tag:blogger.com,1999:blog-60735211506070498512024-03-18T15:18:15.713+05:30scotbuzzBandeyhttp://www.blogger.com/profile/08264562445292172107noreply@blogger.comBlogger2789125tag:blogger.com,1999:blog-6073521150607049851.post-85725019874002973182024-03-17T15:28:00.007+05:302024-03-17T15:33:56.297+05:30संसदीय सरकार का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं<p>संसदीय सरकार को उत्तरदायी सरकार भी कहते हैं, इसमें कार्यपालक शक्तियां एक मन्त्रिमण्डल में निहित होती हैं, इसलिए मन्त्रिमण्डलात्मक सरकार भी कहा जाता है। संसदीय सरकार शासन की वह प्रणाली है जिसमें कार्यपालिका (मन्त्रिमण्डल) अपने कार्यों के लिए विधायिका (संसद) के प्रति उत्तरदायी होती है। इसलिए इसे उत्तरदायी सरकार भी कहा जाता है। इसमें कार्यपालिका अपने पद पर उसी समय तक रह सकती है, जब तक उसे विधायिका (संसद) का बहुमत या विश्वास प्राप्त है। इस सरकार में मन्त्रिमण्डल का नेता प्रधानमन्त्री होता है और समस्त कार्यपालक शक्तियां वास्तव में उसी के हाथ में होती हैं। इसमें देश का मुखिया नाममात्र का होता है। इसमें देश का शासन नाममात्र के मुखिया के नाम पर मन्त्रीमण्डल द्वारा ही चलाया जाता है। संसदीय को कुछ विद्वानों ने निम्न प्रकार से परिभाषित किया है :-</p><p>गार्नर के अनुसार- “संसदीय शासन प्रणाली वह है जिसके अन्तर्गत वास्तविक कार्यपालिका (मन्त्रिमण्डल) विधानमण्डल या उसके एक सदन (प्राय: अधिक लोकप्रिय सदन) के प्रति प्रत्यक्ष तथा कानूनी रूप से और निर्वाचकों के प्रति अन्तिम रूप से अपनी राजनीतिक नीतियों और कार्यों के लिए उत्तरदायी रहती है, जबकि राज्य का नाममात्र का मुखिया अनुत्तरदायी होता है।”</p><p>सी0एफ0 स्ट्रांग के अनुसार- “संसदीय कार्यपालिका का सार यह है कि अन्तिम विश्लेषण में मन्त्रिमण्डल संसद की एक समिति है जिसमें लोकतन्त्र की प्रगति के साथ-साथ लोकसभा की समिति बन जाने की प्रवृत्ति निहित है।” </p><p>कार्टर और हजऱ् के अनुसार- “संसदीय शासन प्रणाली सरकार के कार्यपालिका व व्यवस्थापिका अंगों के अन्त:पाशन (interlocing) पर आधारित शासन है।” ;4द्ध बेजहॉट के अनुसार- “संसदीय सरकार व्यवस्थापिका और कार्यपालिका शक्तियों के संयोग और घनिष्ठ सम्बन्धों पर आधारित सरकार है।”</p><p>संसदीय शासन प्रणाली की विशेषताएं </p><p>संसदीय सरकार में देश का मुखिया नाममात्र का होता है। उसकी समस्त शक्तियों का प्रयोग मन्त्रिमण्डल ही करता है।</p><p>संसदीय सरकार में नाममात्र और वास्तविक दो तरह की कार्यपालिका होती हैं। प्रधानमन्त्री वास्तविक कार्यपालक होता है, जबकि राष्ट्रपति या शासनाध्यक्ष नाममात्र का। ऐसी व्यवस्था सभी संसदीय शासन-प्रणाली वाले देशों में होती है। संसदीय सरकार में नाममात्र और वास्तविक कार्यपालिका में भेद किया जाता है। संविधान द्वारा देश के प्रधान को जो शक्तियां दी जाती हैं उनका वास्तविक प्रयोग मन्त्रिमण्डल द्वारा ही किया जाता है। इस प्रकार राष्ट्रपति तो नाममात्र का मुखिया होता है, जबकि प्रधानमन्त्री वास्तविक कार्यपालिका है। </p><p>संसदीय सरकार में कार्यपालिका तथा विधायिका में आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। मन्त्रिमण्डल के सभी सदस्य विधानमण्डल के भी सदस्य होते हैं और वे व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप में व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी होते हैं। ये सभी विद्यार्थी कार्यों को करने में व्यवस्थापिता की मदद भी करते हैं। इस तरह मन्त्रिमण्डल कार्यपालिका और व्यवस्थापिता को जोड़ने वाली प्रमुख कड़ी है। </p><p>संसदीय सरकार में कार्यपालिका का चयन व्यवस्थापिका द्वारा किया जाता है। वही व्यक्ति प्रधानमन्त्री बनता है, जिसे संसद में बहुमत प्राप्त हो। </p><p>संसदीय शासन में राज्य का मुखिया सरकार के अध्यक्ष की नियुक्ति करता है। यद्यपि यह औपचारिकता मात्र ही होती है। संसद में बहुमत दल का व्यक्ति ही सरकार का अध्यक्ष बनता है। </p><p>संसदीय सरकार में प्रधानमन्त्री ही सरकार की धुरी होता है। देश का शासन चलाने की पूर्ण जिम्मेदारी उसी की होती है। </p><p>संसदीय सरकार में मन्त्रिमण्डल का गठन प्रधानमन्त्री द्वारा ही किया जाता है। </p><p>संसदीय सरकार में मन्त्रिमण्डल के सदस्यों कों संसद के किसी भी सदन का सदस्य होना जरूरी है। यदि कोई व्यक्ति बिना सदन के सदस्य के रूप में मन्त्री बनता है तो उसे 6 महीने के अन्दर चुनाव लड़कर या मनोनयन द्वारा किसी भी सदन का सदस्य बनना पड़ता है। </p><p>मन्त्रिमण्डल में सजातीयता का गुण पाया जाता है। संसदीय सरकार में सभी मन्त्री एक ही दल के बनते हैं, लेकिन भारत इसका अपवाद है। भारत में वर्तमान सरकार में कई राजनीतिक दलों के सदस्य मन्त्री पद पर हैं। </p><p>संसदीय सरकार में मन्त्रिमण्डल एक सामूहिक संस्था होती है। सभी मन्त्री सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धान्त के आधार पर प्रधानमन्त्री के नेतृत्व में कार्य करते हैं। </p><p>संसदीय सरकार का कार्यकाल अनिश्चित होता है। इसमें सरकार उसी समय तक अस्तित्व में रह सकती है, जब तक उसे संसद में बहुमत या विश्वास मत प्राप्त है। </p><p>संसदीय सरकार में प्रधानमन्त्री संसद को संविधानिक मुखिया के साथ विचार-विमर्श करके विश्वास मत रहते भी भंग करवाने का अधिकार रखता है। </p><p>संसदीय सरकार में मन्त्रिमण्डल की कार्यवाही गोपनीय होती है। </p><p>संसदीय सरकार चुनावों को बहुत महत्व देती है। इसमें विधानमण्डल का चुनाव निर्वाचक मण्डल द्वारा किया जाता है।</p><p>संसदीय शासन प्रणाली में प्रत्येक विभाग का अध्यक्ष एक मन्त्री होता है। वही विभागीय नीतियों की सफल्ता या असफलता के लिए उत्तरदायी होता है। </p><p>संसदीय सरकार में संसद सर्वोच्च होती है। वही शक्ति का वास्तविक केन्द्र होती है।</p><p> संसदीय सरकार में विपक्षी दल को सम्मानजनक स्थान प्राप्त होता है।</p><p>संसदीय सरकार के गुण </p><p>आज संसदीय शासन प्रणाली भारत, ब्रिटेन, कनाडा, आस्ट्रेलिया सहित अनेक देशों में प्रचलित है और यह बड़ी सफलता के साथ अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन कर रही है। इन देशों में इसका लोकप्रिय होना इसके महत्त्व को प्रतिपादित करता है। संसदीय शासन प्रणाली का गहन अवलोकन करने से इसके गुण दृष्टिगोचर होते हैं :-</p><p>उत्तरदायी सरकार - संसदीय सरकार उत्तरदायी सरकार होती है, क्योंकि इसमें मन्त्रिमण्डल आने सारे कार्यों तथा नीतियों के लिए विधानमण्डल के प्रति उत्तरदायी होता है। वह अपनी शक्तियों का प्रयोग निधानपालिका की इच्छा के अनुसार ही करता है। इस सरकार में व्यवस्थापिका प्रश्न व पूरक प्रश्न पूछकर, स्थगन प्रस्तावों, ध्यानाकर्षण प्रस्तावों, काम रोको प्रस्ताव आदि के माध्यम से कार्यपालिका को उत्तरदायी बनाती है। विधानपालिका के सदस्य जन-प्रतिनिधि होने के कारण कार्यपालिका को उत्तरदायी बनाने के हर सम्भव प्रयास करते रहते हैं। इसी कारण संसदीय सरकार का प्रमुख गुण इसका उत्तरदायित्व है। </p><p>निरंकुशता का अभाव - संसदीय सरकार में मन्त्रिमण्डल अपने कार्यों के लिए विधायिका के प्रति उत्तरदायी होता है। यदि मन्त्रिमण्डल कोई मनमानी करता है तो विधायिका उसके विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पास करके उसे हटा देती है। मन्त्रिमण्डल को संसदीय प्रणाली में विरोधी दल के विचारों का भी ध्यान रखना पड़ता है। यदि वह कोई मनमानी करता है तो विरोधी दल उसकी आलोचना करके उसे जनता के कोप का भाजन बना देता है। भारत में विरोधी दल सरकार को निरंकुश् बनने से रोकने में अहम् भूमिका निभाता है। इसलिए संसदीय सरकार में निरंकुशता का अभाव पाया जाता है। </p><p>कार्यपालिका तथा विधायिका में पूर्ण सहयोग - संसदीय सरकार में सरकार के दो अंगों - विधायिका व कार्यपालिका में आपसी सहयोग पाया जाता है। इसमें मन्त्रिमण्डल के सदस्य विधानपालिका के भी सदस्य होते हैं। दोनों एक ही उद्देश्य से कार्य करते हैं। मन्त्रिमण्डल विधायिका की एक समिति की तरह कार्य करता है। वह उसका मार्गदर्शक, निरीक्षक और आशाओं का दीपक माना जाता है। इन दोनों के सहयोग के कारण ही अनेकों कानूनों का निर्माण होता है और शासन में दक्षता का गुण आता है। इस सहयोग व मतैक्य के कारण सत्ता में उत्तरदायित्व का गुण भी बना रहता है। </p><p>शीघ्र निर्णय - संसदीय सरकार में शासन-शक्ति एक ही स्थान पर केन्द्रित रहने के कारण शीघ्र निर्णय लेना आसान होता है। शीघ्र निर्णय लेना संकटकाल में बहुत लाभदायक होता है। शीघ्र निर्णय लेकर सरकार उन्हें शीघ्र ही लागू करके प्रत्येक समस्या से निपटने में सक्षम होने के कारण प्रशंसा की पात्र बन जाती है। </p><p>लचीली सरकार - संसदीय सरकार में कोई भी संकट आने पर उसे बदलना आसान होता है। कोई नई परिस्थिति पैदा होने पर इसमें शीघ्रता से निर्णय लिया जा सकता है। इसमें सरकार को बदलकर समस्या पर काबू पाया जा सकता है। द्वितीय वियव युद्ध के समय इंग्लैण्ड में चेम्बरलेन के असफल रहने के कारण उसके स्थान पर चर्चिल को प्रधानमन्त्री बनाया गया था। इसी तरह 1991 में भारत में आरक्षण की नीति को लेकर हुए देशव्यापी हंगामें के कारण वी0पी0 सिंह की जगह चन्द्रशेखर को प्रधानमन्त्री बनाया गया था। लचीलापन संसदीय सरकार का प्रमुख गुण है।</p><p>विरोधी दल का महत्व - संसदीय सरकार में आलोचना को बहुत महत्व दिया जाता है। इसमें विरोधी दल की रचनात्मक आलोचना को सत्तारूढ़ सरकार बहुत अधिक उपयोगी मानती है। इससे सरकार को अपनी कमियों का पता चल जाता है और भविष्य में उन दोषों की पुनरावृत्ति पर अंकुश लग जाता है। इससे जनता व सरकार दोनों का ही फायदा होता है। </p><p>योग्य व्यक्तियों की सरकार - संसदीय शासन प्रणाली में जनता उसी दल को सत्तासीन करती है जो उसे अधिक योग्य लगते हैं। चुनावों के समय लोग लोकप्रिय नेताओं का ही चुनाव करते हैं। सरकार में शामिल होने से पहले शासक-वर्ग को जनता की कसौटी पर खरा उतरना पड़ता है। यदि कभी गलत व्यक्ति को मन्त्रिमण्डल में स्थान प्राप्त हो जाए तो बाद में उसे हटा दिया जाता है। प्रत्येक नेता को शासन कार्यों में अपनी पूरी योग्यता दिखाने के अवसर प्राप्त होते हैं। इस तरह संसदीय सरकार योग्य व्यक्ति ही बनाते हैं और योग्य ही चलाते हैं। </p><p>वैकल्पिक शासन या सरकार का प्रावधान - संसदीय शासन प्रणाली में हमेशा उसी दल का शासन होता है जिसे संसद में बहुमत प्राप्त रहता है। सत्तारूढ़ दल के विरुद्ध अविश्वास प्राप्त पास होने पर उसका स्थान विरोधी दल ले सकता है। यह सुविधा अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली में नहीं होती। इस व्यवस्थ से बार बार चुनावी खर्च से बचा जा सकता है और प्रशासन भी सुचारु ढंग से चलता है। जेनिंग्स ने कहा है-”विरोधी दल का नेता प्रधानमन्त्री का स्थान लेने वाला होता है। जनमत में केवल थोड़ा सा परिवर्तन हिज मैजेस्टी के विरोधी दल को सदन में बहुमत दिलवाकर उसे हिज मैजेस्टी की सरकार बना सकता है।” अत: संसदीय शासन प्रणाली में वैकल्पिक सरकार की महत्वपूर्ण व्यवस्था होती है। </p><p>राजनीतिक चेतना व शिक्षा - संसदीय सरकार में राजनीतिक दल लोगों को राजनीतिक रूप से शिक्षित करते रहते हैं। प्रत्येक दल चुनाव जीतकर शासन की बागडोर सम्भालने के चक्कर में जनता को अपने पक्ष में करने के लिए अपनी नीतियों का प्रचार तथा विरोधी दल की आलोचना करता है। इससे नागरिकों को राजनीति का ज्ञान प्राप्त होता रहता है और उनमें राजनीतिक चेतना का विकास होता है। </p><p>जनमत की सरकार - संसदीय सरकार जनमत की इच्छा का परिणाम होती है। इसलिए उसे जनमत का आदर करना पड़ता है। इसमें सरकार लोगों की भावनाओं का निरादर नहीं कर सकती। इसमें सत्तारूढ़ दल चुनावी वायदों को पूरा करने का हर प्रयास करता है। इसमें मन्त्रिमण्डल जनमत की इच्छा के अनुसार ही सरकार में रहता है। यदि कोई सरकार जनमत की अवहेलना करता है तो आगामी चुनावों में उसे जनता का कोप सहना पड़ता है। इसी भय के कारण संसदीय सरकार में शासक वर्ग जनमत का आदर करता रहता है। </p><p>इस प्रकार कहा जा सकता है कि संसदीय सरकार उत्तरदायी सरकार होती है और इसमें जनमत की इच्छा का पूर्ण ध्यान रखा जाता है। इसमें सत्तारूढ़ दल अपने अन्तिम क्षणों तक लोकप्रिय बने रहने के प्रयास करता रहता है। कार्यपालिका तथा विधायिका में घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण इस सरकार में आपातकाल में त्वरित निर्णय लेने तथा स्थिति से निपटने में सक्षमता इसका प्रमुख गण है। सभी वर्गों के हितों की पोषक होने के कारण संसदीय सरकार का महत्त्व निर्विवाद है।</p><p>संसदीय सरकार के दोष </p><p>यद्यपि संसदीय सरकार के अनेक लाभ हैं, लेकिन फिर भी यह दोषों से मुक्त नहीं है। इसके दोषों को देखकर इसके गुणों पर आंच आने लगती है। इसलिए इसके प्रमुख दोषों को जानना भी अपरिहार्य है। अनेक विद्वानों ने संसदीय सरकार के निम्नलिखित अवगुण बताए हैं :-</p><p>संसदीय सरकर में प्रधानमन्त्री की शक्तियां असीमित होती हैं। उसके साथ मतभेद होने पर मन्त्रियों या जनप्रतिनिधियों को उसकी निरंकुशता का शिकार बनना पड़ता है। यह लोकतन्त्र के विपरीत है। अत: संसदीय सरकार मन्त्रिमण्डलीय तानाशाही की जनक है। डॉयसी ने लिखा है कि संसदीय सरकार में कार्यपालिका विधायिका की तानाशाही का शिकार हो जाती है। </p><p>संसदीय सरकार का कार्यकाल अनिश्चित होता है। यह अपने पद पर उसी समय तक रह सकती है जब तक उसे संसद में बहुमत प्राप्त है। </p><p>कार्यपालिका और विधायिका के घनिष्ठ सम्बन्ध शक्ति-पृथक्करण सिद्धान्त के महत्व को कम कर देते हैं। इससे शासन व्यवस्था के वे लाभ जनता तक नहीं पहुंच पाते जो इस सिद्धान्त के लागू होने से प्राप्त होते हैं।</p><p>यह सरकार दलबन्दी को प्रोत्साहन देकर शासन व्यवस्था व समाज में संघर्ष व तनाव की स्थिति पैदा करती है। </p><p>संसदीय सरकार अदक्ष व्यक्तियों की सरकार होती है। इसमें किसी नौसिखिए मन्त्री को किसी विभाग को सौंपकर पल्ला झाड़ लिया जाता है। इससे उत्तरदायी सरकार के कर्त्तव्य पूरे नहीं हो सकते। </p><p>संसदीय सरकार के राजनीतिक कार्यपालिका प्रशासनिक अधिकारियों पर अधिक आश्रित होने के कारण प्रशासनिक भ्रष्टाचार व नौकरशाही की निरंकुशता को जन्म देती है। </p><p>अनेक विद्वानों का यह भी मत है कि ऐसी सरकार संकटकाल के लिए अधिक उपयुक्त नहीं है। संसदीय शासन की शक्तियां एक व्यक्ति के हाथ में न होने के कारण महत्वपूर्ण निर्णय लेना सम्भव नहीं है। </p><p>इसमें विरोधी दल की भूमिका संसद की कार्यवाही के बाधक होती है। कई बार विरोधी दल के सदस्य जानबूझकर सरकार को नीचा दिखाने के लिए जनता में उसकी नीतियों का भ्रामक प्रचार करते हैं। </p><p>इस सरकार में कार्यपालिका हमेशा ही विधायिका की चमचागिरी के चक्कर में लगी रहती है ताकि उसका पद न चला जाए। उसे अपने कार्यों को करने के लिए विधायिका का समर्थन जुटाने के चक्कर में अपना स्वाभिमान भी दाव पर लगाना पड़ता है। इसलिए संसदीय सरकार में कार्यपालिका अधिक दुर्बल होती है। </p><p>इस प्रकार कहा जा सकता है कि संसदीय सरकार में कानून निर्माण का सारा बोझ मन्त्रिमण्डल पर आ जाता है औक्र इससे कार्यपालिका अपने कर्त्तव्यों को सही ढंग से पूरा करने में असक्षम रहती है। कार्यपालिका की पराश्रिता राजनीतिक अस्थिरता का खतरा भी पैदा कर देती है। इसमें दलबन्दी को प्रोत्साहन मिलने के कारण संसद वाद-विवाद का अखाड़ा बनकर रह जाती है और जनहित के कार्यों पर सरकार का अधिक ध्यान नहीं रहता। मन्त्रियों के कम दक्ष होने तथा प्रशासन में नौकरशाही का महत्व अधिक बढ़ जाने के कारण जनता को नौकरशाही को निरंकुशता का शिकार होना पड़ता है। लेकिन आलोचकों के सभी तर्क अधिक सत्य नहीं हैं। कार्यपालिका और विधायिका का आपसी सहयोंग आज बहुत जरूरी है। संसदीय शासन प्रणाली में इन दोनों में पाया जाने वाला सहयोग अध्यक्षात्मक शासन की काफी कमियों को दूर कर देता है।</p><p>संसदीय सरकार की सफलता की शर्तें</p><p>उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि संसदीय शासन प्रणाली में गुणों के साथ-साथ कुछ दोष भी हैं। यदि संसदीय शासन प्रणाली के दोषों को दूर कर दिया जाए तो इससे अच्छी सरकार कोई नहीं दे सकता। आज संसदीय शासन दलबन्दी का अखाड़ा बनकर रह गया है। इसमें शासन कार्यों के निष्पादन का उत्तरदायित्व तो कार्यपालिका का है, लेकिन शक्तियां विधायिका के पास अधिक हैं। मन्त्रिमण्डल को विधायिका के नियन्त्रण में ही कार्य करना पड़ता है। इस तरह की अनेक कमियां संसदीय शासन के दृष्टिगोचर होती है। इन कमियों को यदि दूर कर दिया जाए तो संसदीय शासन से अच्छा विकल्प कोई नहीं है। इन कमियों को दूर करके संसदीय शासन प्रणाली को सफलता का ताज पहनाया जा सेता है। कुछ विद्वानों ने संसदीय सरकार को सफलता के लिए निम्न सुझाव दिये हैं :-</p><p>संसदीय शसन प्रणाली में संसद को सर्वोच्च माना जाए और उसकी कार्यवाही में अनावश्यक गतिरोध उत्पन्न करने से परहेज किया जाएं </p><p>संसदीय शासन में कार्यपालिका के पास उत्तरदायित्वों का निवर्हन करने के लिए सम्पूर्ण शक्तियां होनी चाहिए। उसके विधायिका के निमन्त्रण से कुछ ढील दी जाए। </p><p>संसदीय कार्यवाही में स्पीकर को निष्पक्ष व निर्णायक भूमिका निभानी चाहिए। राजनीतिक तटस्थता ही संसदीय कार्यवाही को प्रभावी बना सकती है। स्पीकर को इसी तटस्थता का पालन करना चाहिए।</p><p>संसदीय शासन प्रणाली की मर्यादा बनाए रखने के लिए समय पर ही चुनाव कराने चाहिए। चुनावों में पूरी पारदर्शिता बरतना भी संसदीय सरकार को विश्वासपात्र बनाता है। </p><p>संसदीय शासन प्रणाली में विरोधी दल को अनावश्यक आलोचना से परहेज करना चाहिए।</p><p>संसदीय शासन प्रणाली में प्रतियोगी दल व्यवस्था होनी चाहिए ताकि कड़े संघर्ष के बाद सत्तासीन हुआ जा सके। इसका तात्पर्य यह है कि दलों को मुकाबला बराबरी का होना चाहिए।</p><p>संसदीय शासन प्रणाली में राष्ट्राध्यक्ष को ध्वजमात्र बनकर ही कार्य करना चाहिए। उसे प्रधानमन्त्री और मन्त्रिमण्डल के कार्यों में अनावश्यक हस्त़ोप से बचना चाहिए। </p><p>सत्तारूढ़ दल को जनमत का सम्मान करते रहना चाहिए। उसे कभी भी जनभावनाओं के विरुद्ध नहीं जाना चाहिए।</p><p>इस प्रकार उपरोक्त बातों का ध्यान रखकर चलने से संसदीय सरकार उन दोनों से मुक्त हो सकती है, जो उस पर लगाए जाते हैं। इससे संसदीय प्रणाली की जो काया पलट होगी, वह विश्व के उन देशों में भी स्थान प्राप्त करने की अधिकारी बन सकती हैं, जहां पर संसदीय व्यवस्था नहीं है।</p>Bandeyhttp://www.blogger.com/profile/08264562445292172107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6073521150607049851.post-19435437858772222882024-03-07T17:49:00.002+05:302024-03-07T17:49:17.493+05:30नाबार्ड के प्रमुख कार्यकृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक की स्थापना के पूर्व दो प्रमुख संस्थायें ग्रामीण साख के क्षेत्र में कार्य कर रही थीं (1) रिजर्व बैंक का कृषि साख उपलब्ध कराने के लिये एक विशेष विभाग जो ग्रामीण क्षेत्र में हर प्रकार का आर्थिक अनुसंधान भी करता था। (2) जुलाई 1968 में स्थापित "कृषि पुनर्वित्त एवं विकास निगम" जो सहकारी संस्थाओं को वित्त उपलब्ध कराता था तथा कृषि एवं सहायक कृषि धन्धों के विकास की दिशा में कार्यरत था। इस प्रकार एक जैसे कार्य को सम्पन्न करने के लिये रिजर्व बैंक तथा कृषि पुनर्वित्त निगम जैसी दो संस्थायें कार्यरत थीं। दोनों संस्थाओं के बढ़ते हुए कार्यों को एक जगह लाकर नाबार्ड की स्थापना की गयी।<br /><br />राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक अर्थात् नाबार्ड की स्थापना का उद्देश्य कृषि एवं ग्रामीण विकास हेतु संस्थागत साख में वृद्धि करना है। इसकी स्थापना 12 जुलाई 1982 को की गयी थी। ग्रामीण साख के क्षेत्र में नाबार्ड को एक सर्वोच्च संस्था माना गया है। नाबार्ड की अधिकृत पूँजी 500 करोड़ रूपये थी, जोकि अब बढ़ाकर 5,000 करोड रूपये कर दी गयी है।<br /><br />वर्तमान में इसकी चुकता पूँजी 330 करोड़ रूपये है, जिसे रिज़र्व बैंक व केन्द्रीय सरकार ने बराबर मात्रा में दिया है।<br /><br /><b>संगठन - </b>नाबार्ड के संगठन व प्रबंध का कार्य, संचालक मण्डल के द्वारा किया जाता है। इसमें निम्नलिखित सदस्यों को शामिल किया गया है-<div><ol style="text-align: left;"><li>सभापति ।</li><li>संचालक, ग्रामीण अर्थशास्त्र व ग्रामीण विकास के विशेषज्ञों में से।</li><li>3 संचालक, रिजर्व बैंक के संचालक हों।</li><li>7 संचालक, केन्द्रीय सरकार के अधिकारी हों।</li><li>3 संचालक केन्द्रीय सरकार के अधिकारी हों।</li><li>2 संचालक राज्य सरकार के अधिकारियों में से हों।</li><li>एक प्रबंध संचालक हो।</li><li>एक या अधिक पूर्णकालिक संचालक केन्द्रीय सरकार द्वारा हो।</li></ol></div><div>प्रबंध संचालक का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है, लेकिन अन्य संचालको का कार्यकाल 3 वर्ष का होता है। इस बैंक का संचालक मण्डल एक सलाहकार मण्डल बनायेगा जिसका कार्य समय-समय पर मामलों पर सलाह देना होगा जिसे बोर्ड द्वारा सौंपा जायेगा। इस समय बैंक का 15 सदस्यों का प्रबंध मण्डल है। इसके 27 क्षेत्रीय कार्यालय व 300 से अधिक जिला स्तर कार्यालय हैं।<br /><h2 style="text-align: left;">नाबार्ड के प्रमुख कार्य</h2>1. नाबार्ड ग्रामीण साख संस्थाओं के निर्माण एवं उन्हें सबल बनाने से सम्बंधित कार्य करता है।<br />2. नाबार्ड कृषि, लघु एवं कुटीर उद्योग हस्तशिल्प उद्योग एवं सम्बधित आर्थिक गतिविधियों हेतु साख सुविधा प्रदान करता है।<br />3. नाबार्ड बैंक प्रशिक्षण एवं शोध सम्बंधी सुविधायें प्रदान करता है।<br />4. नाबार्ड क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों एवं सहकारी बैंक का निरीक्षण करता है।<br />5. ग्रामीण विकास हेतु धन देने वाली संस्थाओं जैसे राज्य भूमि विकास बैक, राज्य सहकारी बैंक, अनुसूचित वाणिज्य बैंक तथा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को पुनर्वित्त देने के लिये शीर्ष संस्था के रूप में कार्य करता है।<br />6. नाबार्ड अनुसंधान एवं विकास निधि बनाकर कृषि एवं ग्रामीण विकास शोध को प्रोत्साहित करता है।<br />7. नाबार्ड विकेन्द्रित क्षेत्रों के विकास हेतु केन्द्र सरकार, राज्य सरकार, योजना आयोग एवं अन्य संस्थाओं की क्रियाओं के उचित समन्वय का कार्य करता है।<br />8. नाबार्ड राज्य सरकारों को दीर्घ कालीन सहायता उपलब्ध कराने का कार्य भी करता है, इससे सहकारी साख संस्थाओं की अंश पूँजी में वृद्धि होती है।<br />9.नाबार्ड का एक कार्य ग्रामीण साख प्रदान करने वाली सभी संस्थाओं की क्रियाओं में समन्वय स्थापित करना है।<br />10. प्राथमिक सहकारी बैकों को छोड़कर अन्य सहकारी बैंकों तथा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों का निरीक्षण करना भी नाबार्ड के कार्यों में सम्मिलित है।<br />11.नाबार्ड द्वारा जिन परियोजनाओं हेतु पुनर्वित्त की व्यवस्था की गयी है, यह उनका निरीक्षण एवं मूल्याँकन भी करता है।<br />12.कृषि एवं ग्रामीण विकास का राष्ट्रीय बैंक अनुसंधान का विकास कोष रखता है ताकि कृषि एवं ग्रामीण विकास कार्यक्रमों में अनुसंधान को प्रोत्साहित किया जा सके तथा विभिन्न क्षेत्रों की आवश्यकतानुसार परियोजनाओं को बनाया जा सके।</div>Bandeyhttp://www.blogger.com/profile/08264562445292172107noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6073521150607049851.post-73094949482316053182024-03-07T17:22:00.005+05:302024-03-07T17:22:41.603+05:30छतरपुर जिले का सामान्य परिचय<p>छतरपुर जिला भारत के मध्यप्रदेश राज्य के 51 जिले में से एक है। जिला प्रशासन का मुख्यालय छतरपुर शहर में स्थित है। यह जिला मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से पश्चिम की ओर 326 किलो मीटर की दूरी पर स्थित है। इस जिले में 6 अनुभाग (सब डिवीजन) 11 तहसील, 6 जनपद पंचायत, 3 नगर पालिका तथा 12 नगर परिषद् हैं।</p><h2 style="text-align: left;">छतरपुर जिले का ऐतिहासिक पृष्ठभूमि</h2><p>छतरपुर भारत के मध्य प्रदेश प्रांत का एक शहर है। विश्व प्रसिद्ध खजुराहो के मंन्दिर इसी जिले में स्थित है। इसकी पूर्वी सीमा के पास से सिंघारी नदी बहती है। आरंभ में पन्जा सरदारों द्वारा शासित इस नगर पर 18 वीं शताब्दी में कुंवर सोन सिंह का अधिकार हो गया।</p><p>सागर प्रताप सागर और किशोर सागर यहाँ के तीन महत्वपूर्ण तालाब है। छतरपुर का एक देशी राज्य था जो अब एक जिला हैं। इसमें मुख्यतः मैदानी भाग था। केन यहाँ की प्रमुख नदी है। उर्मल और कुतुरी उसकी सहायता नदियाँ हैं। यहाँ पुरातत्व की दृष्टि से महत्व के स्थानों में खजुराहों, 18 वीं सदी की इमारतें, छतरपुर से 10 मील पश्चिम स्थित राजगढ़ के पास एक किले के अवशेष एवं चंदेलों द्वारा निर्मित अनेक तालाब हैं। कोदो, तिल, जो, बाजरा, चना, गेहूँ तथा कपास यहाँ के मुख्य कृषिपदार्थ है। छतरपुर नगर छतरपुर जिले का प्रधान कार्यालय है। यह बाँदा-सागर-सड़क पर स्थित है। पहले नगर तीन ओर से दीवालों से घिरा था। नगर के केन्द्र में राजमहल तथा अन्य कई अच्छे मकान हैं। ताँबे के बर्तन, लकड़ी के सामान तथा साबुन निर्माण यहाँ के उद्योगों में प्रमुख हैं। नगर के कई तालाबों में रानी ताल प्रमुख है। बुर्देला राजा छत्रसाल ने 1707 में इसकी स्थापना की थी। उन्होंने मुगलों की सत्ता का सफलतापूर्वक विरोध किया था। यह नगर अंग्रेजों की मध्य भारत एजेंसी की भूतपूर्व छतरपुर रियासत की राजधानी भी थी। यहाँ 1908 में नगरपालिका का गठन हुआ।</p><h2 style="text-align: left;">छतरपुर जिले की भौगोलिक स्थिति</h2><p>छतरपुर मध्यप्रदेश राज्य की उत्तर पूर्वी सीमा पर स्थित है। यह सन् 1956 से अस्तित्व में आया है। छतरपुर 24°06 से 25°20' उत्तरी अक्षांस तथा 78°59' से 80°26' पूर्वी देशान्तर के बीच स्थित है। यह 8687 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैला हुआ है। यह उत्तर दिशा में उत्तरप्रदेश राज्य से पूर्व दिशा में मध्यप्रदेश के पन्ना जिले से दक्षिण दिशा में दमोह जिले से, दक्षिण पश्चिम में सागर जिले से तथा पश्चिम दिशा में टीकमगढ़ जिले में घिरा हुआ है।</p><h2 style="text-align: left;">छतरपुर जिले की प्रशासनिक व्यवस्था</h2><p>जिला सागर संभाग के अन्तर्गत आता है। 2011 के जनगणना के अनुसार, जिले में गाँवों की कुल संख्या 1187 हैं। जिसमें से 1085 गाँवों में लोग रहते हैं और 102 गाँव वीरान है। छतरपुर जिला ग्यारह तहसीलों में बाँटा हुआ है, गौरिहार, लवकुशनगर, चंदला, नौगाँव, महाराजपुर, छतरपुर, राजनगर, बड़ा मलहरा, घुवारा, बिजावर और बक्सावाहा। जिले में आठ विकासखण्ड (जनपद पंचायत) ईशानगर, विजावर, बड़ामलहरा, बक्स्वाहा, नौगांव, लवकुशनगर, वारीगढ़ एवं राजनगर है। जिलें में 558 ग्राम पंचायतें है। छतरपुर जिला 572 पटवारी हल्का में बटा हुआ है। छतरपुर जिला के अन्तर्गत 3 संसदीय क्षेत्र समाहित है जिनमें टीकमगढ़ संसदीय क्षेत्र के अन्तर्गत छतरपुर, महराजपुर और विजावर एवं खजुराहो संसदीय क्षेत्र में चंदला और राजनगर तथा दमोह संसदीय क्षेत्र में बड़ामलहरा विधानसभा क्षेत्र सम्मिलित है।</p><h2 style="text-align: left;">पुरातात्विक महत्व</h2><p><b>खजुराहो : </b>खजुराहो अपने विश्व प्रसिद्ध मंदिरों के साथ 47 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। छतरपुर के पूर्व में इसके तालुक और जिला मुख्यालय हैं। खजुराहो का पुराना नाम, जैसा कि शिलालेख में दिया गया था, खजुरवाहाका था, जबकि प्रसिद्ध मिंट चंड इसे खजानपुरा के नाम से जानता था। परंपरा के अनुसार गाँव ने शहर के गेट के दोनों ओर खजूर (दो गोल्डन खजूर) के अस्तित्व से अपना नाम लिया। अधिक संभवतः, यह अपने पड़ोस में खजूर के पेड़ों की बहुतायत के कारण था। प्राचीन काल में खजुराहो संभवतः एक बुंदेलखंड था और आधुनिक बुंदेलखंड के अनुरूप जेजहुति के राज्य की राजधानी थी।</p><p>खजुराहो की वर्तमान महिमा मंदिरों की अपनी शानदार श्रृंखला में निहित है, जिसमें दो अपवादों के साथ, पेंटाई और चौसट योगिनी सभी को चंदेला शासकों द्वारा ए। डी। 950-1050 के बीच बनाया गया था। मूल रूप से बनाए गए 85 मंदिरों में से 22 बच गए। मंदिर तीन मुख्य समूहों में गिरते हैं, पश्चिमी, उत्तरी और दक्षिण पूर्वी, प्रत्येक समूह में एक मुख्य मंदिर और चारों तरफ कई छोटे मंदिर होते हैं। पश्चिमी समूह ब्राह्मणवादी मंदिरों से बना है, जो शैव और वैष्णव दोनों हैं। दक्षिणी समूह, लगभग 5 कि.मी. खजुराहो गांव में दूल्हादेव मंदिर शिव और चतुर्भुज मंदिर को समर्पित है</p><p>विष्णु को समर्पित। पूर्वी समूह में तीन हिंद मंदिर और तीन जैन मंदिर हैं। इन सभी समूहों के सभी मंदिर, चौंसठ योगिनी और घंटाई को छोड़कर, हल्के रंग के बलुआ पत्थर और उसी शैली में बने हैं। यहां तक कि जैन मंदिर सामान्य रूप के दृष्टिकोण से ब्राह्मणवादी और वैष्णव मंदिरों से भिन्न नहीं हैं। वहाँ कोई प्रमुख गुंबद नहीं हैं और सर्कम्बुलेंट कोशिकाओं के साथ कोई आंगन नहीं है, लेकिन सभी संस्करणों में पोर्च की तुलना में शिखर अधिक महत्वपूर्ण है। मंदिरों में अर्धनंदपा (प्रवेश द्वार), मण्डपा (सभा भवन), गर्भगृह (गर्भगृह), अंतराला (बरोठा), महामंदपा (त्रेतासर्प) और प्रदक्ष-शिनपाथा (परिक्रमा मार्ग) शामिल हैं। इन मंदिरों की छतें आकार में प्रभावशाली हैं और सुशोभित शिखर (स्पायर) में समाप्त होती हैं। ये सभी भाग एक उभरे हुए अधिशोषक पर एक ही धुरी पर हैं और पूर्ण वास्तु संश्लेषण का निर्माण करते हैं। उनमें से किसी के भी पास बाड़े नहीं हैं। वे योजना में सप्तरथ हैं और सप्तगंगा में जंघाओं (लंबवत दीवार वाला भाग) है, जिसमें उत्कृ ष्ट कारीगरी के मूर्तिकला बैंड हैं। सबसे प्रसिद्ध और प्राचीन मंदिर हैं- चौसठ योगिनी, कंदरिया महादेवा, देवी जगदंबी, छत्र-को-पति, विश्वनाथ, लक्ष्मण, वराह, आदि ।</p><p>भीम कुंडः लगभग 83 किमी छतरपुर से दूर, भीम कुंड एक प्रसिद्ध तालाब है जो एक टीले के चौड़े छेद के माध्यम से देखा जाता है। भूमिगत सुरंग से पानी आता है, तालाब में इकट्ठा होता है और फिर बहता है। कुंड 18 मीटर गहरा, 10 मीटर लंबा और 3 मीटर चौड़ा है। पानी तक पहुंचने के लिए सीढ़ियों का निर्माण किया गया है। यह माना जाता था कि भीम ने अपने गदा को जमीन के खिलाफ इतनी मेहनत से मारा था कि टीला छील गया था और कुंड बनाया गया था जबकि पांडव भाई अंदर थे</p><p>इस जगह के पास निर्वासन। अंदर का पानी बहुत साफ है और नीले रंग में है। इसका कुछ औषधीय महत्व है, खासकर अस्थमा के लिए। इस तालाब के पास एक शिव मंदिर है। लगभग 24 कि.मी. भीम कुंड से दूर एक और तालाब जिसे अर्जुन कुंड के नाम से जाना जाता है।</p><p><b>बिजावर :</b> गढ़ मांडलडिनस्टी के गोंड सरदार बिजाजी सिंह द्वारा स्थापित और उनके नाम पर और अब जिले के तहसील मुख्यालय में से एक। बुंदेलखंड एजेंसी के तहत बिजावर एक सनद राज्य था। जब राजा केसरी सिंह सत्ता में आए तो उन्होंने ब्रिटिश अधिपति के प्रति अपनी निष्ठा का परिचय दिया। पुरस्कार के रूप में मुकुट ने उन्हें 1811 में एक सनद दिया और महाराजा का वंशानुगत शीर्षक। अंत में 1877 में सवाई के उपसर्ग से सम्मानित किया गया। जटाशंकर नामक एक बड़ा शिव मंदिर 16 कि.मी. दूर बिजावर तहसील स्थित है। इस स्थान पर एक प्राकृतिक झरने का पानी लगातार मंदिर में बहता है और तीन ताल में इकट्ठा होता है।</p><p><b>गढ़ी मालेरा :</b> बिजावर तहसील का एक महत्वपूर्ण शहर, मालेरा लगभग 16 किमी की दूरी पर बांदा-छतरपुर मार्ग के पास स्थित है। छतरपुर शहर के उत्तर-पूर्व में। राजा प्रताप सिंह द्वारा निर्मित बागराजन देवी को समर्पित मंदिर और फकिया मुस्लिम संत की समाधि सहित इस स्थान के हित की वस्तु।</p><p><b>खोंप : </b>खॉप छतरपुर तहसील का एक छोटा सा गाँव है, और यहाँ पर स्थित है लगभग 8 किलोमीटर की दूरी पर छतरपुर महोबा रोड। देखने में एक छोटा खंडहर फोर्ट वर्थ। यह अकबर की पत्नियों में से एक के नाम के साथ जुड़ा हुआ है।</p><p><b>नयनगिरि : </b>जैनियों का एक तीर्थस्थल, नयनगिरि लगभग 96 किमी है। छतरपुर से और लगभग 14 कि.मी. छतरपुर-सागर रोड पर दलपतपुर गाँव से। इस जगह को रेसेंडीगिरी के नाम से भी जाना जाता है। वरदत्त और चार अन्य मुनियों (संतों) को इस स्थान पर निर्वाण प्राप्त करने के लिए कहा गया था और इसलिए, यह एक सिद्धक्षेत्र था। जैन शास्त्रों के अनुसार 23 वें तीर्थकर श्री। पार्श्वनाथ नयनगिरि आए। पहाड़ी पर 40 मंदिर हैं। चौबीसी मंदिर एक नया मंदिर है, लेकिन उनमें से सबसे बड़ा मंदिर है। मंदिर के एक टैंक के केंद्र में खड़ा है।</p><p><b>पाताल गंगा :</b> 6.5 किमी की दूरी पर स्थित है। ग्राम दरगवां और छतरपुर से 67 किमी दूर, पाताल गंगा साफ पानी का एक बहुत गहरा तालाब है। पाताल गंगा के पास शिव की एक छवि है।</p>Bandeyhttp://www.blogger.com/profile/08264562445292172107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6073521150607049851.post-26325813372385793652024-02-27T12:05:00.000+05:302024-02-27T12:05:38.450+05:30मौद्रिक नीति का अर्थ, उद्देश्य एवं महत्व<div style="text-align: left;"><div>भारत के केन्द्रीय बैंक के रूप में भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना 1 अप्रैल, 1935 में एवं रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया का राष्ट्रीयकरण 1948 में एक्ट द्वारा किया गया था । इसके अनुसार सरकार की नीतियों के कियान्वयन हेतु बैंक को राज्य नियंत्रित संस्थान होना चाहिए और सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बैंक के कार्यों पर सरकार की मौद्रिक, आर्थिक एवं वित्तीय नीतियों में समन्वय स्थापित हो सके ।' इस एक्ट के अनुसार 1949 से रिजर्व बैंक पर सरकार का अधिकार हो गया । बैंक के अंशधारकों को प्रति 100 रू0 के अंश के लिए सरकार ने 118 रू0 10 आने का मुआवजा देकर सभी अंश ले लिए । मुआवजे की रकम प्रति अंश 18 रू0 10 आने के बराबर नगद में दी गयी और शेष 100 रू0 के बदले 3 प्रतिशत ब्याज वाले सरकारी बाण्ड दिये गये । बैंकों के प्रबन्धन के सम्बन्ध में केन्द्र सरकार द्वारा समय-समय पर दिशा-निर्देश जारी किया जाता है तथा सामान्य निर्देशन एवं निरीक्षण का दायित्व हमेंशा केन्द्रीय निर्देशक एवं वैधानिक बोर्ड को दिया गया ।</div><div><br /></div><div>रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया का राष्ट्रीयकरण अन्तर्राष्ट्रीय मानकों को ध्यान में रखकर किया गया । फिर भी युद्ध के समय का अनुभव स्वतंत्र व्यक्तिगत प्रबन्धन में कल्पित विश्वास को तोड़ना है। बैंक राष्ट्रीयकरण से पूर्व सरकार का अनुभाग था, इसलिए कोई अतिरिक्त राजनीतिक दबाब रिजर्व बैंक पर नहीं आया, राष्ट्रीयकरण में केवल पुरानी परिस्थितियों को व्यवहारिक एवं वैधानिक चरित्र प्रदान किया। इसके बावजूद भी राष्ट्रीयकरण से एक महत्वपूर्ण उद्देश्य प्राप्त हुआ। संस्था के व्यक्तिगत प्रबन्धन में होने से यह हमेंशा खतरा बना रहता था कि मुद्रा के निर्माण या क्षय में ज्ञान अथवा अज्ञानतावश इसकी नीति किसी के व्यक्तिगत हित में हो सकती थी जो राष्ट्र हित में घातक हो सकता था ।