अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के कार्य

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से विश्व-आर्थिक परिदृश्य पर विचार विमर्श करने के उद्देश्य से 1945 में बेटनबुडस सम्मलेलन में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा परिषद की बैठक में 44 मित्र राष्ट्रों के प्रतिनिधित्व ने विश्व-स्तरीय दो मौद्रिक संस्थाओं-अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक की स्थापना का प्रस्ताव रखा। यह कोष एक तरह से विश्वस्तरीय केन्द्रीय बैंक के रूप में कार्य करता है। इस तरह से किसी देश के केन्द्रीय बैंक तथा मौद्रिक कोष एक तरह से किसी देश के केन्द्रीय बैंक तथा मौद्रिक बैंक देश के व्यापारिक बैंको के नकद कोषों में से कुछ भाग अपने पास जमा के रूप में प्राप्त कर देश की मुद्रा कोष विभिन्न देशों के केन्द्रीय बैंको द्वारा जमा की जाने वाली राशि के आधार विभिन्न सदस्य राष्ट्रों की मौद्रिक तथा आर्थिक नीति में समन्वय लाने की दिशा में क्रियाशील होता है।

मुद्रा कोष और केन्द्रीय बैंक की प्रकृति में कुछ अतंर भी है। केन्द्रीय बैंक आवश्यकता के समय मुद्रा का निर्माण कर साख की कमी को दूर कर सकता हैं वह व्यापारिक बैंको को मौद्रिक नीति के पालन के लिए विवश कर सकता हैं जबकि मुद्रा कोष सदस्य राष्ट्रों की मुद्रा सम्बन्धी माँग को केवल कोष के आधार पर ही पूर्ण कर सकता है उसके पास मुद्रा के निर्माण कर सकने की शक्ति नहीं है। साथ ही सभी देश अपनी आतंरिक अर्थ-नीति को निर्धारित करने के विषय में स्वतन्त्र हैं। अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष के निर्माण से दोनो ही प्रकार के देशों को जिनका भुगतान-संतुलन प्रतिकूल है तथा जिनका भुगतान-सतुंलन अनुकूल रहता है, लीा है। मुद्रा कोष की स्थापना यदि न हुई होती तो अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार समंवत उतना ही रह जाता जितना दो देशों के बीच प्रत्यक्ष विनिमय के द्वारा अथवा पारस्परिक द्विपक्षीय समझौते के द्वारा सम्भव होता।
  1. अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक सहयोग :- स्थायी सस्था जो अन्तराष्ट्रीय मौद्रिक समस्याओं पर परामर्श देगी और पारस्परिक सहयोग को सम्भव बनाएगी की स्थापना करना अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के समझौते का प्रधान उद्देश्य था। इस प्रकार अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में वृद्धि सम्भव थी।
  2. संतुलित आर्थिक विकास : अंतराष्ट्रीय व्यापार विस्तार और सतुंलित विकास की सुविधा प्रदान करना और इस प्रकार सभी सदस्य देशों में रोजगार का ऊंचा स्तर बनाए रखना।
  3. विनिमय स्थायित्व :- विनिमय स्थिरता उत्पन्न करना, सदस्य देशों के मध्य विनिमय व्यवस्थाओं को बनाए रखना तथा प्रतियोगी विनिमय अवमूल्यन को रोकना।
  4. बहुमुखी भुगतान :- सदस्यों के मध्य चालू व्यवसायों के सबंध में बहुमुखी भुगतान की वयवस्था की स्थापना तथा विदेशी विनिमय सबंधी प्रतिबंधो को हटाने में योगदान करना।
  5. आर्थिक सहायता :- समुचित सुरक्षा के साथ सदस्य देशों के लिए कोष के साधनों को उपलब्ध कर उनमें विश्वास उत्पन्न करना और इस प्रकार उन्हें राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय उन्नति में बाधक रीतियों को अपनाए बिना ही भुगतान-संतुलन संबंधी असंतुलनों को दूर करने का अवसर प्रदान करना।
  6. असंतुलन कम करना :- उपर्युक्त व्यवस्थाओं के अनुसार सदस्य देशों के अंतर्राष्ट्रीय भुगतान-सतुलन संबधी असंतुलनों को दूर करने का अवसर प्रदान करना और असंतुलनों की अवधि और अंश को कम करना।

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के कार्य

सदस्य देशों की मुद्राओं की सम-मूल्य दरों का निर्धारण 

पहले मुद्रा कोष की स्थापना के आरम्भ में प्रत्येक देश को अपनी मुद्रा का मूल्य डॉलर अथवा स्वर्ण में निर्धारित करना होता था। जब सभी देश अपनी-अपनी मुद्राओं का मूल्य स्वर्ण में घोषित कर देते थे तो विनिमय दरों को निर्धारित करना अति सहज हो जाता था। इस प्रकार बैटन वुडस समझौते के अनुसार स्वर्ण की सहायता से दो देशों के विनिमय की सम मूल्य दरें निर्धारित हो जाती थीं परंतु आजकल स्वर्ण का महत्व कम होने से उच्चावचन बढ़ गये हैं। स्वर्ण पर आधारित विनिमय दरों के समता मूल्य निर्धारित करने में कुछ शर्तो का पालन करना अनिवार्य था। यदि कोई देश 10 से 20 प्रतिशत के बीच विनिमय दर में परिवर्तन करन चाहता था तो इसके लिए उसे कोष की अनुमति लेना अनिवार्य था। इस प्रकार मुद्रा कोष केवल उन्ही स्थितियों में समता-दर में परिवर्तन की अनुमति देता था जब वह सन्तुष्ट हो कि देश की आर्थिक स्थिति में अंतर आ जाने के कारण विनिमय दर में महत्वपूर्ण असंतुलन उत्पन्न हो गया हो। साथ ही इस बात की भी व्यवस्था थी कि यदि किसी सदस्य देश की मुद्रा का सम-मूल्य किसी भी दिशा में परिवर्तित होता था जिससे कि मुद्रा कोष की पूंजी का स्वर्ण मूल्य यथावत बना रहे। इस प्रकार किसी देश द्वारा मुद्रा के किए जाने वाले अवमूल्यन के मनमाने व्यवहार पर प्रतिबंध लगाने का माध्यम बना।

