समूह संचार क्या है?

समूह संचार को हम कह सकते हैं कि ‘यह तीन या अधिक लोगों के बीच होने वाली अन्योन्यक्रिया है, जो कि एक सांझे लक्ष्य की प्राप्ति हेतु आमने-सामने या किसी अन्य माध्यम से संचार कर रहे होते हैं।’ कुछ विशिष्ट लक्ष्यों व उद्देश्यों वाले लोगों के झुंड को समूह कहा जाता है। संसक्ति समूह का एक और महत्वपूर्ण गुण है। यह संचार एक-दूसरे के बारे में जानने के लिए नहीं किया जाता, बल्कि इसमें किसी समस्या के समाधान की चेष्टा की जाती है। अत: लक्ष्य प्राप्ति समूह संचार का एक और महत्वपूर्ण पहलू है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसके अकेले के अस्तित्व की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है। मनुष्य आमतौर पर समूहों में ही रहता है। परिवार से लेकर दोस्त, हमउम्र, धार्मिक समूह, अकादमिक समूह, राजनीतिक समूह इत्यादि की एक व्यापक शृंखला से मनुष्य जुडा हुआ है। किसी समूह के साथ जुडा होना मनुष्य के अस्तित्व का आधार है, क्योंकि समूह के बिना रहना मनुष्य के लिए असंभव है।

समूह बाल्यकाल से ही हमारे विकास में सहायक होते हैं। इनसे हमें शारीरिक, बौद्धिक, भावनात्मक व सामाजिक स्तर पर विकास में सहायता मिलती है। व्यक्तित्व विकास में समूहों का काफी योगदान होता है और समय-समय पर हमें इनसे शक्ति व सहारा मिलता रहता है।

आखिर समूह है क्या? किसी एक सांझे लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जब कई लोग एक-दूसरे के साथ अन्योन्यक्रिया करते हैं और एक दूसरे के अस्तित्व का सम्मान करते हुए उन्हें अपने स्तर पर ही मानते हैं, तब समूह की रचना होती है।

उदाहरण के लिए सिनेमा हाल के बाहर टिकट के लिए एकत्रित भीड को हम समूह नहीं कह सकते। यद्यपि उन सब लोगों का उद्देश्य सांझा है कि उन्हें टिकट हासिल करके फिल्म देखनी है, लेकिन इसे समूह न मानने के पीछे अवधारणा यह है कि इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वे लोग सामूहिक रूप से प्रयास नहीं कर रहे हैं। साथ ही इन लोगों का एक दूसरे से कोई लेना-देना नहीं है और आपस में अन्योन्यक्रिया का भी अभाव है।

लेकिन जैसे ही टिकट की लाइन में कोई घुसपैठिया आता है तो लोग सामूहिक रूप से विरोध करके उसे रोकते हैं। इस क्षण में भीड समूह में बदल जाती है। ऐसे में सभी लोग एक-दूसरे के अस्तित्व को पहचानते हैं और आपसी सहयोग से घुसपैठिए को बाहर रखते हैं।

