संविधान के 11 मौलिक कर्तव्य कौन कौन से हैं?

संविधान के 11 मौलिक कर्तव्य

‘‘यदि प्रत्येक व्यक्ति केवल अपने अधिकार का ही ध्यान रखे एवं दूसरों के प्रति कर्तव्यों का पालन न करें तो शीघ्र ही किसी के लिए भी अधिकार नहीं रहेंगे।’’ करने योग्य कार्य ‘कर्तव्य’ कहलाते है किसी भी समाज का मूल्यांकन करते हुए ध्यान केवल अधिकारों पर ही नहीं दिया जाता है वरन् यह भी देखा जाता है कि नागरिक अपने कर्तव्यों का पालन करते है या नहीं। 

भारतीय संविधान के 11 मौलिक कर्तव्य

26 जनवरी 1950 में लागू किये गये भारतीय संविधान में नागरिकों के केवल अधिकारों का ही उल्लेख किया था मूल कर्तव्यों का नहीं। संविधान के 42वें संशोधन के द्वारा भाग 4 में धारा 51 A के अंतर्गत 11 मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है। 

भारत के नागरिकों के मौलिक कर्तव्य को सरदार स्वर्ण सिंह समिति की अनुशंसा पर संविधान 42वें संशोधन (1976) के द्वारा मौलिक कर्तव्य को संविधान में जोड़ा गया, इसे रूस के संविधान से लिया गया है। इसे भाग 4 (क) में अनुच्छेद 51 (क) के तहत रखा गया है। मौलिक कर्तव्यों की संख्या 11 है जो है- 
  1. प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह संविधान का पालन करें और उसके आदर्शों संस्थाओं राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करें। 
  2. स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और और राष्ट्रगान का आदर करें। 
  3. भारत की प्रभुत्ता, एकता और आखंडता की रक्षा करें और उसे अक्षुण्ण रखें। 
  4. देश की रक्षा करें। 
  5. भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करें। 
  6. हमारी सामाजिक संस्कृति की गौरवशाली परम्परा का महत्व समझे और उसका निर्माण करें। 
  7. प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और उसका संवर्धन करें। 
  8. वैज्ञानिक दृष्टिकोण और उसका ज्ञानार्जन की भावना का विकास करें। 
  9. सार्वजनिक सम्पत्ति को सुरक्षित रखें। 
  10. व्यक्तिगत एवं सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत्त प्रयास करें। 
  11. माता-पिता या संरक्षक द्वारा 6 से 14 वर्ष के बच्चों हेतु प्राथमिक शिक्षा प्रदान करना (86 वां संशोधन)

मौलिक कर्तव्यों का महत्व

अधिकारों और कर्तव्यों का घनिष्ठ संबंध सदैव से रहा है। अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के के ही पहलू हैं। एक के बिना दूसरा अस्तित्वहीन हो जाता है। कर्तव्यों के बिना अधिकारों की मांग करना नीतिसंगत और न्यायोचित नहीं है। वाइल्ड के अनुसार - ‘‘केवल कर्तव्यों के संसार में ही अधिकारों की प्रतिष्ठा है।’’ 

संविधान के 42वें संशोधन द्वारा नागरिकों के लिए कर्तव्यों का समावेश करके हमारे संविधान की एक बहुत बड़ी कमी को पूरा किया गया है। मौलिक कर्तव्यों को आंका जा सकता है-

1. समंप्रभुत्ता तथा अखण्डता की रक्षा - मौलिक कर्तव्यों द्वारा नागरिकों को यह निर्देश दिया गया है कि वे देश की सम्प्रभुता तथा अखण्डता की रक्षा करें। यदि सभी नागरिक निष्ठा एवं ईमानदारी से अपने इस कर्तव्य का पालन करने लग जायें तो भारत की सम्प्रभुता और अखण्डता चिरस्थायी बनी रहेगी। 

2. देश की प्रगति में सहायक - मौलिक कर्तव्यों द्वारा नागरिकों को आहन किया गया है कि वे संकट के समय देश की सुरक्षा हेतु तन-मन धन से अपने योगदान दें। 

