अनुक्रम
अनुवाद के स्वरूप
अनुवाद के स्वरूप के सन्दर्भ में विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वज्जन अनुवाद की प्रकृति को ही अनुवाद का स्वरूप मानते हैं, जब कि कुछ भाषाविज्ञानी अनुवाद के प्रकार को ही उसके स्वरूप के अन्तर्गत स्वीकारते हैं। इस सम्बन्ध में डॉ. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव का मत ग्रहणीय है। उन्होंने अनुवाद के स्वरूप को सीमित और व्यापक के आधार पर दो वगोर्ं में बाँटा है। इसी आधार पर अनुवाद के सीमित स्वरूप और व्यापक स्वरूप की चर्चा की जा रही है।अनुवाद का सीमित स्वरूप
अनुवाद के स्वरूप को दो संदर्भों में बाँटा जा सकता है-- अनुवाद का सीमित स्वरूप तथा
- अनुवाद का व्यापक स्वरूप
- पाठधर्मी आयाम तथा
- प्रभावधर्मी आयाम
अनुवाद का व्यापक स्वरूप
अनुवाद के व्यापक स्वरूप (प्रतीकांतरण संदर्भ) में अनुवाद को दो भिन्न प्रतीक व्यवस्थाओं के मध्य होने वाला ‘अर्थ’ का अंतरण माना जाता है। ये प्रतीकांतरण तीन वर्गों में बाँटे गए हैं-- अंत:भाषिक अनुवाद (अन्वयांतर),
- अंतर भाषिक (भाषांतर),
- अंतर प्रतीकात्मक अनुवाद (प्रतीकांतर)
अंतर भाषिक अनुवाद में अनुवाद को न केवल स्रोत-भाषा में लक्ष्य-भाषा की संरचनाओं, उनकी प्रकृतियों से परिचित होना होता है, वरन् उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराओं, धार्मिक विश्वासों, मान्यताओं आदि की सम्यक् जानकारी भी उसके लिए बहुत जरूरी है। अन्यथा वह अनुवाद के साथ न्याय नहीं कर पाएगा। अंतर प्रतीकात्मक अनुवाद में किसी भाषा की प्रतीक व्यवस्था से किसी अन्य भाषेत्तर प्रतीक व्यवस्था में अनुवाद किया जाता है।
अंतर प्रतीकात्मक अनुवाद में प्रतीक-1 का संबंध तो भाषा से ही होता है, जबकि प्रतीक-2 का संबंध किसी दृश्य माध्यम से होता है। उदाहरण के लिए अमृता प्रीतम के ‘पिंजर’ उपन्यास को हिन्दी फिल्म ‘पिंजर’ में बदला जाना अंतर-प्रतीकात्मक अनुवाद है।
अनुवाद-प्रक्रिया
‘प्रक्रिया’ शब्द अंग्रेजी के ‘process’ का पर्याय है, जो ‘प्रक्रिया’ के संयोग से बनकर ‘विशिष्ट क्रिया’ का बोध कराता है । किसी कार्य की प्रक्रिया या विशिष्ट क्रिया को जानने का अर्थ होता है, कार्य को कैसे सम्पादित किया जाए। इस अर्थ में अनुवाद कर्म में हम स्रोत-भाषा से लक्ष्य-भाषा तक पहुँचने के लिए जिन क्रमबद्ध सोपानों से होकर गुज़रते हैं, उन सुनिश्चित व सोद्देश्य सोपानों को ‘अनुवाद-प्रक्रिया’ कहा जाता है। अनुवाद प्रक्रिया की चर्चा की शुरुआत ख्यात भाषाविज्ञानी नोअम चॉमस्की(Noam Chomsky) के निष्पादक व्याकरण (GenerativeGrammar) से करते हैं।