विनिमय नियत्रंण पर रोक

यदि विनियम दर में स्थिरता प्राप्त करने के लिए विनिमय प्रतिबन्धों के द्वारा अंतर्राष्ट्रीय चालू व्यवसायों को काफी कम रखा जाए और इस स्थिति को विश्व की अर्थव्यवस्था का एक स्थायी तत्व रख दिया जाए तो यह दीर्घकाल में काफी हानिकारक सिठ्ठ होगा। इसलिए मुद्रा कोष का उद्देश्य विनिमय दर में स्थिरता लाने के साथ-साथ बहुपक्षीय व्यापार को प्रोत्साहित करना है। मुद्रा कोष उन प्रतिबन्धों को दूर करने की दिशा में भी प्रयत्नशील रहता है जो अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के विकास में बाधक होता हैं इस संबध में सभी सदस्य देशों पर यह प्रतिबंध लगाया गया है कि वे चालू व्यवसायों के ऊपर तभी प्रतिबन्ध लगा सकेंगे जबकि मुद्रा कोष से इस सबंध में पूर्व अनुमति प्राप्त कर ले। जब मुद्रा कोष किसी देश की मुद्रा को दुर्लभ मुद्रा घोषित कर देता है। उस समय मुद्रा कोश के सदस्य देश चालू व्यवसायों के ऊपर प्रतिबन्ध लगा सकते हैं। इस प्रतिबन्ध की प्रकृति मुद्रा कोष पुन घोषित कर देता है कि अब वह मुद्रा दुर्लभ नहीं है वैसे ही सदस्य देशों का चालू व्यवसायों पर प्रतिबन्ध हटा देने पड़ते हैं।

अल्पकालीन अंतर्राष्ट्रीय साख की व्यवस्था

यह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अल्पावधि साख की व्यवस्था करता है। यदि किसी देश के भुगतान संतुलन की स्थिति चितांजनक है तो वह उस देश की मुद्रा प्राप्त करके उसे ठीक कर सकता है। किंतु मुद्रा कोष का यह उत्तरदायित्व नहीं है कि वह स्वस्थ देश की भुगतान संतुलन सबंधी सभी आवश्कताओं को पूर्ण करे। इस तरह से मुद्रा कोष आकस्मिक संकट को दूर करने का एक महत्वपूर्ण उपाय है।

यदि किसी देश का भुगतान संतुलन अस्थायी है तो उसे दूर करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की सदस्यों को मुद्रा कोष से विदेशी विनिमय क्रय कर सकने का अधिकार है। मुद्रा कोष का यह कर्तव्य है कि वह सदस्य देश द्वारा देशीय मुद्रा तथा स्वर्ण के बदले किसी भी अन्य देश की मांग को पूरा करे। परंतु इसके लिऐ दो शर्ते हैं-प्रथम किसी समय मुद्रा उसके निर्धारित अध्याश के दुगुने से अधिक नहीं होनी चाहिए। दूसरा, कोई भी सदस्य देश एक वर्ष के अतंर्गत अपने चलन के बदले में अपने अध्याश के 25 प्रतिशत भाग से अधिक मूल्य के विदेशी विनिमय नहीं खरीद सकता। विदेशी विनिमय में मितव्ययता की दृष्टि से यह प्रतिबन्ध भी उचित ही है इन प्रतिबन्धों के होने पर यह आशा की जाती है कि सदस्य देश स्वंय ही अपनी स्थिति को सुधारने की चेष्टा करेंगें।

दुर्लभ मुद्राएं वे हैं जिनकी मुद्रा कोष पर मांग आपूर्ति से अधिक है अतिरिक्त मांग को पूरा करने के लिए कोष को यह अधिकार दिया गया है। कि वह आवश्यकता पड़ने पर सदस्य देश के उधार से किसी देश की मुद्रा की पूर्ति का आयोजन कर सके। मुद्रा कोष यदि मांग की अपेक्षा कम आपूर्ति कर पाता है तो मुद्रा कोष उसे दुर्लभ घोषित कर देता है। परामर्शदात्री कार्य (Advisory Functions) मुद्रा कोष मौद्रिक तथा अन्य आर्थिक विषयों पर अंतर्राष्ट्रीय परामर्शदात्री संस्था के रूप में भी कार्य करता है। इसकी बैठकों में अनेक देशों के प्रतिनिधि अतंर्राष्ट्रीय आर्थिक सहयोग एवं मौद्रिक मामलों पर विचार-विमर्श करते हे। आइवर रूथ के शब्दों में अतंर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के समक्ष तीन प्रमुख कार्य हैं प्रथम, अन्तर्राष्ट्रीय भुगतान संतुलन में परिवर्तन शीलतागुण द्वितीय सदस्य देशों की मुद्राओं में परिवर्तनशील गुण एवं अंतर्राष्ट्रीय प्रभावों को कम करना।

मुद्रा कोष की कार्य प्रणाली

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की कार्य प्रणाली के अन्तर्गत कार्यों का समावेश होता है : -