3. देश की प्रगति में सहायक - नागरिकों द्वारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाये जाने से देश प्रगति की दिशा में आगे बढ़ेगा और विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में आ जायेगा। 

4. प्राकृतिक तथा सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा - भारत में प्राकृतिक तथा सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट करने में लोग कोई संकोच नहीं करते। मौलिक कर्तव्यों में दिये गये निर्देश के पालन से प्राकृतिक तथा सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा होगी। प्रदूषण दूर होगा, जिससे स्वास्थ्य-रक्षा होगी, साथ ही देश की प्रगति होगी। 

5. लोकतन्त्र को सफल बनाने में सहायक - भारत द्वारा अपनायी गयी लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था तब तक सफल नहीं हो सकती, जब तक नागरिक लोकतांत्रिक संस्थाओं का आदर न करें। मौलिक कर्तव्यों को संविधान में स्थान दिये जाने से लोग इन संस्थाओं का आदर करेंगे, जिससे लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था सुदृढ़ होगी। 

6. संस्कृति की रक्षा और संरक्षण - भारत में समन्वित संस्कृति होने के कारण कश्मीर से कन्याकुमारी तक विभिन्न प्रकार की गौरवशाली परम्पराएं है। मौलिक कर्तव्यों के पालन से ही विभिन्न प्रकार की इन परम्पराओं में समन्वय स्थापित कर सकेंगे और उनका संरक्षण कर सकेंगे। इससे भारत की सांस्कृतिक एकता सुदृढ़ होगी। 

7. विश्व-बन्धुत्व की भावना का विकास - मौलिक कर्तव्यों में भारतीय नागरिकों को सद्भावना तथा भाईचारे की भावना बनाये रखने का निर्देश दिया गया है, साथ ही हिंसा से दूर रहने का परामर्श दिया गया है। ये निर्देश और परामर्श मानवीय दृष्टिकोण अपनाने और विश्व-बंधुत्व की भावना को विकसित करने में सहायक सिद्ध होंगे। 

8. स्त्रियों का सम्मान - मौलिक कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करने से समाज में स्त्रियों को सम्मान प्राप्त होगा, जिससे उनकी गरिमा में वृद्धि होगी और लिंग संबंधी भेदभाव समाप्त होकर समानता स्थापित होगी।

मौलिक कर्तव्यों की प्रकृति 

हमारे संविधान में मौलिक कर्तव्य केवल आदर्शों की ओर संकेत करते हैं। वे वास्तविक नहीं जान पड़ते। इन कर्तव्यों की विशेष आलोचना इस प्रकार से है कि वे न्याययोग्य नहीं है। जिनका परिणाम यह निकलता है कि ये कर्तव्य संविधान पर बोझ बनकर रह गए हैं। कुछ कर्तव्य तो साधारण मनुष्य की समझ से बाहर है जैसे गौरवशाली परंपरा और सामाजिक संस्कृति का अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाता है। मानववाद और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कई परिभाषाएं हो सकती हैं। राष्ट्रीय संघर्ष को प्रोत्साहन देने वाले आदर्श से संबंधित कर्तव्य अस्पष्ट है। 

मौलिक कर्तव्यों की सूची में अस्पष्ट आदर्शों को सम्मिलित करने का कोई लाभ नहीं है। अच्छा तो यह था कि स्पष्ट कर्तव्यों को संविधान में सम्मिलित किया जाता और उसका पालन भी आसानी से किया जाता। यदि उनको भंग किया जाए तो सजा भी दी जाए। 1976 में एक न्याय शास्त्री ने कहा था कि शायद इन कर्तव्यों का पालन कभी नहीं किया जा सकता। यह सब एक पवित्र घोषणापत्र ही हैं। यह सत्य है कि कर्तव्य न्यायोग्य नहीं है, जैसे नीति-निर्देशक सिद्धांत हैं। फिर भी न्यायालयों ने इन पर पूरा ध्यान दिया है। 

इसके कुछ प्रमुख उदाहरण हैं- पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले उद्योगों को शहर से बाहर भेजना, यमुना के पानी को प्रदूषण से मुक्त रखने के उपाय करना, बूचड़खानों की आबादी के इलाकों से दूर ले जाना, आदि। इस प्रकार स्त्रियों की प्रतिष्ठा को बनाए रखने के संबंध में हर नागरिक का कर्तव्य है कि स्त्रियों की मान प्रतिष्ठा को बनाए रखने का सर्वोच्च न्यायालय ने इसे पुर्नस्थापित करने का आदेश दिया है।

