अस्तित्ववाद क्या है, अर्थ, परिभाषा, प्रमुख विशेषताएं

अस्तित्ववाद क्या है

अस्तित्ववाद से क्या तात्पर्य है अस्तित्ववाद एक ऐसी विचारधारा है जो 19 वीं और 20 वीं शताब्दी के दौरान सामने आई। इसके मूल में आधुनिकता की यह दृष्टि निहित थी कि एक मनुष्य सोचता, विचारता, अनुभव करता, जीवन जीता वैयक्तिक (Individual) है। ज्याँ पाल सार्त्र के अनुसार मूलत: यह मानववाद है। 

उनका कथन है कि, ‘‘ हमारे लिए ‘अस्तित्ववाद’ शब्द का अर्थ एक ऐसा सिद्धांत है जो मानव जीवन को संभव बनाता है और जो यह मानता है कि प्रत्येक सत्य और कर्म का संबंध परिवेष तथा उसकी आत्म परकता में निहित होता है।’’ आत्मपरकता को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि आत्मपरकता का संबंध व्यक्ति स्वातंत्र्य से है अर्थात,’’ मनुष्य इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है जैसा खुद को बनाता है या कि वह स्वयं का निर्माण करता है। 

यही अस्तित्ववाद का पहला सिद्धांत है। यही वह है जिसे लोग आत्मपरकता कहकर हमारी निंदा करते हैं। परंतु हम इसके द्वारा यह अर्थ लेते हैं कि मनुष्य की गरिमा एक पत्थर, और मेज से अधिक है।’ मनुष्य की गरिमा को स्थापित करता यह सिद्धांत यह घोषित करता है कि,’’अस्तित्व सत्व से पूर्व आता है।’’ यहाँ अस्तित्व का अर्थ मानव अस्तित्व से है जबकि सत्व से तात्पर्य मनुष्य जीवन में कुछ होने बनने की संभावना से है। 

अस्तित्ववाद के चिंतको का मानना है कि अस्तित्व का अनुभव प्राय: अत्यंत दुख, पीड़ा, यातना, मृत्यु जैसी स्थितियों के साक्षात् से होता है। अस्तित्ववादी के अनुसार दुनिया में घटित होने वाली घटनाएं संयोग पर आधारित हैं। यहाँ कोई कार्य-कारण संबंध नहीं दिखता, अत: इस उलजुलूल दुनिया में जीने का कोई अर्थ नहीं क्योंकि यहाँ कोई ईश्वर नहीं जो मनुष्य के व्यवहार को कार्य को वैध ठहरा सके। अत: मृत्यु, हत्या, अपराध आदि को भी ये चिंतक गलत नहीं मानते। इसके बावजूद अस्तित्ववादी इसे निष्क्रियता का दर्शन नहीं मानते। 

उनका मानना है कि मनुष्य अपना निर्माता खुद है। वह चयन के जरिए अपनी मनोव्यथा का अन्त कर सकता है। साथ ही वे यह भी मानते हैं कि मनुष्य को अभी निर्धारित होना बाकी है। 

अस्तित्ववाद का अर्थ

अस्तित्ववाद का अर्थअस्तित्ववाद के मूल शब्द है ‘‘अस्ति’’ जो कि सस्कृत से शब्द ‘अस्’ धातु से बना है। जिसका अर्थ ‘‘होना’’ तथा अंग्रेजी का शब्द ‘इक्सिटैन्सिलिज्म’ शब्द ‘‘एक्स एवं सिस्टेरे’’ से बना है। जिसमें एक्स का अर्थ है बाहर और सिस्टेर का अर्थ है खड़े रहना अत: अस्तित्ववाद वह दार्शनिक दृष्टिकोण है जिसमे व्यक्ति अपने अस्तित्व को विश्वपटल पर स्पष्ट रुप से रखने का प्रयास करता है। 

अस्तित्ववाद मुख्य रुप से इस प्रश्न में रुचि रखता है कि ‘‘मनुष्य क्या है?’’

