कृषि वित्त एवं कृषि साख से तात्पर्य, कृषि वित्त या साख की आवश्यकता

कृषि वित्त एवं कृषि साख से तात्पर्य उस वित्त (साख) से होता है जिसका उपयोग कृषि से संबंधित विभिन्न कार्यों को पूरा करने के लिए होता है। कृषि वित्त की आवश्यकता सामान्यत: भूमि पर स्थायी सुधार करने, बीज, खाद, कीटनाशक, कृषि यंत्रा पर क्रय करने, सिंचाई की व्यवस्था करने, मालगुजारी देन, विपणन से सम्बद्ध कार्य अथवा कृषि से संबंधित अन्य किसी कार्य के लिए हो सकती है।

कृषि वित्त या साख की आवश्यकता

कृषि वित्त या साख की आवश्यकता भारत में कृषकों को विभिन्न उद्देश्यों एवं कालावधियों के लिए वित्त, साख या ऋण की आवश्यकता पड़ती है। कृषि वित्त की आवश्यकता को उद्देश्यों को समयानुसार निम्नलिखित भागों में बाँटा जाता है
  1. उत्पादन ऋण (Productive Loan)- वो ऋण जो कि कृषि की विभिन्न क्रियाएँ जैसे- खाद, बीज, यंत्रा खरीदने व लगवाने, सिंचाई, भूमि पर स्थायी सुधार करने तथा वैज्ञानिक ढंग से खेती करने के हेतु लिए जाते हैं। इस तरह के ऋणों से उत्पादक और आय में वृद्धि होती है।
  2. उपभोग ऋण (Consumption Loan): ये ऋण फसल की बिजाई और बिक्री के बीच के समय कृषि को अपने परिवार के उपभोग संबंधित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ऋण की आवश्यकता पड़ती है जिसे प्राय: फसल की बिक्री के बाद चुकता किया जाता है।
  3. अनुत्पादक ऋण (Unproductive Loan): वो ऋण जो उत्पादक कार्यों में नहीं लगाए जाते बल्कि कुछ अन्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रयोग में लाए जाते हैं जैसे मुकदमा लड़ना, आभूषण खरीदना, विवाह, जन्म, मृत्यु तथा अन्य सामाजिक, धार्मिक रीति-रिवाज के पालन के लिए, जिनका उत्पादन से संबंध नहीं होता और जिसमें उधार वापसी का प्रबंध स्वत: निहित नहीं होता।
  4. अल्पकालीन ऋण (Short-term Loan): ये ऋण, सामान्यत: 15 माह की अवधि के लिए प्राप्त किए जाते हैं तथा फसल कटने के बाद चुका दिए जाते हैं। ये ऋण उत्पादन या उपभोग कार्यों के लिए प्राप्त किए जा सकते हैं।
  5. मध्यकालीन ऋण (Medium-term Loan): इन ऋणों की अवधि 15 महीनों से लेकर 5 वर्ष तक की होती है। ये ऋण प्राय: भूमि पर सुधार करने, पशु एवं कृषि यंत्रा खरीदने, कुआँ खुदवाने आदि कार्यों हेतु लिए जाते हैं। इन ऋणों की मात्रा अधिक होती है तथा अधिक समय की अवधि के बाद चुकाए जाते हैं।
  6. दीर्घकालीन ऋण (Long-term Loan): इन ऋणों की अवधि 5 वर्ष से अधिक तथा प्राय: 10 से 20 वर्ष तक की होती है। ये ऋण प्राय: भूमि खरीदने, पुराने ऋणों को चुकाने, महँगे कृषि यंत्रा (ट्रैक्टर) खरीदने तथा अन्य पूँजीगत व्यय हेतु लिए जाते हैं।

कृषि ऋण साख के साधन

भारत के कृषि वित्त की अल्पकालीन, मध्यकालीन और दीर्घकालीन आवश्यकताओं को पूरा करने वाले स्रोतों को दो भागों में बाँटा जाता है -
  1. गैर-संस्थागत स्रोत (Non-Institutional Sources): इनके अंतर्गत ग्रामीण साहूकार अपना महाजन, व्यापारी एवं कमीशन एजेंट, मित्रा एवं संबंधी आदि को शामिल किया जाता है।
  2. संस्थागत स्रोत (Institutional Sources): इसके अंतर्गत सरकार, सहकारी समितियाँ तथा बैंकों को सम्मिलित किया जाता है।

