शिक्षा मंत्रालय ने
विभिन्न भाषाविदों के सहयोग से हिंदी वर्तनी की विविध समस्याओं पर गम्भीर
रूप से विचार-विमर्श करने के बाद अपनी संस्तुतियाँ सन् 1967 में हिंदी
वर्तनी का मानकीकरण’ नामक एक पुस्तिका प्रकाशित की जिसकी काफी
सराहना हुई।
हिंदी वर्तनी का मानकीकरण की आवश्यकता
किसी भी भाषा के सीखने-सिखाने में सहायक या बाधक बनने वाले दो प्रमुख तत्त्व हैं उसका व्याकरण और लिपि। लिपि का एक पक्ष है सामान्य और विशिष्ट स्वनों के पृथक् प्रतीक-वर्णों की समृद्धि, उनका परस्पर स्पष्ट आकार-भेद, लिखावट में सरलता तथा स्थान-लाघव एवं प्रयत्न-लाघव।भारतीय संघ तथा कुछ राज्यों की राजभाषा स्वीकृत हो जाने के फलस्वरूप हिंदी का मानक रूप निर्धारित करना बहुत आवश्यक था, ताकि वर्णमाला में सर्वत्र एकरूपता रहे और टाइपराइटर आदि आधुनिक यंत्रों के उपयोग में लिपि की अनेकरूपता बाधक न हो।
लिपि का दूसरा पक्ष है, वर्तनी। एक ही स्वन को प्रकट करने के लिए विविध वर्णों का प्रयोग वर्तनी को जटिल बना देता है और यह लिपि का एक सामान्य दोष माना जाता है। यद्यपि देवनागरी लिपि में यह दोष न्यूनतम है, फिर भी उसकी कुछ अपनी विशिष्ट कठिनाइयाँ भी हैं। इन सभी कठिनाइयों को दूर कर हिंदी वर्तनी में एकरूपता लाने के लिए भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने सन् 1961 में एक विशेषज्ञ समिति नियुक्त की थी। समिति ने अप्रैल, 1962 में अपनी अन्तिम सिफारिशें प्रस्तुत कीं, जिन्हें सरकार ने स्वीकृत किया।
लिपि का दूसरा पक्ष है, वर्तनी। एक ही स्वन को प्रकट करने के लिए विविध वर्णों का प्रयोग वर्तनी को जटिल बना देता है और यह लिपि का एक सामान्य दोष माना जाता है। यद्यपि देवनागरी लिपि में यह दोष न्यूनतम है, फिर भी उसकी कुछ अपनी विशिष्ट कठिनाइयाँ भी हैं। इन सभी कठिनाइयों को दूर कर हिंदी वर्तनी में एकरूपता लाने के लिए भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने सन् 1961 में एक विशेषज्ञ समिति नियुक्त की थी। समिति ने अप्रैल, 1962 में अपनी अन्तिम सिफारिशें प्रस्तुत कीं, जिन्हें सरकार ने स्वीकृत किया।
इन्हें 1967 में हिंदी वर्तनी का मानकीकरण’ शीर्षक पुस्तिका में व्याख्या तथा उदाहरण सहित प्रकाशित किया गया था।
हिंदी वर्तनी के नियम
वर्तनी सम्बन्धी अद्यतन नियम इस प्रकार हैं :
1. संयुक्त वर्ण
(क) खड़ी पाई वाले व्यंजन - खड़ी पाई वाले व्यंजनों का संयुक्त रूप खड़ी पाई को हटाकर ही