ऋण देने सम्बन्धी कार्य 

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष को स्वर्ण और सदस्य देशों की मुद्राओं में जो पूंजी प्राप्त होती है उसके द्वारा अस्थाई ऋणों के रूप में सदस्यों को मौद्रिक सहायता देने का कार्य इस कोष के द्वारा ही किया जाता है। यह कार्य मुद्रा के विक्रय के रूप में किया जाता है। किसी भी सदस्य देश को ऋण देने की तीन सीमाएं होती है। प्रथम तो यह कि मांगी गई मुद्रा का प्रयोग चालू भुगतान के लिए किया जाता है। द्वितीय सीमा क अन्र्तगत यह ध्यान रखा जाता है कि मुद्रा कोष ने मांगी हुई मुद्रा को दुर्लभ घोषित न किया हो तथा तृतीय सीमा यह है कि जो सदस्य देश अपनी मुद्रा देकर, अन्य देश की मुद्रा खरीद रहा है, उससे सदस्य देश के अभ्यंश में एक वर्ष की अवधि तक के 25 प्रतिशत से अधिक की वृठ्ठि नहीं होगी। सदस्य देश के कुल कोटे का 75 प्रतिशत से कम जमा होने पर 25 प्रतिशत की सीमा को ढीला किया जा सकता हैं

सभी सदस्य देशों पर यह प्रतिबन्ध लगाया गया है कि कोई भी देश अपने अभ्यंश के 200 प्रतिशत से अधिक मूल्य का विदेशी विनिमय मुद्रा कोष से नहीं खरीद सकता। ऋण सम्बन्धी इन सीमाओं का निर्धारण इसलिए किया जाता है कि मुद्राकोष के पास किसी सदस्य देश की मुद्रा की कमी न हो सके।

कोष के हितों का ध्यान रखते हुए यह व्यवस्था की जाती है कि ऋण अल्पकालीन व अस्थाई हों व तीन से पांच वर्ष की अवधि में ऋणों का भुगतान कर दिया जायेगा तथा कभी-कभी किसी विशेष परिस्थिति में मुद्रा कोष देने की शर्तो को उदार भी बना सकता हे। 25 प्रतिशत प्रतिवर्ष के प्रतिबन्ध के विषय में तो कई बार अतिक्रमण भी किया गया है किन्तु अभ्यंश की 20 प्रतिशत का प्रतिबन्ध के विषय पर सभी दृढ़ता से पालन करते रहे हैं। संकटकालीन स्थिति में मुद्रा कोष अभ्यंश के शतप्रतिशत ऋण की भी व्यवस्था करता है। सामान्यत: अभ्यंश के 50 प्रतिशत तक के कोष एक वर्ष में ही उधार दे दिए जाते हैं। मुद्रा कोष के भूतपूर्व प्रबन्ध निर्देशक जेकबसन ने अपने विचार इस विषय में इन शब्दों में व्यक्त किए हैं “मुद्रा कोष आग बुझाने वाले इंजन की तरह है जिसका प्रयोग केवल संकटकाल में ही किया जाना चाहिए।” प्राय: मुद्रा कोष से निम्न रूपों में मदद ली जा सकती हैं-
  1. संकट काल की स्थिति में- यदि कोई भी संकट में घिरा हुआ देश अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने का प्रयत्न करने का पूर्ण आश्वासन देता है तो मुद्रा कोष किसी भी ऐसे देश को आर्थिक सहायता शीघ्र से शीघ्र दे देता है। उदाहरणार्थ मुद्राकोष ने भारत को 1983 में 5.6 अरब SDR की संकटकालीन सहायता दी थी तथा ब्रिटेन को 1976 में आर्थिक संकट के समय 2,400 मि. SDR की सहायता प्रदान की थी। फ्रांस को 1968 के भीषण आर्थिक और राजनीतिक संकट के समय 745 मि. SDR तथा 1971 में डालर संकट के समय अमरीका को 1.362 मि. SDR सहायता लेने की आवश्यकता पड़ गई थी। 1967 में पौण्ड का अवमूल्यन होने पर मुद्रा कोष ब्रिटेन को 1,400 मिलियन SDR की सहायता दी थी।
  2. चालू भुगतान शेष की कठिनाई की स्थिति में- कभी-कभी किसी-किसी देश को इस तरह की समस्या का सामना करना पड़ता है कि उसे उपभोग वस्तुओं या पूंजीगत वस्तुओं के अधिक आयात के कारण भुगतान शेष में कठिनाई होती है, ऐसी स्थिति में उसे मुद्रा कोष से अस्थाई या अल्पकालीन सहायता लेनी पड़ती है, जिससे वह चालू भुगतान शेष की कठिनाई से उत्पन्न स्थिति का सामना कर सके। भारत हालैंड, अर्जेण्टाइना, डेनमार्क, फ्रांस आदि ऐसे देश हैं, जो ऐसी परिस्थिति में मुद्रा कोष से ऋण ले चुके हैं
  3. सामायिक विनियम संकट दूर करने के लिए सामयिक विनिमय संकट को दूर करने के लिए भी मुद्रा कोष ऋण देता रहता है। क्यूबा, निकारागुआ और होण्डुरास आदि देशों को सामयिक विनिमय संकट की स्थिति में मुद्रा कोष ऋण देकर सहायता कर चुका है। मुद्रा कोष द्वारा इस प्रकार की सहायता 6 से 12 माह के लिए नियमित रूप से दी जाती है। इस प्रकार की सहायता की आवश्यकता कुछ ऐसे अर्द्धविकसित देशों को ही होती है, जो सीमित निर्यात कर पाते हैं तथा जो प्राथमिक उत्पादन के निर्यात पर ही निर्भर रहते हैं। जब तक उन्हें इस निर्यात का भुगतान नहीं मिल जाता, उन्हें विदेशी विनिमय कठिनाई उठानी पड़ती हैं
  4. स्थायित्व ऋण- सब देशों के भुगतान के लिए समान विनिमय दर स्थापित करने के लिए इस प्रकार के ऋण दिए जाते हैं। कभी-कभी विनिमय नियंत्रण की सहायता लेकर एवं बहु विनिमय दरों को अपना कर भी बहुत से देश अपने भुगतान शेष की कठिनाई को दूर करने का प्रयास करते हैं, किन्तु इन दरों के कारण विनिमय मे काफी मुश्किल समायोजन करने पड़ते हैं, ऐसी स्थिति में वे मुद्रा कोष से अस्थाई ऋण लेकर एक समता दर अपनाने का प्रयास करते हैं।