संविधान में मूल कर्तव्यों का इतिहास

भारतीय संविधान में ही आरंभ में मूल कर्तव्य शामिल नहीं थे, इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व के काल में 1975 में आपातकाल की घोषणा की गई थी, तभी सरदार स्वर्णसिंह के नेतृत्व में संविधान में उपयुक्त संशोधन सुझाने के लिए एक समिति का गठन किया गया था। इस समिति ने यह सुझाव दिया कि संविधान के मूल अधिकारों के साथ-साथ मूल कर्तव्यों का समावेश होना चाहिये। समिति का तर्क यह था कि भारत में अधिकांश लोग अधिकारों पर बल देते है।, यह नहीं समझते कि अधिकार किसी न किसी कर्तव्य के सापेक्ष होता है। स्वर्णसिंह समिति की अनुशंसाओं के आधार पर '42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976' के द्वारा संविधान के भाग 4 के पश्चात भाग 4 (क) अंतः स्थापित किया गया और उसके भीतर अनुच्छेद 51 (क) को रखते हुए 10 मूल कर्तव्यों की सूची प्रस्तुत की गई। आगे चलकर '86 वें संविधान संशोधन अधिनियम 2002' के माध्यम से एक और मूल कर्तव्य जोड़ा गया। जिसके तहत 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों के माता-पिता और संरक्षकों पर यह कर्तव्य आरोपित किया गया है कि वे अपने बच्चें अथवा प्रतिपाल्य को शिक्षा प्राप्त करने का अवसर प्रदान करेंगे।

मूल कर्तव्यों को प्रभावी बनाने के उपाय

भारत सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री जे. एस. वर्मा की अध्यक्षता में मूल कर्तव्यों के प्रचालन पर विचार करने के लिए एक समिति गठित की थी। इस समिति में 1999 में प्रस्तुत की गई अपनी रिर्पोट में मूल कर्तव्यों को प्रभावी बनाने के लिए कुछ सुझाव दिये जिनमें प्रमुख हैं-
  1. 3 जनवरी को 'मूल कर्तव्य दिवस' घोषित किया जाये। 3 जनवरी की तिथि इसलिये चुनी गई थी क्योंकि इसी दिन से 42वाँ संविधान संशोधन अधिनियम 1976 लागू हुआ था। जिसमें मूल कर्तव्य भी थे।
  2. मूल कर्तव्यों को विद्यालयों के पाठ्यक्रम तथा अध्यापकों के प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में शामिल किया जाये।
  3. सभी शासकीय कार्यालयों में तथा सार्वजनिक स्थानों पर बोर्ड विज्ञापन आदि के माध्यम से मूल कर्तव्यों को ज्यादा से ज्यादा प्रस्तुत किया जाना चाहिये ताकि लोगों को उनसे परिचित होने का मौका मिलना चाहिये
  4. मीडिया को लगातार ऐसे संदेश तथा कार्यक्रम प्रस्तुत करने चाहिये जिनसे मूल कर्तव्यों के संबंध में जागृति तथा चेतना का प्रसार हो।
  5. मीडिया को ऐसे दृश्य दिखाने से परहेज करना चाहिये जो जनता को उत्तेजित करते हों और उससे मूल कर्तव्यों से विचलित करत े हों।
वर्मा समिति का सुझाव यह भी था कि मूल कर्तव्यों की प्रवर्तनीयता पर बल दिया जाना चाहिये। इसके बाद भी सही बात यही है कि किसी देष की राजनीति का संस्कृति में परिवर्तन करने के लिए सिर्फ सरकारी प्रयास पर्याप्त नहीं होत।े तथ्य यही है कि जब तक देष के लोगों में राजनीतिक जागरूकता तथा कर्तव्य निर्वाह की चेतना विकसित न हो, तब तक मूल कर्तव्यों को लागू करने का उद्देश्य पूर्ण नहीं होगा।

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