प्राय: किसी भी देश की मुद्रा की विनिमय-दर उसकी “स्वाभाविक विनिमय-दर” नहीं कही जा सकती है। वास्तविक विनिमय-दर देश की अपनी तथा उसके साथ आर्थिक सम्बन्ध रखने वाले अन्य देशों की आर्थिक, वित्तीय तथा मौद्रिक नीतियों पर निर्भर करती है। प्रत्येक देश अपनी मुद्रा के लिए एक उपर्युक्त विनिमय दर निर्धारित करता है और उसे निश्चित सीमाओं के अन्तर्गत प्राय: स्थिर बनाए रखने के प्रयत्न करता है। सरकार द्वारा निर्धारित की गई विनिमय-दर स्वतंत्रा बाजार की स्वाभाविक दर अथवा सामान्य दर से ऊंची भी हो सकती है और नीची भी। नीची विनिमय-दर अवमूल्यन का परिणाम होती है और ऊंची विनिमय दर अधिमूल्यन का परिणाम होती है।
अवमूल्यन (Devaluation) - अवमूल्यन से अभिप्राय देश की मुद्रा का बाह्य-मूल्य (अर्थात् विदेशी मुद्राओं में मूल्य) एक विचारयुक्त नीति के अन्तर्गत जान-बूझकर कम कर देने से होता है। इसके परिणामस्वरूप देश की मुद्रा की क्रय शक्ति विदेशी मुद्राओं के रूप में कम हो जाती है।
पॉल ऐनजिग के अनुसार - “मुद्राओं की अधिकृत समताओं में कमी करना अवमूल्यन है।” सरल शब्दों में जब कोई देश अपनी मुद्रा के बदले दूसरे देशों की मुद्राएं पहले से कम लेने के लिए तैयार हो जाता है। तो उसको मुद्रा का अवमूल्यन कहते हैं।
भुगतान संतुलन की समस्या से निपटने के लिए सरकार ने जुलाई, 1991 में रुपये का अवमूल्यन कर दिया और परिवर्तनीय रुपया व्यवस्था अपनाई अवमूल्यन का अर्थ विदेशी मुद्रा या मुद्राओं की तुलना में किसी घरेलू मुद्रा की बाह्य कीमत में जानबूझकर कटौती करना है भारत की घरेलू मुद्रा का नाम रुपया है। विदेशी प्रमुख मुद्राएं हैं अमेरिकन डॉलर, ब्रिटिश पॉड, स्टर्लिंग, जर्मन ड्युश मार्क, जापानी येन, इत्यादि। रुपये की इन विदेशी मुद्रा के साथ विनिमय-दर होती है।
अवमूल्यन (Devaluation) - अवमूल्यन से अभिप्राय देश की मुद्रा का बाह्य-मूल्य (अर्थात् विदेशी मुद्राओं में मूल्य) एक विचारयुक्त नीति के अन्तर्गत जान-बूझकर कम कर देने से होता है। इसके परिणामस्वरूप देश की मुद्रा की क्रय शक्ति विदेशी मुद्राओं के रूप में कम हो जाती है।
पॉल ऐनजिग के अनुसार - “मुद्राओं की अधिकृत समताओं में कमी करना अवमूल्यन है।” सरल शब्दों में जब कोई देश अपनी मुद्रा के बदले दूसरे देशों की मुद्राएं पहले से कम लेने के लिए तैयार हो जाता है। तो उसको मुद्रा का अवमूल्यन कहते हैं।
अवमूल्यन के कारण
अवमूल्यन देश की अर्थव्यवस्था में आधारभूत असंतुलन का द्योतक है। किसी भी देश में अवमूल्यन, भूकम्प की भांति, अचानक सामने नहीं आता, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था में पिछले कई वर्षों से उत्पन्न हो रही समस्याओं का परिणाम होता है। साधारणतया अवमूल्यन इन दशाओं में किया जाता है।- जब किसी देश की मुद्रा के आंतरिक मूल्य व बाह्य मूल्य में अंतर होता है अथवा देश की बाह्य मुद्रा का मूल्य अधिक होता है। तो व्यापार संतुलन देश के विपरीत होने लगता है। मुद्रा का अवमूल्यन करके इस स्थिति को सुधारा जा सकता है।