</div><div><br /></div><div>सरकार द्वारा व्यवस्थापित रिजर्व बैंक केन्द्रीय बैंक द्वारा लागू की गयी मौद्रिक नीति और सरकार द्वारा चलायी गयी सामान्य आर्थिक नीति के बीच मतभेद की संभावना को दूर करता है। रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया बैंकिंग अधिनियम 1949 के द्वारा अनुषंगी बैंकों के वृहद अधिकार का स्पष्टीकरण प्रदान करता है फिर भी रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया सरकार के दिन-प्रतिदिन के कार्यों से निरपेक्ष रहते हुए एक स्वतंत्र निकाय के रूप में कार्य करता है। रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया एक्ट 1934 की प्रस्तावना के अनुसार "रिजर्व बैंक का प्रमुख कार्य भारत में मौद्रिक स्थिरता स्थापित करने तथा देश के हित में मुद्रा एवं साख प्रणाली का संचालन करने के उद्देश्य से नोटों के निर्गमन का नियमन करना तथा सुरक्षित कोषों को रखना है ।"" देश का केन्द्रीय बैंक होने के नाते रिजर्व बैंक को केन्द्रीय बैंक के सभी कार्य करने पड़ते हैं । इसके साथ-साथ देश की परिस्थितियों के अनुसार रिजर्व बैंक को कुछ अन्य प्रकार के कार्य भी करने पड़ते हैं । देश के आर्थिक विकास के कार्य में उचित मौद्रिक तथा बैकिंग नीतियों द्वारा सहयोग देना रिजर्व बैंक का एक महत्वपूर्ण कार्य हो गया है ।</div><div><br /></div><div>आजकल मौद्रिक नीति की समस्या विशेषज्ञों की चर्चा का विषय बन गया है । 19वीं शताब्दी के अन्त में मौद्रिक नीति के विषय का अधिक विस्तार हुआ । वर्तमान शताब्दी में भी इसके सैद्धान्ति एवं व्यवहारिक विषयों में विशेषज्ञों का ध्यान बढ़ता जा रहा है ।</div><div><br /></div><div>यद्यपि मौद्रिक नीति का शब्द व्यापक रूप से प्रयोग किया गया, फिर भी कुछ ही लोगों ने इसकी परिभाषा दी । पाल एंजिग के अनुसार, "मौद्रिक प्रणाली के अस्तित्व में रहने तथा कार्यशील होने के परिणामस्वरूप उसके लाभो में वृद्धि तथा हानियों को न्यूनतम करने के प्रयत्नों को मौद्रिक नीति कहा जा सकता है।""</div><div><br /></div><div>हैरी जानसन् के मतानुसार, मौद्रिक नीति अल्पकालीन आर्थिक स्थायित्व से सम्बन्धित है जो व्यापार चक के प्रभाव को कम करती है । आर्थिक स्थिरता का कार्य दो उद्देश्यों से जुड़ा है । मूल्य स्थिरता तथा उच्च रोजगार का स्तर ये दोनों एक दूसरे से सम्बन्धित हैं ।" </div><div><br /></div><div>सामान्य आर्थिक प्रबन्धन में इसकी भूमिका नयी नहीं है । कियाशील वित्त के विकास से बहुत पहले इसका सामान्य आर्थिक कार्यों में प्रयोग स्वीकार किया गया, फिर भी यह मुद्रा के मात्रात्मक सिद्धान्त से निकटतम पारिवारिक सम्बन्ध रखता है । परम्परागत दृष्टिकोण के अनुसार मौद्रिक नीति का उद्देश्य स्वर्णमान एवं विदेशी विनिमय दर की स्थिरता से सम्बन्धित था । वृहद् रूप से कहा जा सकता है कि केन्द्रीय बैंक की मौद्रिक नीति का अर्थ मांग और पूर्ति को नियंत्रित करके सरकार की आर्थिक नीति के उद्देश्यों को पूर्ण करने के अस्त्र के रूप में है। यह प्रशासनिक रूप से देश की मुद्रा पूर्ति, जिसमें मुद्रा मांग जमा तथा विदेशी विनिमय दर को व्यवस्थित करना सम्मिलित है । स्वर्णमान का परित्याग हो जाने के पश्चात् तथा सन् 1930 की विश्वव्यापी महामन्दी के समय से लेकर द्वितीय विश्व युद्ध के आरंभ होने के समय तक मौद्रिक नीति को केवल सस्ती मुद्रा उत्पन्न करने का साधन मात्र समझा जाता था ।' परन्तु वर्तमान समय में सभी देशों में मौद्रिक नीति को आर्थिक सुधारों एवं आर्थिक स्थायित्व तथा आर्थिक विकास को संभव बनाने का एक प्रमुख साधन समझा जाता है । इस प्रकार वर्तमान युग में मौद्रिक नीति को संसार के सभी देशों की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करने के विभिन्न कारण हैं ।</div><div><br /></div><div>1. युद्ध तथा युद्धोत्तर काल में प्रायः सभी देशों की मुद्रा के परिमाण में अत्यधिक वृद्धि हो जाने के कारण मुद्रा-स्फीति की दशा विद्यमान हो गयी थी। फलस्वरूप अर्थव्यवस्था में अनेक भयानक रोग दृष्टिगोचर होने लगे थे जिनके कारण विश्व के सभी देशों की सरकारों का विश्वास मौद्रिक नीति की ओर आकर्षित हुआ ।</div><div><br /></div><div><div>2. युद्ध के पश्चात् जब विश्व के विकसित देशों की सरकारें केवल अमौद्रिक नीतियों के प्रयोग के द्वारा स्फीति की कठिन समस्या को सुलझाने में असमर्थ सिद्ध हुई, तो मौद्रिक नीति में विश्वास होने लगा तथा स्फीति कारक समस्या का निवारण मौद्रिक नीति द्वारा ही उचित समझा जाने लगा ।</div><div><br /></div><div>3. विभिन्न देशों की सरकारों एवं अर्थशास्त्रियों द्वारा इस सत्य को भली भांति समझा जाने लगा था कि यद्यपि कर नीति विनियोग मूल्य तथा वेतन सम्बन्धी नियंत्रण का स्फीति को नियंत्रित करने में एक विशेष स्थान होता है, परन्तु इन सबके प्रयोग की निश्चित सीमाएं अन्तर्राष्ट्रीय तथा आन्तरिक राजनैतिक स्थितियों द्वारा निर्धारित होती हैं और इस कारण मौद्रिक नीति के यंत्र का उपयोग किये बिना स्फीति के शक्तिशाली शत्रु पर विजय प्राप्त करना कठिन है । इस मौद्रिक नीति के उपलब्ध सभी हथियारों के प्रयोग के बिना स्फीति के विरूद्ध संघर्ष सफलतापूर्वक नहीं किया जा सकता है । मौद्रिक नीति का प्रयोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में जैसे आवश्यक हो, राजकोषीय उपाय के रूप में आर्थिक अस्थिरता के दौरान किया जाता है। आधुनिक कल्याणकारी राज्य में जीविका तथा आर्थिक विकास की बढ़ती हुई आवश्यकता के कारण मौद्रिक नीति को आर्थिक नीति के एक औजार के रूप में प्रयोग किया जा रहा है ।</div></div><div><br /></div><div>मौद्रिक नीति, मौद्रिक सिद्धान्त तथा मौद्रिक प्रयोग के बीच में स्थित है । मौद्रिक सिद्धान्त अनेक सिद्धान्तों को सम्बन्धित करता है जो कि मौद्रिक नीति की पृष्ठभूमि है और जो इसको प्रमाणित करती है । मौद्रिक प्रयोग प्रायोगिक उपायों से सम्बन्धित है जो मौद्रिक नीति के निर्णय को और इसमें सम्मिलित तकनीकी व्यौरों को प्रभावित करता है । मौद्रिक नीति का विस्तृत प्रयोग या तो सरकारी अधिकारियों द्वारा या केन्द्रीय बैंक के अधिकारियों द्वारा किया जाता है ।</div></div><h2 style="text-align: left;">मौद्रिक नीति के उद्देश्य</h2>
मौद्रिक नीति एक ऐसा तंत्र है जिसके माध्यम से किसी अर्थव्यवस्था में मुद्रा की आपूर्ति
और मांग को विनियमित किया जाता है। मौद्रिक नीति के उद्देश्य (maudrik niti ke uddeshy) को पूरा करने के लिए
मुद्रा की आपूर्ति और मांग पर इस तरह के नियमों की अपेक्षा की जाती है।<div> <br />आपको ध्यान देना चाहिए कि मौद्रिक नीति के उद्देश्यों और लक्ष्यों में अंतर है। मौद्रिक
नीति के उद्देश्य उस दिशा को इंगित करते हैं जिसमें नीति चर का उद्देश्य होना चाहिए,
अर्थात, मुद्रास्फीति को कम करना, पूर्ण रोजगार प्राप्त करना, उच्च आर्थिक संवृद्धि प्राप्त
करना।<br /><br />
दूसरी ओर, मौद्रिक नीति के लक्ष्य मौद्रिक नीति के उपस्करों के माध्यम से मुद्रा आपूर्ति,
बैंक ऋण, और अल्पकालिक ब्याज दरों जैसे लक्ष्य हैं।<br /><br />
एक केंद्रीय बैंक का एक ही उद्देश्य या कई उद्देश्य हो सकते हैं। आज अधिकांश केंद्रीय
बैंकों का प्राथमिक उद्देश्य कीमत स्थिरता है। कीमत स्थिरता का मतलब यह नहीं है कि
अर्थव्यवस्था में कोई कीमत वृद्धि नहीं होनी चाहिए। बल्कि इसका उद्देश्य मध्यम मुद्रास्फीति
है। बहुत बार, कई देशों, मौद्रिक नीति ने मुद्रास्फीति दर को लक्षित किया है। भारत में भी
इस तरह के मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण का पालन किया जाता है । </div><div><br /></div><div>1990 में पहली बार न्यूजीलडैं में मुद्रास्फीति
का लक्ष्य रखा गया था। इसके बाद कनाडा, यूनाइटेड Çकगडम, स्वीडन, ऑस्ट्रेलिया,
चिली, पोलैंड आदि जैसे कई देशों ने 1990 के दशक के दौरान मौद्रिक नीति के उद्देश्य
के रूप में मुद्रास्फीति को लक्षित किया। भारत ने औपचारिक रूप से भारतीय रिजर्व बैंक
अधिनियम को बदल कर 2016 में मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण को अपनाया। तदानुसार, भारत में
मौद्रिक नीति के लिए लक्ष्य चर 4 प्रतिशत की मुद्रास्फीति दर है। भारतीय रिज़र्व बैंक इस
तरह से मौद्रिक नीति बनाता है कि मुद्रास्फीति की दर 2 प्रतिशत से 4 प्रतिशत प्रति वर्ष
की सीमा में रहे।<br /><br />
2016 से पहले, 1998 से, भारत ने मौद्रिक नीति के उद्देश्यों के रूप में कई संकेतक
(indicators) अपनाएये। इस –ष्टिकोण के तहत भारतीय रिजर्व बैंक ने मुद्रा, ऋण,
उत्पादन, व्यापार, पूंजी प्रवाह, राजकोषीय घाटा, मुद्रास्फीति दर और विनिमय दर जैसे कई
लक्ष्य चरों पर विचार किया। हम किसी अर्थव्यवस्था के कुछ प्रमुख लक्ष्यों के बारे में
विस्तार से बताते हैं, ताकि आपको उनके महत्व का अंदाजा हो जाए।<br /><h3 style="text-align: left;">
1. उच्च आर्थिक संवृद्धि</h3>
अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य अधिकतम संभव आर्थिक संवृद्धि को प्राप्त करना है।
आर्थिक संवृद्धि से प्रति व्यक्ति आय अधिक होती है और लोगों के जीवन स्तर में सुधर
होता है है। जैसा कि पहले बताया गया था, आर्थिक संवृद्धि को गति देने के लिए उच्च
निवेश महत्वपूर्ण है। यदि देश के संसाधनों का अल्प प्रयोग हो रहा हो, तो एक
विस्तारवादी मौद्रिक नीति अपनाई जा सकती है।<br /><h3 style="text-align: left;">
2. पूर्ण रोजगार स्तर</h3>
अर्थव्यवस्था का एक अन्य महत्वपूर्ण उद्देश्य लोगों को रोजगार देने का प्रावधान है। हम
मानते हैं कि मानव संसामुद्रा सहित संसामुद्राों की बेरोजगारी अर्थव्यवस्था में मौजूद है।
आगे, मंदी की अवधि के दौरान बेरोजगारी का स्तर बढ़ता है। इस प्रकार उन नीतियों को
तैयार करने की आवश्यकता है जो रोजगार पैदा करती हैं और देश को पूर्ण रोजगार की
ओर ले जाती हैं। उत्पादन या संभावित उत्पादन के पूर्ण रोजगार स्तर पर, उत्पादन के
सभी कारक (श्रम सहित) पूरी तरह से नियोजित होते हैं। इस तरह के उत्पादन को पूर्ण
क्षमता रोजगार भी कहते है। मौद्रिक नीति समग्र मांग को प्रभावित करके पूर्ण क्षमता वाले
उत्पादन को साकार करने में मदद कर सकती है।<br /><h3 style="text-align: left;">
3. कीमत स्थिरता</h3>
कीमत स्थिरता, जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, इसका मतलब यह नहीं है कि
कीमतों को पूरी तरह स्थिर रहना चाहिए; इसका मतलब है कि कीमत वृद्धि मध्यम होनी
चाहिए।<br /><br />
कीमत स्थिरता के उद्देश्य को आर्थिक संवृद्धि और पूर्ण रोजगार जैसे अन्य उद्देश्यों के साथ
टकराव हो सकती है। पूर्ण क्षमता उत्पादन से परे एक विस्तारवादी मौद्रिक नीति के
माध्यम से कुल मांग में वृद्धि से मुद्रास्फीति में परिणाम हो सकता है। अगर कुल मांग में
कमी होती है, तो अर्थव्यवस्था में अपस्फीति की प्रवृत्ति हो सकती है। मौद्रिक नीति का
उद्देश्य मुद्रास्फीति और अपस्फीति दोनों स्थितियों से बचना होता है।<br /><h3 style="text-align: left;">
4. विनिमय दर स्थिरता</h3>
मौद्रिक नीति किसी अर्थव्यवस्था के भुगतान संतुलन को प्रभावित कर सकती है। ब्याज दर
अर्थव्यवस्था में विदेशी निवेश में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यदि ब्याज दर में गिरावट
होती है, तो इसका परिणाम पूंजी के बहिर्वाह में हो सकता है। नतीजतन, विदेशी मुद्रा की
मांग बढ़ जाती है और इसके परिणामस्वरूप घरेलू मुद्रा का कीमतº्रास होता है। मुद्रा के कीमतहृास के कई परिणाम हो सकते हैं - (विदेशी मुद्रा के संदर्भ में घरेलू मुद्रा के कीमत
में गिरावट;) विदेशी माल अधिक महंगा हो जाता है; और कच्चे माल जैसी आवश्यक
वस्तुओं के आयात में गिरावट हो सकती है जिसके परिणामस्वरूप GDP में कमी आती
है। जैसा कि घरेलू सामान और सेवाएं विदेशी मुद्रा (कीमतहृास के कारण) के मामले में
सस्ती हो जाती हैं, देश का निर्यात बढ़ सकता है जो भुगतान की स्थिति के संतुलन में
सुधार करता है। हालांकि अंतिम परिणाम कई कारकों पर निर्भर करता है जैसे कि आयात
और निर्यात की लोच, और वैश्विक आर्थिक वातावरण (मंदी, युद्ध, वैश्विक कीमत स्तर,
आदि)।<br /><h2 style="text-align: left;">मौद्रिक नीति के साधन</h2>
साख (credit) को नियंत्रित करने के लिए मौद्रिक नीति के उपस्करों (instruments) को
दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है, परिमाणात्मक (quantitative) और गुणात्मक
(qualitative)। परिमाणात्मक उपस्कर प्रकृति में गैर-भेदभावपूर्ण हैं, उदाहरण के लिए, जब मौद्रिक नीति
किसी देश के केंद्रीय बैंक द्वारा एक निश्चित ब्याज दर निर्धारित की जाती है, तो यह दर
पूरे देश की बैंकिंग प्रणाली पर लागू होती है। इसके विपरीत, गुणात्मक / चयनात्मक
उपाय समाज के एक वर्ग से दूसरे तक भिन्न होते हैं।<br /><h3 style="text-align: left;">1. परिमाणात्मक उपस्कर</h3>
मौद्रिक नीति के महत्वपूर्ण परिमाणात्मक साख नियंत्रण उपस्कर इस प्रकार हैं:<br /><ol style="text-align: left;"><li>रेपो दर</li><li>बैंक दर</li><li>खुले बाजार की प्रक्रियाएं</li><li>न्यूनतम रिजर्व निचय अनुपात में बदलाव</li><li>तरलता अनुपात में परिवर्तन</li></ol><b>क) रेपो रेट</b> - मौद्रिक नीति का सबसे अधिक देखा गया और महत्वपूर्ण उपस्कर रेपो दर है। यह वह दर
है जिस पर वाणिज्यिक बैंक प्रतिभूति जैसे संपार्श्विक जमा करने पर भारतीय रिजर्व बैंक से
मुद्रा उधार लेते हैं। इसी प्रकार, वाणिज्यिक बैंक केंद्रीय बैंक में अपने अतिरिक्त भंडार जमा
कर सकते हैं, जिसके लिए ‘रिवर्स रेपो दर’ लागू है। रेपो दर समय-समय पर भारतीय
रिजर्व बैंक द्वारा तय की जाती है। अन्य दरें, जैसे रिवर्स रेपो दर, बैंक दर और सीमांत
स्थायी सुविधा ( marginalstanding facility - MSF) दर स्वचालित रूप से रेपो दर से
ऊपर एक निश्चित प्रतिशत के रूप में समायोजित हो जाती हैं।<br /><br />
RBI मुद्रास्फीति, आर्थिक संवृद्धि और भुगतान संतुलन के प्रबंधन के लिए
रेपो दर का उपयोग करता है। जब मुद्रास्फीति की दर अधिक होती है, तो RBI रेपो
दर को बढ़ा सकता है ताकि ब्याज दरों में वृद्धि हो, जिससे सकल मांग में गिरावट आए।
दूसरी ओर, आर्थिक वृद्धि में सुस्ती होने पर भारतीय रिजर्व बैंक रेपो दर में कमी कर
सकता है।<br /><br />
बैंकों को तरलता समायोजन सुविधा (liquidityadjustment facility - LAF) के तहत रेपो
दर पर भारतीय रिज़र्व बैंक से उधार लेने की अनुमति है। भारतीय रिज़र्व बैंक के साथ
अतिरिक्त तरलता का जमा भी LAF के तहत किया जाता है। यह व्यवस्था बैंक को
तरलता दबाव का प्रबंधन करने और अल्पकालिक नकदी की कमी को हल करने में मदद
करती है। तरलता समायोजन सुविधा के अलावा, भारतीय रिजर्व बैंक के पास ‘सीमांत
स्थायी सुविधा’ है, जो वाणिज्यिक बैंकों को रातोंरात ऋण देने का प्रावधान करती
है। इसका उद्देश्य ग्राहकों द्वारा बड़े पैमाने पर नकदी की निकासी जैसे अप्रत्याशित झटके
को पूरा करना है। एमएसएफ इस प्रकार रेपो दर से ऊपर एक दंडात्मक ब्याज दर प्राप्त
करता है।</div><div><br /><b>ख) बैंक दर -</b>
बैंक दर ब्याज की वह दर है जिस पर केंद्रीय बैंक वाणिज्यिक बैंकों और अन्य वित्तीय
संस्थानों को ऋण प्रदान करता है। बैंक दर में वृद्धि से अर्थव्यवस्था में ब्याज दर बढ़ने का
प्रभाव पड़ता है। इसी तरह, बैंक दर में कमी अर्थव्यवस्था में ब्याज की दर को कम करती
है। उच्च बैंक दर अर्थव्यवस्था में साख निर्माण की सीमा को कम करती है जिससे सकल
मांग में गिरावट होती है और इसलिए कीमतें कम होती हैं। दूसरी ओर, मंदी के चरण में
कम बैंक दर का सुझाव दिया जाता है।<br /><br />
बैंक उधार पर बैंक दर में परिवर्तन के प्रभाव की भविष्यवाणी करना मुश्किल है। ऐसा
इसलिए है क्योंकि बैंक दर स्वयं प्रमुख उधार दर नहीं है, हालांकि यह विभिन्न प्रकार के
अग्रिमों के लिए RBI की उधार दरों की बहुलता का आधार है। बैंक की उधारी पर
बैंक दर में परिवर्तन का प्रभाव विभिन्न कारकों पर निर्भर करता है जैसे (क) उधार के
भंडार पर बैंक की निर्भरता की मात्रा, (ख) उधार दरों के लिए बैंकों की मांग की
संवेदनशीलता उनकी उधार दरों और उधार लेने के बीच के अंतर पर दरें (ग) किस हद
तक ब्याज की अन्य दरें पहले से ही बदल गई हैं या बाद में बदल गई हैं (घ) ऋण की
मांग की स्थिति और अन्य स्रोतों से मुद्रा की आपूर्ति, आदि।<br /><br />
उच्च बैंक दर के समय बैंकों को उधारी लेने से हतोत्साहित नही किया जाता, यदि बाजार
की ब्याज दरें अधिक होती हैं तो बैंक दर के दर पर उधार लेकर भी व्यावसायिक बैंक
उधार दी गई मुद्राराशि से अधिक लाभ की उम्मीद करते हैं।<br /><br />
रेपो दर और बैंक दर के बीच एक सूक्ष्म अंतर है। वित्तीय संस्थान किसी भी संपार्श्विक को
प्रस्तुत किए बिना बैंक दर पर भारतीय रिज़र्व बैंक से उधार ले सकते हैं। दूसरी ओर
आरबीआई द्वारा जारी प्रतिभूतियों की फिर से खरीद के लिए रेपो रेट लिया जाता है।
इसके अलावा, बैंक दर रेपो रेट से अधिक है।</div><div><br /><b>ग) खुले बाजार की प्रक्रियाएं -</b>
केंद्रीय बैंक सरकारी प्रतिभूतियों की बिक्री और खरीद के माध्यम से मुद्रा आपूर्ति पर
नियंत्रण रखता है। ‘खुले बाजार की प्रक्रिया’ (open market operations) शब्द केंद्रीय बैंक
द्वारा जनता और अन्य बैंकों को सरकारी प्रतिभूतियों की बिक्री/खरीद को से संदर्भित है।
जबकि खुले बाजार में सरकारी प्रतिभूतियों की खरीद उच्च शक्ति वाले मुद्रा (H) को
बढ़ाती है, सरकारी प्रतिभूतियों की खुले बाजार में बिक्री से H की राशि घट जाती है। ‘H’
में परिवर्तन के बाद, सामान्य प्रक्रिया से मुद्रा की
आपूर्ति (ड) में परिवर्तन होता है। मुद्रास्फीति पर नियंत्रण के लिए केंद्रीय बैंक एक
संकुचनकारी मौद्रिक नीति के रूप में लिए, प्रतिभूतियों को बेचकर मुद्रा की आपूर्ति कम
कर देता है। गिरती कीमतों की स्थिति में, केंद्रीय बैंक अर्थव्यवस्था में मुद्रा आपूर्ति बढ़ाने
के लिए प्रतिभूतियां खरीदता है। इस तरह की विस्तारवादी मौद्रिक नीति सकल मांग को
बढ़ाने और अर्थव्यवस्था को मंदी से बाहर निकालने में मदद करती है।<br /><br />
खुले बाजार की ये प्रक्रियाएं लचीली और प्रतिवर्ती होती है। इसलिए, इन्हें मौद्रिक नियंत्रण
का एक कुशल सामुद्रा माना जाता है। इसके अलावा, बैंक दर और आरक्षित
आवश्यकताओं के विपरीत, यह ‘घोषणा प्रभाव’ से मुक्त है क्योंकि इन कार्यों के संचालन के
लिए कोई पूर्व सार्वजनिक घोषणा नहीं की जानी चाहिए। H पर प्रत्यक्ष प्रभाव तत्काल है
और निर्मित या नष्ट हुई H की मात्रा सटीक रूप से ज्ञात रहती है। ब्याज दर में बदलाव
जैसे अप्रत्यक्ष प्रभाव भी होते ही हैं।<br /><br />
केंद्रीय बैंक या मौद्रिक प्राधिकरण द्वारा खुले बाजार में प्रतिभूितयों की खरीद आरै बिक्री
को खुले बाजार के संचालन के रूप में जाना जाता है। अर्थव्यवस्था में साख को कम
करने के लिए, केंद्रीय बकैं खुले बाजार में प्रतिभूतियां बेचता है। इससे कुल मांग में
गिरावट और कीमत स्तर में कमी आती है। जब साख का विस्तार करना होता है, तो खुले
बाजार में केंद्रीय बैंक द्वारा प्रतिभूतियों की खरीद की जाती है। इससे अर्थव्यवस्था में
सकल मांग और उत्पादन स्तर में वृद्धि होती है।</div><div><br /><b>घ) नकद आरक्षित अनुपात मौद्रिक नीति -</b>
कुल परिसंपत्तियों का एक निश्चित अंश हमेशा बैंकों द्वारा नकदी के रूप में आंशिक रूप
से सांविधिक आरक्षित आवश्यकताओं का पालन करने के लिए और आंशिक रूप से
दिन-प्रतिदिन नकद भुगतानों को पूरा करने के लिए रखा जाता है।<br /><br />
नकद को ‘हाथ में नगदी’ के रूप में और ‘केंद्रीय बैंक के साथ नकद शेष’ के रूप में
आयोजित किया जाता है। इन्हें बैंकों के नकदी भंडार के रूप में जाना जाता है, जिन्हें
‘आवश्यक भंडार’ (required reserves) और ‘अतिरिक्त भंडार’ (excess reserves) के रूप
में वगÊकृत किया जाता है।<br /><br />
केंद्रीय बैंक के साथ नकदी संतुलन रखने के लिए बैंकों को वैधानिक रूप से आवश्यक है।
भारत में, RBI के पास वैधानिक रूप से नकद आरक्षित अनुपात (Cash Reserve Ratio -
CRR) लगाने की शक्ति है, जो कि शुद्ध माँग और समय देनदारियों के 3-15 प्रतिशत के
बीच कहÈ भी हो सकती है। एक उच्च CRR का अर्थ प्रणाली में कम तरलता है। इस
प्रकार जब केंद्रीय बैंक अर्थव्यवस्था में तरलता बढा़ने की योजना बनाता है, तो यह CRR और इसके विपरीत घट जाती है।<br /><br />
नकद आरक्षित अनुपात देशों में भिन्न होता है। उदाहरण के लिए, 2019 में, यह ब्राजील में
45 प्रतिशत और यूरोपीय संघ में 1 प्रतिशत से कम है। भारत में, अप्रैल 2019 तक, CRR
4 प्रतिशत था। इसके अलावा, आर्थिक वातावरण के आधार पर, CRR उसी देश के लिए
समय के साथ बदलता रहता है।<br /><br />
बैंक आवश्यक भंडार के अलावा, अतिरिक्त भंडार भी रखते हैं। ये आवश्यक भंडार से
अधिक में आयोजित किए जाते हैं। इन अतिरिक्त भंडारों का उपयोग मुद्रा निकासी के लिए
किया जाता है, अर्थात, जमाकर्ताओं द्वारा मुद्रा की शुद्ध निकासी, और चेक भुगतान करने
के लिए किया जाता हैं अतिरिक्त भंडार का बड़ा हिस्सा नकदी के रूप में हाथ में रखा
जाता है, शेष छोटे हिस्से को RBI के साथ अतिरिक्त शेष के रूप में रखा जाता है।<br /><br />
रिजर्व आवश्यकताओं को अलग करके, आरबीआई सीआरआर का उपयोग मुद्रा की आपूर्ति
को नियंत्रित करने के उपकरण के रूप में करता है। जब सीआरआर में वृद्धि किया जाता
है, तो बैंक आरबीआई के पास बड़ा कैश बैलेंस रखते हैं। चूँकि भंडार ‘H* या उच्च शक्ति
वाले मुद्रा का एक हिस्सा है, इसका अनिवार्य रूप से मतलब है कि भ् का एक हिस्सा
जनता से हटाए गए अतिरिक्त भंडार की मात्रा के बराबर है। दूसरी ओर, सीआरआर की
मात्रा घटकर एच में आभासी वृद्धि हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप मुद्रा की आपूर्ति में
वृद्धि होती है। इस तरीके से, सीआरआर मौद्रिक नियंत्रण के सामुद्रा के रूप में कार्य
करता है। मुद्रास्फीति के मामले में, सीआरआर बढ़ जाता है, इस प्रकार बैंकों की ऋण देने
की क्षमता कम हो जाती है। वैकल्पिक रूप से, सीआरआर को कम करने से बैंकों द्वारा
ऋण का विस्तार बढ़ता है।</div><div><br /><b>ड) वैधानिक तरलता अनुपात</b> - सीआरआर के अलावा, बैंकों को वैधानिक तरलता अनुपात (Statutory Liquidity Ratio .
SLR) आवश्यकताओं को पूरा करना भी आवश्यक है। आरबीआई अधिनियम यह कहता है
कि बैंकों को अपनी मांग और समय देनदारियों का एक निश्चित अंश तरल संपत्ति के रूप
में अपनी तिजोरी में रखना आवश्यक है। इसे “वैधानिक तरलता अनुपात” (SLR) कहा
जाता है।<br /><br />
तरल संपत्ति में नकदी, सोना और अनुमोदित प्रतिभूतियां (मुख्य रूप से सरकारी
प्रतिभूतियां) शामिल हैं। बैंक सरकारी प्रतिभूतियों को पसंद करते हैं क्योंकि वे ब्याज आय
अर्जित करती हैं। केंद्रीय बैंक अर्थव्यवस्था में मुद्रा आपूर्ति पर नियत्रंण के लिऐस्त् का
उपयोग करता है।<br /><h3 style="text-align: left;">2. गुणात्मक उपस्कर</h3>
गुणात्मक उपस्कर से अर्थव्यवस्था में मुद्रा की मात्रा में परिवर्तन आवश्यक नहीं होता। ये
पॉलिसी नीति सामुद्रा के विभिन्न उपयोगों के बीच भेदभाव करने के लिए उपयोग किए
जाते हैं।<br /><br />
इस प्रकार इन उपस्करों का उपयोग विशिष्ट उद्देश्यों के लिए ऋण को विनियमित करने
के लिए किया जाता है। कुछ उपस्कर इस प्रकार हैं:</div><div><br /><b>क) चयनात्मक साख नियंत्रण</b> - चयनात्मक साख नियंत्रण केंद्रीय बैंकों द्वारा साख नियंत्रण की गुणात्मक विधि से संबंधित
है। केंद्रीय बैंक प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में ऋण को प्रवाहित करने के लिए कदम उठा
सकता है। इसी तरह, यह कुछ क्षेत्रों के लिए साख पर प्रतिबंधात्मक उपाय लागू कर
सकता है।<br /><br />
भारत में, इस तरह के नियंत्रणों का इस्तेमाल खाद्यान्न जैसी आवश्यक वस्तुओं की
सट्टा/जमाखोरी को रोकने के लिए किया गया है ताकि उनकी कीमत नियंत्रित रहे। जब
ऐसे भडं ारों को खरीदने और रखने के लिए ऋण प्रवाह प्रतिबंि धत होता है, तो व्यापारी इन
वस्तुओं की बाजार आपूर्ति बढा़ ते हैं और उनकी कीमतें उतनी नहीं बढत़ ी हैं। इसलिए,
चयनात्मक ऋण नियंत्रण मुद्रास्फीति को कम करने में मदद करता है। आपको भारतीय
मामले में चयनात्मक ऋण नियत्रं ण के कई उदाहरण मिलगेंे। कृषि क्षेत्र आरै लघु उद्योगों
के लिए ऋण सुलमता चयनात्मक ऋण नियंत्रण के उदाहरण हैं।<br /><br /><b>ख) अंतर आवश्यकताएँ</b> - अंतर ऋण राशि के उस हिस्से को संदर्भित करता है जो बैंक वित्त नहीं करता है।
उदाहरण के लिए, यदि आप घर खरीदने के लिए ऋण देने के लिए बैंक से संपर्क करते
हैं, तो बैंक पूरी राशि के लिए ऋण प्रदान नहीं करेगा - यह खरीद कीमत के लगभग 80
से 85 प्रतिशत के लिए ऋण प्रदान कर सकता है। उपरोक्त का एक निहितार्थ यह है कि
खरीद कीमत का 15 से 20 प्रतिशत स्वयं के मुद्रा से वित्तपोषित किया जाना चाहिए।
ऋण पर एक उच्च अंतर उधार लेने को हतोत्साहित करता है। अंतर आवश्यकताओं को
बदलकर, केंद्रीय बैंक कुछ क्षेत्रों में साख प्रवाह को प्रोत्साहित कर सकता है जबकि इसे
दूसरों के लिए सीमित कर सकता है। उदाहरण के लिए, कुछ क्षेत्रों को प्राथमिकता देने के
लिए सरकार अंतर आवश्यकताओं को कम कर सकती है।</div><div><br /><b>ग) साख राशनिगं मौद्रिक नीति</b> - कुछ क्षेत्रों के लिए ऋण को सीमित करने के लिए, केंद्रीय बैंक उस राशि पर कुछ सीमा
लगाकर राशन साख कर सकता है जो बैंक विशेष क्षेत्र या समाज के अनुभाग को उधार
दे सकता है। साख के नियंत्रण के माध्यम से, केंद्रीय बैंक निम्नलिखित कार्य कर सकता
है:<br /><ol style="text-align: left;"><li>यह किसी विशेष वाणिज्यिक बैंक को ऋण देना अस्वीकार कर सकता है</li><li>यह वाणिज्यिक बैंकों को कृषि या छोटे पैमाने के उद्यमों जैसे प्राथमिकता वाले
क्षेत्रों के लिए निश्चित प्रतिशत साख का विस्तार करने के लिए कह सकता है।</li></ol><b>घ) नैतिक सुझाव -</b>
केंद्रीय बैंक अन्य बैंकों को चर्चा, पत्र और भाषणों के माध्यम से अपनी नीति के अनुपालन
के लिए राजी करता है। इसे नैतिक सुझाव के रूप में जाना जाता है। नैतिक सुझावों को
गुणात्मक और परिमाणात्मक ऋण नियंत्रण दोनों के लिए नियोजित किया जा सकता है।
RBI सरकारी प्रतिभूतियों के रूप में बैंकों से अपनी संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा रखने का
आग्रह कर सकता है। यह मुद्रास्फीति की अवधि के दौरान अत्यधिक उधार लेने से बैंकों
को हतोत्साहित कर सकता है। ये उपाय मुद्रा की आपूर्ति को नियंत्रित करने में मदद
करते हैं। बैंक ऋण के वितरण को नियंत्रित करने के लिए भी नैतिक सुझावों का उपयोग
किया जाता है।</div><div><br /><b>च) प्रत्यक्ष कार्रवाई -</b>
कभी-कभी, RBI सीधे ऐसे बैंक के खिलाफ कार्रवाई कर सकता है जो उसके निर्देशों का
पालन नहीं कर रहा है और व्यापक मौद्रिक नीति लक्ष्यों का उल्लंघन कर रहा हो है।
उदाहरण के लिए, RBI ऐसे बैंकों को पुनर्खरीद की सुविधाओं से इंकार कर सकता है या
वह बैंक दर से अधिक और दंड दर वसूल सकता है।<br /><br />
केंद्रीय बैंक मौद्रिक नियंत्रण के लिए विभिन्न उपकरणों के मिश्रण का उपयोग करते हैं।
बैंक दर, आरक्षित आवश्यकताएं, खुले बाजार संचालन और चयनात्मक साख नियंत्रण
उपायों को एक साथ अपनाया जाना चाहिए।
</div>Bandeyhttp://www.blogger.com/profile/08264562445292172107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6073521150607049851.post-31292209232488980042024-02-27T11:13:00.007+05:302024-02-27T11:14:09.263+05:30मध्यान्ह भोजन योजना कार्यक्रम के मुख्य उद्देश्य<p>वर्ष 1995 में मध्यान्ह भोजन योजना प्रारम्भ हुई थी। तत्समय प्रत्येक छात्र को इस योजना के अर्न्तगत हर माह तीन किलोग्राम गेहूँ या चावल उपलब्ध कराया जाता था। केवल खाद्यान्न उपलब्ध कराये जाने से बच्चों का स्वास्थ्य एवं उनकी स्कूल में उपस्थिति पर अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ा।</p><p>तमिलनाडु में देश की सबसे पुरानी मध्यान्ह भोजन योजना संचालित है। वहाँ पर बच्चों को मध्यान्ह में पका पकाया भोजन उपलब्ध कराया जा रहा है। बच्चों को इस योजनार्न्तगत विद्यालयों में मध्यावकाश में स्वादिष्ट एवं रुचिकर भोजन प्रदान किया जाता है। इससे न केवल छात्रों के स्वास्थ्य में वृद्धि होती है अपितु वह मन लगाकर शिक्षा भी ग्रहण कर पाते हैं। इससे विद्यालय छोड़ने की स्थिति में भी सुधार आया है। भारत सरकार द्वारा निर्देशित किया गया था कि बच्चों को समस्त प्रदेशों में मध्यान्ह अवकाश में पका पकाया भोजन उपलब्ध कराया जाए। कतिपय कारणों से इस योजना के अर्न्तगत पका पकाया भोजन उत्तर प्रदेश में सितम्बर 2004 के बाद ही उपलब्ध कराया जा सका है।</p><p>प्रदेश सरकार शिक्षा की विभिन्न योजनाओं में अत्यधिक पूंजी निवेश कर रही है। इस पूंजी निवेश का पूर्ण लाभ तभी प्राप्त होगा जब बच्चे कुपोषण से मुक्त होकर अपनी पूर्ण क्षमता से शिक्षा निर्बाध रूप से ग्रहण करते रहें। मध्यान्ह भोजन योजना इस लक्ष्य को प्राप्त करने में महत्वपूर्ण कड़ी है। इस योजना के माध्यम से शिक्षा के सार्वभौमीकरण के निम्न लक्ष्यों की प्राप्ति होगी-</p><p>1. प्राथमिक विद्यालयों में नामांकन में वृद्धि करना।</p><p>2. बालकों के विद्यालय छोड़ने की प्रवृति को कम करना।</p><p>3. उपस्थिति में वृद्धि करना तथा गरीब बालकों को विद्यालय में आने के लिए आकर्षित करना।</p><p>4. ग्रामीण स्तर पर रोजगार के अवसर प्रदान करना।</p><p>5. विश्व एकता एवं बन्धुत्व को बढ़ावा देना।</p><p>6. लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देना।</p><p>7. धर्म जाति एवं रंगभेद को दूर करना तथा सभी छात्र-छात्राओं को एक स्थान पर भोजन उपलब्ध कराकर उनके मध्य सामाजिक सौहार्द, एकता एवं परस्पर भाई-चारे की भावना जागृत करना।</p><p>8. सभी बालकों को पाँच वर्षीय प्राथमिक शिक्षा पूर्ण करवाना।</p><p>9. राष्ट्रीय एवं सामाजिक एकता की स्थापना करना।</p><p>10. विद्यालयों में पारिवारिक वातावरण बनाना।</p><p>11. अभिभावकों को अपने बालकों को विद्यालय भेजने के लिए आकर्षित करना।</p><p>12. समाज एवं विद्यालयों के बीच एक सम्पर्क स्थापित करना।</p><p>13. अभिभावकों ग्राम सभा के अधिकारियों/ सदस्यों और समाज का विद्यालय के कार्यों एवं निर्णयों में सहयोग करवाना।</p>Bandeyhttp://www.blogger.com/profile/08264562445292172107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6073521150607049851.post-53853990921342895232024-02-22T13:29:00.006+05:302024-02-22T13:35:06.216+05:30पुराणों की उत्पत्ति, पुराणों के नाम एवं श्लोक संख्या<p>पुराण शब्द का अर्थ है 'पुराना' अर्थात जो स्वयं पुराना हो या प्राचीन हो उसे पुराण कहा गया है, पुराण की उत्पत्ति के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि समाज के इतिहास को सुरक्षित रखने की प्रक्रिया तथा इन्हीं परम्परागत बातों के आधार पर पुराण की उत्पत्ति हुई। पुराण शब्द का अर्थ यास्क के निरूक्त के अनुसार पुराण की उत्पत्ति है, पुरानवं भवति।"</p><p>पुराण की उत्पत्ति परम्परा से ही पद्म पुराण में मानी गयी है। जो प्राचीन और परम्परा की कामना करता है उसे पुराण नाम से जाना जाता है। वायु पुराण के अनुसार 'पुरा अनति' अर्थात् प्राचीन काल में जो शास्त्र जीवित था उसे पुराण की संज्ञा दी जाती थी। ब्रह्माण्ड पुराण में उल्लेख मिलता है कि - पुराउतत् अभूत् अर्थात् प्राचीन काल में ऐसा हुआ। वह पुराण कहलाता है। मत्स्य पुराण में तो पुराण को वेदों से पूर्व ही उत्पन्न माना गया है।</p><p>मार्कण्डेय पुराण लिखता है कि ब्रह्मा के मुख से पुराण और वेद, दोनों ही निकले जिसमें से सप्तऋषियों ने वेदों को और मुनियों ने पुराणों को ग्रहण कर लिया।</p><p>श्रीमद्भागवत महापुराण का कथन है कि मत्स्य पुराण के अनुसार पुराणों को वेदों से पूर्व मानना उचित नहीं है। भागवत पुराण का वेदों से अधिक्य सिद्ध होता है, परन्तु उत्पत्ति को पाश्चात्य कालीन ही माना है। आख्यान, उपाख्यान गाथा तथा कल्प शुद्धि को पुराण संहिता के रूप में माना जाता है। विष्णु पुराण ने इस बात को इस प्रकार प्रतिपादित किया है-</p><blockquote>आख्यानैश्चाप्युपाख्यानैः गाथामिः कल्प शुद्धिभिः।<br />पुराणसंहितांचन्क्रद पुराणार्थ विशारदाः ।।</blockquote><p>इस प्रकार पुराणों की उत्पत्ति अनेक प्रकार के उपकराणों से हुई है। ये सभी उपकरण एकत्र होकर कृष्णद्वैपायन व्यास एवं अनेक मनीषियों द्वारा नाना पुराणों के स्वरूप में सुव्यवस्थित किये गये।</p><p>उपरोक्त के आलावा पुराणों की उत्पत्ति एवं उसके क्रमिक विकास को डा० हरिवंशनारायण दूबे ने पुराण समीक्षा में इस प्रकार लिखा है। प्रारम्भ में आर्यों को भारत में अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए यहाँ के मूल निवासियों (जनजातियों) से युद्ध करना पड़ा था। स्थिति सामान्य होने पर विभिन्न राजा विभिन्न स्थानों को केन्द्र मानकर राज्य करने लगे, जबकि अनेक विद्वानों, ऋषियों तथा मुनियों ने जंगल में तपस्या प्रारम्भ कर दी, अन्य ने शिक्षा केन्द्रों तथा आश्रमों के माध्यम वेदाध्ययन तथा अध्यापन की परम्परा प्रतिष्ठित की। आचार्य अथवा गुरू के उपरान्त शिष्य उस परम्परा को सतत जीवन्त रखा था। गुरू या आचार्य शिष्यों को तो वेदविज्ञ बनाते ही थे साथ ही साधारण जनता को भी धर्म का उपदेश दिया करते थें ।</p><p>अतः पुराण कालीन राज्य के राजाओं की अनेक वंशावलियाँ परिवर्तित हुई, इन विजयी राजाओं की वंशावली, शौर्यपूर्ण कार्य, विजय गाथा, पराक्रम की कथा तथा इनके पूर्वजों की वीरता की कहानी, का गुणगान चारण या वंदी जन करते रहे होंगे। इन राजाओं की राजनैतिक प्रभुता की स्थापना के साथ ही धार्मिक प्रभुता की भी वृद्धि हुई। शस्त्र द्वारा रक्षित राष्ट्र में शास्त्र की चिन्ता प्रवर्तित हुई और राजाओं की उदार छत्र-छाया में ऋषियों तथा मुनियों ने धार्मिक सिद्धान्तों तथा विधि-विधानों का प्रचार किया। इस प्रकार प्रसिद्ध ऋषियों तथा गुरूओं की परम्परा प्रतिष्ठित हुई।</p><p>प्राचीन नृपतियों के शौर्यपूर्ण तथा पराक्रम पूर्णकायों ने अनेक प्रकार की परम्पराओं को जन्म दिया होगा। इनके विषय तथा प्रताप की गाथाओं के द्वारा अनेक परम्परायें प्रवर्तित हुई होगी। इन राजाओं के राज्य विस्तार के साथ-साथ परम्पराओं का विस्तार होता गया। इस प्रकार कालान्तर में प्रतापी राजाओं तथा ऋषियों के सम्बन्ध में बहुत सी परम्पराएँ प्रचलित हो गयी यह स्वाभाविक है, कि अनेक राजाओं की कीर्ति कथा विस्मृति के गर्त में विलीन होती गयी। इस प्रकार केवल लोक विश्रुत प्रधान नरेशों की वंशावलियाँ तथा ख्याति नामा ऋषियों की गाथाएं तथा परम्परा या मान्य प्रधान लोकप्रिय विश्वासों से एवं विधि-विधानों के श्रवण कथन-चर्चा ही अवशिष्ट बच गयी। पार्जीटर के अनुसार इन्हीं मौखिक तथा प्रचलित परम्पराओं का संकलन सर्वप्रथम पुराणों में किया गया।</p><h2 style="text-align: left;">पुराणों की उत्पत्ति के कारण</h2><p>पुराणों की उत्पत्ति के क्या कारण थे इसके सम्बन्ध में अन्य पुराणों में प्रसंग मिलता है, मत्स्य पुराण' के अनुसार कल्पान्तर में पुराण एक ही था। यह धर्म, अर्थ, काम का साधन था। अर्थशास्त्र और कामशास्त्र की भाँति वह धर्म का भी प्रतिपादक था। इसमें 4 लाख श्लोक थे। उसका क्षेत्र बहुत ही विस्तृत था। उस समय के परिवर्तन के साथ लोगों की बुद्धि क्षीण होती जा रही थी। इतने विशाल पुराण साहित्य के गूढ़ विषयों को ग्रहण करना उनकी बुद्धि के परे था। फलतः साक्षात् विष्णु ने व्यास के रूप में जन्म ग्रहण कर विशाल पुराण साहित्य को अट्ठारह भागों में विभाजित किया।