दुर्लभ मुद्रा सम्बन्धी कार्य- 

यदि कभी ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि मुद्रा कोष के पास किसी देश की मुद्रा दुर्लभ हो जाती है तो वह मुद्रा की दुर्लभता के कारणों सहित सदस्यों को इसके लिए सूचित करता है। यदि कभी ऐसा होता है किसी देश की मुद्रा की मांग उसकी पूर्ति की अपेक्षा इतनी अधिक बढ़ जाती है कि मुद्रा कोष उसको पूरा करने में स्वयं को असमर्थ अनुभव करता है तो कोष सम्बन्धित देश से मुद्रा उधार ले सकता है या सोने के बदले उसे खरीद सकता है। यदि ऐसा करने पर भी मुद्रा की मांग पूरी नहीं हो पाती तो उस मुद्रा को दुर्लभ मुद्रा घोषित कर दिया जाता है। इन परिस्थितियों में मुद्रा कोष की मांग करने वाले सदस्य देशों को दुर्लभ मुद्रा वाले देशों से किए जाने वाले आयातों पर प्रतिबन्ध लगाकर अपने भुगतान-शेष की प्रतिकूलता को ठीक करने का व दुर्लभ मुद्रा की राशनिंग का अधिकार मिल जाता है।

विनिमय स्थायित्व सम्बन्धी कार्य- 

मुद्रा कोष की स्थापना के मुख्य उद्देश्य, सदस्य देशों के मध्य विनिमय स्थायित्व को कायम रखने के लिए, यह निश्चित किया गया था कि सब देशों की मुद्रा को स्वर्ण अथवा डालर में निर्धारित कर दिया जाए। मुद्रा कोष ने विनिमय दरों के निर्धारण के सम्बन्ध में प्रबन्धित परिवर्तनशीलता (Managed Flexibility ) के सिठ्ठांत को अपनाकर विनिमय दरों को लोचपूर्ण रखा। इस सिठ्ठांत के अन्तर्गत सदस्य देश, कोष को सूचित करके, अपनी मुद्रा की प्रारम्भिक समता दर में 10 प्रतिशत तक परिवर्तन कर सकता है। यदि कोई भी देश 10: से 20: तक परिवर्तन करना चाहता है तो उसके लिए आवश्यक है कि वह मुद्रा कोष की पूर्व स्वीकृति ले परन्तु इससे अधिक परिवर्तन के लिए दो-तिहाई सदस्यों की सहमति आवश्यक हैं।

1 जनवरी 1976 में कोष की अन्तरिम समिति ने अपनी जमैका में हुई बैठक मे यह निर्णय लिया गया कि विनिमय दरों के सम्बन्ध में सदस्य देश अपनी स्वतन्त्र नीति अपना सकते हैं परन्तु कोष और अन्य देशों के साथ विनिमय की उचित व्यवस्था बनाने का उत्तरदायित्व सदस्यों पर रहेगा। 1 जनवरी 1976 की बैठक दिसम्बर 1975 मे हुए स्मिथ सोनियम समझौते (Smith Sonian Agreement) से अधिक सफल हुई, क्योंकि समझोते के अन्तर्गत सदस्य देशों द्वारा विनिमय की जो दरें निश्चित की गई थीं, बाद में सब देशों ने उन्हें त्याग कर स्वतंत्रा विनिमय दरों को अपना लिया था।

विनिमय नियंत्रण को हटाना या कम करना- 

विनिमय नियन्त्रण को हटाने व कम करने के लिए मुद्रा कोष ने यह व्यवस्था की कि व्यापार एवं चालू लेन-देन में किसी प्रकार का प्रतिबन्ध न हो, परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय पूंजी प्रवाह को रोकने के लिए मुद्रा कोष विनिमय नियंत्रण को अनुमति देता है। के.के कुरिहारा (K.K. Kurihara) ने इस विषय में स्पष्ट शब्दों में कहा है, मुद्रा कोष एक ओर विनिमय द्रवता के बिना विनिमय स्थयित्व बनायें रखने का प्रयत्न करता है और दूसरी ओर कुछ विनिमय नियन्त्रण के साथ विनिमय की लोचपूर्णता को प्रोत्साहित करता है।

मुद्रा कोष के प्रकाशन- 

मुद्रा कोष द्वारा मुद्रा, बैकिंग, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार प्रशुल्क नीति से सम्बन्धित कई प्रकाशन प्रकाशित किए जाते हैं। इनमें वार्षिक रिपोर्ट, विनिमय प्रतिबन्ध पर वार्षिक प्रतिवेदन, भुगतान शेष, वार्षिकी, मुद्रा केाष सर्वे (पाक्षिक), अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय सांख्यिकी (मासिक) व्यापार दिशा (मासिक) वित्त एवं विकास (त्रौमासिक एवं स्टार पेपर्स इत्यादि हैं। मुद्रा कोष विश्व बैंक के साथ मिल कर "The Fund and the Bank Review" त्रौमासिक पित्राका का प्रकाशन भी करता है।

तकनीकी सहायता-

मुद्रा कोष दो प्रकार से सदस्य देशों की तकनीकी सहायता भी करता है-(1) मुद्रा कोष सदस्य देशों को अपने विशेषज्ञों की सेवायें प्रदान करता है। (2) आवश्यकता पड़ने पर मुद्रा कोष द्वारा बाहरी विशेषज्ञों को भी जटिल समस्याओं के समाधान के लिए सदस्य देशों में भेजा जाता है। तकनीकी सहायता देने के लिए मुद्रा कोष के दो विभाग सदैव कार्यरत रहते हैं- (1) केन्द्रीय बैंकिग सेवा विभाग (Central Banking Service Department) एवं प्रशुल्क मामलों का विभाग (Fiscal Affairs Department).