- मुद्रा के बाह्य अथवा आन्तरिक मूल्य में कोई अन्तर न होने पर भी कोई देश अपने निर्यात बढ़ाने तथा आयात कम करने के उद्देश्य अवमूल्यन कर सकता है।
- मुद्रा-संकुचन की स्थिति में जब देश में मांग की कमी के कारण कीमतें गिरने लगती हैं तो अवमूल्यन के द्वारा देश के माल की विदेशों में मांग बढ़ायी जा सकती है और देश में कीमत स्तर ऊंचा उठाया जा सकता है।
- कुरीहारा के शब्दों में - “जब कोई देश मुद्रा-संकुचन नहीं करना चाहता और स्थिर विनिमय-दरों के लाभ से भी वंचित नहीं होना चाहता तो वह अपनी मुद्रा का अवमूल्यन कर सकता है।”
- जब कोई दूसरा देश अपनी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की वस्तुओं का मूल्य गिरा देता है अथवा राशिपातन (Dumping) की नीति अपनाता हैं तो उसके हानिकारक प्रभाव से बचने के लिए अवमूल्यन करने के लिए आवश्यक हो जाता है।
- जब दो देशों के बीच घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध होते हैं तो एक देश द्वारा अवमूल्यन करने पर दूसरा देश भी ऐसा करने के लिए बाध्य हो जाता है।
- विदेशी ऋण प्राप्त करने के उद्देश्य से भी अवमूल्यन का सहारा लिया जा सकता हैं। मुद्रा अवमूल्यन का मुख्य उद्देश्य भुगतान संतुलन की दीर्घकालिक प्रतिकूल असाम्यता में सुधार करना होता है। अवमूल्यन करने वाले देश की वस्तुएं विदेशों में सस्ती हो जाती हैं। जिससे निर्यातों को प्रोत्साहन मिलता है। दूसरी ओर आयात महंगे हो जाते हैं और हतोत्साहित होते हैं। निर्यातों में वृद्धि और आयातों में कमी संतुलन की मौलिक विषमता को दूर करने में सहायक होती है। अवमूल्यन का उद्देश्य न केवल व्यापार-संतुलन में सुधार करना होता है। अपितु इसके द्वारा विदेशी पूंजी तथा ऋणों को भी आकर्षित करना होता है। अवमूल्यन का उद्देश्य देश में आर्थिक विकास अर्थात् विनियोग व उत्पादन में वृद्धि को भी प्रोत्साहित करना होता है।
अवमूल्यन के दोष
- अवमूल्यन के परिणामस्वरूप विकासशील देशों का भुगतान-संतुलन और भी अधिक प्रतिकूल हो जाने की सम्भावना रहती है। अपने विकास सम्बन्धी कार्यों को पूरा करने के लिए आयातों पर निर्भर रहना ही पड़ता है। अवमूल्यन करने से आयातों में कमी नहीं होती। निर्यातों के सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है। कि इन देशों के माल (कृषि पदार्थ, कच्चे माल तथा खनिज पदार्थ आदि) की मांग विदेशों में बेलोच होती है। यह बात सामूहिक रूप से इन देशों के लिए ठीक हो सकती है। परंतु व्यक्तिगत रूप से प्रत्येक देश अपने निर्यात बढ़ाने के प्रयास करता है और इसके लिए विनिमय-दर में कमी कर देता है अवमूल्यन के बाद निर्यातों का मूल्य गिर जाता है। निर्यात-पदार्थों के उत्पादन में विशेष वृद्धि नहीं हो पाती है। अवमूल्यन की सहायता से भुगतान संतुलन में घाटा कम करना लगभग असम्भव सा हो जाता है। विकासशील देशों पर अवमूल्यन का एक दुष्परिणाम यह पड़ता है। कि विदेशी ऋणों का भार बढ़ जाता है। क्योंकि विकसित देशों से लिए गए ऋणों का मूल्य प्राय: ऋणदाता देशों को ही मुद्राओं में व्यक्त किया जाता है।
