यथार्थवाद का अर्थ, परिभाषा, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

यथार्थवाद एक भौतिकवादी दर्शन है। वस्तु को वास्तविक अथवा यथार्थ मानने के कारण ही इस विचारधारा को वास्तववाद अथवा यथार्थवाद की संज्ञा दी जाती है। यथार्थवाद जगत को मिथ्या कहने वाली भावना का विरोधी स्वर है।

यथार्थवाद का अर्थ

यथार्थवाद का अर्थ यथार्थवाद के लिए अंग्रेजी का शब्द ‘रियलिज्म’ है। ‘रियल’ शब्द ग्रीक भाषा के रीस शब्द से बना है जिसका अर्थ है वस्तु। अत: रियल का अर्थ होता है वस्तु सम्बंधी । यही कारण है ‘‘रियलिज्म’ (यथार्थवाद) वस्तु के अस्तित्व से सम्बन्धित यह एक दृष्टिकोण है जिसके अनुसार संसार की प्रत्येक वस्तु सत्य है और प्रत्यक्ष है। प्रत्यक्ष का अनुभव हमें इन्द्रियों से होता है। 

यथार्थवाद का परिभाषा

कार्टर वी0 गुड महोदय के अनुसार - ‘‘वह सिद्धान्त जिसके अनुसार वस्तुगत यथार्थता या भौतिक जगत चेतन मन से स्वतन्त्र रूप में अस्तित्व रखता है, उसकी प्रकृति और गुण उसके ज्ञान से मालूम होते हैं।’’

रास महोदय के अनुसार - ‘‘यथार्थवाद यह मानता है कि जो कुछ हम प्रत्यक्ष में अनुभव करते हैं, उनके पीछे तथा उनसे मिलता जुलता वस्तुओं का एक यथार्थ जगत है।’’

स्वामी रामतीर्थ के शब्दों में -’’यथाथर्वाद का अर्थ उस विश्वास अथवा सिद्धान्त से है जो संसार को वैसा ही मानता है जैसा वह हमें दिखाई पड़ता है - अर्थात संसार केलव एक प्रपंच मात्र है।’’

नेफ के अनुसार - ‘‘यथार्थ्वाद आत्मगत आदर्शवाद का प्रतिकार है, जो सत्य का निवास मानव मस्तिष्क में मानता है। सब यथार्थवादी इस बात से सहमत हैं कि सत्य और वास्तविकता का अस्तित्व है और रहेगा, भले ही किसी व्यक्ति को उनके अस्तित्व का ज्ञान न हों।’’

ब्राउन के अनुसार-’’यथार्थवाद का मखु य विचार यह है कि सब भौतिक वस्तएु तथा बाह्य जगत के पदार्थ वास्तविक हैं और उनका अस्तित्व देखने वाले से पश्थक है। यदि उनको देखने वाले व्यक्ति न हों, तो भी उनका अस्तित्व होगा और वे वास्तविक होंगे।’’

यथार्थवाद साधारण व्यक्तियों की विचाराधारा माना जाये तो कुछ अनुचित नहीं है। सरल यथार्थवाद वस्तु जगत के प्रति हमारे दैनिक जीवन अनुभव एवं विश्वास ही है। साधारणतया हम यह कह सकते हैं कि भौतिक सत्य को ही यथार्थवादी सब कुछ मानता ह। यथार्थवादी भौतिक जगत की सत्यता एवं सत्ता दोनों में विश्वास रखता है। यथार्थवाद प्रयोगवाद में विश्वास रखता है।

डॉ0 चौबे ने स्पष्ट तौर पर यथार्थवादी दर्शन के विषय में कहा -’’यथार्थवाद अनुभव में भौतिक यथार्थता के जगत को वास्तविक एवं आधारभूत वस्तु मानता है।

इसका विचार है कि भौतिक जगत ही वस्तुगत है और तथ्यगत जगत की कोई ऐसी वस्तु है जिसे जैसे वह है उसी तरह सरलता से स्वीकार कर लेता है।’’

