संचार के सिद्धांत

कौन सी चीजें संचार की घटक हैं और कौन सी नहीं, इस पर अकादमिक जगत में काफी चर्चाएं होती रहती हैं। किसी संकेत के अर्थ को समझने के लिए मनुष्यों द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया को समझने के लिए वर्तमान में संचार की कई परिभाषाएं प्रचलन में हैं।

कहा जाता है कि संचार में एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति तक सूचनाओं का संचरण किया जाता है। अधिकतर संचार शास्त्री इसे प्रकार्यात्मक परिभाषा के रूप में लेते हैं। संचार के सिद्धांतों के क्षेत्र के परिसीमन के लिए लासवैल के फार्मूले ‘किसने, किसको, किस स्रोत के माध्यम से, किस प्रभाव के साथ क्या कहा’ का इस्तेमाल करते हैं। संचार के सरलतम प्रतिमानों में एक स्रोत प्रापक के लिए कुछ संदेश भेजता है। इस संदेश में वे सूचनाएं निहीत होती हैं, जो प्रेषक प्रापक को देना चाहता है।

अन्य विषयों के मुकाबले संचार के सिद्धांतों के अध्ययन का क्षेत्र अपेक्षाकृत काफी नया है। दर्शन, मनोविज्ञान और समाज शास्त्र ने इस विषय को विकसित करने में काफी अहम योगदान दिया है।

अरस्तू पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने संचार की समस्याओं पर बात की और अपनी पुस्तक ‘द रेथरिक’ (The Rhetoric) में इसके लिए सिद्धांत प्रतिपादित करने का प्रयास भी किया। उनका मुख्य ध्यान लोगों को प्रोत्साहित करने की कला पर केंद्रित था।

संचार के विभिन्न महत्वपूर्ण पहलुओं के निहितार्थ को कूटबद्ध करने व उन्हें समझने का प्रयास संचार के सिद्धांत हैं। बीसवीं शताब्दी से पूर्व इस विषय में मानवतावादी व आलंकारिक दृष्टिकोण व सिद्धांतों का ही बोलबाला था। पिछले 100 सालों के दौरान मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, भाषा विज्ञान और विज्ञापन के क्षेत्र के वैज्ञानिक तौर-तरीकों व अन्तर्दृष्टि ने संचार के बारे में विचारों व प्रचलनों को प्रभावित करना शुरू किया।

कोई भी विषय अपनी सैद्धांतिक संरचना के आधार पर ही बडे पैमाने पर पहचाना जाता है। संचार शास्त्र में आमतौर पर समाज शास्त्र, मनोविज्ञान आदि से ही सिद्धांत लिए गए हैं। सैद्धांतिक रिक्तता के चलते इस पूरे विषय को परिभाषित करने वाले शब्दों की कमी महसूस की जा रही है।

जनसंचार का प्रकार्यात्मक सिद्धांत 

जनमाध्यमों प्रकार्यात्मक स्तर पर अपने प्रयोगकर्ताओं की 5 प्रकार से सेवा करते हैं। यह पांच प्रकार हैं: निगरानी, सहसंबंध, संचारण, मनोरंजन व संघटन। जनसंचार के प्रकार्यात्मक सिद्धांतों के प्रतिपादन में एच. लासवैल व सी. राइट के नाम प्रमुख हैं।

1948 में प्रकाशित एक लेख ‘समाज में संचार की संरचना और कार्य’ में लासवैल ने संचार के प्रकार्यात्मक सिद्धांत के बारे में चर्चा की थी। अमेरिका के धार्मिक एवं सामाजिक अध्ययन संस्थान के जर्नल में यह लेख प्रकाशित हुआ था।

इसके बाद 1960 में पब्लिक ओपिनियन नामक एक त्रैमासिक पत्र में प्रकाशित लेख ‘प्रकार्यात्मक विश्लेषण व जनसंचार’ में सी. राइट ने इस सिद्धांत को आगे विकसित किया।

सिद्धांत की व्याख्या 

जनमाध्यम हमारे समाज के लिए कई कामों को पूरा करते हैं। सिद्धांतविदों ने उनमें से 5 कामों को एक साथ रखा है। निगरानी, सहसंबंध, संचारण, मनोरंजन, संघटन दर्शाते हैं कि लोग जन माध्यमों का किस प्रकार प्रयोग करते हैं।

निगरानी का अर्थ है कि जनमाध्यम हमें सूचनाएं और समाचार उपलब्ध करवाते हैं। सहसंबंध अर्थात किसी भी सूचना के चयन, व्याख्या व आलोचना के बाद ही जनमाध्यम हमें वह उपलब्ध करवाते हैं। सांस्कृतिक संचारण का अर्थ है कि जनमाध्यम एक प्रकार से हमारे विचारों, मूल्यों व विश्वास को ही प्रतिबिम्बित करते हैं। खाली वक्त गुजारने के लिए जनमाध्यम मनोरंजन की सामग्री भी उपलब्ध करवाते हैं। दिनभर की भागदौड से निजात पाने के बाद यह हमें सुकून के कुछ पल प्रदान करता है। जनमाध्यमों के कार्यों में संघटन दर्शाता है कि किसी भी आपदा के वक्त जनमाध्यम समाज के हितों को बढावा देने का भी काम करते हैं।