- अवमूल्यन देश के आन्तरिक कीमत स्तर में वृद्धि करता है। यह तो हम देख ही चुके हैं कि अवमूल्यन के परिणामस्वरूप आयातों की कीमतें देश की मुद्रा के रूप में बढ़ जाती है। देश से निर्यात की जाने वाली वस्तुओं की कीमतों पर इस प्रकार का कोई प्रत्यक्ष प्रभाव तो नहीं पड़ता, परंतु अवमूल्यन के पश्चात् इन वस्तुओं की कीमतें भी प्राय: पहले से अधिक हो जाती हैं। आयातित माल की कीमतें बढ़ने से उत्पादन-लागत में वृद्धि होती है। विदेशो में निर्यातों की मांग घट जाने पर देश में इन पदार्थों की पूर्ति कम हो जाती है। आयातों में कमी तथा निर्यातों में वृद्धि अवमूल्यन करने वाले देश में स्फीतिकारी प्रवृत्ति उत्पन्न करती है।
- अवमूल्यन राष्ट्रीय आय की मात्रा को भी प्रभावित करता है। अवमूल्यन का राष्ट्रीय आय पर प्रभाव अनुकूल भी हो सकता है और प्रतिकूल भी। यदि अवमूल्यन के कारण व्यापार संतुलन अनुकूल हो जाए तो अवमूल्यन करने वाले देश की राष्ट्रीय आय कम हो जाएगी आयात किये गए माल, कच्चे पदार्थों तथा मशीनों आदि की लागत में वृद्धि विनियोग को हस्तांतरित कर सकती है। अवमूल्यन से निर्यातों की मांग बढ़ती है। परंतु इससे लाभ तभी होगा जब अवमूल्यन करने वाले देश में निर्यात-पदार्थो का उत्पादन लोचपूर्ण हो। अर्द्ध-विकसित देशों में उत्पादन आसानी से नहीं बढ़ाया जा सकता, इसलिए अवमूल्यन के परिणामस्वरूप राष्ट्रीय आय में वृद्धि होने की सम्भावना नहीं होगी।
- अवमूल्यन के कारण व्यापार की शर्तें प्रतिकूल हो सकती हैं श्रीमती जॉन रॉबिन्सन के अनुसार अवमूल्यन करने वाले देश के लिए व्यापार की शर्तों के प्रतिकूल होने का मुख्य कारण यह है कि अधिकतर देश कुछ विशेष वस्तुओं का ही निर्यात करते हैं जिनकी मांग की लोच अपेक्षाकृत कम होती है। इसके विपरीत वे विभिन्न देशों से अनेक प्रकार की वस्तुओं का आयात करते हैं। जिनकी पूर्ति की लोच अपेक्षाकृत अधिक होती है। अर्द्ध-विकसित देशों के लिए तो यह बात पूर्णतया सत्य है।
- प्रतिस्पर्धात्मक अवमूल्यनों की होड़ की स्थिति उत्पन्न होने पर किसी भी देश को लाभ नहीं होता। अस्थिरता के वातावरण में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का आकार कम हो जाता है और अनेक प्रकार के प्रतिकूल आर्थिक प्रभाव उत्पन्न होते हैं।