प्रशिक्षण कार्यक्रम- 

1951 से सदस्य देशों के प्रतिनिधियों को मुद्रा कोष द्वारा प्रशिक्षण देने का कार्यक्रम चलाया जा रहा है, जिसके अन्तर्गत अन्तर्राष्ट्रीय भुगतान, आर्थिक विकास, आंकड़ों का संकलन और विश्लेषण और वित्तीय व्यवस्था इत्यादि का प्रशिक्षण सम्मिलित हैं यह प्रशिक्षण अधिकतर केन्द्रीय बैंक तथा सरकार के वित्त विभाग के उच्च पदाधिकारियों के लिए होता है।

ट्रस्ट कोष- 

जनवरी 1976 में मुद्रा कोष द्वारा एक ट्रस्ट कोष बनाने का निर्णय लिया गया, जिसके अन्तर्गत चार वर्ष के कार्यकाल में मुद्रा कोष द्वारा 25 मिलियन और सोना बेचने का प्रावधान किया गया औस इसके विक्रय से मिलने वाली आधिक्य राशि का अधिकांश भाग ट्रस्ट-कोष में जमा किया जाता है। इस कोष में जमा राशि के विषय में यह निर्णय लिया गया है कि इसमें से आधा प्रतिशत राशि वार्षिक ब्याज की दर पर सहायता देने के लिए प्रयोग की जायेगी। इन देशों में भारत को मिलाकर 62 देश सम्मिलित हैं।

क्षतिपूरक वित्तीय सहायता-

जो देश मुख्यत: प्राथमिक पदार्थो का उत्पादन और नियार्त करते है, उन देश के अभयंश के आधार पर निश्चित राशि के अतिरिक्त भी सहायता देने को प्रावधान हैं प्रारंम्भ में क्षतिपूरक वित्तीय सहायता के रूप में देश को एक वर्ष की अवधि में अपने अभ्यंश का 50 प्रतिशत भाग प्राप्त करने का अधिकार था किन्तु 1980 में मुद्रा कोष ने एक वर्ष की अवधि में अभ्यंश के उपर्युक्त शर्त समाप्त कर दी। जुलाई 1985 तक विभिन्न देनों को इस पद के अन्तर्गत दी गई सहायता की रकम 7.3 अरब SDR के तुल्य थी। ;10द्ध सेवा शुल्क एवं लींश- मुद्रा कोष द्वारा किसी सदस्य देश को ऋण देने पर जिस मुद्रा में उसे ऋण दिया जाता है वह मुद्रा मात्रा में कोष की निश्चित मुद्रा की मात्रा में से कम हो जाता हैं अर्थात वह देश कोष का ऋणी हो जाता है और उसे वे सभी शर्ते माननी होती हैं जो तात्कालिक प्रभाव में लागू होती है। ब्याज की दरें प्रगतिशील प्रकार की होती है अर्थात् ऋण भार की मात्रा के बढ़ने से ऋण मात्रा की सीमा की वृठ्ठि के अनुसार ब्याज की दर भी बढ़ती चली जाती हैं। इसका सीधा लीा यह होता है कि एक तो देश मुद्रा कोष से उधार लेने में हिचकिचाता है, तात्पर्य यह कि वह कोष से ऐसे कार्यो के लिए ऋण नहीं लेता जो अनावश्यक प्रकृति के होते हैं। इससे एक ओर जहां उत्पादन में वृठ्ठि एवं गुणात्मक सुधार करता है वहीं दूसरी ओर वह देश बड़ी ऋण ग्रस्तता से बच जाता हैं

उपरोक्त सभी बिन्दुओं से यह स्पष्ट होता है कि अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष स्वाविक रूप से अच्छे उद्देश्यों को लेकर खोला गया था। युठ्ठ जनित परिस्थितियों से त्रास्त सभी राष्ट्र एक ऐसा मंच बनाने की तलाश में ही थे जो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर देशों को एकत्रा करने का प्रयास करें उनकी सांस्कृतिक एवं मानवीय मूल्यों पर भली प्रकार समालोचना प्रस्तुत करके सौहार्द उत्पन्न करे और वास्तव में यह कार्य अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष ने बखूबी किया परन्तु इसके कार्य काफी समय उद्देश्यों के प्रति उदासीन से लगते हैं तथा अधिक सहायता उन देशों को पहुंच जाती हैं जिनको सहायता की इतनी आवश्यकता नहीं है। अत: स्पष्ट रूप में यह कहा जा सकता है कि अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जिन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए निर्मित किया गया था, प्रारम्भ में तो उन उद्देश्यों की शतप्रतिशत सही पूर्ति होती रही परन्तु अर्थव्यवस्थाओं के विकास के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की सहायता तथा अन्य प्रवृतियों में दिशा परिवर्तन हुआ हैं। मुद्रा कोष के कुछ प्रतिबन्धित कार्य भी है जैसे मुद्रा कोष को निजी संस्थाओं एवं व्यक्तियों के साथ व्यवसाय का अधिकार नहीं है। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष केवल अधिकृत मौद्रिक संस्थाओं तथा केन्द्रीय बैंक के माध्यम से ही कार्य सम्पन्न कर सकता है। इसके साथ-साथ मुद्रा कोष दीर्घकालीन ऋणों की पूर्ति नहीं करता है। यह केवल अल्पकालीन ऋण ही दे सकता हैं।