समूह के प्रकार 

आकार के आधार पर समूह छोटे, मध्यम और बडे हो सकते हैं। इसमें हम सिर्फ छोटे समूहों की बात करेंगे। मध्यम व बडे समूह काफी सुनियोजित होते हैं। छोटे समूह में तीन से सात सदस्य होते हैं। ऐसे समूह अनौपचारिक होते हैं व बडे समूहों की तुलना में काफी कम सुनियोजित होते हैं। बडे समूह औपचारिक प्रकृति के होते हैं। ऐसे समूहों में प्रतिभागियों को अपनी बात रखने के ज्यादा अवसर प्राप्त होते हैं। साथ ही इनका प्रबंधन भी सरल है। निर्णय लेने या किसी काम को पूरा करने में यह समूह काफी कारगर सिद्ध होते हैं। हालांकि इन्हें किसी औपचारिक परिभाषा में नहीं बांधा जा सकता। सदस्यों की संख्या का भी कोई बहुत सख्त नियम नहीं होता है। क्रियात्मक आधार पर छोटे समूहों के दो प्रकार हमारे सामने आते हैं:
  1. प्राथमिक समूह
  2. चर्चा समूह
प्राथमिक समूह बहुत ही अनौपचारिक प्रकृति का होता है। यह समूह सदस्यों के लिए एक तरह से सपोर्ट सिस्टम का काम करता है। पडौसियों की बैठक इसका एक अच्छा उदाहरण है। प्राथमिक समूह में बातचीत के लिए कोई संरचना निर्धारित नहीं होती है। समय व सदस्यता के लिए भी कोई बंदिशें नहीं होती हैं। यह काफी लचीली प्रकृति के होते हैं। वहीं दूसरी तरफ चर्चा समूह काफी ज्यादा औपचारिक होते हैं। इनमें आमने-सामने की अन्योन्यक्रिया व नेतृत्व की चारित्रिक विशेषताएं होती हैं। हर सदस्य को जवाब देने, प्रतिक्रिया जताने, दूसरे सदस्यों की बातें सुनने और अपनी बात कहने के भरपूर मौके प्राप्त होते हैं।

नेतृत्व इन समूहों का प्रमुख गुणधर्म होता है। चर्चा समूह में एक से अधिक नेता हो सकते हैं। नेता समूह में संसक्ति बनाए रखने में सहायता करता है। साथ ही वे अन्योन्यक्रिया को भी एक सकारात्मक दिशा में ले जाने का काम करते हैं। आमतौर पर चर्चा समूहों के गुणधर्म होते हैं:
  1. समान भौगोलिक स्थिति
  2. समान सामाजिक वर्ग
  3. समान आर्थिक स्तर ऋ समान जीवन शैली
  4. समान शैक्षणिक स्तर इत्यादि
जैसा कि हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं कि समूह के लिए एक समान उद्देश्य होना आवश्यक है। उद्देश्य के प्रकार पर ही समूह की शक्ति, संसक्तिशीलता इत्यादि निर्भर करता है। चर्चा समूह का एक अच्छा उदाहरण समस्या समाधान समूह है। किसी काम के लिए ऐसे समूह को चार भागों में विभाजित किया जाता है।
  1. तथ्य अन्वेषक समूह
  2. मूल्यांकन समूह
  3. नीति निर्धारक समूह
  4. लागू करवाने वाला दल
हालांकि हर समूह में इस प्रकार का विभाजन हो यह आवश्यक नहीं है। समूह के सदस्यों की संख्या व आवश्यकताओं पर ही यह निर्भर करता है। छोटे समूह में तो संभव है कि सभी सदस्य ही तथ्य अन्वेषण, मूल्यांकन, नीति निर्धारण व अमल करने की प्रक्रिया में शामिल हों। चर्चा समूह खुल या बंद दोनों ही प्रकार के हो सकते हैं। बंद यानी कि निजी चर्चा समूह में किसी बाहरी सदस्य का प्रवेश नहीं हो सकता है, जबकि सार्वजनिक रूप से खुले समूह में श्रोताओं को आने की अनुमति होती है।

एक खुला चर्चा समूह, जिसमें कुछ विषय विशेषज्ञ किसी मुद्दे पर श्रोताओं के समक्ष विचार जाहिर करते हैं, उसे पैनल कहा जाता है। कुछ विशेषज्ञ एक के बाद एक अपने विचार प्रकट करते हैं तो उसे विचार गोष्ठी कहते हैं। और जब श्रोताओं को भी अपने मत प्रकट करने का मौका मिलता है तो उसे मंच कहा जाता है।

छोटे समूहों में सहभागिता

छोटे समूहों में भागीदारी का अर्थ हाथों हाथ किसी उद्देश्य की प्राप्ति या फिर किसी समस्या के समाधान से है। उद्देश्य प्राप्ति में सभी की भागीदारी होती है। और ज्यादा स्पष्ट तरीके से कहें तो समूह के सभी सदस्यों की कुछ निश्चित जिम्मेदारियां होती हैं।