यथार्थवाद का ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

यथार्थवाद विचारधारा नहीं है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह वाद भी कई शताब्दियों से चला आ रहा है। अरस्तु ने अपनी पुस्तक ‘फिजिक्स’ में लिखा है - ‘‘इस प्रकार की बहुत सी वस्तुयेंहैं जिन्हें हमसे संकेत किया है। जैसे कि पशु, पौघे, हवा, अग्नि और जल और जो अधिक स्पष्ट ढंग से प्रदर्शित करने का प्रयत्न करेगा तो उसे मालूम होगा कि अन्य कम प्रकट वस्तुओं की अपेक्षा उसे ज्ञात होगा कि उसमें विभेद करना कठिन नहीं है कि किनका अस्तित्व है किनका नहीं।’’ इसका अभिप्राय है कि जगत यथार्थ है। 

अरस्तु के बाद सन्त अक्विनास के विचारों में भी पदार्थ की यथार्थता का आभास मिलता है। सन्त अक्विनास ने माना कि ईश्वर ने वस्तु जगत का निर्माण किया है। इसके पश्चात दर्शन जगत में कमेनियस नामक शिक्षाशास्त्री ने यथार्थवाद की भावना का प्रचार किया। 

कमेनियस ने मन को एक वस्तु रूप दिया। उनके अनुसार मनुष्य का मन ‘‘एक गोल आकार का दर्पण है जो कमरे में टंगा है और जिसमें उसके चारों ओर की सभी वस्तुओं की प्रतिच्छाया पड़ती है।’’

कमेनियस के पश्चात यथार्थवाद का विकास वस्तुत: माना जाता है। इसके बाद सोलहवीं सत्रहवीं शताब्दी से यथार्थवाद ने एक नया रूप लेकर आगे की ओर विकसित हुआ। डेकोर्ट ने यथार्थवाद को एक नया रूप दिया और आदर्णवादी विचारों के साथ यथार्थवादी विश्वास को बढ़ावा दिया। 

डेकोर्ट ने अपने िद्वेतत्ववाद ने यथार्थवाद की स्पष्ट झलक दिया और स्पष्ट किया कि ईश्वर एवं प्रकृति अलग-अलग तत्व हैं। इसके पश्चात् स्पिनोजा ने भौतिक पदार्थ एवं वस्तुओं के प्रसार में ईश्वर के गुण को देखकर यथार्थवादी विचारधारा को हवा दी। स्पिनोजा के पश्चात लॉक ने अपने विचार प्रस्तुत किये कि अनुभव से ही ज्ञान प्राप्त होता है और अनुभव प्राप्त करने में प्रकृति सहयोग देती है। 

प्रथम प्रकार अनुभव बाह्य जगत के प्रभाव से इन्द्रियों के द्वारा मन को ज्ञान मिलता है। लॉक के पश्चात कान्ट के विचारधारा में भी यथार्थवादी झलक मिलती है। कान्ट के अनुसार हमारे इन्द्रियानुभव और प्रत्यक्षीकरण बाह्य जगत की पुन:उपस्थिति हैं। यदि ये हमारी चेतना में उपस्थित हैं तो कांट का यह विचार नवयथार्थवाद से मिलता है। शिक्षाशास्त्री हरबार्ट के विचार में भी यथार्थवादी पुट मिलता है क्योंकि हरबार्ट मन पर बाह्य जगत पर प्रभाव मानते हैं।

बीसवीं शताब्दी से यथार्थवाद की नयी विचारधारा ने जन्म लिया और यह नवयथार्थवाद कहलायी। राल्फ, बाटन, पैरो, एडविन, वी0होल्ट, वाल्टर टी0, मारावन, एडवर्ड, ग्लीसन, स्फालडिंग तथा वाल्टर वी0 पिटकिन आदि नवयथार्थवादी कहलाये। यूरोप में यथार्थवाद का विकास का श्रेय ब्रेटेनो तथा माीरांग तथा जेम्स और मोच को है। बाद में मूर तथा रसेल ने आदर्शवाद के विरोध में यथार्थवाद को बढ़ाया। 

अमेरिका में इंग्लैण्ड के दार्शनिक नन, रसेल आदि के प्रयासों से आगे बढ़ा। इसके पश्चात् एलेक्जेन्डर, लायड मार्गन, मायड, मूर, केम्प, स्मिथ, जोड आदि अन्य दार्शनिकों ने यथार्थवादी प्रवृत्ति प्रकट की है। इसके पश्चात् आलोचनात्मक यथार्थवाद ने जन्म लिया। इनमें यथार्थवाद ड्यूरट डे्रक, आथर ओ0 लवज्वाय, जेम्स विसेट प्रैट, जार्ज सथ्याना, आर्थर के0 राजर्स तथा सा0ए0 स्ट्रांग आदि प्रमुख हैं। नवयथार्थवाद एवं आलोचनात्मक यथार्थवाद में भेद केवल ज्ञान के सिद्धान्त में से हैं। 