नोअम चॉमस्की (Noam Chomsky) की गहन संरचना एवं तल संरचना
चॉमस्की अपने निष्पादक व्याकरण द्वारा वाक्य के संरचनात्मक विवरण को निर्धारित करते हैं जिसे आरेख के द्वारा समझा जा सकता है :उनके अनुसार संरचना की दृष्टि से भाषा के दो तत्त्व होते हैं :
- तल संरचना और
- गहन संरचना
नाइडा (Nida) द्वारा प्रतिस्थापित अनुवाद-प्रक्रिया
नाइडा ने चॉमस्की के ‘गहन संरचना’ एवं ‘तल संरचना’ के आधार पर अनुवाद-प्रक्रिया में निम्नलिखित तीन सोपानों का उल्लेख किया है :- विश्लेषण (Analysis)
- अन्तरण (Transference)
- पुनर्गठन (Restructuring)
नाइडा द्वारा प्रतिस्थापित अनुवाद-प्रक्रिया का मूल आधार भाषा विश्लेषण के सिद्धान्त है। उनके मतानुसार पहले सोपान में अनुवादक मूल-पाठ या स्रोत-भाषा का विश्लेषण करता है। नाइडा मूल-पाठ के विश्लेषण के लिए एक सुनिश्चित भाषा सिद्धान्त की बात करते हैं। यह विश्लेषण भाषा के दोनों स्तर, बाह्य संरचना पक्ष तथा आभ्यन्तर अर्थपक्ष पर होता है, जिसमें मूल-पाठ का शाब्दिक अनुवाद तैयार हो जाता है। विश्लेषण से प्राप्त अर्थबोध का लक्ष्य-भाषा में अन्तरण अनुवाद का दूसरा सोपान होता है। यह अन्तरण सोपान में स्रोत-भाषा के सन्देश को लक्ष्य-भाषा की भाषिक अभिव्यक्ति में पुनर्विन्यस्त किया जाता है। तीसरे और अन्तिम सोपान में लक्ष्य-भाषा की अभिव्यक्ति प्रणाली और कथन रीति के अनुसार उसका निर्माण होता है। नाइडा के मतानुसार अनुवादक को ‘स्रोत-भाषा पाठ में निहित अर्थ या सन्देश के विश्लेषण तथा लक्ष्य-भाषा में उसके पुनर्गठन’ दो ध्रुवों के मध्य निरन्तर सम्यक् और सटीक तालमेल बिठाना होता है।
क ख
स्रोत-भाषा-------------अनुवादक------------लक्ष्य-भाषा
विश्लेषण.............................................................................पुनर्गठन
(आरेख : 4)
न्यूमार्क (New mark) द्वारा प्रतिस्थापित अनुवाद प्रक्रिया
न्यूमार्क द्वारा प्रतिस्थापित अनुवाद-प्रक्रिया नाइडा के सोपानों से
मिलती जुलती अवश्य है किन्तु वह नाइडा के चिन्तन से अधिक व्यापक है।
नीचे दिए गए आरेख से यह बात स्पष्ट हो जाएगी :
2
1 3
---- अन्तरक्रमिक अनुवाद -------
(आरेख : 5)
न्यूमार्क अनुवाद-प्रक्रिया को दो स्तरों पर आँकते हैं :
1- पहला स्तर है : अन्तरक्रमिक अनुवाद, जिसे खंडित रेखा द्वारा
जोड़ा गया है, क्योंकि अन्तरक्रमिक अनुवाद शब्द-प्रति-शब्द अनुवाद
होता है, जो कि भ्रामक है।
2- दूसरा स्तर है : मूल पाठ का अर्थ बोधन और लक्ष्य-भाषा में उस
अर्थ का अभिव्यक्तिकरण।
न्यूमार्क द्वारा प्रस्तावित बोधन की प्रक्रिया, नाइडा के विश्लेषण की