बनाया जाना चाहिए, यथा : ख्याति, लग्न, विघ्न व्यास, कच्चा, छज्जा, श्लोक, नगण्य, राष्ट्रीय , कुत्ता, पथ्य, ध्वनि, न्यास स्वीकृति, प्यास, डिब्बा, सभ्य, रम्य यक्ष्मा शय्या, उल्लेख
(ख) अन्य व्यंजन
1. ‘क’ और ‘फ़’ के संयुक्ताक्षर : संयुक्त, पक्का आदि की तरह बनाए जाएँ, न कि संयुक्त, पôा की
तरह।
2. ड़, छ, ट, ठ, ड, ढ, द और ह के संयुक्ताक्षर हल् चिह्न लगाकर ही
बनाए जाएँ : जैसे : वाड़्मय, लट्टू, बुड्ढा, विद्या, चिह्न, ब्रह्मा आदि। (वाड़मय,लट्टू, बुड्ढा, विद्या, चिह्न, ब्रह्मा नहीं)
3. संयुक्त ‘र’ के प्रचलित तीनों रूप यथावत् रहेंगे। जैसे : प्रकार, धर्म, राष्ट्र
4. श्री का प्रचलित रूप ही मान्य होगा। इसे ‘श्र’ के रूप में नहीं लिखा
जाएगा। त़्र के संयुक्त रूप के लिए पहले त्र और त्र दोनों रूपों में से किसी
एक के प्रयोग की छूट दी गई थी परन्तु अब इसका परम्परागत रूप ‘त्र‘ ही
मानक माना जाए। श्र और त्र के अतिरिक्त अन्य व्यंजऩर के संयुक्ताक्षर (इ)
के नियमानुसार बनेंगे। जैसे : क्र, प्र, ब्र, स्र, ह्र आदि।
5. हल् चिह्न युक्त वर्ण से बनने वाले संयुक्ताक्षर के द्वितीय, व्यंजन के
साथ ‘इ’ की मात्रा का प्रयोग संबंधित व्यंजन के तत्काल पूर्व ही किया जाएगा,
न कि पूरे युग्म से पूर्व यथा : कुट्टिम, द्वितीय,, बुद्धिमान, चिह्नित आदि (
कुट्टिम, द्वितीय,, बुद्धिमान, चिह्नित नहीं)
6. संस्कृत में संयुक्ताक्षर पुरानी शैली से भी लिखे जा सकेंगे, जैसे- संयुक्त,
पôा, विद्या, द्वितीय, बुद्धि आदि।
2. विभक्ति-चिह्न
1. हिंदी के विभक्ति-चिह्न सभी प्रकार के संज्ञा शब्दों में प्रतिपदिक से पृथक् लिखे जाएँ, जैसे- राम ने, राम को, राम से आदि तथा स्त्री ने , स्त्री को, स्त्री से आदि। सर्वनाम शब्दों में ये चिह्न प्रातिपादिक के साथ मिलाकर लिखे जाएँ, जैसे- उसने, उसको, उससे, उसपर आदि।2. सर्वनामों के साथ यदि दो विभक्ति-चिह्न हों तो उनमें पहला मिलाकर
और दूसरा पृथक् लिखा जाए, जैसे- उसके लिए, इसमें से।
3. सर्वनाम और विभक्ति के बीच ‘ही’, ‘तक’ आदि का निपात हो तो विभक्ति
को पृथक् लिखा जाए, जैसे- आप ही के लिए, मुझ तक को ।
3. क्रियापद
संयुक्त क्रियाओं में सभी अंगीभूत क्रियाएँ पृथक्-पृथक् लिखी जाएँ, जैसे- पढ़ा करता है, आ सकता है, जाया करता है, खाया करता है, कर सकता है, किया करता था, पढ़ा करता था, खेला करेगा, घूमता रहेगा, बढ़ते चले जा रहे हैं आदि।4. हाइफ़न
हाइफन का विधान स्पष्टता के लिए किया गया है।
