायपुर, विलासपुर, खैरागढ़ तथा कांके आदि तक इसका क्षेत्र माना गया है।
11. पंजाबी भाषा - पंजाब क्षेत्र की भाषा के कारण इसका नाम पंजाबी हुआ है। यह सिक्ख-साहित्य की मुख्य भाषा है। इस पर दरद का प्रभाव है। इस भाषा का केन्द्र अमृतसर है। पंजाबी भाषा की विभिन्न बोलियों में अधिक अन्तर नहीं है।
12. सिन्धी भाषा - इसका विकास ब्राचड़ या बा्रचट अपभ्रंश से हुआ है। सिन्ध क्षेत्र की भाषा होने के कारण इसे सिन्धी कहा गया है। सिन्ध क्षेत्र में सिन्धु नदी के तटीय भागों में यह भाषा बोली जाती है। इसकी कई बोलियाँ हैं, जिनमें बिचौली मुख्य है। इसका साहित्य अत्यन्त सीमित है। सिन्धी भाषा की लिपि लंडा है, किन्तु आजकल इसके लेखन में फारसी लिपि का भी प्रयोग किया जाता है।
13. पहाड़ी भाषा - इसका विकास ‘खस’ अपभ्रश से हुआ है। इसका क्षेत्र हिमालय के निकटवर्ती भाग नेपाल से लेकर शिमला तक फैला है। कई बोलियों वाली इस भाषा को तीन उपवर्गों में विभक्त करते हैं -
- पश्चिमी पहाड़ी़ : इसमें शिमला के आस-पास चम्बाली, कुल्लई आदि बोलियाँं आती हैं।
- मध्य पहाड़ी़ : इसमें कुमायूं तथा गढ़वाल का भाग आता है। नैनीताल तथा अल्मोड़ा में बोली जाने वाली कुमायूनी तथा गढ़वाल, मंसूरी में बोली जाने वाली गढ़वाली बोलियाँ मुख्य हैं।
- पूर्वी पहाड़ी़ : काठमाण्डू तथा नेपाल की घाटी में यह भाषा बोली जाती है। पहाड़ी बोलियों का समृद्ध लोक-साहित्य है। इसकी लिपि मुख्यत: देवनागरी है।
आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का वर्गीकरण
वर्गीकरण प्रस्तुत करने वाले मुख्य भाषा-वैज्ञानिक हैं-हार्नलें, बेबर, ग्रियर्सन, डाँ0 सुनीति कुमार चटर्जी, डॉ0 धीरेन्द्र वर्मा, श्री सीताराम चतुर्वेदी, डॉ0 भोलानाथ आदि।1. हार्नले द्वारा प्रस्तुत भारतीय आर्य भाषा का वर्गीकरण -
प्रकार हार्नले ने आर्यों के बहिरंग तथा अंतरंग वर्गों के आधार पर ही उनकी भाषाओं को भी वर्गीकृत किया है। इस आधार पर हार्नले ने अंतरंग और बहिरंग दो वर्ग बनाए।
हार्नले ने "Comparative Grammer of the Gaudian Languages" में एक भिन्न वर्गीकरण भी प्रस्तुत किया है। इसमें उन्होंने विभिन्न दिशाओं के आधार पर भाषा-सीमा बनाने का प्रयत्न किया है। ये भाषा वर्ग हैं-
हार्नले ने "Comparative Grammer of the Gaudian Languages" में एक भिन्न वर्गीकरण भी प्रस्तुत किया है। इसमें उन्होंने विभिन्न दिशाओं के आधार पर भाषा-सीमा बनाने का प्रयत्न किया है। ये भाषा वर्ग हैं-
- पूर्वी गौडियन : पूर्वी हिन्दी (बिहारी सहित), बंगला, उड़ीसा, असमी।
- पश्चिमी गौडियन : पश्चिमी हिन्दी (राजस्थानी सहित), गुजराती, सिन्धी, पंजाबी।
- उत्तरी गौडियन : पहाड़ी (गढ़वाली, नेपाली आदि)
- दक्षिणी गौडियन : मराठी।
2. ग्रियर्सन द्वारा प्रस्तुत भारतीय आर्य भाषा का वर्गीकरण -
जार्ज इब्राहिम ग्रियर्सन ने दो वर्गीकरण इस प्रकार हैं-
1. प्रथम वर्गीकरण - उन्होंने इस वर्गीकरण में समस्त भाषाओं को मुख्यत: तीन वर्गों में विभक्त किया है।
1. बाहरी उपशाखा -
- पश्चिमोत्तर वर्ग : लहँदा, सिन्धी।
- दक्षिणी वर्ग : मराठी।
- पूर्वी वर्ग : उड़िया, बंगला, असमी, बिहारी।
- पूर्वी हिन्दी।
- केन्द्रीय वर्ग : पश्चिमी हिन्दी, पंजाबी, गुजराती, राजस्थानी (भीली, खानदेशी)
- पहाड़ी़वर्ग : नेपाली (पूर्वी पहाड़ी), मध्य पहाड़ी, पश्चिमी पहाड़ी।
2. द्वितीय वर्गीकरण - गिय्रसर्न ने बाद में हिन्दी को विशेष महत्व देते हएु एक नए ढगं का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है इस वर्गीकरण में विभिन्न भाषाओं की समान विशेषताओं पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
- मध्य देशीय भाषाएँ - पश्चिमी हिन्दी
- अन्तर्वत भाषाएँ - पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती, पहाड़ी (पश्चिमी हिन्दी से अधिक समता रखने वाली भाषाएँ); पँर्वी हिन्दी (बाहरी भाषाओं से समता रखने वाली भाषाएँ)
- बाहरी भाषाएँ - 1. श्चिमोत्तरी भाषाएँ - लहँदा, सिन्धी 2. दक्षिणी भाषा -मराठी 3. पूर्वी भाषाएँ - बिहारी, उड़िया, बंगला, असमी।
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