मुद्रा कोष का एक प्रमुख प्रतिबन्धित कार्य यह भी है कि देश के सम्मुख जो सबसे बड़ी समस्या यह होती है कि भुगतान सन्तुलन को अपने पक्ष में (Favourable) लाने के प्रयास किए जाए। अन्य संस्थाएं आन्तरिक अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप करना प्रारम्भ कर देते हैं परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का यह प्रतिबन्धित कार्य स्वीकार किया गया है कि वह भुगतान सन्तुलन अपने पक्ष मे लाने वाले देश के स्वयं के प्रयासों के बीच उलझाव का प्रयास नहीं कर सकता।

यहां यह भी स्पष्ट कर देना उचित होगा कि द्वितीय महायुठ्ठ काल की परिस्थितियों ने ब्रेटनवुडस सम्मेलन में अन्र्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (M.M.F.) को कीन्स योजना, हाइट योजना आदि के मिश्रण के रूप में तथा बिगड़ती अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की महती आवश्यकता थी। प्रथम सम्मेलन में विनिमय पर परिवर्तन का अधिकार, स्वर्ण में भुगतान हेतु नियातांश की मात्रा, कोष से किये जाने वाले ऋणों का पुर्नभुगतान आदि विषयों पर गहन विचार विमर्श के उपरान्त ही इस अन्न्तर्राष्ट्रीय संस्था का उदय हुआ।

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की उपलिब्यां (सफलताऐं)

