अष्टांग योग क्या है अष्टांग योग कितने प्रकार के होते हैं?

अष्टांग योग

अष्टांग योग महर्षि पतंजलि द्वारा रचित व प्रयोगात्मक सिद्धान्तों पर आधारित योग के परम लक्ष्य की प्राप्ति हेतु एक साधना पद्धति है।  महर्षि पतंजलि ने अपने योगसूत्र नामक ग्रंथ में तीन प्रकार की योग साधनाओं का वर्णन किया है।‘अष्टांग’ शब्द दो शब्दों के मेल से बना है अर्थात् अष्ट + अंग, जिसका अर्थ है आठ अंगों वाला।

अष्टांग योग के प्रकार या अंग

पतंजलि द्वारा प्रतिपादित योग को अष्टांग कहा गया है जिसके 8 अंग हैं। इन का संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है।
  1. यम
  2. नियम
  3. आसन
  4. प्राणायाम
  5. प्रत्याहार
  6. धारणा
  7. ध्यान
  8. समाधि

1. यम

इसमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह सन्निहित हैं। पतजंलि योग सूत्र के अनुसार यम केवल 5 होते हैं। ये निम्नलिखित हैंः
  1. अहिंसा
  2. सत्य
  3. अस्तेय
  4. ब्रह्मचर्य तथा
  5. अपरिग्रह
1. अहिंसा - शब्दों से, विचारो से और कर्मों से किसी को हानि न पहुँचाना। अहिंसा यानी हिंसा से दूर रहना अर्थात् विचार, वचन और कर्म में अहिंसा के प्रति सजग और अभ्यासरत रहना है। इसमें हमें करुणा, प्रेम, समझ, धैर्य, और सार्थकता का अभ्यास करने की प्रेरणा मिलती है।

2. सत्य - विचारो में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना। सत्य के अनुसार बोलना और विचार करना, जो कुछ देखा गया, समझा गया या सुना गया है, तदनुसार बोलकर अभिव्यक्त करना और उसे बुद्धि में बनाए रखना‘। पूर्ण रूप से जो सच्चा व्यक्ति होता है, वह बोलकर वही अभिव्यक्त करता है, जो वह मन में सोचता है। 

3. अस्तेय - किसी अन्य की वस्तु को (बिना उसकी अनुमति के) नहीं लेना। तात्पर्य यह कि आचरण और व्यवहार में ईमानदारी बरतना। अष्टांग योग के यम का तीसरा घटक अस्तेय या चोरी न करना है।

4. ब्रह्मचर्य - चतेना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना अथवा सभी इंद्रिय-जन्य सुखों में संयम बरतना। यम के चौथे  घटक में यह विश्वास किया जाता है कि वासनाओं का परित्याग करने से व्यक्ति दिव्य ईश्वर के निकट पहुंचता है। इस यम के अन्तर्गत मानसिक, मौखिक या शारीरिक सभी प्रकार के वासनामय सुख से दूर रहने पर जोर दिया गया है।

5. अपरिग्रह - अपरिग्रह का शाब्दिक अर्थ है सांसारिक वस्तुओं का संचय न करना, उनके प्रति मोह न हो। आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों  की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना।

2. नियम

नियम अष्टांग योग का दूसरा अंग है। इसमें शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर-प्रणिधान सन्निहित हैं। नियम हमारे आत्म नियमन के लिए होते हैं, जिनसे एक सकारात्मक वातावरण बनाए रखने में सहायता मिलती है, जिससे हमारा विकास होता है। पतंजलि ने 5 नियमों का उल्लेख किया हैः
  1. शौच
  2. सन्तोष 
  3. तप 
  4. स्वाध्याय
  5. ईश्वर प्रणिधान
1. शौच - शौच से तात्पर्य है बाह्य और आंतरिक परिशुद्धता। 

2. सन्तोष - लालच और लोभ पर नियंत्रण तथा प्रत्येक स्थिति में संतुष्ट रहने का प्रयास करना। जितना हमने ईमानदारी से परिश्रम करके अर्जित किया है, उससे अधिक की इच्छा नहीं होनी चाहिए। संतोष से आनन्द प्राप्त करने का अभ्यास होता है - हर अवस्था मे  शान्ति को कायम रखना। 

3. तप - योग दर्शन में तीसरे नियम यानी तप के विषय में वर्णित है कि भूख और प्यास, शीत और गर्म, स्थान और स्थिति की असुविधाओं का सामना करते हुए मौन होकर ध्यान और व्रत किया जाए। 

4. स्वाध्याय - ग्रंथो का अध्ययन और उनके पाठों पर मनन तथा स्वयं ज्ञान का सृजन करना। महर्षि व्यास के अनुसार स्वाध्याय के अन्तर्गत धर्मग्रन्थो  का अध्ययन है।  धर्मग्रन्थ हैं - वेद, उपनिषद आदि। गायत्री मंत्र और ओम मंत्र को जपना भी इसके अन्तर्गत शामिल है। 