</p><p>देवी भागवत् ने पुराण के उदय का कारण लोगों की अल्प आयु और अल्प बुद्धि ही बतायी है। वैदिक काल में कर्म-काण्ड ही प्रधान था। ब्राहाण, क्षत्रिय और वैश्य के अतिरिक्त समाज के अन्य बहुसंख्यक जातियों को दिक्षित होकर जीवन की सार्थकता संपादन करने का अधिकार नहीं था। वैदिक साहित्य को हृदय गम्य करने की क्षमता समाज के कुछ लोगों में थी। दीक्षा और उपनयन संस्कार से वंचित होने के कारण समाज के निम्न स्तर के लोग असंतुष्ट थे। वे अपनी इस हीनता की पूर्ति हेतु दूसरे धर्मो की ओर अग्रसर होने लगे। समाज की इस विषम परिस्थिति और कमी को ध्यान में रख कर लोगों के कल्याणार्थ व्यास देव ने अट्ठारह पुराणों की रचना की। यही पुराणों के उदय का कारण था।</p><p>आधुनिक विद्वान ने मूल साहित्य का अवलोकन करके पुराणों की उत्पत्ति के संबंध में अपने मत व्यक्त किये है। उदाहरणार्थ वी.वी. काणे तथा पार्जीटर का मत प्रस्तुत किया जा सकता है। काणे के अनुसार, बौद्ध धर्म के मनोरम आकर्षणों में जीवन यापन करने वाले शूद्रों को वहाँ से निकाल कर वैदिक धर्म में पुनः प्रतिष्ठापित करने की विषम समस्या थी। इस समस्या का निराकरण पुराणों के नवीन संस्करण बना कर किया गया। काणे की ही तरह श्री पार्जीटर का भी मत है कि जैन और बौद्ध धर्म ने ब्राह्मणों और उनकी परम्परा को चुनौती दी थी। इस चुनौती को व्यास देव ने स्वीकार किया और इसका सामना करने के लिए उन्होंने समाज के शिक्षित अर्ध-शिक्षित और अशिक्षित, जो वेद विद्या से वंचित थे- उनके लिए रोम हर्षण और उनके पुत्र, उग्रसुवा के द्वारा पुराण विद्या का प्रचार कराया गया इस कार्य के लिए उन्होंने समाज के निम्न वर्ग को चुना और इस कार्य के लिए प्रशिक्षित किया, इसका प्रचार प्रसार आधिकाधिक मात्रा में किया।</p><h2 style="text-align: left;">पुराणों के नाम एवं श्लोक संख्या</h2><p>पुराणों की संख्या के सम्बन्ध में प्रायः सभी पुराण एकमत हैं और उनमें जो वर्णन मिलता है उसमें पुराणों की संख्या प्राचीन काल से 18 मानी गयी है। अट्ठारह पुराणों का नाम प्रायः प्रत्येक पुराण में उपलब्ध होता है। उनके क्रम में अन्तर तो मिलता है किन्तु उनकी संख्या में कोई अन्तर नहीं मिलता। देवी भागवत पुराण 56 में इन 18 पुराणों को पांच क्रम में बांटा गया है और इन्हीं पाँचों कोटि में अट्ठारहों पुराणों को रखा गया है जो निम्न हैं-</p>1. मकारादि मत्स्यपुराण, मार्कण्डेय पुराण।<br />2. भकारादि भागवत पुराण, भविष्य पुराण।<br />3. ब्रत्रयम् ब्रह्म पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण।<br />4. वचतुष्टयम् वामन पुराण, विष्णु पुराण, वायु पुराण, वाराह पुराण।<br />5. अनापतलिंगकूस्क अग्नि पुराण, नारद पुराण, पदम् पुराण, लिंग पुराण, गरूड़ पुराण, कूर्म पुराण तथा स्कन्द पुराण।<div><br /></div><div>भागवत पुराण ने सभीः पुराणों की सूची एवं श्लोक संख्या इस प्रकार दी </div><div><br />ब्रह्मां दशसहस्त्राणि पाद्मं पंचानेषष्टि च।<div>श्री वैष्णवं त्रयोविशच्चतुविंशति रौवकम ।। </div><div>दशाष्टो श्रीभागवतं नारदं पंचविंशतिः । </div><div>मार्कण्डं नवं वाहनं च दशपच्च चतुःशतम् ।। </div><div>चतुदर्श भविष्यं स्यात्तया पंचशतानिच । </div><div>दशाष्टी ब्रहावैवर्त लिंग मेकादशैव तु ।। </div><div>चतुविंशति वाराहमे काशीतिसहस्त्रकम् । </div><div>स्कान्दंशतं ब्रथा चैकं वामनं दशकीर्तितम् ।। </div><div>कौर्म सप्तदशाख्यातं मात्स्यं तक्षु चतुर्दश । </div><div>एकोनविंशत्सौपर्ण ब्रह्माण्डं द्वादशैव तु ।।<br />एवं पुराणसंदोहश्चतुलक्ष उदाहृतः।</div><div><br /></div><div>इन पुराणों के अन्य प्रकार से भी लिखा मिलता है।</div><div><br /></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiirpYujilJoq_VnupAEbNozp_boDKpZuyB8geFXN5DgYcuSAYvfPD8fsjW-2P2rcKfNGqcB9wJWWCnfQt4coL1oq2TwhtYVS9HI3Nqykei9NaH4yYJaguSSB8f3kV2ChAD3Z8zLRwaISq2HaVS_vLjiavcLsRtZxQobXDy7XaQVDRlrv11LsSXLbKVXIuz/s1143/%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A5%8B%E0%A4%82%20%E0%A4%95%E0%A5%87%20%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AE%20%E0%A4%8F%E0%A4%B5%E0%A4%82%20%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%95%20%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE.png" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="पुराणों के नाम एवं श्लोक संख्या" border="0" data-original-height="1143" data-original-width="685" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiirpYujilJoq_VnupAEbNozp_boDKpZuyB8geFXN5DgYcuSAYvfPD8fsjW-2P2rcKfNGqcB9wJWWCnfQt4coL1oq2TwhtYVS9HI3Nqykei9NaH4yYJaguSSB8f3kV2ChAD3Z8zLRwaISq2HaVS_vLjiavcLsRtZxQobXDy7XaQVDRlrv11LsSXLbKVXIuz/w384-h640/%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A5%8B%E0%A4%82%20%E0%A4%95%E0%A5%87%20%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AE%20%E0%A4%8F%E0%A4%B5%E0%A4%82%20%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%95%20%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE.png" title="पुराणों के नाम एवं श्लोक संख्या" width="384" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><div>मत्स्य पुराण' में पुराणों की संख्या का काफी मात्रा में विवरण मिलता है तथा इसमें इसकी संख्या 18 ही बतायी गयी है । पंदम् पुराण ने सात्त्विक तथा तामस इन तीन प्रकार के वर्णों में सभी पुराणों को विभाजन किया है। उनके अनुसार विष्णु, नारद, भागवत, गरूड़, पद्म तथा वाराह ये सात्विक पुराण हैं। राजस पुराण के वर्ग में ये - पुराण रखे गये हैं- ब्रह्माण्ड, ब्रह्मवैवर्त, मार्कण्डेय, भविष्य, वामन और ब्रह्मा पुराण । तीसरा वर्ण तामस पुराणों का है जिसमें मत्स्य, कूर्म, लिंग, शिव, स्कन्द तथा अग्नि पुराण को रखा गया है। मत्स्य पुराण में सात्विक पुराणों में विष्णु का माहात्म्य पाया गया है। सरस्वती तथा पितरों के माहात्म्य वाले पुराण संकीर्ण कहलाते हैं। </div><div><br /></div><div>संस्कृत साहित्य में 18 संख्या बड़ी पवित्र, व्यापक और गौरवशाली मानी जाती है महाभारत के पर्वो की संख्या 18 है। श्रीमद् भागावत गीता के अध्यायों की संख्या 18 है तथा भागवत पुराण के श्लोकों की संख्या भी 18 हजार है। इस प्रकार पुराणों की संख्या भी सर्वसम्मति से 18 ही है। यही नही शतपथ ब्राह्मण के अष्टमकाण्ड में सृष्टि नामक इष्टियों के उपाधान का जो विधान है वहाँ 17 इष्टिकाओं के रखने का कारण बतलाया गया है। कारण यही है कि तत्सम्बद्ध सृष्टि भी 17 प्रकार की है तथा उसका उदय प्रजापति से होता है जिससे दोनो को एक साथ मिलाने पर सृष्टि के सम्बन्ध में 18 के संख्या की निष्पत्ति होती है। इस प्रकार सृष्टि के अष्टादश संख्या को पवित्र मानते हुए 18 पुराणों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया गया है।</div></div></div>Bandeyhttp://www.blogger.com/profile/08264562445292172107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6073521150607049851.post-70248207726808372952024-02-22T13:10:00.002+05:302024-02-22T13:10:31.576+05:30व्यास का जीवन परिचय<p>भारतीय इतिहास की पृष्ठभूमि में मानव जीव का बड़ा महत्व है इसलिए प्रत्येक जीव का अपना इतिहास होता है इसी प्रकार पुराण के रचयिता व्यास का जीवन इतिहास अत्यन्त अद्भुत है। द्वापर-युग के राजा उपचीर वसु के वीर्य से मत्स्यगन्धा नाम की एक सुन्दर कन्या उत्पन्न हुई, जो सत्यवती नाम से पुराणों में प्रसिद्ध है। उनका पालन-पोषण किसने किया, यह बात निश्चित रूप से नहीं कही जा सकती। इतना ही कहा जा सकता है कि उसे किसी निषाद राजा ने पालन-पोषण किया था। युवा अवस्था प्राप्त होने पर उस कन्या का संगम ऋषि पराशर से हुआ, और फलतः विष्णु के वंश रूप व्यास अथवा कृष्णद्वैपायन का जन्म हुआ।</p><p>यमुना नदी में बदरीयक्त द्वीप में उत्पन्न होने के कारण उनका नाम वादनारायण और द्वैपायन तथा कृष्ण वर्ण होने के कारण उन्हें कृष्णद्वैपायन नाम से जाना जाता है। वेदों के विस्तारकर्त्ता होने के कारण उन्हें वेदव्यास के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है।' महर्षि कृष्णद्वैपायन व्यास की वंशावली का विवरण पुराणों में भीं उल्लेखित है। पुराण में लिखा मिलता है कि ब्रह्मा के मानस पुत्र वशिष्ठ ऋषि थे, वशिष्ठ के पुत्र शक्ति, शक्ति के पुत्र पराशर और पराशर के पुत्र विष्णु अंश रूप कृष्णद्वैपायन व्यास हुए, आगे चलकर व्यास से शुकदेव मुनि का जन्म हुआ बतलाया गया है।</p><p>पुराणों में कृष्णद्वैपायन व्यास के अतिरिक्त 27 अन्य व्यासों का भी उल्लेख मिलता है, सम्भवतः ये कृष्णद्वैपायन के पूर्व हो चुके थे। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि 'व्यास' शब्द किसी व्यक्ति विशेष का नाम न होकर एक प्रतिष्ठित स्थान का द्योतक था।</p><p>कुछ आधुनिक विद्वान कृष्णद्वैपायन व्यास और वादरायण को भिन्न-भिन्न व्यक्ति मानते हैं, किन्तु उन्होंने अपने विचारों की पुष्टि में कोई ठोस प्रमाण नहीं प्रस्तुत किया है। इस सम्बन्ध में कोई विश्वसनीय अभिलेखः उपलब्ध न होने के कारण इनको भिन्न नही माना जा सकता अतः निष्कर्ष यही निकलता है कि ये वादनारायण नाम कृष्णद्वैपायन का ही था। उनके इस नाम का कारण उनका यमुना नदी बदरीयक्त द्वीप में उत्पन्न होना ही रहा होगा।</p><p>कृष्णद्वैपायन व्यास का जन्म कब हुआ था, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। कुछ विद्वानों ने यह मत व्यक्त किया है कि उनका जन्म त्रेता युग की समाप्ति और द्वापर युग के प्रारम्भ में हुआ था।</p><p>श्रीमद्भागवत, देवीभागवत तथा अन्य पुराणों में भी व्यास को विष्णु का अंश स्वीकार किया गया है। </p><p>कृष्णद्वैपायन व्यास के जन्म समय, के विषय में जिस प्रकार विद्वान मतैक्य नही हैं, उसी प्रकार से 'उनके जन्म स्थान के विषय में भी एक तरह की बात देखने को मिलती है। भागवत पुराण में उनका जन्म स्थान वदरिकाश्रम को बताया गया है। परन्तु पुराणों के परिशीलन से ज्ञात होता है कि व्यास का जन्म स्थान यमुना नदी के तट पर किसी वदरीयुक्त द्वीप में हुआ था। महाभारत में यह संकेत मिलता है कि व्यास का जन्म यमुना नदी के तट पर हुआ था, वो चतुर्थावस्था में वे साधना के लिए वदरिकाश्रम चले गये थे, और वहीं पर उनको ज्ञान प्राप्त हुआ था।</p><p>व्यास की शिक्षा दीक्षा कहां हुई, इस सम्बन्ध में विद्वान अब तक कोई निर्णायात्मक मत नहीं व्यक्त कर सके हैं। पुराणों में इस सम्बन्ध में जो भी उल्लेख प्राप्त अथवा उपलब्ध है, उन्हीं के आधार पर उनकी शिक्षा दीक्षा के सम्बन्ध में कुछ कहना सम्भव है। वंश ब्राह्मण और कुछ पुराणों में उनके गुरु का नाम जातुकर्ण्य मिलता है।</p><p>श्रीमद्भावगत आदि पुराणों में व्यास को विष्णु का अंश और जन्मसिद्ध ज्ञानी बताया गया है। भागवत ने व्यास का आश्रम सरस्वती नदी के किनारे बताया है। सरस्वती नदी का अस्तित्व कई स्थानों पर मिलता है सम्भवतः वदरिकाश्रम के पास भी कोई सरस्वती नदी रही होगी। वर्तमान अलकनन्दा नदी का ही नाम सरस्वती नदी रहा होगा। परन्तु सरस्वती नदी का अस्तित्व वर्तमान में कुरुक्षेत्र के पास बताया जाता है, यह नदी पश्चिमोत्तर में कुरुक्षेत्र के समीप रही होगी। इससे प्रगट होता है कि व्यास का आश्रम कुरुक्षेत्र के समीप रहा होगा। सम्भवतः यहां पर उनके गुरू जातुकर्ण्य का आश्रम रहा हो और व्यास भी अपने गुरु के साथ तथा उनके मरणोपरान्त भी कुछ समय तक यहाँ रहे हों। व्यास सम्पूर्ण भारत में भ्रमण करते थे। इस भ्रमण काल में वे जहाँ-जहाँ ठहरते थे, वहाँ वहाँ उनका आश्रम मान लिया गया। इसलिए पुराणों में 'व्यास के आश्रम के सम्बन्ध में भिन्न भिन्न मत है।</p><p>एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि महाभारत के अनुसार व्यास के हस्तिनापुर और कुरूक्षेत्र के युद्ध स्थल में अनेक बार जाने का उल्लेख है। इससे प्रतीत होता है कि व्यास के जीवन का अधिकांश भाग इसी क्षेत्र में बीता होगा और इसी स्थान पर इनकी शिक्षा दीक्षा हुई होगी । कृष्णद्वैपायन व्यास ने वेदों को चार भागों में विभक्त कर उनकी रक्षा का भार अपने शिष्यों पैल, वैशम्पायन, जैमिनि और सुमन्तु को सौपा था। पुराणों की रक्षा का दायित्व उन्होंने अपने शिष्य रोमहषर्ण या लोमहषर्ण को दिया था। लोम हषर्ण ने अपने छः शिष्यों न्यायरूणि, काश्यप, सर्वाणि, अकृत्त्रण, वैशम्पायन और हारीत को पढ़ाया। !</p>Bandeyhttp://www.blogger.com/profile/08264562445292172107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6073521150607049851.post-10812977268066307282024-02-21T14:12:00.009+05:302024-02-21T14:13:38.603+05:30साख नियंत्रण का अर्थ, आवश्यकता एवं महत्व<p>वर्तमान युग में साख मुद्रा का इतना अधिक महत्व है कि अर्थशास्त्रियों ने वर्तमान अर्थव्यवस्था को साख मुद्रा अर्थव्यवस्था का नाम दिया है । यद्यपि मुद्रा अर्थव्यवस्था में साख मुद्रा का आधार है परन्तु फिर भी अधिकांश वर्तमान आर्थिक कियायें साख द्रव्य के द्वारा ही पूरी की जाती हैं तथा साख मुद्रा सम्पूर्ण वर्तमान वित्तीय प्रणाली आधारित है । कुछ अन्य अर्थशास्त्रियों के अनुसार साख मुद्रा वर्तमान युग में पूँजी के अन्तराल का साधन है ।</p><p>कोल के अनुसार, “साख द्रव्य उस कय शक्ति को कहते हैं जो वित्तीय संस्थाओं द्वारा उस जमा का जो उनके पास रखी होती है, प्रयोग करने के उद्देश्य से उत्पन्न की जाती है ।</p><p>थामस के अनुसार, "साख वह विश्वास है जो एक व्यक्ति दूसरे अन्य व्यक्ति में रखकर अपनी कुछ वस्तुएं उस दूसरे व्यक्ति को देता है, भले ही वे वस्तुएं मुद्रा, सेवा या साख द्रव्य क्यों न हो ।'"</p><p>वर्तमान समय में साख मुद्रा व्यावसायिक संगठन का प्रमाण कहा जाता है । वर्तमान स्थायी समाज में अधिकांश आर्थिक क्रियाएं साख मुद्रा पत्रों के द्वारा पूर्ण की जाती हैं । बड़ी मात्रा के सभी लेन-देन मुद्रा के द्वारा न होकर साख मुद्रा चेक, ड्राफ्ट, हुण्डियों द्वारा पूरे किये जाते हैं । इसी कारण साख मुद्रा को वाणिज्य रूपी शरीर का जीवन रक्त कहा जाता है । साख मुद्रा प्रणाली जिसमें सभी के साख मुद्रा पत्र साख मुद्य संस्थाएं तथा साख मुद्रा अधिनियम सम्मिलित हैं । गत 100 वर्षों में समाज की आर्थिक उन्नति के लिए महत्वपूर्ण तथा आवश्यक बन गयी है । प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जान स्टुअर्ट मिल ने साख मुद्रा के महत्व के सम्बन्ध में लिखा है कि "यद्यपि साख मुद्रा पूँजी का एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को किया गया अन्तरण है परन्तु यह अन्तरण उन व्यक्तियों को किया जाता है जो पूँजी का उत्पादक उपयोग करने के योग्य होते हैं । यदि समाज में साख मुद्रा का उपयोग न हुआ होता तो जिन ऐसे व्यक्तियों के पास पूँजी हुई होती जो अयोग्य होने अथवा पूँजी का उत्पादक प्रयोग करने के सम्बन्ध में पर्याप्त ज्ञान न होने के कारण इसका निवेश करने की सामर्थ्य नहीं रखते थे, वह पूँजी व्यर्थ रहती । ब्याज पर उद्यमकर्ताओं को पूँजी को उधार दिये जाने के परिणामस्वरूप इसका व्यापक उपयोग करना संभव हो जाता है । यद्यपि साख मुद्रा का व्यापक प्रयोग होने से समाप्त पूँजी मात्रा में कोई परिवर्तन नहीं होता है परन्तु उत्पादन क्षमता का उपयोग होने के हेतु इष्टतम् उत्पादन संभव हो जाता है ।"</p><p>साख मुद्रा समाज में मुद्रा की पूरक बनकर विनिमय को सरल तथा मितव्ययी बनाती है । साख मुद्रा वर्तमान समय में विनिमय माध्यम का एक अति सरल तथा मितव्ययी साधन है । धातु के सिक्कों के मुद्रण से जो परिश्रम तथा व्यय होता है, साख मुद्रा के उपयोग द्वारा उसमें भारी कमी हो जाती है । बहुमूल्य धातुओं के सिक्के चलन में रहने से उसमें से घिसावट के कारण काफी धातु नष्ट हो जाती है। साख मुद्रा के चलन से समाज इस अपव्यय से मुक्त हो जाता है, अतः साख विनिमय के माध्यम के कार्य को सरल व मितव्ययी बनाती है ।</p><p>साख मुद्रा वर्तमान बड़े पैमाने के उत्पादन तथा विनिमय प्रणालियों का विकास करती है । यह ईमानदार तथा व्यापार में निपुण उन व्यक्तियों को जिनके पास अपनी कोई पूँजी नहीं होती है, व्यापार करने के योग्य बनाती है । साख मुद्रा कुशल व्यापारियों को पूँजी में आवश्यकतानुसार परिवर्तन करने का सुअवसर प्रदान करती है। यह देश की सरकार को उसकी आय की तुलना में अधिक व्यय करने के योग्य बना कर देश में बेरोजगारी का निवारण करने में सहायक सिद्ध हो सकती है। साख मुद्रा देश में वस्तुओं तथा सेवाओं की विकी के क्षेत्र को व्यापकता प्रदान करके अर्थव्यवस्था में अधिक उपभोग संभव बनाती है तथा इसके साथ देश में संगठित बाजारों के विकास व उत्पादन क्षमता में वृद्धि को वास्तविक रूप प्रदान करती है ।</p><p>साख मुद्रा उपभोग में वृद्धि करके उच्च जीवन स्तर को संभव बनाती है। अमेरिका तथा यूरोप के विकसित देशों में जहाँ। उपभोक्ता साख मुद्रा की प्रथा प्रचलित है, उपभोक्ता सभी प्रकार की वस्तुओं तथा सेवाओं का अधिक मात्रा में उपभोग करते हैं । इस प्रकार साख मुद्रा की सुविधा प्राप्त होने से वस्तुओं की मांग तथा बाजार का क्षेत्र बढ़ जाता है तथा उत्पादन बड़े पैमाने पर होने लग जाता है तथा लोगों की आय तथा जीवन स्तर में वृद्धि हो जाती है। साख मुद्रा के द्वारा बचतकर्ताओं की बचत का निवेश संभव हो जाता है तथा ऐसा होने से लोगो में बचत प्रवृत्ति को प्रोत्साहन प्राप्त होता है। इस प्रकार लोगों में बचत करने की शक्ति व इच्छा को प्रोत्साहित करके साख मुद्रा देश में पूँजी संचय को प्रोत्साहित करती है।</p><p>साख व्यक्ति विशेष एवं राष्ट्र दोनो के आर्थिक संकटों में मदद करती है । एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से ऋण लेकर तथा सरकार जनता से ऋण लेकर अपने आर्थिक संकटों का सामना कर सकती है। साख का अन्तर्राष्ट्रीय भुगतान के क्षेत्र में भी काफी महत्व है । साख मुद्रा की सहायता से जैसे चेक, बैंक ड्राफ्ट, विनिमय बिल आदि की सहायता उसे हम आसानी से विदेशों के व्यक्तियों को भुगतान कर सकते हैं क्योंकि इसके अन्तर्गत विदेशी मुद्रा एवं बहुमूल्य धातुओं को एक स्थान से दूसरे स्थान को हस्तान्तरण करने की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार साख आधुनिक औद्योगिक जगत में एक महत्वपूर्ण भाग अदा करती है ।</p><p>साख मुद्रा आधुनिक अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है और यह भी मुद्रा की पूर्ति में शामिल होती है । हम जानते हैं कि थोड़ी सी कानूनी मुद्रा जो बैंकों के पास प्रारंभिक जमा के रूप में होती है उससे कई गुना बैंक साख मुद्रा का सृजन कर देता है । इसलिए मुद्रा पूर्ति की अधिकता तथा कमी स्फीति और अवस्फीति की स्थितियां उत्पन्न कर देती हैं जिसका प्रभाव समाज के विभिन्न वर्गों एवं अर्थव्यवस्था पर विशेष रूप से पड़ता है । इसलिए साख मुद्रा को सरकार द्वारा नियंत्रित करने की किया को महत्वपूर्ण माना गया है। देश की सामाजिक एवं औद्योगिक आवश्यकताओं के अनुसार साख की मात्रा को समायोजित करना ही साख नियंत्रण कहलाता है ।' देश की अर्थव्यवस्था एवं मूल्य स्तर में स्थायित्व लाने के लिए यह आवश्यक है कि साख मुद्रा पर उचित नियंत्रण रखा जाय, अर्थात् साख मुद्रा की मात्रा देश की आवश्यकताओं के अनुरूप हो । यदि देश में साख मुद्रा की मांग अधिक होगी तो मूल्यस्तर में वृद्धि हो जायेगी । इसके विपरीत दशा में, मूल्य स्तर कम होगा । अतः साख मुद्रा की मात्रा पर नियंत्रण लगाना आवश्यक होता है जिससे कि वांछित दशा में अर्थव्यवस्था को ले जाया जा सके ।</p><p>साख की मात्रा का नियमन एवं नियंत्रण केन्द्रीय बैंक का प्रधान कार्य है । आधुनिक समय में साख मुद्रा का प्रयोग बहुत अधिक बढ़ जाने के कारण साख की मात्रा में होने वाले परिवर्तनो का देश की अर्थव्यवस्था पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है । यहाँ तक कि मुद्रा की मात्रा का नियमन बहुत कुछ साख के नियंत्रण से ही सम्बन्धित है, क्योंकि मुद्रा में चलन तथा साख दोनों ही सम्मिलित रहते हैं । इसलिए केन्द्रीय बैंक की मौद्रिक नीति तथा साख नियंत्रण नीति में प्रायः कोई विशेष अन्तर नहीं किया जाता। वास्तव में मुद्रा नीति के संचालन में सबसे कठिन समस्या साख के नियंत्रण की होती है, चलन की मात्रा को तो आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है । साख नियंत्रण की जिम्मेंदारी केन्द्रीय बैंक की होती है क्योंकि सम्पूर्ण मुद्रा बाजार पर अधिकार होने के कारण यह अर्थव्यवस्था में मुद्रा की मांग का अनुमान लगा सकता है । आर्थिक संतुलन बनाये रखने के लिए मुद्रा की पूर्ति को इसकी मांग के साथ समायोजित करना होता है । इसी से कीमतों में स्थिरता आती है जिसके परिणामस्वरूप व्यवसाय, उत्पादन तथा रोजगार की स्थिति में भी स्थिरता बनी रहती है । नोट-निर्गमन का एकाधिकार तथा देश की बैंकिंग व्यवस्था पर नियंत्रण का एकाधिकार केन्द्रीय बैंक को मौद्रिक प्रबन्धन एवं साख नियंत्रण के लिए एक शक्तिशाली और प्रभावपूर्ण संस्था का रूप देते हैं।</p><h2 style="text-align: left;">साख नियंत्रण की आवश्यकता</h2><p>बहुत पहले से ही आधुनिक आर्थिक व्यवस्था में साख के सृजन एव वितरण के नियंत्रण की आवश्यकता पर जोर दिया जा रहा है । इसका प्रधान कारण यह हे कि आधुनिक समय में देश के अधिकांश मौद्रिक एवं व्यावसायिक भुगतान में साख काबहुत बड़े पैमाने पर प्रयोग किया जाता है, अतएव साख का देश की आर्थिक स्थिति पर अच्छा तथा बुरा दोनों प्रकार का प्रभाव पड़ता है । इसलिए यह कहा जा सकता है कि आधुनिक आर्थिक व्यवस्था मुद्रा पर नहीं आधारित होकर मुख्य रूप से साख पर ही आधारित है ।' साख की मात्रा में परिवर्तन के फलस्वरूप मुद्रा के कय शक्ति एवं व्यावसायिक क्रियाशीलता में परिवर्तन होता है और चूंकि मुद्रा की कय शक्ति एवं व्यावसायिक कियाशीलता में परिवर्तन का आर्थिक जीवन के विभिन्न अंगों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है अतएव साख का नियंत्रण देश के आर्थिक कल्याण के लिए आवश्यक समझा जाता है। वास्तव में गत वर्षों में मुद्रा की कय शक्ति एवं व्यावसायिक क्रियाशीलता में परिवर्तन के परिणामस्वरूप उत्पन्न आर्थिक एवं सामाजिक अव्यवस्था ने साख के नियमन एवं नियंत्रण के महत्व की ओर भी बढ़ा दिया है । यही कारण है कि विश्व के प्रायः सभी देशों मेकेन्द्रीय बैंक कादेश की साख व्यवस्था पर किसी न किसी प्रकार का नियंत्रण अवश्य पाया जाता है ।</p><p>आधुनिक समय में चलन की मात्रा का नियमन भी बहुत हद तक साख के नियंत्रण से ही सम्बन्धित है । अधिकांश केन्द्रीय बैंकों के विधान में तो इस प्रकार की व्यवस्था पायी जाती है । उदारणार्थ- बैंक ऑफ कनाडा के विधान में बैंक का प्रमुख कार्य साख एवं चलन का नियंत्रण तथा रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के विधान में चलन एवं साखप्रणाली कादेश के आर्थिक हितों के अनुसार नियमन आदि की व्यवस्था की गयी है ।</p><h2 style="text-align: left;">साख नियंत्रण का महत्व</h2><p>बैंकों, वित्तीय संस्थाओं और अन्य विनिवेश संस्थाओं द्वारा साख का विस्तार विभिन्न उत्पादक क्षेत्रों में व्यापार संभावनाओं द्वारा नियंत्रित होता है । आर्थिक व्यवस्था में साख का विस्तार या उसका संकुचन विभिन्न व्यक्तिगत निर्णयों और प्रबन्धनों के कारण होता है जो कि अर्थव्यवस्था के किसी भाग में विस्तार और अन्य में संकुचन का कारण बनता है।' सामूहिक रूप से गलत निर्णयों के विरूद्ध सावधानियां जबकि साख के विस्तार या संकुचन की आवश्यकता अर्थव्यवस्था में होती है, सरकार को शक्तियां ब्याज दर के नियंत्रण करने तथा आरक्षित उधार अनुपात अपने में निहित रखती है । विभिन्न उत्पादक क्षेत्रों में साख के प्रवाह का नियमन विकास के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक होता है।</p><p>लोकतांत्रिक देश में भौतिक स्रोतों के विभिन्न क्षेत्रों को बंटवारे की नियोजन की तकनीक स्वीकार की जाती है। इस व्यवस्था में नीति उद्यम को पर्याप्त स्वतंत्रता होती है। कियाओं और उनकी कियाओं को नियंत्रित एवं निर्देशित उपायों की उद्देश्यों के विषय में, जैसे पूँजी प्रवाह का नियंत्रण, उद्योगो एवं व्यापार के लिए लाइसेन्सी व्यवस्था तथा भौतिक नियंत्रण एवं दिशा-निर्देशन मौद्रिक साख नीतियों द्वारा होती है ।'</p><p>अन्य कारकों में आर्थिक प्रगति पूँजी निर्माण्ध की दर पर निर्भर करती है । पूँजी निमार्ण एक मन्द कमिक प्रकिया है । समुदाय की वार्षिक आय एवं बचत के बड़े भाग को निवेश में बदलना इसमें सम्मिलित होता है । पूँजी निर्माण, उपलब्ध घरेलू बचतों को आर्थिक विकास में गतिशीलता लाने के उद्यम से सम्बन्धित है ।</p>Bandeyhttp://www.blogger.com/profile/08264562445292172107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6073521150607049851.post-29318306799869285952024-02-19T15:38:00.002+05:302024-02-19T15:38:25.875+05:30मुद्रा बाजार का अर्थ, भारतीय मुद्रा बाजार की विशेषताएं<h2 style="text-align: left;">मुद्रा बाजार का अर्थ</h2><p>प्रत्येक देश की बैंकिंग प्रणाली का स्वरूप आज केन्द्रीय बैंक के नियंत्रण में अत्यन्त सुसंगठित एवं केन्द्रित होता जा रहा है किन्तु बैंकिंग प्रणाली के संगठन में कुछ ऐसी संस्थाओं का भी महत्वपूर्ण स्थान है जो बैंक के आस-पास में रहकर मुद्रा के लेन-देन का कार्य करती हैं । इसी प्रकार की संस्थाओं को सम्मिलित रूप से मुद्रा बाजार कहते हैं । मुद्रा बाजार अथवा साख नियंत्रण के लेन-दने का आज प्रत्येक देश की आर्थिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान है । मुद्रा अथवा साख का लेन-देन दो प्रकार का होता है- अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन । उस बाजार में जहाँ। मुद्रा अथवा साख का अल्पकालीन लेन-देन होता है उसे मुद्रा बाजार कहते हैं तथा जहाँ पर दीर्घकालीन लेन-देन होता है उसे पूँजी बाजार या शेयर बाजार कहते हैं । विश्व के अधिकांश देशों में व्यावसायिक बैंकों का सम्बन्ध मुख्यतः मुद्रा बाजार से ही रहता है क्योंकि ये बहुधा अपने साधनों को मुद्रा बाजार की विभिन्न संस्थाओं को अल्पकाल के लिए प्रदान करते हैं । मुद्रा बाजार के दो पक्ष होते हैं- क- विक्रेता और ख-केता । इन दोनों पक्षों में विश्व के भिन्न-भिन्न बाजारों में भिन्न-भिन्न श्रेणियों के लोग तथा संस्थाएं रहती हैं ।</p><p>मुद्रा अथवा साख के विक्रेता का आशय उन ऋणदाताओं तथा ऋणदाता संस्थाओं से है, जो मुद्रा उधार देती है तथा मुद्रा के केता का अभिप्राय उन ऋणियों, व्यापारियों एवं उद्योगपतियों से है जो रूपया उधार लेते हैं । काउथर के अनुसार उन फर्मों या संस्थाओं को सामूहिक रूप से मुद्रा बाजार कहते हैं जो कि भिन्न-भिन्न प्रकार के मुद्रा तुल्य पत्रों का व्यापार करती हैं ।</p><h2 style="text-align: left;">भारतीय मुद्रा बाजार के अंग</h2><p>प्रारंभ से ही भारतीय मुद्रा बाजार को दो पृथक भागों में विभाजित किया गया है - 1- भारतीय 2- यूरोपीय । भारतीय भाग में विभाजित पूँजी वाले बैंक, स्वदेशी बैंकर्स तथा सहकारी बैंक को सम्मिलित किया जाता है तथा यूरोपियन भाग के अन्तर्गत रिजर्व बैंक, इम्पीरियल बैंक ऑफ इण्डिया तथा विदेशी विनिमय बैंकों को सम्मिलित किया जाता है । मुद्रा बाजार के इन दोनों अंगों में किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रहता था और दोनों का कार्य क्षेत्र भी प्रायः भिन्न होता था । यूरोपियन भाग को सदैव ही सरकारी संरक्षण तथा नियंत्रण का लाभ रहा है । इसके विपरीत मुद्रा बाजार का भारतीय भाग अनियंत्रित एवं अनियमित रहा है। सन् 1935 में रिजर्व बैंक की स्थापना के पश्चात् भारतीय मुद्रा बाजार के प्रकृति तथा उसके संगठन में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए ।' इनके कारण मुद्रा बाजार का वर्गीकरण अनावश्यक हो गया है । रिजर्व बैंक ने इन दोनों भागों में निकट सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयत्न किया है तथा मुद्रा बाजार के भारतीय भाग को भी धीरे-धीरे नियंत्रित किया जा रहा है । रिजर्व बैंक के राष्ट्रीयकरण के फलस्वरूप भारतीय बैंकिंग व्यवस्था पर अधिक प्रभावशाली सरकारी नियंत्रण करना संभव हो सका है । इम्पीरियल बैंक ऑफ इण्डिया का राष्ट्रीयकरण करके इसके स्थान इन सब परिवर्तनों के द्वारा भारतीय मुद्रा को अधिक संगठित करने का प्रयत्न किया गया । परन्तु अब भी हमारे देश में यूरोप के देशों की भांति एक सुसंगठित मुद्रा बाजार नहीं है । भारतीय मुद्रा बाजार छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटा हुआ है । वर्तमान भारतीय मुद्रा बाजार का वर्गीकरण एक नवीन प्रकार से किया जाने लगा है जो इस प्रकार से है :-</p><h3 style="text-align: left;">1. संगठित क्षेत्र</h3><p>संगठित क्षेत्र में रिजर्व बैंक, स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया, विदेशी विनिमय बैंक भारतीय संयुक्त स्कन्ध बैंक, बीमा कम्पनियां अर्द्ध-सरकारी संस्थाएं बड़े आकार की संयुक्त स्कन्ध कम्पनियां तथा अनुसूचित बैंक का समावेश किया जाता है । ये सब संस्थाएं मुद्रा बाजार के कार्य-कलापो में ऋणदाता के रूप में भाग लेती हैं । इसके उधार दिये गये द्रव्य को प्रायः गृह द्रव्य कहा जाता है । इन संस्थाओं के अतिरिक्त, अनेक वित्तीय मध्यस्थ भी कार्य करते हैं, जैसे पूँजी दलाल इत्यादि । इन बैंकों की कार्यविधि यूरोपियन बैंकों की भांति है । इनका बैंक भी भारतीय भाषाओं में न होकर अंग्रेजी भाषाओं में चलाया जाता है ।</p><h3 style="text-align: left;">2. असंगठित क्षेत्र</h3><p>इस क्षेत्र के अन्तर्गत देशी बैंकरों को सम्मिलित किया जाता है । इस क्षेत्र में अल्पकालीन और दीर्घकालीन ऋणों में या ऋण के उद्देश्यों में कोई स्पष्ट भेद नहीं किया जाता है । हुण्डी भी जो कि देशी विनिमय बिल के समान है, इस बात को सूचित नहीं करती है कि उससे सम्बन्धित ऋण व्यापार के अर्थ प्रबन्धन के लिए है अथवा वित्तीय सुविधा देने के लिए । मुद्रा बाजार के इस अंग के अन्तर्गत भी बहुत सी विविधता पायी जाती है ।</p><h3 style="text-align: left;">3. सहकारी क्षेत्र</h3><p>यह क्षेत्र संगठित एवं असंगठित क्षेत्रों के मध्य पड़ता है अर्थात् यह न तो पूर्णतः संगठित ही है और न इसे पूर्णतः असंगठित ही कहा जा सकता है ।' इसके अन्तर्गत सहकारी साख नियंत्रण संस्थाओं को सम्मिलित किया जाता है । आजकल रिजर्व बैंक इस क्षेत्र की संस्थाओं को एक प्रगतिशील स्तर पर वित्तीय सहायता प्रदान कर रहा है। सहकारी साख संस्थाओं का उद्देश्य ग्राम्य वित्त व्यवस्था में महाजनों के प्रभुत्व को समाप्त करना है, किन्तु अभी वे अपने कार्यों में अधिक सफल नहीं हुई हैं ।</p><p>संक्षेप में भारीय मुद्रा बाजार के ऋणदाताओं में रिजर्व बैंक, स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया, मिश्रित पूँजी वाले बैंक, विदेशी विनिमय बैंक, सहकारी साख संस्थाएं, विदेशी बैंकर्स, बीमा कम्पनियां और संयुक्त स्कन्ध कम्पनिया आदि को सम्मिलित किया जाता है तथा उधारकर्ताओं में केन्द्रीय, राज्यीय एवं स्थानीय सरकार, व्यापारी एवं उद्योपतियों, किसानों, एवं साधारण जनता को सम्मिलित किया जाता है । भारतीय मुद्रा बाजार की मुख्य विशेषता यह है कि इसके विभिन्न अंगों के मध्य पर्याप्त समन्वय एवं सहयोग का अभाव है।</p><h2 style="text-align: left;">भारतीय मुद्रा बाजार की विशेषताएं</h2><p>भारतीय मुद्रा बाजार की विभिन्न विशेषताओं का संक्षिप्त विवरण बिन्दुवार अधोलिखित हैः-</p><p>* भारतीय मुद्रा बाजार की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता इसकी द्विशासिता है । इसका अर्थ यह है कि इसके दो स्पष्ट भिन्न अंग हैं । एक अंग संगठित है तथा दूसरा अंग असंगठित है।</p><p>* संगठित भाग में रिजर्व बैंक, स्टेट बैंक, विदेशी बैंक तथा अन्य भारतीय बैंक हैं । अर्द्ध-सरकारी तथा अन्य सम्मिलित पूँजीवाली कम्पनियां भी संगठित मुद्रा बाजार में ऋण सम्बन्धी लेन-देन की कियाओं में भाग लेती हैं। प्रतिभूतियों अथवा कोषागार विपत्रों का कय-विक्रय दलालों के माध्यम से होता है ।</p><p>* असंगठित बाजार में साहूकारों अथवा देशी बैंकरों का प्रभुत्व है । इनकी हुण्डियों से जानना कठिन होता है कि वे व्यापारिक हैं अथवा केवल आर्थिक सहायता देने हेतु लिखी गयी हैं । इसलिए बहुत कम बैंक इन हुण्डियों में लेन-देन करते हैं । इसमें भुलतानी हुण्डियां अपवाद हैं क्योंकि प्रायः सभी बैंक इन हुण्डियों में व्यवसाय करते हैं ।</p><p>* देश में पर्याप्त संख्या में व्यापारिक बिल न लिखे जाने के कारण लन्दन अथवा न्यूयार्क की भांति कटौती गृहों तथा स्वीकृत गृहों की स्थापना नहीं हुई है । इतना होने पर भी भारतीय मुद्रा बाजार सर्वथा अव्यवस्थित नहीं है, क्योंकि सुप्रसिद्ध देशी बैंकरों को स्टेट बैंक से कटौती की सुविधाएं मिल जाती हैं । इन सुविधाओं की आवश्यकता मुख्यतः व्यस्तकाल में होती हैं। स्टेट बैंक के अतिरिक्त कुछ अन्य बड़े बैंक भी देशी बैंकरों को कटौती सुविधाएं प्रदान करते हैं । यह बैंक अपने आवश्यकता की पूर्ति के लिए रिजर्व बैंक से ऋण लेते हैं ।</p><p>* देशी बैंकों तथा व्यापारिक बैंकों के बीच की कड़ी के रूप में सहकारी बैंकों का वर्ग है जो ग्रामीण जनता को कृषि तथा लघु उद्योगों के लिए ऋण देता है। सहकारी बैंकों को गत वर्षों से रिजर्व बैंक से भरपूर आर्थिक सहायता मिलने लगी है । यह सहायता प्रायः बिलों के माध्यम से दी जाती है ।</p><h2 style="text-align: left;">भारतीय मुद्रा बाजार की कमियां</h2><p>भारत की अर्थव्यवस्था की भांति भारतीय मुद्रा बाजार भी अविकसित है । देश का बैंकिंग व्यवसाय और परम्पराएं इतनी स्वस्थ नहीं है कि सब वर्गों के. व्यक्तियों एवं व्यवसायों की आवश्यकता की पूर्ति कर सके । देश की औद्योगिक एवं व्यावसायिक प्रगति के साथ-साथ वित्तीय मांग में भी अनेक परिवर्तन आ गये हैं परन्तु भारतीय मुद्रा बाजार के ढाँचे में कोई मौलिक परिवर्तन दृष्टिगोचर नहीं होता । भारतीय मुद्रा बाजार की कुछ महत्वपूर्ण कमियां निम्नलिखित हैं :-</p><h3 style="text-align: left;">1 - मुद्रा बाजार में देशी बैंकरों और महाजनों का बाहुल्य</h3><p>भारतीय मुद्रा बाजार की असंगठित व्यवस्था का मुख्य कारण साहूकार तथा देशी बैंकर हैं जो कि न तो रिजर्व बैंक के नियंत्रण में हैं और न ही बाजार की दरों से प्रभावित होते हैं। साहूकार तथा देशी बैंकर का ग्रामीण वित्त में इतना महत्वपूर्ण स्थान रहा है कि सहकारी बैंक या व्यापारिक बैंक अपनी इच्छानुसार साख की मात्रा में परिवर्तन नहीं कर सकता । फलतः रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति को वांछित सहायता प्राप्त नहीं होती ।