- संरचनात्मक कुसमंजन के प्रभाव में भुगतान-संतुलन में घाटे की स्थिति का उपचार अवमूल्यन द्वारा नहीं किया जा सकता है। भुगतान-संतुलन में असाम्यता घरेलू तथा विदेशी कीमत-स्तरों में अन्तर होने के कारण अब इसका उपचार अवमूल्यन द्वारा किया जा सकता है। परंतु यदि असाम्यता संरचनात्मक कुसमंजन का परिणाम होती है। तो अवमूल्यन स्थिति में सुधार करने की बजाय इसे और अधिक बिगाड़ देता है।
- अवमूल्यन अर्थव्यवस्था की दुर्बलता का प्रतीक है। अवमूल्यन की नीति अपनाने पर मुद्रा में स्थिरता के प्रति विश्वास गिर जाता है। पूंजी का विदेशों की ओर प्रवाह बढ़ जाता है और अनेक प्रकार की समस्याएं उत्पन्न होती है।
- अवमूल्यन के उद्देश्य अन्य उपायों के द्वारा अधिक प्रभावपूर्ण ढंग से प्राप्त किये जा सकते हैं। यदि भुगतान-संतुलन की स्थिति में ही सुधार करना है। तो उसके लिए अवमूल्यन ही एकमात्रा उपाय नहीं है। प्रशुल्क नीति तथा कोटा प्रणाली के द्वारा आयात-नियिन्त्रात किये जा सकते हैं। उचित प्रकार की रियायतें तथा अनुदान देकर निर्यात बढ़ाए जा सकते हैं। विनिमय-नियंत्रण की नीति अपनाई जा सकती है। अल्पकालीन असाम्यता के उपचार क लिए अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से भी सहायता ली जा सकती है। इन सभी उपायों की तुलना में अवमूल्यन एक घटिया उपाय है। इसके प्रभाव कुछ समय विलम्ब के पश्चात् उत्पन्न होते हैं और थोड़े समय में समाप्त भी हो जाते हैं। निर्यातों की पूर्ति तथा आयातों की मांग बेलोचदार होने पर अवमूल्यन के लाभपूर्ण प्रभाव प्राप्त ही नही कि जा सकते हैं। कुछ परिस्थितियों में यदि अवमूल्यन को सफलता प्राप्त भी होती है तो इसका स्वरूप चयनात्मक न होकर सामान्य होता है गैर-आवश्यक पदार्थों के साथ-साथ आवश्यक वस्तुओं के आयात भी प्रभावित होते हैं।
भुगतान संतुलन की समस्या से निपटने के लिए सरकार ने जुलाई, 1991 में रुपये का अवमूल्यन कर दिया और परिवर्तनीय रुपया व्यवस्था अपनाई अवमूल्यन का अर्थ विदेशी मुद्रा या मुद्राओं की तुलना में किसी घरेलू मुद्रा की बाह्य कीमत में जानबूझकर कटौती करना है भारत की घरेलू मुद्रा का नाम रुपया है। विदेशी प्रमुख मुद्राएं हैं अमेरिकन डॉलर, ब्रिटिश पॉड, स्टर्लिंग, जर्मन ड्युश मार्क, जापानी येन, इत्यादि। रुपये की इन विदेशी मुद्रा के साथ विनिमय-दर होती है।
उदाहरण के लिए 54 रुपये में एक अमेरिकी डॉलर या 70 रुपये में एक ब्रिटिश पॉड इत्यादि। ये विनिमय दरें समय के साथ-साथ बदलती भी रहती हैं। सरकार विभिन्न मौद्रिक उपायों के माध्यम से इसे नियंित्रात करती है तो इसका प्रभाव व्यापारिक गतिविधियों पर पड़ता है। उदाहरण हेतु यदि 25 रुपये में एक डॉलर आता है और सरकार इसे 20 प्रतिशत तक अवमूल्यन कर देती है तो एक डॉलर 30 रुपये के विनिमय दर पर आ जाएगा।
यह कहा जा सकता है कि या तो डॉलर का मूल्य बढ़ गया है अथवा रुपये की कीमत (क्रयशक्ति) में कमी आ गई है। सामान्यत: दूसरी स्थिति को ही अवमूल्यन बोला जाता है। क्योंकि रुपया ही घरेलू मुद्रा है।