प्रो0 ब्लैकहोम ने इसे सत्तावाद या सद्वाद का दर्शन माना उनका कथन है कि -’’अस्तित्ववाद सद्वाद या सत्तावद का दर्शन है, प्रमाणित तथा स्वीकार करने और सत्ता का विचार करने तथा तर्क करने के प्रयास को न मानने का दर्शन है।

अस्तित्ववाद की परिभाषा

डॉ0 गणपति चंद्र गुप्त अस्तित्ववाद को परिभाषित करते हुए लिखते हैं- ‘‘जब उन्नीसवीं शताब्दी में विभिन्न प्रकार के आविष्कारों एवं सिद्धांतों के प्रचलन के कारण मानव जीवन पर वैज्ञानिकता एवं सामाजिकता का प्रभाव अधिक बढ़ने लगा, जिसके सम्मुख व्यक्ति की वैयक्तिकता एवं स्वतंत्रता उपेक्षित होने लगी, तो उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप एक ऐसे वाद का विकास हुआ, जो कि वैयक्तिक स्वतंत्रता को सर्वाधिक महत्त्व देता हुआ वैज्ञानिकता एवं सामाजिकता का तीव्र विरोध करता है। यही वाद दर्शन एवं कला के क्षेत्र में अस्तित्ववाद के नाम से प्रसिद्ध है।’’

अस्तित्ववाद को परिभाषित करते हुए वह लिखते हैं- ‘‘अस्तित्ववाद दृष्टिकोण है, वस्तुत: उन परंपरागत तर्क संगत, दार्शनिक मतवादों के विरूद्ध एक विद्रोह है जो विचारों अथवा पदार्थ-जगत की तर्कसंगत व्याख्या करते हैं तथा मानवीय सत्ता की समस्या की उपेक्षा करते हैं। वह एक तर्कसंगत दार्शनिक मतवाद की अपेक्षा एक दार्शनिक दृष्टिकोण का प्रतीक अधिक है।’’

सार्त्र ने अस्तित्ववाद को मानववाद माना। उनका मानना था कि मनुष्य स्वयं का निर्माता है। वह जैसा स्वयं को बनाता है उसके अतिरिक्त वह कुछ नहीं है। ‘अस्तित्ववाद और मानववाद’ में वह लिखते हैं- ‘‘सीधी बात यह है कि मनुष्य है। वह अपने बारे में जैसा सोचता है, वैसा नहीं होता। बल्कि वैसा होता है, जैसा वह संकल्प करता है, अपने होने के बाद ही वह अपने बारे में सोचता है- वैसे ही अपने अस्तित्व की ओर बढ़ने के बाद ही वह अपने बारे में संकल्प करता है। मनुष्य इसके अतिरिक्त कुछ भी नही है जैसा खुद को बनाता है कि वह स्वयं का निर्माण करता है। यही अस्तित्ववाद का पहला सिद्धांत है।’’

प्रभा खेतान ‘‘अस्तित्व का अर्थ हुआ सतत प्रकट होते रहना, निरंतर आविर्भावित होते रहना और अनुभूति के साथ उभरते रहना। इस अर्थ में केवल आदमी ही अस्तित्ववान होता है और केवल आदमी को ही सतत अनुभूति होती रहती है कि वह अपने आप से बाहर आ रहा है और अपनी परिस्थितियों का अतिक्रमण कर रहा है। अत: इस विचार के केंद्र में व्यक्ति स्वयं है।’’ प्रभा खेतान अस्तित्व का अर्थ सतत प्रकट होने के रूप में स्वीकारती हैं तथा व्यक्ति की सत्ता को ही अस्तित्ववान मानती हैं।