</p><h3 style="text-align: left;">2 -सदस्यों में सहयोग का अभाव</h3><p>भारतीय मुद्रा बाजार के संगठित अंग (रिजर्व बैंक, मिश्रित पूँजी, सहकारी बैंक, महाजन आदि) तथा असंगठित अंग (साहूकार, महाजन आदि) के बीच किसी भी प्रकार का समर्पण और सहयोग नहीं हैं । कभी-कभी तो इनके बीच अपव्ययपूर्ण प्रतियोगिता भी होती है । उदाहरणार्थ- स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया और व्यापारिक बैंक एक-दूसरे को प्रतियोगी समझते हैं। इस विषम प्रतियोगिता के फलस्वरूप बैंकिंग व्यवस्था को हानि पहुँचती है। जब से भारत में बैंकिंग विधान बना है, प्रतियोगिता कम अवश्य हुई है, परन्तु समाप्त नहीं हुई ।</p><h3 style="text-align: left;">3 - अखिल भारतीय मुद्रा बाजार का अभाव</h3><p>इस समय देश में अखिल भारतीय मुद्रा बाजार नहीं है । वास्तव में भारतीय मुद्रा बाजार छोटे-छोटे एवं स्थानीय क्षेत्रों में बंटा है और इनमें आपसी सम्पर्क का अभाव है। उदाहरण के लिए मुम्बई, कोलकाता और चेन्नई के मुद्रा बाजारों का छोटे-छोटे नगरों के मुद्रा बाजारों से कोई सम्बन्ध नहीं है ।</p><h3 style="text-align: left;">4 - मुद्रा का मौसमी अभाव और ब्याज दरों में परिवर्तन</h3><p>भारतीय मुद्रा बाजार में प्रायः नवम्बर से अप्रैल मी तक व्यस्त काल रहता है । क्योंकि इस बीच में चावल तथा अन्य फसलों की कटाई होकर यह बिकने के लिए प्रस्तुत की जाती है और थोक व्यापारी उन्हें खरीद कर गोदामों में भरते हैं। इस कार्य के लिए उन्हें जो रकम चाहिए उसकी व्यापारिक बैंकों से मांग की जाती है। इस प्रकार इस काल में मुद्रा की मांग बहुत बढ़ती है, किन्तु उसकी पूर्ति उसी अनुपात में नहीं बढ़ती, जिससे इस अवधि में ब्याज दरें बढ़ जाती हैं। मुद्रा की सामान्य कमी के कारण व्यापारी वर्ग बहुत परेशान हो जाता है । इसके विपरीत, अप्रैल-मई तक फसलों का अधिकांश भाग बिक जाता है और नयी फसल आने की आशा में व्यापारी पुराने भण्डार जल्दी-जल्दी बेचने लगते हैं । परिणामतः माल बिकने पर जो रूपया प्राप्त होता है वह किसी बैंक को लौटा दिया जाता है । इस प्रकार मुद्रा की मांग काफी कम हो जाने से ब्याज दरों में भी कमी हो जाती है । यद्यपि रिजर्व बैंक प्राप्त व्यापारिक आवश्यकताओं के अनुसार विभिन्न अवधियों में मुद्रा की पूर्ति में परिवर्तन करता रहता है, तथापि मुद्रा की मौसमी कमी और ब्याज दरों के उच्चावचनों को पूर्णतया समाप्त नहीं किया जा सका है । रिजर्व बैंक द्वारा कृषि बिलों की अवधि 15 मास तक बढ़ा देने के पश्चात् मुद्रा के इस मौसमी अभाव की समस्या कुछ कम हो गयी परन्तु सर्वथा नहीं सुलझ पायी है ।</p><h3 style="text-align: left;">5 - बैंकिंग सुविधाओं की अपर्याप्तता</h3><p>जिस देश में बैंकिंग विकास अधिक हो जाता है अर्थात् नगरों, कस्बों तथा ग्रामों तक बैंकों की शाखाएं स्थापित कर दी जाती हैं वहाँ साख तथा पूँजी की कमी का अनुभव नहीं होता क्योंकि बैंक आवश्यकतानुसार अपने-अपने क्षेत्र में साख प्रसारित कर देते हैं । इसके अतिरिक्त बैंक जनता की बचतों को प्रोत्साहित करते हैं। यद्यपि पिछले वर्षो में बैंकों की शाखाओं की संख्या 7005 थी जो जून 1989 में देश के सभी सरकारी क्षेत्र के व्यापारिक बैंकों की शाखाओं की संख्या बढ़कर 52,269 हो गयी । इस दृष्टि से बैंक सुविधाएं बढ़ी हैं, किन्तु इस अनुपात में देश में मुद्रा बाजार विकसित नहीं हुआ है क्योंकि लोगों में बैंकिंग की आदत का विकास नहीं हुआ है ।</p><h3 style="text-align: left;">6 - विशेष वित्तीय संस्थाओं का अभाव</h3><p>इंग्लैण्ड, अमेरिका तथा अन्य देशों में विक्रय वित्त कम्पनियाँ, क्रय-विक्रय कम्पनियाँ, साख संघ आदि संस्थाएं उपभोक्ताओं के लिए साख की व्यवस्था करती रहती हैं और इस प्रकार साख की आवश्यकता पूरी होती हैं क्योंकि व्यापारिक तथा औद्योगिक वित्त संस्थाएं व्यापार तथा उद्योग की आवश्यकता पर विशेष ध्यान दे सकती हैं। इसके अतिरिक्त स्वीकृत गृह व्यापारिक बिलों की स्वीकृति पर बैंकों का कार्य हल्का और सरल कर देते हैं । इन दोनों प्रकार के संस्थानों के कारण अधिकांश अल्पकालीन व्यापारिक ऋण बिलों के माध्यम से दिये जाते हैं। भारत में इन सभी प्रकार की संस्थाओं का अभाव है जिससे न तो व्यापार के लिए उचित मात्रा में रकम मिल पाती है और न ही बिलों का प्रचार बढ़ पाता है ।</p><h3 style="text-align: left;">7 -मुद्रा बाजार में पूंजी का अभाव होना</h3><p>भारतीय मुद्रा बाजार में पूंजी की कमी देखी जाती है, जिससे व्यापार एवं उद्योग धन्धों की धन सम्बन्धी आवश्यकताएं पूरी नहीं हो पाती । पूँजी का अभाव रहने के निम्नलिखित कारण है :-</p><p>• देश की राष्ट्रीय आय कम है। इससे प्रति व्यक्ति आय भी कम है । आय कम होने के कारण देशवासियों की बचत शक्ति कम रहती है ।</p><p>• अभी भी सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों और छोटे-छोटे कस्बों में बैंकिंग सुविधाओं का अभाव है, जिससे सारी ग्रामीण बचतों को एकत्र करना सम्भव नहीं हुआ है ।</p><p>• जनता (विशेषतः ग्रामीण जनता) अब भी धन का अपने पास संचय करना उचित समझती है । प्रायः वह अपनी बचत को भूमि में गाड़ देती है या आभूषणों में लगा देती है । किन्तु 1980 के दशक में भारतीय मुद्रा बाजार में पूँजी की तेजी से वृद्धि हुई है । अतएव अब यह विशेषता कि भारतीय मुद्रा बाजार में पूँजी का अभाव है, पूर्णरूप सही नहीं है ।</p><h3 style="text-align: left;">8-बिल बाजार की कमी</h3><p>व्यापारिक बिल एक ऐसा साख पत्र है जो स्वयं भुगतानशील कहलाता है क्योंकि बिकेता जब माल बेचता है तो वह ग्राहक से 91 दिन का एक बिल स्वीकृत करवा लेता है । ग्राहक इस प्रकार बिलों के माध्यम से व्यापार केलिए वित्त व्यवस्था करने पर विक्रेता को धन तुरन्त मिल जाता है क्योंकि वह ग्राहक के स्वीकृत बिल की अपनी बैंक से कटौती कटवा कर रकम प्राप्त कर लेता है । दुकानदार को तीन मास के लिए माल उधार मिल जाता है और बैंक को बिना जोखिम वाले व्यवसाय में अल्पकालीन पूँजी लगाने का अवसर मिल जाता है । व्यापारिक बिलों का एक लाभ यह है कि बिल अत्यन्त तरल सम्पत्ति है और भुगतान तिथि से पहले नकद राशि की आवश्यकता होने पर बैंक अच्छे बिलों की केन्द्रीय बैंक से पुनर्कटौती करवा सकता है । इस प्रकार बिलों के माध्यम से धन की व्यवस्था करने में केता - विक्रेता तथा बैंक तीनों को लाभ होता है ।</p>Bandeyhttp://www.blogger.com/profile/08264562445292172107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6073521150607049851.post-10614603587471513862024-02-14T17:25:00.005+05:302024-02-14T17:26:01.218+05:30विश्व व्यापार संगठन क्या है? यह कब और क्यों स्थापित किया गया<p>गैट के अन्तिम सम्मेलन में विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के लिए विधिवत प्रस्ताव पारित किया गया। प्रारम्भ में इस सम्मेलन में सदस्य राष्ट्रों के बीच गहरे मतभेद थे लेकिन धीरे-धीरे ये मतभेद कम होते गए क्योंकि इस चक्र में 8 वर्ष लगे अन्त में 15 अप्रैल 1994 को सभी 123 देशों के प्रतिनिधियों ने इस प्रस्ताव पर अपने हस्ताक्षर कर दिए। जिसके फलस्वरूप 1 जनवरी 1995 को विश्व व्यापार संगठन की स्थापना हुई। विश्व व्यापार संगठन का मुख्यालय जेनेवा में है जो स्वीटजरलैण्ड की राजधानी है। W.T.O. के स्थापना के मुख्य रूप से तीन उद्देश्य हैं-</p><p>(1) विदेशी व्यापार की इस प्रकार से सहायता करनी कि वह जहाँ तक सम्भव हो स्वतन्त्र रूप से चल सके।</p><p>(2) व्यापार सम्बन्धी बातचीत के लिए एक मंच के रूप में कार्य करना।</p><p>(3) सदस्य राष्ट्रों के बीच मतभेदों को सुलझाना।</p><h2 style="text-align: left;">विश्व व्यापार संगठन के सिद्धान्त</h2><p>विश्व व्यापार संगठन के प्रमुख रूप से पाँच सिद्धान्त हैं-</p><p>(1) व्यापार बिना किसी भेदभाव के।</p><p>(2) स्वतन्त्र व्यापार समझौते के माध्यम से।</p><p>(3) भविष्यवाणी</p><p>(4) उचित प्रतियोगिता का विकास।</p><p>(5) विकास और आर्थिक सुधार को प्रोत्साहित करना।</p><h2 style="text-align: left;">विश्व व्यापार संगठन संरचना व कार्यप्रणाली</h2><p>विश्व व्यापार संगठन सदस्य देशों का एक व्यापारिक संगठन है। इस समय इसके 149 देश सदस्य हैं। इसका मुख्यालय जेनेवा (स्विटजरलैण्ड) में है। इस संगठन को चार भागों में विभाजित कर सकते हैं </p><p>(1) सर्वोच्च अधिकारी (2) द्वितीय स्तर</p><p>(3) तृतीय स्तर (4) चतुर्थ स्तर ।</p><p>विश्व व्यापार संगठन के समझौते में तीन प्रकार के समझौते हुए हैं।</p><p>(1) सीमा शुल्क और व्यापार पर सामान्य समझौता (G.A.T.T.)</p><p>(क) टेक्सटाइल एवं कपड़ो का समझौता ।</p><p>(ख) कृषि के सम्बन्ध में समझौता।</p><p>(2) सेवाओं के व्यापार पर सामान्य समझौता (GATS)-</p><p>इसके अन्तर्गत आर्थिक सेवाएं, दूर संचार सेवाएं, परिवहन सेवाएं आदि शामिल है।</p><p>(3) व्यापार से सम्बन्धित बौद्धिक सम्पत्ति अधिकार समझौता (TRIPS)-</p><p>इसमें मानव के बौद्धिक सम्पत्ति के अधिकार को सुरक्षित रखने की बात की गई है। इसमें पेटेन्ट, कापीराइट, ट्रेडमार्क औद्योगिक डिजाइन आदि शामिल है।</p><h2 style="text-align: left;">विश्व व्यापार संगठन के कार्य</h2><p>(1) व्यापार एवं प्रशुल्क से सम्बन्धित किसी भी मसले पर सदस्य देशों के बीच विचार- विमर्श हेतु एक मंच के रूप में कार्य करना।</p><p>(2) विश्व व्यापार समझौता एवं बहुपक्षीय तथा बहुवचनीय समझौते के क्रियान्वयन, प्रशासन एवं परिचालन हेतु सुविधाएं उपलब्ध कराना।</p><p>(3) व्यापार नीति समीक्षा प्रक्रिया से सम्बन्धित नियमों एवं प्रावधानों को लागू करना।</p><p>(4) विवादों के निपटारे से सम्बन्धित नियमों एवं प्रक्रियाओं को प्रशासित करना।</p><p>(5) विश्व आर्थिक नीति के निर्माण में अधिक सामंजस्य भाव स्थापित करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं विश्व बैंक से सहयोग प्राप्त करना।</p><p>(4) गैट एक ऐसा मंच था जिसपर सदस्य देश विश्व व्यापार समस्याओं पर विचार करने और उन्हें सुलझाने के लिए दशक में केवल एक बार मिलते थे। लम्बे और दीर्घकालीन विचारों के परिणाम कई दशकों में निकलते थे। जबकि दूसरी ओर WTO सुस्थापित, नियमबद्ध विश्वव्यापार संगठन हैं जहां समझौते पर निर्णय समयबद्ध होते हैं। दिनांक अवधि केवल सदस्यों के मत द्वारा ही बढ़ाई जा सकती है।</p><p>(5) गैट के नियम केवल वस्तुओं के व्यापार पर ही लागू होते थे। उरूग्वे दौर में सेवाओं का व्यापार भी शामिल किया गया, परन्तु उस पर कुछ समझौता नही हो सका। WTO के अन्तर्गत केवल वस्तुओं एवं सेवाओं का व्यापार ही नही आता, वरन बौद्धिक सम्पत्ति अधिकार के व्यापार सम्बन्धी विषय तथा कई और समझौते भी आते हैं।</p><p>(6) गैट का एक छोटा कार्यालय था जिसे एक डाइरेक्टर जनरल देखता था। WTO का एक विशाल कार्यालय और विराट कर्मचारी तंत्र है।'</p><h2 style="text-align: left;">गैट तथा विश्व व्यापार संगठन में अन्तर</h2><p>WTO गैट का विस्तार नहीं है परन्तु उसका उत्तराधिकारी है। उसने गैट को पूर्णतः प्रतिस्थापित कर दिया है और इसका एक भिन्न स्वरूप है। दोनों में निम्नलिखित अन्तर है।</p><p>(1) गैट की कोई कानूनी स्थिति नही थी। WTO की कानूनी स्थिति है। इसका जन्म अन्तर्राष्ट्रीय संधि के अन्तर्गत हुआ है। जिसकी पुष्टि सदस्य देशों की सरकारी और विधान मण्डलों ने की है। इसकी IMF तथा विश्व बैंक जैसी ही विश्व स्थिति है। परन्तु इसके विपरीत यह UN की शाखा नही है, यद्यपि UN के साथ 'सहकारी सम्बन्ध' है।</p><p>(2) गैट केवल कुछ चयनात्मक बहुपक्षीय समझौते के बारे में नियमों और प्रणालियों का समूह था। अलग-अलग विषयों पर अलग-अलग समझौते थे जो सदस्यों पर बाध्य नही थे। कोई भी सदस्य किसी समझौते में सम्मिलित होने से इन्कार कर सकता था। केवल वे ही सदस्य जिन्होंने किसी समझौते पर हस्ताक्षर किए हो वे उसका पालन न करने पर दंडित हो सकते थे। परन्तु जो समझौता WTO का अंग बन चुका है वह स्थायी है और सभी सदस्य पर लागू होगा। किसी सदस्य के नियम पालन न करने पर अन्य सब सदस्य देश उस पर कार्यवाही कर सकते हैं।</p><p>(3) गैट सदस्य देशों के बीच झगड़ा निपटाने में विलम्बकारी थी। जबकि WTO झगड़ा निपटाने में स्वचालित तथा शीघ्रगामी है तथा सदस्यों पर पूर्ण लागू है। WTO के झगड़ा निपटाने वाले बोर्ड ने अपने पहले ही फैसले के द्वारा शक्तिशाली अमेरिका को उसको स्वीकार करने पर बाध्य कर दिया। इस प्रकार WTO शक्तिशाली है, जबकि गैट अपेक्षाकृत शक्तिहीन था।</p>Bandeyhttp://www.blogger.com/profile/08264562445292172107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6073521150607049851.post-33866960253504235302024-02-14T17:09:00.005+05:302024-02-14T17:09:58.400+05:30गैट का उद्देश्य और सिद्धांत - GATT<p>द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था चरमरा गयी थी तो इस चरमराती हुई अर्थव्यवस्था को ठीक करने के लिए तथा 1930 की विश्व व्यापी मन्दी की समस्याओं से निजात पाने के लिए जुलाई 1944 में ब्रेटन वुड्स सम्मेलन में हैमशायर नामक स्थान पे यह तय हुआ कि तीन अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएं स्थापित की जाए।</p><p>(क) विश्व बैंक (I.B.R.D.) (ख) अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (I.M.F.) (ग) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार संगठन (I.T.O.) पहली दो संस्थाए विश्व बैंक व अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तो 27 दिसम्बर 1945 को स्थापित हो गई लेकिन अमेरिका की सीनेट में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार संगठन का विरोध होने के कारण इसकी स्थापना न हो सकी।</p><p>लेकिन 23 राष्ट्रो ने (भारत सहित) 30 अक्टूबर 1947 में एक समझौते पर हस्ताक्षर कर सीमा शुल्क एवं व्यापार पर सामान्य समझौते (G.A.T.T.) की स्थापना की। इस समझौते का उद्देश्य समस्त देशों में स्वतन्त्र व्यापार को बढ़ावा देना था। यह समझौता 1 जनवरी 1948 से लागू किया गया। इस समझौते में यह तय किया गया कि सदस्य राष्ट्रों के बीच एक बैठक प्रत्येक पाँच वर्ष पर होगी जिसके अन्तर्गत प्रत्येक चक्र में प्रशुल्क की दरें कम की जाएगी। धीरे-धीरे प्रशुल्क की दरें इतनी कम हो जाएगी कि प्रशुल्क शून्य के बराबर हो जाएगा इस व्यवस्था के स्थापित हो जाने पर सदस्य राष्ट्रों के व्यापार के मार्ग में अब तक प्रशुल्क की दीवारों के कारण जो कठिनाई होती थी वह समाप्त हो जाएगी। इस प्रकार प्रशुल्क की दीवारों को कम करने के लिए क्रमशः प्रत्येक पाँच वर्ष पर कुल 8 सम्मेलन किए जिनमें सदस्य देशों ने आपस में सीमा शुल्क कम करने के लिए द्विपक्षीय समझौते किए जिससे कि उन देशों के व्यापार में वृद्धि हो सके। प्रारम्भ में 'गैट' की स्थापना एक अस्थायी प्रबन्ध के रूप में की गई थी किन्तु कालान्तर में यह एक स्थायी समझौता बन गया। गैट का मुख्यालय जेनेवा में था। 12 दिसम्बर 1995 को गैट का अस्तित्व समाप्त कर दिया गया इसकी जगह 1 जनवरी 1995 से स्थापित विश्व व्यापार संगठन (W.T.O.) ने ले ली है।</p><h2 style="text-align: left;">गैट का उद्देश्य-</h2><p>गैट की स्थापना के निम्नलिखित प्रमुख उद्देश्य थे-</p><p>(1) व्यापारिक क्षेत्र से पक्षपात हटाकर सभी देशों को बाजार की प्राप्ति के लिए समान अवसर प्रदान करना।</p><p>(2) वास्तविक आय वृद्धि तथा वस्तुओं के लिए प्रभावकारी माँग को बढ़ाना।</p><p>(3) पारस्परिक लाभ के लिए व्यापारिक तरकरों एवं रूकावटों को कम करना तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से भेदभाव मिटाना।</p><p>(4) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार सम्बन्धी समस्याओं का पारस्परिक सहयोग व परामर्श द्वारा सुविधापूर्वक सुलझाना आदि।</p><p>(5) विश्व में समग्र दृष्टिकोण के आधार पर सम्पूर्ण समाज के लोगों का जीवन-स्तर ऊचाँ उठाना।</p><p>इन उपर्युक्त वर्णित उद्देश्यों की प्राप्ति स्वतन्त्र और बहुपक्षीय व्यापार को प्रोत्साहित करके अप्रत्यक्ष रूप से की जाती थी। गैट चार्टर में यह स्पष्ट किया गया था कि गैट के किसी भी सदस्य देश द्वारा किसी दूसरे देश के उत्पादों के लिए जो लाभ, अनुग्रह अथवा छूट दी जाए, वह बिना किसी शर्त के समस्त सदस्य देशों के सम्बन्धित उत्पदों के लिए स्वतः दी जाएगीं इस प्रकार 'सबसे अधिक प्रिय राष्ट्र' का सिद्धान्त स्पष्ट करता है कि प्रत्येक राष्ट्र को सर्वाधिक अनुग्रह प्राप्त राष्ट्र समझा जाना चाहिए। सदस्य देशों के मध्य द्विपक्षीय आधार पर किए जाने वाले समझौते के अन्तर्गत जो रियायतें दी जाती हैं, वे सभी सदस्य देशों को दी जानी चाहिए। सीमा संघों तथा स्वतन्त्र व्यापार क्षेत्रों की स्थापना की अनुमति इस शर्त पर दी जा सकती है कि उनके फलस्वरूप सम्बन्धित क्षेत्रों में व्यापार सुविधाजनक हो तथा अन्य सदस्य राष्ट्रों के व्यापार पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़ते हो।</p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEgcBx2_hhaE0VMF3yAqFz-CFxMIyyVoVX1RLKkumL9y4jSrCvffwCnppA72fu9a_aClwV5Oa_tQOAkYAeG3EIEGlrSeKBGYNHzAGTg_oxpoKx_q0vRtc8XpUN7ShOgfccTnMucr8scQ0NwePazngsvRprUWS96Ls1IRnsbOXsUBvEVPen9PXYk2KAEsCJqa" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img data-original-height="557" data-original-width="753" height="296" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEgcBx2_hhaE0VMF3yAqFz-CFxMIyyVoVX1RLKkumL9y4jSrCvffwCnppA72fu9a_aClwV5Oa_tQOAkYAeG3EIEGlrSeKBGYNHzAGTg_oxpoKx_q0vRtc8XpUN7ShOgfccTnMucr8scQ0NwePazngsvRprUWS96Ls1IRnsbOXsUBvEVPen9PXYk2KAEsCJqa=w400-h296" width="400" /></a></div><p></p><h3 style="text-align: left;">गैट वार्ताओं के दौर-</h3><p>गैट के स्थापना वर्ष 1947 से उनके अन्त तक इसकी वर्ताओं के आठ चक्र दौर आयोजित किए गए इनमें से प्रथम छः चक्रों का सम्बन्ध मुख्य रूप से प्रशुल्क दरों में कमी करने से रहा था। गैट वार्ता के सातवें दौर में गैर प्रशुल्क बाधाओं चक्र अपने पूर्व सम्मेलनों से पूर्णतः भिन्न रहा, क्योंकि इस वार्ता में अनेक नयें विषयों को सम्मलित किया गया। उरूग्वे चक्र नाम से प्रसिद्ध इस वार्ता दौर के परिणामस्वरूप ही गैट के स्थान पर एक अधिक शक्तिशाली संगठन 'विश्व व्यापार संगठन' 1 जनवरी 1995 से अस्तित्व में आ गया।</p><h3 style="text-align: left;">उरूग्वे राउण्ड तथा डंकल प्रस्ताव-</h3><p>गैट के आँठवे राउण्ड अर्थात उरूग्वे राउण्ड का प्रारम्भ सितम्बर 1986 में हुआ। इस दौर की वार्ता की की विभिन्न बैठकों मांट्रियल, जेनेवा, ब्रसेल्स आदि देशों में सम्पन्न की गयी। इस वार्ता की समाप्ति के लिए चार वर्षो की अवधि (1986-1990) निर्धारित की गई थी। इस प्रकार उरूग्वे राउण्ड को दिसम्बर 1990 की ब्रसेल्स बैठक में अपने निष्कर्ष देने थे। किन्तु यह वार्ता अनेक विवादों के कारण लम्बी चलती गयी अन्ततः गैट के तत्कालीन महानिदेशक आर्थर डंकल को इस समस्या के समाधान का दायित्व सौंपा गया। 20 दिसम्बर 1991 को आर्थर डंकल ने नए सिरे से सदस्य देशों के सामने आपसी सहमति के लिए एक विस्तृत दस्तावेज प्रस्तुत किया। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि इन प्रस्तावों को एक साथ इनके मूल रूप में स्वीकार कर लिया जाना चाहिए। यद्यपि अधिकांश सदस्य देशों ने इन्हें एक रूप में स्वीकार कर लेने में कठिनाई जाहिर की तथापि उरूग्वे दौर की वार्ता को इन प्रस्तावों पर आधारित करके जारी रखना स्वीकार किया गया इन प्रस्तावों को ही 'डंकल प्रस्ताव' अथवा 'ड्राफ्ट फाइनल एक्ट' कहा जाता है। प्रस्ताव के निष्कर्षो के लिए अन्तिम रूप से 15 दिसम्बर 1993 को जेनेवा में स्वीकृति प्रदान कर दी गयी। 15 दिसम्बर 1994 को मोरक्को के मराकश नगर में 124 सदस्य देशों द्वारा समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए गए।</p><p>गैट की आंठवें दौर की वार्ता में कुल 15 क्षेत्रों को सम्मलित किया गया था। जिन्हें दो भागों में विभाजित किया गया। पहला भाग व्यापारिक वस्तुओं से सम्बन्धित था जबकि दूसरा भाग सेवाओं से सम्बन्धित था।</p><p>पहले भाग में निम्नलिखित 14 मदें शामिल थी (1) प्रशुल्क (2) गैर प्रशुल्क उपाय (3) उष्णकटिबन्धित उत्पाद (4) राष्ट्रीय संसाधनों पर आधारित उत्पाद (5) वस्त्र एवं कपड़ा (6) कृषि (7) गैट धाराएं (8) सुरक्षा (१) बहुपक्षिय व्यापार समझौते तथा व्यवस्थाएँ (10) सब्सिडी (11) विवाद निपटारे (12) बौद्धिक सम्पदा अधिकार के व्यापार सम्बन्धी पहलू (13) व्यापार सम्बन्धी निवेश उपाय (14) गैट कार्य पद्धति।</p><p>द्वितीय भाग में सेवाओं के व्यापार को अलग से वार्ता हेतु सम्मिलित किया गया। आगे चलकर उपर्युक्त वर्णित 14 क्षेत्रों को निम्नलिखित सात क्षेत्रों के अन्तर्गत पुनः विभाजित किया गया। (1) बाजार पहुँच (2) कृषि (3) वस्त्र (4) ट्रिम्स (5) ट्रिप्स (6) सेवाओं का व्यापार तथा (7) संस्थागत मामले।</p><p>उपयुक्त विषयों पर आपसी विचार-विमर्श के बाद आम सहमति प्राप्त करनी थी किन्तु ऐसा नही हो सका वस्तुतः बौद्धिक सम्पदा अधिकार के व्यापार सम्बन्धी पहलू (TRIPS) और व्यापार सम्बन्धी निवेश उपायों (TRIMS) तथा सेवाओं को गैट के अन्तर्गत ले आने के प्रश्न पर ही मुख्य विरोध उत्पन्न हो गया। आठवें दौर के पहले तक इन मुद्दो को गैट के अन्तर्गत सम्मिलित नही किया गया था। अमेरिका द्वारा प्रस्तुत इन प्रस्ताव का भारत सहित अनेक विकासशील देशों ने विरोध किया। इन विषयों के सम्बन्ध में विकासशील देशों का दृष्टिकोण यह रहा था कि यदि सेवा, निवेश एवं प्रबन्ध जैसे क्षेत्रों में विकसित देशों को मुक्त व्यापार करने की छूट दे दी जाएगी तो विकासशील देशों में इन क्षेत्रों का विकास रूक जएगा। किन्तु विकसित देश यह चाहते थे कि विकासशील देश उन्हें प्रत्येक क्षेत्र में मुक्त व्यापार की सुविधा प्रदान करे, ताकि उनके देशों के ये अग्रणी क्षेत्र (सेवा, बौद्धिक सम्पत्ति तथा निवेश) विकासशील देशों के इन क्षेत्रों को अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा से बाहर करके अपना पूर्ण एकाधिकार स्थापित कर सके।</p><p>अन्ततः 15 अप्रैल 1994 को मराकश में 123 सदस्य राष्ट्रों ने गैट के उरूग्वे चक्र समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए व इसके परिणामस्वरूप 1 जनवरी 1995 से विश्व व्यापार संगठन की स्थापना भी कर दी गई। गैट के सभी सदस्यों द्वारा 1 जनवरी 1995 तक विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता ग्रहण न कर पाने के कारण यह निर्णय लिया गया कि गैट का अस्तित्व अभी एक वर्ष बाद (1995) तक बना रहेगा। अन्ततः लगभग पाँच दशक तक विश्व व्यापार की निगरानी करने वाले अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के सजग प्रहरी के रूप में विख्यात गैट को 12 दिसम्बर 1995 को खामोशी के साथ अलविदा कर दिया गया।</p><h2 style="text-align: left;">गैट के मूल सिद्धान्त</h2><p>अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए गैर में तीन मौलिक सिद्धान्त स्वीकार किए गए। (1) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार बिना किसी भेद-भाव के होना चाहिए। (2) व्यापार में परिमाणात्मक प्रतिबन्धों को हतोत्साहित किया जाना चाहिए। (३) व्यापारिक वाद-विवादों का निपटारा आपसी विचार विमर्श द्वारा होना चाहिए।</p><p>गैट का डंकल प्रस्ताव: भारत ने क्या खोया क्या पाया</p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEgu9yJs8DDceV5_UHtDKBgIC3BEa3NAqTFLTohJ-xuBOjOjM7VI_Xh0INXqSY9tg_qmNI6DhmUv3AOZp9xg-Sav76YnYUDQ8-nhGWyXj6Cv1OC-NfNLsU_4hf_zYxdAyviT8ZFrUto4FPCN0nhyg8MWX8tjN23o21AMeB0hLZxYvqxnqfshH_rxeBHFYJuQ" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img data-original-height="471" data-original-width="729" height="259" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEgu9yJs8DDceV5_UHtDKBgIC3BEa3NAqTFLTohJ-xuBOjOjM7VI_Xh0INXqSY9tg_qmNI6DhmUv3AOZp9xg-Sav76YnYUDQ8-nhGWyXj6Cv1OC-NfNLsU_4hf_zYxdAyviT8ZFrUto4FPCN0nhyg8MWX8tjN23o21AMeB0hLZxYvqxnqfshH_rxeBHFYJuQ=w400-h259" width="400" /></a></div><p></p>Bandeyhttp://www.blogger.com/profile/08264562445292172107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6073521150607049851.post-24490998228894145222024-02-14T16:45:00.003+05:302024-02-14T16:46:40.861+05:30आर्थिक संवृद्धि एवं आर्थिक संवृद्धि को प्रभावित करने वाले तत्वसंसार में आज के समय सबसे बडी आर्थिक समस्या आर्थिक संवृद्धि और विकास की है। आधुनिक युग में आार्थिक विकास प्रमुख चिंतन का विषय है। मायर एवम् बाल्डविन के अनुसार ‘‘राष्ट्रों की निर्धनता का अध्ययन राष्ट्रों के धन के अध्ययन से भी अधिक महत्वपूर्ण है।’’ आर्थिक विकास का महत्व सभी देशों के लिए है लेकिन अल्पविकसित देशों के लिए इसका विशेष महत्व है। क्योकि अल्पविकसित देशों में गरीबी, असमानता, बेरोजगारी जैसे अनेक आर्थिक समस्याएं रहती है। अल्पविकसित देश गरीबी, और बेरोजगारी से छुटकारा पाना चाहते है। <div><br /></div><div>आर्थिक विकास की समस्या का एडम स्मिथ ने क्रमबद्ध रूप के अपनी पुस्तक में 1776 में विचार प्रकट किए थें। उसके बाद अनेक अर्थशास्त्रियों ने विकास सम्वन्धी समस्या का अध्ययन किया है। परन्तु केन्ज और इससे पहले के अर्थशास्त्रीयांे का ध्यान विकसित देशों की ओर था। अल्पविकसित और अविकसित देशो की तरफ ध्यान 20वीं शताब्दी के 50 के दशक के बाद गया है। आर्थिक समृद्धि औंर विकास की सकल्पनाओं में बहुत सारे अर्थशास्त्रियों ने अपना योगदान दिया है। शुरूआती दौर मे आर्थिक संवृद्धि और विकास में अन्तर नहीं बताया जाता था। आर्थिक संवृद्धि को विकास ही माना जाता था। अब आर्थिक संवृद्धि का प्रयोग विकसित देशों के लिए किया जाता है और अल्पविकसित अथवा विकासशील देशों के लिए आर्थिक विकास का प्रयोग किया जाता है।</div><h2 style="text-align: left;">आर्थिक संवृद्धि की अवधारणा </h2><div>अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक समृद्धि का अर्थ अलग-अलग लगाया है । कुछ अर्थशास्त्रियों की परिभाषा में मूलभूत अन्तर है तो कुछ अन्य की परिभाषा में केवल सतही अन्तर है । अर्थशास्त्रियों का एक वर्ग ऐसा भी है जो आर्थिक सवृद्धि की निश्चित परिभाषा देने की आवश्यकता ही नहीं समझता । इस वर्ग के अर्थशास्त्रियों के अनुसार आर्थिक सवृद्धि का अर्थ अपने आप में स्पष्ट है और आर्थिक सवृद्धि को आसानी से राष्ट्रीय आय सम्बन्धी समग्र राशियों के रूप में माना जा सकता है । इस विचारधारा का प्रतिपादन हमें संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों द्वारा किये गये अध्ययन में मिलता है । कई अन्य अर्थशास्त्रियों का मत है कि स्पष्ट तौर पर दोष रहित परिभाषाओं का होना आवश्यक है । इस सन्दर्भ में रोनाल्ड ए० सियरर का मत है कि सामाजिक विज्ञानों के क्षेत्र में अनावश्यक वाद-विवाद और भ्रामक विचारों का प्रमुख कारण ही यह है कि मूल परिभाषाओं के बारे में उपयुक्त सावधानी नहीं बरती जाती ।'</div><div><br /></div><div><div>कुछ अर्थशास्त्रियों के अनुसार आर्थिक सवृद्धि एक ऐसी प्रकिया है जिसके द्वारा किसी अर्थव्यवस्था का सकल घरेलू उत्पाद लगातार दीर्घकाल तक बढ़ता रहता है । इस सन्दर्भ में सकल राष्ट्रीय उत्पाद और सकल घरेलू उत्पाद में अन्तर करना आवश्यक हो जाता है । ऐसा हो सकता है कि किसी देश के नागरिक अन्य देशों में भारी निवेश करें । इससे सकल राष्ट्रीय उत्पाद तो बढ़ जायेगा परन्तु अर्थव्यवस्था पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा । इसलिए सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि करना अधिक तर्कसंगत है । यदि जनसख्या में वृद्धि सकल घरेलू उत्पाद की तुलना में अधिक होती है तो प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद में गिरावट होगी । निश्चय ही इसे आर्थिक संवृद्धि नहीं कहा जा सकता है । कुजनेत्स का मत है कि आर्थिक संवृद्धि की अवस्था में बढ़ती हुई जनसंख्या के साथ-साथ प्रति व्यक्ति उत्पादन (या आय) में भी वृद्धि होनी चाहिए ।'</div><div><br /></div><div>अर्थशास्त्रियों का एक वर्ग आर्थिक संवृद्धि को प्रति व्यक्ति उत्पादक के रूप में परिभाषित करता है । यहाँ यह ध्यातव्य है कि आर्थिक गतिविधि एक जटिल प्रक्रिया है और उसे प्रति व्यक्ति उत्पादक तक सीमित करना उचित नहीं है । आर्थिक संवृद्धि के दौरान बहुत से परिवर्तन होते रहते हैं जिनकी दिशाएं अलग-अलग हो सकती हैं। संभव है कि सकल राष्ट्रीय उत्पाद तो बढ़ रहा हो परन्तु प्रति व्यक्ति उत्पाद में कमी हो या फिर प्रति श्रमिक उत्पादकता तो बढ़ रही हो परन्तु प्रति व्यक्ति उपभोग कम हो रहा हो ।</div><div><br /></div><div>यदि उद्देश्य लोगों के जीवन स्तर पर हुए परिवर्तनों का अनुमान लगाना हो तो उपभोग स्तर में वृद्धि एक अत्यन्त महत्वपूर्ण सूचक होता है । परन्तु इसे आर्थिक संवृद्धि का सर्वोत्तम सूचक इसलिए नहीं माना जा सकता, क्योंकि विकास प्रकिया के दौरान बहुत से अल्प-विकसित देश जान-बूझकर उपभोग स्तर को नियंत्रित करते हैं ताकि निवेश प्रकिया को तेज किया जा सके । वस्तुतः निवेश प्रकिया को तेज करके और पूँजी निर्माण में वृद्धि करके ही आर्थिक संवृद्धि को बढ़ाया जा सकता है । इस प्रकार के प्रयासों से निवेश में वृद्धि होगी, उत्पादन क्षमता का विस्तार होगा और राष्ट्रीय आय में वृद्धि होगी, लेकिन उपभोग में कोई सुधार नहीं होगा । इस प्रकार की स्थिति को आर्थिक संवृद्धि कहा जा सकता है ।</div><div><br /></div><div>कुछ अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक संवृद्धि के विचार को सम्पत्ति और आय के न्यायपूर्ण वितरण से जोड़ने की कोशिश की है। ऐसे अर्थशास्त्रियों का मानना है कि प्रति व्यक्ति उत्पाद में वृद्धि आर्थिक संवृद्धि का महत्वपूर्ण सूचक है फिर भी उस पर ही निर्भर रहना उपयुक्त नहीं है जबतक कि राष्ट्रीय आय और सम्पत्ति की विद्यमान असमानताओं को कम नहीं किया जाता तथा इनका अधिक न्यायपूर्ण वितरण नहीं होता । नैतिक दृष्टि से यह बात बहुत अच्छी लगती है, परन्तु सैद्धान्तिक रूप से सही नहीं है । ऐसा हो सकता हे कि सकल राष्ट्रीय उत्पाद में वृद्धि होने से प्रति व्यक्ति आय स्तर में भी वृद्धि हो परन्तु आय व सम्पत्ति की असमानताएं बढ़ जाँय । आधुनिक अर्थशास्त्री निश्चय ही इस स्थिति को 'आर्थिक संवृद्धि' का नाम देते हैं हालांकि इसे आर्थिक विकास नहीं कहा जायेगा ।</div><div><br /></div><div>इस प्रकार 'आर्थिक संवृद्धि' की विभिन्न परिभाषाओं पर विचार करने पर यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि आर्थिक संवृद्धि को मापने का सर्वोत्तम तरीका प्रति व्यक्ति उत्पाद में वृद्धि को मापना है । इसलिए भारत की आर्थिक संवृद्धि से सम्बन्धित समस्याओं पर विचार करते समय प्रति व्यक्ति उत्पाद को यथोचित महत्व प्रदान किया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि संरचनात्मक परिवर्तन भी कम महत्वपूर्ण नहीं है । वस्तुतः कुछ स्थितियों में तो संरचनात्मक परिवर्तन अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण होते हैं । चार्ल्स बितलहाइम 'का इस सम्बन्ध में मत है कि आर्थिक संवृद्धि की चर्चा करते समय उद्देश्य केवल मात्रात्मक परिवर्तन (अधिक उत्पादन) नहीं होना चाहिए बल्कि गुणात्मक परिवर्तन (अधिक श्रमिक उत्पादकता) पर भी ध्यान देना चाहिए । केवल इस प्रकार के गुणात्मक परिवर्तन द्वारा ही अर्थव्यवस्था उच्च विकसित स्तर पर पहुँच सकती है ।'</div><h2 style="text-align: left;">आर्थिक संवृद्धि को प्रभावित करने वाले तत्व</h2>
आर्थिक संवृद्धि को अनेक कारक कम या ज्यादा प्रभावित करते है। कुछ कारक आर्थिक संवृद्धि को बढाते है और कुछ कारक संवृद्धि को कम करते है। अलग - अलग अर्थशास्त्र की विचारधाराओं के अनुसार आर्थिक संवृद्धि के अलग कारक है। क्लासिकल अर्थशास्त्रीयों के अनुसार पूजीं निर्माण आर्थिक संवृद्धि का सबसे बडा कारक है। अलग - अलग अर्थशास्त्रियों ने अलग - अलग कारकों केा आर्थिक संवृद्धि का कारक बताया है।<br /><br /></div><div>
प्रो0 शुम्पीटर के अनुसार ‘नव-प्रवर्तन आर्थिक विकास का आवश्यक तत्व है।<br />
प्रो0 रोस्टोव ने पूंजी निर्माण और श्रम - शक्ति को आर्थिक विकास का कारक माना है।</div><div><br />
आर्थिक संवृद्धि को प्रभावित करने वाले कुछ कारक निम्नलिखित है।<br /><h3 style="text-align: left;">
1. प्राकृतिक साधन</h3>
एक देश के प्राकृतिक साधन उस देश के आर्थिक विकास में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। आमतौर पर यह कहा जा सकता है कि जिस देश के पास प्राकृतिक साधन जितनी मात्रा में अधिक होगें उस देश का उतनी ही मात्रा में आर्थिक विकास होगा और शीघ्र होगा। प्राकृतिक साधनों से अभिप्राय किसी देश के उन सभी भौतिक साधनों से है जो देश को प्रकृति की तरफ से उपहार स्वरूप प्राप्त होते है। एक देश की प्रकृति की ओर से उपहार स्वरूप प्राप्त होने वाले कुछ इस प्रकार है जैसे खनिज पदार्थ, वन सम्पति, जल - सम्पदा, जलवायु, वर्षा और प्राकृतिक बन्दरगाह। ये सभी प्राकृतिक साधन देश के आर्थिक विकास के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। प्राकृतिक साधनों को आर्थिक विकास के लिए कितना महत्व है। </div><div><br /></div><div>इस बारे में रिचार्ड गिल ने लिखा है कि प्राकृतिक साधन भी किसी देश के आर्थिक विकास में जनसंख्या तथा श्रम की पूर्ति की तरह महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। कृषि का विकास उपजाऊ भूमि और पानी के अभाव में नही हो पाता है। बढता औद्योगीकरण कोयला, लोहा, खनिज सम्पदा के कारण अधूरा रह जाता है। प्राकृतिक साधनों के बारे में दो बातों को याद रखना अति आवश्यक है। पहली प्राकृतिक साधन सीमित व निश्चित होते है। माननीय प्रयत्नाों से ही खोजा जा सकता है। परन्तु उनका नव - निर्माण नही किया जा सकता<br /><h3 style="text-align: left;">
4 संवृद्धि एवम् विकास का अर्थशास्त्र</h3>
है। दूसरी ओर यह भी बहुुत बडी भूल होगी कि जिस देश में जितने अधिक प्राकृतिक साधन होगें उस देश का विकास उतना ही अधिक होगा। लुइस के अनुसार ‘‘ अन्य बाते समान होने पर, लोग अल्प - साधनों की अपेक्षा समृद्ध साधनों का श्रेष्ठतर उपयोग कर सकते है। अल्पविकसित देशों के सामने सबसे बडी समस्या यह है कि उनके प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग पूर्ण रूप से नही होता है। संसाधनों का उचित रूप से प्रयोग न होना देश को अल्पविकसित बना सकता है। जबकि जापान जैसे देश जिनमें बडी कम मात्रा में प्राकृतिक संसाधन है, वे अपनी श्रेष्ठतम तकनीकी की बदौलत कम संसाधनों का भी किफायतपूर्ण प्रयोग करके विकासशील से विकसित देश की श्रेणी में आ जाते है।। इसलिए संसाधनों के उचित प्रयोग के लिए हमारे पास तकनीक भी उच्च स्तर की होनी चाहिए। कम प्राकृतिक संसाधन और उच्च तकनीक के साथ भी आर्थिक विकास संभव हो सकता है।<br /><h3 style="text-align: left;">
2. श्रम अथवा मानवीय साधन</h3>