सन् 1944 में द्वितीय महायुठ्ठ से त्रस्त जिन देशों ने ब्रेटनवुडस में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं विश्व बैंक जैसी पुर्ननिर्माण्ी संस्थाओं को बनाया था उन संस्थाओं ने काफी आशाजनक परिणाम प्रस्तुत किए। हालांकि लक्ष्य : शत प्रतिशत तो पूर्ण नहीं हो सके परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने बहुत सी सफलताएं प्राप्त की जिन्हे निम्न प्रकार दर्शाया जा सकता है:-
  1. विश्व व्यापार में वृठ्ठि (Increasing World Trade) - मुद्रा कोष का सदैव यह प्रयत्न रहा कि विश्व व्यापार में आने वाले रूकावटों को दूर करने के समस्त प्रयत्न किए जाए। मुद्रा कोष ने भुगतानों का सरलीकरण किया, भुगतान असन्तुलन की स्थिति को साम्य की दशा अथवा देश के पक्ष में भुगतान सन्तुलन करने आदि में मदद दी। यह तथ्य इस बात से भी स्पष्ट है कि जहां 1948 में विश्व निर्यात केवल 53 लाख डालर के थे, वे 1993 में बढ़कर 1923 मिलियन डालर के हो गए हैं
  2. समता दरों की उपयोगिता (Utility of Equi Rates) - अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के समय पूर्व में जो विनिमय दर निर्धारिक किए जाने का प्रश्न उठता था तो मार्ग में कई अवरोध आते थे जैसे किसी देश की मुद्रा का अवमल्यन होना, विनिमय नियमों एवं मात्रा में कठिनाई, आदि। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने विनिमय दरों के स्थान पर सदस्य देशों के मध्य समता दरें निर्धारित की जिससे विश्व-व्यापार में एक अवरोध कम हुआ। परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष समझौते की धारा 4 के अन्तर्गत सदस्य देशों की विनिमय दरों पर कड़ी नजर रखता है। ऐसा इस कारण किया जाता है ताकि विनिमय दरों में इतने अधिक उच्चावचन न आ जायें जिससे कि विश्व व्यापार की वृठ्ठि में कोई अवरोध उत्पन्न हो।
  3. बहुपक्षीय व्यापार के पक्ष में (In favour of Multi Lateral Trade)- द्विपक्षीय व्यापार में तो दोनों देशों की मुद्रा का आपसी विनिमय सुगमता से किया जा सकता है, परन्तु यदि देश बहुपक्षीय व्यापार करते हैं तो कुछ अनावश्यक अवरोध आने की संभावना रहती है। परन्तु मुद्रा कोष ने बहुपक्षीय भुगतान प्रणाली की स्थापना की और इसके परिणामस्वरूप चालू भुगतानों के लिए मुद्रा केाष ने महत्वपूर्ण प्रगति की है तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को सुगम बनाया है।
  4. भुगतान सन्तुलन में सहायक (Helpful in Balance of Payments) - आज देशों के सामने जो सबसे भीषण अन्तर्राष्ट्रीय समस्या है, वह है भुगतान-असन्तुलन की स्थिति की। अब जो घाटे की स्थिति पैदा हो जाती है वह यदि निरन्तर ही बनी रहती है तो वह देश आर्थिक रूप से जर्जर हो जायेगा। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा ने इस सम्बन्ध में अति सूझबूझ के साथ उचित निर्णय लिए हैं तथा अपने उद्देश्यों में से इसे प्रमुख उद्देश्य स्वीकार किया कि सदस्य देशों के अल्पकालिक घाटों को दूर किया जाए। पूर्व में ही कहा जा चुका है कि तेल निर्यातक देश के द्वारा तेल के मूल्यों में भारी वृठ्ठि के कारण सदस्य देशों के भुगतान में चालू खाते के अन्तर्गत घाटा उत्पन्न हो गया था। सन् 1978 में 33 विलियन डालर का अतिरेक था जो 1979 में 10 विलियन डालर के घाटे में परिवर्तित हो गया। अत: मुद्रा कोष हर संभव प्रयोग करके अल्पकालिक घाटों को दूर करके भुगतान-असन्तुलन को दूर कने का प्रयास करता है तथा इसमें उसे सफलता भी मिली है।
  5. अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक सहयोग (International Monetary Cooperatioin) . अपने सदस्य देशों को मुद्रा कोष अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक सहयोग भी प्रदान करता है। वह उनको आर्थिक प्रशुल्क एवं वित्तीय नीतियों तथा भुगतान सन्तुलन की कठिनाइयों सम्बन्धी सहायता प्रदान करता है। अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक समस्याएं कोई देश अकेला ही हल नहीं कर सकता है उसे अन्य देश की नीतियों के हिसाब से चलना होता है। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा मौद्रिक सहयोग के लिए एक मंच प्रदान करता है। ताकि सभी देश मिल जुलकर अपनी समस्याओं को हल कर सकें।
  6. पुनर्निमाण एवं विकास उद्देश्य (Reconstruction and Development Moto). विभिन्न देशों के, जिनकी आर्थिक स्थिति जर्जर है अथवा जो अपन विकास करना चाहते है उनके लिए भी अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष अपनी सेवाएं प्रदान करता है। इससे कोषों का अधिक सार्थक उपयोग होने लगा है। पहले कोष का उद्देश्य यह रहता था कि कोष का प्रयोग केवल भुगतान असन्तुलन की समस्या को निपटाने के लिए ही किया जाता था परन्तु अब देशों के आर्थिक विकास के लिए भी उसका उपयोग किया जाता है।
  7. विकासशील देशों की ओर विशेष ध्यान (Special Attention towards developing countires)- विकसित देशों को तो अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की सहायता अपना आर्थिक स्तर बढ़ाने के लिए मिलती है परन्तु विकासशील देश जो संख्या में भी अधिक हैं तथा जिन्हें अपने विकास के लिए धन की आवश्यकता है उन्हें मुद्रा कोष उदारतापूर्वक विशेष सहायता प्रदान करता हैं इस विशेष सहायता को प्राप्त करके कई देश भुगतान-असन्तुलन की समस्या से उभर सके है: अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा केाष ने पिछड़े एवं विकासशील देशों के लिए एक ट्रस्ट कोष (Trust Fund) भी बनाया है। सन् 1993 तक प्रदान की गई कुल सहायता का लगभग 68 प्रतिशत विकासशील देशों को ही प्रदान किया गया। कोष द्वारा प्रदत्त यह मात्रा लगभग 73,007 मिलियन SDR के बराबर है जिससे विकासशील देशों को अपना स्तर सुधारने में सहायता मिली है।
  8. तकनीकी ज्ञान के विस्तार में सहायक (Helpful in extension of Technical knowledge)- भारत तथा अन्य विकासशील देशों के विकसित न हो पाने के पीछे एक कारण यह है कि उनके पास जो आर्थिक समाधान पाए जाते है वे वहां पूर्ण उपभोग नहीं हो पाते। किस्म एवं मात्रा दानों में ही कमी के कारण उचित मात्रा का निर्यात संभव नहीं हो पाता क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय बाजार प्रतिस्पर्धात्मक होता है। इन देशों के पास यदि उचित तकनीक हो तो वे अपने माल को कच्चे रूप में न भेजकर अर्ठ्ठनिर्मित या निर्मित दशा में भेज सकते हैं तथा अपने सामान की उचित कीमत वसूल कर सकते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष इन देशों की तकनीकी ज्ञान की समस्या को हल करता है। इसका प्रशिक्षण संस्थान तकनीकी समस्याओं को समझकर कोष से एक निश्चित धनराशि दिलाकर तकनीकी रूप से देश के विकास करने में सहायता प्रदान करता है। कोष द्वारा इस संबंध में प्रशुल्क मामलों का विभाग तथा केन्द्रीय बैंकिंग सलाह सेवाएं अति महत्वपूर्ण मानी जाती हैं।
  9. विकास और मुद्रा कोष (Development and IMF)- अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष प्रत्येक देश के विकास के लक्ष्य को लेकर निर्मित किया गया हैं इसके सदस्य देशों में से 24 देशों के समूह, जिन्हें G-24 के नाम से सम्बोधित किया जाता है, ने विकासशील देशों में उत्पन्न होने वाली समस्याओं का अध्ययन करके उन्हें विकसित देशों के साथ उचित तालमेल की सलाह दी है। 1987 में G-24 ने “विकास के साथ समायोजन में मुद्रा कोष की भूमिका” विषय पर विकास गोष्ठी सम्पन्न की जिसकी रिपोर्ट के अनुसार मुद्रा कोष के कार्यक्रमों में आर्थिक विकास के समायोजन हेतु वित्तीय कार्यक्रमों के पूर्व विकास से सम्बन्धित कार्यो को पूर्ण करने की सलाह दी गई थी। विभिन्न देशों द्वारा लिए गए ऋणों की मात्रा, उन पर आरोपित ब्याज की दरें आदि को भी मुद्रा कोष ध्यान में रखता है तथा विकास के साथ समायोजन करता हैं।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि मुद्रा कोष ने वर्तमान समय तक विभिन्न सदस्य देशों के लिए बहुत ही सफल कार्य किये हैं। भारत की दृष्टि से भी इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। आशा है कि आठवीं पंचवर्ष्ीय योजना (1992-97) में भी अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का पूर्ण सहयोग भारत को मिलता रहेगा।