1. द्वंद्व समास में पदों के बीच हाइफन रखा जाए, जैसे : राम-लक्ष्मण,
शिव-पार्वती-संवाद, देख-रेख, चाल-चलन, हँसी-मज़ाक, लेन-देन आदि।
2. सा, जैसा आदि से पूर्व हाइफ़न रखा जाए जैसे- तुम-सा, राम-जैसा,
चाकू-से तीखे।
3. तत्पुरुष समास में हाइफ़न का प्रयोग केवल वहीं किया जाए, जहाँ उसके
बिना भ्रम होने की संभावना हो, अन्यथा नहीं, जैसे- भू-तत्व। सामान्यत:
तत्पुरुष, समासों में हाइफ़न लगाने की आवश्यकता नहीं है। जैसे- रामराज्य,
राजकुमार, गंगाजल, ग्रामवासी, आत्महत्या आदि। इसी तरह यदि ‘अ-नख’ (बिना नख का) समस्त पद में हाइफ़न न
लगाया जाए तो उसे ‘अनख’ पढ़े जाने से ‘क्रोध’ का अर्थ भी निकल सकता
है।
अ-नति (नम्रता का अभाव) : अनति (थोड़ा), अ-परस (जिसे किसी ने न
छुआ हो) : अपरस (एक चर्म रोग), भू-तत्व (पृथ्वी-तत्व) : भूतत्व (भूत होने का
भाव) आदि समस्त पदों की भी यही स्थिति है। ये सभी युग्म वर्तनी और अर्थ
दोनों दृष्टियों से भिन्न-भिन्न शब्द हैं।
4. कठिन संधियों से बचने के लिए भी हाइफ़न का प्रयोग किया जा सकता
है। जैसे : द्वि-अक्षर, द्वि-अर्थक आदि।
5. अव्यय
‘तक’, ‘साथ’ आदि अव्यय सदा पृथक् लिखे जाएँ, जैसे- आपके साथ, यहाँ तक। इस नियम को कुछ और उदाहरण देकर स्पष्ट करना आवश्यक है। हिंदी में आह, ओह, आहा, ऐ, ही, तो, सो, भी, न, जब, तब, कब, यहाँ, कहाँ, सदा, क्या, श्री, जी, तक, भर, मात्र, साथ, कि, किंतु, मगर, लेकिन, चाहे, या, अथवा, तथा, यथा, और आदि अनेक प्रकार के भावों का बोध कराने वाले अव्यय हैं।कुछ अव्ययों के आगे विभक्ति चिह्न भी आते हैं, जैसे-अब से, यहाँ
से, वहाँ से, सदा से आदि। नियम के अनुसार अव्यय सदा पृथक् लिखे जाने
चाहिए, जैसे- आप ही के लिए, मुझ तक को, आपके साथ, गज़ भर कपड़ा,
देश भर, रात भर, वह इतना भर कर दे, मुझे जाने दो, काम भी नहीं बना,
पचास रुपये मात्र आदि।
सम्मानार्थक ‘श्री’ और ‘जी’ अव्यय भी पृथक् लिखे
जाएँ, जैसे- श्री राम, वाजपेयी जी, नेहरू जी, गांधी जी आदि।
समस्त पदों में प्रति, मात्र, यथा आदि अव्यय पृथक् नहीं लिखे जाएँगे, जैसे- प्रतिदिन, प्रतिशत, मानवमात्र, निमित्तमात्र, यथासमय, यथोचित आदि। यह सर्वविदित नियम है कि समास होने पर समस्त पद एक माना जाता है। अत: उसे पृथक रूप में न लिखकर एक साथ लिखना ही संगत है। ‘दस रुपये मात्र‘, ‘मात्र दो व्यक्ति’ में पदबंध की रचना है। यहाँ ‘मात्र‘ अलग से लिखा जाए, मिलाकर नहीं।