प्रक्रिया से इस दृष्टि से भिन्न है कि इसमें विश्लेषण से प्राप्त अर्थ के
साथ-साथ अनुवादक द्वारा मूल-पाठ की व्याख्या का भाव भी सम्मिलित है।
बाथगेट (Bathgate) का चिन्तन
अनुवाद-प्रक्रिया के सम्बन्ध मे बाथगेट का चिन्तन बहुत ही महत्त्वपूर्ण
है। बाथगेट ने अनुवाद-प्रक्रिया में जिन सोपानों की परिकल्पना की है, वह
सुचिन्तित, आधुनिक एवं वैज्ञानिक हैं। ये सोपान हैं :
स्रोत-भाषा
↓
समन्वयन
↓
विश्लेषण
↓
समझ
बोधन
↓
अभिव्यक्तिकरण
↓
स्रोत-भाषा
↓
पारिभाषिक अभिव्यक्ति
↓
पुनर्गठन
↓
पुनरीक्षण
↓
पर्यालोचन
↓
लक्ष्य-भाषा
कहने की ज़रूरत नहीं कि ये सभी सोपान नाइडा और न्यूमार्क द्वारा
प्रस्तावित सोपानों से अधिक संगत और वैज्ञानिक हैं। परन्तु इसमें दिया गया
पहला सोपान ‘समन्वयन’ और अन्तिम सोपान ‘पर्यालोचन’, दोनों को अवान्तर
परिकल्पना कहा जा सकता है। क्योंकि न तो स्रोत-भाषा पाठ के समन्वयन
की ज़रूरत है न ही पुनरीक्षण के बाद पर्यालोचन की आवश्यकता। ‘पुनरीक्षण’
ही एक प्रकार का ‘पर्यालोचन’ है।
अनुवाद-प्रक्रिया में नाइडा, न्यूमार्क और बाथगेट
अनुवाद-प्रक्रिया एक आन्तरिक प्रक्रिया है, जो अनुवादक के मन-मस्तिष्क
में घटित होती है। इसे शब्दबद्ध करने के पीछे यह बतलाना है कि अनुवाद
कर्म में सामान्यत: अनुवादक को कौन-कौन से चरण से होकर गुज़रना होता
है। साधारणत: अनुवाद कर्म में निम्नलिखित पाँच सोपान होते हैं :
स्रोत-भाषा
↓
विश्लेषण
↓
बोधन
↓
भाषिक अन्तरण
↓
पुनर्गठन
↓
पुनरीक्षण
↓
लक्ष्य-भाषा
उपर्युक्त प्रक्रिया में न्यूमार्क, नाइडा एवं बाथगेट द्वारा प्रस्तावित सोपानों
को शामिल किया गया है। अब अनुवाद के इन सोपानों के व्यावहारिक प्रयोग
के लिए ‘होरी की गाय अभी नहीं आर्इ है’ का अंग्रेजी अनुवाद करते हैं। यह
पंक्ति प्रेमचन्द की महान् कृति ‘गोदान’ का निचोड़ है जो भारतीय किसान की
तत्कालीन व वर्तमान स्थिति को दर्शाती है। ‘गोदान की विषय-वस्तु से
परिचित अनुवादकों के लिए इस पंक्ति का अनुवाद करना आसान होगा
जबकि इसके विपरीत ‘गोदान’ से अपरिचित अनुवादक के लिए अपेक्षाकृत
कठिन हो सकता है। वह निहित सन्दर्भ को न समझकर, इसका शाब्दिक
अनुवाद कर देगा : ‘Hori's cow has not come yet.’ जो कि सही अनुवाद
नहीं है। मगर ‘गोदान’ की विषय वस्तु से परिचित अनुवादक जब इसका
अनुवाद करेगा, तो वह निम्नलिखित सोपानों से होकर गुज़रेगा :
स्रोत-भाषा
होरी की गाय अभी नहीं आर्इ है ।
1. विश्लेषण-
Hori's cow has not come yet.
2. बोधन-
Hori' dream has not fulfilled yet.
3. भाषिक अन्तरण-
Hori, i.e.Indian farmers are still there where they were.