मानवीय साधनों की अभिप्राय किसी देश में निवास करने वाली जनसंख्या से है। व्यष्टि अर्थशास्त्र में हमने पढा है कि श्रम और पूंजी उत्पादन के दो महत्वपूर्ण साधन है। परन्तु इन दोनों में से श्रम सबसे महत्वपूर्ण है। उत्पादन का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण साधन श्रम को माना गया है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्र एडम स्मिथ ने कहा है कि ‘‘ प्रत्येक देश का वार्षिक श्रम वह कोष है जो मूल रूप से जीवन की अनिवार्यताओं व सुविधाओं की पूर्ति करता है।’’ एक देश का आर्थिक विकास मानवीय श्रम पर निर्भर करता है। ऐसा माना जाता है कि जनसंख्या वृद्धि आर्थिक विकास की पहली आवश्यकता है। लेकिन जब जनसंख्या वृद्धि अधिक तेजी से होती है तो वह आर्थिक विकास के लिए घातक सिद्ध हो जाती है। जब तक जनसंख्या वृद्धि प्रति व्यक्ति उत्पादन पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नही डालती तब तक उस को श्रेष्ठतम माना जाता है और जब जनसंख्या वृद्धि प्रति व्यक्ति उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव डालना शुरू कर देती है तो उस जनसंख्या वृद्धि को हानिकारक माना जाता है।</div><div><br />
मानवीय शक्ति का आर्थिक विकास के लिए सही ढंग से प्रयोग करने हेतु कुछ तत्वों की आवश्यकता होती है। </div><div><ol style="text-align: left;"><li> जनसंख्या पर नियंत्रण किया जाए। </li><li>मानवीय पूंजी निर्माण को बढाया जाए।</li><li>श्रम शक्ति द्वारा उत्पादकता को बढाया जाए। </li></ol></div><div>रिचर्ड गिल के अनुसार ‘‘आर्थिक विकास एक मानवीय उपक्रम है। न की यांत्रिक प्रक्रिया मात्र है। अन्य मानवीयों उपक्रमों की भांति इसका परिणाम सही अर्थो में इसको संचालित करने वाले जन समुदायों की कुशलता गण्ुाों व प्रवृत्तियों पर निर्भर करता है। उत्पादन क्षमता में वृद्धि श्रमिकों की दक्षता के कारण होती है।<br /><br />
आर्थिक विकास के लिए जनसंख्या का उपभोग कई तरीको से कर सकते है। सबसे पहले जनसंख्या पर नियंत्रण होना चाहिए। जनसंख्या पर नियंत्रण करने के लिए परिवार नियोजन कार्यक्रम चलाने चाहिए और जन्म दर को कम करने के उपाय करने चाहिए। इसके साथ में वर्तमान में जो श्रम शक्ति है। उसके दृष्टिकोण में बदलाव करने की जरूरत है। उनमें श्रम - गौरव का महत्व उत्पन्न करने की जरूरत है। इसके लिए उनमें धार्मिक, सांस्कृतिक, संस्थागत और सामाजिक परिवर्तन करने की जरूरत है। श्रमिकों के दृृष्टिकोण में परिवर्तन करने का जिससे उनकी उत्पादकता बढ सके। सबसे अच्छा साधन उनकी अच्छी शिक्षा है। शिक्षा के साथ प्रशिक्षण भी आर्थिक विकास में अपना योगदान देता है। क्योंकि दिन - प्रतिदिन नई - नई तकनीकी उत्पादन प्रक्रिया में शामिल होती रहती है। श्रमिकों और कर्मचारियों को नई तकनीक सीखने की जरूरत होती है। ऐसा करने से इनकी उत्पादकता बढती है। प्रशिक्षण में कमी से भौतिक पूंजी की उत्पादकता काफी कम हो जाती है। प्रशिक्षण और शिक्षा
में निवेश मानव - पूंजी में निवेश है जोकि उत्पादकता को बढाता है। शिक्षण - प्रशिक्षण से आर्थिक विकास की गति तीव्र हो जाती है।<br /><h3 style="text-align: left;">
3. पूंजी</h3>
प्रो0 कुजनेट्स के अनुसार ‘‘पूंजी व पूंजी का संचय आर्थिक विकास की एक अनिवार्य आवश्यकता है।’’ आर्थिक विकास का लक्ष्य तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक देश में पर्याप्त मात्रा में पूंजी व पूंजी निर्माण नहीं हो सकता है। प्रो0 नर्कसे ने कहा है कि आर्थिक विकास की पूर्व शर्त पूंजी निर्माण ही मानी जाती रही है। किसी भी देश के आर्थिक विकास के लिए अत्यन्त मात्रा में पूंजी व पूंजीगत वस्तुओं की आवश्यकता होती है। पूंजीगत वस्तुओं के कारखाने, मशीनरी, भवन, बांध, नहरे, रेले, सडके आदि शामिल होते है। एक देश का आर्थिक विकास उतना ही अधिक होगा जितने कि उस देश के पास साधन होगें। जो देश आज के दिन विकसित कहे जाते है उनके विकसित होने का मुख्य कारण पूंजी निर्माण की ऊंची दर का होना है। पूंजी निर्माण से अभिप्राय पूंजीगत पदार्थो की ऊंची दर का होना है। पूंजी निर्माण से अभिप्राय पूंजीगत पदार्थो में वृद्धि है। </div><div><br /></div><div>अतः यह कहा जा सकता है कि जितनी मात्रा में पूंजीगत पदार्थो में वृद्धि होगी उतनी ही अधिक मात्रा में पूंजी निर्माण होगा। पूंजी निर्माण के कारण गरीब देशों को धनवान बनाया जा सकता है। हम इस निष्कर्ष पर पहूंच सकते है कि किसी भी देश के आर्थिक विकास के लिए पूंजी निर्माण की आवश्यकता है और पूंजी निर्माण पूंजी से ही सम्भव हो सकता है। वास्तविक पूंजी आर्थिक विकास का सबसे बडा निर्धारक तत्व है। आर्थिक संवृद्धि और पूंजी निर्माण में धनात्मक संबंध है। हम पूंजी भंडार का आर्थिक विकास पर प्रभाव देखने के लिए श्रम पूर्ति को स्थिर मान लिया जाता है। पूंजी निर्माण को बढाने के दो महत्वपूर्ण पहलू है एक तो राजकोषीय और दूसरा मौद्रिक। सरकार की राजकोषीय नीति बचतो को बढाने का काम करती है। गैर - आर्थिक संस्थाएं भी बचतों को प्रभावित करती है। पूंजी निर्माण सामाजिक और सांस्कृतिक प्रणाली द्वारा भी प्रभावित होती है। पूंजी निर्माण का दूसरा पहलू मौदिक विस्तार है। यह वित्तीय संस्थाओं की कार्यशैली पर निर्भर करता है। बचत इकट्ठी करने के बाद उसकी निवेेश का रूप भी देना पडता है। निवेश का लक्ष्य उच्चतम सामाजिक सीमान्त उत्पादकता होनी चाहिए।<br /><h3 style="text-align: left;">
4. तकनीक</h3>
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो0 शुम्पीटर ने भी माना है कि तकनीकी प्रगति किसी भी देश के आर्थिक विकास के लिए मुख्य घटक है। तकनीकी ज्ञान के कारण कम लागत पर वस्तुएं उत्पन्न की जा सकती है और नई वस्तुओं का उत्पादन भी सम्भव होता है। नये - नये नवप्रवतनों द्वारा भी उत्पादन को बढा कर आर्थिक विकास प्राप्त किया जा सकता है। तकनीकी पिछडेपन के कारण आर्थिक विकास में बाधा उत्पन्न होती है। उत्पादन करने के लिए अल्पविकसित देशों में तकनीक ठीक ढंग से विकसित नही हो पाती जिसके कारण आर्थिक विकास में रूकावट आती है। शोध कार्य के लिए भी तकनीक की आवश्यकता होती है। पूंजी प्रधान तकनीक का प्रयोग करके देश के आर्थिक विकास को बढावा दिया जाता है।</div>Bandeyhttp://www.blogger.com/profile/08264562445292172107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6073521150607049851.post-72776884643866118972024-02-14T16:27:00.003+05:302024-02-14T16:47:55.452+05:30पूंजी निर्माण क्या है || भारत में पूँजी निर्माण की स्थिति<p>किसी समय, किसी देश में 'पूंजी निर्माण', वह धनराशि है जो वर्ष के दौरान (1) सकल स्थायी परिसम्पत्ति अर्थात् भूमि, इमारतों, संयंत्रों और ईमानदारी तथा (2) कच्चे माल तैयार माल तथा प्रक्रियाधीन काम के स्टाक में निवेशित की जाती है।</p><p>संयुक्त राष्ट्र सांख्यिकी कार्यक्रम के अनुसार देशीय पूंजी-निर्माण देश के वर्तमान उत्पादन तथा आयात का वह भाग है, जिस लेखाविधि में उपभोग या निर्यात नहीं किया जाता और जिसे पूंजीगत माल के स्टाक में वृद्धि के लिए पृथक रखा जाता है। निवल पूंजी निर्माण भावी उत्पादन के लिए उपलब्ध अचल पूंजी (इमारतों, निर्माण कार्यों, उपकरणों एवं मशीनरी) तथा कार्यशील पूंजी (उत्पादकों के स्टाक) में वृद्धि को व्यक्त करता है। पूंजी निर्माण में यह आवश्यक होता है कि समाज अपनी वर्तमान उत्पादक सक्रियता का यह एक तात्कालिक उपभोग के लिए प्रयोग में लाये तथा एक भाग वास्तविक (वस्तु रूप) पूंजीगत माल के बनाने में लगाया जाए। संक्षेप में पूंजी निर्माण भावी उपयोग के लिए आय को बचाना तथा निवेशित करना है।</p><h2 style="text-align: left;">पूंजी-निर्माण के स्रोत</h2><p>आर्थिक विकास के लिए पूंजी तीन मुख्य स्रोतों से प्राप्त हो सकती है :-</p><p>1. विदेशी सहायता ।</p><p>2. विदेशी वाणिज्य निवेश ।</p><p>3. घरेलू बचतें और कराधान आदि।</p><p>विदेशी सहायता का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इनसे घरेलू खपत पर बिना दबाव पड़े पूंजी प्राप्त होती है। शुरू-शुरू में निम्न आय वाले अल्पविकसित देशों में जटिल मशीनरी तथा तकनीकी एंव प्रशासनिक योग्यता प्राप्त व्यक्ति देशीय स्रोतों से प्राप्त नहीं होते। इनके लिए इन देशों को विदेशी सहायता पर निर्भर होना पड़ता है। परन्तु विदेशी सहायता के परिणामस्वरूप उत्पन्न राजनीतिक तथा आर्थिक प्रतिबन्ध देश के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकते हैं। वेसै भी विदेशी सहायता की अधिकता सहायता प्राप्त देशो के लिये कोई गौरव की बात नहीं है।</p><p>विदेशी वाणिज्य निवेश भी एक प्रकार के विदेशी ऋण ही है, जिन्हें अन्ततः ब्याज समेत लौटा जाना होता है। विकास के आरम्भिक चरणों में विदेशी निवेश अधिक परिणाम में उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि उस अवस्था में उस पर प्रतिफल दर बहुत ही कम होती है। शुरू-शुरू में विदेशी वाणिज्य निवेश खनिज निष्कर्षण (मिनरल ऐक्सट्रेक्शन) तथा अन्य ऐसे उद्योगों के लिए सीमित होता है जिन्हें विदेशी ही चला सकते हैं। विनिर्माण उद्योग में विदेशी निवेश के समर्थन में बड़े परिणाम में देशीय निवेश की भी आवश्यकता होती है और किसी भी देश के आर्थिक विकास में इस तथ्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती है।</p><p>संक्षेप में, बड़े अल्प विकसित देशों में अधिकांश पूंजीगत आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था घरेलू स्रोतों से ही की जानी चाहिए।</p><p>यदि अल्प आय वाले देश सम्भावित राजनीतिक तथा आर्थिक दबावों के कारण विदेशी सहायता नहीं लेना चाहते या विदेशी निवेश को प्रोत्साहन नहीं देना चाहते तो उन्हें अपने संसाधनों पर ही आश्रित होना पड़ेगा। इन देशों में पूजी निर्माण के लिए घरेलू बचत तथा निवेश दरों को बढ़ाना आवश्यक है। दूसरे शब्दों में आर्थिक संवृद्धि के लिए बचत तथा निवेश की आवश्यकता होती है। बचत चालू आय का वह भाग है, जिसका उपभोग नहीं किया जाता, बल्कि जिसका भावी आय के स्तर का निर्माण करने के लिए निवेश किया जाता है। संक्षेप में, अधिकतम वृद्धि का अर्थ है, बचतों तथा निवेश का अधिकतमकरण ।</p><h2 style="text-align: left;">भारत में पूँजी निर्माण की स्थिति</h2><p>भारतीय अर्थव्यवस्था की नियोजन प्रक्रिया में पूँजी निर्माण की गति को तेज करना एक प्रमुख लक्ष्य रहा है। आर्थिक संवृद्धि की ऊँची दर को प्राप्त करने के लिए पूँजी निर्माण की ऊँची दर को एक आवश्यक शर्त माना गया। भारत में पूँजी निर्माण की अवधारणा को विस्तृत रूप में देखा गया है, जिसमें निर्माण कार्य आवासीय एवं गैर आवासीय भवन, भूमि सुधार, फलोद्यान विकास, मशीनरी एवं यंत्र तथा स्कन्ध में वृद्धि सम्मिलित है। पूँजी निर्माण की गणना पारिवारिक क्षेत्र, निगम क्षेत्र तथा सार्वजनिक क्षेत्र में किसी निश्चित समय में होने वाले सम्पत्ति के मूल्य में परिवर्तन का योग हैं। अर्थव्यवस्था में निवेश को भी पूँजी निर्माण के समान ही माना जाता है, क्योंकि पूँजी स्टाक की वृद्धि निवेश के कारण ही होती है। निवेश का आशय वस्तुओं जैसे- मशीन, उपकरण एवं भवन इत्यादि पर होने वाले व्यय से । अतः निवेश या विनियोग पूँजी पदार्थों की मात्रा में वृद्धि करता है। इसी कारण निवेश को पूँजी निर्माण कहा जाता है। पूँजी निर्माण के सम्बन्ध में सकल पूँजी निर्माण या विनियोग या शुद्ध पूँजी निर्माण या शुद्ध विनियोग का प्रयोग किया जाता है। एक निश्चित समयावधि में तैयार होने वाली सभी पूँजी वस्तुओं की मात्रा को सकल पूँजी निर्माण का कुल विनियोग कहा जाता है। यदि इसमें से परिसम्पत्तियों में होने वाले हास को घटा दिया जाए तो शुद्ध पूँजी निर्माण या शुद्ध विनियोग मालूम हो जाता है। वास्तव में हम पूँजी निर्माण तभी मानते हैं जबकि शुद्ध पूँजी निर्माणर में वृद्धि हो रही हो।</p><p>भारत में पूँजी निर्माण के अनुमान तो नियोजन प्रक्रिया के प्रारम्भ से ही उपलब्ध है। लेकिन अधिक वैज्ञानिक एवं व्यवस्थित आँकड़े तीसरी योजना के प्रारम्भ से ही उपलब्ध होते है। दूसरे भारत में पूँजी निर्माण की दर से सम्बन्धित आँकड़े केन्द्रीय सांख्यिकीय संगठन () तथा रिजर्ब बैंक ऑफ इण्डिया द्वारा तैयार किये जाते हैं। इसके अतिरिक्त योजना आयोग एवं अन्यसंगठन भी अनुमान प्रस्तुत करते हैं, लेकिन इन स्रोतों के अलग-अलग होने के कारण अनुमानों में भी भिन्नता पायी जाती है, इसलिए कभी-कभी यह भ्रम का विषय बन जाता है। आँकड़ों का स्रोत चाहें जो भी हो, पर नियोजन काल के लिए वे लगभग एक सी प्रवृत्ति का ही संकेत करते हैं।</p><h2 style="text-align: left;">भारत में पूँजी निर्माण हेतु बचत के स्रोत</h2><p>अर्थव्यवस्था के अन्दर पूँजी निर्माण हेतु वित्त की पूर्ति आन्तरिक या घरेलू तथा वाह्य स्रोतों से होती है। घरेलू स्रोत के अन्तर्गत पारिवारिक बचतें, सार्वजनिक एवं निगम क्षेत्रों की आय आदि को सम्मिलित किया जाता हैं। वाह्य स्त्रोतों के अन्तर्गत विदेशी सहायता, विदेशी ऋण तथा संयुक्त उपक्रम आदि आते है। देश के अन्दर उपलब्ध विनियोग संसाधनों देश की बचतें एवं अन्य देशों में किया जाने वाला पूँजी-प्रवाह सम्मिलित होता है। किसी भी अर्थव्यवस्था में आत्मनिर्भरता एवं समुचित आर्थिक विकास के लिए पूँजी निर्माण हेतु वित्त की पूर्ति सम्भव सीमा तक घरेलू बचतों से ही की जानी चाहिए, क्योंकि वाह्य स्रोत यथा विदेशी ऋण या सहयोग आदि का प्रभाव अर्थव्यवस्था में विपरीत दिशा में भी पड़ता है। आज विकासशील देश अपनी आय एवं सहायता का एक बहुत बड़ा भाग विदेशी ऋण के ब्याज को चुकाने में प्रयुक्त कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त इन विकासशील देशों को विदेशी ऋण एवं सहयोग की आड़ में शोषण किया जा सकता है। इसलिए यह आवश्यक है कि पूँजी निर्माण के घरेलू या आन्तरिक स्रोतों पर ध्यान केन्द्रित किया जाए। भारतीय अर्थव्यवस्था भी एक विकासशील अर्थव्यवस्था होने के नाते पूँजी निर्माण की इसी प्रक्रिया के अन्तर्गत देखी जानी चाहिए अतः भारत में पूँजी निर्माण के आन्तरिक स्रोतों को तीन वर्गों में देखा जा सकता है-</p><p>(क) धरेलू परिवार क्षेत्र की बचत</p><p>(ख) निजी निगम क्षेत्र की बचत</p><p>(ग) सार्वजनिक क्षेत्र की बचत </p><p>भारत में अधिकांश बचत का भाग परिवार क्षेत्र से प्राप्त होता है। जबकि औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं में पूँजी निर्माण में वित्त पूर्ति निजी निगम क्षेत्र द्वारा अधिक होती है। भारत में अभी भी निजी निगम क्षेत्र एवं सार्वजनिक या राजकीय क्षेत्र का योगदान बहुत ही कम है। वर्ष 1950-51 में सकल घरेलू उत्पाद बचत कुल राष्ट्रीय उत्पाद का 10.4 प्रतिशत थी, जिसमें से परिवार क्षेत्र का अश 7.7 प्रतिशत एवं निजी क्षेत्र अश 0.91 प्रतिशत था और 1991-92 में सकल घरेलू बचत का प्रतिशत 24.3 एवं पारिवारिक तथा निजी निगम क्षेत्र का हिस्सा क्रमशः 19.9 एवं 2.7 हो गया। इसी प्रकार सार्वजनिक क्षेत्र का हिस्सा 1950-51 में 18 प्रतिशत एवं 1991-92 में 1.7 प्रतिशत मात्र था।</p><h2 style="text-align: left;">पूँजी निर्माण की निम्न दर होने के कारण</h2><p>अब तक किये गये विश्लेषण से यह पूर्णतया स्पष्ट हो गया है कि भारत में पूंजी-निर्माण की दर बहुत ही मन्द है जो कि आर्थिक विकास को प्रभावित करती है, यह भी विश्लेषण किया जा चुका है कि घरेलू बचत एवं विनियोग निम्न पूंजी निर्माण को प्रभावित करता है। यह स्थिति भारत ही नहीं, बल्कि सभी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में पायी जाती है। अतः भारत एवं अन्य विकासशील या अल्पविकसित अर्थव्यवस्थाओं में पूंजी निर्माण की मन्द प्रगति के लिए निम्न कारणों को उत्तरदायी ठहराया जाता है :-</p><h3 style="text-align: left;">1. निर्धनता का दुष्चक्र</h3><p>अल्पविकसित देशों की एक महत्वूपर्ण विशेषता निर्धनता का दुश्चक्र होता है, जिसके कारण कम उत्पादन-कम-कम विनियोग और अन्ततः कम पूंजी निर्माण होता है। इसी निध निता के दुश्चक्र के कारण प्रभावित होकर अर्थव्यवस्था के विकास में बाधक होता है। इस प्रकार पूंजी-निर्माण का निम्न स्तर होने का यह एक कारण है।</p><h3 style="text-align: left;">2. प्रतिव्यक्ति आय कम होना</h3><p>भारत में अभी भी तुलनात्मक रूप में प्रतिव्यक्ति आय का स्तर बहुत ही नीचा है। आय का स्तर निम्न होने के कारण लोगों में बचत की सामर्थ्य कम होती है। कुछ पाश्चात्य अर्थशास्त्री विकासशील देशों में बचत के निम्नस्तर का निम्न कारण प्रतिव्यक्ति आय ही मानते है। परन्तु इस बिन्दु पर काफी मतभेद है, क्योंकि किसी अर्थव्यवस्था में बचत प्रायः सम्पन्न वर्ग ही की जाती है और भारत में भी यही स्थिति है। इसलिए दूसरे प्रतिव्यक्ति राष्ट्रीय आय के आधार पर बचत का सही आंकलन ही किया जा सकता है।</p><h3 style="text-align: left;">3. जनसंख्या वृद्धि</h3><p>भारत जैसे विकासशील देश में जनसंख्या वृद्धि दर तुलनात्मक रूप से ऊंची है। यह जनसंख्या वृद्धि दर पूंजी निर्माण को विपरित दिशा में प्रभावित करती है। जैसे- नयी या अतिरिक्त पूजी का एक बड़ा हिस्सा अतिरिक्त जनसंख्या के रहन-सहन के स्तर को बनाये रखने पर व्यय करना पड़ता है, जिससे विनियोग के लिए कम राशि बच पाती है। दूसरे, जनसंख्या का अधिकांश भाग निर्धन, अकुशल एवं अशिक्षित तथा रोगग्रस्त होता है, जिसके कारण उत्पादकता स्तर कम हो जाता है, जो पूंजी निर्माण में बाधक होता है, जिसके कारण उत्पादकता स्तर भी कम हो जाता है, जो पूंजी निर्माण में बाधक होता है। तीसरे श्रम शक्ति की पूर्ति अधिक होने के कारण अर्थव्यवस्था में मजदूरी का स्तर नीचा होता है, जो कि आय एवं पूंजी निर्माण पर प्रभाव डालते हैं।</p><h3 style="text-align: left;">4. निम्न उत्पादकता</h3><p>विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में उत्पादकता का स्तर नीचा होता है जिसका कारण श्रमिकों की अशिक्षा, तकनीकी ज्ञान का अभाव, निम्न जीवन स्तर तथा आर्थिक एवं सामाजिक सुविधाओं का अभाव है। वे अपने जीवन निर्वाह को किसी प्रकार से पूरा करने के लिए उत्पादन कर पाते हैं। अतिरेक सृजन न होने के कारण पूंजी निर्माण में योगदान नहीं हो पाता। यद्यपि भारत में श्रम शक्ति के अतिरिक्त निम्न उत्पादकता के और अन्य कारण भी जिम्मेदार ठहराये जाते हैं। आज देश के तमाम औद्योगिक प्रतिष्ठानों में उत्पादकता स्तर काफी नीचा है।</p><h3 style="text-align: left;">5. निजी निगम क्षेत्र का योगदान</h3><p>भारत में निजी निगम क्षेत्र से पूजी निर्माण की जितनी अपेक्षा की गयी थी, हम उससे बहुत दूर रह गये हैं। कुल घरेलू पूंजी निर्माण में निजी निगम क्षेत्र का योगदान वर्ष 1991-92 में (जी०डी०पी० प्रतिशत के रूप में) 14.5 प्रतिशत था। निजी क्षेत्र के विस्तार को देखते हुए इसे संतोषजनक नहीं कहा जा सकता है जबकि औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं में इस क्षेत्र का योगदान 50 प्रतिशत से अधिक है। अतः भारत में मन्द गति से पूंजी निर्माण के लिए निजी निगम क्षेत्र भी एक कारण है।</p><h3 style="text-align: left;">6. सार्वजनिक क्षेत्र का असंतोषजनक निष्पादन</h3><p>आज देश के सार्वजनिक क्षेत्र के विकास, विस्तार एवं निवेश को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि यह क्षेत्र अपने लक्ष्य से काफी दूर हो गया है। भारत के पूंजी-निर्माण में इसका योगदान अभी भी बहुत कम है। वर्ष 1991-92 में कुल घरेलू पूंजी-निर्माण में (जी०डी०पी० प्रतिशत के रूप में) सार्वजनिक क्षेत्र का योगदान 9.5 प्रतिशत था जिसे संतोषजनक नहीं कहा जा सकता है। इस क्षेत्र के उपक्रमों से यह आशा की गयी थी कि भविष्य में इनसे आय एवं विनियोग का स्तर ऊंचा उठाया जा सकता जायेगा। परन्तु आज सार्वजनिक क्षेत्र के अधिकांश उद्यमों की स्थिति बहुत खराब हो गयी है और उनका निष्पादन बहुत ही संतोषजनक है।</p><h3 style="text-align: left;">7. अन्तर्राष्ट्रीय प्रदर्शन प्रभाव</h3><p>आज विकसित देशों का अल्पविकसित देशों की उपभोग प्रणाली पर काफी प्रभाव पड़ा है। भारत के नगरीय क्षेत्र में पाश्चात्य उपभोग प्रणाली के स्वरूप को बड़ी तेजी से अपनाया जा रहा है। आज हम अपने उपभोग में इंग्लैण्ड आदि के उपभोग के तरीके की नकल कर रहे हैं। यही कारण है कि भारतीय शहरों का सम्पन्न वर्ग विलासिता की तमाम वस्तुओं का उपभोग कर रहा है। यह आयातित उपभोग प्रवृत्ति बचत को कम करती हैं, जिसका प्रभाव पूजी-निर्माण में कमी करना होता है। आज भारत में टेलीफोन, टेपरिकार्डर, कैमरा, रेफरीजरेटर्स तथा अन्य साज सज्जा एवं प्रसाधन सामग्री की मांग आय-विषमता एवं प्रदर्शन प्रभाव के कारण है।</p><p>उपर्युक्त कारण मुख्य से भारत में पूंजी निर्माण की मन्द गति के लिए उत्तरदायी ठहाराये जाते हैं। परन्तु इसके अतिरिक्त कुछ उप-कारकों को भी भारत में पूंजी निर्माण को प्रभावित करने वाला कारक माना जाता है। यथा-योग्य एवं साहसी व्यक्ति का अभाव, वित्तीय संस्थाओं का कम विस्तार, असंतुलित विकास, कर नीति आदि।</p>Bandeyhttp://www.blogger.com/profile/08264562445292172107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6073521150607049851.post-60769618046056847102024-02-11T16:15:00.000+05:302024-02-11T16:15:35.414+05:30संत रविदास जी का सम्पूर्ण इतिहाससंत रविदास का जन्म वर्तमान उत्तर प्रदेश के तत्कालीन अवध प्रान्त के प्रसिद्ध ऐतिहासिक धर्मस्थली काशी नगरी (बनारस) छावनी से लगभग 04 किलोमीटर दूर माण्डूर (मंडवाडीह) नामक गाँव में हुआ था। चौदहवीं शताब्दी में जन्में संत रविदास की जन्मतिथि के बारे में विद्वानों में मत भिन्नता देखने को मिलती है। उनके जन्म तिथि के संदर्भ में अनेकों मत विभिन्न ग्रन्थों, साहित्यों में इस प्रकार उल्लिखित हैं-<div><p></p><ol><li>डॉ धर्मपाल मैनी संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1441 तदनुसार 27 जनवरी सन् 1385 ई0 मानते हैं।</li><li>डॉ0 आर0एल0 हांडा संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1444, 24 जनवरी सन् 1388 ई0 मानते हैं।</li><li> डॉ0 गंगाराय गर्ग संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1444, 24 जनवरी सन् 1388 ई0 मानते हैं।</li><li>डॉ0 राम कुमार वर्मा संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1445, 12 जनवरी सन् 1389 ई0 मानते हैं।</li><li>डॉ0 रामानन्द शास्त्री संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1454 से पहले मानते हैं।</li><li>डॉ0 भगवत मिश्र ने संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1455, 12 जनवरी सन् 1399 ई0 मानी है।</li><li>डॉ0 विष्णुदत्त राकेश ने संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1455, 12 जनवरी सन् 1399 ई0 मानी है।</li><li>डॉ0 दर्शन सिंह ने संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1471, 25 जनवरी सन् 1415 ई0 माना है।</li><li>डॉ0 गोविन्द त्रिगुणायक संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1471 तदनुसार 25 जनवरी सन् 1415 ई0 मानते हैं।</li><li>डॉ0 वी0पी0 शर्मा ने संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1455 तदनुसार 12 जनवरी सन् 1399 ई0 माना है।</li><li>सं0 राम प्रसाद त्रिपाठी ने संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1455, 12 जनवरी सन् 1399 ई0 मानी है।</li><li>महन्त सत्य दरबारी संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1456, 12 जनवरी सन् 1400 ई0 मानते हैं।</li><li>ज्ञानी बरकत सिंह भी संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1471 तदनुसार 25 जनवरी सन् 1415 ई0 मानते हैं।</li><li>महात्मा रामचरण कुरील ने संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1471, 25 जनवरी सन् 1415 ई0 मानी है।आचार्य पृथ्वी सिंह आजाद संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1433, सन् 1376 ई0 मानते हैं।</li></ol>इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अधिकांश विद्वान संत रविदास का जन्म 14वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में होना मानते हैं। इसलिए संत रविदास का जन्म 14वीं शताब्दी में ही हुआ। सिर्फ दिन और वर्ष में मतभेद है। इसके लिए हम डॉ0 पृथ्वी सिंह आजाद द्वारा स्वीकृत सन् 1376 ई0 ही मानना चाहेंगे क्योंकि डॉ0 शक्ति सिंह ने भाषा-विभाग, पटियाला के संगणक विभाग में गणना के आधार पर वि0सं0 1433, 25 जनवरी सन् 1376 ई0 को रविवार पड़ता है। अर्थात् वि0सं0 1433 माघ पूर्णिमा, फाल्गुन प्रविष्टे 1 दिन रविवार था। इसी दिन अर्थात् 25 जनवरी सन् 1376 ई0 को संत रविदास इस संसार में अवतरित हुए।<p></p><p>संत रविदास के पिताश्री रघुजी चमड़े के जूते बनाने का कार्य करते थे। शैक्षिक दृष्टि से संत रविदास की पारिवारिक पृष्ठभूमि अच्छी नहीं थी। भारत में संत रविदास के समकालीन परिवेश में शिक्षा जैसी सुविधायें मुहैया नहीं थी। सामान्यत: योग्यता और ज्ञान का आकलन डिग्री अथवा स्कूल, कालेजों की व्यवस्था पर आधारित न होकर व्यक्ति के वैयक्तिक ज्ञान और समझ पर निर्भर था। संत रविदास के पिता शूद्र वर्ण के थे। शूद्र वर्ण का समाज में निम्न और अन्तिम स्थान था।</p><p>अनेको ऐतिहासिक ग्रन्थों और साहित्यों में उल्लिखित है कि शूद्रों को समाज से अलग (दूर) रखा जाता था। छुआछूत के नियम अत्यन्त ही कठोर थे। संत रविदास के पिता इन सामाजिक प्रतिबन्धों से अछूते नहीं थे। ऐसी व्यवस्था से संत रविदास बिल्कुल सहमत नहीं थे परन्तु सामाजिक व्यवस्था में विद्यमान कठोर नियमों और प्रतिबन्धों पर काशी नगरी के महाराजा का कोई हस्तक्षेप नहीं था। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि तत्कालीन शासन व्यवस्था से जुड़े शासक भी ऐसी ही व्यवस्था के हिमायती और प्रतिपालक थे। ऐसी परिस्थिति में संत रविदास द्वारा विद्रोह भी किया जाना सम्भव नहीं था। यही कारण है कि संत रविदास ने समाज में विद्यमान सामाजिक व्यवस्था के निषेधों में घुटन महसूस किया और वह साधु-संतों की जमात में सम्मिलित हो गए जहाँ छुआछूत भेदभाव के प्रतिबन्ध कम और कठोर नहीं थे।</p><p></p><p>लोकप्रियता की दृष्टि से उनका नाम देश के विभिन्न भागों में आज भी अनेक नामों से प्रचलित हैं। पंजाब में ‘रैदास’, बंगाल में ‘रुईदास’, महाराष्ट्र में ‘रोहिदास’ राजस्थान में ‘रायदास’, गुजरात में ‘रोहिदास’ अथवा ‘रोहीतास’ मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश में ‘रविदास’ अथवा ‘रैदास’ नामों से उनके नामों का उल्लेख मिलता है। इस प्रकार उनके अनेक नाम देखने को मिलते हैं। उच्चारण में अन्तर जरूर देखने को मिलता है। परन्तु ये सभी नाम ‘रविदास’ या ‘रैदास’ के बिगड़े हुए रूप हैं। स्थान-स्थान की बोली एवं भाषा से प्रभावित होकर असली नाम में कुछ न कुछ परिवर्तन हो जाना स्वाभाविक है। यों तो रैदास को भी ‘रविदास’ का अपभ्रंश माना जा सकता है किन्तु अनुमान के सहारे निर्णय लेना उचित नहीं है। बेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद से प्रकाशित ‘‘रैदास की बानी’’ (1971) में संकलित पदों में ‘रैदास’ एवं ‘रविदास’ नाम की छाप मिलती है। </p><p>गुरु-ग्रन्थ साहिब में संत रविदास के 40 पद हैं, जिनमें अधिकांश पदों में उनका नाम ‘रैदास’ ही मिलता है, लेकिन कहीं-कहीं ‘रविदास’ नाम का भी उल्लेख हुआ है। समकालीन संतों की वाणियों में भी उनका नाम ‘रैदास’ एवं रविदास दोनों मिलते हैं।</p><p>गुरु ग्रन्थ साहिब की प्रामाणिकता में भी संदेह नहीं किया जा सकता। ‘रैदास रामायण’ तथा ‘रैदास की बानी’ में भी ‘रविदास’ नाम का समर्थन मिलता है। अत: यह बात स्वीकार की जा सकती है कि संत रविदास का पुकारने का नाम ‘रैदास’ भले ही प्रचलित हो, किन्तु उनका असली नाम ‘रविदास’ ही था। नाम के अपभ्रंश रूप में प्रचलित हो जाने का एक कारण यह भी हो सकता है कि इनके पन्थ के अनुयायी अधिकांशत: उपेक्षित, दलित और अशिक्षित वर्ग के लोग ही रहे हैं। उनके लिए यह कठिन ही नहीं असम्भव भी था कि वे इनके नाम का शुद्ध उच्चारण कर सकते।</p><p>उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट होता है कि संत रविदास के नाम की प्रसिद्धि विभिन्न प्रान्तीय भाषाओं से प्रभावित होकर विभिन्न शब्द जैसे- रविदास, रायदास, रूईदास, रोहिदास, रोहीतास आदि संज्ञा के रूपान्तर है। जो अन्य नाम देश और काल के भेद से उन्हीं के परिवर्तित और विकसित रूप माने जा सकते हैं। काव्य-ग्रन्थों में रैदास का तत्सम रूप रविदास प्रयुक्त हुआ है, जिसे लोक प्रचलन और सुविधा की दृष्टि से अधिकांश विद्वानों ने उनका नाम रविदास ही स्वीकार किया है।।</p><p>संत रविदास का व्यक्तित्व त्याग, तपस्या से ओतप्रोत था। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि भगवान बुद्ध ने सम्पूर्ण राजपाठ और विलासिता के साधनों को छोड़कर योग, त्याग और तपस्या में अपना सम्पूर्ण जीवन विलीन कर दिया था। इसी प्रकार संत रविदास ने ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्राचीन भारतीय परम्पराओं और मूल्यों का अनुसरण करते हुए भोग और विलासिता से दूर योग और साधना को अंगीकृत किया तथा एक कल्याणकारी समाज व्यवस्था की कल्पना में तत्कालीन समाज में विद्यमान कमियों को उल्लिखित और उद्धृत करते हुए बेहतर समाज के निर्माण की कल्पना की। आधुनिकता की अंधी दौड़ में संस्कारों की उपेक्षा करना हम सभी के लिए कष्टकारी होगा। इससे मानव मूल्यों का हृास होता है, जो सामाजिकता के लिए बहुत ही घातक है। मानव मूल्यों की रक्षा के लिए संत-महापुरुषों का इतिहास त्याग, तपस्या से भरा पड़ा है।।</p><p>‘समन्वय का संदेश’ संत रविदास के व्यक्तित्व की सार्थकता को दर्शाता है। अपनी इसी विशिष्टता के कारण वह मध्यकालीन इतिहास में मानव-समाज के प्रेरणास्रोत बने। संत रविदास के समन्वय का ढंग भी उनके अनुरूप निराला था। अपने इस समन्वय के लिए उन्होंने कभी भी किसी पक्ष के अवगुणों से समझौता नहीं किया और न ही कभी उसकी कमियों को छिपाया, बल्कि वे तो अपनी सीधी-सरल तार्किक वाणी से सत्य कहने से कभी नहीं चूके।।</p><p>भारतीय मध्य युग के इतिहास में समाज के निम्न वर्ग से उद्धत संत रविदास को समाज ने ठुकराने का दु:साहस किया, लेकिन उन्होंने उस आडम्बरपूर्ण समाज को ही ठुकराकर अपने पीछे लगा लिया। समय ने उनके सामने जो भी चुनौती रखी, उससे वे भागे नहीं, बल्कि उससे जूझे। उन्होंने एक नहीं अनेको कष्ट सहे, पर सच्चाई कहने से कभी चूके नहीं। उनका झगड़ा तो समाज को गुमराह करने वालों से था, किसी जाति, धर्म या वर्ग विशेष से नहीं। यही कारण है कि समाज के सभी वर्ग के लोग उनके अपने हुए, सभी ने उन्हें अपनाया।।</p><p>संत रविदास ने ईश्वर कृपा पाने के लिए किसी भी प्रकार के जप, तप और व्रत का पालन नहीं किया। उन्होंने अपने शरीर को किसी प्रकार का कष्ट भी नहीं दिया। उन्होंने जीवन में मध्यम मार्ग अपनाया। उन्होंने अपने मन की चंचलता को रोका और उस पर अंकुश लगाया। उन्होंने काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार को शांत कर संयमित और पवित्र जीवन बिताया। उन्होंने कुशल कर्म अपनाये और लोभ, द्वेष तथा आलस्य को त्याग कर ‘‘अत्त दीपो भव’’ को अपने जीवन में अपनाया। संत रविदास ने मनुष्य के चरित्र की पवित्रता को ही मानव कल्याण का आधार माना। यही पवित्र सन्देश बुद्ध ने भी संसार को दिया था। </p><p>संत रविदास नि:स्वार्थ भाव से स्वयं कार्य करते और दूसरों को भी नि:स्वार्थ भाव से कार्य करने की सलाह देते थे। उनकी कथनी और करनी में कोई अन्तर नहीं था। उनके उपदेश सरल, सहज और सभी को सुलभ थे। उनका संदेश था कि बुरा काम न करे, बुरी बात न सोचे, अपनी जीविका के लिए बुरे काम का सहारा न लें। किसी भी काम को छोटा-बड़ा और किसी भी व्यक्ति को छोटा-बड़ा न समझे। किसी को भी न सतायें, प्राणी मात्र पर दया रखें और सभी को समान समझकर उससे प्रेम करें।।</p><h2>संत रविदास जी की आर्थिक स्थिति</h2><p>व्यवसाय के रूप में कृषि प्रमुख व्यवसाय था। जजमानी व्यवस्था सुदृढ़ रूप में विद्यमान थी। व्यवसाय का निर्धारण योग्यता के आधार पर नहीं जाति के आधार पर होता था। सामाजिक पद और प्रतिष्ठा भी जाति के आधार पर निर्धारित होती थी। सामाजिक प्रतिबन्धों और निषेधों के कारण व्यवसाय परिवर्तन किया जाना सम्भव नहीं था। आर्थिक स्थिति का निर्धारण पूर्णत: व्यावसायिक स्थिति पर निर्भर था। सामाजिक व्यवस्था इस प्रकार थी कि सम्पूर्ण समाज सामाजिक निषेधों के नियंत्रण में जकड़ा हुआ था। जिसके कारण निम्न पद वाले व्यक्ति की आर्थिक स्थिति भी निम्न ही होती थी। </p><p>संत रविदास की आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं थी परन्तु उनका स्वाभिमान, ईमानदारी और मेहनत के साथ-साथ ही आत्मबल इतना दृढ़ था कि वह भूखे रहकर भी यथा सम्भव दूसरों की मदद करते थे। कुछ साहित्यों में उल्लेख है कि संत रविदास ने किसी एक नंगे पैर व्यक्ति को पिता द्वारा मेहनत से बनाये हुए जूते दान कर दिया। जिसके कारण वह घर से निकाल दिये गये। फिर भी उन्होंने अपनी मेहनत के बल पर अपने परिवार का भरण-पोषण किया तथा समाज में विद्यमान असमानताओं के प्रति मुखर होते गए। </p><p>संत रविदास तत्कालीन परिवेश की सामाजिक विषमताओं और असमानताओं के प्रति अधिक चिन्तित थे। आर्थिक सम्पन्नता और विपन्नता का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।</p><p>संत रविदास को जन्म से ही आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ा। उनका जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ जो आर्थिक दृष्टि से निर्बल और दलित था। परिवार का पालन-पोषण भी बड़ी मुश्किल से चल पाता था। सम्पूर्ण भारत छोटी-छोटी रियासतों में बंटकर राजनीतिक दृष्टि से महत्वहीन हो गया था। इस राजनीतिक व्यवस्था का प्रभाव भारत की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ा। संत रविदास समाज के उस हिस्से से सम्बन्ध रखते थे जो शताब्दियों से शोषण का शिकार होकर छटपटा रहा था। इस प्रकार परिवार भी पूरी तरह से आर्थिक यातना का शिकार था। इस प्रकार मुगल शासनकाल में भारत की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ नहीं थी। वह विभिन्न रियासतों में बंटकर सिमट चुकी थी और उस पर भी आपस में लड़ाई झगड़े के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था समाप्ति के कगार पर थी। </p><p>ऐसे समय में अछूत कही जाने वाली जाति शूद्र को उनके जाति के आधार पर जातीय व्यवसाय अपनाना पड़ता था। इस प्रकार संत रविदास की आर्थिक दशा के विषय में वैसे ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उनकी आर्थिक दशा कैसी रही होगी।<br /></p><h2>संत रविदास जी का राजनीतिक परिदृश्य</h2><p>संत रविदास चौदहवीं शताब्दी के योग्य विचारक, समाज वैज्ञानिक व चिंतक थे। यह एक ऐसा समय था जब इस देष में मुस्लिम साम्राज्य/शासकों का साम्राज्य था। इस समय भारतवर्ष पर मुसलमानों के अत्याचारों, अनाचारों का बोलवाला था। हिन्दुओं की आँखों के सामने उनके देवालय घोषणाएँ करके गिराए जाते थे। उनके आराध्य देवताओं का अपमान किया जाता था। ऐसे समय में जनता न तो विद्रोह ही कर सकती थी और न ही वे ‘सिर झुकाए बिना’ जी ही सकती थी। अत: ऐसे समय में हृदय के आक्रोश को अपनी असहायता निराशा और दीनता से प्रभु के सम्मुख रखकर मन को शक्ति देने के अतिरिक्त और रास्ता ही क्या था?