जाति का अर्थ और परिभाषा

शब्दोप्पति के विचार से जाति शब्द स्पेद भाषा के कास्टा शब्द से बना है जिसका अर्थ नस्ल कुल या वंश शोधना अथवा वंश परम्परा से प्राप्त गुणों की जटिलता है। पुर्तगालियों ने इस शब्द का प्रयोग भारत में रहने वाले ‘जाति’ नाम से प्रसिद्ध लोगों के वर्गों के लिए किया थ्ज्ञा। अंग्रेजी का ‘कास्ट’ शब्द मौलिक शब्द का सुधरा रूप ही है।
जाति या कास्ट शब्द की अनेक व्याख्याएँ दी गई हैं। रिज्ले ने ‘जाति’ की व्याख्या करते हुए इसे एक समान नाम वाले परिवारों का संग्रह या समूह बताया है जो अपने आपको किसी मानव या दैवी कल्पित पूर्वज की संतान मानते हैं, जो अपना परम्परागत काम करते हैं और जो विद्धानों के मतानुसार एक ही सजातीय समूह का रूप धारण करते हैं। 

ई.ए.एच. ब्लण्ट ने जाति को सामान्य नाम वाले, सजातीय विवाहित समूहों का संग्रह बताया है, जिसकी सदस्यता परम्परागत होती है, जिसके अन्र्तगत सदस्यों पर सामाजिक मेलजोल सम्बन्धी कुछ पाबन्दियां लगती है, जो या तो अपना परम्परागत काम धंधा करते हैं अथवा एक ही मूल वंश से अपनी उत्पति होने का दावा करते है और आम तौर पर एक ही सजातीय समुदाय का रूप धारण करते है। सी.एच.कूले कहता है कि शब्दों में जब व्यक्ति की प्रतिष्ठा पूर्णरूपेण पूर्वनिश्चित हो, और जन्म लेने के बाद व्यक्ति के जीवन में किसी प्रकार के सुधार या परिवर्तन की आशा न हो, तब वह वर्गजाति बन जाता है। मार्टिनडोल और मोनाकंसी जाति की परिभाषा देते हुए कहते हैं कि यह उन लोगों का समूह है जिनके कर्तव्य और विशेषाधिकार जन्म से ही निश्चित हैं और धर्म के जादू द्वारा स्वीकृत और मान्य है। 

केटकर का विचार है कि जाति दो विशेषताएं रखता हुए एक समूह है। (1) सदस्यता केवल सदस्यों के बच्चों तक ही सीमित होती है। (2) सदस्य समाज के अपरिवर्तनशील कानून द्वारा उस समूह के बाहर शादी नहीं कर सकते। इस प्रकार विचारकों ने ‘जाति या कास्ट’ शब्द की अनेक व्याख्याएँ प्रस्तुत की है। परन्तु जैसा कि गुर्रे का कथन है कि इस विद्वान विद्यार्थियों के समस्त परिश्रम के अतिरिक्त भी हमें ‘जाति’ शब्द की ठीक-ठीक और उचित व्याख्या नहीं मिल सकी। जाति शब्द को भली-भांति समझने का सबसे आसान तरीका यह है कि जाति-पाति प्रणाली के मूल में काम करने वाले अनेक तत्वों की परीक्षा की जाये।  

सामाजिक व्यवस्था को जाति के आधार भी जाना जाता है। भारतीय संस्कृति में सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में जाति संरचना का महत्वपूर्ण योगदान होता है। जाति एक ऐसा सामाजिक समूह है, जिसकी सदस्यता जन्मजात होती है। हमारी सामाजिक संस्थाओं में जाति सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि भारत में प्राचीनकाल से ही जातिप्रथा का प्रचलन है। समाज के आधार जाति को चार वर्गों में विभाजित किया गया है- 
  1. सामान्य 
  2. अनुसूचित जाति 
  3. अनुसूचित जनजाति 
  4. अन्य पिछड़ा वर्ग

जाति के लक्षण

जाति के लक्षणों में से ये महत्वपूर्ण हैं -

1. जाति प्राकृतिक हैं - सबसे पहला लक्षण उसकी कठोरता और स्थायीत्व है। व्यक्ति जिस जाति में पैदा होता है उसी में ही उसकी मृत्यु भी हो जाती है तथा समाज में व्यक्ति का क्या स्थान है इस बात का निर्णय भी जाति-पाति के अनुसार ही होता है

