ज्यों ही अण्ड शुक्राणु से मिलकर निशेचित होता है, त्यों ही मानव जीवन
का प्रारम्भ हो जाता है। निशेचित अण्ड सर्वप्रथम दो कोषों में विभाजित होता है,
जिसमे से प्रत्येक कोष पुन: दो-दो में विभाजित हो जाते हैं। कोष विभाजन की
यह प्रक्रिया अत्यंत तीव्र गति से चलने लगती है। इनमें ये कुछ कोष प्रजनन
कोष बन जाते हैं तथा अन्य शरीर कोष बन जाते हैं। शरीर कोषों से ही
माँसपेशियों, स्नायुयों तथा शरीर के अन्य भागों का निर्माण होता है।
निषेचन से
जन्म तक के समय को जन्म पूर्वकाल अथवा जन्म पूर्व विकास का काल कहा
जाता है। सामान्यतः जन्म पूर्वकाल दस चन्द्रमास अथवा नौ कैलेण्डर मास अथवा
चालीस सप्ताह अथवा 280 दिन का होता है।
भ्रूणावस्था में शारीरिक विकास तीन
चरणों में होता है।
जन्म पूर्व शारीरिक विकास की अवस्थाएं
1. डिम्बावस्था - डिम्बावस्था या गर्भास्थिति, शुक्राणु एवं डिम्ब के संयोग के समय से लेकर दो सप्ताह तक मानी जाती है। इस अवस्था में कोषों का विभाजन होता है। जाइगोट या सिंचित डिम्ब में महत्वपूर्ण परिवर्तन होने लगते है। कोषों के भीतर खोखलापन विकसित होने लगता है। संसेचित डिम्ब, डिम्बवाहिनी नलिका द्वारा गर्भाशय में आ जाता है, गर्भाशय में पहुँचने पर इसका आकार हुक के समान हो जाता है। गर्भाशय में कुछ दिनों पश्चात यह इसको सतह का आधार लेकर चिपक जाता है यहाँ पर गर्भ अपना पोषण माता से प्राप्त करने लगता है। कभी-कभी डिम्ब डिम्बवाहिनी नलिका से ही चिपक कर वृद्धि करने लगता है, ऐसे गर्भ को नलिका गर्भ कहते है।इस प्रक्रिया को आरोपण कहते है। आरोपण हो जाने के
पश्चात संयुक्त कोष एक परजीवी हो जाता है। तथा जन्म पूर्व का काल वह इसी
अवस्था में व्यतीत करता है। डिम्बावस्था तीन कारणों से महत्पूर्ण हो-प्रथम,
निसेचित अण्ड गर्भाशय में आरोपित होने से पूर्व निष्क्रिय हो सकता है।
द्वितीय,
आरोपण गलत स्थान पर हो सकता है, तथा तश्तीय, आरोपण होना सम्भव नही हो
सकता है।
2. पिण्डावस्था अथवा भ्रुणीय अवस्था - जन्म पूर्व विकास का द्वितीय काल पिण्डावस्था अथवा पिण्ड काल
कहलाता है। यह अवस्था निषेचन के तीसरे सप्ताह से शुरू होकर आठवें सप्ताह
तक चलती है। लगभग छह: सप्ताह तक चलने वाली पिण्डावस्था परिवर्तन की
अवस्था है, जिसमें कोषों का समूह एक लधु मानव के रूप में विकसित हो जाता
है। शरीर की लगभग समस्त मुख्य विशेषताएँ, वाहय तथा आन्तरिक, इस लधु
अवधि में स्पष्ट हो जाती है।
इस काल में विकास मस्तक- अधोमुखी दिशा मे
होता है अर्थात सर्वप्रथम मस्तक क्षेत्र का विकास होता है तथा फिर धड़ क्षेत्र का
विकास होता है और अन्त में पैर क्षेत्र का विकास होता है। कुपोषण, संवेगात्मक
सदमों, अत्यधिक शारीरिक गतिशीलता, ग्रान्थियों के कार्यो में व्यवधान अथवा
अन्य किसी कारण से भ्रूण गर्भाशय की दीवार से विलग हो सकता है। जिसके
परिणाम स्वरूप स्वत: गर्भपात हो जाता हैं।
3. भ्रूणावस्था - यह समय गर्भ तिथि के दूसरे मास से लेकर बालक के जन्म तक अर्थात
दसवें चन्द्रमास अथवा नवे कैलेण्डर मास तक रहता है। तीसरे मास में 3.5 इन्च
लम्बा एवं 3/4 औस भार का गर्भ होता है। दो मास बाद इसकी लम्बाई 10 इंच
एवं भार 9 से 10 औस हो जाता है। आठवें महीने में इसकी लम्बाई 10 इंच व
भार 4 से 5 पौण्ड तथा जन्म के समय तक गर्भाशय भ्रूण की लम्बाई 20 इंच एवं
भार 7 से 7.5 पौण्ड हो जाता है।
भ्रूणावस्था के दौरान शरीर के विभिन्न अंगों की लम्बाई में अनुपात
शरीर के अंग | 8 सप्ताह का भ्रूण | 20 सप्ताह का भ्रूण | 40 सप्ताह का भ्रूण |
सिर | 45% | 35% | 35% |
धड़ | 35% | 40% | 40% |
पैर | 20% | 25% | 25% |
- गर्भाधान के उपरान्त पाँच माह तक गर्भपात की सम्भावना बनी रहती है।
- माता के गर्भ में बालक को मिल रहे वातावरण की प्रतिकूल परिस्थितियाँ भ्रूण के विकास को प्रभावित कर सकती है।
- अपरिपक्व प्रसव हो सकता है।
- प्रसव की सरलता अथवा जटिलता सदैव ही जन्म पूर्व परिस्थितियों से प्रभावित होती है।
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