आलोचनात्मक यथार्थवाद के अनुसार हमारी चेतना में वस्तु की उपस्थित नहीं हो तो बल्कि उसकी पुनरूपस्थिति होती है और चेतना में हम जिस वस्तु का अनुभव करते हैं वह बाह्य वस्तु से अलग होती है। नवयथार्थवादी ऐडमसन तथा एंडू्रसेट नामक नवयथार्थवादी के अनुसार वस्तु हमारे जगत ने यथार्थ होती हैं और प्रत्यक्षीकरण के तीन अंश होते हैं- प्रत्यक्षीकरण का कार्य, प्रत्यक्ष, प्रत्यक्षीकृत वस्तु। बाद में सेलार्स ने भौतिक यथार्थवाद की विचारधारा निकाला जिनके अनुसार संसार की वस्तुओं का स्थान तथा भौतिक गुण होता है और वे भौतिक प्रणाली में अविच्छेद रूप से बंधी हुयी है।

भारतीय दार्शनिक परम्परा में यथार्थवादी विचारधारा भी मिलती है। वेदों में प्रकृति के तत्वों का वर्णन मिलता है, जिन्हें देवरूप स्वीकार किया गया और तत्सम्बन्ध्ाी उपासना हुयी। मानव शरीर को पंचतत्व का मेल माना और शरीर को धर्म का साधन माना। साधन को यथार्थ व अस्तित्ववान माना गया।

यथार्थवादी के तत्वमीमांसा के तत्व भारतीय दर्शन में मिलता है जिसमें संसार के पदार्थ भौतिक तथा मानसिक पदार्थ में बंटे माने गये। चरम यथार्थवादी चार्वाकवादी माने गये और इन्होंने संसार को यथार्थ माना। इन चार्वाकवादियों में इन्द्रियसुख को महत्व दिया। सांख्य दर्शन में भी यथार्थवादी तत्व पाये जाते हैं क्योंकि प्रकृति एवं पुरूष दो तत्व माने गये हैं। प्रकृति को सत्य, रजस और तमस् से युक्त माना गया और प्रकृति के परिवर्तन पुरुष के लिए उपभोग का आधार प्रदान करती है।

बौद्ध दर्शन में यथार्थवादी तथ्य प्रकट होते हैं, बौद्ध विषय वादियों की एक प्रणाखा मानता है कि बाह्य जगत है तथा उनका अपरोक्ष तथा साक्षात् प्रत्यक्ष होता है। बौद्ध धर्म का दूसरा सम्प्रदाय यह मानता है कि पदार्थों का उनके प्रत्ययों से अनुमान लगाया जता है जो उनकी प्रतिच्छाया तथा प्रतिरूप है। इस प्रकार से स्पष्ट है कि भारतीय दर्शन की विभिन्न शाखाओं में भी यथार्थवादी भावना पायी जाती है।

यथार्थवाद के दार्शनिक आधार

1. तत्व दर्शन में यथार्थवाद -यर्थाथवाद यह मानते हैं कि ब्रह्माण्ड गतिणील पदार्थ का बना है? हम अपने अनुभवों के आधार पर जगत के नियमित क्रियाकलापों को पहचान सकते हैं। पदार्थ गतिशील हैं और वह अस्तित्व में हैं इसलिए सत्य है।

2. ज्ञान शास्त्र मे यथार्थवाद -यथार्थवादियों का विचार है कि वास्तविक जगत का अस्तित्व है। हम वास्तविक वस्तु को जानते हैं क्योंकि इसका अस्तित्व है। हम यह कह सकते हैं कि वस्तु का वास्तविक जगत में अस्तित्व है तो वह सत्य है। कोई भी कथन विश्लेषण के पश्चात ही स्वीकार्य है। ज्ञान का अस्तित्व मस्तिष्क ही स्वीकार करता है।