अस्तित्ववाद के प्रकार

अस्तित्ववाद के प्रकार- अस्तित्ववाद को दो वर्गों में विभक्त किया गया है-

  1. ईश्वरवादीअस्तित्ववाद एवं
  2. अनीश्वरवादी अस्तित्ववाद

पहले प्रकार के अस्तित्ववाद में ईश्वर की सत्ता को स्वीकार किया गया है तथा अनीश्वरवादी में ईश्वर की सत्ता को नकारा गया है फिर भी सभी अस्तित्ववादी व्यक्ति को ही महत्वपूर्ण मानते हैं।अस्तित्ववाद भारतीय सांख्य दर्शन के निकट माना गया है। भारतीय सांख्य दर्शन प्रकृति और मानव चेतना को महत्त्वपूर्ण मानता है वह ईश्वर को नहीं मानता, समस्त क्रियाकलाप मनुष्य को बंधन मुक्त कराने के लिए किए जाते हैं। अस्तित्ववाद की स्वतंत्रता की अवधारणा इससे मेल खाती प्रतीत होती है। चार्वाक दर्शन प्रत्यक्ष दर्शन पर आधारित है जो प्रत्यक्ष वस्तुओं की सत्ता को स्वीकारता है। ईश्वर, परलोक, आत्मा व पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता। उसे मूलत: सुखवादी दर्शन माना गया है। चार्वाक से अस्तित्ववाद के र्इश्वर संबंधी विचार मेल खाते हैं। अस्तित्ववाद में दु:ख को महत्व दिया गया है।

भारतीय दर्शन का ‘नेति नेति’ भी अस्तित्ववाद में ‘नथिंगनैस’ के रूप में दिखलाई पड़ता है। गीता के कर्मवाद के सिद्धांत की महत्ता भी अपने में विशिष्ट है। अस्तित्ववाद भी कर्म के महत्व को स्वीकार करता है। बौद्ध दर्शन में दु:खवाद व अस्तित्ववाद में दु:ख, पीड़ा व वेदना का महत्व निकट जान पड़ते हैं। बौद्ध दर्शन में निर्वाण द्वारा दु:ख से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। अरविन्द दर्शन में अराजकता से मुक्ति के लिए अतिमानस व अतिमानव दोनों की स्थिति को स्वीकार किया गया है जो नीत्शे के अतिमानव के निकट दिखाई पड़ता है। भारतीय दर्शन में आशावादी स्वर मिलता है। यहाँ मृत्यु के परे भी मुक्ति या मोक्ष की मान्यता मृत्यु को महत्त्वपूर्ण बना देती है जबकि अस्तित्ववाद में ऐसी कोर्इ आशा नहीं दिखाई पड़ती।

भारतीय दर्शन जहाँ आशावादी है वही अस्तित्ववाद का स्वर निराशावादी माना गया है। भारतीय दर्शन में भक्ति, योग, अध्यात्म, ईश्वर, मोक्ष के माध्यम से सात्विक जीवन व मुक्ति की बात की गई है जो जीवन से परे भी मुक्ति के रूप में आशा का दर्शन है। वही अस्तित्ववाद मुख्यत: वर्तमान के दु:ख, निराशा अवसाद की बात करता है मृत्यु मानव जीवन की संभावनाओं का अंत है उसकी सीमा है।

अस्तित्ववाद की पृष्ठभूमि

अस्तित्ववाद के उदय में अनेक कारण व परिस्थितियाँ जिम्मेदार थी। जिन्होंने मानव अस्तित्व व उसकी स्वतंत्रता की उपेक्षा की थी। अस्तित्ववाद व्यक्ति के अस्तित्व व उसकी खोर्इ हुर्इ गरिमा की खोज करने वाला दर्शन है।यूरोप का पूर्ववर्ती दर्शन, फ्रांसीसी क्रांति (1789-1799), रूसी क्रांति (1917), औद्योगिक क्रांति (18-19वीं शताब्दी), विज्ञान व तकनीक का बढ़ता वर्चस्व, दो-दो विश्वयुद्धों (1914-1918, 1939-1945) की विभीषिका, तानाशाही, पूँजीवाद, साम्राज्यवाद, आदर्शवाद, बौद्धिकता इत्यादि कारण के रूप में उपस्थित रहे।