2. जाति में विवाह आवश्यक है  - विवाह जाति-पाति प्रणाली का सबसे महत्वपूण्र लक्षण है। वेस्टरमार्क के विचार में यह जाति की मुख्य विशेषता है। इस नियम के अनुसार हर व्यक्ति को केवल अपनी ही जाति में और यदि उसकी जाति में कोई उपजातित हो तो उस उपजाति या गोत्र में ही विवाह करने की आज्ञा है। अलग-अलग जातियों के खान-पान, रहन-सहन और संस्कृति संबंधी भेदों का पालन करने के कारण यह नियम धीरे-धीरे इतने कठोर हो गये कि अंतर्जातीय विवाह संभव हो गये हैं और यदि कोई सजातीय विवाह के नियम का उल्लंधन करके विजाति में विवाह करें तो उसका हुक्का-पानी, लेन-देन, और खान-पीन बंद कर दिया जाता है और उसे बिरादरी से बाहर निकाल दिया जाता है।

3. समाज का वंश पारम्परिक ढांचा - समाज की जाति-पाति सम्बन्धी रचना, सोपानत्मक संगठन, धर्माध्यापक के प्रभुत्व अथवा अधीनता की प्रणाली है। जिसके अन्तर्गत लोगों को आपस में ऊँच-नीच के नियम के अनुसार इकट्ठा किया जाता है। इस प्रणाली में सबसे ऊँचा स्थान ब्राहा्रम्ण को मिलता है और सबसे निचले स्थान पर शुद्र होते है। सोपान्त्मक नियम के अनुसार संगठित जाति-पाति में व्यक्ति को कौन सा स्थान मिलता है, इस बात का निर्णय बहुथा इसी बात से किया जाता है कि उनका ब्राहा्रणों के साथ क्या संबंध है। अत: सर्वोच्च जाति वही है जिससे ब्राहामण भोजन स्वीकार कर लें। इससे दूसरे दर्जे की यह जाति है जिससे ब्राहाण, क्षत्रिय और वैश्य, तीनों ही जातियां भोजन स्वीकार कर लें। 

जाति-पाति में सबसे निचला दर्जा उन जातियों का है जिनके यहां यह ऊँची जातियां खाना-पीना स्वीकार नहीं करती बल्कि उनसे इतना अधिक परहेज किया जाता है कि वे ऊँची जाति का व्यक्ति भ्रष्ट हो जाए। इसलिए इन जातियों को ‘अछूत’ कहा जाता है। इस धर्माध्यापक प्रभुत्व के कारण ब्राहा्रणों को, जहां बहुत सी सामाजिक और धार्मिक सुविधाएं मिली हुई है वहां जाति प्रणाली ने इनके जीवन में कई तरह की मजबूरियां भी पैदा कर दी है।

4. काम धंधे भी नियमित होते है-  प्रत्येक जाति कुछ काम-काम या धंधों को परम्परागत और केवल अपने लिये ही समझती है और दूसरे लोगों को उन धंधों से वंचित रखने का प्रयत्न करती है। ब्राहा्रण का असली कार्य पुरोहित का काम अथवा पूजा-पाठ करना, क्षत्रियों का काम सैनिक बनना तथा सुरक्षा का कार्य (युद्ध आदि) करना, वैश्यों का काम वाणिज्य, व्यापार करना और शुद्रों का काम इन तीनों जातियों की सेवा करना माना गया है। परन्तु समय गुजरने के साथ व्यवसाय सम्बन्धी इन नियमों और बंधनों में पर्याप्त हेरफेर और सुधार हुआ और अब भी नये-नये सुधार हो रहे है।

5. जातीय पंचायत - जाति-पाति प्रणाली की अन्तिम विशेषता है कि इसके अन्तर्गत जाति का भाग अधिकार सम्पन्न हो जाता है और अन्य सदस्यों को अपने अधीन करके अपनी आज्ञा का पालन कराये के लिये बाध्य कर देता है। बहुधा जातीय पंचायत ऐसे ही अधिकारों से सम्पन्न होती है और परम्परागत रूप से जाति में नियम और अनुशासन से सम्बन्धित सभी मामलों पर विचार करती है। कई बार कानूनी अदालत के रूप में कार्य करती है और जीतीय नियमों के उल्लंघन में अपना फैसला देती है एवं जुर्माने भी करती है। परन्तु आजकल परम्परागत जातीय पंचायतों के अधिकार कम हो गये है और उनके सारे कार्य ग्राम पंचायत कर रही है 

    जाति प्रथा के दोष

    सती प्रथा के दोष इस प्रकार हैं -

    1. श्रम की गतिशीलता का गुण समाप्त कर देती है : जाति-प्रथा ने काम या व्यवसाय को स्थायी रूप दे दिया है। व्यक्ति काम-धंधे को अपनी इच्छा और अपनी पसन्द के अनुसार छोड़ या अपना नहीं सकता और उसे अपनी जाति के निश्चित व्यवसाय को ही करना पड़ता है, भूले ही वह उसे पसन्द हो अथवा नापसन्द हो। इससे समाज की गतिशीलता ही समाप्त हो जाती है। 

