मृदा किसे कहते हैं, मृदा के कितने प्रकार है?

पृथ्वी की सबसे ऊपरी परत को मृदा कहते हैं। यह अनेक प्रकार के खनिजों, पौधों और जीव-जन्तुओं के अवशेषों से बनी है। यह जलवायु, पेड़-पौधों, जीव-जन्तुओं और भूमि की ऊँचाई के बीच लगातार परस्पर क्रिया के परिणामस्वरूप विकसित हुई है। इनमें से प्रत्येक घटक क्षेत्र विशेष के अनुरूप बदलता रहता है। अत: मृदाओं में भी एक स्थान से दूसरे स्थान के बीच भिन्नता पाई जाती है।

आप सोच रहे होंगे की इस प्रदेश क्षेत्र में प्रचुर वनस्पति मृदा के पोषक तत्वों से भरपूर होने का संकेत हैए लेकिन ऐसा नहीं है। क्या आप अनुमान लगा सकते है कि ऐसा क्यों नहीं है। इसकी वजह उच्च तापमान तथा वर्षा है। यह भूमध्यरेखीय क्षेत्र में अपक्षय की प्रक्रिया को तेज करता है। यही कारण है कि उष्णकटिबंधिय क्षेत्रों की अधिकांश मिट्टी चिकनी मिट्टी है जिसमे घुलनशील खनिज की मात्रा कम होती है। मिट्टी मध्यम में अत्यधिक अम्लीय होती है जो मिट्टी के पोषक तत्वों को लेने के लिए जड़ों की क्षमता को सीमित करती है। इस क्षेत्र में उच्च वर्षा भी मिट्टी की उपरी परत को किसी अन्य क्षेत्र की तुलना में अधिक आसानी से बहा ले जाती है। इस प्रकार यह पोषक तत्वों से विहिन रहता है।

इस क्षेत्र की मिट्टी लगभग हर चीज को पुनः चक्रित और पुनः उपयोग करती है जो उस पर पड़ती है जैसे फूलोंए पत्तियों और जानवरों की क्षय प्रजातियां। यह मिट्टी में पोषक तत्वों की बहुत ज्यादा कमी होने के बावजूद भी मिट्टी में वनस्पतियों के प्रचुर विकास में सहायक होती है। अब तक आपने महसूस किया होगा कि जलवायु और मिट्टी की स्थिति के निर्धारण में स्थान एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसी प्रकार जलवायु और मिट्टीए वनस्पतियों की वृद्धि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।  

मृदा के प्रकार

मृदा के कितने प्रकार है? मृदा के प्रकार भारत की मृदाओं को छ: प्रकारों में बाँटा जाता है -
  1. जलोढ़  मिट्टी 
  2. काली  मिट्टी 
  3. लाल  मिट्टी 
  4. लैटराइट  मिट्टी 
  5. मरूस्थलीय  मिट्टी 
  6. पर्वतीय मिट्टी 
  7. शुष्क मिट्टी 

1. जलोढ़ मिट्टी -

यह मिट्टी का सबसे महत्वपूर्ण प्रकार है तथा भूमि का लगभग 40 प्रतिशत क्षेत्र इसी मिट्टी से ढ़का है। उत्तर के मैदान इसी मिट्टी से बने हैं। महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी के डेल्टा में पाई जाती है।। भारत की सबसे उपजाऊ भूमि हैं। जलोढ़ मिट्टी का गठन बलुई-दोमट से मृत्तिका-दोमट तक होता है। इसमें पोटाश की अधिकता होती है, लेकिन नाइट्रोजन एवं जैव पदार्थों की कमी होती है। इसमें पर्याप्त मात्रा में पोटाश, फॉस्फोरिक अम्ल और चूना पाया जाता है। हालाँकि इसमें ऑरगेनिक तथा नाइट्रस तत्त्व की कमी रहती है। भारत की आधी आबादी से अधिक इसी मिट्टी पर निर्भर है।

2. काली मिट्टी -

मिट्टी का रंग काला होने के कारण इस मिट्टी को काली मिट्टी कहा जाता है। यह मिट्टी लावा प्रवाह से बनती है तथा उत्तर-पश्चिमी पठार में पाई जाती है। इस मिट्टी का स्थानीय नाम रेगड़ मिट्टी है। इस मिट्टी में नमी रखने की क्षमता बहुत अधिक होती है। इसके अतिरिक्त यह मिट्टी कैल्शियम, कार्बोनेट, मैग्नीशियम कार्बोनेट, पोटॉश तथा चूने आदि के तत्व में समृद्ध मिट्टी है। इस मिट्टी की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि शुष्क ऋतु में भी यह मिट्टी अपने में नमी बनाये रखती है। ग्रीष्म ऋतु में इसमें से नमी निकलने से मिट्टी में चौड़ी-चौड़ी दरारें पड़ जाती है और जल से संतृप्त होने पर यह फूल जाती है और चिपचिपी हो जाती है।