5. ईश्वर प्रणिधान - ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा। ईश्वर प्रणिधान को व्याख्याकारों  ने समस्त कर्मों को चाहे वे बुद्धि द्वारा किए जाते हो वचन अथवा शरीर द्वारा किए जाते हो, उन्हें दिव्य ईश्वर को समर्पित किए जाने के रूप में वर्णित किया है। ऐसे कर्मों के परिणाम पर अन्य किसी का अधिकार नहीं है, इसलिए यह दिव्य ईश्वर के निर्णय पर निर्भर है। नश्वर मन को सामान्य रूप से दिव्य ईश्वर की अनुभूति समर्पण, परिशुद्धि, प्रशान्ति और मन की एकाग्रता से हो सकती है। इस दिव्य ध्यान से योगी के जीवन के सभी पहलू प्रभावित हो जाते हैं।

3. आसन

महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में आसन को परिभाषित किया है: ‘स्थिरसुखमासनम्‘ आसन सुखपूर्वक एक स्थिति में जम कर स्थिर हो जाना है, पतंजलि इसे इसी प्रकार पारिभाषित करते हैं। आसनों का उद्देश्य स्वस्थ रहना और मन पर नियंत्रण रखना है।

आसनों का अभ्यास धीर-े धीर े किया जाता है और शरीर को किसी विशेष स्थिति में लम्बे समय तक रखा जाता है। ऐसा करने से मांसपेशियां मजबूत होती हैं। इनसे ऊर्जा का संरक्षण होता है, राजसिक स्वभाव यानी उग्रता मे ं कमी आती है और मन की चंचलता कम होती है, जिससे तनाव समाप्त हो जाता है। यही आसनों की मुख्य विशेषता होती है।

आसनों का वर्गीकरण - शवासन, मकरासन, शीतल ताड़ासन और शीतल धनुरासन विश्रान्ति वाले आसन हैं। पद्मासन, सिद्धासन, वज्रासन और सुखासन आदि को ध्यानस्थ आसन कहा जाता है। अन्य सभी आसन सांस्कृतिक आसन कहलाते हैं। ये आसन विशेष रूप से हमारे व्यक्तित्व के संवर्धन के लिए होते हैं। 

4. प्राणायाम

पतंजलि के अनुसार तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः (प.यो.सू. 2.49) अर्थात् अन्तःश्वसन और बहिःश्वसन (श्वास व उच्छ्वास) की गति को तोड़ना प्राणायाम कहलाता है। सरलतम प्राणायाम किसी भी सुविधाजनक स्थिति में विश्राम की अवस्था में बैठ कर धीरे-धीरे श्वसन करना होता है। यह सुलभ प्राणायाम होता है। प्रगति की दृष्टि से श्वास लेते समय शीतल वायु की अनुभूति कीजिए और बाहर छोड़ते समय गर्म वायु की अनुभूति होती है। जब भीतर श्वास लेते हैं तो ऐसा लगना चाहिए की पूरे शरीर में ऊर्जा का संचार हो रहा है और जब श्वास धीरे-धीरे बाहर दोड़ते हैं तो पूरे शरीर में विश्रान्ति की अनुभूति होती है, जिससे आगे लाभ होता है। इस प्राणायाम को किसी भी दिन किसी भी समय खड़े होकर, बैठकर अथवा लेटकर किया जा सकता है।

नाडीशुद्धि प्राणायाम में अन्तः श्वसन बायीं नासिका छिद्र से और बहिःश्वसन दायीं नासिका छिद्र से धीरे-धीरे किया जाता है। अगला अन्तःश्वसन दायीं नासिका छिद्र से और बहिःश्वसन बायीं नासिका छिद्र से किया जाता है, इससे एक चक्र पूरा होता है। इस अभ्यास से श्वास में संतुलन और श्वसन मार्गों में स्वच्छता कायम हो जाती है।

अगला प्राणायाम उज्जायी प्राणायाम है। इसमे ं वायु श्वास नली में अवरूद्ध होती है और वायु नली में एक ‘हिश‘ सी आवाज होती है, जो अवरुद्धता की अलग-अलग सी ध्वनि (सामान्य आवाज के विपरीत) होती है। इससे गले के आसपास संवेदनशीलता आ जाती है।

प्राणायाम की अगली श्रेणी भ्रामरी प्राणायाम से शुरु होती है। यहां पर नासिकाओ  से श्वसन सामान्य होता है किन्तु जब सांस छोड़ी जाती है तो मादा मक्खी की सी आवाज (हम्मम) निकलती है। पूरे शरीर में आवाज गजूंती ह ै और मन के विकारों का शमन होता है और मन शांत हो जाता है। 

5. प्रत्याहार

इन्द्रियो पर नियन्त्रण करने से जब इन्द्रियो का उनके विषयों से सम्बन्ध टूट जाता है तब इन्द्रियाँ चित्त स्वरूप हो जाते है जैसा कि योगसूत्र में कहा गया है-  स्वविषयासम्प्रयोगे चित्त्स्वरूपानुकर इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः। पा. यो. सू. 2.54 तात्पर्य यह है कि इन्द्रियो का निग्रह ही प्रत्याहार है।  जब इन्द्रियाँ विषयों की तरफ नहीं भागती हैं तो चित्त स्थिर हो जाता है। यही प्रत्याहार की स्थिति है।