4. पुनर्गठन-
No change occured in Indian farmers' status.
5. पुनरीक्षण-
Status of Indian farmers has not been changed yet.
लक्ष्य-भाषा
Status of Indian farmers has not been changed yet.
क्योंकि ‘होरी की गाय अभी नहीं आर्इ है’ इस पंक्ति के माध्यम से
किसानों की दुर्दशा, उनकी मज़बूरी और त्रासदी को अभिव्यक्त किया गया
है। आज भी हजारों किसान लाचारी की ज़िदगी जीने को विवश हैं। अनुवाद
में यही विवशता व लाचारी झलकनी चाहिए।
उपर्युक्त प्रस्तावित प्रक्रिया अनुवाद कर्म में निहित भाषिक अन्तरण की
प्रक्रिया को समझने में ज़रूर सहायक हैं मगर ज़रूरी नहीं कि हर अनुवादक
अनुवाद के दौरान इन सब प्रक्रियाओं से होकर गुज़रे। यह अनुवादक के
ज्ञान, कौशल और अनुभव पर निर्भर करता है और हो सकता है कि कोर्इ
अनुभवी अनुवादक इन सोपानों को एक छलांग में पार कर ले। दुभाषिया
इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। दरअसल अनुवाद का चिन्तन क्षेत्र इतना विस्तृत
है कि इसे किसी यंत्रवत प्रक्रिया की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता।
अनुवाद की सीमाएँ
अनुवाद और अनुवाद-प्रक्रिया की जिन विलक्षणताओं को अनुवाद
विज्ञानियों ने बार-बार रेखांकित किया है, उन्हीं के परिपाश्र्व से हिन्दी
अनुवाद की अनेकानेक समस्याएँ भी उभरी हैं। बकौल प्रो. बालेन्दु शेखर
तिवारी हिन्दी के उचित दाय की संप्राप्ति में जिन बहुत सारी समस्याओं को
राह का पत्थर समझा जा रहा है उनमें अनुवाद की समस्याएँ अपनी विशिष्ट
पहचान रखती हैं।
अनुवाद से भाषा का संस्कार होता है, उसका आधुनिकीकरण होता है।
वह दो भिन्न संस्कृतियों को जोड़ने वाला संप्रेषण सेतु है। एक भाषा को
दूसरी भाषा में अन्तरण की प्रक्रिया में अनुवादक दो भिन्न संस्कृति में स्थित
समतुल्यता की खोज करता है। एतदर्थ उसे पर्यायवाची शब्दों के विविध रूपों
से जूझना पड़ता है। इसी खोज और संतुलन बनाने की प्रक्रिया में कभी-कभी
एक ऐसा भी मोड़ आता है जहाँ अनुवादक को निराश होना पड़ता है।
समतुल्यता या पर्यायवाची शब्द हाथ न लगने की निराशा। अननुवाद्यता
(untranslatability) की यही स्थिति अनुवाद की सीमा है। जरूरी नहीं कि
हर भाषा और संस्कृति का पर्यायवाची दूसरी भाषा और संस्कृति में उपलब्ध
हो। प्रत्येक शब्द की अपनी सत्ता और सन्दर्भ होता है। कहा तो यह भी जाता
है कोर्इ शब्द किसी का पर्यायवाची नहीं होता। प्रत्येक शब्द एवं रूप का
अपना-अपना प्रयोग गत अर्थ-सन्दर्भ सुरक्षित है। इस दृष्टि से एक शब्द को
दूसरे की जगह रख देना भी एक समस्या है। स्पष्ट है कि हर रूप की
अपनी-अपनी समस्याएँ हैं और इन समस्याओं के कारण अनुवाद की सीमाएँ
बनी हुर्इ हैं। इसी को ध्यान में रखते हुए कैटफोर्ड ने अनुवाद की सीमाएँ दो
प्रकार की बतायी हैं-