समस्त पदों में प्रति, मात्र, यथा आदि अव्यय पृथक् नहीं लिखे जाएँगे, जैसे- प्रतिदिन, प्रतिशत, मानवमात्र, निमित्तमात्र, यथासमय, यथोचित आदि। यह सर्वविदित नियम है कि समास होने पर समस्त पद एक माना जाता है। अत: उसे पृथक रूप में न लिखकर एक साथ लिखना ही संगत है। ‘दस रुपये मात्र‘, ‘मात्र दो व्यक्ति’ में पदबंध की रचना है। यहाँ ‘मात्र‘ अलग से लिखा जाए, मिलाकर नहीं।
6. श्रुतिमूलक ‘य’, ‘व’
1. जहाँ श्रुतिमूलक य, व का प्रयोग विकल्प से होता है वहाँ इनका प्रयोग न किया जाए, अर्थात् किए-किये, नई-नयी, हुआ-हुवा आदि में से पहले (स्वरात्मक) रूपों का प्रयोग किया जाए। यह नियम क्रिया, विशेषण, अव्यय आदि सभी रूपों और स्थितियों में लागू माना जाए, जैसे- दिखाए गए, राम के लिए, पुस्तक लिए हुए, नई दिल्ली आदि।2. जहाँ ‘य’ श्रुतिमूलक व्याकरणिक परिवर्तन न होकर शब्द का ही मूल
तत्त्व हो वहाँ वैकल्पिक श्रुतिमूलक स्वरात्मक परिवर्तन करने की आवश्यकता
नहीं है, जैसे- स्थायी, अव्ययीभाव, दायित्व आदि। अर्थात् यहाँ स्थाई,
अव्यईभाव, दाइत्व नहीं लिखा जाएगा।
7. अनुस्वार तथा अनुनासिकता-चिह्न(चंद्रबिंदु)
अनुस्वार ( • ) तथा अनुनासिकता-चिह्न(ँ) दोनों प्रचलित रहेंगे।1. संयुक्त व्यंजन के रूप में जहाँ पंचमाक्षर के बाद सवर्गीय शेष चार वर्णों
में से कोई वर्ण हो तो एकरूपता और मुद्रण/लेखन की सुविधा के लिए
अनुस्वार का ही प्रयोग करना चाहिए, जैसे- गंगा, चंचल, ठंडा, संध्या, संपादक
आदि में पंचमाक्षर के बाद उसी वर्ग का वर्ण आगे आता है, अत: पंचमाक्षर के
स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग होगा। (गड़्गा, च´्चल, ठण्डा, सन्ध्या, सम्पादक
का नहीं)
2. चंद्रबिंदु के बिना प्राय: अर्थ में भ्रम की गुंजाइश रहती है, जैसे- हंस : हँस,
अंगना : अँगना आदि में। अतएव ऐसे भ्रम को दूर करने के लिए चंद्रबिंदु का
प्रयोग अवश्य किया जाना चाहिए। किंतु जहाँ (विशेषकर शिरोरेखा के ऊपर
जुड़ने वाली मात्रा के साथ) चंद्रबिंदु के प्रयोग से छपाई आदि में बहुत कठिनाई
हो और चंद्रबिंदु के स्थान पर बिंदु (अनुस्वार चिह्न) का प्रयोग किसी प्रकार
का भ्रम उत्पन्न न करे, वहाँ चंद्रबिंदु के स्थान पर बिंदु की छूट दी जा सकती
है, जैसे- नहीं, में, मैं आदि।
कविता आदि के प्रसंग में छंद की दृष्टि से
चंद्रबिंदु का यथास्थान अवश्य प्रयोग किया जाए। इसी प्रकार छोटे बच्चों की
प्रवेशिकाओं में जहाँ चंद्रबिंदु उच्चारण सिखाना अभीष्ट हो, वहाँ उसका
यथास्थान सर्वत्र प्रयोग किया जाए, जैसे- कहाँ, हँसना, आँगन, सँवारना आदि।
8. विदेशी ध्वनियाँ