</p><p>भारत की सामाजिक दशा हिन्दू शासकों के समय से ही अव्यवस्थित थी। समाज में प्रचलित चतुर वर्ण व्यवस्था एक अभिशाप थी। जिसने समाज को संगठन की अपेक्षा विघटन की ओर अग्रसर किया। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत विभिन्न ईकाइयों में विभक्त हो गया। इस आपसी फूट के कारण भारत में मुस्लिम साम्राज्य की नींव पड़ी। समाज में चतुर वर्ण या शूद्र कही जाने वाली इन जातियों को इस शासन व्यवस्था के परिवर्तन से अपमान और तिरस्कार की दोहरी नीति का सामना करना पडा़। एक ओर सवर्ण हिन्दू अपने अत्याचारों की श्रृंखला में मनोरंजन तक भी कभी नहीं करते, दूसरी ओर राजतंत्र ने भी चतुर वर्ण के हितों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। चतुर वर्ण को समाज और शासन दोनों की यातनाओं और अत्याचारों की चक्की में पिसना पड़ा। इस भीषण समस्या का समाधान समाज और राजतंत्र के पास असम्भव हो गया तो एक सामाजिक क्रान्ति ने जन्म लिया जो पुनर्जागरण या संतों का भक्ति आन्दोलन के नाम से लोकप्रिय हुआ। इस पुनर्जागरण (भक्ति आन्दोलन) के जनक संत रविदास हुए।</p><p>संत रविदास को तत्कालीन परिवेष में अनेकों समस्याओं का सामना करना पड़ा। एक बार तत्कालीन राजा सिकन्दर लोदी को संत रविदास की महिमा ज्ञात हुई तो लोदी ने उन्हें अपने दरबार में बुलाया तथा उनको धर्म परिवर्तन के लिए विवष किया। संत रविदास ने तार्किकता पूर्ण जवाब देते हुए कहा ‘‘मुझे मिटाया जा सकता है परन्तु धर्म परिवर्तन नहीं कराया जा सकता।’’ इस प्रकार संत रविदास को अनेकों राजनीतिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा परन्तु सामाजिक चेतना की भावना को जगाने में उन्हें इन कठिनाइयों की कोई परवाह नहीं थी।</p></div><div><h2>रविदास की भक्ति भावना एवं साधना</h2><p>ईश्वरीय शक्ति अथवा ईश्वर पर विश्वास ही ईश्वरीय भक्ति कहलाती है। इस आस्था और विश्वास का माध्यम आकार-प्रकार, स्वरूप किसी भी रूप में हो सकता है। कभी कभी ईश्वरी आस्था में तल्लीन व्यक्ति ज्ञान को प्राप्त करने में उस शिखर तक पहुँच सकता है जो सोच और सैद्धान्तिक दृष्टि से पूर्णतया उपयुक्त और वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरा उतरता हो।</p><p>ईश्वर के प्रति आस्था और विश्वास को ईश्वरीय भक्ति के नाम से सम्बोधित किया जाता है। साहित्यिक दृष्टि से ईश्वरीय आस्था में विश्वास रखने वाले लोगों को समूह/धारा के रूप में सम्बोधित किया जाता है। सामान्यत: इसके दो रूप हो सकते हैं। (1) सगुण (2) निर्गुण। सगुण का अर्थ है वे लोग जो ईश्वर के प्रति अटूट विश्वास रखते हैं परन्तु उनमें तर्क और ज्ञान का बोध है। दूसरे वे लोग जो ईश्वर के प्रति आस्था रखते हैं परन्तु उनमें ज्ञान और योग्यता का अभाव है। ऐसे लोग मात्र एक दूसरे को देखकर उसी कार्य व्यवहार को अपनाते हैं जैसा दूसरों से देखा सुना है। ऐसे लोगों में ज्ञान/तर्क का पूर्णतया अभाव होता है।</p><p>यद्यपि परम्परागत साहित्यों में सगुण और निर्गुण की अवधारणा का अर्थ यह माना जाता रहा है कि सगुण का तात्पर्य मूर्ति आकार-प्रकार से है वहीं निर्गुण का अर्थ निराकार से है परन्तु समाजषास्त्ररय सिद्धान्तों का वैज्ञानिक विश्लेषण यह स्पष्ट करता है कि सगुण का तात्पर्य उस विचारधारा से है जिसमें ज्ञान और तर्क का समावेश हो तथा निर्गुण का अर्थ अज्ञानता की उस स्थिति से है जिसमें ईश्वर पर आस्था कल्पनाओं पर आधारित है। सत्यता यह है कि ईश्वरीय आस्था का तात्पर्य उन प्राकृतिक शक्तियों से है जो स्वाभाविक रूप से नियमानुसार स्वाभाविक रूप में संचालित हो रही है। इन प्राकृतिक व्यवस्थाओं के संचालन में निश्चित रूप से कोई ऐसी शक्ति है जो व्यवस्था का संचालन स्वाभाविक रूप में करती है। उदाहरणार्थ दिन-रात का होना, सर्दी, गर्मी व बरसात का परिवर्तन आदि ऐसी स्वाभाविक घटनाएँ हैं जिससे ईश्वर के प्रति आस्था अधिक दृढ़ और प्रगाढ़ होती है। दुख्र्ाीम और काम्ट ने इसी मत का समर्थन किया है।</p><p>दुख्र्ाीम के अनुसार ‘‘साधना चेतना क्षेत्र का ऐसा पुरुषार्थ है, जिसमें सामान्य श्रम एवं मनोयोग का नियोजन भी असामान्य विभूतियों एवं शक्तियों को जन्म देता है। साधारण स्थिति में हर वस्तु तुच्छ है पर यदि उसे उत्कृष्ट बना दिया जाए, तो उससे ऐसा कुछ मिलता है, जिसे विशिष्ट और महत्वपूर्ण कहा जा सकता है।’’ मानव जीवन मोटी दृष्टि से ऐसा ही एक खिलवाड़ है। मनुष्यों के बीच पाए जाने वाले आकाष-पृथ्वी जैसे अन्तर का यही कारण नजर आता है कि जीवन की ऊपरी परतों तक ही जिन्होंने मतलब रखा, उन्हें छिलका ही हाथ लगा, किन्तु जिन्होंने गहरे उतरने की चेष्टा की, उन्हें एक के बाद एक बहुमूल्य उपलब्धियाँ मिलती चली गयीं। गहराई में उतरने को अध्यात्म की भाषा में ‘साधना’ कहते हैं।</p><p>संत रविदास की साधना न तो रहस्यवाद है, ना पलायनवाद। उसमें काया कष्ट का वैसा विधान नहीं है, जैसा कि कई अतिवादी अपना दुस्साहस दिखाकर भावुक जनों पर विशिष्टता का आतंक जमाते और उस आधार पर शोषण करते देखे गए हैं। उसमें कल्पना लोक में अवास्तविक विवरण भी नहीं है, और न उसे जादू चमत्कारों की श्रेणी में गिना जा सकता है। देवताओं को वशवर्ती बनाकर या भूत-प्रेतों की सहायता लेकर मनोकामना पूरी करने-कराने जैसी ललक लिप्सा पूरी करने जैसा भी इस विद्या में कोई आधार नहीं है।</p><p> संत रविदास की साधना एक विशुद्ध विज्ञान है, जिसका वास्तविक आधार है- आत्मानुशासन का अभ्यास और क्षमताओं का उच्चस्तरीय प्रयोजन के लिए सफल नियोजन। जो इतना कर सकते हैं उन्हें सच्चे अर्थों में सिद्ध पुरुष कहा जा सकता है। </p></div>Bandeyhttp://www.blogger.com/profile/08264562445292172107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6073521150607049851.post-68122401864943933562024-01-30T16:08:00.000+05:302024-01-30T16:08:39.066+05:30केन्द्रीय सतर्कता आयोग के कार्य एवं अधिकारकेन्द्रीय सतर्कता आयोग की स्थापना सन 1964 में की गयी
थी। केन्द्रीय सतर्कता आयोग के गठन की सिफारिश संथानम समिति (1962-64) द्वारा की गयी थी,
जिसे भ्रष्टाचार रोकने से सम्बन्धित सुझाव देने के लिए गठित किया गया था। केन्द्रीय
सतर्कता आयोग सांविधिक दर्जा (statutory status) प्राप्त एक बहुसदस्यीय संस्था हे।
केन्द्रीय सतर्कता आयोग किसी भी कार्यकारी प्राधिकारी के नियन्त्रण से मुक्त हे तथा केन्द्रीय
सरकार के अन्तर्गत सभी सतर्कता गतिविधियों की निगरानी करता है। <div><br /></div><div>यह केन्द्रीय सरकारी
संगठनों में विभिन्न प्राधिकारियों को उनके सतर्कता कार्यों की योजना बनाने, निष्पादन
करने, समीक्षा करने, तथा सुधार करने में सलाह देता हे।</div><div><br /><div>
केन्द्रीय सतर्कता आयोग विधेयक संसद के दोनों सदनों द्वारा वर्ष 2003 में पारित किया
गया, जिसे राष्ट्रपति ने 11 सितम्बर 2003 को स्वीकृति दी। इसमें एक केन्द्रीय सतर्कता
आयुक्त, जो कि अध्यक्ष होता है तथा दो अन्य सतर्कता आयुक्त (सदस्य, जो दो से अधिक
नहीं हो सकते) होते हैं।<br /><br />
अप्रैल 2004 में भारत सरकार ने केन्द्रीय सतर्कता आयोग को भ्रष्टाचार के किसी भी आरोप
को प्रकट करने अथवा कार्यालय का दुरुपयोग करने सम्बन्धित लिखित शिकायतें प्राप्त
करने तथा उचित कार्यवाही की सिफारिश करने वाली एक नामित एजेंसी के रूप में प्राधिकृत किया।<br /><h2 style="text-align: left;">केन्द्रीय सतर्कता आयोग की संरचना</h2>
आयोग में एक अध्यक्ष व दो सतर्कता आयुक्त होते हैं, जिनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा एक
तीन सदस्यीय समिति की सुझाव पर होती है। इस समिति में प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष
के नेता, व केन्द्रीय गृहमंत्री होते हैं। इनका कार्यकाल 4 वर्ष अथवा 65 वर्ष की आयु तक
(जो भी पहले हो) होता है। अवकाश प्राप्ति के बाद आयोग के ये पदाधिकारी केन्द्र अथवा
राज्य सरकार के किसी भी पद को धारण करने के योग्य नहीं होते हैं।</div><div><br />
भारत के राष्टपति निम्नांकित दशाओं में आयोग के अध्यक्ष अथवा उसके सदस्यों को पद
से विमुक्त कर सकते हैं<br />
यदि वह दिवालिया घोषित हो गया हो।</div><div><br />
यदि वह नैतिक चरित्रहीनता के आधार पर किसी अपराध में केन्द्र सरकार की दृष्टि
में दोषी पाया गया हो।<br />
अपने कार्यक्षेत्र से बाहर र्कोइ लाभ का पद धारण करता हो।</div><div><br />
मानसिक अथवा शारीरिक कारणों से कार्य करने में राष्ट्रपति की दृष्टि में असमर्थ हो।
कोई अन्य आर्थिक व लाभ का पद गहण करता हो, जो आयोग के अनुसार अनुचित
है।</div><div><br />
आयोग के मुख्य आयुक्त व अन्य आयुक्तों को उनके दुराचरण व अक्षमता के आधार पर
पद से हटाया जा सकता है।<br />
137
ऐसे किसी भी अनुबंध अथवा कार्य से प्राप्त लाभ में भाग लेता हो अथवा जिसके
उपरांत प्रकट होने वाले लाभ व सुविधाएँ किसी निजी कंपनियों के सदस्यों के समान
ही प्राप्त करता हो।<br /><h2 style="text-align: left;">केन्द्रीय सतर्कता आयोग के वेतन, भत्ते, व सेवा शर्तें</h2>
केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त के वेतन, भत्ते, व अन्य सेवा शर्तें संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष के समान ही होती हैं और सतर्कता आयुक्त की संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यों के
समान होती है। कार्यकाल के दोरान इनकी सेवाओं में कोई अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया
जा सकता है।<br /><h2 style="text-align: left;">केन्द्रीय सतर्कता आयोग के कार्य एवं अधिकार </h2>
केन्द्रीय सतर्कता आयोग के सतर्कता आयोग अधिनियम, 2003 के अंतर्गत इस आयोग के कार्य एवं अधिकार हैंः</div><div><ol style="text-align: left;"><li>दिल्ली विशेष पुलिस स्थापन (केन्द्रीय अन्वेशण ब्यूरो) के कार्यकरण का अधीक्षण
करना, जहां तक वह भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के अधीन अपराधों अथवा
लोक सेवकों की कतिपय श्रेणियों के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत किसी
अपराध के अन्वेषण से संबंधित है।</li><li>दिल्ली विशेष पुलिस स्थापन (केन्द्रीय अन्वेशण ब्यूरो) को अधीक्षण के लिए निर्देश
देना, जहां तक इनका संबंध भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के अन्तर्गत अपराध के अन्वेषण से है।</li><li>केन्द्रीय सरकार द्वारा भेजे गए किसी संदर्भ पर जांच करना अथवा जांच या अन्वेषण
करवाना।</li><li>केन्द्रीय सतर्कता आयोग अधिनियम, 2003 की धारा 8 की उपधारा 2 में विनिर्दिष्ट
पदाधिकारियों के ऐसे प्रवर्ग से संबंधित किसी पदधारी के विरुद्ध प्राप्त किसी शिकायत
में जांच करना या जांच अथवा अन्वेषण कराना।</li><li>भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के अधीन अभिकथित रूप से किए गए अपराधों
में अथवा दण्ड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत किसी अपराध में दिल्ली विशेष पुलिस
स्थापन द्वारा किए गए अन्वेषणों की प्रगति का प ुनर्विलोकन करना।</li><li>भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के अधीन अभियोजन की मंजूरी के लिए सक्षम
प्राधिकारियों के पास लंबित आवेदनों की प्रगति का पुनर्विलोकन करना।
केन्द्रीय सरकार तथा इसके संगठनों को ऐसे मामलों पर सलाह देना, जो इनके द्वारा
आयोग को भेजे जाएंगे।</li><li>विभिन्न केन्द्रीय सरकारी मंत्रालयों, विभागों, तथा केन्द्रीय सरकार के संगठनों के
सतर्कता प्रशासन पर अधीक्षण करना।</li><li>केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त उस समिति का अध्यक्ष है तथा दोनों सतर्कता आयुक्त सदस्य
हैं, जिसकी सिफारिशों पर केन्द्रीय सरकार, प्रवर्तन निदेशक की नियुक्ति करती है।
केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त उस समिति का अध्यक्ष है तथा दोनों सतर्कता आयुक्त सदस्य
हैं, जिसके अन्तर्गत दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना में पुलिस अधीक्षक तथा इससे ऊपर
के स्तर के पदों पर अधिकारियों की नियुक्ति तथा इन अधिकारियों के कार्यकाल का
विस्तारण अथवा लघुकरण करने के लिए, निदेशक (केन्द्रीय अन्वेशण ब्यूरो) से परामर्श
करने के पश्चात अपने सुझाव देने का अधिकार प्राप्त है।</li></ol>
किसी भी जांच का संचालन करते समय आयोग को सिविल न्यायालय के सभी अधिकार
प्राप्त होंगे।<br /><br /></div><div>
संदर्भ -<br /><ol style="text-align: left;"><li>
केन्द्रीय सतर्कता आयोग, आलेख, 4 र्मइ 2015</li></ol></div></div>Bandeyhttp://www.blogger.com/profile/08264562445292172107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6073521150607049851.post-21962760839895036192024-01-30T16:06:00.000+05:302024-01-30T16:06:46.243+05:30विधान सभा अध्यक्ष के कर्तव्य और अधिकारआजादी के बाद भारतीय संविधान के निर्माताओं ने देश के लोकतंत्र को मजबूत
बनाने और शासन व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए केंद्रीय स्तर पर जहाँ संसद की
व्यवस्था की वहीं राज्यों में विधानसभा के गठन का प्रस्ताव किया। इसके साथ ही लोकसभा
के संचालन और गरिमा बनाए रखने के लिये लोकसभा अध्यक्ष और राज्यों में विधानसभा
अध्यक्ष के पद का प्रावधान किया।<br /><br />
राज्यों में विधानसभा अध्यक्ष सदन की कार्यवाही और उसकी गतिविधियाँ के संचालन
के लिए पूरी तरह जवाबदेह होता है। विधानसभा अध्यक्ष से यह अपेक्षित होता है कि वह
दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सभी दलों के साथ तालमेल बनाकर इस पद की गरिमा को
बरकरार रखेगा। विधानसभा अध्यक्ष का निर्विरोध निर्वाचित होना और उसका किसी भी दल के
प्रति झुकाव नहीं होने वाला स्वरूप समाज की उस राजनीतिक जागरूकता का प्रतीक है जो
लोकतंत्रीय व्यवस्था की प्रमुख आधारशिला है।<br /><br />
सीधे-सरल शब्दों में कहीं तो विधायिका का काम कानून बनाना है कार्यपालिका कानूनों
को लागू करती है और न्यायपालिका कानून की व्याख्या करती है। इन तीनों को लोकतंत्र का
आधार-स्तंभ माना जाता है।<br /><h2 style="text-align: left;">
विधानसभा अध्यक्ष के कर्तव्य और अधिकार</h2>
राज्यों की विधायिका विधानसभा के लिये निर्वाचित जनप्रतिनिधियाँ से गठित होती है।
इन जनप्रतिनिधियाँ को विधायक कहा जाता है।<br /><ol style="text-align: left;"><li>विधानसभा की कार्यवाही को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए एक अध्यक्ष और
एक उपाध्यक्ष का प्रावधान संविधान में है। </li><li>विधानसभा का गठन होने के बाद उसके प्रथम सत्र में ही विधानसभा सदस्यों द्वारा
विधानसभा अध्यक्ष चुना जाता है। </li><li>अध्यक्ष के अलावा विधानसभा के सदस्य उपाध्यक्ष का चुनाव की करते हैं जो अध्यक्ष
की अनुपस्थिति में उसका कार्यभार संभालता है।</li></ol>
विधानसभा अध्यक्ष के प्रमुख कार्यों में वहीं सब कार्य आते हैं जो लोकसभा अध्यक्ष करता है।
जैसे-<br /><ol style="text-align: left;"><li>सदन में अनुशासन बनाए रखना। </li><li>सदन की कार्यवाही का सुचारु रूप से संचालन करना। </li><li>सदस्यों को बोलने की अनुमति प्रदान करना। </li><li>पक्ष और विपक्ष में समान मत आने पर निर्णायक मत प्रदान करना।</li></ol>
पाठासीन अधिकारी यानि विधानसभा एवं विधानसभा सचिवालय का प्रमुख होता है, जिसे
संविधान प्रक्रिया नियमों एवं स्थापित संसदीय परंपराओं के तहत व्यापक अधिकार प्राप्त होते
है। विधानसभा के परिसर में उसका प्राधिकार सर्वोच्च है। सदन की व्यवस्था बनाए रखना
उसकी जिम्मेदारी होती है और वह सदन में सदस्यों से नियमों का पालन सुनिश्चित कराता
है। विधानसभा अध्यक्ष सदन के वाद-विवाद में भाग नहीं लते ा बल्कि विधानसभा की कार्यवाही
के दौरान अपनी व्यवस्थाएँ/निर्णय देता है जो बाद में नजीर के रूप में संदर्भित की जाती है।
विधानसभा में अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष सदन का संचालन करता है और दोनों की
अनुपस्थिति में सभापति रोस्टर का कोई एक सदस्य यह जिम्मेदारी निभाता है।Bandeyhttp://www.blogger.com/profile/08264562445292172107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6073521150607049851.post-40792619282160343402024-01-30T16:03:00.000+05:302024-01-30T16:03:19.191+05:30अलसी के बीजों में ये पोषक तत्व होते हैं<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiYI_AaA7zm9csrC8AzJMF0w8-r89ZT8iClxtV6U4RstcBaQ5A8ak04XKDSb57sECLl4wWoOnmgtZa8kp88pdvwrStprwIIdWXcofFVy_3DCiyVRSBk1S-REHo6V3rFhmsf3uS1PqZAiQdQGjn6gdlvS920Ez2JQj18l3samuQP8FRPUDlOhM-VBjOHYA/s543/%E0%A4%85%E0%A4%B2%E0%A4%B8%E0%A5%80%20%E0%A4%95%E0%A5%87%20%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%9C.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="अलसी के बीज के फायदे" border="0" data-original-height="343" data-original-width="543" height="253" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiYI_AaA7zm9csrC8AzJMF0w8-r89ZT8iClxtV6U4RstcBaQ5A8ak04XKDSb57sECLl4wWoOnmgtZa8kp88pdvwrStprwIIdWXcofFVy_3DCiyVRSBk1S-REHo6V3rFhmsf3uS1PqZAiQdQGjn6gdlvS920Ez2JQj18l3samuQP8FRPUDlOhM-VBjOHYA/w400-h253/%E0%A4%85%E0%A4%B2%E0%A4%B8%E0%A5%80%20%E0%A4%95%E0%A5%87%20%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%9C.jpg" title="अलसी के बीज के फायदे" width="400" /></a></div><div><br /></div>अलसी के बीज आपके स्वास्थ्य के लिए कितने
फायदेमंद हो सकते है आइए जानते है इस लेख के माध्यम से
अलसी के बीज के फायदे।<br /><h2 style="text-align: left;">अलसी के बीज के फायदे</h2>
अलसी एक ओमेगा 3 रिच फूड है। यह आपके शरीर में
एसिडिक फैट बनने से रोकता है। एक बड़े चम्मच पिसे हुए अलसी के बीजों में ये पोषक तत्व होते हैं-<div><ol style="text-align: left;"><li>प्रोटीन: 1.3 ग्राम, </li><li>काब्र्स: 2 ग्राम, </li><li>फाइबर: 1.9 ग्राम, </li><li>कुल फैट: 3 ग्राम </li><li>सैचुरेटेड फैट: 0.3 ग्राम, </li><li>मोनोअनसैचुरेटेड फैट: 0.5 ग्राम </li><li>पॉलीअनसेचुरेटेड फैट: 2.0 ग्राम</li></ol>
अलसी के बीजों को साबुत नहीं खाना चाहिए इससे
बचना चाहिए, क्योंकि आतें इसके सभी पोषक तत्त्वों को सोख
नहीं पाती है। अलसी के बीजों को पीसकर खाना सही रहता है।</div><div><br />
अलसी में प्रोटीन, विटामिन, कार्बाेहाइड्रेट, कैल्शियम,
फॉस्फोरस, मैग्नीशियम, पोटेशियम, माइक्रोग्राम फोलेट, ल्यूटिन
आदि तत्व होते हैं। जो शरीर को विभिन्न प्रकार से स्वास्थ्य लाभ
पहुंचाते हैं। आइए जानते है असली के बीज खाने के फायदे
अलसी के बीजों में प्रोटीन होने से वजन को कम किया
जा सकता है। इसलिए बढ़ा हुआ वजन कंट्रोल करना चाहते हैं
तो अलसी के बीजों का सेवन करें। अलसी के बीजों का सेवन
का सबसे अच्छा तरीका है इसके बीज या बीज के पाउडर का
सेवन करना। इस पावडर को सूप, सलाद, सब्जी, दही या जूस
के साथ सेवन किया जा सकता है।<br /><br />
अलसी के बीजों में ओमेगा-3 फैटी एसिड, प्रोटीन,
फाइबर, विटामिन और मिनरल पाए जाते है। जिसके कारण यह
पाचन को बेहतर बनाते है और हृदय रोग के खतरे को कम
करने में मदद करते है।<br /><br />
अलसी के बीजों में हाइ फाइबर और लिगनेन कंटेंट
होने के कारण इसका नियमित सेवन करने से बेड कोलेस्ट्रॉल में
मदद मिलती है जिससे आपका कोलेस्ट्रॉल का लेवल 6 से 11
प्रतिशत तक कम हो सकता है।<br /><br />
अगर अलसी के बीजों का या बीजों के पाउडर का
नियमित रूप से सेवन किया जाए तो यह आपकी त्वचा और
नाखूनों के लिए भी अच्छा हो सकता है। ये आपके बालों की
चमक और स्वास्थ्य में भी सुधार कर सकता हैं क्योंकि इनमें
आवश्यक फैटी एसिड होते हैं।<br /><br />
अलसी फाइबर का एक अच्छा सोर्स है। इसलिए अगर
इसे भोजन से सेवन करते है तो आपका पेट भरा हुआ महसूस
होता है। इसके अलावा अगर रात में सोने से पहले भी अलसी के
बीजों का सेवन किया जाता है तो यह अच्छी नींद लाने में भी
मदद करता है।<br /><br />
शाकाहारी लोगों को लिए अलसी के बीज एक अच्छा विकल्प है:
अलसी में अल्फा लाइनोइक एसिड पाया जाता है जो
अर्थराइटिस, अस्थमा तथा डायबिटीज आदि जैसे गंभीर रोगों से
लड़ने में हमारी सहायता करते हैं। शाकाहारी लोगों के शरीर में
ओमेगा 3 की मात्रा को पूरा करने के लिए अलसी के बीज एक
अच्छा विकल्प है। अलसी के बीजों का प्रतिदिन सेवन से हमारे
शरीर को अनेक प्रकार के स्वास्थ्य लाभ मिलते हैं।</div>Bandeyhttp://www.blogger.com/profile/08264562445292172107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6073521150607049851.post-26579303987076306782024-01-30T16:01:00.000+05:302024-01-30T16:01:37.761+05:30डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जीवन परिचय, पुस्तकें, सम्मान व पुरस्कार<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6FTbfxyLzOJ52k4kz5oPleRrNsz_cadqfM1WsSGpzorpnAEwetqdSMgvwtZAK7a-h0uz9_Jf8F67m5pZnST9iad9DR1VM13u81B2qgWB1q3xUyQDOgh3Ukx5Nj6j18wqlhQVNE-4vGLahhuNkPwDaFWh63XMrPA6LTkLvSrdyJKYs9lUKkdoGy_W_Eg/s404/%E0%A4%A1%E0%A4%BE.%20%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%AA%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A5%80%20%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3%E0%A4%A8.png" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जीवन परिचय" border="0" data-original-height="404" data-original-width="366" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6FTbfxyLzOJ52k4kz5oPleRrNsz_cadqfM1WsSGpzorpnAEwetqdSMgvwtZAK7a-h0uz9_Jf8F67m5pZnST9iad9DR1VM13u81B2qgWB1q3xUyQDOgh3Ukx5Nj6j18wqlhQVNE-4vGLahhuNkPwDaFWh63XMrPA6LTkLvSrdyJKYs9lUKkdoGy_W_Eg/w290-h320/%E0%A4%A1%E0%A4%BE.%20%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%AA%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A5%80%20%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3%E0%A4%A8.png" title="डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जीवन परिचय" width="290" /></a></div><div><div><br /></div><div>डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म 5 सितम्बर, 1888 को तिरुमनी गाँव, तमिलनाडु के एक छोटे से गाँव में हुआ था। इनकी माता का नाम सिताम्मा तथा पिता का नाम सर्वपल्ली किरास्वामी था। सर्वपल्ली नाम इस परिवार को विरासत में मिला था। इनके पूर्वज सर्वपल्ली गाँव के रहने वाले थे और 18वीं सदी में तिरुमनी गाँव में आकर बस गए थे। पूर्वज चाहते थे कि उनके नाम के साथ गाँव का नाम भी जुड़े, इसलिए परिजन गाँव के नाम को अपने नाम के साथ लगाने लगे थे। इनके पिता गरीब जरूर थे लेकिन विद्वान ब्राह्मण थे। <div><br /></div><div>डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के पिता पर पूरे परिवार की जिम्मेदारी थी, इसलिए राधाकृष्णन को बचपन में सुख-सुविधाएं नहीं मिल सकी। इनके चार भाई और एक बहन थी। उस समय के रीति रिवाजों के अनुसार इनका छोटी उम्र में ही विवाह हो गया था। </div></div><div><br /></div><div>1905 में डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का विवाह 10 वर्षीय कन्या सिवाकामु से हो गया
था। पत्नी को औपचारिक शिक्षा तो नहीं मिली थी लेकिन वह तेलुगू और अंग्रेजी भाषा
लिख पढ़ सकती थी। दाम्पत्य धर्म का निर्वाह करने के क्रम में दोनों को पाँच पुत्रियों
और एक पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई। पत्नी की मृत्यु 1956 में हुई।<br /><br />
आरम्भिक शिक्षा गाँव में ही हुई। आगे की शिक्षा के लिए इनके पिताजी ने इन्हें
क्रिश्चियन मिशनरी स्कूल ‘लूथर्न मिशन’ तिरुपति में दाखिल करा दिया। स्कूल के
दिनों से ही इनकी प्रतिभा सामने आने लगी थी। स्कूल के दिनों में ही उन्हानें बाइबिल
के महत्वपूर्ण अंश कंठस्थ कर लिए थे, जिसके लिए उन्हें विशेष योग्यता सम्मान भी
प्राप्त हुआ। सन् 1900 में उन्हानें वेल्लरू के काॅलिन में प्रवेश लिया। तत्पश्चात् मद्रास
के क्रिश्चियन कालेज से आगे की शिक्षा प्राप्त की। 1904 में उन्हानें कला वर्ग में
मनोविज्ञान, इतिहास और गणित विषय में स्नातक की डिग्री प्रथम श्रेणी में प्राप्त की।
1906 में उन्हानें दर्शनशास्त्र में एम.ए. किया।<br /><br />
1909 में उन्हें 20 वर्ष की आयु में मद्रास प्रेसीडेंसी काॅलिज में दर्शनशास्त्र का
प्राध्यापक बना दिया गया। इसके बाद तो लगभग 50 वर्षों तक वे देश-विदेश के
अलग-अलग संस्थानों में प्रोफेसर, प्राचार्य, उपकुलपति, कुलपति के रूप में नियुक्त
होते रहे और आगे बढ़ते रहे। 1918 में उन्हें मैसूर यूनिवर्सिटी द्वारा दर्शनशास्त्र के
प्रोफेसर के रूप में चुना गया। 1931 से 1936 तक वे आन्ध्र विश्वविद्यालय के वाइस
चांसलर रहे। 1936 में उन्हानें आक्ॅसफोर्ड यूनिवर्सिटी में दर्शनशास्त्र के प्रोफसे र के रूप
में कार्यभार सँभाला। <div><br /></div><div>1939 में उनकी शैक्षणिक यात्रा में नया मोड़ तब आया जब वे
महामना मदन मोहन मालवीय के निमंत्रण पर आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की नौकरी
छोड़कर बीएचयू पहुँचे और बीएचयू के चांसलर पद को ग्रहण किया। यहाँ से उनके
राजनीतिक जीवन की शुरुआत हुई और वे नेहरू के सम्पर्क में आए। 1940 के दशक
में उन्हें संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया। 1946 में उन्हानें भारतीय
प्रतिनिधि के रूप में यूनेस्को में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। <div><br /></div><div>1953 से 62 तक दिल्ली
विश्वविद्यालय के चासंलर रहे। 1949 से 1952 तक वे सोवियत संघ में भारत के राजदूत रहे। 1952 में सोवियत संघ बनने के बाद संविधान के अन्तर्गत नया पद सृजित करके नेहेरू ने उन्हें उपराष्ट्रपति बना दिया।<br /><br />
13 मई 1952 से 13 मई 1962 तक
उन्होंने देश के उपराष्ट्रपति के रूप में बखूबी कार्य किया।<br /><br />
13 मई 1962 को ही वे देश के राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। उनका कार्यकाल
चुनौतियों से भरा था। उनके कार्यकाल में भारत और चीन के साथ युद्ध हुए जिसमें
चीन के साथ भारत को हार का सामना करना पड़ा। वे इकलौते ऐसे राष्ट्रपति थे
जिन्होंने दो प्रधानमंत्रियों की मौत देखी, दो युद्ध देखे और दो कार्यवाहक प्रधानमंत्रियों
को शपथ दिलाई। बतौर राष्ट्रपति वे हेलीकाॅप्टर से अमरीका के व्हाइट हाउस पहुँचे।
सितम्बर 1957 में उन्हानें तीन देशों की यात्रा की।<br /><h2 style="text-align: left;">डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की पुस्तकें</h2>डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन अनेक पुस्तकें लिखीं। ज्यादातर डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की पुस्तकें अंग्रेजी में है। सन्
1926 में आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से उनकी एक चर्चित पुस्तक आई- ‘दि हिन्दू व्यू
आफ लाइफ’। 1929 में दूसरी पुस्तक आई- ‘ऐन आइडियलिस्ट व्यू आफ लाइफ’।
उनकी अन्य पुस्तकें हैं: गौतमबुद्ध: जीवन और दर्शन, धर्म और समाज, भारत और
विश्व, दि एथिक्स आफ वेदान्त, द फिलोसफी आफ रवीन्द्रनाथ टैगोर, माई सर्च फाॅर
ट्रुथ, द रेन आफ कंटम्परेरी फिलाॅसफी, रिलीजन एंड सोसायटी, इण्डियन सोसायटी,
द ऐसेंसियल आफ सायकाॅलोजी।<br /><h2>डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के सम्मान व पुरस्कार</h2>
समय-समय पर देश-विदेश में उन्हें सम्मानों व पुरस्कारों से
सम्मानित किया गया, जिनका विवरण इस प्रकार है-<br /><ol style="text-align: left;"><li>1913 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘सर’ की उपाधि प्रदान की।</li><li>1963 में इंग्लैण्ड सरकार द्वारा उन्हें ‘आर्डर आफ मैरिट’ का सम्मान प्राप्त हुआ।</li><li>1954 में जर्मन में कला और विज्ञान के विशेषज्ञ के रूप में पुरस्कृत किया गया।</li><li>1961 में जर्मन बुक ट्रेड का शांति पुरस्कार प्राप्त हुआ।</li><li>1975 में अमेरिकी सरकार द्वारा उन्हें टेम्पलटन पुरस्कार से सम्मानित किया
गया। यह सम्मान पाने वाले वे पहले गैर ईसाई व्यक्ति थे</li></ol><div>
इस पुरस्कार की सारी धनराशि उन्होंने आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी को दानस्वरूप दे
दी। 1989 में आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा डा. राधाकृष्णन् शिष्यवृत्ति संस्थावृत्ति की
स्थापना की गई और सबसे महत्वपूर्ण पुरस्कार है भारत सरकार द्वारा प्रदान किया जाने
वाला भारत का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार। 1954 में भारत सरकार द्वारा उन्हें
‘भारत-रत्न’ की उपाधि से सम्मानित किया गया।<div><br />
बीसवीं सदी के विद्वानों में डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का नाम सबसे ऊपर है।
अनेकानेक पुस्तकों के रचयिता, दर्शनशास्त्र के सुप्रसिद्ध व्याख्याता, आजाद भारत के
प्रथम उपराष्ट्रपति तथा द्वितीय राष्ट्रपति रहे डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का नाम भारतीय
इतिहास में स्वर्णाक्षरों से अंकित है। 1962 से उनके जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप
में मनाने की घोषणा की गई। उनके जन्मदिन को देश की सभी शिक्षण-संस्थाओं द्वारा
धूमधाम से शिक्षक दिवस के रूप में तो मनाया ही जाता है, साथ ही इस दिन सरकार
द्वारा देश के विख्यात और लब्धप्रतिष्ठ, समर्पित शिक्षकों को उनके योगदान के लिए
पुरस्कृत भी किया जाता है।</div></div></div></div></div></div>Bandeyhttp://www.blogger.com/profile/08264562445292172107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6073521150607049851.post-73249381700259588582024-01-30T16:00:00.000+05:302024-01-30T16:00:30.993+05:30रामकृष्ण परमहंस का जीवन परिचय एवं प्रमुख शिक्षाएं<div><br /></div>रामकृष्ण परमहंस का प्रारंभिक जीवन रामकृष्ण का जन्म 18 फरवरी 1836 ई. में बंगाल के हुगली जिले के कामापुकुर ग्राम में हुआ था। रामकृष्ण परमहंस एवं उनका योगदान पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से भारतीयों को मुक्त कराने के लिये ब्रम्ह समाज एवं आर्य समाज ने महत्वपूर्ण योगदान दिया, लेकिन हिंदू धर्म की आध्यात्मिक भावना को संतुष्ट करने का कार्य रामकृष्ण मिशन ने ही किया और भारत की आत्मा को जागृत किया।<div><div><h2 style="text-align: left;">रामकृष्ण परमहंस की प्रमुख शिक्षाएं एवं प्रमुख देन </h2><b>
1. अध्यात्मवाद- </b>रामकृष्ण परमहंस की सबसे बड़ी देन अध्यात्मवाद है, अपने सरल
उपदेशों एवं जीवन के यथार्थ उदाहरणों से वेदों और उपनिषदो के जटिल
ज्ञान को साधारण व्यक्तियों के निकट कर दिया। वे हिंदू अध्यात्मवाद के
जीवित स्वरूप थे। उनका कहना था कि मनुष्य का मुख्य लक्ष्य ईश्वर की
प्राप्ति होना चाहिये जो अध्यात्मवाद द्वारा ही संभव है। वे ज्ञान से अधिक
चरित्र निर्माण पर जोर देते थे।<br /><br /><b>
2. सभी धर्मो में एकता का विश्वास जागृत करना- </b>रामकृष्ण परमहंस की
महत्वपूर्ण देन सभी धर्मों की एकता में विश्वास को जागृत करना था।
उन्होंने स्पष्ट किया कि सभी धर्म ईश्वर प्राप्ति के विभिन्न मार्ग है। उनका
कहना था कि ‘‘ईश्वर एक है, लेकिन उसके विभिन्न स्वरूप है
जैसे एक घर का मालिक एक के लिये पिता, दूसरे के लिये कोई और
तीसरे के लिये पति है और विभिन्न व्यक्तियों के द्वारा विभिन्न नामों द्वारा
पुकारा जाता है, उसी प्रकार ईश्वर को उन विभिन्न नामों से पुकारा जाता
है जिस-जिस प्रकार उसका भक्त उसे देखता है।<br /><br /><b>
3. मानव मात्र की सेवा ओर सेवा ही धर्म -</b> रामकृष्ण परमहंस की तीसरी प्रमुख
देन मनुष्य मात्र की सेवा और भलाई को धर्म बनाना था। उनका मानना था
कि मनुष्य मात्र की सेवा दया भाव से करनी चाहिये। वे प्रत्येक मनुष्य को
भगवान का स्वरूप और मनुष्य की सेवा करना ईश्वर की सेवा करना मानते