6. धारणा

यह अभ्यास किसी एक वस्तु पर ध्यान केंद्रित करने से संबद्ध है, जिससे कि वांछित एकाग्रचित्तता विकसित की जा सके। प्रारंभिक रूप से मन में कई प्रकार के विचार और विषय तैरते रहते हैं। एकाग्रता के माध्यम से इन विचारो ं और विषयो को कम किया जाता है और उसके बाद मन को एक विषय के ऊपर या एक विचार के ऊपर केन्द्रित किया जाता है। धारणा की यही अवस्था है। यह त्राटक की एक क्रियाविधि होती है। जलती हुई मोमबत्ती हम अगर आंखों के पास ले जाते हैं और मोमबत्ती की लौ को ही एक तरफ से देखते रहते हैं तो यह एकाग्रता का उदाहरण है। यही धारणा होती है।

7.  ध्यान

इसका तात्पर्य मन को निर्बाध रूप से एक ही पदार्थ वस्तु की ओर केंद्रित किए रखना है। धारणा का दूसरा सोपान ध्यान या मेडीटेसन होता है। यदि धारणा केन्द्रित होती है तो ध्यान विकेन्द्रित होता है। पतंजलि हमें ध्यान के बारे में बताते हैं कि यह प्रयासहीन धारणा है। जैसाकि धारणा के अंतर्गत यदि विपरीत रूप से ध्यान को केन्द्रित किया जाता है तो प्रयासहीन ध्यान के अंतर्गत पूरा विकेन्द्रीकरण होता है। यह पतंजलि के अष्टांग योग का सातवां अंग है।

8. समाधि

शुद्ध चेतना में विलय अथवा आत्मा से जुड़ना, शब्दों से परे परम-चैतन्य की अवस्था। ध्यान से पूर्व मन में अनेक यादृच्छिक विचार विद्यमान होते हैं। ध्यान की अवस्था में ये सब विचार समाप्त हो जाते हैं। तब केवल वही वस्तु दिखाई देती है जिस पर ध्यान केन्द्रित होता है। ध्यान की परिपक्व अवस्था आने पर उस वस्तु का ज्ञान भी नहीं रहता है। उस अवस्था में द्रष्टा और दृश्य का भेद मिट जाता है। द्रष्टा चैतन्य रूप हो जाता है। यही समाधि है। सम्यक् आधीयते इति समाधिः अर्थात् गहन तल्लीनता अथवा महा-चेतनता ही समाधि है।

अष्टांग योग का महत्व

अष्टांग योग के अभ्यास से शारीरिक, मानसिक और आत्मिक उन्नति होकर क्रम से पंचविभाग वाली अविद्या नष्ट होती है। अविद्या के नाश हो जाने से तज्जन्य अंत:करण की अपवित्रता का क्षय होता है और आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। जैसे-जैसे साधक योगांगों का आदरपूर्वक अनुष्ठान करता है, वैसे-वैसे ही उसके चित्त की मलिनता का क्षय होता है और मलिनता क्षय के परिणाम में उसके चित्त में ज्ञान की उत्कृष्टता होती जाती है। 
अष्टांग योग के महत्व के सन्दर्भ में अन्य विद्वानों की व्याख्या इस प्रकार है-
  1. महर्षि व्यास के अनुसार - योग के आठ अंगों के अनुष्ठान करने से, निरन्तर अभ्यास करने से अशुद्धि रूप पांचों क्लेश रूपी मिथ्या ज्ञान का नाश हो जाता है और उस मिथ्या ज्ञान रूपी अशुद्धि के क्षीण हो जाने पर तत्वज्ञान की अभिव्यक्ति होती है
  2. आचार्य श्रीराम शर्मा के अनुसार -योगांगों का सम्यक रूप से अनुष्ठान करने अर्थात अभ्यास द्वारा आचरण में लाने से चित्त के क्लेश (मल) रूपी विकार नष्ट हो जाते हैं और ज्ञान का प्रकाश प्रकट हो जाता है अर्थात चित्त निर्मल हो जाता है।
  3. स्वामी विवेकानन्द के अनुसार योग के विभिन्न अंगों का अनुष्ठान करते-करते जब अपवित्रता का नाश हो जाता है तब ज्ञान प्रदीप्त हो उठता है, उसकी अंतिम सीमा है विवेकख्याति। 
  4. स्वामी ओमानंद तीर्थ के अनुसार- योग के आठ अंगों के अनुष्ठान से क्लेश रूपी अशुद्धि दूर होती है और सम्यक ज्ञान का प्रकाश बढ़ता है। 
  5.  स्वामी हरिहरानंद आरण्य के अनुसार- क्लेश समूह या अविद्यादि पांच प्रकार के अज्ञान प्रबल रहने से भी श्रुतानुमानजनित विवेकज्ञान होता है। 
  6. महर्षि दयानन्द के अनुसार योग के आठ अंगों के अनुष्ठान से अविद्यादि दोषों का क्षय और ज्ञान के प्रकाश की वृद्धि होने से जीव यथावत मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। 

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