1. अरबी-फ़ारसी या अंग्रेजी मूलक वे शब्द जो हिंदी के अंग बन चुके हैं और जिनकी विदेशी ध्वनियों का हिंदी ध्वनियों मं रूपांतर हो चुका है, हिंदी रूप में ही स्वीकार किए जा सकते हैं, जैसे- कलम, किला, दाग आदि (क़लम, क़िला, दाग़ आदि नहीं)। पर जहाँ उनका शुद्ध विदेशी रूप में प्रयोग अभीष्ट हो अथवा उच्चारण भेद बताना आवश्यक हो वहाँ उनके हिंदी में प्रचलित रूपों में यथास्थान नुक्ते ( ़) लगाए जाएँ, जैसे-खाना : ख़ाना, राज : राज़, हाइफन : हाइफ़न।2. अंग्रेजी के जिन शब्दों में अर्धविवृत ‘ओ’ ध्वनि का प्रयोग होता है, उनके
शुद्ध रूप का हिंदी में प्रयोग अभीष्ट होने पर ‘आ’ की मात्रा के ऊपर अर्धचंद्र
का प्रयोग किया जाए (ऑ, ॉ)। जैसे- हॉल, मॉल, टॉकीज आदि जहाँ तक अंग्रेजी और अन्य विदेशी भाषाओं से नए शब्द ग्रहण करने
और उनके देवनागरी लिप्यंतरण का संबंध है, अगस्त-सितंबर, 1962 में
‘वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग’ द्वारा वैज्ञानिक शब्दावली पर
आयोजित भाषाविदों की संगोष्ठी में अंतरराष्ट्रीय शब्दावली के देवनागरी
लिप्यंतरण के संबंध में की गई सिफ़ारिश उल्लेखनीय है। उसमें यह कहा गया
है कि अंग्रेजी शब्दों का देवनागरी लिप्यंतरण इतना क्लिष्ट नहीं होना चाहिए
कि उसके वर्तमान देवनागरी वर्णों में अनेक नए संकेत-चिह्न लगाने पड़े।
शब्दों का देवनागरी लिप्यंतरण मानक अंग्रेजी उच्चारण के अधिक-से-अधिक
निकट होना चाहिए।
3. हिंदी में कुछ शब्द ऐसे हैं, जिनके दो-दो रूप बराबर चल रहे हैं।
विद्वत्समाज में दोनों रूपों की एक-सी मान्यता है। फ़िलहाल इनकी एकरूपता
आवश्यक नहीं समझी गई है। कुछ उदाहरण हैं- गरदन/गर्दन, गरमी/गर्मी,
बरफ़/बफऱ्, बिलकुल/बिल्कुल, सरदी/सर्दी, भरती/भर्ती, फुरसत/फुर्सत,
बरदाश्त/बर्दाश्त, वापिस/वापस, आखीर/आखिर, बरतन/बर्तन,
दोबारा/दुबारा, दुकान/दूकान, बीमारी/बिमारी आदि।
9. हल् चिह्न
संस्कृतमूलक तत्सम शब्दों की वर्तनी में समान्यत: संस्कृत रूप ही रखा जाए, परंतु जिन शब्दों के प्रयोग में हिंदी में हल् चिह्न लुप्त हो चुका है, उनमें उसको फिर से लगाने का यत्न न किया जाए, जैसे- ‘महान’, ‘विद्वान’ आदि के ‘न’ में।10. स्वन परिवर्तन
संस्कृतमूलक तत्सम शब्दों की वर्तनी को ज्यों-का-त्यों ग्रहण किया जाए। अत: ‘ब्रह्मा’ को ब्रम्हा’, ‘चिह्न’ को ‘चिन्ह’, ‘उऋण’ को ‘उरिण’ में बदलना उचित नहीं होगा। इसी प्रकार ‘ग्रहीत’, ‘दृष्टव्य’, ‘प्रदर्शिनी’, ‘अत्याधिक’, ‘अनाधिकार’ आदि अशुद्ध प्रयोग ग्राह्य नहीं हैं। इनके स्थान पर क्रमश: ‘गृहीत’, ‘द्रष्टव्य’, ‘प्रदर्शनी’, ‘अत्यधिक’, ‘अनधिकार’ ही लिखना चाहिए।जिन तत्सम शब्दों में तीन व्यंजनों के संयोग की स्थिति में एक द्वित्वमूलक