3. लाल और पीली मिट्टी -

भारत का दक्षिण-पूर्व भाग लाल और पीली मिट्टी से ढ़का है। यह दक्कन पठार के पूर्वी और दक्षिण भाग में कम वर्षा के क्षेत्र वाले पुरानी क्रिस्टलीय आग्नेय चट्टानों से निर्मित है। लाल तथा पीली मिट्टी उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्य गंगा क्षेत्र के दक्षिण भागों तथा पश्चिमी घाट के पर्वतीय भागों के निचले हिस्से में पाई जाती है।  यह मिट्टी ग्रेनाइट और नींस जैसी रवेदार चट्टानों पर विकसित हुई है। इस मिट्टी  में लोहे के यौगिकों की अधिकता के कारण इसका रंग लाल है, परन्तु इसमें जैव पदार्थों की कमी है। यह मिट्टी सामान्यतया कम उपजाऊ है और काली मिट्टी अथवा जलोढ़ मिट्टी की तुलना में लाल मिट्टी का कृषि के लिये कम महत्व है। 

4. लैटराइट मिट्टी -

भारी वर्षा के चलते तीव्र छिद्रण के कारण लेटराइट मिट्टी विकसित हुई है। यह मिट्टी तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश तथा उड़ीसा और असम के पहाड़ी इलाकों में मुख्य रूप से पाई जाती है। इस मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी होती है। लैटराइट मिट्टी विशेषतया ऋतुवत भारी वर्षा वाले ऊँचे सपाट अपरदित सतहों पर पाई जाती है। तीव्र निक्षालन क्रिया द्वारा पोषक तत्वों का नाश हो जाना, इस मिट्टी का सामान्य लक्षण है। इस मिट्टी का पृष्ठ गिट्टीदार होता है। जो आर्द्र और शुष्क अवधियों के प्रत्यावर्तन के परिणामस्वरूप बनता है। अपक्षय के कारण लैटराइट मिट्टी अत्यन्त कठोर हो जाती है। 

5. मरूस्थलीय मिट्टी -

इस मिट्टी  के क्षेत्र में पौधे एक दूसरे से बहुत दूरी पर मिलते हैं। रासायनिक अपक्षय सीमित है। मिट्टी का रंग लाल या हल्का भूरा हैं। 

6. पर्वतीय मिट्टी -

यह मिट्टी पहाड़ी तथा पर्वतीय क्षेत्रों में जहाँ पर्याप्त वर्षा उपलब्ध हो पाइ्र जाती है। मिट्टी की बनावट पहाड़ी पर्यावरण के अनुसार भिन्न-भिन्न होती है। यह घाटी वाले क्षेत्रों में बलुई तथा रेतीली, ऊपरी ढ़लानों में अधिक कणों वाली तथा हिमालय के बर्फ से ढ़के क्षेत्रों में अम्लीय तथा कम ह्यूमस वाली होती है। यह मिट्टी घाटी के निचले भागों में मुख्यत: नदी वेदिकाओं में पाई जाती है जोकि जलोढ़ मिट्टी होती है तथा उपजाऊ होती है। यह नदी द्रोणियों और निम्न ढलानों पर जलोढ़ मिट्टी के रूप में पायी जाती है। ऊँचे भागों पर अपरिपक्व मिट्टी या पथरीली है। पर्वतीय भागों में भू आकृतिक, भूवैज्ञानिक, वानस्पतिक एवं जलवायु दशाओं की विविधता तथा जटिलता के कारण यहाँ एक ही तरह की मिट्टी के बड़े-बड़े क्षेत्र नहीं मिलते। खड़े ढाल वाले उच्चावच प्रदेश मिट्टी विहीन होते हैं। इस मिट्टी के विभिन्न प्रदेशों में अलग-अलग प्रकार की फसलें उगाई जाती है, जैसे चावल नदी घाटियों में, फलों के बाग ढलानों पर और आलू लगभग सभी क्षेत्रों में पैदा किया जाता है।

7. शुष्क मिट्टी -

शुष्क मिट्टी का रंग लाल से भूरे रंग की रेंज में रहता है। यह आमतौर पर बनावट में रेतीली तथा खारी प्रकृति की होती है। सूखी जलवायु, उच्च तापमान, तेज वाष्पीकरण के कारण इनमें धरण तथा नमी की कमी रहती है। मिट्टी के निचले भाग में कैल्शियम की मात्रा अधिक होने के कारण निचला भाग कंकर से घिरा है जोकि पानी के निस्पंदन में प्रतिबंध का काम करता है। उचित सिंचाई के बाद इस मिट्टी में खेती की जा सकती है। 

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