प्राचीन ग्रीक दर्शन में प्लेटो, अरस्तू व सुकरात का नाम महत्वपूर्ण रहा है। प्लेटो ने सार को महत्वपूर्ण माना इसके साथ ही उन्होंने आदर्श राज्य की परिकल्पना कर राज्य के महत्व को भी प्रतिपादित किया। जिसमें व्यक्ति की उपेक्षा हुई।

सुकरात का ‘स्वयं को जानो’ व्यक्ति की महत्ता को अवश्य प्रतिपादित करता है तथा अस्तित्ववादियों के निकट जान पड़ता है। प्राचीन काल में मान्यता रही कि सर्वप्रथम वस्तु का रूप ईश्वर द्वारा परिकल्पित किया गया तत्पश्चात् वस्तु अस्तित्व में आई। मध्यकाल में सार को व्यक्ति से अधिक महत्व दिया गया जिसकी अनुपस्थिति में वस्तु को निरर्थक माना गया। हालांकि संत आगास्टाइन व कांट इत्यादि का नाम महत्वपूर्ण है जो बौद्धिकता की उपेक्षा करते हैं इनके विचार भी अस्तित्ववाद के निकट दिखाई पड़ते हैं।

हीगेल व्यक्ति को तो महत्व देता है मगर बौद्धिकता के प्रति विशेष आग्रह अस्तित्ववादियों को उसका विरोध करने पर मजबूर करता है। देकार्त का प्रसिद्ध वाक्य ‘मैं सोचता हूँ इसलिए मैं हूँ’ व्यक्ति से पहले चिंतन को ही महत्वपूर्ण मानता है। यद्यपि यहीं से अस्तित्ववाद का आरंभ भी माना गया है मगर अस्तित्ववादियों का मानना था कि अस्तित्व पहले है चिंतन, विचार या सिद्धांत बाद में हैं इसलिए वह ‘मैं हूँ, इसलिए मैं सोचता हूँ’ के रूप में अपनी बात कहना चाहते हैं।

डार्विन का ‘योग्यतम की उत्तर जीविता’ का सिद्धांत मानव जीवन के संघर्ष की बात करता है जो योग्य होगा वही जीवित रह पाएगा, न्यूटन के भौतिकी के सिद्धांत आदि भी कारण के रूप में मौजूद रहे। फ्रांस में सामंतवाद, राजतंत्र व दासता के विरोध में राज्यक्रांति हुई जिससे समानता, बंधुत्व, स्वतंत्रता व लोकतंत्र की स्थापना हुई, रूसी क्रांति में भी राजशाही का अंत हुआ मजदूरों व किसानों की सत्ता स्थापित हुर्इ। यूरोप का पुनर्जागरण धार्मिक बंधनों व अंधविश्वासों से व्यक्ति को मुक्त कराने में सफल हुआ। 

तर्क, बुद्धि, जिज्ञासा व विवेक को महत्व दिया गया। औद्योगिक क्रांति से नए-नए उद्योगों की स्थापना हुई, पूंजीवादी साम्राज्यवाद को बल मिला, उपनिवेश स्थापित हुए, विज्ञान व तकनीक का विकास हुआ, नगरीकरण हुआ लोग गाँव से शहर की ओर पलायन करने लगे, सामाजिक विसंगतियों व अपराध में बढ़ोत्तरी हुई। शोषण, अन्याय की स्थिति में भीी बढ़ोत्तरी हुई। माक्र्सवाद व मनोविश्लेषणवाद जैसी विचारधाराओं का उदय हुआ।

सर्वाधिक भयावह स्थिति थी दो-दो विश्वयुद्धों की विभीषिका। इन युद्धों में करोड़ो लोग मारे गए। सत्ता के क्षुद्र स्वार्थ हेतु मनुष्य का कीट-पतंगों की भाँति मारा जाना बड़ा त्रासदीपूर्ण था। मानव मूल्यों को अपार क्षति पहुँची। लोगों में नैराश्य, दीनता, अवशता, पीड़ा व कुंठा घर कर गई। ईश्वर, धर्म व मानवता से उसका विश्वास उठने लगा।