व्यंजन लुप्त हो गया है उसे न लिखने की छूट है, जैसे-अर्ध/अर्ध,
उज्जवल/उज्ज्वल, तत्तव/तत्व, महत्तव/महत्व आदि।
यह भी सच है कि भाषा-विषयक कठोर नियम बना देने से उनकी स्वीकार्यता तो संदेहास्पद हो ही जाती है, साथ ही भाषा के स्वाभाविक विकास में भी अवरोध आने का थोड़ा-सा डर रहता है। फलत: भाषा गतिशील, जीवन्त और समयानुरूप नहीं रह पाती। हिंदी वर्तनी की एकरूपता विषयक नियम निर्धारित करते समय इन सब तथ्यों को ध्यान में रखा गया है और इसीलिए, जहाँ तक बन पड़ा है, काफ़ी हद तक उदारतापूर्ण नीति अपनाई गई है।
11. विसर्ग
संस्कृत के जिन शब्दों में विसर्ग का प्रयोग होता है, वे यदि तत्सम रूप में प्रयुक्त हों तो विसर्ग का प्रयोग अवश्य किया जाए, जैसे- ‘दु:खानुभूति में’ । यदि उस शब्द के तद्भव रूप में विसर्ग का लोप हो चुका हो तो उस रूप में विसर्ग के बिना भी काम चल जाएगा, जैसे- ‘दुख-सुख के साथी’।12. ‘ऐ’, ‘औ’ का प्रयोग
हिंदी में ऐ ( ै), औ ( ौ) का प्रयोग दो प्रकार की ध्वनियों को व्यक्त करने के लिए होता है। पहले प्रकार की ध्वनियाँ ‘है’, ‘और’ आदि में हैं तथा दूसरे प्रकार की ‘गवैया’, ‘कौवा’ आदि में। इन दोनों ही प्रकार की ध्वनियों को व्यक्त करने के लिए इन्हीं चिह्नों (ऐ ै, औ ौ) का प्रयोग किया जाए। ‘गवय्या’, ‘कव्वा’ आदि संशोधनों की आवश्यकता नहीं है।13. पूर्णकालिक प्रत्यय
पूर्णकालिक प्रत्यय ‘कर’ क्रिया से मिलाकर लिखा जाए, जैसे- मिलाकर, खा-पीकर, रो-रोकर आदि।14. अन्य नियम
- शिरोरेखा का प्रयोग प्रचलित रहेगा।
- फुलस्टॉप को छोड़ कर शेष विराम आदि वही ग्रहण कर लिए जाएँ, जो अंग्रेजी में प्रचलित हैं, यथा- ( . - , ; ? ! : = ) ( विसर्ग के चिह्न को ही कोलन का चिह्न मान लिया जाए)
- पूर्ण विराम के लिए खड़ी पाई (।) का प्रयोग किया जाए।
यह भी सच है कि भाषा-विषयक कठोर नियम बना देने से उनकी स्वीकार्यता तो संदेहास्पद हो ही जाती है, साथ ही भाषा के स्वाभाविक विकास में भी अवरोध आने का थोड़ा-सा डर रहता है। फलत: भाषा गतिशील, जीवन्त और समयानुरूप नहीं रह पाती। हिंदी वर्तनी की एकरूपता विषयक नियम निर्धारित करते समय इन सब तथ्यों को ध्यान में रखा गया है और इसीलिए, जहाँ तक बन पड़ा है, काफ़ी हद तक उदारतापूर्ण नीति अपनाई गई है।