इन जिम्मेदारियों में चीजें शामिल हैं:
  1. चर्चा के विषय व समूह के अन्य सदस्यों के प्रति खुली विचारधारा होना।
  2. वस्तुनिष्ठ मस्तिष्क होना।
  3. दूसरे व्यक्तियों व उनकी मन:स्थितियों के प्रति संवेदनशीलता होना।
इन जिम्मेदारियों को दो भागों में बांटा जा सकता है।
  1. दूसरों तक अपनी बात पहुंचाना
  2. ध्यान से सुनते हुए बातें ग्रहण करना व प्रतिपुष्टि प्रदान करना
अपनी बात दूसरों तक पहुंचाने में चीजें समाहित हैं:
  1. सटीकता, स्पष्टता व संक्षिप्तता के साथ दूसरे लोगों के साथ बातचीत करना।
  2. यदि आपके पास बोलने के लिए कुछ खास सामग्री नहीं है तो न बोलना ही उचित रहेगा।
  3. पूरे समूह के साथ बात करें न कि किसी एक व्यक्ति के साथ।
  4. अपनी बातों को दूसरों के विचारों के साथ जोडकर प्रस्तुत करें।
ध्यान से सुनना व प्रतिपुष्टि प्रदान करना भी बोलने जितना ही महत्वूपर्ण है। इस काम को प्रभावी तरीके से करने के लिए कुछ सुझाव हैं:
  1. चेतन होकर अपना ध्यान केंद्रित करें।
  2. वक्ता को आपसे कुछ ऐसे संकेतों की अपेक्षा होती है, जिससे लगे कि आप तन्मयता से उसकी बात को सुन रहे हैं।
  3. एक अनौपचारिक स्थिति का निर्माण करना जिसमें सभी सहज महसूस करें।
  4. शब्दों से भी आगे जाकर बात को समझना।
उपर्युक्त बातें वक्ता व श्रोता के बीच की अन्योन्यक्रिया को प्रभावी बनाने में मदद करती हैं।

एक लघु समूह का विकास :

समूह का निर्माण करने वाले सभी व्यक्ति एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। उनका व्यक्तित्व, रहन-सहन और काफी चीजें अलग होती हैं। समूह में लोगों से घुल-मिलकर अपना बेहतर योगदान कैसे दिया जा सकता है, यह बातें सीखने में लोगों को थोडा समय लगता है। शोधकर्ताओं ने लघु समूह के विकास के चरणों की पहचान की है:
  1. दूसरों के साथ काम करने की कला सीखने का प्रयास,
  2. दूसरे सदस्यों की विचारधारा व समूह की परिस्थितियों को समझना,
  3. एक-दूसरे के साथ घुल-मिलकर रिश्ते प्रगाढ करना तथा
  4. सामूहिक प्रयास अथवा सकारात्मक भूमिका निभाते हुए सभी सदस्यों द्वारा सहयोग से काम किया जाना।

नेतृत्व :

साधारण शब्दों में कहें तो किसी काम की अगुआई करने की योग्यता नेतृत्व है। नेता अपने अनुगामियों को सूचना और निर्देश उपलब्ध करवाकर उन्हें किसी काम की पूर्ति के लिए सामूहिक प्रयास हेतु प्रोत्साहित करता है। आदर्श परिस्थितियों में नेता समूह से ही निकलकर आता है। दूसरों को प्रभावित करने की उसकी योग्यता को सभी पहचानते हैं। कुछ मामलों में नेता निर्वाचित या चयनित भी हो सकता है। तो कई बार कुछ लोग नियुक्ति के आधार पर भी नेता बन जाते हैं। एक नेता में योग्यताएं होती हैं:
  1. लोगों का प्रबंधन करने की योग्यता,
  2. निर्णय क्षमता और मुद्दों को संभालने की योग्यता,
  3. लोगों को प्रोत्साहित करने की योग्यता,
  4. सकारात्मक दृष्टिकोण,
  5. संचार कौशल इत्यादि।
नेतृत्व लोकतांत्रिक भी हो सकता है, जहां नेता निर्देश देने की बजाय मार्गदर्शन करता है। वहीं दूसरी तरफ तानाशाह नेता सिर्फ निर्देश ही देता है। वे सिर्फ अपने उद्देश्यों के बारे में ही सोचते हैं और इसके प्रति उनके इरादे पक्के होते हैं।