विज्ञान व तकनीक के विकास ने भी मानवीय मूल्यों को विघटित किया। एक ओर इन्होंने मानव जीवन को सुखी बनाया, ब्रह्मांड व प्रकृति के अनेक रहस्यों से पर्दा उठाया, धर्म व ईश्वर को तर्क की कसौटी पर कसकर मनुष्य को महत्व प्रदान किया तो दूसरी ओर मानवीय मूल्यों, पर्यावरण, प्रकृति को भी सर्वाधिक क्षति पहुंचाई तथा नए-नए युद्धों की पृष्ठभूमि तैयार की। इन सभी परिस्थितियों, मान्यताओं, सिद्धांतों व दर्शन में मानव की घोर उपेक्षा हुई। अस्तित्ववाद उन सभी धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक, ऐतिहासिक, वैज्ञानिक, आध्यात्मिक व नियतिवादी सिद्धांतों व मान्यताओं का विरोध करता है जो व्यक्ति को गौण बनाते हैं। अस्तित्ववाद में सुख की भावना को निरर्थक मानते हुए दु:ख को जीवन की उपलब्धि स्वीकार किया गया।

विज्ञान, परंपरा,बौद्धिकता, इत्यादि का विरोध अस्तित्ववाद में दिखार्इ पड़ता है। पहले राज्य, धर्म व ईश्वर को महत्व दिया जाता रहा था मनुष्य को इनके संदर्भ में ही विश्लेषित किया गया। राज्य, सत्ता व सामंतवाद का बोलबाला रहा। मनुष्य दमित व शोषित हुआ जिसका तीव्र विरोध अस्तित्ववाद ने किया। अस्तित्ववादियों ने संसार को निरर्थक व निष्प्रयोजन माना। उनके अनुसार मनुष्य अस्तित्व के माध्यम से अपनी अर्थवत्ता को प्राप्त कर सकता है तथा अपने जीवन के उद्देश्य को निश्चित कर सकता है। यद्यपि अस्तित्ववाद का प्रवर्तन जर्मनी में 19वीं सदी में ही हो गया था मगर यूरोप में इसकी सशक्त उपस्थिति सन् 1940 व 1950 के दशक में दिखलाई पड़ती है।

अस्तित्ववाद की मान्यता है कि सर्वप्रथम व्यक्ति का अस्तित्व है फिर उसका सार है। अगर वस्तु ही नहीं होगी तो सार कैसे होगा? व्यक्ति में ‘मैं’ की स्थिति को आवश्यक माना। व्यक्ति की स्वतंत्रता को उन्होंने महत्वपूर्ण माना। बाह्य परिस्थितियों, मान्यताओं या वस्तुओं को उस पर थोपा नहीं जाना चाहिए उसे अपने जीवन का चुनाव स्वयं करना है अपने विषय में निर्णय लेना होगा। उन्होंंने उस व्यक्ति को महत्वपूर्ण माना जो किसी के काम आता हो। सार्थक कर्म द्वारा ही वह अपने आप को अभिव्यक्त कर पायेगा।

कृष्णदत्त पालीवाल ने अस्तित्ववाद के उदय की परिस्थितियों पर विचार करते हुए इसे महायुद्धों की विभीषका से उत्पन्न माना है- ‘‘अस्तित्ववाद का उदय और प्रसार का महत्वपूर्ण कारण दो विश्वयुद्धों की विभीषिका से उत्पन्न आर्थिक-राजनीतिक, सामाजिक-सांस्कृतिक विघटन, विदू्रपता, विसंगति व्यक्तिबोध, अकेलापन तथा मृत्युबोध की भावना में निहित है... महायुद्ध के इन दिनों में मानव ने त्रास और पूंजीवादी महत्वकांक्षाओं का जो पतनशील रूप देखा है- अस्तित्ववाद इसी चीख एवं कराह से जन्मा दर्शन है।’’