    2. अस्पृश्यता :जाति या प्रथा से अस्पृश्ता फैलती है। महात्मा गांधी के मतानुसार यह जाति-पाति की सर्वाधिक घृणित अभिव्यक्ति है। इससे देश का अधिकांश भाग पूर्ण दासता के लिए मजबूर हो जाता है 

    3. एकता की ठेस पहुंचती है : इसने कठोरात पूर्वक एक वर्ग को दूसरे वर्ग से अलग करके और उनमें परस्पर किसी भी प्रकार के मेल-जोल को रोककर हिन्दू समाज की एकता और भा्रत्-भावना को बहुत हानि पहुंचाई है। 

    4. व्यक्ति और उसके काम में परस्पर सामंजस्य नहीं : जाति प्रथा का परिणाम बहुधा यह होता है कि व्यक्ति अपने लिये अपनी सुविधा एवं इच्छानुसार व्यवसाय नहीं चुन सकता और उसे गलत काम ही अपनाना पड़ जाता है। यह जरूरी नहीं है कि पुरोहित का पुत्र निश्चित रूप से पुरोहित ही होगा अथवा वह पुरोहित का कार्य करना चाहे अथवा उसमें एक सफल पुरोहित या धार्मिक नेता के सभी गुण विद्यमान होंगे। परन्तु जाति-पाति प्रथा के अन्र्तगत वह किसी अन्य कार्य के लिये आवश्यक योग्यता और इच्छा होते हुए भी कोई दूसरा काम नहीं कर सकता।

    5. राष्ट्रीयता में रूकावट : देश की एकता के लिये यह बाधा सिद्ध हुई है। निचले वर्ग के लोगों के साथ समाज में जो अपमानजनक व्यवहार होता है उसके कारण वे असंतुष्ठ रहते है। जैसा कि जी.एस.गुर्रे ने कहा है कि जाति-भक्ति की भावना ही दूसरी जातियों के प्रति विरोध भाव को उत्पन्न करके समाज में असव्स्थ और हानिकारक वातावरण पैदा कर देती है और राष्ट्रीयता चेतना के प्रसार के मार्ग को अवरूद्ध करती है।

    6. सामाजिक प्रगति में रूकावट है : यह राष्ट्र की सामाजिक और आर्थिक प्रगति में बड़ी भारी रूकावट है। लोग धर्म सिद्धांत में विश्वास करने के कारण रूढ़िवादी बन जाते है। राष्ट्र की तथा भिन्न-भिन्न समूहों और वर्गो की आर्थिक स्थिति ज्यों ही रहती है इससे उनमें निराशा और आलस्य पैदा होकर उनकी आगे बढ़ने और कार्य करने की वृति ही नष्ट हो जाती है।

    7. अप्रजातान्त्रिक : अन्त में, क्योंकि जाति-प्रथा के अन्तर्गत जाति, रूप, रंग और वंश का विचार किये बिना सब लोगों को उनके समान अधिकार प्राप्त नहीं होते इसलिये यह अप्रजातान्त्रिक है। निम्न वर्गो के लोगों के मार्ग में विशेष रूप में रूकावटे डाली जाती है उन्हे बौद्विक, मानसिक और शारीरिक विकास की पूर्ण स्वतंत्रता नहीं दी जाती और न ही उसके लिये अवसर ही प्रदान किये जाते है। जाति-प्रथा के गुण दोषा पर भी भली-भांति विचार करने से पता चलता है कि इसमें गुणों की अपेक्षा दोष अधिक होते है। जैसा कि जेम्स ब्राइस कहता है कि सामाजिक रचना एक महत्वपूर्ण तत्व है। जहां के लोगों को भाषा के आधार पर या धर्म के आधार पर जातीय भेदों के आधार पर अथवा वंश या व्यवसाय के अनुसार समूहीकृत जाति-भेदों के आधार पर बांट दिया जाता है वहां पर लोगों में परस्पर अविश्वास और विरोध पैदा हो जाता है और उनमें परस्पर मिलकर काम करना अथवा विभाग के लिये दूसरों के समान अधिकारों को स्वीकार करना अंसभव हो जाता है। यद्यपि सजातीयता वर्ग-संघर्षो को रोक नहीं सकती और फिर भी समुदाय के प्रत्येक वर्ग को दूसरों के मन को समझने में सहायता करती और राष्ट्र के समान मत पैदा करती है।

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