मुद्राकोष की आलोचनाएं

मुद्रा कोष द्वारा किये गए विकास कार्यों के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है कि कोष की समस्त कार्यवाहियां आलोचनारहित हैं बहुत से अर्थशास्त्री तो यहां तक कहते हैं कि “मुद्रा कोष अपने उद्देश्यों में सर्वथा विफल रहा है।” मुद्रा कोष की कुछ प्रमुख आलोचनाएं हैं:-
  1. भेदभाव पूर्ण नीति (Policy of Difference)- मुद्रा कोष विकसित तथ सबल राष्ट्रों को अल्पविकसित एवं निर्बल राष्ट्रों के मुकाबले अधिक तरजीह देता हैं। सबल राष्ट्र यदि कुछ गलत भी कर दें तो मुद्रा कोष उन पर पूर्ण ध्यान नहीं देता। उदाहरणार्थ, फ्रांस ने सन् 1948 में बिना कोष की आज्ञा प्राप्त किये हुए ही अपनी मुद्रा को पुर्नमूल्यांकित कर दिया था फिर भी कोष ने इसका विरोध नहीं किया था जबकि यह कृत्य कोष में उल्लिखित धाराओं में विपरीत था।
  2. अभ्यंशों को त्राटिपूर्ण आधार (False Base of Quotes) - मुद्रा कोष के सदस्य देशों द्वारा प्रदत्त कोटा का आधार वैज्ञानिक एवं निश्चित तथ्यों पर आधारित नहीं है। वास्तव में यह आधार विनिमय आवश्यकताओं, भुगतान शेषों की प्रतिकूलता, विकास की स्थिति आदि तत्वों पर आधारित होना चाहिए था। इसी कारण कोष में सबल राष्ट्रों की संख्या कम होते हुए भी उनका प्रभुत्व निबल राष्ट्रों की अधिक संख्या होने के बावजूद कोष पर रहा एवं वर्तमान में भी है।
  3. केवल अल्पकालिक ऋण (Only Short term loans)- मुद्रा कोष जब राष्ट्रों को विकसित एवं पुननिर्मित करने का दायित्व निर्वाह कर रहा है तो दीर्घकालिक ऋण भी उपलब्ध कराने चाहिए जबकि कोष केवल अल्पकालीक सहायता ही उपलब्ध कराता हैं। इस सम्बन्ध में जाने माने अर्थशस्त्री प्रो. विलयम्स (Prof. Williams) का मत है कि “मुद्रा कोष की स्थापना दूसरे महायुठ्ठ के बाद की गई थी तथा उस समय विश्व के अधिकांश देशों में भुगतान असनतुलन पाया जाता था जिसके लिए दीर्घकालिक ऋण आवश्यक थे अत: कोष की स्थापना का उद्देश्य निरर्थक था।” परन्तु यह आलोचना पूर्ण रूप में सही नहीं है क्योंकि मुद्रा कोष के पास कोषों की कमी थी एवं उसे सभी सदस्य देशों की समस्याओं को भी हल करना पड़ता था।
  4. व्यापारिक प्रतिबन्ध (Trade Restrictions)- खुली अर्थ व्यवस्था के कुछ अपने विशिष्ट लीा होते हैं एवं प्रतिबन्धित अर्थव्यवस्था में हानियां। विकसित देशों के यह चाहने के बावजूद कि अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष विकसित देशों को सलाह दे कि व्यापारिक प्रतिबन्ध हटा लिए जायें, कई विकासशील देश इस मत से सहमत नहीं हुए क्योंकि विकासशील देशों की अपनी अलग समस्याएं होती हैं तथा उन्हें स्वदेशी उद्योगों को विकसित करके अपने देशवासियों की रोजगार की समस्या का भी निवारण करना होता है। क्योंकि विकसित देश विकासशील देशों का लगभग 2/3 भाग आयात करते हैं अत: विकसित देश संरक्षण की नीति का परित्याग कराना चाहते हैं परन्तु मुद्रा कोष इस कार्य को सफलतापूर्वक सम्पन्न नहीं कर सका उपरोक्त बिन्दुओं के अतिरिक्त कुछ और बिन्दु भी मुद्रा कोष की असफलता दर्शाते हैं, जो निम्न प्रकार के है,
  5. मुद्रा कोष सदस्य देशों की विदेशी मुद्रा संबंधी आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाया।
  6. कार्यकारी समिति अधिकतर विकसित देशों के हितों की रक्षा करती है, अल्प विकसित देशों की और पूर्ण ध्यान नहीं दे पाती।
  7. विकासशील देशों को अपर्याप्त सहायता प्राप्त हो सकी हैं।
  8. ऋणों को अल्पावधि का एवं इसका क्षेत्रा सीमित कर दिया गया हैं
  9. कोष डालर के अभाव को पूर्ण रूप से दूर नहीं कर पाया।
  10. कोष ने समता मूल्यों के निर्धारण उचित आधार पर नहीं किये है।
मुद्रा कोष की उपलब्धियों तथा आलोचनाओं का यदि समालोचनात्मक अध्ययन किया जाय तो यह स्पष्ट होता है कि जिस संस्था का भी निर्माण अच्छे उद्देश्यों को लेकर किया जाता है, उसकी कमियां उसकी कमियां भी होती हैं परन्तु कमियों का तात्पर्य यह तो नहीं होता कि संस्था का निर्माण ही गलत हुआ हैं आलोचनाओं के आधार पर संस्था के कार्यों में सुधार लाया जाना चाहिए। हम इस तथ्य से भली भांति परिचित हैं कि मुद्रा कोष ने सदस्य देशों के बीच अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक सहयोग प्रदान करने में विशिष्ट सहायता प्रदान की है। आज विकासशील देशों के सम्मुख ऊर्जा समस्या, खाड़ी संकट, मन्दी की दशाऐं, भुगतान असन्तुलन की समस्या आदि विभिन्न प्रकार की समस्याएं विद्यमान हैं, जिनका समाधान अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष बखूबी कर सकता हैं। इसके लिए कोष को अपनी कुछ नीतियों एवं मानकों को परिवर्तित करना होगा।

Post a Comment

Previous Post Next Post