कृषि साख की समस्याएँ

कृषि-ऋण, अन्य उद्यमों के लिए प्राप्त ऋण से भिन्न होता है जिसका मुख्य कारण कृषि उद्यम की कुछ विशेषताओं का होना है। जिससे कृषि ऋण की समस्याएं अन्य व्यवसायों की ऋण समस्याओं से भिन्न होती हैं। कृषि-ऋण की प्रमुख समस्याएं हैं-
  1. अपर्याप्त उपलब्धि (Inadequate Availiability): कृषि की आवश्यकताओं को देखते हुए कृषि की उपलब्धि अपर्याप्त है। यद्यपि कृषि साख की मात्रा में भारी वृद्धि हुई है परंतु हमारी जनसंख्या में वृद्धि तथा कृषि उपकरणों, खाद व बीजों आदि के मूल्य में भारी वृद्धि को ध्यान में रखकर देखा जाए तो यह रकम अभी भी हमारी कृषि साख आवश्यकताओं की तुलना में काफी कम है।
  2. कृषि ऋणों की कम वसूली (Less Recovery of Agricultural Credit): कृषि ऋणों की वसूली में कमी तथा बकाया ऋण की वृद्धि ने भी कृषि साख को प्रभावित किया है। पिछले तीन-चार वर्षों में 40 से 42 प्रतिशत ऋण राशि बकाया के रूप में रही है। इससे सहकारी संस्थाओं तथा बैंको को अन्य व्यक्तियों को कृषि साख सुविधाएँ उपलब्ध कराने में बाधा आई है।
  3. निधन कृषको को कम साख (Less Credit of Performances): कृषि साख का लाभ उन निर्धन कृषकों को नहीं मिल पाता जिन्हें इसकी वास्तव में आवश्यकता होती है। अधिकतर ऋण धनी तथा प्रभावशाली किसान प्राप्त कर लेते हैं। इसके फलस्वरूप जहां एक और ऋण की वसूली में बाधा आती है, वहीं दूसरी और जरूरतमंद कृषकों को ऋण नहीं मिल पाता।
  4. ऋणों की अपर्यात मात्रा (Inadequate Amount of Loans): कृषि साख की एक मुख्य समस्या ऋणों की अपर्याप्त मात्रा है। सामान्यत: देखा गया है कि कृषकों को पर्याप्त मात्रा में ऋण नहीं मिलता। इस कारण उस ऋण का प्रयोग वे कृषि कार्यों में न करके बल्कि अपनी सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति में लगा देते हैं। जिसके फलस्वरूप कृषि साख का उद्देश्य पूरा नहीं हो पाता तथा कृषि ऋण वसूली की समस्या उत्पन्न हो जाती है।
  5. देरी से कार्रवाई या लालफीताशाही (Red Tapism): कृषि प्रदान करनेवाली समस्याओं की कागजी कार्रवाई इतनी लंबी-चौड़ी तथा जटिल होती है कि गाँव के गरीब तथा अशिक्षित किसानों के लिए ऋण संबंधी सारी औपचारिकताएँ पूरी करना मुश्किल हो जाता है। इससे कृषकों को ऋण मिलने में कठिनाई आती है।
  6. ऋण वापस करने की अनिश्चित क्षमता (Uncertain Capacity of Refunding Loans): अधिकतर किसानों की ऋण वापिस करने की क्षमता अनिश्चित होती है। पर्याप्त सिंचाई सुविधाएँ न होने के कारण कृषि आज भी मॉनसून का जुआ है। कृषक को ऋण मिल भी जाए, परंतु वर्षा पर्याप्त नहीं हो पाई तो भी ऋण चुकाने की उसकी क्षमता प्रभावित होगी। इसके फलस्वरूप बैंकों को नई साख सुविधा उपलब्ध कराने में कठिनाई होगी।
  7. अपर्याप्त संस्थागत साख सुविधाएँ (Inadequate Institutional Credit Facilities): भारत में अभी भी संस्थागत साख सुविधाएँ अपर्याप्त हैं। प्राथमिक कृषि साख समितियां, ग्रामीण बैंको तथा व्यापारिक बैंको की शाखाओं की संख्या अभी भी अपर्याप्त हैं। बहुत से ग्रामीण क्षेत्रा इनकी सुविधाओं से वंचित है। वहाँ के निवासियों को कृषि संबंधी ऋण प्राप्त करने में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

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