थे।</div></div>Bandeyhttp://www.blogger.com/profile/08264562445292172107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6073521150607049851.post-3317778772406424212024-01-30T15:34:00.000+05:302024-01-30T15:34:05.807+05:30सेन वंश का इतिहास तथा उसके अन्य महत्वपूर्ण तथ्य<p style="text-align: center;"><img alt="सेन वंश का सम्पूर्ण इतिहास" border="0" height="299" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEghtYE1cgdoRRFAoxaOswHGbrbmBI9rs04nWm1XbankYu425RXfAGPYJwsKUwc6ZMsy025h9378tDmPE35b-e9o9zFD6vlquTaW-YUxgYeD4Jzc3GoRrrq0DmNbTwaJTt5igHZ2n9-tiiP7IBpqS1V9-Ptq8aPpDFEmkPXtYIbqTIuYHsSZhQwLRqe3ATW4/w400-h299/%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%A8%20%E0%A4%B5%E0%A4%82%E0%A4%B6%20%E0%A4%95%E0%A4%BE%20%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A3%20%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8.png" title="सेन वंश का सम्पूर्ण इतिहास" width="400" /></p><p>बंगाल में रहने वाले आधुनिक सेन लोग अपनी ही तरह प्राचीन सेन वंशी राजाओं को वैद्य मानते हैं। किन्तु यह ऐतिहासिक प्रमाणों से साबित नही होता । सेनवंशी शासकों के पूर्वपुरुषों के मूल स्थान और उत्पत्ति सम्बन्धी उल्लेख विजयसेन के देवपाड़ा अभिलेख एवं लक्ष्मणसेन के माधाइनगर अभिलेख में मिलते हैं। तदनुसार वे चन्द्रवंशी थे और उनका प्रारम्भिक पुरूष वीरसेन था, 178 जिस कुल में सामन्त सेन उत्पन्न हुआ है । सामन्तसेन को कर्णाट क्षत्रियों का कुलशिरोदाम अथवा उस वंश का ग्रीवमाल एवं दक्षिणात्य क्षौणीन्द्र कहा गया है।</p><p><b>विजयसेन (लगभग 1065 - 1158 ई0)</b></p><p>रानी यशोदेवी से उत्पन्न उसका विजयसेन नामक पुत्र गद्दी पर बैठा । दक्षिण राढ़ा में स्थापित शूरवंश की एक राजकुमारी ( विलासदेवी) से विवाहकर उसने अपने सत्ता के विस्तार का प्रयत्न किया। रामपाल की मृत्यु के बाद पालों की अवनति का लाभ उठाकर विजयसेन ने धीरे- धीरे अपनी सत्ता पूर्वी बंगाल और उत्तरी बंगाल के बहुत बड़े भाग पर स्थापित कर ली । यद्यपि हमें यह स्पष्ट रूप से ज्ञात नही कि उसने सैनिक और राजनीतिक सफलताएं किस क्रम में अथवा किस प्रकार प्राप्त की । गोडराज पर विजय सेन की विजय को सर्वाधिक महत्व दिया जाना चाहिए। उसके देवपाड़ा अभिलेख में कहा गया है कि गौडराज युद्ध न कर पराङमुख हो गया । यह गौडराज पालशासक मदनपाल था। विजयसेन की शक्ति का प्रारम्भिक केन्द्र और उसकी राजधानी पूर्वी बंगाल में विक्रमपुर थी। उसने परमेश्वर, परमभट्टारक, महाराजाधिराज एवं अरिराजवृषभशंकर जैसे गौरव सूचक विरूद धारण किये। उसकी राजनीतिक सफलताओं और अन्य उपलब्धियों से आकृष्ट होकर श्री हर्ष ने विजय प्रशस्ति और गौंडों र्विशप्रशस्ति नामक काव्यों की रचना की। 176</p><p><b>वल्लालसेन (लगभग 1156 - 1176 ई0)</b></p><p>सन् 1158-1156 के आसपास विजयसेन की मृत्यु हो गयी और विलासदेवी से उत्पन्न उसका पुत्र वल्लालसेन राज्य का उत्तराधिकारी हुआ । उसके विशेष सैनिक विजय की जानकारी तो नही होती किन्तु यह स्पष्ट है कि उस विजयसेन से प्राप्त राजनीतिक विरासत को अक्षुण्ण बनाये रखा। उसने कदाचित गोविन्दपाल को 1162 ई0 के आसपास युद्ध में हराकर बिहार पर अधिकार कर लिया और गोंडेश्वर की वह उपाधि स्वयं धारण की जो पालशासक धारण किया करते थे। इसके संकेत सागर और वल्लालचरित नामक ग्रन्थों से प्राप्त होते हैं। लक्ष्मणसेन के माथाइनगर ताम्रफलकाभिलेख से ज्ञात होता है बल्लालसेन ने किसी चालुक्य राजा की पुत्री रामदेवी से विवाह किया। बल्लाल सेन स्वयं भी परिष्कृत बुद्धि का विद्वान था, जिसने 1061 शक संवत् 181 1166-70 ई0 में दानसागर नामक ग्रन्थ की रचना की। उसने अद्भुत सागर नामक एक दूसरा ग्रन्थ लिखना प्रारम्भ किया किन्तु उसे पूरा किये बिना ही वह गृहस्थ जीवन त्याग कर अपने अन्तिम दिन बिताने संगम चला गया। इस ग्रन्थ को पूर्ण लक्ष्मणसेन ने किया ।</p><p><b>लक्ष्मणसेन (लगभग 1176 - 1205 ई0)</b></p><p>बल्लालसेन ने अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में गद्दी को त्यागकर रानी रामदेवी से उत्पन्न अपने पुत्र लक्ष्मणसेन को राज्याभिषिक्त कर दिया। वह अपने वंश का सर्वाधिक प्रसिद्ध शासक प्रतीत होता है ।</p><p><b>लक्ष्मणसेन की विजयें</b></p><p>अपने पुत्र विश्वरूप सेन के मदनपाड़ा अभिलेख 2 में वह अश्वपति, गजपति, नरपति, राजत्रयाधिपतिसेन कुलकमल विकास भास्कर सोमवंश प्रदीप परमभट्टारक परमसौरभ महाराजाधिराज अरिराजमदन शंकर गौडेश्वर जैसी लम्बी विरूदावली से विभूषित किया गया है। स्पष्ट है कि अपने पुत्रों की दृष्टि में लक्ष्मणसेन एक महान विजेता था, जिसकी सैनिक उपलब्धियां अत्यन्त महत्वपूर्ण थी। तदनुसार उसने गोंड, कामरूप, काशी और कलिंग की विजये 3 की।</p><p><b>सेन राज्य का विश्रृंखलन :</b></p><p>लक्ष्मण सेन की अनेक विशेषताओं को आँख से ओझल न करते हुए भी यह नही कहा जा सकता कि उसके अधीन रहते हुए बंगाल ने उत्तर भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण भाग लिया।4 सेन राज्य का यह विश्रृंखलन कदाचित् लक्ष्मणसेन की वृद्धावस्था की शिथिलता का परिणाम था। उसका प्रशासन ढीला हो चुका था और राज्य की सुदृढ़ता बनाये रखने की उसकी शक्ति समाप्त हो चुकी थी, जिसके पूरे प्रमाण बख्तियार खलजी के आक्रमण के समय हमें मिलते हैं।</p><p><b>बख्तियार खलजी का आक्रमण</b></p><p>1163 ई0 में मगध के बिहार नामक नगर को ध्वस्तकर बख्तियार खलजी जब कुतुबुद्दीन ऐबक के सम्मुख उपस्थित हुआ तो उसे बहुत बड़े आदर और सत्कार के साथ लखनौती भी जीतने की आज्ञा मिली।86 मिनहाजुद्दीन ने अपने तबकाते नासिरी में बख्तियार द्वारा नदिया - लखनौती की विजय का जो विवरण दिया है, वह बहुशः अतिरंजित होते हुए भी अन्य साक्ष्यों के अभाव 187 में विद्वानों द्वारा प्रायः स्वीकृत किया जा चुका है । बख्तियार ने इतनी तेजी से सेन क्षेत्रों पर धावा किया कि उसकी सेना का मुख्य भाग पीछे छूट गया और लक्ष्मणसेन (मुसलमान लेखकों का राय लखमनियां) की राजधानी नदिया पहुँचते-पहुँचते उसके पास मात्र 18 घुड़सवार बच रहे। सभी ने यह समझा कि घोड़ों को बेचने वाला कोई सौदागर है तथापि निःशक होकर वह राजमहल में घुस गया। तब तक 260 अन्य सैनिक उसके साथ आ चुके थे। महल में भगदड़ हल्ला मच जाने पर वस्तुस्थिति का पता लगा तो उसके सामने भागकर प्राण बचाने के सिवा कोई चारा नही रहा । लक्ष्मणसेन दोपहर में भोजन कर रहा था, वह नंगे पाव राजमहल के पिछले द्वार से भागा और (दक्षिणपूर्वी बंगाल) बंग चला गया। बड़ा आश्चर्य जनक प्रतीत होता है कि बख्तियार की 18 घुड़सवारों की अगली टुकड़ी को बिना किसी रोक टोक के नगर अथवा राजमहल में प्रवेश करने से किसी ने रोका नही परिणामतः नदिया और उसके साथ सारा उत्तरी बंगाल आक्रमणकारियों के सामने मानों पके फल की तरह चू गया।</p><p><b>लक्ष्मणसेन का राजदरबार :</b></p><p>भयाक्रांत लक्ष्मणसेन की तुर्क आक्रमणकारियों के सामने दुर्गति तो हुई, किन्तु सांस्कृतिक दृष्टि से उसका समय महत्वपूर्ण था। लक्ष्मणसेन की उदारता, गुणों की प्रसिद्धि की सूचनाएं उसके समय के मुसलमानों को भी थीं। राजशेखर अपने प्रबन्ध कोश में लक्ष्मण सेन की प्रशंसा करता हुआ कहता है कि वह बड़ा प्रतापी और न्यायी था तथा उसके पास विपुल राज्य और अपार सेना 160 थी । विद्वान लेखकों और कवियों को आदर और राजाश्रय देना उसकी सबसे बड़ी विशेषता थी वह स्वयं भी उच्चकोटि का विद्वान और कवि था । लक्ष्मणसेन ने अपने पिता द्वारा अधूरे छोड़े गये खगोलशास्त्र से सम्बन्धित अद्भुतसागर नामक ग्रन्थ की पूर्ति की, जो उसके वैदुष्य का ज्वलन्त उदाहरण है।</p><p><b>लक्ष्मणसेन के उत्तराधिकारी</b></p><p>नदिया पर 1202 ई0 में बख्तिायार खलजी के आक्रमण के साथ लक्ष्मणसेन अथवा उसके वंश की समाप्ति नहीं हो गयीं । सदुक्तिकर्णामृत के एक स्थल से ज्ञात होता है कि उसकी मृत्यु 1205 ई0 में हुई।" उसके बाद क्रमशः विश्वरूपसेन और केशवसेन नामक दो पुत्रों ने दक्षिण और पूर्वी बंगाल पर लगभग 20-25 वर्षों तक शासन किया, जहां से उनके कम से कम तीन अभिलेख प्राप्त हुए हैं। यद्यपि उन अभिलेखों में उन्हें परम्परागत रूप में सभी साम्राज्यसूचक विरूद दिये गये हैं, उनके सम्बन्ध में किसी निश्चित राजनीतिक तथ्य की जानकारी नही होती ।</p>Bandeyhttp://www.blogger.com/profile/08264562445292172107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6073521150607049851.post-83235538066894180272024-01-30T15:29:00.000+05:302024-01-30T15:29:20.743+05:30अलाउद्दीन खिलजी के आर्थिक सुधार<p>अलाउद्दीन खिलजी 19 जुलाई 1296 ई. में सुल्तान जलाउद्दीन खिलजी की हत्या कर स्वयं को सुल्तान घोषित किया। 22 अक्टूबर 1296 ई. में दिल्ली में बलबन के राजमहल में उसने अपना राज्याभिषेक करवाया तथा दिल्ली के सिंहासन पर बैठा।</p>अलाउद्दीन दिल्ली का प्रथम सुल्तान था जिसने धर्म को राजनीति से पृथक रखा। उसके शासनकाल में इस्लाम के सिद्धान्तों को प्रमुखता न देकर राज्यहित को सर्वोपरि रखा गया। उलेमा वर्ग को भी उसके शासनकार्यों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं था।<br /><h2>अलाउद्दीन खिलजी का प्रारंभिक जीवन</h2>अलाउद्दीन खिलजी का मूलनाम अली गुरशास्प था। वह सुल्तान जलालुद्दीन का भतीजा और दामाद था। उसके पिता शिहाबुद्दीन मसूद खिलजी बलबन के समय में एक सैनिक अधिकारी थे। जलालुद्दीन के शासनकाल में अलाउद्दीन को "अमीर-तुजुक" का पद प्राप्त हुआ। मलिक छज्जू के विद्रोह को दबाने महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के कारण जलालुद्दीन ने उसे कड़ा मानिकपुर का सूबेदार नियुक्त किया। 1292 ई. में भिलसा अभियान की सफलता के बाद अलाउद्दीन खिलजी को आरिज-ए-मुमालिक का पद दिया गया।<br /><br />1292 ई. में ही धन लूटने के उद्देश्य से उसने देवगिरि का अभियान किया। देवगिरि में प्राप्त धन से अलाउद्दीन की स्थिति और सुदृढ़ हो गयी। अब उसके अन्दर दिल्ली का सिंहासन प्राप्त करने की लालसा जागृत हुई। उसने धोखे से अपने चाचा सुल्तान जलाउद्दीन फिरोज खिलजी कड़ा मानिकपुर बुलाकर हत्या कर दी तथा स्वयं को सुल्तान घोषित किया। अलाउद्दीन खिलजी ने अपना राज्याभिषेक 22 अक्टूबर 1296 ई. में करवाया।<h2>अलाउद्दीन खिलजी के आर्थिक सुधार</h2>दिल्ली के सुल्तानों में अलाउद्दीन प्रथम सुल्तान था जिसने वित्तीय एवं राजस्व सुधारों में गहरी रुचि ली। अलाउद्दीन खिलजी को आर्थिक सुधारों की आवश्यकता इसलिए महसूस हुई। क्योंकि वह साम्राज्य का विस्तार और एक शक्तिशाली शासन प्रबंध स्थापित करना चाहता था। इन दोनों उद्देश्यों की पूर्ति आर्थिक सुधारों के बिना सम्भव नहीं थी। साम्राज्य विस्तार के लिए उसे एक विशाल और संगठित सेना की आवश्यकता थी। सेना की विशालता को बनाये रखने के लिए आर्थिक साधनों की आवश्यकता थी। अतः अलाउद्दीन ने बाजार व्यवस्था तथा भू-राजस्व व्यवस्था में सुधार किये।<br /><br />अलाउद्दीन खिलजी के आर्थिक सुधार दो प्रकार के थे-<ol><li>बाजार व्यवस्था में सुधार एवं</li><li>भू-राजस्व व्यवस्था में सुधार।</li></ol><b>1. बाजार व्यवस्था में सुधार- </b>राजस्व वसूली के लिए मुतसर्रिफ, कारकुन तथा आमिल अधिकारी होते थे। राजस्व वसूली में इनकी सहायता के लिए चौधरी (ग्राम स्तर पर) खूत (शिक स्तर पर) नियुक्त किये जाते थे। ये मध्यस्थ का कार्य करते थे। ये सभी अधिकारी दीवान-ए-विजारत के अधीन काम करते थे।<div><br /></div><div><b>2. भू-राजस्व व्यवस्था में सुधार- </b>दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों में अलाउद्दीन खिलजी पहला शासक था जिसने राजस्व सुधारों की ओर विशेष ध्यान दिया। उसने भूमि की पैमाइश कराकर उसकी वास्तविक उपज पर लगान निश्चित किया। उसने राजस्व कर प्रणाली को सुधारने के लिए "दीवान-ए-मुस्तखराज" विभाग की स्थापना की। इस विभाग का कार्य भू-राजस्व का संग्रह करना था। राजस्व सुधारों के अन्तर्गत अलाउद्दीन खिलजी ने उन सभी भूमि अनुदानों को वापस लेकर खालसा भूमि में बदल दिया। जो मिल्क, इनाम और वक्फ के रूप दिये गये थे। इस कारण इसके शासनकाल में खालसा भूमि के क्षेत्र में सर्वाधिक वृद्धि हुई। उसने मुकदमों (मुखिया), खूंतो (जमींदार) व बलाहरों से राजस्व वसूली के विशेषाधिकार वापस ले लिये।<h2>अलाउद्दीन खिलजी की कर प्रणाली</h2>अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में भू-राजस्व की दर सर्वाधिक थी। उसने उपज का 1/2 भाग भूमिकर (खराज) के रूप में वसूला। करों की अधिकता के कारण अलाउद्दीन के काल में कृषि कार्य प्रभावित हुआ। उसने लगान को अनाज के रूप में लेने को प्रमुखता दी। उसने गढ़ी (घरी) व चरी नामक दो नवीन कर लगाये। घरी कर घरों एवं झोपड़ों पर लगाया तथा चरी अथवा चराई कर दुधारू पशुओं पर लगाया। </div><div><br /></div><div>जजिया कर गैर मुस्लिमों से लिया जाता था। जकात केवल अमीर मुसलमानों से लिया जाने वाला धार्मिक कर था। जो सम्पत्ति का 40वां भाग था। खुम्स का 4/5 भाग अलाउद्दीन स्वयं रखता था एवं 1/5 भाग सैनिकों को देता था।</div><h2>अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में विद्रोह</h2><div>अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में कई विद्रोह हुए, जिनमें चार विद्रोह प्रमुख हैं।<h2><ol style="font-size: medium; font-weight: 400;"><li><b>नव मुस्लिम विद्रोह-</b> 1299 ई. में गुजरात अभियान में प्राप्त धन के बंटवारे को लेकर नव मुस्लिमों (मंगोल जो इस्लाम धर्म में परिवर्तित हो गए थे) ने विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह को नुसरत खां ने दबा दिया।</li><li><b>अकत खां का विद्रोह</b>- अकत खां को अलाउद्दीन ने वकीलदार नियुक्त किया था। जब अलाउद्दीन रणथम्भौर अभियान पर जा रहा था। अकत खां ने नव मुसलमानों के सहयोग से अलाउद्दीन पर प्राणघाती हमला किया। किन्तु अलाउद्दीन बच गया। उसने अकत खां पकड़कर मारवा दिया।</li><li><b>मंगू खां का विद्रोह- </b>अलाउद्दीन के समय का तीसरा विद्रोह मलिक उमर (बदायूं का सूबेदार) तथा मंगू खां (अवध का सूबेदार) ने किया। अलाउद्दीन खिलजी ने इन दोनों को पराजित कर मरवा दिया।</li><li><b>हाजी मौला का विद्रोह-</b> जब सुल्तान रणथंभौर के अभियान में व्यस्त था। तब बरतोल कस्बे के शहना हाजी मौला ने विद्रोह कर इल्तुतमिश के वंशज "शाही-शाह" को दिल्ली के सिंहासन पर बैठा। किन्तु सुल्तान के एक वफादार हमीमुद्दीन ने इस विद्रोह को दबा दिया।</li></ol></h2><h2>मंगोल आक्रमण</h2>1298 ई. में मंगोल सेना ने कादर खां के नेतृत्व में पंजाब एवं लाहौर पर आक्रमण किया। जालन्धर के निकट सुल्तान की सेना ने मंगोलों को परास्त कर दिया। सुल्तान की सेना का नेतृत्व जफर खां एवं उलुग खां कर रहे थे।<br /><br />मंगोलों द्वारा दूसरा आक्रमण 1298 ई. में सलदी के नेतृत्व में सेहबान पर हुआ। जफर खां ने इस आक्रमण को असफल कर दिया। 1299 ई. में मंगोलों का तीसरा आक्रमण हुआ। जफर खां ने पुनः इस आक्रमण को असफल कर दिया। किन्तु वह वीरगति को प्राप्त हो गया। इसके बाद 1303 ई. में मंगोल सेना का चौथा आक्रमण तार्गी के नेतृत्व में हुआ। किन्तु वह सीरी किले में प्रेवश नहीं कर सका।<br /><br />मंगोल सेना का पांचवा आक्रमण 1305 ई. में अलीबेग और तारताक के नेतृत्व में अमरोह पर हुआ। मलिक काफूर ने उन्हें बुरी तरह पराजित किया। 1306 ई. में मंगोलों के छठे आक्रमण को गाजी मलिक ने असफल कर दिया। अलाउद्दीन ने मंगोलों के प्रति "रक्त और तलवार" की नीति अपनाई।<br /><h2>साम्राज्य विस्तार</h2>अलाउद्दीन खिलजी साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का था। वह सिकन्दर के समान अपनी विजय पताका दूर-दूर तक फहराना चाहता था। उसने सिकन्दर द्वितीय की उपाधि धारण की थी। उसने अपनी विजयों से एक विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की। उसने उत्तर भारत के राज्यों को जीतकर उन पर प्रत्यक्ष शासन किया। दक्षिण भारत के राज्यों को अपने अधीन कर उनसे वार्षिक कर वसूला।<br /><h2>उत्तर भारत में अलाउद्दीन खिलजी के विजय अभियान</h2><b>1. गुजरात अभियान- </b>सुल्तान अलाउद्दीन का पहला सैन्य अभियान 1297 ई. में गुजरात के शासक रायकर्ण द्वितीय के विरुद्ध हुआ। गुजरात अभियान का नेतृत्व उलुग खां तथा नुसरत खां ने किया था। अहमदाबाद के निकट दोनों सेनाओं के बीच युद्ध हुआ जिसमें रायकर्ण द्वितीय पराजित हुआ। उसने अपनी पुत्री 'देवल देवी' के साथ भागकर देवगिरि के शासक रामचन्द्र देव के यहां शरण ली। गुजरात को जीतने के बाद इसे दिल्ली सल्तनत का प्रान्त बना दिया गया। अलप खां को सूबेदार नियुक्त किया गया। </div><div><br /></div><div>गुजरात अभियान के दौरान ही मलिक काफूर को एक हजार स्वर्ण दीनारों में खरीदा गया। इसलिए मलिक काफूर हजार दीनारी भी कहते हैं।</div><div><br /></div><div><b>2. जैसलमेर अभियान- </b>सुल्तान की सेना के कुछ घोड़े चुराने के कारण नुसरत खां ने जैसलमेर के शासक दूदा और उसके सहयोगी तिलक सिंह को पराजित किया।</div><div><br /></div><div><b>3. रणथम्भौर अभियान- </b>जुलाई 1301 ई. में अलाउद्दीन ने रणथंभौर के किले का घेरा डाला। वहाँ का चौहानवंशी शासक हम्मीर देव वीरगति को प्राप्त हो गया। तारीख-ए-अलाई तथा हम्मीरदेव काव्य में वहां की राजपूत स्त्रियों द्वारा जौहर का करने का वर्णन मिलता है।</div><div><br /></div><div><b>4. चित्तौड़ अभियान- </b>चित्तौड़ का किला सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण था। इसलिए अलाउद्दीन इसे प्राप्त करना चाहता था। अतः सुल्तान ने 1303 ई. में चित्तौड़ पर आक्रमण किया। चित्तौड़ का राजा रतन सिंह युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गया। राजपूत स्त्रियों ने रानी पद्यमिनी सहित जौहर कर लिया। विजय के बाद सुल्तान ने अपने पुत्र खिज्र खां के नाम पर चित्तौड़ का नाम खिज्राबाद रखा और वहां की शासन व्यवस्था खिज्र खां को सौंपकर दिल्ली वापस चला गया।</div><div><br /></div><div><b>5. मालवा विजय-</b> 1305 ई. में अलाउद्दीन ने मुल्तान के सूबेदार आईन उल मुल्क को मालवा पर अधिकार करने के लिए भेजा। मालवा का शासक महालक देव व सेनापति हरनन्द वीरगति को प्राप्त हुआ। सुल्तान की सेना ने मालवा सहित उज्जैन, धारानगरी, चंदेरी आदि को जीतकर दिल्ली सल्तनत में मिला लिया।</div><div><br /></div><div><b>6. सेवान विजय- </b>1308 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने सेवान पर आक्रमण किया। उस समय वहां का शासक परमार राजपूत शीतलदेव था। शीतलदेव ने कड़ा संघर्ष किया किन्तु अन्ततः मारा गया। उसके राज्य को दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया और कमालुद्दीन गुर्ग को वहां का इक्तादार नियुक्त किया गया।</div><div><br /></div><div><b>7. जालौर विजय- </b>जालौर में चौहानवंशी शासक कान्हादेव (कृष्णदेव तृतीय) था। 1304 ई. में उसने दिल्ली की अधीनता स्वीकार कर ली। किन्तु धीरे धीरे उसने अपने को पुनः स्वतन्त्र कर लिया। अतः 1311 ई. में सुल्तान ने कमालुद्दीन गुर्ग के नेतृत्व में एक विशाल सेना कान्हादेव के विरुद्ध भेजी। कमालुद्दीन गुर्ग ने जालौर जीत लिया और कान्हादेव व उसके सगे सम्बन्धियों को मार दिया।<div><h2>दक्षिण अभियान की<span style="font-size: medium; font-weight: 400;"> </span>अलाउद्दीन खिलजी के विजय अभियान</h2></div><div>अलाउद्दीन खिलजी की दक्षिण विजय का श्रेय मलिक काफूर को दिया जाता है। दक्षिण भारत के राज्यों को जीतने में धन की चाह थी। दक्षिणी राज्यों को जीतने के बाद उन्हें दिल्ली साम्राज्य में शामिल नहीं किया गया। बल्कि उनकी प्रशासनिक व्यवस्था पर नियंत्रण कर वार्षिक कर वसूला गया।</div><div><br /></div><div><b>1. देवगिरि अभियान- </b>मलिक काफूर का पहला दक्षिण अभियान 1307 ई. में देवगिरि के विरुद्ध था। वह देवगिरि के शासक रामचन्द्र देव को बन्दी बनाकर दिल्ली लाया। अलाउद्दीन ने रामचन्द्र देव के प्रति सम्मान पूर्ण व्यवहार किया तथा उसे रायरायन की उपाधि प्रदान की।</div><div><br /></div><div><b>2. तेलंगाना अभियान- </b>तेलंगाना की राजधानी वारंगल थी। यहां का शासक प्रतापरुद्र देव था। जनवरी 1310 ई. में मलिक काफूर ने वारंगल दुर्ग का घेरा डाला। प्रतापरुद्र देव ने आत्मसर्मपण कर दिया।</div><div><br /></div><div><b>3. द्वारसमुद्र अभियान- </b>यहां होयसल वंश के शासक वीर बल्लाल तृतीय का शासन था। 1310 ई. में मलिक काफूर ने द्वारसमुद्र पर आक्रमण किया। वीर बल्लाल तृतीय ने अलाउद्दीन की अधीनता स्वीकार कर ली।</div><div><br />अलाउद्दीन खिलजी साम्राज्यवादी होने के साथ शिक्षा और कला में भी अभिरुचि रखता था। उसके दरबार में अमीर हसन व अमीर खुसरो जैसे विद्वानों को संरक्षण प्राप्त था। उसने 46 साहित्यकारों को संरक्षण दिया था। अमीर हसन को भारत का सादी भी कहा जाता है। निर्माण कार्य के क्षेत्र में भी अलाउद्दीन का महत्वपूर्ण योगदान है। उसने अलाई-दरवाजा, जमैयत खाना मस्जिद, हजार सितून, आदि इमारतों का निर्माण करवाया। </div><div><br /></div><div>4 जनवरी 1316 ई. में इस्तिष्का रोग से पीड़ित होने के कारण उसकी मृत्यु हो गयी।</div></div>Bandeyhttp://www.blogger.com/profile/08264562445292172107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6073521150607049851.post-85349562063644485422024-01-30T15:24:00.004+05:302024-01-30T15:24:59.050+05:30अवसरवादिता का अर्थ<p>अवसर से अभिप्राय है ‘मौके की तलाश' से हैं। मानक हिन्दी कोश के अनुसार, “मौके से फायदा उठाने की प्रवृत्ति" अतः उचित समय देखकर उस समय का फायदा उठाकर लाभ अर्जित करना अवसरवादिता कहलाता है । आज प्रत्येक व्यक्ति में अवसरवादिता की प्रवृत्ति किसी-न-किसी रूप में विद्यमान है ।</p><p>संक्षिप्त हिन्दी शब्द सागर में अवसर का पर्याय 'संयोग', 'देवयोग', ‘मौका’, ‘इतफाक’, ‘समयकाल’, ‘अवकाश’ तथा 'फुरसत' । "</p><p>अवसरवादी अर्थात अवसरवाद सिद्धान्त को मानने वाला । नालन्दा विशाल शब्द सागर “जैसा समय हो वैसी ही बातें करने वाला | स्वार्थी अपनी ही बात करने वाला । " अनुसार,</p><p>व्यावहारिक रूप में अपने व्यक्तिगत लाभ-हानि को दृष्टिगत रखकर दूसरे मनुष्य को हानि-पहुँचाकर भी प्रत्येक अवसर से लाभ उठाने की मनोवृत्ति अवसरवादिता कहलाती है ।</p>Bandeyhttp://www.blogger.com/profile/08264562445292172107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6073521150607049851.post-78173968566450175052024-01-20T10:45:00.004+05:302024-01-20T10:45:49.933+05:30हिन्दी कहानी : विकास के चरण<p>कहानी का आरंभ कब हुआ होगा यह कहना बड़ा कठिन है। संभवतः मनुष्य ने जब से भावनाओं को अभिव्यक्त करने की कला को सीखा होगा या उसने जब कभी बोलना सीखा होगा तभी से कहानी की शुरुवात हुई होगी। क्योंकि बोलना या अभिव्यक्त करना मनुष्य का सहज स्वभाव है। मनुष्य जब कभी कुछ नया देखता है, सुनता है या अनुभूत करता है तो उसे अन्यों के सन्मुख व्यक्त करने की लालसा उसमें होती है। संभवतः इसी व्यक्त या अभिव्यक्त करने की लालसा के कारण ही कहानी का जन्म हुआ होगा । सृष्टि के आरंभ में जब कभी किसी वक्ता को श्रोता मिला होगा तभी से कहानी का आरंभ हुआ होगा। धीरे-धीरे जैसे समाज बनता गया और मनुष्य सामाजिक प्राणी होता गया वैसे-वैसे मनुष्य में कहानी कहने या सुनने की प्रवृत्ति बढती गई होगी । मनुष्य ने इस प्रवृत्ति को अपने विकास के साथ-साथ विकसित किया। इसी के कारण व्यक्ति-व्यक्ति के सम्बन्ध अधिक व्यापक होते गए और मनुष्य में अपनी भावनाओं और अपने संवेगो को सप्रेक्षित करने की क्षमता आ गई और तभी से मनुष्य कहानियाँ कहता और सुनता आ रहा है। मानव समाज में कहानी कहने और सुनने की प्रवृत्ति आदिम काल से चली आ रही है इसलिए हम कह सकते है कि कहानी का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना मनुष्य जाति का इतिहास है । प्राचीन साहित्य में इसकी परंपरा भी सुरक्षित है। इस दृष्टि से वैदिक साहित्य महत्त्वपूर्ण है । </p><p>भारतीय साहित्य में संस्कृत भाषा के वैदिक साहित्य की प्राचीन परंपरा दिखाई देती है। लौकिक संस्कृत साहित्य में 'पंचतंत्र', 'कथा सरित् सागर' तथा 'दशकुमार चरित' की कहानियाँ प्रसिद्ध ही है, उसी प्रकार से अनेक पौराणिक कहानियाँ भी जनमानस में प्रचलित रही । रामायण और महाभारत की कहानियाँ भी जनसामान्य में लोकप्रिय रही बुद्ध की जातक कथाएँ भी कहानी के प्रारंभिक रुप का ही परिचय देती है। इसी प्रकार से भारतीय परिवारों में बाल्यावस्था में दादी और नानी की कहानियाँ भी प्रसिद्ध रही है । देवताओं और राक्षसों तथा परियों की कहानियाँ भी सर्व सामान्य जनता में लोकप्रिय रही है, किन्तु इन कहानियों का रचना विधान आधुनिक कहानी जैसा नहीं है। आज जिसे कहानी कहा जाता है वह कहानी उपर उल्लेखीत कहानियों से बिलकुल भिन्न है ।</p><p>वर्तमान युग में जिसे कहानी कहा जाता है उसका आरंभ आधुनिक काल से ही माना जाता है, जिसपर पाश्चात्य कहानी साहित्य का गहरा प्रभाव है। आज 'कहानी' शब्द एक विशिष्ट प्रकार की रचना के लिए रुढ हो गया है, जिसके मुख्य अंग है - कथावस्तु, चरित्र चित्रण, वातावरण, उद्देश और गद्यशैली । इन विशिष्ठ अंगो में भी एकोन्मुखता, लघुविस्तार, प्रभावान्विति इ. कहानी की विशेषताएँ है। आज कहानी का अर्थ गद्य में रचित कहानी ही है।</p><h2 style="text-align: left;">1) भारतेन्दु तथा द्विवेदी युग</h2><p>हिन्दी कहानी साहित्य का इतिहास लगभग देड़ सौ वर्ष का है। वैसे हिन्दी कहानी का विकास भारतेन्दु काल से माना जाता है किन्तु भारतेन्दु युग के पूर्व भी हिन्दी कहानी की पृष्ठभूमि के रुप में कुछ ग्रंथों का उल्लेख किया जाता है जिनमें लाला लल्लुलाल का 'प्रेमसागर' (1803) मुंशी सदा सुखलाल 'नियाज' का 'सुखसागर', सदल मिश्र का 'नासिकेतोपाख्यान' (1803) और इंशा अल्लाखाँ की 'रानी केतकी की कहानी (1808) प्रमुख है। इन ग्रंथों में आधुनिक कहानी का स्वरूप तो नहीं है पर कहानी के विकास की पृष्ठभूमि इन्ही रचनाओं के कारण तैयार हुई है। हिन्दी कहानी के विकास में पत्र- पत्रिकाओं का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। भारतेन्दु युग के साथ ही हिन्दी कहानी में पत्र पत्रिकाओं द्वारा, कहानी लेखन की एक ऐसी परंपरा का आरंभ हुआ, जिसने हिन्दी कहानी को अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनाया है। इस युग में जिन पत्र पत्रिकाओं ने हिन्दी कहानी को प्राण शक्ती दी उनमें कविवचन सुधा (1867) हरिश्चंद्र मैगजीन (1873), हिन्दी प्रदीप (1877), ब्राम्हण (1880), भारत-मित्र (1887), और सरस्वती (1900) उल्लेखनीय है। सरस्वती का प्रकाशन और हिन्दी कहानी का आरंभ दोनों घटनाएँ एक दूसरे से बहुत घुली मिली है ।</p><p>इन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कहानियों का रुप बहुत कुछ अँग्रेजी और संस्कृत के नाटकों एवं कहानियों का रुपांतर मात्र ही था। इन कहानियों में लोकरंजन का तत्त्व ही प्रमुख था । इनमें प्रकाशित होनेवाली अधिकतर कहानियों में अँग्रेजी और संस्कृत साहित्य के प्रेम प्रसंगों और दैविक घटनाओं को चित्रित किया गया था। धीरे - धीरे हिन्दी में मौलिक कहानियों का सृजन होने लगा और अस्वाभाविक एवं अतिमानवीय प्रसंगों से भरी कहानियों का स्थान जीवन में घटीत होनेवाली साधारण घटनाओं को लेकर चलनेवाली कहानियों ने ले लिया। यहीं से आधुनिक युग की हिन्दी की साहित्यिक कहानियों का प्रारंभ माना जा सकता है। हिन्दी की प्रारंभिक काहनियों पर संस्कृत की पौराणिक, पारसी की किस्सागोई, अंग्रेजी की रोमांटिक तथा संस्कृत की नाट्यशैली का गहरा प्रभाव दिखाई देता है, इसलिए इस युग में लिखी गई कहानियों में आधुनिक कथा का अभाव है। इसके अतिरिक्त इसी समय बंगला से अनुदित कहानियाँ भी लिखी गई है, जिसमें सुकुमार कल्पनाओं का प्राधान्य था । बंगला से अनुवाद करनेवाले दो प्रमुख लेखक बाबू गिरीजाकुमार घोष, अर्थात लाला पार्वतीनंदन और बंग महिला है । बंग महिला ने कुछ मौलिक कहानियाँ भी लिखी है।</p><p>हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी कौन सी है ? इस प्रश्न पर विद्वानों में काफी मतभेद है । सन 1900 में सरस्वती का प्रकाशन आरंभ हुआ और इसी वर्ष पंडित किशोरीलाल गोस्वामी की 'इंदुमती' यह कहानी सरस्वती में प्रकाशित हुई । अनेक विद्वानो ने इसे हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी माना है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मतानुसार "यदि इंदुमती किसी बंगला कहानी की छाया नहीं है, तो हिन्दी की यही पहली मौलिक कहानी है।" इंदुमती कहानी पर शेक्सपीयर के टेम्पेस्ट का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है इसलिए विद्वानों ने इसे पहली मौलिक कहानी नहीं माना। डॉ बच्चन सिंह के अनुसार किशोरीलाल गोस्वामी की ही 'प्रणयिनी परिणय' (1878 ई) को हिन्दी की पहली कहानी माना है पर बाद में उन्होने ही इसे उपन्यास कहा है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल और श्रीकृष्णलाल के अनुसार बंग महिला द्वारा रचित 'दुलाईवाली' कहानी हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी है जो सन 1907 में 'सरस्वती' में प्रकाशित हुई थी। डॉ. कृष्णलाल और सुधारक पांडे ने भी 'दुलाईवाली' को यथार्थ चित्रण करनेवाली हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी माना है। डॉ. देवीप्रसाद शर्मा के अनुसार सन 1901 में 'छत्तीसगढ़ मित्र' में प्रकाशित माधवप्रसाद सप्रे की एक टोकरी भर मिट्टी' हिन्दी की पहली कहानी है। डॉ. धनजय वर्मा भी इस बात का समर्थन करते है। अनेक विद्वानों ने जयशंकर प्रसाद की 'ग्राम' कहानी को प्रथम मौलिक कहानी माना है जो 1911 में प्रकाशित हुई थी। कुछ विद्वानों ने आचार्य शुक्ल की कहानी 'ग्यारह वर्ष का समय' को प्रथम मौलिक कहानी माना है, जो सन 1903 में प्रकाशित हुई थी । हिंन्दी के प्रसिद्ध कथा लेखक राजेंद्र यादव का मत इन सबसे अलग है। वे हिन्दी की प्रथम मौलिक और कलापूर्ण कहानी 'उसने कहा था' को मानते है, जिसे पंडित चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' ने सन 1993 में लिखा था। इसी कहानी से वे आधुनिक हिंन्दी कहानी का आरंभ निर्धारित करते है। इसी समय कई मौलिक कहानियाँ लिखी गई जिनमें राजा राधिका रमण प्रसादसिंह की कहानी 'कानों में कंगना' (1913) तथा विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की कहानी 'रक्षा बंधन' (1913) में प्रकाशित हुई । राजा शिवप्रसाद सितारें 'हिन्द' की कहानी 'राजा भोज का सपना' तथा बालमुकुंद गुप्त की 'मेले का उँट' भी इसी युग में प्रकाशित प्रमुख कहानियों में है। इस प्रकार हम यह देखते है कि हिन्दी की मौलिक कहानियों में निम्नलिखीत कहानियों का उल्लेख प्रमुख रुप से किया जाता है।</p>1) प्रणयिनी परिणय किशोरीलाल गोस्वामी (1887)<br />2) सुभाषित रत्न - माधवराव सप्रे (1900)<br />3) इंदुमती - किशोरीलाल गोस्वामी (1900)<br />४) ग्यारह वर्ष का समय आचार्य रामचंद्र शुक्ल - (1903)<br />5) प्लेग की चूड़ेल मास्टर भगवानदास (1903)<br />6) पंडित और पंडितानी गिरजादत्त व्यास (1903)<br />7) दुलाईवाली - बंग महिला (1907)<br />8) ग्राम जय शंकर प्रसाद (1911)<br />9) कानो में कंगना राजा राधिकारमण प्रसादसिंह (1913)<br />10) रक्षाबंधन - विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' (1913)<p>इस सभी कहानियों में अधिकतर विद्वानों ने बंग महिला की कहानी 'दुलाईवाली' को ही कथानक और शैली की दृष्टि से हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी माना है । उपर्युक्त इन कहानीकारों के अतिरिक्त इस युग में और भी अनेक कहानीकार हुए है, जिन्होने अनेक कहानियाँ लिखी है। इस युग में लिखी गई अधिकतर कहानियों में स्थूल वर्णनों की अधिकता है और कहीं कहीं चमत्कार पूर्ण घटनाओं का प्रार्दुभाव है । इसमें संदेह नहीं कि 'दुलाईवाली', 'ग्राम', 'कानो में कंगना' और 'रक्षा बंधन' जैसी अत्यंत मौलिक और जीवन के यथार्थ से जुड़ी भारतेन्दु तथा द्विवेदी युग में बहुत कम कहानियाँ ऐसी थी, जिनको आधुनिक कहानी कहा जा सकता है। इस युग में कहानियों के नाम पर ऐसे अनेक ग्रंथ प्रकाशित हुए है, जिनमें लोकप्रचलित उपदेशात्मक या नीतिप्रधान या हास्यप्रधान कहानियाँ हुआ करती थी। इस प्रकार के कहानी संग्रह में कई ग्रंथ तो संपादित ही हुआ करते थे जैसे मुन्शीनवल किशोर के संपादन से निकला 'मनोहर कहानी' कहानी विशेषांक जो 1880 में प्रकाशित हुआ था । लगभग इसी समय शिवप्रसाद सितारे 'हिंन्द' कृत 'वामामनोरंजन' 1886, चंण्डीप्रसादसिंह कृत 'हास्यरतन' 1886 अबिंकादत्त व्यास कृत 'कथा कुसुम कलिका' 1888 आदि संग्रह प्रकाशित हुए । यह सभी ग्रंथ या तो लेखकों ने लिखे या लिखवाकर और उसे संपादित करके प्रकाशित करवाए । स्वयं भारतेन्दु हरिश्चंद्र और बालकृष्ण भट्ट ने भी स्वप्न कथाएँ लिखी है जिसे कहानी और निबंध के बीच की रचना के रुप में स्वीकार किया गया है । इस युग में काल्पनिक कथाएँ ही अधिक लिखी गई है। साथ ही साथ मध्यकालीन प्रेम कथाओं के गद्यात्मक रुपांतर भी इसी युग में लोकप्रिय हुए। 'बेताल पचिसी' और 'सिंहासन बत्तीसी' की रसात्मक कहानियाँ पाठकों को एक प्रकार की मानसिक तृष्टि दिया करती थी। इस विषय में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कथन बड़ा सटिक लगता है । "अंग्रेजी की मासिक पत्रिकाओं में जैसी छोटी-छोटी आध्यपिकाएँ यहाँ कहानियाँ निकाला करती है वैसी कहानियों की रचना 'गल्फ' के नाम से बंगभाषा में चल पडी थी। यह कहानियाँ जीवन के बड़े मार्मिक और भाव व्यंजक खंड़ चित्रों के रुप में होती थी । द्वितीय उत्थान की सारी प्रवृतियों का आभास लेकर प्रगट होनेवाली 'सरस्वती' पत्रिका में इस प्रकार की छोटी कहानियों के दर्शन होने लगे। आचार्य शुक्लजी के इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि आधुनिक हिन्दी कहानी के विकास में 'सरस्वती' पत्रिका का योगदान महत्त्वपूर्ण और ऐतिहासिक था। यह हमें स्वीकार करना पडेगा कि सरस्वती के प्रकाशन के पूर्व आधुनिक कलात्मक हिन्दी कहानियों का अस्थित्व नहीं के जैसा ही था ।</p><h2 style="text-align: left;">2) प्रसाद-प्रेमचंद युग</h2><p>हिन्दी कहानी को उस समय एक नया मोड़ मिला जिस समय कहानी साहित्य में दो महान कहानीकारों का अर्विभाव हुआ। यह दो महान कहानीकार है जयशंकर प्रसाद और प्रेमचंद । इन दोंनो कहानीकारों की यह विशेषता है कि इनकी कहानियाँ विषय, रुप, शिल्प और शैली की दृष्टि से एक दूसरे से बिलकुल भिन्न है। इन दोनों कहानीकारों ने कहानी साहित्य को नई परंपरा दी। कहानी साहित्य में दोनों के अपने रास्ते थे जो एक दूसरे से बिलकुल भिन्न थे। काल और समयानुसार जयशंकर प्रसाद का अर्विभाव हिन्दी कहानी साहित्य में प्रेमचंद के कुछ वर्ष पूर्व हुआ। यद्यपि दोनों एक ही काल के लेखक माने जाते है। प्रसाद ने हिन्दी कहानी को एक नितांत नवीन परंपरा दी । उन्होने भावमूलक परंपरा को लेकर कहानियाँ लिखी। उनकी कहानियों के विषय में ठीक ही कहा गया है कि "आधुनिक कहानी का वांछित विकास प्रसाद की भावोन्मेषिणी प्रतिभा को पाकर हुआ, जबकि उनकी सर्वप्रथम कहानी 'ग्राम' को लेकर 'इंन्दु' ने अपना प्रकाश विकिर्ण किया। प्रसाद ने अपने कल्पना के अतुल वैभव एवं प्रतिभा के दिव्य लोक से हिन्दी कहानी को ज्योतिषमान किया।'' इसमें संदेह नहीं कि जयशंकर प्रसाद ने अपनी कल्पना के अपूर्व वैभव और अदभूत प्रतिभा से हिन्दी कहानी साहित्य को अनोखी संपदा दी। 'ग्राम' कहानी के प्रकाशित होने के बाद वे लगातार कहानियाँ लिखते गये। उनकी समस्त कहानियाँ 'छाया', 'प्रतिध्वनि', 'आकाशदीप', 'आँधी' तथा इंद्रजाल नामक संग्रहो में प्रकाशित हुई है। उन्होने हिन्दी कहानी जगत में ऐसी भाव पूर्ण कहानियों का सुभारंभ किया जो प्रेमाख्यान काव्यों की गरीमा और रसमयता को समाहित किये हुए है। 'रसिया बालम' नामक उनकी कहानी इसका ज्वलंत उदाहरण है। उन्होंने अपनी कहानी में मानवीय जीवन के अंतरिक सौंदर्य का बड़ा ही मधुर अंकन किया है तथा मानवीय उदात्त भावानाओं के चित्रण के साथ पावन प्रेम का उज्वल रुप अंकित किया है। मानवीय भावनाओं का ऐसा उदात्त रुप अन्यत्र दुर्लभ है । वास्तव में प्रसाद की मूल आत्मा एक कवि की है और इसी कारण उनकी कविता में कोमल भावनाओं की सुमधुर झनकार सर्वत्र सुनाई देती है जिसमें प्रवृत्ति के मनोरम चित्रों के कारण वातावरण की शोभा कई गुना बढ़ है वह कदाचित ही कहीं मिले । प्रकृति उनकी कहानियों में मानवीय भावों की संचारिणी बनकर उपस्थित हुई है। उनकी पुरस्कार, आकाशदीप, ममता आदि कहानियाँ इसका प्रमाण है ।</p><p>जयशंकर प्रसाद ने अपनी कहानियों में चरित्रों के अर्न्तद्वंद्व का मनोवैज्ञानिक चित्रण बड़े कुशलता से किया है। मानवीय भावनाओं के अंतद्वंद्व का ऐसा मनोवैज्ञानिक अंकन करनेवाला कहानीकार दुर्लभ ही है। दो विरोधी भावनाओं के भंवर में प्रसाद के नारी पात्र किस प्रकार से गुजरते है यह पुरस्कार की 'मधुलिका' और आकाशदीप की 'चंपा' के चरित्र को पढ़ने से ज्ञात होता है। यह दोनों नारी पात्र एक ओर तो पवित्र प्रेम के प्रवाह में बहना चाहते है और दूसरी ओर एक को देशप्रेम और दूसरी को पिता की हत्या हिला देती है। प्रसाद की कुशल लेखनी इन दोंनो भावनाओं को अंकित करने में पुर्णतः सफल हुई है। भावनाओं के इस अतंस्थ सघर्ष में काव्य और दर्शन का अपूर्व समन्वय हुआ है। प्रसाद की कहानियों में अनेक स्थानों पर उनकी भाषा में गद्य काव्य जैसा आनंद पाठक अनुभूत करते है। शैली की यह विशेषता कभी कभार इतनी प्रभावपूर्ण हो जाती है कि कथानक की गती ही मंद हो जाती है । प्रसाद की उदात्त भावनाओं को उभारकर दिखाने वाली प्रमुख कहानियाँ है 'भीखारिन, 'वैरागी', 'चुड़ीवाला', 'बिसाती' 'देवदासी', आंधी आदि । 'गुन्ड़ाप्रसाद' एक उत्कष्ट कहानी है जो यथार्थवादी धारा को लेकर चली है। 'सालवती', 'ममता', नूरी आदि प्रसाद की प्रसिद्ध ऐतिहासिक कहानियाँ है। उनकी ममता कहानी में तो ममता की मुक करुणा पाठकों को द्रवित कर अति संवेदनशील बना देती है।