यह सिद्धांत दर्शाता है कि हर व्यक्ति में किसी न किसी स्तर पर एक मुक्त इच्छा होती है। उसी इच्छा के तहत वे अलग-अलग उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जनमाध्यमों का प्रयोग करते हैं। यह सही है कि जनसंचार हमारे समाज के एक हिस्से की तरह ही काम करता है। समाज की निगरानी, मनोरंजन, सहसंबंध, संचारण व संघटन के लिए जनमाध्यम ही मुख्य स्रोत हैं। यह सिद्धांत वस्तुनिष्ठ और तटस्थ है।

संचार का प्रकार्यात्मक सिद्धांत समाज द्वारा जनमाध्यमों के प्रयोग के बारे में बात करता है। यह आकलन करता है कि लोग किसी कारण विशेष से ही जनमाध्यमों का प्रयोग करते हैं। यह तो जाहिर है ही कि श्रोतावृंद की कुछ आवश्यकताएं होती हैं और जनमाध्यम इनकी पूर्ति करते हैं। एक तरह से देखा जाए तो यह सिद्धांत संगत भी लगता है, क्योंकि जनमाध्यमों के इतने सारे काम होते हैं और वे एक-दूसरे के प्रतिकूल भी नहीं हैं। अलग-अलग समय पर लोग अलग-अलग कारणों से मीडिया का प्रयोग करते हैं।

कुछ संचारविद् प्रकार्यात्मक सिद्धांत को संचार के अधस्त्वक सुई सिद्धांत का ही एक हिस्सा मानते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार संदेश के अन्दर सूचना डालकर जनमाध्यम लोगों पर सीधा, त्वरित और प्रभावी असर डालते हैं। प्रकार्यात्मक सिद्धांत का मूल समाजशास्त्र में है। यह प्रतिपादित करता है कि जनमाध्यमों का श्रोताओं पर काफी गहरा प्रभाव पडता है। यह प्रेषित संदेश के जवाब में किसी भी व्यक्ति को एक दिशा-विशेष में काम करने पर मजबूर कर सकता है। इस सिद्धांत के अनुसार जनमाध्यम एक बहुत ही बलशाली चीज है और श्रोता असहाय कठपुतलियों के झुंड की तरह उसका इंतजार करते हैं कि वह आकर उन्हें संचालित करे।

प्रकार्यात्मक सिद्धांत की व्याख्या करते हुए कुछ संचार विशारद यह भी कहते हैं कि श्रोता केवल जनमाध्यमों के गहरे असर से ही प्रभावित नहीं होते, बल्कि ओपिनियन लीडर की भूमिका भी काफी मायने रखती है। समाज के एक हिस्से के लिए वे सूचना की छलनी की तरह काम करते हैं और समाज की आबादी के एक हिस्से के लिए संस्कृतियों के आढती का काम करते हैं। पी. लेजरफील्ड व ई. कट्ज ने भी संचार के प्रकार्यात्मक सिद्धांत पर काम किया। ओपिनियन लीडर की भूमिका पर काम करते हुए उन्होंने संचार का द्वि-स्तरीय प्रवाह सिद्धांत प्रतिपादित किया। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि निर्णय लेने की प्रक्रिया में जनमाध्यमों की अपेक्षा पारिवारिक सदस्यों, करीबी दोस्तों का प्रभाव ज्यादा रहता है। प्रभाव डालने वाले यह लोग जनमाध्यमों से सूचना प्राप्त करते हैं और फिर उसे समाज में दूसरे लोगों को भी प्रदान कर देते हैं। इन लोगों को ही ओपिनियन लीडर कहा जाता है। जनसंचार के प्रकार्यात्मक सिद्धांत का दृश्य प्रतिमान इस प्रकार विकसित किया गया है: 

स्रोत ----> संदेश ----> जनमाध्यम ----> ओपिनियन लीडर ----> आम जनता 
 (संचार के प्रकार्यात्मक सिद्धांत का प्रतिमान)

प्रकार्यात्मक सिद्धांत के आज के समय में प्रयोग 

लगभग 50 साल पहले प्रकार्यात्मक सिद्धांत का उद्भव होने के बावजूद आज भी यह काफी प्रासंगिक है। विपणन, विज्ञापन और जनसंपर्क जैसे क्षेत्रों में इसका प्रयोग किया जा रहा है। विभिन्न क्षेत्रों के संचारकों ने यह महसूस किया कि सिर्फ हर जगह, हर किसी के लिए संदेश प्रसारित करने मात्र से वह प्रभाव पैदा नहीं हो पाएगा जैसा कि वह चाहते हैं। आज के जनमाध्यमों का ध्यान से अध्ययन करें तो हमें आधुनिक समाज और संचार के विभिन्न प्रारूपों में प्रकार्यात्मक सिद्धांत के प्रयोग के कई उदाहरण मिल जाएंगे।