अस्तित्ववाद की मान्यताएं

व्यक्ति के अस्तित्व को सर्वाधिक महत्व देने वाले दर्शन अस्तित्ववाद की सभी मान्यताएं व्यक्ति के अस्तित्व, उसकी स्थिति व गरिमा को ही अर्थवत्ता प्रदान करने वाली हैं। 

अस्तित्ववाद की कमियाँ

अस्तित्ववाद को जहाँ एक ओर मानव मूल्यों को प्रतिपादित करने के कारण मानववाद की संज्ञा दी गर्इ तो दूसरी ओर कुछ आरोप भी अस्तित्ववाद पर लगते रहे हैं। अस्तित्ववाद का स्वर निराशावादी माना गया जहां दु:ख, पीड़ा, संताप, वेदना आदि जीवन की उपलब्धि हैं और संत्रास व विसंगति आदि मानव जीवन का हिस्सा जिससे मुक्त हो पाना मुश्किल जान पड़ता है। मृत्यु का भय जीवन में निराशा का संचार कर देता है। इसके साथ ही ईश्वर की सत्ता, बौद्धिकता, विज्ञान इत्यादि का नकार भी मानव जीवन में विश्वास, विवेक व विकास की संभावनाओं को कम कर देता है। स्वच्छंदता, भोगवाद व अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। रामविलास शर्मा अस्तित्ववाद में विसंगति की स्थिति मानते हैं।अस्तित्ववाद में एक ओर तो आंतरिकता पर बल दिया जाता है तो वहीं दूसरी ओर मूल्यों को महत्त्व दिया गया है जिसका संबंध समाज से है।

इस विषय में रामविलास शर्मा लिखते हैं- ‘‘अस्तित्ववाद में एक तीव्र विसंगति है। वह केवल आत्मगत सत्य को स्वीकार करता है, दूसरी ओर वह मूल्यों की बात करता है जो स्वभावत: समाजगत है। तर्कसंगत विचारक या तो मूल्यों को समाजगत मानकर माक्र्सवाद की ओर बढ़ेगा जैसा सार्त्र ने किया या वह उन्हें पूर्ण स्वतंत्र और निरपेक्ष रूप से आत्मगत मानकर मूल्य हीनता की ओर बढ़ेगा जैसा कि ब्रिटेन, अमरीका और भारत के बहुत से पराजयवादी ‘विद्रोही’ कर रहे हैं।’’ अस्तित्ववाद को व्यक्तिवाद, स्वार्थवाद, अहंकारवाद, विद्रोह व उत्पाती दर्शन के रूप में भी माना गया तथा समस्त नकारात्मक क्रियाकलापों व आंदोलनों पर अस्तित्ववाद का प्रभाव माना गया। इसे निराशा व असामाजिकता के संदर्भ में विश्लेषित किया गया जो समाज, ईश्वर, परंपरा, विज्ञान व इतिहास को नकारता है।

डॉ0 शिव प्रसाद सिंह ने अस्तित्ववाद को महत्वपूर्ण मानते हुए इसे प्रत्येक दर्शन का प्रस्थान बिंदु स्वीकार किया है- ‘‘अस्तित्ववाद की सबसे बड़ी देन यह है कि उसने आज के वातावरण में मनुष्य के अपने और समाज से हुए अलगाव को रेखांकित किया। .....अस्तित्ववाद इसी कारण प्रत्येक दर्शन का प्रस्थान बिंदु बन जाता है क्योंकि वह अस्तित्व दर्शन से संबंधित प्रश्नों को इस ढंग से सामने रखता है कि पहले के समाधान रद्दी और व्यर्थ लगने लगते हैं।’’ इस प्रकार कमियों के बावजूद भी इसके महत्व को कम नहीं किया जा सकता। समकालीन परिस्थितियों के मध्य उपेक्षित व निस्संग मानवीय अस्तित्व की खोज इसे उल्लेखनीय बनाती है।

3 Comments

  1. astitwwaad k pramukh vicharak........satra,,,,haidegar

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  2. अस्तित्ववाद का हिन्दी साहित्य pe prabhav

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  3. उम्दा आलेख

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