3. मूल्य मीमांसा मे यथार्थवाद - यथार्थवादी प्राकश्तिक नियमों मे विश्वास करते हैं उनका कहना है कि मनुष्य इन नियमों का पालन करके सद्जीवन व्यतीत कर सकता है। प्रकृति सौन्दर्य से परिपूर्ण है। सौन्दर्य पूर्ण कला-कार्य, ब्रह्माण या प्रकृति की व्यवस्था तथा तर्क की प्रतिछाया है। कला की सराहना की जानी चाहिए।

4. यथार्थवाद के सिद्धान्त - यथार्थवाद प्रत्यक्ष जगत में ही विश्वास करते हैं उनके अनुसार अस्तित्व प्रत्यक्ष में हैं। उनके कुछ निश्चित सिद्धान्त हैं जिस पर नीचे विचार किया जा रहा है।

5. दृश्य जगत ही सत्य-यथार्थवादी यह मानते है कि जो कुछ हम दखेते सुनते व अनुभव करते हैं वही सत्य है। प्रत्यक्ष ही सत्य है। इस जगत का सत्यता विचारों के कारण नहीं है अस्तित्व स्वयं में हैं।

6. इन्द्रियाँ अनुभव व ज्ञान का आधार -सच्चे ज्ञान की पा्र प्ति ने हमारी बाह्य इन्द्रियां सहायक होती हैं क्योंकि यह हमें अनुभव प्रदान कर पूर्ण एवं वास्तविक ज्ञान लेने का आधार बनाती हैं। रसेल व हाइटहैड ने संवेदना को ज्ञान का आधार माना। रसेल के अनुसार - ‘‘पदार्थ के अन्तिम निर्णायक तत्व अणु नहीं है, वरन संवेदन हैं’। मेरा विश्वास है कि हमारे मानसिक जीवन के रचनात्मक तत्व संवेदना तत्व संवेदनाओं औति प्रतिभाओं में निहित होते हैं।’’

7. वस्तु जगत की निरन्तरता - यथार्थवादी वस्तु जगत मे नियमितता को स्वीकार करते हैं। वे मन को भी यांत्रिक ढंग से क्रियाशील मानते हैं। यथार्थवादियों का विचार है कि अनुभव और ज्ञान के लिए नियमिता का होना आवश्यक है।

8. यथार्थवाद पारलौकिकता को अस्वीकार करता है - यथार्थवाद प्रत्यक्ष को ही मानता है क्योंकि उसका अस्तित्व है और यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण का आधार है।

9. वर्तमान व व्यावहारिक जीवन को महत्व - यथार्थवादी उन आदर्शों, नियमों एवं मूल्यों का कोई महत्व नहीं देते हैं। जिनका सम्बन्ध वर्तमान एवं व्यवहारिकता से नहीं है। बौद्धिकता व आदर्शवादिता जीवन को सुखी नहीं कर सकते उनका मानना है कि-
  1. जीवन का लक्ष्य समाज का कल्याण होना चाहिए। 
  2. समाज के लोगों का दृष्टि कोण वैज्ञानिक हो। 
  3. सामाजिक सक्रियता पर बल दिया जाना चाहिए। 
  4. जीवन में वे क्रियायें अपनायी जायें जो लाभप्रद हों। 
  5. वर्तमान जीवन ही विश्वसनीय हैं और भौतिकता से परिपूर्ण होना चाहिए।

यथार्थवाद के सम्प्रदाय

अब आप यर्थावाद के दार्शनिक आधार एवं सिद्धान्तों की जानकारी प्राप्त कर चुके हैं। अब हम यह जानेंगे कि यथार्थवाद के कौन-कौन से सम्प्रदाय हैं इनके विषय में नीचे वर्णन किया गया है।

1. मानववादी यथार्थवाद - इसे एेितहासिक यथार्थवाद कहा गया। इसका जाना सांस्कृतिक पुनरूत्थान के युग में हुआ। इस युग में मनुण्य को सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया। इस दर्शन में मुख्य रूप जीवन एवं प्रकृति को महत्व दिया और प्राचीन साहित्य अध्ययन को महत्व दिया। इस विचारधारा को मानने वाले इरैसमस, रैबेले एवं मिल्टन थे।

2. समाजिकतावादी यथार्थवाद - इस विचारधारा ने पुस्तकीय अध्ययन का विरोध किया। बालक में सामाजिक कुशलता को उत्पत्ति को शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य माना एवं व्यवहारिक अनुभव आधारित शिक्षा पर बल दिया। लॉड मोटैन एवं जॉन लॉक प्रमुख विचारक थे।