</p><p>प्रसाद की भाव मूलक परंपरा को लेकर चलनेवाले हिन्दी में अनेक कहानीकार हुए है। इनमें प्रमुख है राधाकृष्णदास, विनोंद शंकर व्यास, हृदयेश, गोविंद वल्लभ पंत आदि । राधाकृष्णदास की कहानियों में भावों की सूक्ष्मता अधिक पायी जाती है उनके भीतर का कलाकार सर्वत्र दिखाई देता है। उन्होने अत्यंत हल्के रंगो में सूक्ष्म भावनाओं का गंभीर चित्रण किया है। हृदयेश प्रसाद की अंलकृत शैली और भावुकता को अपनाकर वातावरण के प्रभावशाली चित्रण में सफल हुए है। गोविंद वल्लभ पंत की कहानियों में कल्पना और भावनाओं का मनमोहक समन्वय हुआ है। विनोद शंकर व्यास ने प्रसाद की शैली का बहुत अनुकरण किया किन्तु प्रसाद की कहानियों सा मानवता का आदर्श उनकी कहानियों में दिखाई नहीं देता। जे. पी. श्रीवास्तव, अन्नपूर्णानंद वर्मा, गोपालप्रसाद, बेढब बनारसी आदि कहानीकार भी इसी युग में अवतिर्ण हुए । विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' लगभग इस समय अपनी प्रसिद्ध कहानी 'रक्षा बंधन' को लेकर अवतिर्ण हुए। 'ताई' उनकी बड़ी प्रसिद्ध कहानी है। लगभग इसी समय राजा राधिकारमण प्रसादसिंह की 'कानों में कंगन' जैसी भाव पूर्ण कहानी प्रकाशित हुई। इस प्रकार प्रसाद की परंपरा का निर्वाह करनेवाले अनेक कहानीकार हमें इस युग में दिखाईदेते है । इस परंपरा में परिवर्तन हुआ प्रेमचंद के आगमन से ।</p><p>हिन्दी कहानी साहित्य में प्रेमचंद का आगमन एक युगांतकारी घटना है। उन्ही के अवतरण से हिन्दी कहानी साहित्य में यथार्थवाद का आरंभ हुआ । प्रेमचंद पहले क्रांतीकारी कहानीकार है, जिन्होंने हिन्दी कहानी को कल्पना लोक से निकालकर यथार्थ की ठोस भूमिपर प्रतिष्ठित किया। उन्होंने ही सबसे पहले हिन्दी कहानी के शिल्प और शैली को नया रुप दिया और उसे सामान्य की स्तर पर प्रस्थापित किया। प्रेमचंद ही पहले कहानीकार है, जिन्होंने जन सामान्य के जीवन को कहानियों के माध्यम से प्रस्तुत किया और इस देश के किसान, मजदूर और शोषितों के जीवन को अपनी कहानियों में सशक्त अभिव्यक्ति दी । हिन्दी कहानी में सर्वप्रथम शोषित, पीड़ित, दलित और मजदूरों की समस्याओं का चित्रण प्रेमचंद ने ही किया है। जन सामान्य का जीवन, जनजीवन के चरित्र और जनसामान्य की भाषा को लेकर प्रेमचंद ने ही सर्वप्रथम हिन्दी में कहानियाँ लिखी । यही कारण है कि वे हिन्दी कहानी और उपन्यास दोनों क्षेत्रों में 'सम्राट' की उपाधि से सन्मानित किये गये ।</p><p>एक कहानीकार के रुप में प्रेमचंद की पहचान पहले उर्दू में हुई। स. न. 1907 में उनकी पाँच कहानियों का संग्रह 'सोजेवतन' के नाम से उर्दू में प्रकाशित हुआ। जहाँ वे नवाब राय के नाम से जाने जाते थे। इस कहानी संग्रह में ज्वलंत राष्ट्रभक्ति थी जिसके कारण 'सोजेवतन' कहानी संग्रह को ब्रिटिश सरकारने जब्त कर लिया था और नवाबराय के लेखन पर पांबदी लगा दी थी। वैसे प्रेमचंद का असली नाम धनपतराय है । धनपतराय या नवाबराय सन 1915 16 में 'प्रेमचंद' के नाम से अवतिर्ण हुए और उसी समय उनकी प्रथम हिन्दी कहानी 'पंचपरमेश्वर' प्रकाशित हुई । इसी कहानी से प्रेमचंद की कहानी यात्रा आरंभ होती है जो लगभग तीन सौ कहानियाँ लिखकर पूर्ण होती है । प्रेमचंद कहानी साहित्य में महान इसलिए नहीं है कि उन्होंने तीन सौ कहानियाँ लिखी बल्कि वे इसलिए महान है कि उनकी कोई भी कहानी विश्व के किसी भी महान कहानीकार के कहानियों के समक्ष प्रथम पंक्ती में रखी जा सकती है। उन्होने अपनी कहानियों में जनजीवन का वास्तविक चित्र अंकित कर अपनी अतिशूक्ष्म दृष्टि से समाज के हर वर्ग का निरीक्षण कर उसे अपनी कला से सजीवता प्रदान की है। भारतीय समाज के प्रत्येक वर्ग का इतने निकट से उन्होने अध्ययन किया कि ऐसा लगता देते है । इस परंपरा में परिवर्तन हुआ प्रेमचंद के आगमन से ।</p><p>हिन्दी कहानी साहित्य में प्रेमचंद का आगमन एक युगांतकारी घटना है। उन्ही के अवतरण से हिन्दी कहानी साहित्य में यथार्थवाद का आरंभ हुआ । प्रेमचंद पहले क्रांतीकारी कहानीकार है, जिन्होंने हिन्दी कहानी को कल्पना लोक से निकालकर यथार्थ की ठोस भूमिपर प्रतिष्ठित किया। उन्होंने ही सबसे पहले हिन्दी कहानी के शिल्प और शैली को नया रुप दिया और उसे सामान्य की स्तर पर प्रस्थापित किया। प्रेमचंद ही पहले कहानीकार है, जिन्होंने जन सामान्य के जीवन को कहानियों के माध्यम से प्रस्तुत किया और इस देश के किसान, मजदूर और शोषितों के जीवन को अपनी कहानियों में सशक्त अभिव्यक्ति दी । हिन्दी कहानी में सर्वप्रथम शोषित, पीड़ित, दलित और मजदूरों की समस्याओं का चित्रण प्रेमचंद ने ही किया है। जन सामान्य का जीवन, जनजीवन के चरित्र और जनसामान्य की भाषा को लेकर प्रेमचंद ने ही सर्वप्रथम हिन्दी में कहानियाँ लिखी । यही कारण है कि वे हिन्दी कहानी और उपन्यास दोनों क्षेत्रों में 'सम्राट' की उपाधि से सन्मानित किये गये ।</p><p>एक कहानीकार के रुप में प्रेमचंद की पहचान पहले उर्दू में हुई। स. न. 1907 में उनकी पाँच कहानियों का संग्रह 'सोजेवतन' के नाम से उर्दू में प्रकाशित हुआ। जहाँ वे नवाब राय के नाम से जाने जाते थे। इस कहानी संग्रह में ज्वलंत राष्ट्रभक्ति थी जिसके कारण 'सोजेवतन' कहानी संग्रह को ब्रिटिश सरकारने जब्त कर लिया था और नवाबराय के लेखन पर पांबदी लगा दी थी। वैसे प्रेमचंद का असली नाम धनपतराय है । धनपतराय या नवाबराय सन 1915 में 'प्रेमचंद' के नाम से अवतिर्ण हुए और उसी समय उनकी प्रथम हिन्दी कहानी 'पंचपरमेश्वर' प्रकाशित हुई । इसी कहानी से प्रेमचंद की कहानी यात्रा आरंभ होती है जो लगभग तीन सौ कहानियाँ लिखकर पूर्ण होती है । प्रेमचंद कहानी साहित्य में महान इसलिए नहीं है कि उन्होंने तीन सौ कहानियाँ लिखी बल्कि वे इसलिए महान है कि उनकी कोई भी कहानी विश्व के किसी भी महान कहानीकार के कहानियों के समक्ष प्रथम पंक्ती में रखी जा सकती है। उन्होने अपनी कहानियों में जनजीवन का वास्तविक चित्र अंकित कर अपनी अतिशूक्ष्म दृष्टि से समाज के हर वर्ग का निरीक्षण कर उसे अपनी कला से सजीवता प्रदान की है। भारतीय समाज के प्रत्येक वर्ग का इतने निकट से उन्होने अध्ययन किया कि ऐसा लगतादेते है । इस परंपरा में परिवर्तन हुआ प्रेमचंद के आगमन से ।</p><p>हिन्दी कहानी साहित्य में प्रेमचंद का आगमन एक युगांतकारी घटना है। उन्ही के अवतरण से हिन्दी कहानी साहित्य में यथार्थवाद का आरंभ हुआ । प्रेमचंद पहले क्रांतीकारी कहानीकार है, जिन्होंने हिन्दी कहानी को कल्पना लोक से निकालकर यथार्थ की ठोस भूमिपर प्रतिष्ठित किया। उन्होंने ही सबसे पहले हिन्दी कहानी के शिल्प और शैली को नया रुप दिया और उसे सामान्य की स्तर पर प्रस्थापित किया। प्रेमचंद ही पहले कहानीकार है, जिन्होंने जन सामान्य के जीवन को कहानियों के माध्यम से प्रस्तुत किया और इस देश के किसान, मजदूर और शोषितों के जीवन को अपनी कहानियों में सशक्त अभिव्यक्ति दी । हिन्दी कहानी में सर्वप्रथम शोषित, पीड़ित, दलित और मजदूरों की समस्याओं का चित्रण प्रेमचंद ने ही किया है। जन सामान्य का जीवन, जनजीवन के चरित्र और जनसामान्य की भाषा को लेकर प्रेमचंद ने ही सर्वप्रथम हिन्दी में कहानियाँ लिखी । यही कारण है कि वे हिन्दी कहानी और उपन्यास दोनों क्षेत्रों में 'सम्राट' की उपाधि से सन्मानित किये गये ।</p><p>एक कहानीकार के रुप में प्रेमचंद की पहचान पहले उर्दू में हुई। स. न. 1907 में उनकी पाँच कहानियों का संग्रह 'सोजेवतन' के नाम से उर्दू में प्रकाशित हुआ। जहाँ वे नवाब राय के नाम से जाने जाते थे। इस कहानी संग्रह में ज्वलंत राष्ट्रभक्ति थी जिसके कारण 'सोजेवतन' कहानी संग्रह को ब्रिटिश सरकारने जब्त कर लिया था और नवाबराय के लेखन पर पांबदी लगा दी थी। वैसे प्रेमचंद का असली नाम धनपतराय है । धनपतराय या नवाबराय सन 1915 में 'प्रेमचंद' के नाम से अवतिर्ण हुए और उसी समय उनकी प्रथम हिन्दी कहानी 'पंचपरमेश्वर' प्रकाशित हुई । इसी कहानी से प्रेमचंद की कहानी यात्रा आरंभ होती है जो लगभग तीन सौ कहानियाँ लिखकर पूर्ण होती है । प्रेमचंद कहानी साहित्य में महान इसलिए नहीं है कि उन्होंने तीन सौ कहानियाँ लिखी बल्कि वे इसलिए महान है कि उनकी कोई भी कहानी विश्व के किसी भी महान कहानीकार के कहानियों के समक्ष प्रथम पंक्ती में रखी जा सकती है। उन्होने अपनी कहानियों में जनजीवन का वास्तविक चित्र अंकित कर अपनी अतिशूक्ष्म दृष्टि से समाज के हर वर्ग का निरीक्षण कर उसे अपनी कला से सजीवता प्रदान की है। भारतीय समाज के प्रत्येक वर्ग का इतने निकट से उन्होने अध्ययन किया कि ऐसा लगता है कि वह स्वयं उस वर्ग के प्रतिनिधी है। कृषक मजदूर, अध्यापक छात्र, पूंजीपति-भीखारी, बालक-वृद्ध, विद्वान-मूर्ख सभी को उन्होने अपनी कला में समाहित कर स्वभाविक रुप में चित्रित किया है। यही कारण है कि उनकी कहानियों में वेदना के आँसू और हास्य की मुखरता है, तो क्रांति की धारा और आनंद की खिलखिलाहट भी है। उनकी कहानियों का कैनवास अत्यंत व्यापक है, जिसमें घटना प्रधान, चरित्र प्रधान, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक आदि सभी प्रकार की कहानियों के लिए स्थान है ।</p><p>प्रेमचंद को शोषित पीड़ित और दिनहिन जनता के प्रति हार्दिक सहानुभूति रही है , इस कारण उन्होने अपनी कहानियों में दुःखी और पीड़ित मानवता को वाणी प्रदान की है । समाज की वर्तमान व्यवस्था के प्रति असंतोष व्यक्त करते हुए उन्होने आदर्शवादी यथार्थ दृष्टिकोण को अपनाया। अनुभव की परिपक्वता के साथ-साथ उनके विचारों मे बदलाव आया । उनके ही आँखो के सामने उनके आदर्श की कल्पना और सुधारवादी स्वप्न ध्वस्त हो गये । पूंजीवादी समाज और उसकी संस्कृति का एकांगी रुप समझकर उन्होने उसके विरुद्ध अपना आक्रोश व्यक्त किया। यहीं पर उन्होंने वर्ग संघर्ष अनिवार्य समझा और आदर्शोमुखी यथार्थवाद से पूर्णतः यथार्थवादी हो गये। 'पूस की रात' और 'कफन' जैसी कहानियाँ इसी समय लिखी। उनके जीवन के उत्तरार्ध में लिखी गई सभी कहानियाँ यथार्थ जीवन का वास्तविक चित्र प्रस्तुत करती है। उन्होंने अपनी कहानियों में भारतीय जीवन का समग्रता से चित्रण किया है। उन्होने अपनी कहानियों में पहली बार समाज के तथाकथित धर्म के ठेकेदारों की कलुसित मनोवृत्ति का भंड़ा फोड किया । उन्होने सामंतीय संस्कृति के पोषक जमीदारों, शोषण की नीति को चलानेवाले पूंजीपतियों की कटु आलोचना करते हुए पीड़ित जनता को क्रांति का संदेश दिया । उनकी 'पंचपरमेश्वर' कहानी सत्य और न्याय का उज्वल आदर्श प्रस्तुत करती है, तो 'बड़े घर की बेटी' में कुलीन नारीत्त्व की हृदय स्पर्शी व्याख्या की गई है। इसी प्रकार से उनकी अन्य कहानियों में गृह-दाह, दो सखियाँ, अग्निसमाधि, सुजान भगत, मुक्ति का मर्म आदी में समाज के विभिन्न रुपों को आदर्श की पृष्ठभूमि में प्रस्तुत किया गया है ।</p><p>हिन्दी कहानी कला का चरम उत्कर्ष प्रेमचंद में पाया जाता है । चरित्रप्रधान कहानीकारों में सर्व श्रेष्ठ कहानीकार प्रेमचंद ही है। उनकी अनेक चरित्र प्रधान कहानियाँ बड़ी चर्चीत रही है । 'आत्माराम' मे महादेव सुनार, 'बड़े घर की बेटी' में आनंदी, 'बुढी काकी' में काकी, 'शंखनाद' में गुमान, 'सुजान भगत' में सुजान भगत आदि का चरित्र जिस कौशल्य के साथ चित्रित किया गया है वह सर्वथा प्रशंसनीय है। उनकी कहानियों में घटना, वातावरण और पात्र पाठकों के हृदय पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाते है । उनकी क्रांतीकारी कहानियों को पढ़कर कोई भी उन्हे 'रुसो' या वाल्टेयर से कम नहीं कह सकता । कहानी के विषय में "प्रेमचंद" का मानना यह था कि आदमी के पास यथार्थ और आदर्श दोनों की संवेदनाए होनी चाहीए । यथार्थ के बगैर हम समाज की समस्याएँ नही पहचान सकते और आदर्श के बिना अपने समुचित विकास की कल्पना नहीं कर सकते । आदर्श को पाने के लिए ही लेखक सपने देखता है। प्रेमचंद का यथार्थ और आदर्श के लिए संघर्ष हिन्दी में नई शुरुवात है।" प्रेमचंद की कहानी यात्रा रुमानियत से आदर्शवाद और आदर्शवाद से यथार्थ की ओर बढती है । उनकी कहानियों में पीड़ित मूक मानवता को वाणी प्राप्त हुई है। शोषित, पीड़ित और संतृप्त जन सामान्य के प्रति उनके मन में गहरी सहानुभूति थी। एक सजग साहित्यकार की भांती उन्होने जीवन के विविध रुपों, समाज की विभिन्न परंपराओं और मनुष्य मात्र के भिन्न भिन्न वर्गों का अध्ययन कर उसका यथार्थ और वास्तव वादी चित्रण किया है । उनके अनुभवों ने उनके आदर्श के संसार को उद्धवस्त कर दिया, इसलिए उन्होंने पूंजीवादी समाज की एकांगी संस्कृतिक को अर्थहीन समझकर वर्ग संघर्ष का निरुपन अपनी कहानियों में किया है, इसी कारण वे आदर्शवाद से यथार्थवादी हुए । 'दप्तरी' का दिनता से पूर्ण विवश जीवन और 'पूस की रात' की निर्धनता उनके यथार्थवादी होने का प्रत्यक्ष प्रमाण है ।</p><p>प्रेमचंद अद्भूत प्रतिभासंपन्न कहानीकार थे । उन्होने भिन्न-भिन्न शैलियों की और सभी प्रकार की कहानियाँ लिखी । पत्र, संवाद, आत्मचरित्र, डायरी, वर्णन आदि सभी शैलियों में उन्होने कहानियाँ लिखी। भाषा की दृष्टि से उनकी देन सबसे महत्त्वपूर्ण है। उन्होने वह भावानुकूल, सरल एवं प्रवाहमयी भाषा दी, जो परवर्ति रचनाकारों के लिए आदर्श रही । उनकी भाषा में सरलता और सहजता के साथ-साथ विभिन्न भावों की अभिव्यंजना करने की अपार क्षमता है। कहानी कला की दृष्टि से उनकी सभी कहानी सफल और श्रेष्ठ सिद्ध हुई है। उनकी समस्त कहानियाँ 'मानसरोवर' नाम से छ भागों में सग्रहीत की गई है।</p><p>प्रेमचंद की परंपरा को लेकर चलनेवाले अनेक कहानीकार हुए है। इनमें सबसे पहले सुदर्शन आते है। उनकी प्रथम कहानी 'हार की जीत' सन 1920 मे प्रकाशित हुई थी, जो हिन्दी की वातावरण प्रधान कहानियों में श्रेष्ठ थी। इस कहानी में बाबा भारती और उनका एक वाक्य बहुत प्रसिद्ध हुआ वह वाक्य था "लोगों को यदि इस घटना का पता लग गया, तो वे किसी गरीब पर विश्वास नहीं करेंगे।" डाकू खडगसिंह के हृदय को यह वाक्य मत दालता है और उसके चरित्र को परिवर्तित कर देता है । 'सुदर्शन' वातावरण प्रधान कहानी के सफल कहानीकार है। 'कमल की बेटी' और 'कवि की पत्नी' उनकी उत्कृष्ट कहानियाँ है। इन कहानियों में बड़े ही कलात्मक ढंग से कवित्त्वपूर्ण भाषा का प्रयोग किया गया है। सुदर्शन के समान प्रेमचंद की परंपरा में ज्वालादत्त शर्मा आते है उनकी कहानियों में कथानकों का विकास सयोंगो पर आश्रित होता है । उनकी 'विधवा' तथा 'तष्कर' कहानियों में संयोग और घटनाओं का सुंदर समन्वय हुआ है । चतुरसेन शास्त्री भी इस परंपरा के कहानीकार है। उनकी 'दे खुदा की राह पर', 'ककड़ी की किंमत' आदि प्रसिद्ध सामाजिक यथार्थवादी कहानियाँ है। इसी समय 'उग्र' के रुप में एक सशक्त कहानीकार हिन्दी को प्राप्त हुआ । उग्रजी ने अपनी ओजमयी भाषा और उग्र शैली में क्रांतीकारी भावनाओं को तथा राजनैतिक चेतना को जगाया । 'उसकी माँ' और 'अवतार' जैसी कहानियाँ इसका उदाहरण है । किन्तु आगे चलकर उनपर फ्रायड़ीन विचारधारा का गहरा प्रभाव दिखाई देने लगा। जिसके परिणाम स्वरुप वे फायड़ीन विचारधारा के कहानीकार कहलाये । भगवती प्रसाद वाजपेई भी प्रेमचंद की पंरपरा को लेकर चलनेवाले कहानीकार थे।</p><p>इस प्रकार हम देखते है कि हिन्दी कहानी को प्रसाद और प्रेमचंद ने न केवल एक नया मोड़ दिया। अपितु दोनों ने भिन्न भिन्न कथाधाराओं को लेकर कहानियाँ लिखी और वे उसके प्रवर्तक के रुप में प्रसिद्ध हुए । प्रसाद और उनकी परंपरा को लेकर चलनेवाले कहानीकारों ने भाव मूलक कहानियाँ लिखी जिसके प्रेम की महता स्थापित करते हुए त्याग और बलिदान को महत्त्वपूर्ण माना गया है। दूसरी ओर प्रेमचंद की परंपरा को लेकर चलनेवाले कहानीकारों में सामाजिक संदर्भों से जुड़े हुए विषयों को सफल और श्रेष्ठ सिद्ध हुई है। उनकी समस्त कहानियाँ 'मानसरोवर' नाम से छ भागों में सग्रहीत की गई है।</p><p>प्रेमचंद की परंपरा को लेकर चलनेवाले अनेक कहानीकार हुए है। इनमें सबसे पहले सुदर्शन आते है। उनकी प्रथम कहानी 'हार की जीत' सन 1920 मे प्रकाशित हुई थी, जो हिन्दी की वातावरण प्रधान कहानियों में श्रेष्ठ थी। इस कहानी में बाबा भारती और उनका एक वाक्य बहुत प्रसिद्ध हुआ वह वाक्य था "लोगों को यदि इस घटना का पता लग गया, तो वे किसी गरीब पर विश्वास नहीं करेंगे।" डाकू खडगसिंह के हृदय को यह वाक्य मत दालता है और उसके चरित्र को परिवर्तित कर देता है । 'सुदर्शन' वातावरण प्रधान कहानी के सफल कहानीकार है। 'कमल की बेटी' और 'कवि की पत्नी' उनकी उत्कृष्ट कहानियाँ है। इन कहानियों में बड़े ही कलात्मक ढंग से कवित्त्वपूर्ण भाषा का प्रयोग किया गया है। सुदर्शन के समान प्रेमचंद की परंपरा में ज्वालादत्त शर्मा आते है उनकी कहानियों में कथानकों का विकास सयोंगो पर आश्रित होता है । उनकी 'विधवा' तथा 'तष्कर' कहानियों में संयोग और घटनाओं का सुंदर समन्वय हुआ है । चतुरसेन शास्त्री भी इस परंपरा के कहानीकार है। उनकी 'दे खुदा की राह पर', 'ककड़ी की किंमत' आदि प्रसिद्ध सामाजिक यथार्थवादी कहानियाँ है। इसी समय 'उग्र' के रुप में एक सशक्त कहानीकार हिन्दी को प्राप्त हुआ । उग्रजी ने अपनी ओजमयी भाषा और उग्र शैली में क्रांतीकारी भावनाओं को तथा राजनैतिक चेतना को जगाया । 'उसकी माँ' और 'अवतार' जैसी कहानियाँ इसका उदाहरण है । किन्तु आगे चलकर उनपर फ्रायड़ीन विचारधारा का गहरा प्रभाव दिखाई देने लगा। जिसके परिणाम स्वरुप वे फायड़ीन विचारधारा के कहानीकार कहलाये । भगवती प्रसाद वाजपेई भी प्रेमचंद की पंरपरा को लेकर चलनेवाले कहानीकार थे।</p><p>इस प्रकार हम देखते है कि हिन्दी कहानी को प्रसाद और प्रेमचंद ने न केवल एक नया मोड़ दिया। अपितु दोनों ने भिन्न भिन्न कथाधाराओं को लेकर कहानियाँ लिखी और वे उसके प्रवर्तक के रुप में प्रसिद्ध हुए । प्रसाद और उनकी परंपरा को लेकर चलनेवाले कहानीकारों ने भाव मूलक कहानियाँ लिखी जिसके प्रेम की महता स्थापित करते हुए त्याग और बलिदान को महत्त्वपूर्ण माना गया है। दूसरी ओर प्रेमचंद की परंपरा को लेकर चलनेवाले कहानीकारों में सामाजिक संदर्भों से जुड़े हुए विषयों को लेकर यथार्थ परख कहानियाँ लिखी। प्रसाद और उनकी परंपरा के कहानीकारों ने समाज निरपेक्ष मूल्यों को स्वीकार करते हुए उनके व्यापक मानवीय आधार प्रस्तुत किये है । प्रेमचंद और उनकी परंपराओं में आनेवाले कहानीकारों मे गांधीवादी मूल्य सत्य अहिंसा, करुणा को मुखरित किया तो प्रसाद की परंपरा को लेकर चलनेवाले कहानीकारों ने मूल्यों को लेकर उठनेवाले द्वंद को बड़ी गंभीरता और सूक्ष्मता से चित्रित किया है। समग्रतः हम यह कह सकते है कि इस युग मे एक ओर प्रेम, बलिदान, त्याग, आदि उदात्त भावानाओं को लेकर चनलेवाले अनेक कहानीकार हुए तो दूसरी ओर जीवन के कटु यथार्थ, वर्ग संघर्ष और वास्तविताओं का चित्रण करनेवाले अनेक कहानीकार हुए । इस युग की कहानियाँ धीरे-धीरे यथार्थवाद की ओर उन्मुक्त होते रही । समाज में प्रचलित अंधविश्वास, जड़ता और जर्जर परपंराओं को तोडकर स्वस्थ परंपराओं का निर्वाह करने में इस युग के कहानीकारों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।</p><p>3) प्रेमचंदोत्तर युग 1950 तक हिन्दी कहानी साहित्य में विषय की विविधता और रचना प्रक्रिया की दृष्टि से प्रेमचंदोतर युग सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस युग में हिन्दी कहानी को न केवल नवीन आयाम प्राप्त हुए अपितु उसे एक नई दिशा मिली। इस युग की कहानी की रचना प्रक्रिया के निर्माण में समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, राजनिती, दर्शन, तत्त्वज्ञान आदि का महत्त्वपूर्ण योग रहा है। इस युग के कहानीकारों ने मानव मन की आंतरीक अवस्थाओं का बड़ा ही सूक्ष्म चित्रण किया है। इस युग के कहानीकारों ने मनोवैज्ञानिक स्थितियों और संदर्भों का बड़ा ही सूक्ष्म प्रयोग अपनी कहानियों में किया है । इस युग के कहानीकारों पर कालमार्क्स के समाजवादी विचार और फ्रायड़ तथा युग के मनोविश्लेषणवादी विचार का गहरा प्रभाव रहा है। इसमें संदेह नहीं कि प्रेमचंदोतर युग में अनेक महान क्रांतीकारी कहानीकार हुए है, जिन्होंने हिन्दी कहानी का कथ्य, शैली और शिल्प की दृष्टि से सुंदर विकास किया है ।</p><p>प्रेमचंदोतर युग में सबसे पहले एक महान चिंतनशील प्रतिभा के रुप में जैनेद्र जैसा कहानीकार प्राप्त हुआ। उन्होने हिन्दी कहानी को एक बौद्धिक स्तर दिया और साथ ही साथ उसे गहनता प्रदान की। उनकी कहानियों में बौद्धिकता के साथ दार्शनिक गांभीर्य सूक्ष्म अर्न्तदृष्टि और मर्मस्पर्शीणी संवेदनशीलता का समन्वय हुआ है। जैनेंद्र ने लेकर यथार्थ परख कहानियाँ लिखी। प्रसाद और उनकी परंपरा के कहानीकारों ने समाज निरपेक्ष मूल्यों को स्वीकार करते हुए उनके व्यापक मानवीय आधार प्रस्तुत किये है । प्रेमचंद और उनकी परंपराओं में आनेवाले कहानीकारों मे गांधीवादी मूल्य सत्य अहिंसा, करुणा को मुखरित किया तो प्रसाद की परंपरा को लेकर चलनेवाले कहानीकारों ने मूल्यों को लेकर उठनेवाले द्वंद को बड़ी गंभीरता और सूक्ष्मता से चित्रित किया है। समग्रतः हम यह कह सकते है कि इस युग मे एक ओर प्रेम, बलिदान, त्याग, आदि उदात्त भावानाओं को लेकर चनलेवाले अनेक कहानीकार हुए तो दूसरी ओर जीवन के कटु यथार्थ, वर्ग संघर्ष और वास्तविताओं का चित्रण करनेवाले अनेक कहानीकार हुए । इस युग की कहानियाँ धीरे-धीरे यथार्थवाद की ओर उन्मुक्त होते रही । समाज में प्रचलित अंधविश्वास, जड़ता और जर्जर परपंराओं को तोडकर स्वस्थ परंपराओं का निर्वाह करने में इस युग के कहानीकारों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।</p><h2 style="text-align: left;">3) प्रेमचंदोत्तर युग 1950 तक </h2><p>हिन्दी कहानी साहित्य में विषय की विविधता और रचना प्रक्रिया की दृष्टि से प्रेमचंदोतर युग सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस युग में हिन्दी कहानी को न केवल नवीन आयाम प्राप्त हुए अपितु उसे एक नई दिशा मिली। इस युग की कहानी की रचना प्रक्रिया के निर्माण में समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, राजनिती, दर्शन, तत्त्वज्ञान आदि का महत्त्वपूर्ण योग रहा है। इस युग के कहानीकारों ने मानव मन की आंतरीक अवस्थाओं का बड़ा ही सूक्ष्म चित्रण किया है। इस युग के कहानीकारों ने मनोवैज्ञानिक स्थितियों और संदर्भों का बड़ा ही सूक्ष्म प्रयोग अपनी कहानियों में किया है । इस युग के कहानीकारों पर कालमार्क्स के समाजवादी विचार और फ्रायड़ तथा युग के मनोविश्लेषणवादी विचार का गहरा प्रभाव रहा है। इसमें संदेह नहीं कि प्रेमचंदोतर युग में अनेक महान क्रांतीकारी कहानीकार हुए है, जिन्होंने हिन्दी कहानी का कथ्य, शैली और शिल्प की दृष्टि से सुंदर विकास किया है ।</p><p>प्रेमचंदोतर युग में सबसे पहले एक महान चिंतनशील प्रतिभा के रुप में जैनेद्र जैसा कहानीकार प्राप्त हुआ। उन्होने हिन्दी कहानी को एक बौद्धिक स्तर दिया और साथ ही साथ उसे गहनता प्रदान की। उनकी कहानियों में बौद्धिकता के साथ दार्शनिक गांभीर्य सूक्ष्म अर्न्तदृष्टि और मर्मस्पर्शीणी संवेदनशीलता का समन्वय हुआ है। जैनेंद्र ने लेकर यथार्थ परख कहानियाँ लिखी। प्रसाद और उनकी परंपरा के कहानीकारों ने समाज निरपेक्ष मूल्यों को स्वीकार करते हुए उनके व्यापक मानवीय आधार प्रस्तुत किये है । प्रेमचंद और उनकी परंपराओं में आनेवाले कहानीकारों मे गांधीवादी मूल्य सत्य अहिंसा, करुणा को मुखरित किया तो प्रसाद की परंपरा को लेकर चलनेवाले कहानीकारों ने मूल्यों को लेकर उठनेवाले द्वंद को बड़ी गंभीरता और सूक्ष्मता से चित्रित किया है। समग्रतः हम यह कह सकते है कि इस युग मे एक ओर प्रेम, बलिदान, त्याग, आदि उदात्त भावानाओं को लेकर चनलेवाले अनेक कहानीकार हुए तो दूसरी ओर जीवन के कटु यथार्थ, वर्ग संघर्ष और वास्तविताओं का चित्रण करनेवाले अनेक कहानीकार हुए । इस युग की कहानियाँ धीरे-धीरे यथार्थवाद की ओर उन्मुक्त होते रही । समाज में प्रचलित अंधविश्वास, जड़ता और जर्जर परपंराओं को तोडकर स्वस्थ परंपराओं का निर्वाह करने में इस युग के कहानीकारों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।</p><h2 style="text-align: left;">3) प्रेमचंदोत्तर युग 1950 तक </h2><p>हिन्दी कहानी साहित्य में विषय की विविधता और रचना प्रक्रिया की दृष्टि से प्रेमचंदोतर युग सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस युग में हिन्दी कहानी को न केवल नवीन आयाम प्राप्त हुए अपितु उसे एक नई दिशा मिली। इस युग की कहानी की रचना प्रक्रिया के निर्माण में समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, राजनिती, दर्शन, तत्त्वज्ञान आदि का महत्त्वपूर्ण योग रहा है। इस युग के कहानीकारों ने मानव मन की आंतरीक अवस्थाओं का बड़ा ही सूक्ष्म चित्रण किया है। इस युग के कहानीकारों ने मनोवैज्ञानिक स्थितियों और संदर्भों का बड़ा ही सूक्ष्म प्रयोग अपनी कहानियों में किया है । इस युग के कहानीकारों पर कालमार्क्स के समाजवादी विचार और फ्रायड़ तथा युग के मनोविश्लेषणवादी विचार का गहरा प्रभाव रहा है। इसमें संदेह नहीं कि प्रेमचंदोतर युग में अनेक महान क्रांतीकारी कहानीकार हुए है, जिन्होंने हिन्दी कहानी का कथ्य, शैली और शिल्प की दृष्टि से सुंदर विकास किया है ।</p><p>प्रेमचंदोतर युग में सबसे पहले एक महान चिंतनशील प्रतिभा के रुप में जैनेद्र जैसा कहानीकार प्राप्त हुआ। उन्होने हिन्दी कहानी को एक बौद्धिक स्तर दिया और साथ ही साथ उसे गहनता प्रदान की। उनकी कहानियों में बौद्धिकता के साथ दार्शनिक गांभीर्य सूक्ष्म अर्न्तदृष्टि और मर्मस्पर्शीणी संवेदनशीलता का समन्वय हुआ है। </p>Bandeyhttp://www.blogger.com/profile/08264562445292172107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6073521150607049851.post-20008352599793988522024-01-17T20:33:00.007+05:302024-01-17T20:34:13.205+05:30 मृगावती किसकी रचना है मृगावती की रचना कब हुई थी?<p>मृगावती के रचनाकार कुतुव्वन है। कुतुव्वन के बारे में अधिक जानकारी नहीं प्राप्त होती; क्योंकि उसने अपने काव्य में अपने बारे में कुछ अधिक नहीं कहा है। फिर भी उसके बारे में जानकारी प्राप्त करने में उसकी रचना महत्त्वपूर्ण है। कुतुव्वन के अनुसार उसने अपने ग्रन्थ की रचना सन् 1503 ई. में की थी। उसने यह भी कहा है कि उसने 2 माह 10 दिन में ही अपने ग्रन्थ को पूर्ण कर दिया था। कुतुव्वन का कहना है कि वह जिस कथा की चर्चा कर रहा है वह बहुत प्राचीन है; लेकिन उसने उसे नवीन रूप प्रदान कर दिया है। मृगावती का एक दोहा उद्धृत है -</p><blockquote>पहले ही जे दुइ कथा अही।<div>योग सिंगार विरह रस कही। </div><div>पुनि हम घोली भरख सब कता। </div><div>लघु दीरघ कौतुक नहीं रहही। </div><div>पहिले पख भादो छठी वही । </div><div>नौ सो नव जब संवत अही। </div><div>रेअ मोहर्रम चांद उजियारी। </div><div>यह कवि कही पूरी संवारी। </div><div>गाहा दोहा अरेत अरल। सोरठा चौपाई के सरल ।<br /><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><br />दोय मास दस दिन, यह रे दो रावे जाम। </div><div>एक एक बोल मोती जस पुरवा इकठा मन चित लोय।</div></blockquote><div><p>उपर्युक्त दोहे से यह स्पष्ट होता है कि कुतुव्वन ने अपने ग्रन्थ को हिजरी सन् 909 भादों की छठी को पूरा किया था। इस उद्धरण से यह स्पष्ट होता है कि कवि ने दोहे, सोरठा एवं चौपाई का भी इस्तेमाल बड़ी सूक्ष्मता से किया है।</p><p>कुतुव्वन किस शासक के समकालीन थे और इनके आश्रयदाता कौन थे ? इसके सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। कुतुव्वन ने अपने आश्रयदाता की प्रशंसा में लिखा है-</p></div><blockquote><div>साह हुसैन आहि बड़ राजा । </div><div>छत्र सिंहासन उनको छाजा । </div><div>पंडित औ बुधिवन्त समाना। </div><div>पढ़े पुरान अरथ सब जाना।</div></blockquote><div><p>विद्वान लोग कुतुव्वन के आश्रयदाता हुसैनशाह को लेकर एकमत नहीं हैं। रामचन्द्र शुक्ल इन्हें जौनपुर का शासक मानते हैं। जबकि डॉ. रामकुमार वर्मा हुसैनशाह को शेरशाह का पिता। डॉ. रामकुमार वर्मा का तर्क उचित नहीं जान पड़ता; क्योंकि शेरशाह के पिता का नाम हसन खाँ था। वह जागीरदार था, सुल्तान नहीं। रामपूजन तिवारी श्री सुकुमार सेन, परशुराम चतुर्वेदी आदि विद्वान् रामचन्द्र शुक्ल के तर्क को उचित मानते हैं। श्री सुकुमार सेन का कहना है कि कुतुव्वन जौनपुर के शासक हुसैनशाह . शर्की के दरबार में रहता था। उसी के साथ वह बंगाल गया और वहाँ के उदार शासक हुसैनशाह के आश्रय में उसने हिजरी सन् 909 में मृगावती की रचना की। लेकिन श्याम मनोहर पाण्डेय ने इस मत का खण्डन किया है। उनके अनुसार जो सुल्तान कभी सिंहासन पर ही न बैठा हो उसके यशगान में किसी कविता की रचना नहीं की जा सकती है। लेकिन इनका खण्डन तर्कसङ्गत नहीं है; क्योंक उस समय हुसैनशाह नाम के दो राजा राज्य कर रहे थे। एक जौनपुर में शर्की वंश का हुसैनशाह तथा दूसरा बंगाल का। उस समय जौनपुर विद्या का महान केन्द्र था। इसी कारण उसे 'पूर्व का सिराज' कहा जाता था। हुसैनशाह शर्की की मृत्यु के बाद कुतुव्वन जो उसका आश्रित कवि था उसके दरबार को छोड़कर उदार विचारों वाले बंगाल के शासक हुसैनशाह के दरबार में चला गया। हुसैनशाह ने 'सत्य वीर' नामक आन्दोलन चलाया था। कुतव्वन ने यहीं पर अपने ग्रन्थ मृगावती की रचना हुसैनशाह की प्रशंसा में कीं।</p><p>कुतुवन की मृगावती की कहानी प्रेम पर आधारित है। इसमें चन्द्रगिरि के राजा गणपति देव के पुत्र राजकुमार और कंचनपुर के राजा रूपमुरारि की पुत्री मृगावती की प्रेमकथा का वर्णन किया गया है। इसमें नायिका को उड़ने की विद्या में निपुण बताया गया है। वह न केवल अपने प्रेमी को धोखा दे सकती है, अपितु अपने पिता के देहान्त हो जाने पर उसकी जगह राज्य का भार भी सँभालने लग जाती है। इसमें भी कौतूहलवर्धन के लिये घटनाओं पर अत्यधिक बल दिया गया है। लेखक शैली के प्रति अपेक्षाकृत अधिक सतर्क रहाहै। इसमें जनभाषा अवधी को अपनाया गया है।</p>संदर्भ -<br />1. रामचन्द्र शुक्ल-हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ-66.<br />2. रामकुमार वर्मा, हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृष्ठ-307.<br />3. रामपूजन तिवारी, हिन्दी सूफी काव्य की भूमिका, पृष्ठ-170.<br />4. श्री सुकुमार सेन-इस्लामी बंगला साहित्य, पृष्ठ-8.<br />5. परशुराम चतुर्वेदी - हिन्दी के सूफी प्रेमाख्यान, पृष्ठ-65.<br />6. श्याम मनोहर पाण्डेय, मध्ययुगीन प्रेमाख्यान, पृष्ठ-65.<br />7. रामचन्द्र शुक्ल - हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ-66.<br />8. डॉ. श्रीनिवास बत्रा - हिन्दी और फारसी सूफी काव्य का तुलनात्मक अध्ययन, पृष्ठ-71.<br /></div>Bandeyhttp://www.blogger.com/profile/08264562445292172107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6073521150607049851.post-57021517182254520702024-01-17T20:15:00.002+05:302024-01-17T20:15:35.125+05:30चंदायन किसकी रचना है<p>सूफी ग्रन्थों में चंदायन सबसे पुरानी मानी जाती है। इसके प्रणेता मौलाना दाऊद थे। मौलान दाऊद का निवास स्थान रायबरेली (उ. प्र.) जिले के डलमऊ नामक नगर में था। इसकी पुष्टि इस दोहे से भी होती है-</p><blockquote>दलमो नगर बसे नव रंगा।<br />ऊपरि कोट तले बहे गंगा ।</blockquote><p>अवध प्रदेश के गजेटियर (1858) में डलमऊ नगर के इतिहास के बारे में जानकारी उपलब्ध है। इसके अनुसार फिरोज तुगलक ने डलमऊ नगर में मुस्लिम धर्म एवं विद्या के प्रचार-प्रसार के लिए एक विद्यालय की स्थापना की थी। यहीं पर 779 हिजरी में मौलाना दाऊद ने 'चंद्रनी' नामक ग्रन्थ का सम्पादन किया था।</p><p>मौलाना दाऊद कृत 'चंदायन' के नाम पर विद्वानों में बहुत मतभेद है। विद्वानों की मण्डली इसका नाम चंदायन, चंदावत, चांदायन, चंद, चूरक, चंद्रनी, चंद्रावती आदि बताते हैं। लेकिन उपलब्ध प्रतियों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इसका 'चंदायन' नाम ही अधिक प्रचलित है। माता प्रसाद ने इसका नाम चांदायन तथा डॉ. परमेश्वरी लाल ने इसका नाम चंदायन माना है। लेकिन विभिन्न उपलब्ध साक्ष्यों जैसे रायबरेली गजेटियर एवं बदायूँनी की 'मुन्तखब-उल-तवारिख' के आधार पर इसका नाम चंदायन ही उपयुक्त जान पड़ता है।</p><p>चंदायन के रचनाकाल के सम्बन्ध में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। मिश्रबन्धु विनोद ने इसकी रचना का समय 1328 ई. माना है। डॉ. पीताम्बर दत्त के अनुसार चंदायन की रचना सन् 1440 ई. में हुई थी। डॉ. दत्त मौलाना दाऊद को अलाउद्दीन का समकालीन मानते हैं। अलाउद्दीन का सिंहासनारोहण 1296 ई. में हुआ था और इसकी मृत्यु 1316 ई. में हुई थी। अतः डॉ. दत्त द्वारा मौलाना दाऊद को अलाउद्दीन का समकालीन बताना इतिहास सम्मत नहीं है।</p><p>मौलाना दाऊद ने अपने आश्रयदाता के रूप में फिरोजशाह तुगलक की प्रशंसा की है। मौलाना दाऊद ने फिरोज तुगलक के साथ-साथ उसके मंत्री जौनाशाह की भी प्रशंसा की है। मुगलकालीन इतिहासकार बदायूँनी ने अपने ग्रन्थ मुन्तखब-उल-तवारिख' में लिखा है कि 1370 ई. में खानेजहाँ की मृत्यु के बाद उसका पुत्र जौनाशाह (जूनाशाह) अपने पिता का . उत्तराधिकारी बना।' इस सम्बन्ध में एक पद् द्रष्टव्य है -</p><blockquote>बरिस सात से होइ इक्यासी ।<br />तिहि माह कवि सरसेउ भासी। <div>ताहि फिरोज दिल्ली सुलतानू। </div><div>जौना ताहि वजीर बखानू। </div><div>मलिक वयां पूत उधरन धीरु। </div><div>मलिक मुबारिक तहाँ के मीरु ।</div></blockquote><div><p>उपर्युक्त उद्धरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि चंदायन की रचना मौलाना दाऊद ने फिरोजशाह तुगलक के शासनकाल में की थी। इससे एक बात यह भी स्पष्ट होती है कि उस समय जौनाशाह फिरोज तुगलक का मन्त्री था। मौलाना दाऊद ने अपने ग्रन्थ को जौनाशाह को समर्पित किया है। संभवतः वह इसका आश्रयदाता भी था।</p><p>मौलाना दाऊद की रचना चंदायन की कथा एक प्रचलित लोकगाथा है। इसके पात्र एवं घटना निम्न वर्ग के समाज के साथ सम्बद्ध है। इसमें शुभाशुभ, शकुन, जादू-टोना, और मंत्रादि का भी उल्लेख है। घटना वर्णन पर अत्यधिक बल दिया गगा है। मौलाना दाऊद ने अपने ग्रन्थ चंदायन में प्रेम को सर्वोच्च स्थान प्रदान करने के साथ ही साथ इसे धर्म प्रचार का भी माध्यम बनाया। मौलाना दाऊद ने अपने ग्रन्थ की भाषा सरल एवं सुबोध रखी। जिससे जनसामान्य को समझने में कोई कठिनाई नहीं हुई। मौलाना दाऊद ने अपने काव्य की भाषा 'हिन्दवी' रखी है। इसकी लिपि फारसी है किन्तु इसमें फारसी लिपि की जटिलता नहीं है। साधारण जनता भी इसे आसानी से समझ सकती थी। चंदायन की भाषा पर टिप्पणी करते हुए परमेश्वरी लाल गुप्त ने कहा है- "चंदायन की भाषा ऐसी है कि जौनाशाह से लेकर दिल्ली की साधारण जनता भी उसे लिख एवं पढ़ सकती थी।'' वे आगे लिखते हैं कि चंदायन में कुछ ऐसी विशेषताएँ मिलती हैं, जो अन्य प्रेमाख्यानों में देखने को नहीं मिलली। निश्चित ही उसकी भाषा अनूठी है। मौलाना दाऊद ने चंदायन की रचना मसनवी के आधार पर की है। मसनवी शैली के अन्तर्गत कथा आरम्भ करने से पूर्व ईश्वरवंदना, मुहम्मद साहब की स्तुति, तत्कालीन बादशाह की प्रशंसा तथा आत्म-परिचय आदि दिया जाता है।</p><p>दाऊद की कृति चंदायन की नायिका चंदा है। चंदा के माध्यम से दाऊद ने भारतीय जन-जीवन का वर्णन बड़ी सुन्दरता से किया है। इसके पात्र समाज के शोषित वर्ग से सम्बन्धित है। इसके अन्तर्गत घटनाओं के वर्णन पर अत्यधिक बल दिया गया है। रामचन्द्र शुक्ल मृगावती को प्रथम सूफी रचना और कुतुव्वन को प्रथम सूफी कवि मानते हैं। लेकिन उपलबन्ध साक्ष्यों के आधार मुल्ला दाऊद को प्रथम सूफी कवि एवं चंदायन को प्रथम सूफी रचना माना जाता है।</p></div>Bandeyhttp://www.blogger.com/profile/08264562445292172107noreply@blogger.com0