- भाषापरक सीमाएँ और
- सामाजिक-सांस्कृतिक सीमाएँ
- भाषापरक सीमाएँ,
- सामाजिक-सांस्कृतिक सीमाएँ और
- पाठ-प्रकृतिपरक सीमाएँ
अनुवाद की भाषापरक सीमाएँ
जैसा कि ऊपर संकेत किया जा चुका है कि प्रत्येक भाषा की अपनी
संरचना एवं प्रकृति होती है। इसीलिए स्रोत-भाषा और लक्ष्य-भाषा के भाषिक
रूपों में समान अर्थ मिलने की स्थिति बहुत कम होती है। कर्इ बार
स्रोत-भाषा के समान वाक्यों में सूक्ष्म अर्थ की प्राप्ति होती है लेकिन उनका
अन्तरण लक्ष्य-भाषा में कर पाना सम्भव नहीं होता। उदाहरणार्थ इन दोनों
वाक्यों को देखें : ‘लकड़ी कट रही है’ और ‘लकड़ी काटी जा रही है’। सूक्ष्म
अर्थ भेद के कारण इन दोनों का अलग-अलग अंग्रेजी अनुवाद संभव नहीं
होगा। फिर किसी कृति में अंचल-विशेष या क्षेत्र-विशेष के जन-जीवन का
समग्र चित्रण अपनी क्षेत्रीय भाषा या बोली में जितना स्वाभाविक या सटीक हो
पाता है उतना भाषा के अन्य रूप में नहीं। जैसे कि फणीश्वरनाथ रेणु का
‘मैला आँचल’। इस उपन्यास में अंचल विशेष के लोगों की जो सहज
अभिव्यक्ति मिलती है उसे दूसरी भाषा में अनुवाद करना बहुत कठिन कार्य
है। इसके अतिरिक्त भाषा की विभिन्न बोलियाँ अपने क्षेत्रों की विशिष्टता को
अपने भीतर समेटे होती हैं। यह प्रवृत्ति ध्वनि, शब्द, वाक्य आदि के स्तरों पर
देखी जा सकती है। जैसे चीनी, जापानी आदि भाषाएँ ध्वन्यात्मक न होने के
कारण उनमें तकनीकी शब्दों को अनूदित करना श्रम साध्य होता है। अनुवाद
करते समय नामों के अनुवाद की समस्या भी सामने आती है। लिप्यन्तरण
करने पर उनके उच्चारण में बहुत अन्तर आ जाता है। स्थान विशेष भी भाषा
को बहुत प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए एस्किमो भाषा में बर्फ के
ग्यारह नाम हैं जिसे दूसरी भाषा में अनुवाद करना सम्भव नहीं है।
वास्तव में हिन्दी में अनुवाद की समस्याएँ इस भाषा के मूलभूत चरित्र
की न्यूनताओं और विशिष्टताओं से जुड़ी हुर्इ हैं। वस्तुत: हिन्दी जैसी विशाल
हृदय भाषा में अनुवाद की समस्याएँ अपनी अलग पहचान रखती हैं।
भिन्नार्थकता, न्यूनार्थकता, आधिकारिकता, पदाग्रह, भिन्नाशयता और
शब्दविकृति जैसे दोष ही हिन्दी में अनुवाद कार्य के पथबाधक नहीं हैं, बल्कि
हिन्दी के अनुवादक को अपनी रचना की संप्रेषणीयता की समस्या से भी
जूझना पड़ता है। निम्नलिखित आरेख से बातें स्पष्ट हो जाएगीं-
अनुवाद की सामाजिक-सांस्कृतिक सीमाएँ
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उपर्युक्त संस्कृति-चक्र से स्पष्ट है कि भाषा और संस्कृति का अटूट सम्बन्ध
होता है। अनुवाद तो दो भिन्न संस्कृतियों को जोड़ने वाला
संप्रेषण-सांस्कृतिक सेतु है। एक भाषा को दूसरी भाषा में अन्तरण की प्रक्रिया
में अनुवादक दो भिन्न संस्कृति में स्थित समतुल्यता की खोज करता है।