3. ज्ञानेन्द्रिय यथार्थवाद - इस विचारधारा का सबसे अधिक प्रभाव शिक्षा पर पड़ा। इसके दृष्टिकोण में प्रकृतिवाद एवं प्रयोज्यवाद के सभी अनुभववादी सिद्धान्तों की झलक मिलती है।
इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री बेकन, जर्मनी के रॉटके व चेकोस्लोबाकिया का कामेनियस इस विचारधारा के विचारक माने गये ज्ञानेन्द्रिय यथार्थ ने ज्ञानेन्द्रियों को ज्ञान का मुख्य आधार माना इस विचारधारा ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया।

यथार्थवाद एवं शिक्षा 

यथार्थवादी शिक्षा का क्रमबद्ध विवेचन हैरी ब्राउडी की पुस्तक ‘‘बिल्डिंग अ फिलासफी ऑफ एजुकेणन’’ (1954) में प्राप्त होता है। यथार्थवादी शिक्षा की कुछ विशेषताएं नीचे वर्णित है-

1. उदार शिक्षा -यथार्थवादी उदार शिक्षा पर बल देते थे। उन्हानें पुस्तकीय एवं अव्यवहारिक ज्ञान का विरोध किया। मिल्टन ने स्पष्ट कहा है कि - ‘‘मैं उस शिक्षा को पूर्ण एवं उदार शिक्षा कहता हूँ जो एक व्यक्ति को न्यायोचित ढंग से कुणलतापूर्वक तथा उदारता के साथ निजी एवं सार्वजनिक- दोनों प्रकार के सभी कार्यों को णान्ति तथा युद्ध के समय पूर्ण करने के योग्य बनाती है।’’

2. विस्तृतृत एवं व्यवहारिक पाठ्यक्रम - रास ने स्पष्ट किया है कि यथार्थवाद पुस्तकीय एवं अवास्तविक ज्ञान के विरोध में आया है। यथार्थवाद ने पाठ्यक्रम को विस्तृत बनाया। कार्टर वी गुड ने लिखा है - ‘‘विस्तृत पाठ्यक्रम यथार्थवाद की एक प्रमुख विशेषत थी। 17 वीं शताब्दी के यथार्थवादियों के लिए यह स्वाभाविक नहीं थी कि वे 25 या 80 विषयों को अध्ययन हेतु प्रस्तुत करें। जिसमें लैटिन, फ्रैंच और वर्नाक्यूलर जैसी दो या तीन भाषाये, गणित की दो या तीन शाखायें, कई सामाजिक अध्ययन के विषय, बहुत से विज्ञान, दार्शनिक, सैन्य सम्बन्धी और व्यावसायिक तथा णिण्टाचार सम्बन्धी विभिन्न विषय हो।’’ यथार्थवादियों ने पाठ्यक्रम को वास्तविक जीवन से जोड़ा।

3. विज्ञान शिक्षा पर बल - यथार्थवाद के अनुसार व्यापक कोण और अन्य सच्ू य एवं निरर्थक विषयों के स्थान पर विज्ञानों का अध्ययन का क्षेत्र में होना चाहिए। हरबर्ट स्पेन्सर ने अपने लेख ‘‘एजूकेशन’’ में स्पष्ट किया और आवश्यकतानुसार विभिन्न विज्ञानों के अध्ययन पर बल दिया एवं आगमन विधि के प्रयोग पर जोर दिया।

4. व्यावसायिक शिक्षा पर बल - यथार्थवादी शिक्षा के साथ साथ व्यावसायिक शिक्षा पर भी बल देता है। डेविनपोर का कथन है - ‘‘कोई भी व्यक्ति किसी व्यवसाय के बिना शिक्षा का चयन न करें और न बिना शिक्षा के व्यवसाय का चयन करे।’’

5. सामाजिक संस्थाओं को महत्व - यथार्थवादी शिक्षा में विषयों की अपेक्षा प्राकृतिक तत्वों एवं सामाजिक संस्थाओं को महत्व दिया। पॉल मुनरो ने लिखा है - ‘‘शिक्षा में यथार्थवाद उस प्रकार की शिक्षा के लिए प्रयुक्त किया जाता है जिसमें भाषाओं और साहित्य की अपेक्षा प्राकृतिक घटनाओं और सामाजिक संस्थाओं का अध्ययन को मुख्य विषय बनाया जाता है।’’