संचार का संबंधात्मक सिद्धांत 

अन्तर व्यैक्तिक रिश्ते कायम करने में संचार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह रिश्ते बनाने और उन्हें निरंतर जीवंत रखने में मदद करता है। संचार जो कि रिश्ते बनाता है, रिश्ते तोड भी सकता है। संचार और रिश्तों के बीच के संबंध पर कई सिद्धांत प्रस्तुत किए गए हैं। इनमें से कुछ संबंधों के विकास और उन्हें कायम रखने के दायरे में आते हैं। रिश्तों के विकास के क्षेत्र में पडने वाले संचार के सिद्धांतों में सामाजिक भेदन सिद्धांत (आल्टमैन व टेलर) और अनिश्चितता लघुकरण सिद्धांत (बर्गर) शामिल हैं। संबंधों को कायम रखने के क्षेत्र में संबंधात्मक द्वन्द्व सिद्धांत (बाक्सर, मांटगोमैरी) और अन्योन्यक्रियात्मक अवलोकन सिद्धांत (डब्ल्यू. विक व पी. आल्टो) प्रकाश डालते हैं। इसके दौरान हम संबंधात्मक द्वन्द्व सिद्धांत पर चर्चा करेंगे। संबंधात्मक द्वन्द्व सिद्धांत अति करीबी संबंधों में होने वाले अंतरंग संचार के बारे में बात करता है। एल. बाक्सर व बारबरा मांटगोमैरी ने 1980 के दशक के आखिरी सालों में इसे विकसित किया था। अन्तर व्यैक्तिक संबंधों के बारे में इस सिद्धांत में कई पहलुओं पर बातचीत की गई है। यह इसी आधार पर है कि आप किसी व्यक्ति के जितना करीब जाते हैं, उससे उतनी ही समस्याएं और विवाद उभरने लगते हैं। इन संचारविदों ने कहा था कि अन्तर्विरोध ही संबंधात्मक द्वन्द्व की केन्द्रीयकृत अवधारणा है।

आपसी अनबन के पहलू

संबंधों में आने वाले खटास के कुछ पहलू इस प्रकार हैं:
जुडाव और अलगाव: किसी भी रिश्ते में आपसी जुडाव और अलगाव के बीच एक संतुलन कायम रखना अति आवश्यक है। आपके साथी का कुछ निजी पल अकेले गुजारने का मन हो रहा है और आपका मन है कि दोनों कुछ समय साथ बिताएं। ऐसी स्थिति में विवाद उत्पन्न होने की संभावना बनती है। किसी भी रिश्ते में बंधे दो लोगों के रिश्ते में यदि संतुलन नहीं होगा तो रिश्ता टूटने की संभावना बनेगी। अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने और दूसरे व्यक्ति से अपने जुडाव की आवश्यकताओं की पूर्ति की भावनाएं साथ-साथ हमारे मन में आती रहती है।

निश्चितता व अनिश्चितता: रिश्तों को स्वत: स्फूर्त होना चाहिए। यदि सभी चीजें निश्चित होंगी और कोई परिवर्तन नहीं आएगा तो दोनों प्रतिभागी एक-दूसरे में अपनी रुचि खो देंगे। कुछ सुखद परिवर्तन और रोमांच हर रिश्ते की मांग हैं। हां यह रोमांच इतना भी न हो कि सब कुछ अनिश्चित ही हो जाए। ऐसा होने पर भी रिश्ते का अस्तित्व खतरे में पड सकता है।

खुलापन व निजता: अपने बारे में सब कुछ बताना व कुछ निजी पल बचाना, यह दोनों ही चीजें किसी भी रिश्ते में चक्रीय रूप में चलती रहती हैं। रिश्त विकसित होने के दौरान दोनों सहभागियों को एक-दूसरे के बारे में जानना व बताना आवश्यक है, लेकिन यह इतना ज्यादा न हो जाए कि आपको कल को उससे भय लगने लगे। अपने निजी पलों व दूसरों को बताने लायक बातों में संतुलन कायम रखना भी रिश्ते का आधार है।
उपर बताए गए अन्तर्विरोध हर किसी रिश्ते में होते हैं।

बाक्सर व मांटगोमैरी का यह सिद्धांत किसी भी रिश्ते में काम करने वाले प्रतिकर्षक बलों के बारे में बताता है। यह सिद्धांत किसी भी अन्तर व्यैक्तिक रिश्ते के पीछे काम करने वाले बलों के बारे में बताकर एक नई अन्तर्दृष्टि का निर्माण करता है।

इसके अध्ययन से लोगों को पता चल सकता है कि किसी भी रिश्ते के निर्बाध पालन के लिए क्या-क्या प्रक्रियाएं हो सकती हैं। यह प्रभावी वार्तालाप के लिए हमें एक साधन प्रदान करती है।

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