वास्तव में मानव अभिव्यक्ति के एक भाषा रूप में भौगोलिक, ऐतिहासिक और
सामाजिक-सांस्कृतिक तत्त्वों का समावेश हो जाता है जो एक भाषा से दूसरी
भाषा में भिन्न होते हैं। अत: स्रोत-भाषा के कथ्य को लक्ष्य-भाषा में पूर्णतया
संयोजित करने में अनुवादक को कर्इ बार असमर्थता का सामाना करना पड़ता
है। यह बात अवश्य है कि समसांस्कृतिक भाषाओं की अपेक्षा विषम
सांस्कृतिक भाषाओं के परस्पर अनुवाद में कुछ हद तक अधिक समस्याएँ
रहती हैं। ‘देवर-भाभी’, ‘जीजा-साली’ का अनुवाद यरू ोपीय भाषा में नहीं हो
सकता क्योंकि भाव की दृष्टि से इसमें जो सामाजिक सूचना निहित है वह
शब्द के स्तर पर नहीं आँकी जा सकती। इसी प्रकार भारतीय संस्कृति के
‘कर्म’ का अर्थ न तो ‘action’ हो सकता है और न ही ‘performance’
क्योंकि ‘कर्म’ से यहाँ पुनर्जन्म निर्धारित होता है जबकि ‘action’ और
‘performance’ में ऐसा भाव नहीं मिलता।
अनुवाद की पाठ-प्रकृतिपरक सीमाएँ
अनुवाद की आवश्यकता का अनुभव हिन्दी में इसी कारण तीव्रता से
किया गया कि भाषाओं के पारस्परिक आदान-प्रदान से हिन्दी को समृद्ध होने
में सहायता मिलेगी और भाषा के वैचारिक तथा अभिव्यंजनामूलक स्वरूप में
परिवर्तन आएगा। हिन्दी में अनुवाद के महत्त्व को मध्यकालीन टीकाकारों ने
पांडित्य के धरातल पर स्वीकार किया था, लेकिन यूरोपीय सम्पर्क के पश्चात्
हिन्दी को अनुवाद की शक्ति से परिचित होने का वृहत्तर अनुभव मिला।
हिन्दी में अनुवाद की परम्परा भले ही अनुकरण से प्रारम्भ हुर्इ, लेकिन आज
ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न शाखाओं में अनुवाद की विभिन्न समस्याओं ने हिन्दी
का रास्ता रोक रखा है। विभिन्न विषयों तथा कार्यक्षेत्रों की भाषा विशिष्ट
प्रकार की होती है। प्रशासनिक क्षेत्र में कर्इ बार ‘sanction’ और ‘approval’
का अर्थ सन्दर्भ के अनुसार एक जैसा लगता है, अत: वहाँ दोनों शब्दों में
भेद कर पाना सम्भव नहीं है। इसी प्रकार जीवविज्ञान में ‘poison’ और
‘venom’ शब्दों का अर्थ एक है किन्तु ये अपने विशिष्ट गुणों के कारण भिन्न
हो जाते हैं। अत: पाठ की प्रकृति के अनुसार पाठ का विन्यास करना पड़ता
है। जब तक पाठ की प्रकृति और उसके पाठक का निर्धारण नहीं हो पाता
तब तक उसका अनुवाद कर पाना सम्भव नहीं हो पाता।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि हर भाषा की अपनी संरचनात्मक
व्यवस्था और सामाजिक-सांस्कृतिक परम्परा होती है। इसके साथ-साथ
विभिन्न प्रयोजनों में प्रयुक्त होने के कारण उसका अपना स्वरूप भी होता है।
यही कारण है कि अनुवाद की प्रक्रिया में स्रोत-भाषा और लक्ष्य-भाषा की
समतुल्यता के बदले उसका न्यूनानुवाद या अधिअनुवाद ही हो पाता है।
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