समूह चर्चा के द्वारा समस्या समाधान :

समूह एक सुनियोजित तरीके से समस्याओं के समाधान की दिशा में काम करते हैं। एक समूह साधारण तौर पर इन चरणों में काम करता है:
  1. समस्या की पहचान,
  2. समस्या को परिभाषित करना,
  3. संभावित समाधानों की पहचान व उनका विश्लेषण,
  4. सही विकल्पों का चयन करना व
  5. इन विकल्पों को लागू करना।

समूह के काम को प्रभावित करने वाले तथ्य -

समूह के प्रदर्शन में अहम भूमिका निभाने वाले दो तत्व संसक्ति व विवाद हैं। संसक्ति अर्थात समूह के सदस्य किस हद तक अपने आप को एक टीम का हिस्सा मानते हैं न कि केवल लोगों का एक झुंड। मूल्यों की सहभागिता, दृष्टिकोण व व्यवहार के मानकों से ही संसक्ति बनती है। यह एक महत्वपूर्ण तत्व है जो कि समूह की सफलता में अहम भूमिका निभाता है। संसक्ति वफा की भावना को जन्म देती है और उच्च संसक्तिशीलता वाले समूह काफी उत्पादक प्रकृति के होते हैं।

वहीं दूसरी तरफ विवाद आपसी मतभेदों से उत्पन्न होते हैं। समूह में अलग-अलग व्यक्तित्व वाले लोग शामिल होते हैं और ऐसे में विवाद पैदा होना आम बात है। विवाद आमतौर पर दो प्रकार के हो सकते हैं:
  1. अन्त:समूह विवाद
  2. अन्तरसमूह विवाद
अन्त:समूह विवाद यानी कि एक ही समूह के सदस्यों का आपसी विवाद प्रदर्शन पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। इससे संसक्तिशीलता कम होती है और समूह की उत्पादकता पर भी प्रभाव पडता है।

वहीं दूसरी तरफ अन्तर समूह विवाद (दो समूहों के बीच में) आमतौर पर सकारात्मक प्रभाव पैदा करता है। इससे प्रतियोगिता की भावना बलवती होती है और समूह के सभी सदस्य टीम भावना के साथ काम करते हुए उच्च उत्पादकता प्राप्त करने हेतु काम करते हैं।

जैसे कि हम पहले भी चर्चा कर चुके हैं कि किसी समूह से बाहर रह पाना इनसान के लिए असंभव कार्य है, क्योंकि हमारे आसपास काफी संख्या में समूह मौजूद हैं। किसी भी समय हम कम से कम आधा दर्जन समूहों का भाग होते हैं।

समूह के प्रतिभागी होने के नाते हमारी कुछ जिम्मेदारियां भी बनती हैं। सभी संभावित विचारों के प्रति मस्तिष्क खुला रखना, अन्य सदस्यों के प्रति समझ व संवेदनशीलता प्रदर्शित करना, सूचना, विचार व मत इत्यादि को इमानदारीपूर्वक संचारित करना आदि एक समूह की जिम्मेदारियां हैं।

समूहों में हमारी भागीदारी भावनात्मक व मानसिक दोनों ही स्तरों पर सहायता करती है। इसलिए समूह को समझना अति आवश्यक है, क्योंकि यह हमें समूहों की संचार प्रक्रिया में प्रभावी तरीके से भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करती है।

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