6. वास्तविक शिक्षण पर बल - यथार्थवाद अध्यापक की शिक्षण विधि तथा मूल्यों से भी सम्बन्ध रखता है और इस बात पर बल देता है कि अध्यापक वास्तविक शिक्षण करे। रॉस ने लिखा है - ‘‘शिक्षा में यथार्थवादी विचारधारा को शिक्षण विधि के सम्बन्ध में ही नहीं वरन् उसकी पाठ्य वस्तु की महत्ता एवं उसके मूल्य हेतु सतत् चिन्तनशील रहने के लिए चुनौती देती रहती है।’’

7. शिक्षा जीवन की पूर्णता - यथार्थवादी मानते हैं कि शिक्षा को मानव को जीवन के सुख व उपभोग के लिए तैयार करना चाहिए।और शिक्षा मानव की रूचि, योग्यता एवं आवश्यकता के अनुसार नियोजित की जानी चाहिए।

यथार्थवादी शिक्षा के उद्देश्य 

मूल्यों के विषय में यथार्थवादी दृष्टिकोण व्यक्तिनिष्ठ न होकर वस्तुनिष्ठ है। अत: उद्देश्य में वस्तुनिष्ठता की स्पष्ट झलक मिलती है।

1. जीवन जीने की कला प्र्रदान करना - यथार्थवादी बच्चों को विद्धान बनाने के बजाय जीवन को सुचारू रूप से जीने की कला सिखाने की वकालत करते हैं। उनके अनुसार बालक को व्यावहारिक जीवन को सुख पूर्वक जीने के लिए सामाजिक एवं प्राकृतिक परिवेश का पूर्ण तथा समग्र ज्ञान आवश्यक है जिससे कि व्यक्ति समायोजित हो सके।

2. सामाजिक दायित्व के निर्वहन की योग्यता का विकास - रॉस ने आग्रह कर लिखा है कि ‘‘शिक्षा का उद्देश्य व्यक्तियों का इस प्रकार निर्माण करना है कि वे सामाजिक संस्थाओं में अपना दायित्व निभा सकें। वे सामाजिक संस्थायें हैं - परिवार, उद्योग, स्वास्थ्य संरक्षण राज्य इत्यादि।

3. वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास - यथार्थवादी शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करना भी है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के लिए तर्कनापरक विवके आवश्यक है। इससे बालक तथ्यों को खोजबीन करके सोच-समझकर वास्तविकता को समझ सकेगा।

4. जीवन को सुखी व सफल बनाना - यथार्थवादी वह मानते है कि शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो कि बालक को सुखी व सफल बनाये।

5. बालक का सर्वागीण विकास - यथार्थवादी यह मानते हैं कि शिक्षा को बालक के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक व सामाजिक विकास करना चाहिये। इस सम्वेत् विकास से सर्वांगीण विकास हो पायेगा। रैवेले के अनुसार-’’शिक्षा का उद्देश्य - बालका का सर्वांगीण विकास करना है।’’

6. व्यावसायिक आत्मनिर्भरता - यथार्थवादी मानते हैं कि जीवन को सभ्य, सुन्दर एवं उपयोगी बनाना है तो आत्मनिर्भरता अति आवश्यक है। विवेकानन्द जी के दर्शन में भी यथार्थवादी का पुट मिलता है उन्होंने स्पष्ट किया है -’मैं सच्ची शिक्षा उसे कहता हूँ जो बालक को इस योग्य बना दे कि वह अपने पैरों पर खड़ा हो जाये।’’

7. विवेकशील एवं सदाचारी बनाना - मान्टेसरी के अनुसार ‘‘व्यक्ति को बुद्धिमान एवं विवकेशील बनाना जिससे व्यक्ति जीवन को सफल एवं उपयोगी बना सके तथा समाज की उन्नति में सहयोग दे यही शिक्षा का उद्देश्य है।’’ लॉक के अनुसार-’’शिक्षा का उद्देश्य - बालक में सद्गुण, बुद्धिमता, सदाचरण तथा सीखने की शक्ति का विकास करना होना चाहिए।’’

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